आधा दिन : आधी रात (कहानी) : हिमांशु जोशी
Aadha Din : Aadhi Raat (Hindi Story) : Himanshu Joshi
हमेशा की तरह सुबह वह जागी। द्वार खोला। देखा—हिम पिघल चुका है अब। पाले की तह धरती पर बिछी है, सफेद झीनी चादर की तरह। बर्फ केवल दूर ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों या आसपास की ठंडी घाटियों में ही शेष रह गई है।
दिन अभी निकला नहीं। वह अपनी धोती और वर्षों से न मंजी काली कलसी लिये नहाने चली गई। पगडंडी पर आज वह सबसे पहले चल रही थी। पाले की मोटी जमी परत काँच की तरह टूट-टूट आ रही थी। ठिठुरते नंगे पाँवों के निशान धरती पर छूट रहे थे।
आँगन में उगाए तुलसी के पौधे तुषार से न जाने कब के झुलस आए! फिर भी वह नहा-धोकर जल चढ़ा रही थी। बासी-रूखी रोटियाँ भी न बची थीं आज। फूटी गगरी, टूटी हंडिया उलट-पुलटकर देखी। कुल बटोरकर दो दाने पत्थर-कंकड़ मिले चावल के निकले। उन्हें ही बीन-बीनकर पोले मुँह में उड़ेलने लगी। झटपट रस्सी कुल्हाड़ी निकाली और भाग-दौड़ मचाने लगी। पास-पड़ोस की सभी तो जंगल चली गईं! फिर सुबह अकेली कैसे जाएगी?
बगिया पार की। वन आया। सभी औरतें देवदार के उस वन के मुहाने पर घेरा बनाए बैठी थीं। हँसिया-कुल्हाड़ी की धार पत्थर पर घिस-घिसकर तेज कर रही थीं। हाँफती हुई वह भी पहुँची। देखा, सभी जंगल चलने के लिए तैयार हैं। पड़ोसिन की बहू बिंदी उसके सबसे सफेद बालों की ओर देखती हुई पूछने लगी—“आमा (दादी), बड़ी देर कर दी आज! तू तो चल भी नहीं पा रही है। फिर जगंल ऐसे में क्यों आई? जर-बुखार तो नहीं?”
कुछ भी उत्तर उससे बन न पाया। कुछ भी वह कह न पाई। सहसा सभी उठ खड़ी हुईं। चलने लगीं। वह भी पीछे-पीछे चल पड़ी चुपचाप।
बहुत-सी रोज देर में आनेवाली औरतें आज खुश थीं कि वे ठीक समय पर पहुँच गईं। देर न होने पाई। पाठशाला में छुट्टी हुई है। इसलिए बच्चों को जल्दी खाना खिलाना न पड़ा। वैसे ही सभी खेलने चले गए।
पर, ललिया की माँ बीच में ही टोक पड़ी—“छुट्टी कहाँ है? पाठशाला तो आज और दिनों से पहले ही खुल गई थी। झंडा लिये सुबह-सुबह सभी गाना गा रहे थे। ललिया से सुबह जंगल गाय हाँक आने को कह रही थी। बिगड़ उठा। ‘स्कूल जाना है। देर से छुट्टी होगी!’ कहता हुआ भूखा ही भाग खड़ा हुआ।”
“ठीक तो कह रहा था।” दूसरी ने बात पूरी कर दी, “आज के दिन सारे देश में सभी जगह सरकारी छुट्टी होती है, पाठशाला में भी पढ़ाई नहीं, खेल-तमाशे होते हैं। मिठाई बँटती है।”
अधिकांश के पल्ले अधिक कुछ न पड़ पाया। छुट्टी है। बच्चों को मिठाई बँटती है। यह जानकर खुशी अवश्य हुई। सभी चुप थीं अब। वह ठीक जो कह रही थी। दफा तीन पास है। पढ़ी-लिखी है। गलत कैसे बोलेगी?
बड़ी मुश्किल से बुढ़िया जंगल से लौट पाई। खोले (बावड़ी) से तीन-चार बार पानी पिया, तब कहीं कुछ साँस आई। बिंदी, बच्चू, उमेदी, मन्नू की काकी ने अपनी- अपनी तोड़ी लकड़ी में से दो-दो उसे भी दे दीं। बुढ़िया की बीटी (गट्ठरिया) तैयार हो गई। किसी तरह मरती-जीती हाँफती-काँपती सबसे पीछे घर पहुँच पाई।
दोपहर को सभी लौटीं। कुछ चूल्हा जलाने में जुट गईं। कुछ के घर खाना भी पका-पकाया तैयार रखा था। और कुछों के लिए रखा जा रहा था। पर बुढ़िया केवल ठंडा पानी पी के रह गई। वैसी ही लेटी देर तक पड़ी रही। तभी पड़ोसिन की बहू बिंदी चुपके से आई। पूछा—“आमा, खाना खा लिया?”
