Zulekha (Hindi Nibandh) : Munshi Premchand

ज़ुलेख़ा (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद

फारसी हुस्न-ओ-इश्क की दुनिया में ज़ुलेख़ा को जो आम शोहरत हासिल है वह बयान की मुहताज नहीं। उसकी जिंदगी हुस्न-ओ-इश्क की एक लाजवाब और दिलकश दास्तान है। एक बादशाह के महल में पैदा हुई, लाड़-प्यार में पली और बहार आते ही इश्क में कैद हो गई। फिर मुद्दत तक मुसीबतें झेलीं, शहजादी से फकीर बनी, सब कुछ इश्क में लुटा दिया मगर लगातार नाकामियों पर भी मुहब्बत की गली न छोड़ी। कभी-कभी माशूक की बेवफाई और दुनिया के तानों से मजबूर होकर अपने माशूक पर सख्तियाँ भी की, मगर यह भी अथाह मुहब्बत का तकाजा था। इस इश्क के खंजर की घायल के नाम को फारसी के अमर कवि जामी ने अमर बना दिया है। उसके सौंदर्य की तारीफ यों की है –

कफे राहत दहे हर मेहनतअंदेश
निहादा मरहमे बर हर दिले रेश।

उसका हाथ परीशान को आराम पहुँचाता और दिल के जख्म पर मरहम रखता था –

मियानश मूए, बल कज मूए नीमे
जे बरीकी बरद अज़ मूए बीमे।

उसकी कमर क्या थी, बाल थी, बल्कि बाल से भी आधी थी। बरीकी में उसे आधा बाल भी कहते डर लगता है –

सहीसर्वां हवादारीश करदे
परी-रूयां परस्तारीश करदे।

खूबसूरत लौंडियाँ उसकी खिदमत करतीं और परी जैसी सूरत वाली उसको पूजती थीं।

शुरू जवानी में इश्क को घातें उस पर होने लगती है मगर यह इश्क माशूक के देखने से नहीं पैदा होता बल्कि आम कायदे के खिलाफ वह चैन की नींद सो रही थी कि अचानक –

दर आमद नागहश अज़ दूर जवाने
चेमी गोयम जवाने, नै कि जाने।

उसके दरवाजे से एक जवान आया, वह जवान क्या आया बल्कि जान आया।

हुमायूं पैकरे अज़ आलमे नूर
बागे खुल्द करदा गारजे हूर।

सर से पाँव तक एक मुबारक नूर जिसने जन्नत के बाग की हूरों को लूट लिया। इस खूबसूरत जवान को देखते ही ज़ुलेख़ा पर उसकी खूबसूरती का जादू चल गया –

गिरिफ्तज कामतश दूर दिल खयाले
निशांद अज़ दोस्ती दूर दिल निहाले।

उसके सजीले बदन का खयाल दिल में बैठ गया और उसने दिल में दोस्ती का बीज बो दिया –

जे रूयश आतशी दूर सीना अफरोख्त
वजां आतश मताये सब्रो-दीं सोख्त।

उसके आग जैसे चेहरे ने दिल में आग लगा दी और उस आग से धर्म और धीरज की पूँजी जल गई। मगर ज़ुलेख़ा यह जलन, यह दिल की आग सहती है लेकिन किसी पर जाहिर नहीं करती। सखियों-सहलियों से हँसती-बोलती है मगर दिल का भेद नहीं कहती –

निहां मी दाश्त राजश दूर दिले तंग
चू काने लाल लाल अंदर दिले संग।

ये भेद वह अपने दिल में ऐसे छु पाए रहती थी जैसे पत्थर अपने दिल में लाल छिपाए रहता है –

फरो मी खुर्द चूं गुंचा बदिल खूं
न मी दाद अज दुरूं यक शिम्मा बेरूं ।

वह अपने गम में दिल ही दिल में खून पीती थी मगर दिल का हाल कली को तरह दिल ही में बन्द रखती थी, जरा भी जाहिर न करती थी –

नजर बर सूरते अगियार मीदाश्त
वले पैवस्ता दिल बायार मीदाइत।

नजर गैरों पर रखती थी और दिल में माशूक का खयाल।
कभी-कभी जब वह जलन से बेचैन हो जाती है तो यार से यों बातें करती है

कि ऐ पाकीजा गौहर अज चे कानी
कि अज़ तू दारम ईं गौहर फिशानी।

ऐ कीमती मोती, तू किस खान का है, मुझे तुझसे कुछ कहना है।

न मी दानम कि नामत अज के पुरसम
कुजा आयम मुकामत अज के पुरसम।

मैं तेरा नाम नहीं जानती, किससे पूछूँ। मैं तेरी जगह नहीं जानती, कहाँ जाऊँ ।

मगर यह इश्क का भेद कब छुपता है। ज़ुलेख़ा जबान से कुछ नहीं कहती मगर उसकी खून बरसाने वाली आँखें और पीली-पीली सूरत यह भेद खोल देती हैं। गुलाब की-सी सूरत पीले फूल की तरह जर्द पड़ जाती है, ठंडी आहैं भरती है, लौंडियाँ आपस में खुसुर-फुसुर करने लगती हैं। कोई कहती है – ‘ऊपर का असर है’, कोई कहती है, – ‘जादू‘ है। इन्हीं लौंडियों में ज़ुलेख़ा की एक दाई भी है। इश्क की दास्तानों में ऐसी औरतें बहुत आती हैं मगर इनमें शायद ही किसी का हवाला इस खूबसूरती से चंद शेरों में दिया गया हो –

अजां जुमला फुसूंगर दायाए दाश्त
कि अज़ अफसुंगरी सरमायाए दाइत।

उसकी लौंडियों में एक जादूगर दाई भी थी जो अपने जादू – जैसे करतब का खजाना रखती थी –

बराहे आशिक़ी कार आजमूदा
गहे आशिक गहे माशूक बूदा।

वह मुहब्बत के रास्तों को खूब जानती थी। वह कभी आशिक और कभी माशूक बन जाती थी –

बहम वसलत दहे माशूकी आशिक
मुआफिक साज यारे नामुआफिक।

वह आशिक और माशूक को मिला देती थी। फिरे हुए दोस्त को सच्चा दोस्त बना देती थी। यह जादूगरनी एक दिन ज़ुलेख़ा से यह प्यारी-भरी बातें करती है –

वगर रफ्तम तराज दोश बूदे
चू खुफ्तम खुफ्ता दूर आगोश बूदे।

मैं चलती थी तो तू मेरे कंधे की शोभा होती थी और जब मैं सोती थी तो तू मेरी गोद में सोती थी –

