युगसन्धि (कहानी) : दंडपाणी जयकांतन
Yuga Sandhi (Tamil Story in Hindi) : Dandapani Jayakanthan
गौरी दादी बड़ी देर तक धीरज धरे बस के अन्दर ही खड़ी रही। सभी लोगों के उतर जाने के बाद खाकी रंग के अपने भारी थैले को कमर पर इत्मीनान से थामे सबसे आखिर में उतरने लगी।
"दादी...दादी! थैला इधर दीजिए। मैं ले चलता हूँ। बस इकन्नी दे देना।" कुली लड़के की गुहार।।
"माताजी! गाड़ी चाहिए?...मेरी गाड़ी में बैठिए।" गाड़ीवान की पुकार।
"क्यों दादी, पुदुपालैयम वकील गुमाश्ता के यहाँ जाना है न...बैठिए, मैं पहँचा देता हैं।" इक्केवान का अनरोध।
यों मिन्नतें करते हुए कुली और गाड़ीवान उन्हें घेरकर खड़े हो गये, उतरने भी नहीं दे रहे थे। गौरी दादी वात्सल्यपूर्ण दृष्टि से उन्हें देखकर मुस्कराती हुई बोलीं:
"मुझे कुली, गाड़ी कुछ नहीं चाहिए बेटे!..ज़रा-सा रास्ता दे दो तो मैं आराम से पैदल पैदल ही घर चली जाऊँगी। क्यों भई, तुमने मेरा घर तक जान रखा है, यह भी पता होगा कि मैं महीने में एक बार इधर आती हूँ...बताओ भला, कब मैं तुम्हारी गाड़ी में बैठी हूँ?" यों हरेक को अलग अलग जवाब देती और अपना रास्ता बनाती हुई दादी माँ आगे बढ़ीं। अपने सिर के पल्ले को खींचकर कमर के थैले को थामे गौरी दादी तपती दुपहरी में भुन रही रेत पर अपने पैरों को जमा-जमाकर रखती हुई एक तरफ को झुककर हौले-हौले चलने लगीं।
दादी सत्तर साल की हो गयीं, लेकिन उस पुरानी माटी में अब भी ताकत की कोई कमी नहीं है। बुढ़ापे से आयी तनिक स्थूलता की वजह से थकान तो होगी जरूर, मगर वह घर पहुँचने के बाद ही महसूस होगी...
सड़क पर रिक्शे-ताँगे और साइकिल पर सवार होकर जो लोग इधर-उधर भागे जा रहे हैं, ये दादी की नजरों के सामने कल पैदा हुए बच्चे ही तो हैं। वर्षा और धूप किस तरह आदमी को परेशान कर रही है जिससे वह भागने को विवश हो रहा है-यह सोचकर दादी मन ही मन हँसने लगीं।
दादी ने इन सबकी परवाह कब की थी? जीवन के सहज बहाव में एकाएक आयी भीषण बाढ़ के भँवर में और फिर जलधार के नामोनिशान से रहित रेगिस्तान की ज्वाला में धीरज के साथ कदम बढ़ाती हुई जिन्दगी का लम्बा रास्ता तय कर चुकी हैं, भला यह वर्षा और धूप उनका क्या बिगाड़ सकती है?
दादी दहकती धूल-मिट्टी में पाँवों को जमा-जमाकर रखती हुई हौले-हौले चल रही थीं। रास्ते में नीम का एक छोटा-सा पेड़ अपनी डालों को छाते की तरह फैलाये खड़ा था। उसकी शीतल छाया में चार-पाँच जने आराम कर सकते थे। नीम की उस सुखद छाया में दादी तनिक रुकीं।
आग उगलती भीषण गर्मी के बावजूद राहगीरों को शीतल छाया देने का दम भरते हुए खड़ा नीम का वह गाछ, मात्र यन्त्रों पर निर्भर बीसवीं सदी में केवल अपने पैरों पर अडिग विश्वास के साथ पिछली शताब्दी की प्रतिनिधि के रूप में खड़ी दादी माँ की उपस्थिति से ज़रूर पुलकित हुआ होगा। उस समय मन्द-मन्द चल रही ठण्डी हवा में नीम की डालियाँ सिहर उठीं। 'जय महादेव!' के उद्घोष के साथ भगवान को धन्यवाद देते हुए गौरी दादी ने ठण्डी हवा के सुखद स्पर्श का अनुभव किया।
आँचल से ढंके दादी के गोल चेहरे पर बाल-सहज भोलापन था। इस उम्र में भी हँसते समय सुडौल दिख रही उनकी दंतपंक्ति सचमुच आश्चर्य का विषय थी। उनकी ठोड़ी के बायें हिस्से में काली मिर्च से तनिक बड़े आकार में फब रहे काले मस्से पर काले काले बाल उगे हुए थे। इन सब को एक साथ देखकर कोई भी व्यक्ति सहज ही भाँप सकता था कि दादी अपने यौवन में कितनी रूपवती रही होंगी।
दादी की सुनहरी काया पर लगभग उसी रंग की रेशमी धोती हवा में लहरा रही थी। सिर पर डले झीने पल्ले में से घुटे हुए सिर के छोटे छोटे बाल बाहर झाँक रहे थे। गले में स्फटिक मणि की माला सोह रही थी। माथे पर लगी भभूत पसीने में गलकर फैल रही थी। धोती-पल्ले से उन्होंने अपने चेहरे को, हाथों को और छाती को अच्छी तरह से पोंछ लिया। पीठ पर से पल्ला हटते ही बगल में दायीं तरफ मूंगे की तरह लाल रंग का मस्सा दिखाई दिया।
छाँह से निकलकर फिर से धूप में कच्ची मिट्टी के रास्ते पर थोड़ी दूर चलने के बाद, 'केडिल' नदी पर बने कंक्रीट के तपते फ़र्श पर धीरेधीरे पाँव रखते हुए जब वे आ रही थीं-पुल के मुँडेर से सटकर खड़े पुरानी जान-पहचान के नाई वेलायुधम ने झुककर उन्हें प्रणाम किया। उसके हाथ में टीन की एक छोटी-सी पेटी थी। वह इस डर के मारे पुल की रेलिंग से सटकर सिकुड़ा खड़ा था कि कहीं दादी अम्मा से उसका शरीर छू न जाए।
"माताजी!...नेयवेली से आ रही हैं न?" उसने विनय से पूछा।
"अरे वेलायुधम, तुम!" बुढ़िया ने विस्मय प्रकट किया। फिर अपनेपन के साथ पूछा, "तुम्हारी घरवाली के बच्चा हो गया?"
