ज़ियाद बातिर : उज़्बेक लोक-कथा
Ziyad Baatir: Uzbek Folk Tale
बहुत दिन हुए एक सुलतान नाम का बादशाह था । उसकी बेटी सुंदर, सुशील, बुद्धिमान और विद्वान थी। उसका नाम क़मरखान1 था।
तीर, बरछी और तलवार चलाने में कोई शाहजादी का मुक़ाबला नहीं कर सकता था ।
बादशाह अपनी बेटी को बेटे से भी ज़्यादा प्यार करता था । क़मरखान से शादी के इच्छुक नौजवानों की कोई गिनती नहीं थी । बहुत-से देशों के बादशाहों और ज़मींदारों के बेटे उससे शादी करने आये, पर सबको उसने बस एक ही जवाब दिया :
"मेरा शादी करने का कोई इरादा नहीं है ।"
बादशाह के महल में एक बूढ़ा दस्तकार काम करता था। वह सब हुनरों में माहिर था । उसकी बनायी चीजें बादशाह को बहुत पसन्द आती थीं और उसने बूढ़े दस्तकार को सब दस्तकारों का सरदार बना दिया ।
उस दस्तकार का एक बीस साल का बेटा था, जो सुगठित और सुन्दर होने के साथ-साथ बहादुर और बुद्धिमान भी था। उसका नाम ज़ियाद बातिर था। दूसरे बहादुरों में उसका नाम बड़ा मशहूर था।
दस्तकार ने अपने बेटे को अपना हुनर सिखाना चाहा और बोला : "मेरे बेटे हुनर सीख ले बड़ा होने पर तेरे काम आयेगा ।
थोड़े समय में ही बेटे ने अपने पिता से सभी हुनर सीख लिये । पिता अपने पुत्र को देखकर खुश होता, पर उसे यह पता न था कि ज़ियाद बातिर सुन्दर शाहजादी के प्यार में तड़पता है, रात भर सोता नहीं, आहें भरता है।
एक बार क़मरखान ने दस्तकार को एक धनुष बनाने का हुक्म दिया। बूढ़े ने काम शुरू कर दिया और कुछ दिनों में ही धनुष बना डाला ।
पर ज़ियाद बातिर भी धनुष बनाने लगा। काम समाप्त करने के बाद उसने यह धनुष अपने पिता को दिखाया ।
उस धनुष पर बेलबूटेदार लिखावट में दो पंक्ति की एक प्रेम-कविता लिखी थी ।
दस्तकार ने धनुष देखा और हैरत में पड़ गया। ज़ियाद बातिर का धनुष लाजवाब था । इस धनुष को हाथ में लेने के बाद कोई उसकी सराहना किये बग़ैर नहीं रह सकता था । बूढ़ा दस्तकार बहुत खुश हुआ और अपने बेटे का माथा चूमकर बोला :
"शाबाश, मेरे बेटे ! तू इतनी अच्छी तरह मेरे सारे हुनर सीख गया, अब तू जिन्दगी में कभी ग़रीब नहीं रहेगा ।"
दस्तकार ने शाहजादी को ज़ियाद बातिर का बनाया हुआ धनुष भेजा। शाहजादी को धनुष बड़ा पसंद आया । वह ऐसा ही धनुष पाना चाहती थी ।
शाहजादी ने दस्तकार को क़ीमती तोहफ़े भेजे ।
कुछ समय बाद दस्तकार की मृत्यु हो गयी। बादशाह ने ज़ियाद बातिर को बुलवाया और उसे सब दस्तकारों का सरदार बना दिया।
एक बार बादशाह अपनी बेटी के पास आया और उसने वहाँ दीवार पर बेहद खूबसूरत धनुष टँगा हुआ देखा । बादशाह ने धनुष को दीवार से उतारकर देखा, उसकी बनावट देखकर बहुत खुश हुआ और हैरत में पड़ गया।
अचानक बादशाह ने धनुष पर लिखी हुई कविता देखी और पढ़ी। उसने ज़ियाद बातिर को बुलाकर पूछा :
"यह कविता धनुष पर किस ने लिखी है ?"