चू ब नशस्ती बखिदमत ईस्तादम
चू खुस्पीदी बपायत सद निहादम।

जब तू बैठती थी तो मैं तेरी खिदमत में खड़ी हो जाती थी और जब तू
सोती थी तो मैं तेरे पाँव पर सिर रख देती थी –

जेमन राजे दिलत पिनहा चे दारी
न खुद बेगाना अम जे निसियां चे दारी।

तू मुझसे अपने दिल का हाल क्यों छिपाती है। मैं कोई गैर नहीं हूँ। तू भूल कर रही है।

ज़ुलेख़ा मेहरबान दाई से रो-रोकर अपनी राम कहानी कह सुनाती है मगर दाई या तो आसमान के तारे तोड़ लाने को तैयार थी या यह दास्तान सुनकर बोल उठती है –

वले हर्कफे बनक्शे हर खयालस्त
के नादानिस्ता रा जुस्तन मुहालस्त।

हाँ, हर तस्वीर के लिए एक खयाल है मगर अनजान को ढूँढ़ना मुश्किल है। इसके कुछ दिनों बाद ज़ुलेख़ा एक दिन गम के बिस्तर पर पड़ी हुई अपने दिल से फरियाद कर रही है कि उसे फिर दोस्त का सुंदर मुखड़ा दीखता है और वह उसे सपने में देखते ही उसके पाँव पर गिर पड़ती है और अपनी बेचैनी का बयान करती है। उसकी बेचैनी देखकर माशूक या माशूक की तस्वीर यह कहती है –

तुरा अज़ मा अगर बरसीना दागस्त
न पिन्दारी कज़ां दागम फरागस्त।

अगर मेरे इश्क का दाग तेरे सीने पर है तो तू यह न समझ कि मैं इस दाग से खाली हूँ –

मराहम दिल बदामे तुस्त दरबन्द
जेदागे इश्के तू हस्तम निशामंद।

मेरा दिल भी तेरी मुहब्बत के जाल में फँसा हुआ हैं और तेरे इश्क के दाग की मुझे खूबर है।

दोस्त की तस्वीर की यह तड़प ज़ुलेख़ा के इश्क की आग को और भी भड़का देती है। कुछ दिन और इस तकलीफ में बीतते हैं, फिर तीसरी बार उसे माशूक का दुनिया को जला देने वाला हुस्न नजर आता है। इश्क के पैदा होने और बढ़ने की यह सूरत मुहब्बत की दास्तानों में बिल्कुल निराली है। ज़ुलेख़ा फिर दोस्त की तस्वीर के पाँव पर गिर पड़ती है और इन शब्दों में उससे मुहब्बत भरी निगाह करने की विनती करती है –

न मी गोयम के दूर हश्तम अजीजम
न आखिर मर तुरा कमतर कनीजम।

मैं यह नहीं कहती कि मेरी शान बादशाह की-सी है। मैं तो तेरी एक छोटी- सी लौंडी हूँ।

चे बाशद गर कनीजेरा नवाजी
जे बंदे मेहनतश आजाद साजी।

क्या अच्छा हो कि तू इस लौंडी को अपना ले और दुखों के बंधन से छुटकारा दे। मगर दूसरी बार की तरह इस खयाली माशूक ने अबकी इस रोने-धोने पर उसकी तसल्ली नहीं की और न अपना दुख जाहिर किया, बस इतना कहा –

अज़ीज़े मिस्रअम व मिस्रम मुकामस्त

मैं मिस्र का (बादशाह-लकब ) वजीर हूँ और मिस्र मेरा मुकाम है। इतना ही कहा और गायब हो गया।

शायर ने यहाँ ठोकर खाई है। जब इश्क की सूरत बिल्कुल खुदा की तरफ से दिल पर जाहिर हुई है तो चाहिये था कि दोस्त की तस्वीर का यह पता सही होता। मगर वाकयात इसके खिलाफ हैं क्योंकि हज़रत यूसुफ़ मिस्र के वजीर न थे। फिर भी ज़ुलेख़ा को बहुत तसल्ली हो गई। जब माशूक का पता मिल गया तो उसे ढूँढ निकालना क्या मुश्किल था। थोड़ी देर के लिए उसका पागलपन दूर हो गया। इधर ज़ुलेख़ा दोस्त की जुदाई में परीशान थी उधर उसके रूप का सारी दुनिया में चर्चा फैला हुआ था –

सराने मुल्क रा सौदाये ऊ बूद
बबज्मे खुसरवां गौगाये ऊ बूद।

देश के सरदारों के सर में उसकी चाह थी और बादशाहों की सभा में उसका चर्चा था।

बहरवक्त आमदे अज़ शहरयारे
ब उम्मीदे विसालश खास्तगारे।

हर वक्त शहर का बादशाह आता और उससे मिलने की इच्छा करता। जंग, रूम और शाम के बादशाहों ने अपने-अपने राजदूत ज़ुलेख़ा के बाप शाह तीमूस के पास भेजे मगर मिस्र के अज़ीज़ की तरफ से कोई पैगाम न आया। शाह तीमूस ने ज़ुलेख़ा को अपने सामने बुलाया और प्यार से अपने पास बिठाकर सब बादशाहों के पैगामों का जिक्र किया। मगर जब मिस्र के अज़ीज़ का जिक्र न आया तो वह निराश होकर बेद की टहनी की तरह काँपती हुई अपने एकांत में आ बैठी और रो-रोकर कहने लगी –

मरा ऐ काश के मादर नमीजाद
वगर मीज़ाद कस शीरम नमीदाद।

क्या अच्छा होता कि मुझे मेरी माँ न जनती और अगर जनती तो कोई मुझे दूध न देता –

कयम मन अज़ वुजूदे मन चे खेजद
वजीं बूदे न बूदे मन चे खेज़द।

मैं वह हूँ कि मेरी जिंदगी से क्या हो सकता है। इस जिंदगी के होने से न होती तो क्या नुकसान होता। मजबूर होकर शाह तीमूस ने अज़ीज़े मिस्र को अपनी तरफ से पैगाम भेजा। अज़ीज़े मिस्र खुशी के मारे फूला न समाया। गरज यह कि ज़ुलेख़ा बड़ी शान के साथ मिस्र की तरफ रवाना हुई। हजरत जामी ने इस जुलूस का जिक्र बहुत फैलाकर और बड़ी आनबान से किया जिसका जिक्र इस फाके मस्ती और बर्बादी के जमाने में बेखर है। ज़ुलेख़ा खुश-रखुश चली जा रहो थी कि अब कामनाओं के पूरे होने के दिन आये –

