आदर्श बदला (कहानी) : सुदर्शन

Aadarsh Badla (Hindi Story) : Sudarshan

(बैजू बावरा और तानसेन की यह कहानी इतिहास के पन्नों में हूबहू तो नहीं मिलती, पर उत्तरभारत की किंवदंतियों में यह क़िस्सा बड़ा ही मशहूर है। कैसे सर्वश्रेष्ठ गायक होने के अकबर के नौरत्नों में से एक तानसेन के घमंड को बैजू बावरा नामक एक नवयुवक ने चूर-चूर कर दिया था। कहानियों के माध्यम से नैतिक शिक्षा देने के लिए मशहूर लेखक सुदर्शन ने बैजू के तानसेन से बदला लेने की इस कहानी को अपने ही अनूठे अंदाज़ में लिखी है।)

प्रभात का समय था, आसमान से बरसती हुई प्रकाश की किरणें संसार पर नवीन जीवन की वर्षा कर रही थीं। बारह घंटों के लगातार संग्राम के बाद प्रकाश ने अंधेरे पर विजय पाई थी। इस ख़ुशी में फूल झूम रहे थे, पक्षी मीठे गीत गा रहे थे, पेड़ों की शाखाएं खेलती थीं और पत्ते तालियां बजाते थे। चारों तरफ़ ख़ुशियां झूमती थीं। चारों तरफ़ गीत गूंजते थे। इतने में साधुओं की एक मंडली शहर के अंदर दाखिल हुई। उनका ख़याल था-मन बड़ा चंचल है। अगर इसे काम न हो, तो इधर-उधर भटकने लगता है। और अपने स्वामी को विनाश की खाई में गिराकर नष्ट कर डालता है। इसे भक्ति की जंजीरों से जकड़ देना चाहिए। साधु गाते थे:

सुमर-सुमर भगवान को,
मूरख मत ख़ाली छोड़ इस मन को

जब संसार को त्याग चुके थे, उन्हें सुर-ताल की क्या परवाह थी। कोई ऊंचे स्वर में गाता था, कोई मुंह में गुनगुनाता था। और लोग क्या कहते हैं, इन्हें इसकी ज़रा भी चिंता न थी। ये अपने राग में मगन थे कि सिपाहियों ने आकर घेर लिया और हथकड़ियां लगाकर अकबर बादशाह के दरबार को ले चले।

यह वह समय था जब भारत में अकबर की तूती बोलती थी और उसके मशहूर रागी तानसेन ने यह क़ानून बनवा दिया था कि जो आदमी रागविद्या में उसकी बराबरी न कर सके, वह आगरे की सीमा में गीत न गाए और जो गाए, उसे मौत की सज़ा दी जाए। बेचारे बनवासी साधुओं को पता नहीं था परंतु अज्ञान भी अपराध है। मुक़दमा दरबार में पेश हुआ। तानसेन ने रागविद्या के कुछ प्रश्न किए। साधु उत्तर में मुंह ताकने लगे। अकबर के होंठ हिले और सभी साधु तानसेन की दया पर छोड़ दिए गए।

दया निर्बल थी, वह इतना भार सहन न कर सकी। मृत्युदंड की आज्ञा हुई। केवल एक दस वर्ष का बच्चा छोड़ा गया-बच्चा है, इसका दोष नहीं। यदि है भी तो क्षमा के योग्य है।

बच्चा रोता हुआ आगरे के बाज़ारों से निकला और जंगल में जाकर अपनी कुटिया में रोने-तड़पने लगा। वह बार-बार पुकारता था,‘बाबा! तू कहां है? अब कौन मुझे प्यार करेगा? कौन मुझे कहानियां सुनाएगा? लोग आगरे की तारीफ़ करते हैं, मगर इसने मुझे तो बरबाद कर, दिया। इसने मेरा बाबा छीन लिया और मुझे अनाथ बनाकर छोड़ दिया। बाबा! तू कहा करता था कि संसार में चप्पे-चप्पे पर दलदलें हैं और चप्पे-चप्पे पर कांटों की झाड़ियां हैं। अब कौन मुझे इन झाड़ियों से बचाएगा? कौन मुझे इन दलदलों से निकालेगा? कौन मुझे सीधा रास्ता बताएगा? कौन मुझे मेरी मंज़िल का पता देगा?’