"मैंने, ज़ियाद बातिर ने जवाब दिया ।"
"नमकहराम, तेरे लिए यह क्या कम है कि मैंने तुझे सब दस्तकारों का सरदार बना दिया ? और तू मेरी बेटी के लिए प्रेम-कविता लिखता है ।"
बादशाह आग-बबूला हो गया और उसने जल्लाद को बुलाकर ज़ियाद बातिर को मौत की सजा देने का हुक्म दिया।
पर एक वजीर ने बादशाह के पैरों में गिरकर नौजवान दस्तकार को माफ़ कर देने और उसकी जान बख्शने की प्रार्थना की। बादशाह ने वजीर की बात मान ली, पर फिर भी उसने ज़ियाद बातिर को शहर से निकाल देने का हुक्म दिया ।
ज़ियाद बातिर लंबे सफ़र पर निकल पड़ा। वह बहुत दिनों तक स्तेपी और पहाड़ियों में चलता रहा और बहुत-से रास्तों पर भटकता हुआ अंत में पहाड़ों के पास पहुँचा। उसे जगह बहुत अच्छी लगी। चारों ओर हरी-भरी घास थी, साफ़ हवा थी, जिसको देखकर उसका दिल खुश हो उठा और उसने वहीं आराम करने की ठानी। ज़ियाद बातिर को पास ही एक बूढ़ा चरवाहा घोड़े चराता नजर आया। उसने चरवाहे के पास पहुँचकर सलाम किया।
बूढ़े ने देखा कि नौजवान बुरी तरह थक गया है, उसने मशक में से निकालकर एक प्याला क़िमिज2 उसे दिया ।
"कहाँ से आ रहे हो, बेटा ?" चरवाहे ने पूछा ।
ज़ियाद बातिर ने सारा किस्सा चरवाहे को बता दिया। बूढ़े को उस पर दया आयी और उसने सहानुभूतिपूर्वक पूछा :
"और अब कहाँ जा रहे हो, बेटा ?"
"मैं कहाँ जाऊँगा, अब्बा ? बेघर कहाँ जा सकता है ? जाऊँगा, जहाँ मेरे पैर मुझे ले जायें ।"
बूढ़ा बोला :
"मैं यहाँ के लोगों के घोड़े चराता हूँ। मैं खानदानी चरवाहा हूँ। अगर तुम्हें यह जिंदगी पसंद हो, तो तुम मेरे बेटे की तरह रहो। "
ज़ियाद बातिर को चरवाहे की बात अच्छी लगी ।
"अब्बा, अगर आप मुझे पनाह दे रहे हैं और इसके अलावा मुझे अपना बेटा समझकर रखना चाहते हैं, तो मैं तहेदिल से आपके साथ रहने को तैयार हूँ ।"
इस तरह ज़ियाद बातिर चरवाहे के पास रहकर घोड़े चराने लगा । वह अच्छी तरह गुलेल चलाना भी सीख गया ।
जब कभी जंगली जानवर घोड़ों के झुंड पर हमला करते, ज़ियाद बातिर गुलेल से पत्थर का अचूक निशाना लगाकर उन्हें खदेड़ देता ।
बूढ़ा चरवाहा बहुत खुश था। पहले जंगली जानवर उसे काफ़ी नुक़सान पहुँचाते थे, पर ज़ियाद बातिर के आने के बाद से घोडे चैन से चरने लगे ।
ज़ियाद बातिर की ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी।
ज़ियाद बातिर को अपने धर्मपिता के साथ घोड़े चराता छोड़कर अब आप बादशाह की बेटी शाहजादी क़मरखान का हाल सुनिये ।
क़मरखान ने किसी को नहीं बताया कि वह ज़ियाद बातिर को प्यार करती है, पर उसने अपने दिल में बहुत पहले ही फ़ैसला कर लिया था :
"अगर मेरे पिता मेरा विवाह करना चाहेंगे, तो मैं केवल ज़ियाद बातिर से ही विवाह करूँगी ।"
बादशाह ने जब ज़ियाद बातिर को शहर से बाहर निकाल दिया, तब क़मरखान की जिन्दगी में अंधेरा छा गया। वह दिन-रात ज़ियाद बातिर के बारे में सोचती रहती और रोती रहती । काफी समय तक शाहजादी ने अपने दिल का दुःख किसी को नहीं बताया । उसकी चालीस दासियाँ थीं। उनमें से सबसे बड़ी का नाम हुमायुं था ।
