आदमी के बारे में सोचते हुए (कहानी) : बलराम अग्रवाल

Aadmi Ke Bare Mein Sochte Hue (Hindi Story) : Balram Agarwal

पाँचों लोग तीन-तीन पैग गले से नीचे उतार चुके थे और काफी गम्भीर नज़र आने लगे थे। यों शुरू से ही वे चुप बैठे हों, ऐसा नहीं था; लेकिन तब उनकी बातों का केन्द्र बोतल और उसमें कैद लालपरी थी। उसे पेट में उतार लेने के बाद उन्हें लगा कि पीने-पिलाने को लेकर अब तक हुई सारी बातें और बहसें बहुत छोटे और ओछे लोगों जैसी थीं। अब कुछ बातें देश और दुनिया के बारे में होनी चाहिए। यही सोचकर वे गम्भीर हो गए थे।

अपने इस कमरे को तेजिन्दर ने ऐसे ही मौकों के लिए खास तौर पर बार की तरह डेकोरेट कराया था। उसकी एक दीवार पर एक मशहूर शराब-कम्पनी का फुल-लैंथ कैलेण्डर लटका था, जिसमें छपी मॉडल की मुद्रा उत्तेजक तो थी ही, धर्म का मुखौटा चढ़ाकर घूमने वाले पंचसितारा सामाजिकों के लिए इतनी अश्लील भी थी कि उसे मुद्दा बनाकर अच्छा-खासा बवाल मचाया जा चुका था। कैलेण्डर के सामने वाली दीवार पर एब्सर्ड आर्ट के तीन फ्रेम फिक्स थे—नीचे से देखो तो चढ़ते क्रम में और ऊपर से देखो तो उतरते क्रम में, सीढ़ीनुमा। सिवा कुछ रंगों के, बुद्धिमान-से-बुद्धिमान आदमी के लिए उनमें चित्रित आकारों को पहचानना असंभव था। बीच वाली दीवार पर 42 इंची एल॰ ई॰ डी॰ टीवी चस्पाँ था जिस पर कोई उत्तेजक अंग्रेजी फिल्म बेआवाज़ चल रही थी। कोने में रखी मेज पर म्यूजिक-सिस्टम था, बहुत ही धीमे वॉल्यूम में मादक धुन बिखेरता हुआ। ट्यूब्स ऑफ थीं और सीलिंग में जड़े एल॰ ई॰ डी॰ बल्बों में से दो को ऑन करके कमरे को हल्के नीले प्रकाश से भरा हुआ था। सीलिंग फैन नहीं था, ए॰ सी॰ था जिसको ऑन रहना ही था।

“मुझे लगता है…ऽ…कि यह दे…ऽ…श एक बार फिर टूटेगा…आजकल के नेताओं से…ऽ… सँभल नहीं पा रहा है।” गम्भीरता को तोड़ते हुए संदीप ने बात छेड़ी।

“सँभल नहीं पा रहा है?” संजू ने चौंककर कहा,“अबे…ऽ…देश में नेता ऐसा कोई बचा ही कहाँ है जो देश को सँभालने की चिन्ता पालता हो?…सब साले दल्ले हैं।”

राजेश को क्योंकि पढ़ने का बहुत शौक था, इसलिए बोलने को उसके पास बाकी दोस्तों के मुकाबले कुछ-ज्यादा बातें रहती थीं। उससे रहा नहीं गया। बोला,“या…ऽ…र , मेरी बात को तुम लिखकर रख लो—जब तक समाजवाद को ठीक से नहीं अपनाया जाएगा, तब तक न देश का भला होगा और न दुनिया का।”

“ऐ…ऽ…ऐसी बात है…ऽ…तो सबसे पहले हमीं…क्यों न उसे अपनाएँ!” गिर-गिर जाती गरदन को कंधे पर टिकाए रखने की कोशिश करते राजीव ने अटक-अटककर कहा,“दुनिया के लिए न सही…देश के लिए तो हमारी…कुछ न कुछ जिम्मेदारी…है…ऽ… ही।”

“यार, मेरा खयाल है…ऽ…कि किसी चीज को…ऽ…जाने-समझे बिना अपना-लेना…ऽ…बाल-बराबर भी…ऽ…ठीक नहीं है। हम जानते ही कितना है?” संदीप ने टोका। उसकी गरदन तो काबू में थी लेकिन पलकें साथ नहीं दे रही थीं। किसी तरह उन्हें झपकने से रोकते हुए बोला,“जब तक समाजवाद के मतलब मेरी समझ में साफ नहीं हो जाते, तब तक कम से कम मैं तो…ऽ…।”