शबे गम रा सहर खाहद दमीदन
गमे हिजरां बसर खाहद रसीदन।

गम को रात का सबेरा हो जायेगा, बिरह का दुख खत्म हो जायेगा। मगर उसे क्या खबर थी कि जादूगर आसमान उसे सब्ज बाग दिखा रहा है। अज़ीज़े मिस्र राजधानी से उसके स्वागत के लिए आया हुआ था। ज़ुलेख़ा ने तम्बू के झरोखे से उसे देखा मगर ज्योंही –

ज़ुलेख़ा कर्द अज़ां खीमा निगाहे
बरावुर्द अज़ दिले गमदीदा आहे।

ज़ुलेख़ा ने तंबू से एक निगाह की और गम-भरे दिल से एक आह भरकर रह गई –

के बावेला अज़ब कारेम उफ्ताद
बसर तापाये दीवारेम उफ्ताद।

दुहाई है कि मेरा बना-बनाया काम बिगड़ गया और मेरे सर से पाँव तक दीवार गिर पड़ी –

न आनस्त आंके अक़्लहोश मन बुर्द
इनाने दिल बबेहोशेम बसपुर्द।

यह वो नहीं है जिसने मेरी अक़्ल और मेरा होश लूटा और मेरे दिल की लगाम पागलपन को सौंप दी –

दरेगा बख्ते सुस्तम सुस्ती आवुर्द
तुलूए अख्तरम बदबख्ती आवुर्द।

अफसोस है कि मेरी फूटी किस्मत और भी फूट गयी और मेरे नसीबे के सितारे बदनसीबी लाये –

मनम आं बादबां कश्ती शिकस्ता
बरहना बरसरे लौहे नशस्ता।

मैं कश्ती की फटी हुई पाल हूँ और कश्ती के बदले एक लकड़ी के तख्ते पर हर तरफ से खुली हुई बैठी हूँ –

रुबायद हरज़मा अज़ जाये मौजम
बरू गह दूर हज़ीजे गहे दूर औजम।

मुझे दरिया की लहरें एक जगह से दूसरी जगह ले जाती हैं। कभी मैं दरिया की गहराई में चली जाती हूँ और कभी ऊपर आ जाती हूँ –

ज़िनागह जोर मी आयद पिदीदार
शवम खुर्रम कजू आसां बुवद कार।

कभी जोर की लहर आती है और मुझे दरिया के सतह पर फेंक देती है तो मै खुश हो जाती हूँ कि अब मेरी मुश्किल आसान हो जायेगी –

चू नजदीके मन आयद बे दिरंगे
बुवद बहरे हलाकत मन निरंगे।

फिर वह लहर मेरे पास आती है और मुझे मार डालनेवाला घड़ियाल बन जाती है।

इसी तरह पेचोताब खाकर उसने बहुत देर तक नाकामी के आँसू बहाये और खुदा के दरबार में दुआ की कि मेरी इज्जत और आबरू का रखवाला तू है। खुदा के दरबार में उसकी दुआ मंजूर हुई और आवाज आयी –

के ऐ बेचारा रूये खाक बरदार
कज़ां मुश्किल तुरा आसां शवद कार।

ऐ मजबूर, जमीन पर से सर उठा, तेरी मुश्किल आसान हो जायेगी –

अज़ीज़े मिस्र मकसूदे दिलत नीस्त
वले मकसूद बेऊहासिलत नीस्त।

तेरे हृदय का लक्ष्य अज़ीज़े मिस्र नहीं है मगर उसके बिना वह पूरा भी न होगा –

अजू ख्वाही जमाले दोस्त दीदन
वजू ख्वाही बमकसूदत रसीदन।

तू उसी के जरिये से दोस्त का रूप देखेगी और उसी के जरिये से अपने मतलब को पहुँचेगी –

मुबादा अज़ सोहबते ऊ हेच बीमत
कजूमानद सलामत कुफ्ले सीमत।

तू उसकी संगत से न डर क्योंकि तू उसके साथ रह कर भी कुँवारी रहेगी। इस आवाज ने दिल को ताकत पहुँचाई। अब वह अज़ीज़े मिस्र की बेगम थी और अज़ीज़ वहाँ के सरदारों का रईस था। रुपया-पैसा, शान-शौकत और लौंडी-गुलामों की कमी न थी। रंगरेलियों की सभायें गर्म रहती थीं मगर यह सब चीजें ज़ुलेख़ा के दिल को दुख पहुँचाती थीं। अक्सर रातों को सब सो जाते तो वह जालिम आसमान से शिकायत के दफ्तर खोल देती।

चे दानिस्तम बवक़्ते चारासाजी
जे खानूमाँ मरा आवारा साजी।

मुझे क्या खूबर थी कि मेरे इलाज के वक़्त तू मुझे घर से बेघर करके आवारा कर देगा।

मरा बस बूद दागे बेनसीबी
फुँजूं करदी बरां दर्दे गरीबी।

मुझे बेनसीबी का दाग हो कुछ कम न था लेकिन तूने परदेस का दुख भी दिखाया।

उसके सिर पर जड़ाऊ ताज शोभा देता था, उसके रनिवास पर स्वर्ग निछावर था और उसका तख्त जड़ाऊ था मगर जब दिल पर गम का बोझ हो तो ऊपर की टीम-टाम से क्या सुख। इस ढंग से ज़ुलेख़ा ने अज़ीज़े मिस्र के साथ एक मुद्दत तक उम्र काटी। शायद उसका भेद अज़ीज़े मिस्र पर भी खुल गया था मगर ज़ुलेख़ा उसको छिपाने की कोशिश करती रही।

लबश वा खल्क दरगुफ्तार मी बूद
बले जानी दिलश वा यार मी बूद।

वह लोगों से बातें करती थी लेकिन उसकी जान और दिल अपने माशूक में रहते थे।

बसूरत बूद वा मरदुम नशस्ता
बमाने अज़ हमां खातिर गुसस्ता।

वह जाहिर में लोगों के साथ बैठती थी लेकिन दिल दोस्त में रहता था। इस तरह जब दिन कट जाता और रात की काली बला आ जाती तो वह –

खयाले दोस्त रा दूर खिलवते राज़
निशांदे ता सहर बर मसनदे नाज़।

एकांत में दोस्त के खयाल को सबेरे तक सामने रखती और –

बजानूए अदब ब नशस्तियश पेश
ब अर्जे ऊ रसानीदे गमे खेश।

उसके सामने अदब से बैठकर उससे अपना गम बयान करती। न जाने कितने वर्षों तक वह इस दिल की आग में जलती रही। आखिर उसकी मुहब्बत में सच्चाई देखकर खुदा को उस पर तरस आया। रंग बदलने वाला जमाना उसके लिए अनुकूल हुआ। हजरत यूसुफ़ को उनके दुश्मन भाइयों ने डाह के मारे कुएं में डाल दिया। यह यूसुफ़ ही थे जिनके रूप का दर्शन ज़ुलेख़ा को सपने` में हुआ था। संयोग की बात, कुछ सौदागरों ने यूसुफ़ को कुएं से जिंदा निकाल लिया और उन्हें गुलाम बनाकर बेचने के लिए मिस्र के बाजार में लाये। जब यहाँ पहुँचे तो उनके हुस्न का चर्चा कस्तूरी की ख़ुशबू की तरह फैला। जो देखता हैरान रह जाता। धीरे-धीरे मिस्र के बादशाह के कानों तक यह खूबर पहुँची। उसने अज़ीज़े मिस्र को हुक्म दिया कि जाकर गुलाम को देखो। अज़ीज़ ने उसे देखा तो अचम्भे से उंगलियाँ चबाने लगा और आकर बादशाह से गुलाम की बहुत तारीफ की।