इन्हीं विचारों में डूबा हुआ बच्चा देर तक रोता रहा। इतने में खड़ाऊं पहने हुए, हाथ में माला लिए हुए, रामनाम का जप करते हुए बाबा हरिदास कुटिया के अंदर आए और बोले,‘बेटा! शांति करो। शांति करो।’

बैजू उठा और हरिदास जी के चरणों से लिपट गया। वह बिलख-बिलखकर रोता था और कहता था,‘महाराज! मेरे साथ अन्याय हुआ है। मुझपर वज्र गिरा है! मेरा संसार उजड़ गया है। मैं क्या करूं? मैं क्या करूं?’

हरिदास बोले,‘शांति, शांति।’

बैजू,‘महाराज! तानसेन ने मुझे तबाह कर दिया! उसने मेरा संसार सूना कर दिया!’

हरिदास,‘शांति, शांति।’

बैजू ने हरिदास के चरणों से और भी लिपटकर कहा,‘महाराज! शांति जा चुकी। अब मुझे बदले की भूख है। अब मुझे प्रतिकार की प्यास है। मेरी प्यास बुझाइए।’

हरिदास ने फिर कहा,‘बेटा! शांति, शांति!’

बैजू ने करुणा और क्रोध की आंखों से बाबा जी की तरफ़ देखा। उन आंखों में आंसू थे और आहें थीं और आग थी। जो काम ज़बान नहीं कर सकती, उसे आंखें कर देती हैं, और जो काम आंखें भी नहीं कर सकतीं उसे आंखों के आंसू कर देते हैं। बैजू ने ये दो आख़िरी हथियार चलाए और सिर झुकाकर खड़ा हो गया।

हरिदास के धीरज की दीवार आंसुओं की बौछार न सह सकी और कांपकर गिर गई। उन्होंने बैजू को उठाकर गले से लगाया और कहा,‘मैं तुझे वह हथियार दूंगा, जिससे तू अपने पिता की मौत का बदला ले सकेगा।’

बैजू हैरान हुआ, बैजू ख़ुश हुआ, बैजू उछल पड़ा। उसने कहा,‘ बाबा! आपने मुझे ख़रीद लिया आपने मुझे बचा लिया। अब मैं आपका सेवक हूं।’

हरिदास,‘मगर तुझे बारह बरस तक तपस्या करनी होगी। कठोर तपस्या। भयंकर तपस्या।’

बैजू,‘महाराज, आप बारह बरस कहते हैं, मैं बारह जीवन देने को तैयार हूं। मैं तपस्या करूंगा, मैं दुख झेलूंगा, मैं मुसीबतें उठाऊंगा। मैं अपने जीवन का एक-एक क्षण आपको भेट कर दूंगा। मगर क्या इसके बाद मुझे वह हथियार मिल जाएगा, जिससे मैं अपने बाप की मौत का बदला ले सकूं?’

हरिदास,‘हां ! मिल जाएगा।’

बैजू,‘तो मैं आज से आपका दास हूं। आप आज्ञा दें, मैं आपकी हर आज्ञा का सिर और सिर के साथ दिल झुकाकर पालन करूंगा।’

*****

ऊपर की घटना को बारह बरस बीत गए। जगत में बहुत-से परिवर्तन हो गए। कई बस्तियां उजड़ गईं। कई वन बस गए। बूढ़े मर गए। जो जवान थे; उनके बाल सफ़ेद हो गए।

अब बैजू बावरा जवान था और रागविद्या में दिन-ब-दिन आगे बढ़ रहा था। उसके स्वर में जादू था और तान में एक आश्चर्यमयी मोहिनी थी। गाता था तो पत्थर तक पिघल जाते थे और पशु-पंछी तक मुग्ध हो जाते थे। लोग सुनते थे और झूमते थे तथा वाह-वाह करते थे। हवा रुक जाती थी। एक समां बंध जाता था।

एक दिन हरिदास ने हंसकर कहा,‘ वत्स! मेरे पास जो कुछ था, वह मैंने तुझे दे डाला। अब तू पूर्ण गंधर्व हो गया है। अब मेरे पास और कुछ नहीं, जो तुझे दूं।’

बैजू हाथ बांधकर खड़ा हो गया। कृतज्ञता का भाव आंसुओं के रूप में बह निकला। चरणों पर सिर रखकर बोला,‘महाराज! आपका उपकार जन्मभर सिर से न उतरेगा।’

हरिदास सिर हिलाकर बोले,‘यह नहीं बेटा! कुछ और कहो। मैं तुम्हारे मुंह से कुछ और सुनना चाहता हूं।’