क़मरखान तड़पती रही, तड़पती रही और अंत में उसने अपने दिल के दुःख के बारे में हुमायुं को बता ही दिया। अपना गम भुलाने के लिए क़मरखान अक्सर शिकार पर जाने लगी ।
बसंत के एक दिन क़मरखान अपने पिता से इजाजत लेकर दासियों के साथ मर्दाने कपड़े पहने शिकार पर गयी। उन्होंने जंगल में पहुँचकर कई चकोर और दूसरी चिड़ियाँ मारीं । इसके अलावा उन्हें और कोई शिकार नज़र नहीं आया।
क़मरखान घोड़ा दौड़ाकर आगे बढ़ी और उसने दूर आसमान को छूता एक ऊँचा पहाड़ देखा। क़मरखान पहाड़ की ओर बढ़ी। अचानक तंग घाटी में से एक भेड़िया उसकी ओर लपका। क़मरखान ने तीर चलाकर भेड़िये को मार दिया और उसकी खाल उतारकर अपनी दासियों में से एक को दे दी ।
क़मरखान अपनी दासियों के साथ आगे बढ़ी तो उसे जंगल में एक हिरण चरता हुआ नज़र आया। हिरण के कानों में सोने की बालियाँ थीं, सींगों पर सोने की मुहरें लटक रही थीं और गरदन पर बेशक़ीमती हार थे। क़मरखान को हिरण बहुत अच्छा लगा और उसने उसे पकड़ना चाहा।
"इस हिरण को पकड़कर मेरे पास ला दो,” उसने दासियों को आज्ञा दी, "पर उस पर तीर मत चलाना, कमंद से पकड़ना । देखना, कोई हिरण को छोड़े नहीं, और अगर किसी ने उसे छोड़ किया, तो मैं उसे शिकार से निकाल दूँगी और सारी दुनिया के सामने उसकी बेइज्जती करूँगी।"
दासियों ने कमंद संभाल कर हिरण को घेरना शुरू किया। हुमायुं ने कमंद फेंकी, पर निशाना चूक गया। हिरण शाहजाही के सामने से भागा। क़मरखान ने एक के बाद एक तीन बार कमंद फेंकी, पर हिरण को न पकड़ पायी। उसे अपनी दासियों के सामने बड़ी शरमिन्दगी महसूस हुई और दुःख भी हुआ । इस लिए उसने हिरण के पीछे घोड़ा दौड़ाया।
हिरण तीर की तरह भागा जा रहा था ।
शाहजादी का घोड़ा भी हवा से बातें कर रहा था, पर वह हिरण के पीछे ही दौड़ता रहा। अंत में हिरण और घोड़ा दोनों ही थक गये। हिरण हाँफता हुआ एक गुफ़ा में घुस गया।
शाहजादी खुश हुई, उसने सोचा, " अब इसे जरूर पकड़ लूँगी।" वह भी गुफ़ा में घुसी, पर गुफ़ा का एक और रास्ता भी था और हिरण उसमें से निकलकर भाग गया।
क़मरखान ने फिर घोड़ा हिरण के पीछे दौड़ाया। वह घोड़ा दौड़ाती रही, दौड़ाती रही और उस पहाड़ के पास आ पहुँची, जहाँ ज़ियाद बातिर घोड़े चरा रहा था ।
ज़ियाद बातिर ने जब देखा कि कोई घुड़सवार हिरण का पीछा कर रहा है, तो उसने निशाना लगाकर गुलेल से पत्थर मारा। पत्थर निशाने पर लगा और हिरण का एक सींग टूट गया। हिरण ज़मीन पर गिर पड़ा।
क़मरखान आग-बबूला हो गयी और तलवार निकालकर बोली :
"ऐ, गुस्ताख चरवाहे ! अगर मैं हिरण को मारना चाहती, तो मैंने उसे बहुत पहले ही मार दिया होता। मैं उसे जिंदा पकड़ना चाहती थी। दूसरे के शिकार पर निशाना लगाने की तेरी मजाल कैसे हुई ?"