इन दिनों ज़ुलेख़ा को और दिनों से ज्यादा बेचैनी थी। जब से हजरत यूसुफ़ कुएं में गिरे थे ज़ुलेख़ा को उनसे दिली लगाव होने की वजह से किसी सूरत चैन नहीं था। एक दिन वह दिल बहलाने के लिए शहर के पास एक जंगल में गयी और आराम की बहुत सी चीजें ले गई मगर वहाँ भी उसका जी न लगा। महल की तरफ आ रही थी कि रास्ते में बादशाह के महल के सामने एक भीड़ देखी। यूसुफ़ की तारीफ हर आदमी कर रहा था। लोग उनकी मुहब्बत में पागल हो रहे थे। ज़ुलेख़ा ने भी अपना हाथी रोका और ज्योंही यूसुफ़ पर उसकी निगाह पड़ी` उसकी आँखों से एक पर्दा-सा हट गया और बेअख्तियार दिल से एक ठंडी आह निकल आयी और वह बेहोश हो गयी। लौंडियों ने यह हालत देखी तो हाथी जल्दी से एकांत में लायीं। ज़ुलेख़ा जब होश में आयी तो दाई में उसके पागलपन का कारण पूछा। ज़ुलेख़ा बोली –

बगुफ्त ऐ मेहरबां मादर चे गोयम
के गरदद आफते मन हर चे गोयम।

ऐ मेरी प्यारी माँ, मैं तुझसे क्या कहूँ क्योंकि इसमें हर तरह से मेरी ही परीशानी है।

दरां मजमां गुलामे रा के दीदी
जे अहले मिस्र वस्फे ऊ शनीदी।

तूने उस भीड़ में जिस गुलाम को देखा और मिस्र वालों से जिसकी तारीफ सुनी-

जे आलम किबलागाहे जानेमन ऊस्त
फिदायश जानेमन जानानेमन ऊस्त।

मैं जिसे चाहती हूँ यह वही है और जिस पर जान निछावर करती हूँ यह वही है –

बतन दरतप बदिल दरताब अज़वेम
जे दीदा गर्क खूने नाब अजवेम।

मेरे बदन में बेकरारी और दिल में तड़प उसी से है और मेरी आँखें उसी के गम में खून रोती हैं –

जे खानूमा मरा आवारा ऊ साख्त।
दरीं बेचारगी आवारा ऊ साख्त।

मुझे घर से बेघर उसी ने किया और इस बेबसी में उसी ने डाला। दाई ने ज़ुलेख़ा की तसल्ली की। उधर मिस्र वालों ने यूसुफ़ की खरीददारी में अपनी कद्रदानियों का सबूत देना शुरू किया। जो आता मोल बढ़ाता था। ज़ुलेख़ा को एक-एक पल की खूबर मिलती थी और वह हर दफा बोली का दुगना कर देती थी। यहाँ तक कि कोई गाहक उसके सामने न ठहर सका। मगर अज़ीज़े मिस्र के पास इतनी दौलत न थी। जो कुछ पूंजी और जवाहिरात उसके खजाने में थे वो उसकी कीमत से आधे भी न थे। अज़ीज़े मिस्र ने यही बहाना पेश किया लेकिन –

ज़ुलेख़ा दाश्त दुर्जे पुर, जे गौहर
न दुर्जे बल्के बुर्जे पुर जे अख्तर।

ज़ुलेख़ा के पास एक मोतियों का डब्बा भरा हुआ था। वह मोतियों का डब्बा क्या था बल्कि सितारों की एक बुर्ज थी।

बहाये हर गुहर जां दर्रेु मकनूं
खिराजे मिस्र बूदे बल्कि अफजूं।

हर मोती की कीमत मिस्र के खिराज के बराबर थी बल्कि उससे भी ज्यादा।

अज़ीज़े मिस्र ने जब देखा कि यह बहाना नहीं चला तो कहने लगा कि मिस्र के बादशाह इस गुलाम को अपने गुलामों का सरदार बनाना चाहते हैं। अगर मैं इसे मोल लूँगा तो वह नाराज होंगे। ज़ुलेख़ा ने जवाब दिया –

बगुफ्ता रौ सूए शाहे जहाँदार
हके खिदमतगुज़ारीरा बजा आर।

ज़ुलेख़ा ने कहा कि बादशाह की खिदमत में जाओ और यह अर्ज करो –

बिगो बर दिल जुजीं बंदे न दारम
कि पेशे दीदा फर्जन्दे न दारम।

मैं इस गुलाम को इसलिए चाहता हूँ कि मेरे औलाद नहीं है, इसे औलाद समझकर अपने पास रक्खूँगा।

सरफराजी मरा जीं एहतरामम
के आयद जेरे फरमां ईं गुलामम।

मेरी इज्जत इसी में है कि इस लड़के को अपनी गुलामी में रक्खूँ –

बबुर्जम अख्तरे ताबिन्दा बाशद
मरा फर्ज़न्द शहरा बंदा बाशद।

यह मेरे बुर्ज का चमकदार सितारा होगा। मेरा बेटा बादशाह का गुलाम होगा।

आखिर अज़ीज़ ने मजबूर होकर ज़ुलेख़ा को खरीददारी की इजाजत दे दी मगर यह समझ में नहीं आता कि ज़ुलेख़ा यूसुफ़ को अपना बेटा बनाने की हिम्मत कैसे कर सकी। ज़ुलेख़ा ने जो सूरत सपने में देखी थी वह बच्चे यूसुफ़ की नहीं बल्कि जवान यूसुफ़ की थी। हाँ, यह हो सकता है कि यूसुफ़ पर नबी होने की वजह से उम्र का असर न हुआ हो। ज़ुलेख़ा अपना मतलब पाकर खुश हुई और कुछ दिनों उसकी आराम से बीती। कहती है –

