आदम बू (कहानी) : मुहम्मद मंशा याद

Aadam-Buu (Story in Hindi) : Muhammad Mansha Yaad

जब से साथ वाले गांव में नौजवान मौलवी मंज़ूर दर्सगाह से फ़ारिग़-उत-तहसील हो कर आया हुआ है मौलवी अल्लाह रखा की रातों की नींद उड़ गई है।

और अगरचे उनके शागिर्द, नायब और ख़ुद्दाम उनकी हिम्मत बढ़ाते और इस कल के छोकरे काम को ठप देने की यक़ीन दहानियां कराते रहते हैं लेकिन उन्हें अपना सितारा गर्दिश में नज़र आता है और अगरचे मौलवी मंज़ूर ने अभी तक उनके ख़िलाफ़ ज़बान नहीं खोली मगर उन्हें यक़ीन है कि वो उसके लिए ज़मीन हमवार कर रहा है और मुनासिब मौक़ा पा कर ज़रूर उनसे अपने बाप का बदला लेगा जिसके ख़िलाफ़ उन्होंने फ़तवे दिया और उसे बड़ी मस्जिद से बेदख़ल कराया था। वैसे भी नौजवान मौलवी जिस क़िस्म के ख़्यालात का परचार कर रहा है और जिस तरह आम लोगों और कमी कारियों में मक़बूल होता जा रहा है वो उनके लिए किसी बड़े ख़तरे की अलामत है। उन्हें अपने बरसों के तजुर्बे और सरकरदा लोगों से गहरे ताल्लुक़ात की वजह से एतिमाद ज़रूर है लेकिन इसके साथ ही उन्हें ये सोच कर हौल आता है कि पता नहीं नौजवान मौलवी दर्सगाह से क्या-क्या नई बातें सीख कर और किस साँचे में ढल कर आ गया हो और उसे जो इल्म का जिन्न चिमटा हुआ है वो कब तक चिमटा रहे और शनीद है कि अब तो उसने अपने वाज़ में तारीख़, जुग़राफ़ीए और कई साईंस की बातें शामिल करना भी शुरू कर दी हैं।

मौलवी अल्लाह रखा के अहबाब और ख़ैर-ख़्वाहों का ख़्याल है कि ये सब कुछ वक़्ती और हंगामी है। जूंही नौजवान मौलवी के पांव ज़मीन पकड़ेंगे वो अपने आप में आ जाएगा। मगर मौलवी अल्लाह रखा की तशफ्फ़ी नहीं होती उन्हें ऐसा लगता है कि वो ख़ुद एक-बार फिर से पैदा हो कर अपने मुक़ाबले पर आ निकले हैं और सब कुछ तह-ओ-बाला कर के रख देंगे।

बरसों पहले की बात है।

मौलवी अहमद दीन का पहली बीवी से एक ही लड़का था। सौतेली माँ की गालियों और बदसुलूकियों से आजिज़ आकर वो क़िस्से कहानियों में पनाह लेता लेकिन फिर यही क़िस्से और कहानियां उसके लिए अज़ाब-ए-अलीम बन गईं।

गांव में दाख़िल होने या बाहर जाने के लिए एक ही बड़ा रास्ता था इस रास्ते पर एक बदसूरत देव हर वक़्त बैठा आदम बू, आदम बू पुकारता रहता था। लोग उसे बड़ा मलिक कहते थे। वो सच-मुच बहुत बड़ा था। उसके सामने जा कर हाथी सिकुड़ कर चूहे और चूहे पिद्दी बन जाते थे। दो तिहाई गांव का मालिक और लंबे चौड़े ख़ानदान का सरबराह। देखने में भी हैबतनाक। बासी गोश्त का पहाड़।। उसकी आवाज़ उसकी शक्ल-ओ-सूरत की तरह मकरूह और ख़ौफ़नाक थी। उसका जब और जिसे जी चाहता बुलवा लेता। ग़रीब किसान, कमी कारी और उनके बच्चे अक्सर बेगार में पकड़े रहते। किसी में इनकार की जुर्रत नहीं थी। इनकार की सूरत में वो निहायत फ़ुहश गालियां देता और जूते मार मार कर शक्ल बिगाड़ देता था।