“मतलब मैं समझाता हूँ तुझे…!” उसके कंधे को थपककर तेजिन्दर ने कहा और चौथा पैग तैयार कर रहे संजू से बोला,“मेरा वाला थोड़ा लाइट ही रखना…बस इतना…ठीक। हाँ, तो समाजवाद उस खूबसूरत दुनिया को देखने का सपना है मेरे बच्चे, जिसमें घोड़ियाँ बकरों के साथ, बकरियाँ ऊँटों के साथ, ऊँटनियाँ कुत्तों के और कुत्तियाँ घोड़ों के साथ यों-यों कर सकेंगी।” अपनी बात के आखिरी शब्दों को कहते हुए उसने दाएँ हाथ की मुट्ठी को मेज की सतह के समान्तर हवा में चलाया—आगे-पीछे। पैग बनाकर संजू ने इस बीच गिलास को उसके आगे सरका दिया था। उसने गिलास उठाया और सिप करते ही कड़वा-सा मुँह बनाकर संजू से बोला,“अभी भी स्ट्रौंग है यार, थोड़ा पानी और डाल।” पानी डलवाकर उसने एक बार फिर सिप किया। बोला,“अब ठीक है।”

समाजवाद की उसकी इस व्याख्या पर राजेश के अलावा सभी हँस पड़े।

“क्या सही समझाया है…” संदीप हँसते-हँसते बोला,“मान गए! अपने ऊपर हमें नाज़ है बेटे, कि एक असरदार सरदार हमारा यार है।”

“मैं अपना दिमाग साथ बाँधे घूमता हूँ बेटे। तुम्हारी तरह खजूर के पेड़ पर नहीं लटका आता।” अपनी पगड़ी पर थपकी देकर तेजिन्दर बोला। इस बात पर एक-और ठहाका लगा। राजेश इस बार भी नहीं हँसा। उसकी हालत भीतर से झुलसे हुए परेशान आदमी जैसी थी जिसके लिए ऐसी वाहियात बातों पर मुस्कराना मुमकिन नहीं।

“जो लोग चाँदी का चम्मच मुँह में लेकर पैदा होते हैं, समाजवाद उनकी समझ में आने वाला सिद्धांत नहीं है।” सब ठहाका लगा चुके तो झुलसे हुए राजेश ने बोलना शुरू किया,“जिनके पेट भरे हुए हैं, गरीबी और भुखमरी से जूझने की उनकी बातें वोट बटोरने वाली राजनीति के अलावा कुछ-और सिद्ध हुई हैं आज तक? इस ए॰ सी॰ रूम में बैठकर मँहगी व्हिस्की और तले हुए काजुओं को बीच में रखकर समाजवाद पर चिन्तन कर रहे हैं—वाह! पेट भरा हो तो आदमी को आदमी—आदमी नहीं कुत्ता नजर आता है, साँप-बिच्छू-नाली का कीड़ा नजर आता है। पेट भरने के लिए जब रोटी बेस्वाद लगने लगे और जीभ रह-रहकर डोमिनो के पीज़ाज़ की ओर लपलपाने लगे तब आम आदमी के बारे में सोचते हुए हमें डर लगने लगता है…।” हाथ में थाम रखे पैग़ को मेज पर रखते हुए उसने ‘हिच्च’ की और नजरें दोस्तों पर गड़ाईं।

यार लोगों को उससे शायद ऐसे ही किसी वक्तव्य की उम्मीद थी, इसलिए सब-के-सब दम साधे उसका बयान सुनते रहे। जहाँ तक उसका अपना सवाल था—या तो उसका काम तीसरे पैग में ही तमाम हो गया था या फिर चौथा कुछ-ज्यादा हैवी हो गया था; क्योंकि जैसे-जैसे वह उसे खत्म करता जा रहा था वैसे-वैसे उसकी आवाज में भारीपन आता जा रहा था।