चू बूदम माहीए दूर मातमे आब
तपां बर रेगे तुफ्ता अज गमे आब।

जब मैं गम के पानी में मछली की तरह थी और जलती हुई मिट्टी पर जलती हुई मछली –

दर आमद सैले अब्रे करामत
बदरिया बुर्द अजां रेगम सलामत।

तेरी मेहरबानी की बात आयी और मुझे खुशी के दरिया में ले गई।

के बूदम गुम रहे दूर जुल्मते शब
रसीदा जां जे गुमराहेम बरलब।

क्योंकि मैं रात के अंधेरे में भटक रही थी और गुमराही तक मेरी जान पहुँच गई थी।

बरामद अज़ उफक रख्शिंदा माहे
बकूए दौलतम बनुमूद राहे।

क्षितिज से एक चमकता हुआ चाँद निकला और उसने मुझे रास्ता दिखा दिया। ज़ुलेख़ा को अब यूसुफ़ की दिलजोई और खातिरदारी के सिवा दूसरा कोई काम न था।

चू ताजे जार ब फर्कश निहादे।
निहांरा बोसअश बरफर्क दादे।।

कभी उसके सर पर जड़ाऊ मुकुट रखती और छु पकर उसका सर चूम लेती –

चू पैराहन कशीदे बर तने ऊ
शुदे हमराज बा पैराहने ऊ।

कभी उसके कपड़े उतारती और उसे नंगा देखती –

कमर चूं चुस्त करदे बरमियानश
गुज़श्ते ईं तमन्ना बरजबानश।

कभी उसकी कमर बाँधती तो अपनी जबान से यह इच्छा प्रकट करती –

के गर दस्तम कमर बूदे चे बूदे
जे वस्लश बहरावर बूदे चे बूदे।

अगर मेरा हाथ तेरी कमर में होता तो क्या होता और अगर मैं एकांत में तुझसे मिलती तो कितना अच्छा होता।

मुसलसल गेसुवश चू शाना कर्दे
मदावाए दिले दीवाना कर्दे।

बार-बार उसके बालों में कं घी कर-करके अपने पागल दिल को तसल्ली देती।

गमश खुर्देु व गम ख्वारीश कर्दे
बखातूनी परस्तारीश कर्दे।

उसका गम खाती, खयाल रखती और उसकी सेवा स्त्री की तरह करती। मगर चूंकि यूसुफ़ पैगम्बर के लिए गड़रिया होना जरूरी था, इस आराम में उनका जी न लगा। ज़ुलेख़ा ने उनके दिल का झुकाव देखा तो उनकी दिलजोई के खयाल से उनके लिए गड़रिये के काम का सामान कर दिया। रेशम की रस्सियाँ बनवाईं, जड़ाऊ लकडी तैयार कराई और हजरत यूसुफ़ चरवाही करने लगे मगर इश्क का जादू निराला है।

उम्मीदे कामरानी नीस्त दूर इश्क
सफाये जिंदगानी नीस्त दूर इश्क।

इश्क में दिल की मुराद पाना और साफ जिंदगी गुजारना मुश्किल है।

ज़ुलेख़ा बूद यूसुफ़ रा न दीदा
ब ख्वाबे ऊ खयाले आरमीदा।

ज़ुलेख़ा यूसुफ़ को बिन देखे बेचैन रहती और नींद में भी उसी का ध्यान रहता।

बजुज दीदारश अज़ हर जुस्तजूए
न मीदानिस्त खुद रा आरजूए।

वह सिवाय यूसुफ़ को देखने के और कोई इच्छा नहीं रखती थी।

चू शुद अज़ दीदने ऊ बहरा मंदी
जे दीदन ख्वास्त तबए ऊ बलंदी।

जब उसे देखती तो अपनी आत्मा में एक तरह की खुशी और बुलंदी पाती।

जे लाले ऊ बबोसा काम गीरद
जे सर्वश वा कनार आराम गीरद।

उसके होंट चूमने और सर गोद में रखने से आराम महसूस करती।

वले नज्जारगी कामद सुए बाग
जे शौक गुल चू लाला सीना बरदाग।

अगर कभी बाग देखने आती तो लालह (ट्यूलिप का फूल) की तरह अपने दिल पर माशूक का दाग पाती।

न खुस्त अज़रूये गुल दीदन शवद मस्त
जे गुल दीदन बगुल चीदन बरूदस्त।

फूलों को देखकर मस्त हो जाती और फुल चुनने लगती।

जब तक ज़ुलेख़ा ने यूसुफ़ को न देखा था, सिर्फ देखने की इच्छा थी। अब मिलने का शौक पैदा हुआ, मगर

ज़ुलेख़ा बह्रे यक दीदन हमी सोख्त
वले यूसुफ़ जे दीदन दीदा बरदोख्त।

ज़ुलेख़ा यूसुफ़ को एक नजर देखने के शौक में दिल ही दिल में जलती थी और यूसुफ़ ने ज़ुलेख़ा को न देखने के खयाल से आँखें सी ली थीं।

जे बीमे फितना सुए ऊ न मी दीद
ब चश्मे फितना रूये ऊ न मी दीद।

ज़ुलेख़ा जब यूसुफ़ को देखती, बुरे खयाल से देखती और उसकी उन पर जो नजर पड़ती बुरी होती। लेकिन यूसुफ़ की लापरवाही ने ज़ुलेख़ा को गम के भंवर में डाल दिया। फिर उसकी तबीयत में पागलपन पैदा हो गया। कंघी चोटी से घिन हो गई। मेहरबान दाई ने बड़े प्यार से इस हार्दिक दुख का कारण पूछा। ज़ुलेख़ा ने अपनी कहानी निराशा के साथ शुरू की और उसे यूसुफ़ के पास मिलने का संदेशा देकर भेजा। मगर यूसुफ़ का कदम सच्चाई के रास्ते से न डिगा और उन्होंने जवाब दिया।

ज़ुलेख़ा रा गुलामे जर खरीदम
बसा अज वै इनायतहा के दीदम।

ज़ुलेख़ा ने मुझे रुपया देकर मोल लिया है और मुझ पर बड़ी-बड़ी मेहरबानियाँ की हैं।

गिलो आबम इमारत कर्दये ऊस्त
दिलो जानम वफा परवर्दये ऊस्त।

मुझे उसने बड़ी मेहरबानी से पाला पोसा और बनाया-संवारा है।

अगर उम्रे कुनम नेमत शुमारी
नियारम कर्दन ऊरा हक गुज़ारी।

अगर मैं सारी उम्र उसकी मेहरबानियों का हिसाब करूँ तो भी उसका हक अदा नहीं कर सकता।

बफरजंदे अज़ीज़म नाम बुर्दस्त
अमीने खानए खेशम सपुर्दस्त।

मुझे अज़ीज़े मिस्र के बेटे का नाम दिया और अपने घर की निगरानी मुझे सौंपी।

नयम जुज़ मुर्गे आबोदानये ऊ
खयानत चू कुनम दूर खानये ऊ।

मैं उसका खिलाया-पिलाया और पाला पोसा हूँ। उसके घर में डाका कैसे डाल सकता हूँ।

जब दाई के जादू से काम न चला तो ज़ुलेख़ा खुद सवाल को सूरत बनकर यूसुफ़ के पास आई और यूसुफ़ से मेहरबानी की भीख माँगी मगर यूसुफ़ ने उसे भी बड़ी समझदारी से जवाब दिया।