बैजू,‘आज्ञा कीजिए।’

हरिदास,‘तुम पहले प्रतिज्ञा करो।’

बैजू ने बिना सोच-विचार किए कह दिया,‘मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि…’

हरिदास ने वाक्य को पूरा किया,‘…इस रागविद्या से किसी को हानि न पहुंचाऊंगा।’

बैजू का लहू सूख गया। उसके पैर लड़खड़ाने लगे। सफलता के बाग परे भागते हुए दिखाई दिए। बारह वर्ष की तपस्या पर एक क्षण में पानी फिर गया। प्रतिहिंसा की छुरी हाथ आई तो गुरु ने प्रतिज्ञा लेकर कुंद कर दी। बैजू ने होंठ काटे, दांत पीसे और रक्त का घूंट पीकर रह गया। मगर गुरु के सामने उसके मुंह से एक शब्द भी न निकला। गुरु गुरु था, शिष्य शिष्य था। शिष्य गुरु से विवाद नहीं करता।

*****

कुछ दिन बाद एक सुंदर नवयुवक साधु आगरे के बाज़ारों में गाता हुआ जा रहा था। लोगों ने समझा, इसकी भी मौत आ गई है। वे उठे कि उसे नगर की रीति की सूचना दे दें, मगर निकट पहुंचने से पहले ही मुग्ध होकर अपने-आपको भूल गए और किसी को साहस न हुआ कि उससे कुछ कहे। दम-के-दम में यह समाचार नगर में जंगल की आग के समान फैल गया कि एक साधु रागी आया है, जो बाज़ारों में गा रहा है। सिपाहियों ने हथकड़ियां संभालीं और पकड़ने के लिए साधु की ओर दौड़े परंतु पास आना था कि रंग पलट गया। साधु के मुखमंडल से तेज की किरणें फूट रही थीं, जिनमें जादू था, मोहिनी थी और मुग्ध करने की शक्ति थी। सिपाहियों को न अपनी सुध रही, न हथकड़ियों की, न अपने बल की, न अपने कर्तव्य की, न बादशाह की, न बादशाह के हुक़्म की। वे आश्चर्य से उसके मुख की ओर देखने लगे, जहां सरस्वती का वास था और जहां से संगीत की मधुर ध्वनि की धारा बह रही थी। साधु मस्त था, सुनने वाले मस्त थे। ज़मीन-आसमान मस्त थे।

गाते-गाते साधु धीरे-धीरे चलता जाता था और श्रोताओं का समूह भी धीरे-धीरे चलता जाता था ऐसा मालूम होता था, जैसे एक समुद्र है जिसे नवयुवक साधु आवाज़ों की जंजीरों से खींच रहा है और संकेत से अपने साथ-साथ आने की प्रेरणा कर रहा है।

मुग्ध जनसमुदाय चलता गया, चलता गया, चलता गया। पता नहीं किधर को? पता नहीं कितनी देर? एकाएक गाना बंद हो गया। जादू का प्रभाव टूटा तो लोगों ने देखा कि वे तानसेन के महल के सामने खड़े हैं। उन्होंने दुख और पश्चात्ताप से हाथ मले और सोचा-यह हम कहां आ गए? साधु अज्ञान में ही मौत के द्वार पर आ पहुंचा था। भोली-भाली चिड़िया अपने-आप अजगर के मुंह में आ फंसी थी और अजगर के दिल में ज़रा भी दया न थी।

तानसेन बाहर निकला। वहां लोगों को देखकर वह हैरान हुआ और फिर सब कुछ समझकर नवयुवक से बोला,‘तो शायद आपके सिर पर मौत सवार है?’

नवयुवक साधु मुस्कुराया,‘जी हां। मैं आपके साथ गानविद्या पर चर्चा करना चाहता हूं।’

तानसेन ने बेपरबाही से उत्तर दिया,‘अच्छा! मगर आप नियम जानते हैं न? नियम कड़ा है और मेरे दिल में दया नहीं है। मेरी आंखें दूसरों की मौत को देखने के लिए हर समय तैयार हैं।’

नवयुवक,‘और मेरे दिल में जीवन का मोह नहीं है। मैं मरने के लिए हर समय तैयार हूं।’