"हाँ माताजी, लड़का हुआ है।"
"चिरायु रहे...भगवान की कृपा है...! यह तेरा तीसरा बेटा है न?"
"जी हाँ," कहते हुए बेलायुधम फूला न समा रहा था।
"तू बड़ा किस्मतवाला है रे! जैसे भी हो मेहनत करके बच्चों को पढ़ा-लिखा दे। ठीक है?" दादी माँ की यह नसीहत सुनकर बेलायुधम सिर खुजलाते हुए हँसा।
"अरे बुद्धू! हँस क्यों रहा है? जमाना तेजी से बदल रहा है रे! तेरे और तेरे बाप के दिन तो हजामत के सामान वाली यह पेटी उठातेउठाते बीत गये। आगे इससे गुजारा नहीं होने का...। आजकल मर्द लोग बाल कटवाने के लिए सैलून जा रहे हैं। आगे विधवा औरतें मेरी तरह नहीं रहा करेंगी, महीने में एक बार अपना सिर नहीं मुंडवाया करेंगी, इसके आसार अभी नजर आ रहे हैं न! फिर? अच्छा यह तो ठीक है...मैं कहती हूँ कि बदलते जमाने के संग लोगों को भी बदलना चाहिए...बोलो, मेरी बात ठीक है न?" कहती हुई गौरी दादी ज़ोर से खिलखिलायीं मानो उन्होंने हँसीमजाक की कोई बड़ी बात कह दी हो। जवाब में नाई भी हँसने लगा।
"ले इसे खाता चल, गर्मी में थोड़ी राहत मिलेगी।" कहती हुई दादी ने कमर पर रखे थैले से दो मुलायम ककड़ियाँ निकालकर उसके हाथ पर रख दीं।
"बस में आते समय इकन्नी में चार चार के हिसाब से एक लड़का बेच रहा था। बच्चों के वास्ते मैंने चार आने की खरीद लीं।" दादी की यह बात पूरी होने पर उन्हें दुबारा प्रणाम करने के बाद, वेलायुधम वहीं खड़ा रहा ताकि वे उसे पार करके निकल जाएँ।
गौरी अम्मा का जन्म और पालन-पोषण चिदम्बरम में हुआ था। दस साल की आयु में उनका विवाह कडलूर के एक सम्पन्न परिवार में हुआ। सोलह साल की उम्र में विचारी विधवा हो गयी, जब उनकी गोदी में नवजात शिशु था। उस दिन से लेकर वे अपने इकलौते पुत्र को तथा पति से विरासत में मिले मकान को छोड़कर एक दिन के लिए भी कहीं नहीं गयीं।
फिर भी जीवन में एक ऐसा दुःखद प्रसंग आया जब प्राणप्रिय इकलौते बेटे से कभी न बिछुड़ी गौरी दादी को अपना इरादा बदलना पड़ा। दुःखद प्रसंग यह था कि बेटे की ज्येष्ठ पुत्री गीता विवाह के दस महीने में ही विधवा होकर घर लौट आयी। जैसे कोई किरदार अपने नाटक का वेश उतार देता है, गीता अपने सुहाग के मंगल-चिह्नों को तजने के बाद फफकफफक कर रोती हुई माँ की गोद में आ गिरी। गौरी दादी ने उसे अपने जीवन की अन्तिम शोकपूर्ण घटना के रूप में स्वीकार कर लिया। उस क्षण से उन्होंने बेचारी गीता पर अपना सम्पूर्ण स्नेह और ममता बरसाते हुए उसे अपने आश्रय और संरक्षण में रखने को जीवन का परम ध्येय मान लिया था। अब तक वे गीता को अपने बेटे की पुत्री, यानी पोती के रूप में उतना ही स्नेह-वात्सल्य देती थीं जितना कोई दादी अपनी पोती को देती है। किंतु अब तो गीता पर इतना स्नेह बरसाने लगी कि जिसकी कोई हद नहीं। वैधव्य के क्षण से लेकर अपने पुत्र को प्राणों से अधिक चाहनेवाली वह माँ-गौरी दादी-अब अपनी अभागिन पोती पर जान देने लगी। पुत्र के प्रति उनका अहैतुक प्रेम स्थानान्तरित होकर पोती के हिस्से में आ गया। वैधव्य-दुःख से पीड़ित पोती को सान्त्वना देने मात्र के लिए वे ऐसा नहीं कर रही थीं। सच्चाई यह थी कि गौरी दादी को अपनी अभागिन पोती में स्वयं अपनी प्रतिच्छाया दिखलाई दे रही थी।
शैशव में ही पिता की मृत्यु हो जाने के कारण दादी के पत्र गणेश अय्यर ने कभी भी पितृशोक का अनुभव नहीं किया। माँ के सीमातीत लाड़प्यार ने उन्हें पिता का अभाव महसूस नहीं होने दिया। उनकी पत्नी पार्वती मौका मिलने पर एकान्त में उन्हें चिढ़ाया करती, वे 'मम्मी के लाड़ले' बनकर रह गये।
अपनी विधवा बेटी के भविष्य के बारे में चिन्तित गणेश अय्यर ने एक दिन काफी सोच-विचार के बाद तय किया कि मैट्रिक तक पढ़ी गीता को 'टीचर्स ट्रेनिंग' के लिए भेजा जाए। गणेश अय्यर ने एक दिन हिचकतेहिचकते माँ के सामने यह सुझाव रखकर उनकी अनुमति माँगी तो दादी माँ ने उनकी आशंका के विपरीत, बड़ी खुशी से इस प्रस्ताव का समर्थन किया। यही नहीं, इस नेक इरादे के लिए बेटे की तारीफ भी की। गणेश अय्यर दादी के मन को माप नहीं पाये, उन्हें अपनी माँ अबूझ पहेली-सी लगीं।
दादी माँ नये जमाने की पौध गीता की किस्मत पर मन ही मन हर्षित थीं।
प्रशिक्षण पूरा होने के बाद स्थानीय स्कूल में टीचर के रूप में कार्यरत गीता का पिछले साल उद्योग-नगर नेयवेली में स्थानान्तरण हुआ, तब भी गणेश अय्यर भारी दुविधा में पड़ गये।