खुदावंदे मजू अज बन्दये खेश
बदीं लुत्फम मकुन शर्मिन्दए खेश।

ऐ मेरी मालिक, अपने गुलाम से ऐसे काम की उम्मीद न रख और अपनी मेहरबानियाँ से शर्मिन्दा न कर।

कियम मन ता तुरा दम साज गरदम
दरी खाँ बाअज़ीज़ अंबाज गरदम।

मैं वो नहीं हूँ कि तेरे इस हुक्म को बजा लाऊँ और अज़ीज़ की थाली में शरीक हो जाऊँ ।

ब बायद बादशाह आं बंदा रा कुश्त
कजू बायक नमकदां बावै अंगुश्त।

बादशाह को चाहिए कि उस गुलाम को मार डाले जो उसके नमकदान में अपनी उंगली डाले।

यूसुफ़ का जवाब साफ और सच्चाई से भरा हुआ था। हयादार औरत को डूब मरने के लिए इशारा बहुत था मगर इश्क ने ज़ुलेख़ा को अंधा कर दिया था। उसने यूसुफ़ को जब इंसानियत के पर्दे में छु पते देखा तो उसे पर्दे को हटा देने की कोशिश शुरू की। उसके पास एक बाग था। उसे खूब सजाकर, बहुत सी खूबसूरत लौंडियाँ वहाँ भेजीं और यूसुफ़ को भी सैर करने के लिए भेजा। लौंडियों से ताकीद कर दी कि यूसुफ़ को रिझाने में कोई कसर उठा न रखना और यूसुफ़ को यह दोस्ती-भरी राय दी –

अगर मन पेशे तू बर तू हरामम
वजीं मानी ब गायत तल्ख कामम।

अगर मैं तेरे लिए हराम हूँ और तू इसीलिए मुझे बुरी समझता है –

बसूए हर के ख्वाही गाम बरदार
जे वस्ले हर के ख्वाही काम बरदार।

इनमें से जिसे जी चाहे उससे जी बहला और अपना मतलब पूरा कर। इन चालों का मतलब यह था कि जब यूसुफ़ इन लौंडियों में से किसी से अपना मतलब पूरा करने का खयाल जाहिर करें तो ज़ुलेख़ा –

निशानद खेश रा पिनहा बजाएश
खुरद बर अज़ निहाले दिलरुबायश।

छुपकर उस लौंडी की जगह बैठ जाये और इस तरह अपना मतलब पूरा करे।

इससे साफ जाहिर होता है कि ज़ुलेख़ा का प्रेम वासना का दूसरा नाम था। मगर उसकी कोई कोशिश कारगर न हुई। यूसुफ़ ने इन लौंडियों को खुदा की मुहब्बत का ऐसा पाठ पढ़ाया कि वो अपने गन्दे खयाल से हाथ धो बैठी और जब ज़ुलेख़ा पिया मिलन की इच्छा लिये हुए वहाँ पहुँची तो लौंडियों को खुदा के सामने सजदे में सर झुकाये पाया। निराश होकर वहाँ से वापस लौटी और रो-रोकर दाई से अपने दिल का दुख सुनाने लगी। दाई ने समझाया, खुदा की मेहरबानी से आप भी एक ही सुंदरी हैं। आप अपने ढंग और अदाओं से यूसुफ़ को पिघला सकती हैं। ज़ुलेख़ा ने जबाब दिया यह तो सच है मगर वह जालिम मेरी तरफ आँख उठाकर देखे तो। वह तो मेरी तरफ ताकता ही नहीं। आँखें चार हों तब तो दिल मिले।

न तनहा आफतम जेबाइये ऊस्त
बलाये मन जे नापरवाइये ऊस्त।

उसका रूप ही मेरे लिए आफत नहीं है, उसकी लापरवाही और भी बड़ी आफत है।

आखिर जब परखने से साबित हो गया कि इन छोटी-छोटी चालों से काम न चलेगा, तो दाई ने एक बड़ी चाल चली। रुपये की कमी न थी। एक बहुत बड़ा महल बनवाया गया जिसमे सात खंड थे। इस सतखंडे महल को उस्ताद ने ऐसा अच्छा बनाया कि हर खंड पहले खंड से बढ़-चढ़कर था और सातवाँ खंड तो जैसे सातवें आसमान का जवाब था। हीरे-जवाहिरात, कस्तूरी, अम्बर और फलदार पेड़ और दुनिया भर की सजावट वहाँ मौजूद थी। उसकी हवा दिलों में नशा पैदा करती थी। उसकी सजावट निराली थी।

दरां खाना मुसव्विर साख्त हर जा
मिसाले यूसुफ़ ओ नक्शे ज़ुलेख़ा।

इस महल में चित्रकार ने जगह-जगह यूसुफ़ और ज़ुलेख़ा को तस्वीरें बनाई थीं।

बहम बनशस्ता चूं माशूक ओ आशिक
जे मेहरे जानों दिल बाहम मुवाफिक।

आपस में प्रेमी और प्रेमिका ऐसे बैठे थे जैसे दिल और जान एक-दूसरे से अलग नहीं हो सकते।

बयक जा ईं लबे आ बोसा दादा
बयक जा आं मियाने ईं कुशादा।

कहीं यह उसका मुँह चूम रहा है और कहीं वह इसका नाड़ा खोल रही है। जब यह महल हर तरह सज गया तो ज़ुलेख़ा ने भी अपने को खूब दिल खोलकर सजाया और जाकर पहले हिस्से में बैठी। यूसुफ़ भी बुलाये गये। उन्हें देखते ही ज़ुलेख़ा बेचैन हो गयी, सब्र हाथ से जाता रहा। यूसुफ़ का हाथ एक खास अंदाज से पकड़कर इधर उधर की सैर कराने लगी। यहाँ सिवाय आशिक और माशूक के कोई रंग में भंग डालने वाला न था। ज़ुलेख़ा बार-बार इश्क का जोश जताती थी मगर यूसुफ़ धर्म और इंसानियत की दलीलों से उसे चुप कर देते थे।