बुढ़िया कुछ न बोली। केवल पड़ी-पड़ी देखती रही। अपने आँचल में छिपाई दो पूड़ियाँ निकाल कर उसने सामने रख दी। “यह तुम्हारे हिस्से की। मैके से दीदी आई थी। खाली हाथ क्या आती! माँ ने ही भिजवाया होगा!” कहती हुई बिंदों दबे पाँव वैसे ही लौट चली।
बुढ़िया देखती रही, अपलक। गोल-गोल काली पूड़ियाँ, मडुवे की। भीनी- भीनी सुगंध। उसके मुँह में पानी भर आया। धीरे-धीरे अपने काँपते हुए हाथों से टुकड़ा तोड़ने लगी। उसकी बूढ़ी आँखें देखती रहीं। पलकों के कोर कुछ भीग आए। दिल बुझा-बुझा-सा रुआँसा हो आया। चुपचाप वह सूखी पूड़ियाँ तोड़ने लगी। बिना दाँतों के चबाकर निगलने लगी। लोटा भर पानी पी लिया। फिर कुछ राहत मिली।
दोपहरी ढल गई। एक नींद निकालने के बाद फिर आँखें खुलीं। देखा कि अभी दिन डूबने में समय है। अत: वह न चाहते हुए भी फिर दूसरी बार लकड़ी तोड़ने चल पड़ी। आटा खत्म है कल से। चुटकी भर भी न बचा अब। एक भी दाना किसी अन्न का नहीं। न मकई मांदरे का, न जौ मडुवे का। कुछ भी नहीं।
इसलिए उसे आज कुछ अधिक पैसों की जरूरत है। कोई-न-कोई नाज तो मुट्ठी भर मिलेगा ही।
उस ठंड में भी वह पसीने से भीग आई। थर-थर पाँव काँपने लगे। सूखे सफेद खजूर की तरह झुर्रियों से भरा चेहरा थकान से और पीला पड़ गया। मुरझा आया। उभरी नसें और उभर गईं। दम फूल उठा। ऊँट की पीठ-सी चढ़ाई, लकड़ी के भार से कमान की तरह झुकी कमर! फिर भी किसी तरह मन भर के भारी कदम आगे घसीटने लगी।
रात घिर आई। चाय वाले की भट्ठी पर पहुँची। बड़ी हुज्जत के बाद लकड़ियाँ बिक पाईं। दूसरे लोग खींच-तानकर धेला पैसा बढ़ा भी लेते हैं। पर बड़े ही एहसान के बाद बनिए ने तीन आने उसके हाथ में पटक ही दिए।
राशन की दुकान पर बड़ी उम्मीद लिये वह लपकी। पर, दिल धक से रह गया, जब देखा कि द्वार मुँदे हैं। देर तक इधर-उधर पूछताछ करती रही। सभी से एक ही उत्तर मिला कि सरकारी छुट्टी हैं आज। सुबह से दुकान खुली ही नहीं।
उसकी समझ में न आया। अब क्या करे? मोहन मिलता तो उससे जबरदस्ती दुकान खुलवाती। गिड़गिड़ाती। मान-विनती करती। पकड़ती। ठोड़ी-पाँव छूती। मुट्ठी भर आटा तो ले ही जाती। पर, उसका पता कहाँ? कहते हैं—भाट गाँव में गाना-बजाना है। बैठक से उठ के भला कौन आता है!