अचानक चट्टान के पीछे से एक बहुत बड़ा शेर निकलकर उस पर झपटा।
शाहजादी का घोड़ा डरकर पीछे भागा। क़मरखान घोड़े से गिर पड़ी और अपनी ही तल- वार से उसका हाथ घायल हो गया ।
ज़ियाद बातिर ने शेर को देखते ही गुलेल में पत्थर लगाकर निशाना साधा।
जैसे ही शेर ने शाहजादी पर छलाँग लगानी चाही, वैसे ही पत्थर उसके सिर में लगा । शेर वहीं ढेर हो गया।
ज़ियाद बातिर दौड़कर शाहजादी के पास पहुँचा, उसने देखा एक नौजवान बेहोश पड़ा है और उसके चेहरे पर नक़ाब है।
ज़ियाद बातिर ने तुरंत अपनी क़मीज उतारी और एक आस्तीन फाड़कर क़मरखान की मरहम-पट्टी की ।
"बेचारे नौजवान की जान बचानी चाहिए," उसने सोचा, "अगर यह बेकार ही मर गया, तो बहुत बुरा लगेगा । "
ज़ियाद बातिर ने पानी लाकर घायल के चेहरे पर उसके छींटे दिये पर कोई फायदा नहीं हुआ । नकाब हटाना चाहिए, " ज़ियाद बातिर ने सोचा, " जिससे यह थोड़ा बहुत पानी पी सके ।
उसने नौजवान का नक़ाब हटाया, तो काले-काले घुंघराले बाल बिखर गये और ज़ियाद बातिर ने देखा कि सामने उसकी प्यारी क़मरख़ान बेहोश पड़ी है।
इस अप्रत्याशित बात और दुःख के मारे ज़ियाद बातिर बेहोश होते-होते बचा।
"मेरी प्यारी, आंखें खोलो, मुझे मत तड़पाओ । तुम मुझे मार डालना चाहती थीं, मार डालो। पर ऐसे बेजान मत पड़ी रहो, आंखें खोलो," ज़ियाद बातिर मन ही मन यह कहता हुआ माफ़ी माँगता रहा।
थोड़ी देर बाद लड़की को होश आने लगा। उसने आंखें खोलकर देखा - चरवाहे की आंखों से आँसू बह रहे हैं, ध्यान से देखा तो अपने प्यारे ज़ियाद बातिर को पहचान गयी और फिर बेहोश हो गयी।
एक-एक करके दासियाँ वहाँ पहुँचने लगीं। उन्होंने देखा एक शेर मरा पड़ा है, शाहजादी बेहोश पड़ी है और कोई चरवाहा उसके ऊपर झुका हुआ उसके चेहरे पर पानी के छींटे दे रहा है।
लड़कियाँ जल्दी से घोड़ों से उतरीं। हुमायुं शाहजादी का सिर अपनी गोदी में रखकर रोने लगी, उसे होश में लाने की कोशिश करने लगी और घाव पर दवाई लगाने लगी । क़मरख़ान को होश आया।
लड़कियाँ फ़ौरन शाही महल लौट जाना चाहती थीं, पर क़मरखान तैयार नहीं हुई:
"जब तक मेरा घाव ठीक नहीं हो जाता, मैं यहाँ से कहीं नहीं जाऊँगी।"
वहाँ एक चश्मा था और चश्मे के पास दो छायादार पेड़ थे।
दासियों ने शाहजादी को पेड़ों के नीचे लिटा दिया। शाहजादी सोचने लगी, "ज़ियाद बातिर ने मुझे पहचाना या नहीं ?"
उसने कटाक्ष भरी आवाज में पूछा :
"आप कब से यहाँ चरवाहे का काम कर रहे हैं ?"