सवाल और जवाब –

यूसुफ़ –

मरा अज़ बंदे गम आजाद गर्दा
ब आजादी दिलम रा शाद गर्दा

मुझे गम की कैद से आजाद कर दे और आजादी से मेरा दिल खुश कर दे।

मरा खुश नीस्त की जा बा तू बाहाम
पसे ईं पर्दा तनहा बा तू बाशम।

मुझे यह अच्छा नहीं लगता कि इस जगह पर्दे के पीछे तेरे साथ रहूँ।

ज़ुलेख़ा –

तिही कर्दम खजाइन दूर बहायत
मताए अक़्लो दीं कर्दम फिदायत।

मैंने तेरी कीमत पर खजाना खाली कर दिया और तुझ पर अक़्ल और धर्म की पूंजी निछावर कर दी।

ब आं नियत कि दरमानम तू बाशी
रहीने तौके फरमानम तू बाशी।

इस ख्याल से कि तू मेरे दुख का इलाज करेगा और मेरे हुक्म में रहेगा। यूसुफ़ –

बिगुफ्ता दूर गुनह फरमांबरी नीस्त
ब इसियां जीस्तन खिदमतगरी नीस्त।

वह हुक्म जिसमे पाप हो उसे बजा लाना आज्ञा-पालन नहीं है और पाप की जिंदगी बिताना सेवा नहीं है।

ज़ुलेख़ा एक घर से दूसरे घर में जाते वक्त उसके दरवाजे पर ताला लगा देती थी कि यूसुफ़ भाग न जाए। इश्क उसकी अक़्ल पर धुएं की तरह छा गया था कि वह उस नतीजे को, जो दिल के लगाव ही से मुमकिन है, जबर्दस्ती हासिल करना चाहती थी। सातवें खंड में पहुँचकर ज़ुलेख़ा ने बहुत ही नर्मी से अपनी दास्तान कही कि जैसे अपना कलेजा ही निकालकर रख दिया मगर यूसुफ़ का दिल न पसीजा। आखिर जब उसकी कामना हद से आगे बढ़ गई तो यूसुफ़ ने यह कहकर उसकी तसल्ली की कि जल्दी से काम बिगड़ता है। ज़ुलेख़ा उसका यों जवाब देती है –

जे शौकम जां रसीदा बर लब इमरोज
नियारम सब्र करदन ता शब इमरोज।

तेरे इश्क में मेरी जान होंठों पर आ गई। अब आज रात तक मैं धीरज नहीं रख सकती।

के आं ताकत मरा आयद पिदीदार
के बावक़्ते दिगर अंदाजम ई कार।

मुझमें इतनी ताकत कहाँ है कि दूसरे वक्त पर यह काम छोड़ूँ।

ज़ुलेख़ा पिया-मिलन के नशे में मतवाली हो रही है और यूसुफ़ कहते हैं, इसमें दो बातें रुकावट डालती हैं। एक तो खुदा का डर और दूसरे अज़ीज़े मिस्र का। तो वह उन दोनों को दूर करने की तरकीब बताती है कि अज़ीज़े मिस्र को--

दिहम जामे कि बा जानश सतेजद
जे मस्ती ता कमायत बर न खेज़द।

मैं एक ऐसा प्याला पिला दूँगी कि उसके नशे से वह फिर उठ न सकेगा और खुदा से इस पाप की माफी के लिए अपना सारा खजाना गरीबों और फकीरों को दे दूँगी। इस पर यूसुफ़ कहते हैं, न तो मेरा खुदा रिश्वत खाता है और न मैं ऐसा एहसान भुला देने वाला हूँ कि अपने ही मालिक को मारने की राय दूँ। आखिर ज़ुलेख़ा की जब एक न चली तो उसने एक तेज तलवार हाथ में लेकर खुद मरने का इरादा जाहिर किया।

चू यूसुफ़ आं बिदीद अज़ जाएँ बरजस्त।
चू ज़रीं मार बिगिरिफ्तरा सरे दस्त।।

यूसुफ़ फौरन अपनी जगह से उठे और एक सुनहरे सांप की तरह उसके हाथ को पकड़ लिया।

कजीं तुंदी बियाराम ऐ ज़ुलेख़ा।
वजीं रू बाज कश काम ऐ ज़ुलेख़ा।

ऐ ज़ुलेख़ा, इतनी जल्दी न कर और इस खयाल से मुँह मोड़।

ज़ुलेख़ा ने जब यूसुफ़ को जरा नर्म होते देखा तो उनकी गर्दन में हाथ डालकर लिपट गई और ऐसी हरकतें करने लगी जो एक कुँवारी लड़की को शोभा नहीं देतीं। शायद इस वक़्त हजरत यूसुफ़ नबी के पद पर होते हुए भी सीधे रास्ते से डगमगा गये थे। मगर इस एकांत की हालत में उनकी नजर एक सुनहरे पर्दे पर पड़ी जो सामने लटक रहा था। ज़ुलेख़ा से पूछा, यह पर्दा क्यों पड़ा है। ज़ुलेख़ा बोली, इसके अंदर मेरा खुदा है। मैंने उसके ऊपर पर्दा डाल दिया है कि उसकी निगाह मुझ पर न पड़ सके । ज़ुलेख़ा का इतना कहना गजब हो गया। यूसुफ़ बोले, तू एक पत्थर की मूरत का इतना लिहाज करती है और मैं अपने सब कुछ देखने और सब जगह हाजिर रहने-वाले खुदा से जरा भी न डरूँ । यह कहकर फौरन वहाँ से उठ खड़े हुए और बाहर की तरफ चले। खुदा का करना भी कुछ ऐसा ही हुआ कि हर दरवाजें पर पहुँचते ही लोहे के ताले खुलते गये। ज़ुलेख़ा ने जब यूसुफ़ को भागते देखा तो झल्लाकर –

पये बाज आमदन दामन कशीदश
जे सूए पुश्त पैराहन बुरीदश।

उनके पीछे लपकी और पीछे से दामन पकड़ा जिससे उनका कुर्ता फट गया।

बुरूं रफ्त अज़ कफे आं गमरसीदा
बसाने गुंचा पैराहन दरीदा।

लेकिन हजरत उसके पंजे से ऐसे बाहर निकल गये जैसे कली पंखड़िुयों के पर्दे से बाहर निकल आती है।