इसी समय सिपाहियों को अपनी हथकड़ियों का ध्यान आया। झंकारते हुए आगे बढ़े और उन्होंने नवयुवक साथ के हाथों में हथकड़ियां पहना दीं। भक्ति का प्रभाव टूट गया। श्रद्धा भाव पकड़े जाने के भय से उड़ गए और लोग इधर-उधर भागने लगे। सिपाही कोड़े बरसाने लगे और लोगों के तितर-बितर हो जाने के बाद नवयुवक साधु को दरबार की ओर ले चले। दरबार की ओर से शर्तें सुनाई गईं,‘कल प्रात:काल नगर के बाहर वन में तुम दोनों का गानयुद्ध होगा। अगर तुम हार गए, तो तुम्हें मार डालने तक का तानसेन को पूर्ण अधिकार होगा और अगर तुमने उसे हरा दिया तो उसका जीवन तुम्हारे हाथ में होगा।’

नौजवान साधु ने शर्तें मंजूर कर लीं। दरबार ने आज्ञा दी कि कल प्रात:काल तक सिपाहियों की रक्षा में रहो।

यह नौजवान साधु बैजू बाबरा था।

*****

सूरज भगवान की पहली किरण ने आगरे के लोगों को आगरे से बाहर जाते देखा। साधु की प्रार्थना पर सर्वसाधारण को भी उसके जीवन और मृत्यु का तमाशा देखने की आज्ञा दे दी गई थी । साधु की विद्वत्ता की धाक दूर-दूर तक फैल गई थी। जो कभी अकबर की सवारी देखने को भी घर से बाहर आना पसंद नहीं करते थे, आज वे भी नई पगड़ियां बांधकर निकल रहे थे।

ऐसा जान पड़ता था कि आज नगर से बाहर वन में नया नगर बस जाने को है-वहां, जहां कनातें लगी थीं, जहां चांदनियां तनी थीं, जहां कुर्सियों की कतारें सजी थीं। इधर जनता बढ़ रही थी और उद्विग्नता और अधीरता से गानयुद्ध के समय की प्रतीक्षा कर रही थी। बालक को

प्रात:काल मिठाई मिलने की आशा दिलाई जाए तो वह रात को कई बार उठ-उठकर देखता है कि अभी सूरज निकला है या नहीं? उसके लिए समय रुक जाता है। उसके हाथ से धीरज छूट जाता है। वह व्याकुल हो जाता है।

समय हो गया। लोगों ने आंख उठाकर देखा। अकबर सिंहासन पर था, साथ ही नीचे की तरफ़ तानसेन बैठा था और सामने फ़र्श पर नवयुवक बैजू बावरा दिखाई देता था। उसके मुंह पर तेज था, उसकी आंखों में निर्भयता थी।

अकबर ने घंटी बजाई और तानसेन ने कुछ सवाल संगीतविद्या के संबंध में बैजू बावरा से पूछे। बैजू ने उचित उत्तर दिए और लोगों ने हर्ष से तालियां पीट दीं। हर मुंह से ‘जय हो, जय हो’, ‘बलिहारी, बलिहारी’ की ध्वनि निकलने लगी!

इसके बाद बैजू बावरा ने सितार हाथ में ली और जब उसके पर्दों को हिलाया तो जनता ब्रह्मानंद में लीन हो गई। पेड़ों के पत्ते तक नि:शब्द हो गए। वायु रुक गई। सुनने वाले मंत्रमुग्धवत सुधिहीन हुए सिर हिलाने लगे। बैजू बावरे की अंगुलियां सितार पर दौड़ रही थीं। उन तारों पर रागविद्या निछावर हो रही थी और लोगों के मन उछल रहे थे, झूम रहे थे, थिरक रहे थे। ऐसा लगता था कि सारे विश्व की मस्ती वहीं आ गई है।

लोगों ने देखा और हैरान रह गए। कुछ हरिण छलांगें मारते हुए आए और बैजू बावरा के पास खड़े हो गए। बैजू बावरा सितार बजाता रहा, बजाता रहा, बजाता रहा। वे हरिण सुनते रहे, सुनते रहे, सुनते रहे। और दर्शक यह असाधारण दृश्य देखते रहे, देखते रहे, देखते रहे।

हरिण मस्त और बेसुध थे। बैजू बावरा ने सितार हाथ से रख दी और अपने गले से फूलमालाएं उतारकर उन्हें पहना दीं। फूलों के स्पर्श से हरिणों को सुध आई और वे चौकड़ी भरते हुए ग़ायब हो गए! बैजू ने कहा,‘तानसेन! मेरी फूलमालाएं यहां मंगवा दें, मैं तब जानूं कि आप