ज़ियाद बातिर सोचने लगा, "मुझे मार डालना चाहती है, चाहे मार दे, कुछ भी हो, मैं सच ही कहूँगा" और बोला :
"उस समय से जब से आपके पिता ने मुझे देशनिकाला दिया था ।"
शाहजादी ज़ियाद बातिर से माफ़ी माँगने लगी :
"ग़लती मेरी थी। मैं अपने पिता को रोक नहीं सकी।"
ज़ियाद बातिर बहुत खुश हुआ और अपने धर्मपिता को बुलाने गया ।
"हमें अपने प्यारे मेहमानों की अच्छी खातिरदारी करनी चाहिए," बूढ़े चरवाहे ने कहा ।
वह गाँव से एक बड़ा देग लेकर आया। पाँच भेड़ें काटकर उसने पुलाव पकाया सारी लड़कियों को खिलाया और उनको क़िमिज भी पिलाया ।
इस तरह पन्द्रह दिन बीत गये। शाहजादी का घाव ठीक होने लगा ।
अब शाहजादी के पिता का हाल सुनिये ।
क़मरखान को शिकार पर गये एक महीना बीत चुका था, पर उसकी कोई खबर नहीं थी । बादशाह ने एक बहादुर को बुलाया और बोला :
"शाहजादी की एक महीने से कोई खबर नहीं मिली है, तुम जाकर पता लगाओ, वह कहाँ है । उसे ढूँढ़कर महल में लाओ ।"
यह बहादुर काफ़ी पहले से शाहजादी से शादी करना चाहता था इसी लिए वह ईमानदारी से बादशाह की सेवा कर रहा था। ऐसा हुक्म मिलने पर वह बड़ा खुश हुआ और फ़ौरन यात्रा के लिए तैयार हो गया। उसने अपने साथ कुछ सैनिक लिये शराब ली और सफ़र पर चल पड़ा।
पाँच दिनों की यात्रा के बाद उसने शाहजादी को ढूँढ़ लिया और देखा- वह पेड़ के नीचे बैठी ज़ियाद बातिर के साथ बातें कर रही है। यह देखकर बहादुर को बड़ा दुःख हुआ । पर अपशब्द कहकर शाहजादी को नाराज करने की उसे हिम्मत नहीं हुई। वह घोड़े से उतरा और अभिवादन करके बोला :
"आपके पिता बहुत परेशान हो रहे हैं, उन्होंने मुझे आपको ढूँढ़ने के लिए भेजा है। " उसे खाना परोसा गया। बहादुर ने शराब की सुराही निकाली। लड़कियों ने शराब ढाली ।
शराब के दो प्याले पीते ही बहादुर को नशा चढ़ गया, उसकी आंखें लाल हो गयीं, नसों में खून उबलने लगा । वह ज़ियाद बातिर को चिढ़ाने लगा, उसकी हर बात में मीन-मेख निकालने लगा।
"तुम मेरी बात क्यों काट रहे हो ?" झगड़ालू बहादुर कहने लगा और उसने उठकर ज़ियाद बातिर के एक घूंसा मारा। ज़ियाद बातिर को बड़ा बुरा लगा, उसने ईंट का जवाब पत्थर से दिया ।
बहादुर के मुँह से झाग निकलने लगे और वह वहीं ढेर हो गया ।
सैनिक ज़ियाद बातिर पर टूट पड़े और जमकर लड़ाई शुरू हो गयी। ज़ियाद बातिर ने सबको मार भगाया और शाहजादी से कहा :
"अब मेरे लिए यहाँ रहना खतरे से खाली न होगा। चलो किसी दूसरे देश भाग चलें ।"
शहजादी ने दासियों को बादशाह के पास लौट जाने का हुक्म दिया और कहा-
"अगर पिता जी मेरे बारे में पूछें, तो कह देना कि क़मरखान दूसरे देश चली गयी।" सारी लड़कियाँ रोती हुई शहर वापस आयीं ।
उधर ज़ियाद बातिर और शाहजादी चरवाहे धर्मपिता से विदा लेकर घोड़ों पर सवार होकर सफ़र पर चल पड़े। वे रास्ते में पड़ाव डालकर शिकार करते और फिर आगे बढ़ते । इस तरह कुछ दिनों बाद वे हिरात नाम के शहर पहुँचे। वहाँ बादशाह हुसैन मिर्जा राज करता था।
वे एक सराय में ठहरे। ज़ियाद बातिर एक लोहारखाने में काम करने लगा। कुछ दिनों बाद उन दोनों ने शादी कर ली ।
एक बार एक अमीर आदमी ज़ियाद बातिर के पास आया और बोला :
"आप लोगों को सराय में रहने की क्या जरूरत है, मैंने आपके लिए अपने मोहल्ले में एक मकान ढूँढ़ लिया है।"
ज़ियाद बातिर को मकान पसंद आ गया। अपनी तनख्वाह में से बचे पैसे ज़ियाद बातिर ने उस आदमी को दिये और अपनी पत्नी के साथ नये घर में रहने लगा।
उस अमीर का एक नौकर डाकू था। अमीर ने उसको बुलाया और बोला :
"आज शाम को कहीं मत जाना, मुझे तुमसे काम है।"
और आधी रात को वह डाकू को लेकर ज़ियाद बातिर के घर आया । अमीर ने ज़ियाद बातिर के सो जाने के बाद उसकी हत्या करके क़मरखान को उड़ा ले जाने की योजना बनायी ।
पर क़मरखान ने क़दमों की आहट सुनकर ज़ियाद बातिर को जगा दिया। ज़ियाद बातिर ने अपने घर के सामने दो आदमियों को खड़े देखा।
वह अपने तकिये के नीचे से खंजर निकालकर डाकू से भिड़ गया। और क़मरखान ने लपककर अमीर के मुंह पर ऐसा घूंसा मारा कि उसका गाल ही सूज गया। ज़ियाद बातिर ने नौकर को मार डाला, उधर शाहजादी अमीर को जमीन पर गिराकर उसका गला घोंटने लगी ।
अमीर प्राणों की भीख माँगने लगा :
"मुझे छोड़ दो, रहम करो !"