यूसुफ़ इस महल से निकल ही रहे थे कि अज़ीज़े मिस्र आते दिखाई दिये। उन्होने यूसुफ़ का हाथ मुहब्बत के जोश में पकड लिया और फिर महल में दाखिल हुए। ज़ुलेख़ा ने जब यूसुफ़ को अज़ीज़ के साथ देखा तो समझो कि इसने मेरी शिकायत की है। फौरन त्रिया-चरित्र खेली, बोली कि आज मैं इस कमरे में सोती थी तो यह गुलाम, जिसे मैंने अपना बेटा कहा है, दबे पाँव मेरी सेज की तरफ आया और मेरी इज्जत लेनी चाही। इतने में मैं जाग पड़ी और यह भाग निकला। अज़ीज़ ने यह दास्तान सुनी तो यूसुफ़ को खूब भला-बुरा कहा कि मैंने तुझे बेटे की तरह पाला-पोसा और तू ऐसा जानवर निकला। तब यूसुफ़ ने मजबूर होकर सारा कच्चा चिट्ठा कह सुनाया मगर ज़ुलेख़ा के रोने-धोने ने अज़ीज़ को पिघला दिया और हजरत यूसुफ़ जेल में डाल दिये गये। यहाँ खुदा के दरबार में उनकी पुकार यहाँ तक मंजूर हुई कि ज़ुलेख़ा की चालों और यूसुफ़ के बेकुसूर होने की गवाही एक दूध- पीते बच्चे ने दी। अज़ीज़े मिस्र को अब शक की कोई गुंजाइश बाकी न रही। उसने यूसुफ़ को छोड़ दिया और ज़ुलेख़ा को सजा दी। जब यह किस्सा चारों तरफ फैला और लोग ज़ुलेख़ा को ताने देने लगे तो उसने अपने शौहर से कहा कि मैं इस गुलाम के पीछे बदनाम हो रही हूँ, आप इसे मेरी नजरों से दूर कर दीजिए। अज़ीज़ ने यूसुफ़ को फिर कैद किया मगर –

चे मुश्किल जां बतर बर आशिके जार
कि बेदिलदार बीनद जाये दिलदार।

उस आशिक की बुरी हालत का क्या ठिकाना है जो अपने माशूक की जगह खाली देखे –

चू खाली दीद अज़ गुल गुलशने खेश
चू गुंचा खाक ज़द पैराहने खेश।

जब उसने अपने बाग में अपना फूल न देखा तो कली की तरह अपनी पंखरिु याँ मिट्टी पर गिरा दीं। जब विरह का दुख न सह सकती तो छिपकर अपनी दाई के साथ जेल में जाती और यूसुफ़ को देख आती। इधर यूसुफ़ जेलखाने में सपनों का मतलब बताने में मशहूर हो गये। सपना सुनते ही उसका मतलब बता देते। उन्हीं दिनों मिस्र के बादशाह ने सपना देखा कि मेरे मकान में पहले सात मोटी-मोटी गायें आयीं, उनके बाद सात दुबली- पतली गायें आयीं और इन मोटी-मोटी गायों को सूखे गेहूँ की तरह खा गईं। इस सपने का कोई मतलब न बता सकता था। यूसुफ़ के सपने का हाल बताने का जिक्र बादशाह तक पहुँच गया था। बादशाह ने उन्हें दरबार में बुलाया और यूसुफ़ ने सपने का मतलब बताया कि पहले मिस्र में सात बरस तक खूब गल्ला पैदा होगा, लोग आराम से रहेंगे, उसके बाद अकाल और मंहगाई के बरस आयेंगे और उस जमाने में प्रजा को बड़े कष्ट का सामना होगा। बादशाह इस मतलब से बहुत खुश हुआ और उसी वक्त से यूसुफ़ उसकी नजर में चढ़ गये। इज्जत और पद बढ़ने लगा मगर ज्यों-ज्यों उनका पद बढ़ता गया अज़ीज़े मिस्र का पद घटता गया यहाँ तक कि इसी दुख में वह मर गया। अज़ीज़े मिस्र के मरते ही ज़ुलेख़ा के भी बुरे दिन आये। आखिर यह हालत हो गई कि यूसुफ़ के रास्ते पर एक छोटी-सी मडैया बना कर –

ब हसरत बर सरे राह नशस्ते
खरोशां बर गुजरगाहश नशस्ते।

उसके रास्ते में बैठ जाती और पागलों की तरह रोती-धोती और चीखती- पुकारती रहती थी। लड़के आते, उसे छेड़ते। इश्क ने पागलपन की जगह ले ली थी। कैसी दखु -भरी तस्वीर है। यह वही महलों वाली ज़ुलेख़ा है जो आज इस हालत को पहुँच गई है।

जब इस पागलपन को एक मुद्दत बीत गई तो एक रोज नाकामी और निराशा से झल्लाकर ज़ुलेख़ा ने अपने खुदा को चूर-चूर कर डाला और इसी पागलपन की हालत में हजरत यूसुफ़ के पास गई। यूसुफ़ ने हैरान होकर नाम-पता पूछा, ज़ुलेख़ा को पहचान न सके । ज़ुलेख़ा बोली –

बिगुफ्त आनम कि चूं रूये तू दीदम
तुरा अज़ जुमला आलम बरगुज़ीदम।

मैं वह हूँ कि जब मैंने तेरी सूरत देखी तो तुझे सारी दुनिया से अच्छा समझकर चुन लिया।

फिशांदम गंजो गौहर दूर बहायत
दिलोजां वक्फ कर्दम दूर हवायत।

तेरे मोल पर अपना खजाना और जवाहिरात लुटा दिये और अपना दिल और जान तुझ पर निछावर कर दी।

जवानी दूर गमत बरबाद दादम
बरीं रोजे कि मो बीनी फितादम।

तेरे गम में अपनी जवानी बर्बाद कर दी जिसका नतीजा आज तू देख रहा है।

यह सुनकर हजरत यूसुफ़ को बहुत तकलीफ हुई और वह रोने लगे। किस्सा कोताह, उनकी दआओं ने ज़ुलेख़ा के दुबारा जवानी और रूप दिलवाया और तब खुदा की इजाजत से उन्होंने ज़ुलेख़ा से शादी कर ली। यह है ज़ुलेख़ा का बहुत मशहूर किस्सा। ज़ुलेख़ा किसी तरह ऊँचे चरित्र का नमूना नहीं कही जा सकती। उसके प्रेम का स्थान बहुत नीचा है। वह एक चंचल स्वभाव और विचारों की स्त्री है और गंदी इच्छाओं पर ईमान और सब कुछ लुटा सकती है। जिन हालतों में जो कुछ उसने किया वही हर एक मामूली औरत करेगी। इसलिए कहा जा सकता है कि ज़ुलेख़ा एक हद तक सच्चाई के रंग में रंगी हुई हैं। इससे हजरत जामी का शायद यह मतलब होगा कि उसकी कमजोरियाँ दिखाकर यूसुफ़ की बड़ाइयों की इज्जत बढ़ायें और इस इरादे में वह जरूर कामयाब हुए हैं।

[उर्दू मासिक पत्रिका ‘जमाना’, अगस्त 1909]

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