"तो क्या हुआ? मैं हूँ न! गीता का साथ देने के लिए नेयवेली में रह लूँगी।" दादी माँ ने तुरन्त आगे बढ़कर कहा। इस ढलती उम्र में भी दादी माँ अपने पुत्र और उसके परिवार को छोड़कर स्वयं अलग रहने के लिए स्वेच्छा से आगे आयीं तो इसका सीधा-सादा कारण यही भय था कि कहीं तीस साल की गीता को मेरी तरह जिन्दगी-भर वैधव्य के अँधेरे गड्ढे में बन्द न रहना पड़े।
बीते वर्ष के दौरान लम्बी छुट्टियों में दादी-पोती यहाँ आकर रह रही थीं। वैसे सप्ताहान्त की छुट्टियों में जब भी मन करता दादी इधर चली आतीं। इसके पीछे एक प्रमुख कारण यह भी था कि वे अपने परिचित वेलायुधम और उसके बाप को छोड़कर और किसी नाई से सिर मुंडवाने की आदी नहीं थीं।
दादी को पता है कि वेलायुधम, जो अभी रास्ते में दिखाई पड़ा था, कल सुबह द्वार पर आकर खड़ा हो जाएगा। वेलायुधम को भी पता था कि कल सवेरे यहाँ पहुँचना है। यह दस्तूर की बात थी-अलिखित नियम।
मील भर से भी कम फासले को लगभग आधे घण्टे में तय करके दादी जब घर के दरवाजे पर पहुँची, गणेश अय्यर आज के अखबार में मुँह ढाँपकर आरामकुर्सी में लेटे-लेटे सो रहे थे। पास में बैठी बहू पार्वती चश्मे को नाक पर चढ़ाये सूप में पड़ी उड़द की दाल में से कंकड़ बीन रही थी। पास में एक खुला टीन था। सींकचे के बरामदे में धूप से बचाव के लिए टाट का एक पर्दा टँगा था। टाट के पीछे कोने में कुछेक खिलौने बिखरे पड़े थे। उनकी छह साल की नन्हीं पोती गुड़ियों के साथ अपने संवाद को अटपटे स्वर में गीत की तरह गुनगुनाती हुई 'मम्मी-डैडी' का खेल खेल रही थी।
अपने अपने काम में डूबे रहने के कारण किसी ने दादी के आगमन पर गौर नहीं किया। इसलिए उन्हें किवाड़ की चिटकनी को हल्के-से हिलानी पड़ी। आवाज सुनकर खेल में डूबी पोती चौंकी। उसने पीछे मुड़कर देखा। दादी को खड़ी देखकर खुशी से चिल्लायी, "हय् दादी!" उसकी आँखें फैल गयीं और चेहरा खिल उठा।
"मुन्नी, दरवाजा खोल!" दादी के इन शब्दों के सुने बिना वह आह्लाद से चिल्लाती अन्दर दौड़ गयी-"माँ, माँ...देखो, दादी आयी है, दादी माँ आयी है!" दरवाजा खोले बिना ही माँ को दादी के आने की सूचना देने के लिए अन्दर दौड़ी गयी बच्ची पर हँसती हुई गौरी दादी बाहर खड़ी रहीं।
गणेश अय्यर ने चेहरे पर पड़े समाचार-पत्र को हटाकर अपनी आँखें खोलीं। बच्ची की चिल्लाहट सुनकर अचानक जग जाने की वजह से आँखें फाड़-फाड़कर इधर-उधर देखा, उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। आँखें लाल दिखाई दे रही थीं। तभी उनकी पत्नी बच्ची को डाँटती हुई बाहर आयी, "चुडैल कहीं कहीं, काहे को यों चिल्ला रही है?" और दरवाजा खोलते हुए सासूजी का स्वागत किया-"आइए, क्या इस धूप में पैदल चली आयी हैं...गाडी कर लेतीं।"
"इत्ती दूर के लिए गाड़ी-वाड़ी की क्या ज़रूरत है? ताँगेवाला आठदस आने से कम में कहाँ मानेगा?" झल्लाये स्वर में कहती हुई सीढ़ियाँ चढ़कर आ रही माँ को देखकर गणेश अय्यर उनके स्वागत में आरामकुर्सी से उठ खड़े हुए। स्नेह से पूछा, "क्यों माँ! इस कड़ी धूप में क्यों पैदल आयीं?" फिर पत्नी से कहा, "पार्वती!...माँ के लिए मट्ठा ला दो।"
"अरे, तू थककर सो रहा था...चाहे और थोड़ी देर सो ले," कहती हुई बेटे के कन्धे को वात्सल्य से थपथपाने के बाद दादी ने पासवाले स्टूल पर थैला उतारकर रखा। फिर आँगन में उतरकर मुँह पर ठण्डा पानी उलीच लिया। हाथ-पैर धोकर आँचल से पोंछने के बाद ताक पर रखी कठौती से थोड़ी भभूत लेकर 'जय हो महादेव!' के उद्घोष के साथ माथे पर लगायी। उसके बाद इत्मीनान से चली आयी। इस पूरे समय तक गणेश अय्यर माँ के इन्तजार में आरामकुर्सी के पास खड़े रहे।
वह आरामकुर्सी दादी माँ का निजी सिंहासन था। घर में उनके रहते और कोई उस आसन पर बैठ नहीं सकता था। जब माँ आरामकुर्सी पर बैठ गयीं तो गणेश अय्यर एक और कुर्सी खींच लाये और उस पर बैठकर माँ के लिए पंखा झलने लगे। दादी के बैठते ही नन्ही पोती जानकी दौड़ी आयी और उनकी गोदी पर सवार हो गयी, मानो वह इसी ताक में खड़ी थी कि दादी कब बैठेंगी।
गणेश अय्यर, जो पंखा झल रहे थे, बिटिया को डाँटते हुए पंखे के डण्डे से हटाने लगे, "देखती नहीं बुद्धू कहीं की! दादी माँ धूप में पैदल चलकर आयी हैं...जरा आराम करने दे...क्या जल्दी है गोदी में सवार होने की...?"