शाहजादी ने सोचा, " इसे मार डालना चाहिए, " पर ज़ियाद बातिर बोला :
"ठीक है, छोड़ दो इस नीच को भाग यहां से और फिर कभी ऐसी हरकत मत करना ।"
अमीर सिर पर पाँव रखकर भागा। घर पहुँचते ही उसके दिमाग़ में ख्याल आया मैं क्यों न बादशाह के पास जाकर शिकायत करूँ ? अपने सूजे हुए गाल पर पट्टी बाँधकर वह महल में पहुँचा ।
बादशाह हुसैन मिर्ज़ा दरबारियों से घिरा हुआ अपने तख्त पर बैठा था । अमीर ने आकर शिकायत की :
"शहंशाह, कुछ दिन हुए नीच खानदान का एक आदमी एक लड़की लेकर अपने शहर में आया है। मैंने उसे ईमानदार आदमी समझकर उसके लिए एक मकान का बंदोबस्त कर दिया । पर उसने मुझे बुरी तरह पीटा और घायल कर दिया... हुजूर आप उस नीच और आबारा आदमी को सजा दीजिये, उसे शहर से निकाल दीजिये ।"
हुसैन मिर्जा गुस्सा होकर बोला :
"ऐसे आदमी को शहर से निकाल देना कम होगा, उसे मौत की सजा मिलनी चाहिए। "
और उसने अपने सैनिकों को ज़ियाद बातिर को पकड़कर लाने भेजा।
सैनिकों ने जाकर ज़ियाद बातिर व क़मरखान को पकड़ लिया और उनके हाथ-पैर बाँधकर महल में घसीट लाये । क़मरखान को देखते ही हुसैन मिर्जा दुनिया में सब कुछ भूल गया और ज़ियाद बातिर से बोला : "तुम इतनी खूबसूरत लड़की को कहाँ से ले आये ? तुम ज़रूर इसे कहीं से उड़ाकर लाये हो ।" "आप उसी से पूछिये," ज़ियाद बातिर ने जवाब दिया।
"इस खूबसूरत लड़की को यहीं छोड़ दो और तुम यहाँ से चले जाओ," उसने ज़ियाद बातिर से कहा ।
पर ज़ियाद बातिर जाने के लिए तैयार नहीं हुआ ।
बादशाह आग-बबूला हो गया। उसने जल्लादों को बुलाया और ज़ियाद बातिर को मौत की सजा देने का हुक्म दिया।
जल्लाद ज़ियाद बातिर को मौत की सजा देने ले गये। रास्ते में उसने कंधों को झटका देकर रस्सी तोड़ दी और सारे सैनिकों को मारकर अपने मालिक लोहार के पास भाग गया। ज़ियाद बातिर ने उसे सारा किस्सा सुनाया। लोहार ने कहा :
"यहाँ से थोड़ी दूर एक गुफ़ा है, तुम उसमें छिप जाओ और मैं शहर जाकर पता लगाता हूँ, लोग क्या बातें कर रहे हैं। कल मैं तुम्हारे पास आकर तुम्हें सब कुछ बताऊँगा ।"
अब शाहजादी का हाल सुनिये।
पहले बादशाह उसके साथ ढंग से बातें करता रहा, उसे सब्ज बाग़ दिखलाता रहा:
"मैं तुम्हें सोने में पीली कर दूँगा । तुम्हारे पास सारी शाहजादियों से ज्यादा धन-दौलत होगी । तुम मेरी चौथी बीवी बनकर मेरे महल में रहो।"
पर क़मरखान टस से मस न हुई ।
बादशाह और ज्यादा गुस्सा हुआ। उसके बाग़ में जमीन के नीचे एक चोर जेल थी, जिसके बारे में किसी को पता नहीं था ।
बादशाह ने क़मरखान को उस जेल में क़ैद कर दिया। जब बादशाह ने सुना कि ज़ियाद बातिर भाग गया है, तो उसने शहर के सारे दरवाजे बन्द कर देने और उसको ढूँढ़कर पकड़ लाने का हुक्म दिया। ज़ियाद बातिर को कोने-कोने में खोजा गया, पर वह कहीं नहीं मिला।