चोरियों, डाकों, रसा गिरियों, क़त्लों और मुक़द्दमों से फ़राग़त पा कर अब वो सारा दिन डेरे में बैठा हुक़्क़ा गुड़गुड़ाता और कमी कारीयों से पांव दबवाता, मालिश कराता, चिलमें भरवाता और पंखा झलवाता रहता था। अल्लाह रखा के ज़िम्मे उसकी तफ़रीह-ए-तबा का काम था। पता नहीं उसकी समझ में कुछ आता था या नहीं मगर वो अक्सर इससे सोहना-व-ज़ैनी का क़िस्सा सुनता था। उसे दूसरा कोई क़िस्सा या किताब पसंद नहीं थी और सोहना-व-ज़ैनी का क़िस्सा उसने उसे इतनी बार सुनाया था कि उसे ख़ुद ज़बानी याद हो गया था। मगर बड़ा मलिक हर दफ़ा इतनी दिलचस्पी से सुनता था जैसे ज़िंदगी में पहली बार सुन रहा हो... वो ये क़िस्सा सुना सुना कर तंग आ गया था और इनकार न कर सकने की अज़ीयत में मुब्तला रहने लगा था। वो बदबू जो उसे बड़े मलिक के जिस्म से आती थी अब किताब के औराक़ और लफ़्ज़ों से भी आने लगी। क़िस्सा पढ़ते पढ़ते उसका दिमाग़ बदबू से भर जाता और उसे मतली आ जाती, वो मुँह पर हाथ रखकर एक तरफ़ को भाग जाता, फिर फ़राग़त पा कर दौड़ता हुआ आता और एक कल की तरह दुबारा क़िस्सा पढ़ने लगता।

कई बार उसने इनकार कर देना चाहा मगर बड़े मलिक का पैग़ाम मिलते ही वो अपने या बड़े मलिक के मर जाने की दुआएं मांगता हुआ भागम भाग उसके डेरे पर पहुंच जाता और उस वक़्त तक गला फाड़ फाड़ कर क़िस्सा गाता रहता जब तक कि बड़ा मलिक ख़ुद ही जमाइयों के कई गढ़े फाँद कर नींद के किसी अंधे कुवें में न गिर जाता।

उसने कई बार अपने बाप मौलवी अहमद दीन से अपनी तकलीफ़ और ख़ौफ़ का इज़हार किया लेकिन वो भी बेबस था। उसने कई बार सोचा बड़े मलिक को क़त्ल कर के फांसी लग जाये मगर बड़े मलिक के सामने जा कर उसकी घिग्घी बंध जाती।

फिर एक रोज़ वो सौतेली माँ की बदसुलूकियों और बड़े मलिक के जिस्म से उठने वाली सड़ान्द से तंग आकर घर से भाग गया और सैंकड़ों मील दूर एक दीनी मदरसे के दरवेश तालिब-ए-इल्मों की सफ़ में शामिल हो गया।

चंद साल दीनी, अख़लाक़ी और रुहानी तालीम हासिल करने और दरवेशाना ज़िंदगी गुज़ारने की तर्बीयत हासिल कर के जब वो दरसगाह से निकला तो उसके सामने ज़िंदगी का बेहद वसीअ मैदान था। वो एक आलिम बाअमल था और उसका सीना मुहब्बत, इल्म और ग़मगुसारी के जज़्बात से लबरेज़ था... वो गांव आया तो बड़ा मलिक अपने डेरे में तख़्तपोश पर मौजूद नहीं था। उसने सिद्क़ दिल से उसके लिए मग़फ़िरत की दुआ की लेकिन वो गांव में मुस्तक़िल क़ियाम न कर सका और दुबारा आज़िम-ए-सफ़र हुआ। वो बहुत कुछ करना चाहता था मगर गांव के उन लोगों के दरमियान, जिनके सामने वो बचपन में नंगा फिरता रहा था और उन दोस्तों और हम उम्रों में जिनके साथ तालाबों में नहाता, कब्बडी खेलता, बेर तोड़ता और सौतेली माँ से मार खाता रहा था उसे अपनी ख़ुद को मनवाने और अपना मुद्दा बयान करने में मुश्किल पेश आ सकती थी और वो सिर्फ़ अपना मुद्दा बयान नहीं करना चाहता था वो बहुत कुछ बदल देना,बहुत कुछ तह-ओ-बाला कर देना चाहता था।