"ओ रहने दे...बिटिया! तू यहीं बैठी रह।" कहती हुई दादी ने मुन्नी को अपनी ओर खींच लिया।
"अब क्या कर लेंगे?" कहती हुई नन्ही जानकी पिता को देखकर मुँह बनाने लगी।
जानकी को गोदी में लिये हुए ही दादी ने पासवाले स्टूल पर रखे थैले को उठाया। उसके अन्दर से ककड़ियाँ निकालकर फर्श पर करीने से रखीं। फिर जानकी के हाथ में एक ककड़ी दी। धुली हुई अपनी दूसरी धोती को अरगनी पर टाँगने के लिए परे हटाकर रखा। फिर थैले को औंधा कर दिया। उसके अन्दर रखी हुई तीन सेर मूंगफलियों के साथ एक सफेद लिफाफा नीचे गिर पड़ा।
चारों ओर नजर दौड़ाते हुए दादी ने पूछा, "अरे, मीना और उसका । छोटा भाई अम्बी कहाँ हैं? दिखाई नहीं दे रहे!" फिर जमीन पर पड़ा लिफाफा उठाकर बेटे की ओर बढ़ाते हुए बोली, "गीता ने इसे तुम्हें देने के लिए कहा है।"
गणेश अय्यर असमंजस में पड़ गये, माँ से कैसे कहें कि बीस साल की लड़की को भाई के साथ ही सही, मैटनी शो देखने के लिए भेजा है। वैसे सिनेमा हाल दूर नहीं था, साथ में भाई भी गया है। पता नहीं माँ की प्रतिक्रिया क्या होगी? गणेश अय्यर डरते-डरते बोले, "मीना की पसन्द के उपन्यास पर एक फिल्म आयी है। सुबह से ही दोनों शैतान इसे देखने की रट लगाते हुए मेरी जान खा रहे थे। मैटनी शो ही तो है...यह सोचकर मैंने भी उन्हें जाने दिया।" इस अन्दाज़ से बोल रहे थे कि उनसे कोई गलती हो गयी हो।
"अच्छा, धारावाहिक रूप में वह जो उपन्यास आ रहा था...उसी कहानी पर फिल्म बनी है?...मैंने भी कहीं नाम पढ़ा है।" किसी खास पत्रिका और विशिष्ट लेखक का नाम लेकर दादी ने कहा।
"इस छोटी-सी बात को तूल देकर क्यों बच्चों को गाली दे रहा है रे? हम-तुम फिल्म-विल्म के बारे में कुछ नहीं जानते...और आजकल के बच्चे फिल्म को छोड़कर कुछ नहीं जानते। फिर भी दूसरों की तुलना में हमारे बच्चे बड़े सीधे-सादे हैं..." यों अपने बेटे को समझाने के बाद दादी माँ ने पूछा, “चिट्ठी में क्या लिखा है गीता ने, पढ़कर बताओ, मैंने उससे पूछा तो रहस्य-भरे ढंग से मुस्कराती हुई बोली, बाबूजी समझा देंगे, उन्हीं से पूछ लो। ऐसा क्या लिखा है उसमें?"
__नाक के ऊपर चश्मा चढ़ाकर गणेश अय्यर ने लिफाफा खोलकर कागज बाहर निकाला। ज्योंही उन्होंने उसपर लिखे शब्दों को पढ़ना शुरू किया, उनके हाथ काँपने लगे, चेहरा पसीने से तर-ब-तर हो गया और होठ फड़कने लगे। पूरा पढ़ने के बाद उन्होंने आँख उठाकर सामने दीवार पर टँगी गीता के शादी वाले फोटो को घृणा से देखा।
अपनी माँ के साथ सुरम्य वातावरण में प्रसन्न मुद्रा में बैठे गणेश अय्यर का मुख एकाएक म्लान हो गया। कुर्सी के हत्थे को कसकर पकड़ते हुए वे आँखें फाड़-फाड़कर माँ को देखने लगे। हाथ से पत्र छूटकर ज़मीन पर गिर गया, उन्हें इसका भी पता न चला।
"अरे, कौन-सी नयी बला टूट पड़ी?" दादी का दिल धड़क उठा। उन्होंने जमीन पर पड़ा पत्र उठा लिया, रोशनी की ओर बढ़कर पढ़ना शुरू कर दिया। इस उम्र में भी वे बिना चश्मे के पढ़ सकती थीं।
'आदरणीय बाबूजी, माँ और दादी जी!