शाम होते ही लोहार गुफ़ा में आया, जहाँ ज़ियाद बातिर छिपा था और वे सलाह करने लगे कि आगे क्या किया जाये। लोहार थोड़ी देर सोचकर बोला :
"बादशाह का अलीशेर नवाई नाम का एक वजीर है। तुम्हें उसके पास जाकर अपनी मुसीबतों के बारे में बताना चाहिए। वह न्यायप्रिय आदमी है, मुसीबत में तुम्हारी मदद करेगा ।"
"अच्छा," ज़ियाद बातिर बोला, "ऐसा ही करूँगा ।"
आधी रात में वह गुफ़ा से निकलकर अलीशेर नवाई के घर पहुँचा, दरवाजा खटखटाया और बोला :
"मैं नवाई का यश सुनकर बहुत दूर से उनसे सलाह माँगने आया हूँ। मुझे उनसे मिलने दीजिये ।"
हमेशा की तरह अलीशेर अभी तक सोये नहीं थे। वह काफ़ी रात गये तक और कभी- कभी तो सुबह तक कविताएं लिखते रहते थे। उनके नौकर ने उनके पास आकर कहा : "कोई नौजवान काफ़ी दूर से आपसे सलाह माँगने आया है ।"
"उसे अंदर आने दो," अलीशेर नवाई बोले ।
ज़ियाद बातिर ने अंदर आकर सलाम किया और बैठकर अपनी सारी मुसीबतें अलीशेर नवाई को सुनायीं ।
नवाई ने उसे तसल्ली दिलायी :
"तुम घबराओ मत। बादशाह क़मरखान को नहीं मारेगा। कल मैं उसके बारे में पता लगाकर तुम्हें बताऊँगा ।"
दूसरे दिन अलीशेर नवाई शाही महल में गये और उसके बाग़ में घुसे। उन्हें तो पता ही था कि वहाँ जमीन के नीचे एक जेल है ।
बाग़ में घूमते-घूमते उन्हें माली मिल गया । माली ने अलीशेर नवाई को झुककर सलाम किया और उन्हें एक गुलदस्ता भेंट किया। माली बाग़ और जेल दोनों की देखभाल करता था। पर इस बारे में किसी को मालूम नहीं था ।
अलीशेर नवाई ने माली से पूछा :
"तहखाने में जो खूबसूरत लड़की क़ैद है, उसके बारे में तुम्हें कुछ मालूम है ?"
"मालूम है, हुजूर, " माली बोला । " खुद बादशाह ने उसे तहखाने में डालने का हुक्म दिया है।"
अलीशेर नवाई ने घर पहुँचकर ज़ियाद बातिर को बताया कि क़मरखान सही-सलामत है । इसके बाद अलीशेर नवाई ने अपने आदमियों को बादशाह के बाग़ तक एक सुरंग खोदने का हुक्म दिया।
तीन दिन में सुरंग खोदकर क़मरखान को जेल में से निकाल लिया गया। उसे अलीशेर नवाई के घर ले आया गया, जहाँ उसके रहने का इंतजाम पहले से ही कर दिया गया था नवाई ज़ियाद बातिर से बोले:
"मेरे घर में कोई भी तुम्हारा बाल बांका नहीं कर सकता। तुम लोग आराम से रहो ।"
ज़ियाद बातिर और क़मरखान नवाई के घर में तीन साल रहे।
क़मरखान ने एक बेटे को जन्म दिया। वह अब पैरों भी चलने लगा था ।
एक बार अलीशेर नवाई बाग़ में टहल रहे थे, तो उन्होंने वहाँ एक लड़के को पानी में बैठे छपछप करते देखा। उन्होंने उसे गोदी में उठाकर कुछ फूल दिये। दरवाजे के पास पहुँचते ही उन्होंने ज़ियाद बातिर को ये शब्द कहते सुना :