“एक तरफ हम हैं…हम, जो इस महँगे ब्राण्ड का पहला-दूसरा या तीसरा नहीं, चौथा पैग चढ़ा रहे हैं…।” मेज पर रखी बोतल को हाथ में उठाकर दिखाता हुआ वह बोला,“और दूसरी तरफ……कहाँ तो बाहर चल रही लू से बचने की जुगत में किसी नीम या पीपल के साये में बैठकर ठर्रे के साथ लोग उँगली से नमक चाट-चाटकर काम चला रहे हैं, और कहाँ हम—जो नमकीन के नाम पर तले हुए मसालेदार काजुओं की प्लेट बीच में रखे हुए इस लग्ज़री रूम में बैठे हैं। एक तरफ मेहनत कर-करके हर तरह से थके और हारे वो लोग हैं जिन्हें शाम को भरपेट भात भी मयस्सर नहीं। वे अगर शराब पीते भी हैं तो पाँच-सात-दस रुपए में काँच का एक छोटा गिलासभर कच्ची…जिसे पीने के बाद उन्हें इतने ग़ज़ब का नशा होता है कि गिरने के बाद वे कभी उठ भी पाएँगे या नहीं, वे नहीं जानते…और दूसरी ओर…।”

“इस आदमी के साथ यार यही खराबी है।” उसकी बात को बीच में ही काटकर तेजिन्दर तुनककर बोला,“ये बातें कम करता है भाषण ज्यादा झाड़ता है…उतार के रख देता है सारी की सारी…।” कहते-कहते वह राजेश की ओर घूमा और व्यंग्यपूर्वक बोला,“इस साले पर मसीहा बनने का जुनून सवार है। अबे…ऽ… व्हिस्की के दौर चल रहे हैं, छत में सितारे जगमगा रहे हैं, सामने अप्सरा पड़ी है…” कैलेण्डर की ओर इशारा करते हुए उसने बात को जारी रखा,“और तू है कि फिलॉसफी झाड़ने को बैठ गया! ओए, तू क्या चाहता है कि भूखे-नंगों को भी मैक्डूवेल मिलने लगे?”

“तुम लोग इस थ्योरी को समझ ही नहीं पाओगे।” तेजिन्दर की ओर ताकते हुए राजेश क्षुब्ध-स्वर में बोला,“…और तू तो कभी भी नहीं।”

“ओए थ्योरी गई तेल लेने…” तेजिन्दर आँखों को पूरी खोलकर उसपर गुर्राया,“और मेरी समझ में वो क्यों नहीं आएगी, मैं सरदार हूँ इसलिए?”

“बात को मजाक में उड़ाने की कोशिश मत कर।” राजेश गम्भीरतापूर्वक बोला,“तू अच्छी तरह जानता है कि मैं सरदार और मोना नहीं मानता…और ना ही ऊँच और नीच!”

“फिर?” तेजिन्दर ने पूर्व अन्दाज में ही पूछा।

“फिर यह…कि तेरा पेट भरा है और भेजा खाली है…।”

“अभी-अभी तो तू कह रहा था कि तू सरदार और मोना नहीं मानता…और अभी-अभी तू मेरा यानी कि एक सरदार का भेजा खाली बताकर उसका मजाक बना रहा है?” तेजिन्दर तड़का।

उसकी इस बात पर राजेश ने दोनों हाथों में अपना सिर थाम लिया। बोला,“ओए, कोई इसे चुप रहने को कहो यार। यह अगर इसी तरह बेसिर-पैर की हाँकता रहा तो…।”

“अब—‘बेसिर-पैर’…देख, तू लगातार मुझे ‘सरदारों’ वाली गालियाँ दे रहा है…” इस बार आवेश के कारण वह कुर्सी से उठकर खड़ा हो गया और राजेश की ओर उँगली तानकर बोला,“देख, दोस्ती दोस्ती की जगह है और इज्जत इज्जत की जगह…अब अगर एक बार भी सरदारों वाला कमेंट मुँह से निकाला तो ठीक नहीं होगा, बताए देता हूँ…”

तेजिन्दर की इस मुद्रा पर बाकी तीनों दोस्त गम्भीर हो गए। अच्छा-खासा ठण्डक-भरा माहौल एकदम-से इस कदर उबाल खा जाएगा, उन्होंने सोचा नहीं था। राजेश हथेलियों में सिर को थामे जस-का-तस बैठा रहा। चारों ओर सन्नाटा पसर गया…साँस तक लेने की आवाज सुनाई देने लगी!

कुछेक पल इसी तरह गुजरे। फिर एकदम-से जैसे बम फटा हो—तेजिन्दर ने जोर का ठहाका लगाया—हा-हा-हा-हा…ऽ…!