पूरे छह महीने तक सुदीर्घ रूप से सोच-विचार से अहम फैसला लेने के बाद सुलझे हुए दिमाग से मैं यह पत्र लिख रही हूँ। इस पत्र के पहुँचने के बाद हो सकता है हम लोगों के आपस में खतोकिताबत बन्द हो जाएँ! यह भी मुमकिन है आप लोग मेरा चेहरा तक देखना न चाहें। ऐसे परिणामों को अच्छी तरह से जानकर ही मैं यह खत लिख रही हूँ।
'बाबूजी! बात यह है कि मैंने अपने साथ काम कर रहे हिन्दी अध्यापक श्री रामचन्द्रन के साथ अगले रविवार को रजिस्ट्री विवाह कर लेने का फैसला कर लिया है। वे इस तथ्य को भलीभाँति जानते हैं कि मैं विधवा हूँ। 'ऐसा करने से पाप लगेगा' इस तरह की अर्थहीन धारणा को मन में पालते हुए मैं पिछले छह महीने से अपनी भावनाओं के साथ संघर्ष करती रही, उसके बाद ही इस निर्णय पर पहुँची हूँ। मुझे यह बात स्पष्ट हो गयी है कि अन्त:करण-शुद्धि के साथ वैधव्य-व्रत का पालन न करके मात्र ऐसा वेश-धारण कर घूमते हुए एक-न-एक दिन पतिता होकर परिवार के नाम को कलंकित करने से अच्छा यही है। तीस वर्ष की उम्र में जीवन की कठिन परीक्षा के चलते-यह डर भी मुझे खाये जा रहा है कि कहीं पाँच वर्ष के बाद इसी तरह का निर्णय मुझे लेना पड़े-इसलिए मैं इस फैसले पर पहुँच गयी हूँ कि उसकी बनिस्वत अभी यह काम करना बेहतर है। और मेरा मन कहता है कि मेरा यह निर्णय सही है।
'मुझे नहीं लगता कि मैं कोई भारी गलती कर रही हूँ और मुझे इसके लिए पश्चात्ताप करना चाहिए। फिर भी कभी-कभी यह सोचकर मन दुःखी हो उठता है कि इसके फलस्वरूप मैं आप लोगों के रिश्ते को, आप लोगों की स्नेह-ममता को खो बैठूँगी।
'किन्तु साथ ही इस विचार से मन में गर्व और अनुभव हो रहा है कि मैं एक नया जीवन और नवल प्रकाश पाकर नये युग की नागरिक बनने के अपने लक्ष्य को साकार करनेवाली हूँ। यही बात मुझे शान्ति और सान्त्वना दे रही है। आज के युग में कोई नहीं बता सकता कि कब किसका मन बदल जाए। यदि आप लोग मेरे फैसले का स्वागत करें तो...इसके लिए पूरे एक हफ्ते का समय है...मैं आपकी या आपकी स्नेह-आशीषों की प्रतीक्षा करूँगी। अगर मेरा निर्णय आपको गलत लगे तो यही सोचकर गंगा नहा लीजिए कि आपकी गीता मर गयी।
'जी हाँ, मैं मानती हूँ कि यह निजी स्वार्थवश लिया गया निर्णय है। साथ ही मैं आपसे अपने इस प्रश्न का भी उत्तर चाहती हूँ कि इस घर में दादी के सिवा और किसने मेरे लिए नि:स्वार्थ भाव से त्याग किया?...और क्यों करना चाहिए?
आप लोगों पर
सदा अडिग प्रेम रखनेवाली
गीता'
"हाय, कितना बुरा हो गया रे!" के अलावा और कुछ कहने या करने में अशक्त होकर दादी माँ आँखें फाड़कर बेटे को देखने लगीं।
"गणेश अय्यर क्रूर मुद्रा में उठे और निर्दयतापूर्ण स्वर में गुर्राये,
"चलो, उसका नाम लेकर एकबारगी नहा लें...हमारे लिए वह मर गयी!"
दादी माँ सहम गयीं।
माँ के सुझाव, जवाब, आदेश या आज्ञा की प्रतीक्षा किये बिना आज पहली बार 'माँ का वह लाड़ला बेटा' अपने विवेक से एक निर्णय पर पहुँचा है ।
दादी की दोनों आँखें भर आयीं। उनका वृद्ध हृदय मोहपाश से धड़कने लगा। छाती पर हाथ रखकर उन्होंने पूछा, "यह...तुम कह रहे हो बेटे?"