"मेरी प्यारी क़मरखान मत रोओ, मैं जानता हूँ, तुम्हें अपनी माँ की याद सता रही है... मत रोओ... चुप हो जाओ... अपने देश को याद करके मेरा दिल भी तड़पता है, अलीशेर नवाई यह सब सुनकर अंदर आये। क़मरखान आंसू पोंछकर बड़ी हो गयी और उसने झुककर अलीशेर नवाई को सलाम किया। नवाई बोले :
"तुम दुःखी मत होओ। बस एक महीना और सबर करो, फिर में खुद तुम दोनों को लेकर तुम्हारे देश जाऊँगा और तुम्हारे पिता को सब कुछ समझा दूँगा ।"
एक महीना गुज़र गया। अलीशेर नवाई ने बादशाह से दूसरे देश के दौरे पर जाने की इजाजत माँगी और चार वफ़ादार नौजवानों को बुलाकर सफ़र की तैयारी शुरू कर दी। उन चारों नौजवानों ने सफ़र के एक हफ्ता पहले क़मरखान और ज़ियाद बातिर को चुपचाप शहर से निकालकर पहाड़ों में छिपा दिया। अलीशेर नवाई अपने सफ़र का सामान जमा करके चल दिये। रास्ते में उन्होंने पहाड़ों में जाकर क़मरखान और ज़ियाद बातिर को अपने साथ ले लिया ।
वे काफ़ी दिन चलते रहे और लंबे सफ़र के बाद क़मरखान के देश पहुँचे। बादशाह को जब अलीशेर नवाई के आने की खबर मिली तो उसने अपने सैनिकों को उनकी अगवानी करने भेजा ।
अलीशेर नवाई के आने के कुछ दिन बाद बादशाह ने उन्हें अपने महल में बुलाया ।
"आपका स्वागत है,” बादशाह बोला, " कहिये कैसे आना हुआ ?"
अलीशेर नवाई ने जवाब दिया :
"मैं आपके पास दो कसूरवार लोगों के लिए माफ़ी माँगने आया हूँ। अगर आप उन्हें माफ़ कर देंगे, तो मैं कुछ दिन आपके यहाँ ठहरूंगा और माफ़ नहीं करेंगे, तो फ़ौरन चला जाऊँगा ।"
बादशाह बोला :
"ऐ महान नवाई, अगर उन कसूरवारों ने मेरे पिता की हत्या भी की होती, तो भी मैं उन्हें माफ़ कर देता, इस लिए कि आप उनके लिए माफ़ी माँग रहे हैं। मुझे बताइये, वे कौन हैं ?"
तब अलीशेर नवाई ने क़मरखान और ज़ियाद बातिर को लाने का हुक्म दिया। क़मरखान आयी और पिता के सीने से लिपट गयी। बादशाह खुशी के मारे बेहोश हो गया। वह बहुत दिनों से सोच रहा था कि उसकी बेटी मर चुकी है। बादशाह को होश में लाया गया, तो वह रोते-रोते पूछने लगा :
"मेरी बेटी, तुम कहाँ चली गयी थीं ?"
उसी समय ज़ियाद बातिर भी आ पहुँचा। बादशाह उसे मौत की सजा देना चाहता था, पर अलीशेर नवाई ने उसका वायदा याद दिलाया। बादशाह को एक मामूली चरवाहे ज़ियाद बातिर को अपना दामाद मानने को तैयार होना पड़ा।
अलीशेर नवाई कई दिनों तक बादशाह के मेहमान रहे और फिर अपने घर हिरात लौट गये ।
ज़ियाद बातिर और क़मरखान जिन्दगी भर उनका एहसान नहीं भूले ।
ज़ियाद बातिर ने सबसे पहला काम उस बूढ़े चरवाहे को बुलवाने का किया, जिसके साथ वह पहाड़ों में घोड़े बराता रहा था और उसे अपने छायादार बाग़ में शरण दी । ज़ियाद बातिर जीवन भर सीधे-सादे लोगों को प्यार करता रहा भूखे नंगों और ग़रीबों, की मदद करता रहा ।
1. खान- उज़बेक स्त्रियों व पुरुषों के नामों के साथ लगाया जानेवाला आदरसूचक सम्बोधन ।
2. क़िमिज घोड़ी के दूध से बना एक प्रकार का पेय ।