रागविद्या जानते हैं।’

तानसेन सितार हाथ में लेकर उसे अपनी पूर्ण प्रवीणता के साथ बजाने लगा। ऐसी अच्छी सितार, ऐसी एकाग्रता के साथ उसने अपने जीवन भर में कभी न बजाई थी। सितार के साथ वह आप सितार बन गया और पसीना-पसीना हो गया। उसको अपने तन की सुधि न थी और सितार के बिना संसार में उसके लिए और कुछ न था। आज उसने वह बजाया, जो कभी न बजाया था। आज उसने वह बजाया जो कभी न बजा सकता था। यह सितार की बाज़ी न थी, यह जीवन और मृत्यु की बाज़ी थी। आज तक उसने अनाड़ी देखे थे। आज उसके सामने एक उस्ताद बैठा था। कितना ऊंचा! कितना गहरा!! कितना महान!!! आज वह अपनी पूरी कला दिखा देना चाहता था। आज वह किसी तरह भी जीतना चाहता था। आज वह किसी भी तरह जीते रहना चाहता था।

बहुत समय बीत गया। सितार बजती रही। अंगुलियां दुखने लगीं। मगर लोगों ने आज तानसेन को पसंद न किया। सूरज और जुगनू का मुक़ाबला ही क्या? आज से पहले उन्होंने जुगनू देखे थे। आज उन्होंने सूरज देख लिया था। बहुत चेष्टा करने पर भी जब कोई हरिण न आया तो तानसेन की आंखों के सामने मौत नाचने लगी। देह पसीना-पसीना हो गई। लज्जा ने मुखमंडल लाल कर दिया था। आख़िर खिसियाना होकर बोला,‘वे हरिण अचानक इधर आ निकले थे, राग की तासीर से न आए थे। हिम्मत है तो अब दोबारा बुलाकर दिखाओ।’

बैजू बावरा मुस्कुराया और धीरे से बोला,‘बहुत अच्छा! दोबारा बुलाकर दिखा देता हूं।’

यह कहकर उसने फिर सितार पकड़ ली। एक बार फिर संगीतलहरी वायुमंडल में लहराने लगी। फिर सुनने वाले संगीतसागर की तरंगों में डूबने लगे, हरिण बैजू बावरा के पास फिर आए; वे ही हरिण जिनकी गरदन में फूलमालाएं पड़ी हुई थीं और जो राग की सुरीली ध्वनि के जादू से बुलाए गए थे। बैजू बावरा ने मालाएं उतार लीं और हरिण कूदते हुए जिधर से आए थे, उधर को चले गए।

अकबर का तानसेन के साथ अगाध प्रेम था। उसकी मृत्यु निकट देखी तो उनका कंठ भर आया परंतु प्रतिज्ञा हो चुकी थी। वे विवश होकर उठे और संक्षेप में निर्णय सुना दिया,‘बैजू बावरा जीत गया, तानसेन हार गया। अब तानसेन की जान बैजू बावरा के हाथ में है।’

तानसेन कांपता हुआ उठा, कोपता हुआ आगे बढ़ा और कांपता हुआ बैजू बावरा के पांव में गिर पड़ा। वह जिसने अपने जीवन में किसी पर दया न की थी, इस समय दया के लिए गिड़गिड़ा रहा था और कह रहा था,‘मेरे प्राण न लो!’

बैजू बावरा ने कहा,‘मुझे तुम्हारे प्राण लेने की चाह नहीं। तुम इस निष्ठुर नियम को उड़वा दो कि जो कोई आगरे की सीमाओं के अंदर गाए, अगर तानसेन के जोड़ का न हो तो मरवा दिया जाए।’

अकबर ने अधीर होकर कहा- ‘यह नियम अभी, इसी क्षण से उड़ा दिया गया।’ तानसेन बैजू बावरा के चरणों में गिर गया और दीनता से कहने लगा,‘मैं यह उपकार जीवन भर न भूलूंगा।’

बैजू बावरा ने जवाब दिया,‘बारह बरस पहले की बात है, आपने एक बच्चे की जान बख़्शी थी। आज उस बच्चे ने आपकी जान बख़्शी है।’ तानसेन हैरान होकर देखने लगा। फिर थोड़ी देर बाद उसे पुरानी, एक भूली हुई, एक धुंधली-सी बात याद आ गई।

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