"और क्या कहूँ माँ ? तुम्हारे वंश में...इस ऊँचे खानदान में...हाय..." इसके आगे उस अपमानजनक स्थिति का वर्णन करने में असमर्थ होकर गणेश अय्यर सकपका उठे।
'मैं जिस युग में पैदा हुई, वह एकदम अलग युग था रे!' होठों पर आये इन शब्दों को दादी ने जब्त कर लिया। इतने अर्से के बाद पते की एक बात दादी को उस क्षण स्फुटित हुई-
'मेरा यह बेटा इतने दिनों तक मेरी बात को वेद की वाणी मानकर मेरी आज्ञा और आदेश की प्रतीक्षा में खड़ा रहता था तो वह केवल मातृप्रेम के कारण नहीं था। वह पूरी आस्था और विश्वास के साथ मेरे वचन का पालन करता रहा...इसलिए कि मैं एक युग की प्रतिनिधि हूँ; मेरा वह युग आचार-अनुष्ठान पर आस्थावान युग है। मेरा जन्म उस कुल में हुआ था जो शास्त्र-विधियों से डरकर अक्षरश: उनका पालन करता आ रहा है। इसी प्रकार के आचार-अनुष्ठान के पथ पर अपने परिवार को ले चलने की शक्ति स्वयं में न होने पर भी...मेरे द्वारा यह सम्भव हो सकता है, इसी विश्वास के साथ...उस युग को और आचार-अनुष्ठान से मण्डित उस जीवन को गौरव देने के लिए ही मेरी हर बात को आदेश मानते हुए खड़ा रहता था मेरा बेटा!' यों अपने बारे में, अपने बेटे के मूर्खतापूर्ण निर्णय के बारे में और उधर एकाकी पड़ गयी प्यारी पोती गीता के बारे में सोचते हुए मौनमूक होकर बैठी थीं दादी।
तभी पार्वती वहाँ आयी। उसने जमीन पर पड़े उस पत्र को उठाया, जिस पत्र ने घर के वातावरण को संगीन बना दिया था। पढ़ने के बाद, 'अरी पापिन! तूने हमारे सिर पर अंगार उँडेल दिया!' कहती हुई सिर पीटपीटकर रोने लगी।
दादी ने अपने स्वभाव के अनुसार शान्त-निश्चल भाव से उस पत्र को लेकर पत्र की अन्तिम पंक्तियाँ दोहरा दीं :
"जी हाँ, मैं मानती हूँ कि यह निजी स्वार्थवश लिया गया निर्णय है। साथ ही मैं आपसे अपने इस प्रश्न का भी उत्तर चाहती हूँ कि इस घर में दादी के सिवा और किसने मेरे लिए नि:स्वार्थ भाव से त्याग किया?" चुभोनेवाले गजब के शब्द! दादी ने होठ काट लिये। गीता के इन शब्दों का अर्थ दूसरा कोई नहीं समझ पाएगा। सिर्फ दादी हैं जो समझ सकती हैं ।
अठारह साल की कच्ची उम्र में ही जैसे जब गीता के माथे का सिन्दूर पुछ गया और जूड़े पर सुगन्धित फूल लगाने का उसका अधिकार छिन गया...तो उसके माता-पिता यही कहकर छुट्टी पा गये कि उसके भाग्य में यही बदा था। गीता वैधव्य-दुःख के साथ घर लौट आयी, उसके बाद ही तो पार्वती ने अम्बी और जानकी इन दोनों बच्चों को जन्म दिया था।
-इससे क्या हो गया? यह तो गृहस्थ-जीवन में स्वाभाविक बात है ।
सुहाग से वंचित गीता के मन में उठनेवाली इच्छाओं के बारे में उन्हें क्या पता? जिस तरह दीमक खाई लकड़ी धीरे-धीरे छिदकर छोटे-छोटे अम्बारों में परिणत होने के बाद मिट्टी में मिल जाती है, उसी तरह बेचारी गीता के मन में फूटने वाली इच्छाएँ और आशा-अभिलाषाएँ विहँसने के बाद तहस-नहस होती रहीं, इसकी उन्हें क्या परवाह ?
लेकिन...
गीता की ही तरह, बल्कि उससे भी कच्ची उम्र में आधी शताब्दी से पहले के हिन्दू समाज की क्रूर वैधव्य अग्नि में झुलसने का अनुभव अब भी गौरी दादी के हृदय को हरे घाव की तरह साल रहा है। उनके लिए सुहाग की स्मृतियाँ सपना बन गयी थीं, उसी सपने में मन की इच्छाओं को साकार करते हुए जीवन के दिन, महीने और साल पहाड़ की तरह काटने पड़े थे। क्या गौरी दादी ने गीता के मन में चल रही यातनापूर्ण वेदनाओं को महसूस नहीं किया होगा? ।
इसी कारण से दादी, गीता का यह इरादा जानकर गणेश अय्यर या पार्वती अम्माल के सुर में सुर मिला कर न गीता को दुत्कार सकीं, न उसे शाप दे सकीं। अपना हाथ मलते हुए 'अरे...यह क्या हो गया!' कहकर पछताने के सिवा और कुछ नहीं कर पायीं। उनका मन गीता के लिए रो रहा था।
दिन ढलकर दीया-बाती जलाने के समय पर मैटनी शो से मीना और अम्बी घर लौटे। घर की सीढ़ी पर कदम रखते हुए अम्बी ने अन्दर वाले कमरे में आरामकुर्सी पर आँखें मूंदकर किसी विचार में डूबी दादी माँ को देख लिया। झट पीछे मुड़कर बहन मीना को चेतावनी दी। 'अरी, दादी आई हैं!...'
"कहाँ? अन्दर हैं या बरामदे में है?" कदम पीछे रखते हुए मीना ने पूछा।
"अपने सिंहासन पर विराजकर सो रही है..." अम्बी ने जवाब दिया।
मीना ने बड़े 'स्टाइल' से तह करके कन्धे पर डाली हाफ-साड़ी को थोड़ा-सा फैला लिया और उसके एक किनारे को खींचकर कमर में खोंस लिया। फिर यह तसल्ली कर लेने के बाद कि ठीक-ठाक है, सिर झुकाये भोली सूरत लिये घर के भीतर कदम रखा।
अन्दर आने के बाद पता चला कि दादी सोयी नहीं हैं, और माँ व बाबूजी अलग अलग कोनों में बैठकर सुबुक रहे हैं। माजरा क्या है, यह उन दोनों की समझ में नहीं आया।
उसी समय नन्ही जानकी अम्बी के पास हँसती हुई दौड़ी आयी"भैया, दादी माँ ककड़ी लायी हैं।" चुटकी की यह आवाज़ सुनकर दादी ने आँखें खोलकर देखा।
मीना ने उनसे पूछा, "दादी माँ, आप कब आयीं?"