मौलवी अल्लाह रखा ने इस नए गांव में आकर वाक़ई बहुत कुछ बदल डाला था। उनसे पहले गांव के नीम ख़्वांदा इमाम मस्जिद नमाज़ पढ़ाने, बच्चे के कान में अज़ान देने, भेड़-बकरी ज़बह करने और जनाज़ा पढ़ाने का मुआवज़ा लेते थे, हर फ़सल के मौक़ा पर दूसरे कमी कारीयों की तरह बोहल में उनका भी हिस्सा होता। ईद बक़रईद पर वो मस्जिद में कपड़ा बिछा देते और ईद की नमाज़ पढ़ाने के इवज़ लोगों से गल्ला और नक़दी वसूल करते। नमाज़ पढ़ा कर वो क़ुर्बानी के जानवरों को ज़बह करते और फिर छोटी और बड़ी खालों के व्योपार में उलझे रहते। उनका हुक्म था कि अंडा खाने के लिए इस पर भी तकबीर पड़ना ज़रूरी है क्योंकि इस में भी जान होती है, लोग उन्हें तीन अंडों पर तकबीर पढ़ाने पर एक अंडा बतौर मुआवज़ा देते क्योंकि सही तरीक़े से तकबीर तो वही पढ़ सकते थे। मगर मौलवी अल्लाह रखा ने यहां आकर इन सब क़बीह रस्मों और रिवायतों को जड़ से उखाड़ फेंका। पुराने मौलवी साहब लाख चीख़ते चिल्लाते रहे और तरह तरह के इल्ज़ामात लगाते और कहते रहे कि वो ख़िलाफ़ शरा बातें बताता है मगर लोग शरीयत की इन बातों को जल्दी और आसानी से समझ लेते हैं जिनमें उनका फ़ायदा हो, चुनांचे मौलवी अल्लाह रखा की कामयाबी की पतंग ऊंची और ऊंची उड़ने लगी और छोटी और बड़ी मस्जिदों के जद्दी पुश्ती इमाम साहिबान गांव से हिज्रत कर के गए या उन्होंने अपना आबाई काम छोड़कर कोई दूसरा काम धंदा शुरू कर दिया।

मौलवी अल्लाह रखा नज़र नयाज़ नहीं लेते थे। बड़े दरवेश सिफ़त इन्सान थे। मुफ़्तखोरी से सख़्त परहेज़ करते और ख़ुद मेहनत कर के अपना पेट भरते थे। वो दिन-भर ईंटें ढोते, लाईआं करते, मवेशी चराते, बाण की रस्सियाँ और चारपाइयाँ बुनते... और बग़ैर किसी फ़ीस या मुआवज़े के बच्चों को क़ुरान-ए-पाक की तालीम देते। लोग ख़त्म पढ़वाने के लिए हलवे, खीरें, सीवइयां और पराठे लाते वो उनकी दिल-शिकनी के डर से ख़त्म पढ़ देते मगर किसी चीज़ को हाथ न लगाते, लौटा देते या किसी ग़रीब या बेवा के हाँ भिजवा देते। वो मस्जिद के हुजरे में रहते थे। ख़ुद मस्जिद में झाड़ू देते, सफ़ाई कराते, चिराग़ जलाते, नमाज़ियों के वुज़ू के लिए हौज़ में पानी भरते और नमाज़ का वक़्त हो जाता तो अज़ान देते। लोग उनकी बेहद इज़्ज़त करते और उनसे मुहब्बत भी। मगर जब वो मिंबर पर खड़े होते तो उनकी आवाज़ से आस-पास के घरों की दीवारें लरज़ने लगतीं। गुनहगारों और दूसरों का हक़ मारने वालों के दिलों पर हैबत तारी हो जाती। ख़ुदा के सिवा वो किसी से नहीं डरते थे और हक़ बात डंके की चोट पर कहते थे।