“इन साले भरे-भेजे वालों की शक्लें देख लो…।” ठहाका लगाते-लगाते ही वह बोला,“ऐसे बैठे हैं, जैसे मुर्दा फूकने आए हों मादरचो…। अबे, मेरे एक छोटे-से मजाक को तुम नहीं समझ सकते तो मुझे किस मुँह से बेअकल बता रहे हो खोतो?”

“ओ छोड़ ओए।” राजीव लगभग गुस्से में बोला,“ये भी कोई मजाक था? डरा ही दिया हम सबको…।”

“ओए डराने वाली तो कोई हरकत मैंने की ही नहीं!” तेजिन्दर बोला।

“अबे डराने के लिए तुझे अलग से कोई हरकत करने की जरूरत नहीं होती।” राजीव बोला,“तू सरदार है और तेरा गुस्से में खड़े हो जाना ही हमें डराने के लिए काफी होता है।”

“और अगर बिना गुस्से के खड़ा हो जाए तो…तब तो नहीं न डरोगे?” तेजिन्दर ने तुरन्त पूछा।

“ओए तेरी तो…” उसकी इस बात पर राजीव ने उस पर झपट्टा मारा, लेकिन तेजिन्दर खुद को बचा गया।

“ओए ये हुड़दंगबाजी छोड़ो, काम की बात पर आ जाओ यार।” संजू उन्हें रोकता हुआ बोला,“इस राजेश की सारी बात मेरी समझ में आ गई। इसके कहने का मतलब ये है कि समाजवाद सिर्फ उसकी समझ में आ सकता है, जिसका पेट भले ही खाली हो, लेकिन दिमाग खाली न हो !”

“बिल्कुल ठीक।” राजीव बोला। राजेश चुप बैठा रहा, जला-भुना सा।

“हाँ, उसमें चाहे गोबर ही क्यों न भरा हो।” तेजिन्दर ने फिर चुटकी ली। उसकी लगातार की चुटकियों से राजेश इस बार उखड़ ही गया।

“तुझ हरामजादे के कमरे पर आना और फिर साथ बैठकर पीना…लानत है मुझपर!” खाली गिलास को मेज पर पटककर वह उठ खड़ा हुआ।

“यह बात तो तू हमारे साथ वाली हर मीटिंग में कहता है।” तेजिन्दर होठों और आँखों में मुस्कराता उससे बोला,“आने वाली मीटिंग में भी तू यही कहेगा।”

“माँ की…स्साली आने वाली मीटिंग की…धत्…” क्रोधपूर्वक खड़े होकर राजेश ने अपनी कुर्सी पीछे को फेंक दी और तेजी के साथ कमरे से बाहर निकल गया।

उसके निकलते-ही तेजिन्दर बनावटी-तौर पर मुँह लटकाकर संजीदा आवाज में संजू से बोला, “समाजवाद तो उठकर चला गया…अब हमारा क्या होगा कालिया?”

उसकी इस हरकत पर बहुत तेज एक-और ठहाका उन रईसजादों के कण्ठ से निकलकर कमरे में गूँज उठा। इतना तेज कि कमरे की एक-एक चीज हिल गई, पारदर्शी साड़ी के एक छोर से नितम्बों को ढके उल्टी लेटी अप्सरा भी।

“एक बात बताऊँ?” संदीप बोला,“मैंने जानबूझकर छेड़ी थी देश और नेताओं वाली बात।”

“वह तो मैं तेरे बात छेड़ते ही समझ गया था।” राजीव बोला।

“अबे मैं ड्रामे ना करता तो उसे अभी और-बोर करना था हमें।” तेजिन्दर बोला,“मैंने भी तो सोच-समझकर ही माहौल क्रिएट किया उसे भगाने का।…ला, एक-एक हल्का-सा फाइनल पैग और बना।”

संजू ने पैग बनाए। तीनों ने फाइनल दौर के अपने-अपने गिलास उठाए, चियर्स किया और गले में उँड़ेल गए। उसके बाद उन्होंने अपने-अपने सिर कुर्सियों पर पीछे की ओर टिकाये, टाँगें मेज पर पसारीं और आँखें मूँदकर संगीत की धुन पर पाँवों के पंजे हिलाने शुरू कर दिए—ला…ऽ…ला-ला-ला…ऽ…लालला…ऽ…लालला…ऽ…।

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