युद्ध (पंजाबी कहानी) : तरलोक मंसूर
Yudh (Punjabi Story) : Tarlok Mansoor
स्वप्न में करमसिंह को लगा मानो किसी मजबूत दुश्मन के हाथों ने उसे पकड़ लिया हो। उसने चौंक कर आँखें खोल दीं। ठंडी रेत पर उसके साथ ही युद्ध से भागा हुआ अजीतसिंह बेहोश सो रहा था और उसकी दाईं बाँह करमसिंह की गर्दन से लिपटी थी। करमसिंह ने चारों ओर डरी और सहमी नज़रों से दूर-दूर तक देखा। हर तरफ रेतीली धरती फैली हुई थी। पूरब की ओर से चढ़ता हुआ सूर्य अपना सिर उठा रहा था।
आज से तीन दिन पूर्व वह दोनों दुश्मन के घेरे से निकल भागे थे। बैगाजी शहर की बाहरी खाइयों में उन लोगों ने मोर्चे लगाये हुए थे जब उन्हें खबर मिली कि जर्मनों ने घेरा डाल लिया है। फिर दिनों-दिन वह घेरा सँकरा होने की खबरें पहुँचती रहीं। वह प्रतिदिन काहिरा से अपनी मदद का इंतजार करते, पर वह पल कभी न आया, जब कोई आकर कहता कि काहिरा से पहुँची हुई फौजों ने दुश्मन को हराकर घेरा तोड़ दिया है।
घेरा दिन-प्रतिदिन तंग होता जा रहा था और सिर पर आते हुए खतरे से वे भलीभाँति परिचित थे। वह जानते थे कि जब शत्रु का टिड्डी दल सिर पर आ पहुँचा तो फिर सिवाय हाथ ऊँचे करके युद्ध के बंदी हो जाने के और कोई चारा न रहेगा और पिंजड़े में पकड़े हुए चूहों की भाँति, युद्ध के कैदी के साथ व्यवहार विजयी की इच्छा पर होता है, जैसी मौत चाहे वह मार सकता है।
अंत में बड़े कमांडर ने अफसरों की एक बैठक बुलाई, और फैसला हुआ कि रात-ही-रात में मार-धाड़ करके, घेरा तोड़ कर भाग जाना चाहिए। वह रात कयामत की रात थी। शत्रु ने उनकी हलचल को ताड़ लिया था, और अपनी तोपों के मुँह खोल दिये थे। प्रकाश फैलाते हुए गोले ऊपर और फिर उनकी रोशनी में, घबरा कर इधर-उधर भागते मनुष्य तड़-तड़ करती गोलियों से चने के समान भून दिये जाते, जिधर किसी का मुंह उठा शत्रु की पंक्तियों के बीच से भाग लिया।
इस तरह तांडव नृत्य से दूर जब करमसिंह जल्दी-जल्दी भागा जा रहा था तो रात के अंधकार में किसी ने आकर उसका हाथ थाम लिया। डर से करमसिंह का शरीर सुन्न हो गया। एक निर्दयी झटके से उस पकड़ने वाले का हाथ झटक देना चाहा, पर दूसरे ही पल उसके कानों ने सुना, “मुझे भी ले चल भाई" पलट के उसने देखा तो हाथ पकड़नेवाला यही अजीतसिंह था।
फिर दो रात और दो दिन इस मरुस्थल को पार करते रात को वह यहाँ तक पहुँचे थे। थकावट से उनका बुरा हाल था, नींद कंकड़ के समान उनकी आँखों में चुभ रही थी।
"दोस्त अब नहीं चला जाता," अजीतसिंह ने सिर हिलाकर कहा था और फिर दोनों ने सलाह की कि चाहे वे शत्रु के हाथों पकड़े जाएँ पर एक रात इस रेत के बिछौने पर अवश्य आराम करेंगे। अपने फौजी थैलों से नमकीन बिस्कुट का बचाखुचा चूरा खाकर इस विशाल रेगिस्तान के भयानक एकांत में वह दोनों एक-दूसरे के साथ लग कर सो गए थे।
अपने साथी के कंधे को हिलाते हुए करमसिंह बोला, “अजीत ! ओ अजीत।" अजीत ने एक गहरी साँस लेते हुए आँखें खोल दीं।
“उठ अब किधर जाना है?"
अजीतसिंह उठकर बैठ गया। निचले होंठ पर लकड़ी हुई जीभ को फेरता हुआ बोला, "मेरा मुँह आक के समान कड़वा हो रहा है।"
“यही हाल मेरा भी है।"
"कुछ खाने को मिल जाता तो..."