फिर उन्होंने कुछ अरसा बाद एक ऐसी ग़रीब बेवा से निकाह कर लिया जिसको औलाद न होने की वजह से तलाक़ हो गई थी। मौलवी-साहब से निकाह के बाद बीबी जी के सोए हुए नसीब जाग उठे और चंद ही बरस में घर बच्चों से भर गया।

मौलवी साहब हमेशा से रूखी-सूखी खा कर वक़्त गुज़ारते आए थे। बीबी जी ने भी उनका बहुत अर्सा तक साथ दिया और उस्रत और फ़ाक़ों की ज़िंदगी गुज़ारने पर भी ख़ुदा का शुक्र अदा करती रहीं मगर फिर बच्चों की वजह से मौलवी-साहब से चोरी छिपे खाने-पीने की कोई चीज़ क़बूल कर लेतीं। मौलवी साहब को पता चला तो शुरू शुरू में बहुत ख़फ़ा हुए मगर फिर ये सोच कि बच्चों को फ़ाक़ों मारना और अच्छी चीज़ों के लिए हमेशा तरसाते रहना मुनासिब नहीं, ख़ामोश हो गए।

फिर एक-बार ज़ैलदार का चालीसवां था उसके मुतमव्विल बेटों ने उसे बड़ा किया यानी चालीसवीं का ग़ैरमामूली एहतिमाम किया। पूरी बिरादरी को खाने की दावत दी और ख़त्म के मौक़ा पर मौलवी साहब के सारे कुन्बे के कपड़े और दुनिया जहान की नेअमतें, फल और मेवे हाज़िर किए। मौलवी साहब परेशान हो गए। ख़त्म पढ़ते हुए उनकी आँखों के सामने अपने बच्चों के फटे पुराने कपड़े और तरसी हुई सूरतों घूम गईं। उन्होंने गुलूगीर आवाज़ में कहा,

मैं किसी चीज़ को हाथ नहीं लगाऊँगा... किसी कमी के हाथ सब चीज़ें हमारे घर पहुंचा दी जाएं।

और जिस तरह शेर आम तौर पर आदमी पर हमला नहीं करता मगर जब एक-बार उस के मुँह को इन्सानी ख़ून लग जाये तो आदमख़ोर हो जाता है, मौलवी अल्लाह रखा के मुँह को भी जब मुफ़्त का हलवा मांडा एक-बार लग गया तो फिर लगता ही चला गया। और आहिस्ता-आहिस्ता वो पहले मौलवी साहब से भी दो हाथ आगे निकल गए।

और अब इतने बरसों बाद... मौलवी अल्लाह रखा की इमामत का दायरा अपनी मस्जिद से निकल कर आस-पास के कई एक छोटे बड़े दिहात की मस्जिदों तक फैल गया है। उन मस्जिदों में उनके नायब इमाम आमदनी के एक तिहाई हिस्से पर काम करते हैं, वो ख़ुद हफ़्ते में एक दो बार हर मस्जिद में नमाज़ पढ़ते पढ़ाते हैं। उन्होंने निहायत मेहनत, होशयारी और अपने ज़ोर ख़िताबत की वजह से एक एक कर के उन मस्जिदों पर क़ब्ज़ा किया है और दिहात के वडेरों और ज़मीनदारों में अपने असर-ओ-रसूख़ और रमूज़ शरीयत से आगाही की बिना पर नीम ख़्वांदा मुल्लाओं को बेदख़ल किया है उनका शुमार इलाक़े के अच्छे खाते पीते लोगों में होता है। वो हर किसी के काम आते हैं। वो हाड़ी साऊनी के कारे पर निहायत थोड़े मुनाफ़ा पर बड़ी बड़ी रकमें क़र्ज़ दे देते हैं। फ़सल, ज़मीन या मवेशी रहन या ज़ेवर गिरवी रखने के लिए लोग उन्ही के पास आते हैं कि वो निहायत दयानतदार और क़ाबिल-ए-एतिमाद हैं। किसानों और कमी कारियों ने ही नहीं बड़े बड़े ज़मीनदारों ने उनसे मुनाफ़ा पर मोटी मोटी रकमें लेकर ट्यूबवेल लगवाए और ट्रैक्टर ख़रीदे हैं। मौलवी साहब ने अपना बहुत बड़ा और महलनुमा पक्का मकान बना लिया है और उसमें बिजली लगवा ली है उन्हें किसी से कुछ मांगने या कुछ कहने की ज़रूरत नहीं होती लोग ख़ुद ही हर चीज़ में से अल्लाह का हिस्सा निकाल कर उनको पहुंचा देते हैं।