फिर इशारे से पूछा-'क्या बात है...सब लोग गुमसुम क्यों बैठे हुए
दादी की आँखें भर आयीं।
मीना को देखने के बाद ही दादी के सामने एक और तथ्य स्पष्ट हुआ...गणेश अय्यर ने गीता का नाम लेकर एकबारगी गंगा नहाने की जो बात कही उसके कारण का भी पता चला...पार्वती अम्मान ने गीता को जो शाप दिया उसका औचित्य और आवेश दोनों समझ में आ गये। मीना ने नीचे पड़े पत्र को उठाकर पढ़ा।
दादी के मन में आया कि मीना को वह पत्र पढ़ने से रोक दें। फिर भी न जाने क्या सोचकर चुप रह गयीं-'पढ़ने दो इसमें बुराई ही क्या है?' वे मीना के चेहरे को गौर से देखने लगीं।
मीना के चेहरे पर नफरत की काली झुर्रियाँ उभर आयीं।
"अरी तेरा सत्यानाश हो!" बड़बड़ाते हुए मीना आगे पढ़ती गयी। उसके कन्धे के पीछे से उचक-उचक कर खत पढ़ रहे अम्बी का चेहरा भी विकृत हो गया जैसे एरण्डी का तेल पी लिया हो।
घर में डरावनी खामोशी छा गयी। शहर में हैजे की महामारी फैलने के समय घर में मरा चूहा दिखाई देने पर लोगों के अन्दर जैसे हड़कम्प मच जाती, उसी कातरता के साथ घर के सदस्य एक दूसरे को चुपचाप देख रहे थे।
गौरी दादी रात भर सोयी नहीं। न खाना खाया, न आरामकुर्सी से उठीं। बेटे, बहू और पोते-पोतियों को देखते हुए और गीता के बारे में चिन्ता करते हुए लम्बी आहे भरती रहीं।
सोचने लगीं-'अपनी आदत के खिलाफ़ इस बार वह मुझे छोड़ने के लिए बस अड्डे तक आयी थी। जब मेरी बस चल पड़ी, आँचल से अपना मुँह पोंछ रही थी। अरी गीता! उसका मतलब अब समझ में आ रहा है...दादी से हमेशा के लिए बिछुड़ रही है, यही सोचकर तो मेरी बिटिया आँखों में आँसू भरकर खड़ी थी, यह बात अब समझ रही हूँ। मैंने सोचा था, आँखों में धूल या तिनका पड़ गया होगा।'
मन ही मन अफसोस करते हुए दादी बार-बार एक ही प्रश्न दुहरा रही थीं-'हाय गीता! तूने यह क्या किया?'
पौ फटने के ज़रा देर पहले अनजाने ही दादी की आँख लग गयी। जगने पर उन्होंने देखा कि उजास हो गया है।
जालीदार किवाड़ के पास गली में नाई वेलायुधम हजामत की पेटी के साथ इन्तजार में खड़ा था।
आँखें खोलकर दादी...मन में यही मनौती मनाने लगीं कि जो कुछ हुआ वह सपना बन जाए तो अच्छा रहता...लेकिन सामने स्टूल पर पड़ा वह पत्र जतला रहा था कि जो कुछ हुआ वह सब सच है।
दादी ने पत्र उठाकर फिर से पढ़ा। तभी अन्दर वाले कमरे से आये गणेश अय्यर रात भर इसी याद में करवट बदल रही माँ को सान्त्वना देने के इरादे से बोले, "माँ! वेलायुधम आया है...गीता को मर गयी मानकर सिर मुंडवाकर नहा लो।"
"अरे, बन्द कर अपना मुँह !" दादी शेरनी की तरह गरज उठीं, "सुबह सुबह कैसी निगोड़ी बातें कर रहा है...ऐसा क्या गजब हो गया जिसकी वजह से तू उसकी मौत माँग रहा है?" यों कहकर शोकावेग में गौरी दादी फफक-फफक रोने लगीं। फिर अपनी लाल आँखें फाड़कर उन्होंने आक्रोश के साथ पूछा :
"बोल रे, उसने कौन-सी गलती कर दी? कौन-सा अपराध कर डाला, बता!" अपनी माँ के ऐसे सवाल को सुनकर क्षण भर के लिए गणेश अय्यर कुछ भी समझे बिना अवाक् खड़े रहे।
"पूछ रही हो उसने कौन-सी गलती कर दी? कौन-सा अपराध कर डाला? माँ, तुम्हारा दिमाग खराब तो नहीं हो गया? पागल हो गयी हो?" गणेश अय्यर भी चीख पड़े।
अगले क्षण, अपने स्वभाव के अनुसार स्थिर-चित्त होकर बेटे के मुँह को देखते हुए दादी ने शान्ति से सोचा। उनका बेटा उनके खिलाफ यह पहली बार बोल रहा है।
दादी ने धीमी आवाज में स्थिरता से कहा-
"हाँ बेटे...मैं पागल हो गयी हूँ। मेरी दीवानगी अभी की नहीं, बहुत पुरानी है। यह पागलपन लाइलाज है। लेकिन मेरे पागलपन को मेरे साथ जाने दो...यदि वह लड़की झट से इस पागलपन से मुक्त हो रही है तो उसके लिए कोई क्या कर सकता है!..उसने कह दिया न...कि 'मेरा यह फैसला मेरी बाबत सही है।' कहा न कि वेश धरकर घूमते हुए बदनामी मोल लेने के बजाए युक्तिपूर्वक यह फैसला लिया है..."
माँ की बात को बीच में काटते हुए गणेश अय्यर ने पूछा, "उसके कह देने मात्र से उसका किया-धरा सही हो जाएगा?"