पर, आज वह क्या खाए? पेट में क्या ठूँसे? पैंचा (उधार) किस-किस से ले! कब तक ले? और कौन दे? बड़े-बड़े जमींदार (किसान) तक जब अनाज खरीदने पर उतर आए तो फिर उसकी क्या बिसात? इस साल अकाल क्या पड़ा। राशन की दुकान क्या खुली! सबकी मिट्टी-पलीद हो गई, इज्जत उड़ गई।
चौराहे पर खड़ी-खड़ी उदास-सी वह कुछ सोचती खड़ी रही। सहसा सामने निगाह पड़ी। बिसाती की दुकान पर अनेकों चीजें दिखलाई दीं उसे। गुड़ की कतार बाँधे भेलियों पर निगाह टिक गई। उसके पोले मुँह में पानी छलक आया। एकाएक कदम कुछ आगे बढ़े। गुड़ खरीदने लगी वह, पूरे तीन आने का एक साथ। खरीद चुकने पर होश तो आए, पर फिर क्या? वैसी ही लौट पड़ी।
पास-पड़ोस के कुछ घरों में अभी-अभी दीये जलते दीखे। एक-आध से पूछा भी। पर, पल्ले कुछ न पड़ा।
अपनी धुँधली निगाहों से वह देखने लगी—अनेक घरों में दीपक जगमगा रहे हैं। दीवाली की तरह। खयाल आया, पिछले साल भी जले। उससे पहले—पहले भी तो कुछ वर्षों से हमेशा इस दिन जलते आए हैं। पर, क्यों? क्या? यह सब समझ से परे था।
अंधियारी झोपड़ी में जाड़े से सिमटी वह आँच के सहारे बैठ गई। तभी खयाल आया—उसकी डिबिया में भी तो शायद कुछ तेल बचा है। मेहमानों के आने पर कभी कुछ छौंकने के लिए रखा था। पर, जब चूल्हा ही न जला तो फिर क्या छौंकेगी?...और मेहमान ही भला कौन आएगा?...उसने कटोरी में डिबिया उड़ेल दी। टप-टप थोड़ा तेल टपका। अपने फटे आँचल से उँगली भर कपड़ा चीरा। बत्ती बना कटोरी में भिगो दी। और दीया जल आया।
देखती रही उसके पीले प्रकाश में—अंधियारी झोपड़ी सहसा जगमगा उठी। चिर-परिचित आज घर की कितनी ही भूली-बिसरी वस्तुएँ भी नई-नई सी लगने लगीं। आँखें फाड़े वह देखती रही—टूटा मटका पड़ा है एक। जौ के कुछ दाने जिसमें बिखरे पड़े थे। कुछ कूट-पीस लिये। कुछ चूहों के पेट में चले गए। गगरी में पड़े चावल के दाने भी कब के चुग लिये। पास ही फटी चटाई है, जिसे बाहर नहीं रखती। कहीं पास-पड़ोस के नटखट बच्चे उठा ले गए तो गीली धरती पर, वह क्या बिछाएगी? दीवार पर सूखे गीले चीथड़े टँगे हैं, मुँह लटकाए। एक गट्ठर पैरों पर लकड़ियों का पड़ा है। जाड़ों की हड्डी को कँपाने वाली ठंडी रातें, जिसकी आँच के सहारे बीत रही हैं। फटी-पुरानी एक गुदड़िया है, उसके चारों ओर कसकर लिपटी। तवा है टूटा। काली कलसी। कुछ पिचका पुराना लोटा। सिलवर की नाम-मात्र की थाली और सामने ही लिपा-पुता चूल्हा...!!
आँखें टप-टप चू पड़ीं।
गुड़ की एक डली मुँह में डाली। कुछ कड़वी-सी लगी। दुर्गंध-सी आई। शायद तंबाकू की बोरी में पड़ी हो। न चाहते हुए भी थूक देनी पड़ी। फिर, दूसरी, तीसरी। सारा गुड़ खराब था।
फिर क्या खाए। पेट में क्या ठूँसे? पत्थर! गीले कंकड़!! गीली मिट्टी!। सूखे पत्ते! क्या? क्या?...
भूख और तेज हो आई। पेट में दर्द-सा उठने लगा। आँतें ऐंठने लगीं। सूखे अधर काँपने लगे। दीपक की ओर देखते हुए भी आँखों पर अंधकार छा गया। सारी धरती, कमरे की सारी वस्तुएँ तेजी से उसके चारों ओर चक्कर काटने लगीं। घुटने में सिर गड़ा वह फूट पड़ी।
कुछ देर बाद दर्द से दु:खता माथा ऊपर उठाया। चारों ओर गीली पलकें घुमाईं—अँधेरा-ही-अँधेरा! तेल सूख गया। दीया बुझ आया। बत्ती जल गई। केवल काली लकीर-सी रह गई कटोरी में।
बर्फीली सनसनाती हुई तेज हवा के झोंके बहने शुरू हुए। झोपड़ी के पत्ते थर-थर काँप उठे। फूस की झीनी दीवारें हिल उठीं। बर्फ की सफेद फुहारें जमीन पर बिछने लगीं, मखमली चादर की तरह। देखते-देखते भीगे तिनके बिखर गए। आग भी बुझ चली।
धरती पर। गीली धरती पर एक गठरी निश्चेष्ट, निस्पंदित-सी पड़ी रही। उसकी दु:खती पलकें कभी मुँद आतीं, कभी खुली-की-खुली रह जातीं। ढलते सितारों की ओर अंतिम आस लगाए, टकटकी बाँधे वे बूढ़ी आँखें देखती रहीं। देखती चली गईं।
दीया बुझ आया।
तारे ढल गए।
चाँद डूब चला।
पर, क्या भोर भी ढल चुका उगने से पहले?
उसने कराहते हुए एक करवट ली। एक आह हृदय को चीरती तभी निकल पड़ी। अधर फिर न फड़के। साँस फिर न छूटी, न हिली, न डुली। पत्थर-सी पड़ी रही। पर आँखें अभी भी खुली थीं। खुली की खुली रह गईं। हमेशा के लिए।
(समाज, अगस्त, 1959 से)