वो बहुत इत्मिनान की ज़िंदगी गुज़ार रहे थे मगर जब से नौजवान मौलवी मंज़ूर दर्सगाह से लौटा और क़रीब वाले गांव की एक मस्जिद सँभाल बैठा है, उनकी रातों की नींद हराम हो गई है। मगर उन्हें ये सोच कर क़दरे इत्मिनान होता है कि लोग कई तरह से उनके मुहताज हैं और फिर मौलवी मंज़ूर को उनकी तरह तावीज़ गंडा नहीं आता बल्कि वो उसे शिर्क समझता है और वो ख़ुद महज़ इमाम मस्जिद ही नहीं आस-पास के दिहात के वाहिद तबीब भी हैं और बा'ज़ बा-असर लोगों के खु़फ़ीया निकाहों और दूसरे बहुत से अहम राज़ों के अमीन भी...!

हर जुमा की शाम को वो मौलवी मंज़ूर के गांव से आने वाली रिपोर्ट का बेचैनी से इंतिज़ार करते हैं उनका कोई ख़ादिम या वफ़ादार मौलवी मंज़ूर के जुमे के वाज़ में शरीक हो जाता है और तमाम हालात से उन्हें बाख़बर रखता है। मौलवी मंज़ूर के मुक़तदियों की तादाद दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है और अब उन्हें रमज़ान शरीफ़ के पहले जुमे का इंतिज़ार है। रमज़ान शरीफ़ शुरू होते ही मसाजिद में नमाज़ियों की तादाद में एक दम ग़ैरमामूली इज़ाफ़ा हो जाता है और लोग पंद-ओ-नसाएह और वाज़-ओ-तलक़ीन की बातों पर ख़ुसूसी तवज्जा देने लगते हैं। इस पूरे इलाक़े में दो ही जगह जुमे की नमाज़ के इजतिमाआत होंगे और नमाज़ियों की तादाद से उनके और मौलवी मंज़ूर के दरमियान एक तरह का इलेक्शन हो जाएगा।

रमज़ान के पहले जुमे की शाम को उनका एक ख़ादिम परेशान हाल लौटता है तो उनका दिल बैठ जाता है। मौलवी मंज़ूर के मुक़तदियों की तादाद किसी तरह उनके अपने नमाज़ियों की ता'दाद से कम नहीं है... उन्हें इसी बात का डर था। उनका रंग उड़ जाता है और हाथ पांव ठंडे हो जाते हैं। इस रात तरावीह की नमाज़ पढ़ाते हुए उन्हें एक अर्सा बाद लुक़मा मिलता है और अभी वो लुक़मा से सँभल नहीं पाते कि सजदा सह्व पड़ जाता है।

रात को वो थके थके और निढाल से घर लौटते हैं और दालान में बिछी हुई बहुत सी छोटी बड़ी चारपाइयों के क़रीब से गुज़र कर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए छत पर आते हैं। बीबी जी उनकी आहट सुनकर लम्हा भर के लिए जागती हैं फिर मचली हो कर मस्नूई ख़र्राटे लेने लगती हैं। वो अपने सिरहाने तिपाई पर रखा ठंडे मीठे दूध का अरक जितना गिलास उठाते और मज़े ले-ले कर घूँट घूँट पीते हैं। लेकिन अचानक उन्हें एक जानी-पहचानी मगर नागवार सी बदबू हर तरफ़ फैली हुई मालूम होती है और जी मतलाने लगता है। वो दूध का गिलास तिपाई पर रख देते हैं और इधर उधर नज़रें दौड़ाते हैं उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता। मगर बदबू के भबके लपकते चले आते हैं। अचानक उन्हें याद आता है कि ये बदबू वैसी ही है जैसी बड़े मलिक के जिस्म से उठती थी। वो क़ै रोकने की बहुत कोशिश करते हैं मगर वो नहीं रुकती।

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