"उसने कह दिया न...कि वह जो कर रही है अपने तईं वह सही है...अब ज़रा सुनूँ, तू क्या कह रहा है?" दादी ने अपनी हथेली पर घूसा मारते हुए पूछा।
गणेश अय्यर दाँत पीसते हुए चिल्लाये, "वह दुष्टा है, कलंकिनी है! मैं यही कहता हूँ कुल मर्यादा को तोड़नेवाली चरित्रभ्रष्ट लड़की को मर गयी मानकर तुम गंगा नहा लो।"
दादी माँ एक पल के लिए तटस्थ भाव से अपने को और सामने खड़े बेटे को अजनबियों की तरह देखने के बाद, कडवी हँसी के साथ बोलीं-
"शास्त्र और आचार की दुहाई दे रहा है न तू! ऐसे में पता है तुझे क्या करना चाहिए था? पता है, उस शास्त्र ने मेरे साथ क्या किया?...तब तू दूध पीता बच्चा था रे!...मैं पन्द्रह साल की लड़की थी रे! मेरा बच्चा मेरा मुँह देखकर बुरी तरह चिल्लाया था। मालूम है? अपनी माँ के स्तन से दूध पीने के लिए डरकर तू अक्सर चीखता। मेरे पास आते ही मेरे घुटे हुए, मुण्डित सिर को देखकर तू चिल्लाता...इस तरह शास्त्र के नाम पर मेरे ऊपर जुल्म ढहाकर लोगों ने एक अँधेरे कोने में मुझे बिठा दिया था रे! तूने गीता के साथ वही क्रूर कर्म क्यों नहीं किया था जब वह विधवा हुई थी...क्यों नहीं किया बता...!" आँखों में अश्रुधार के साथ दादी ने जब पूछा तो गणेश अय्यर ने भी अपनी आँखें पोंछ लीं। दादी ने अपनी बात फिर जारी की-
"क्यों रे! तेरे शास्त्र ने उसे रंगीन साड़ी पहनने की छूट दी? बालों को जूड़ा बनाकर बाँधते हुए स्कूल में जाकर पढ़ाने की अनुमति दे दी? खुद कमाकर पेट पालने की इजाजत दी है ? इन सबके लिए तूने मेरी अनुमति माँगी तो मैंने 'हाँ' कह दिया। क्यों? ज़माना बदल रहा है। लोगों को भी बदलना चाहिए-इसी खयाल से मैंने अनुमति दी थी। अभी इस परिवार के गौरव का बखान कर रहा था न तू, यह कुलीन परिवार जिसमें मैं पैदा हुई...उस समय मुझे सहारा देने के लिए तू था! घर और खेत थे। वह युग भी वैसा था। गीता ने आज जो निर्णय लिया है उसके बारे में कल्पना तक नहीं कर सकता, ऐसा युग था वह ! वह सब बातें उस युग में सम्भव थी, उस युग के लिए सही भी थीं। अब वैसा जीना मुमकिन नहीं है रे! बेटा गणेश, मैं तेरी स्थिति को समझ रही हूँ। तू बाल-बच्चों वाला है। कल तेरे बच्चों का विवाह-मंगल होना है। इन सब बातों को मैं समझ रही हूँ...गीता ने भी सोच-समझकर ही तो लिखा है...क्या तेरा शास्त्र उसे जीवन दे सकता है? जिन्दगी का सुख दे सकता है? उसने साफ कह दिया है न कि ऐसा शास्त्र मुझे नहीं चाहिए! गणेश, यह भी सुन ले। मुझे गीता ही चाहिए, मुझे जीवन में अब क्या पाना है? मेरा शास्त्र मेरे साथ बना रहकर मेरे साथ चिता में जल जाए। तुम सब यहाँ सुखी रहो। मैं जा रही हूँ। गीता के साथ रहने के लिए जा रही हूँ।
"सोचकर देख। यही अच्छा रहेगा। तुझे भी आत्मिक सन्तोष मिलेगा। नहीं तो उसके साथ साथ मेरे लिए भी गंगा नहा ले।...ले मैं चली।" कहकर अपनी दूसरी धोती को लपेटकर खाकी थैली में ठूसते हुए उठ गयीं दादी माँ।
"अम्मा...! ओ माँऽऽ!" कहकर जुड़े हुए हाथों के साथ चुपचाप खड़े थे गणेश अय्यर। आँखों से लबालब अश्रुधार गिर रही थी।
"अरे बुद्ध...रो क्यों रहा है? मैं भी काफी सोच-विचार के बाद ही इस निर्णय पर पहुँची हूँ-वह चाहे जो भी करे, आखिर वह हमारी बच्ची है रे!" यों धीमी आवाज़ में उन्हें तसल्ली देकर दादी ने अन्दर मुड़कर देखा। बोली, "पार्वती! तू घर को अच्छी तरह सँभालना।" और सबसे विदा लेती हुई दादी निकल पड़ीं।
'मुझे अभी चलना है। गीता के पास जल्दी पहुँचना है-' अपने आप बुदबुदाते हुए बाहर आयीं तो उन्होंने द्वार पर खड़े वेलायुधम को देखा।
"तू चल रे...मुझे नेयवेली जाने की जल्दी है।" कहते हुए उसके हाथ में एक चवन्नी रख दी।
'अब इसे यहाँ पर कोई काम नहीं है...इससे क्या हुआ? दुनिया में क्या-क्या बदलाव आ रहा है। क्या मैं एक नाई को भी बदल नहीं सकती?' यों सोचकर हँसते हुए दादी ने थैला उठाकर बगल में दबा लिया। ड्योढ़ी से उतरकर दादी एक बार मुड़ी और 'अच्छा, मैं चलती हूँ' कहते हुए सबसे फिर एक बार विदा ली।।
सुबह की सुनहरी धूप में ठण्डी रेत पर पैर जमा-जमाकर रखती हुई दादी एक ओर झुककर हौले-हौले जा रही थी।
दादी माँ का वह प्रयाण कुछ ऐसा था जैसे धीरे-धीरे चल रहे पुराने युग का कोई प्रतिनिधि तेजी और आवेश के साथ सामने से आ रहे नये युग का स्वागत करके उसे अपने आगोश में लेने के लिए आगे बढ़ रहा हो...
ओह! इसके लिए मन की परिपक्वता चाहिए!