"रेत ही है, खानी है?"
“वह तो चलते-चलते खानी ही पड़ेगी।
रात को चाहे वह थैला खाली करके सोये थे फिर भी उनका दिल इस तरह सच्चाई को मानना नहीं चाहता था, इसलिए उन्होंने खाली थैलों को उल्टा करके झाड़ा, वह सचमुच खाली थे।
"तेरी केतली में पानी है रे?" अजीतसिंह ने अपनी खाली केतली को हिलाते हुए पूछा । अपनी केतली का कार्क खोलता हुआ करमसिंह बोला, "दो घूँट मालूम तो पड़ता है।"
एक घूँट अजीतसिंह ने भर लिया और दूसरा करमसिंह ने, और फिर बिना एक मिनट बेकार किये दोनों पूरब की ओर चलते रहे थे। पिछले तीन दिन से वह इस राह पर चलते आ रहे थे। उनके अनुमान से इस ओर आदिसअबाबा का शहर पड़ता था। आदिसअबाबा और कितनी दूर था? इस बियाबान में इस बात का कैसे अंदाजा हो सकता था। किंतु एक आशा ही है, जिसको मनुष्य मरते दम तक पकड़े रखता है। उसी आशा का दामन पकड़े वह दोनों पिछले तीन दिनों से इस तपते हुए मैदान में भटक रहे थे।
ऊपर से सूरज अग्नि के वाण चला रहा था। नीचे रेत तपिश छोड़ रही थी। जहाँ तक नजर काम देती थी, रेत के ऊँचे-नीचे टीले ही नज़र आते थे। कोई पक्षी, कोई जंतु, वनस्पति, बस्ती, किसी आबादी के आसार कुछ भी नहीं, बस चारों ओर एक भयानक शांति थी और उस शांति में लाल लोहे से सुलगते सूर्य के नीचे दो इंसान जिन्दगी को पुकारते हुए इधर से उधर भटक रहे थे। जब धूप ने उनको जलाना शुरू किया और पसीना सर से बह-बह कर फौजी जूतों में पैरों को भिगोने लगा तो वह ठहर गए। अपनी बन्दूकों को पास-पास गाड़ दिया और अपनी कमीजें उतार कर दोनों बंदूकों पर डाल कर थोड़ी छाँव बनाई और एक-दूसरे से सट कर दोनों बैठ गए। सूखा घूँट गले के नीचे उतारता हआ अजीतसिंह बोला-“गला बिल्कुल सूख गया है, केतली को निचोड़ भला?" खाली केतलियों के कार्क खोल कर उन्होंने अपनी हथेलियों पर उलटा रखा। पाँच-छ: बूंदें उनकी हथेलियों पर आ गईं, अमृत समझ कर वह दोनों उन्हें जीभ से चाट गए। जरा-सा सुस्ता लेने के बाद अजीतसिंह ने कहा, "मेरा विचार है हम पूरब की ओर आने के बजाय बाईं ओर चलें, आदिसअबाबा इतनी दूर नहीं हो सकता। हम जरूर राह भूल गये हैं।"
करमसिंह ने उत्तर दिया, “कहीं भी जायें हमारी खैर नहीं। दो ही प्रकार के लोग हमें मिलेंगे। एक वह, जिनको हम गुलाम बना चुके हैं और दूसरे वह, जिन्हें हम गुलाम बनाने के लिए लड़ रहे हैं। किसी के भी हाथ लग गये, कोई भी हमें छोड़ेगा नहीं।" एक कड़वी सच्चाई का पहली बार अजीतसिंह को अहसास हुआ। एक मोटी-सी गाली अंग्रेजों को देकर बोला, "हरामी ! कहाँ लाकर छोड गये हमें।"
अपने देश से हजारों मील दूर मौत की गोद में बैठे हुए उस पल करमसिंह को अंग्रेजों पर बहुत गुस्सा आया। निचले होंठ को क्रोध से दाँतों में चबाते हुए वह बोला, "तुझे मालूम है उन्होंने हमें इस तरह बेसहारा क्यों छोड़ दिया है।"
"क्यों?" "इसलिए कि उनको हमारे जैसे और सोलह-सोलह रुपए पर बहुत-से मिल जायेंगे।"
"उनकी माँ की" एक अति गंदी गाली अजीतसिंह ने अंग्रेजों को और दी। "एक बार मुझे गाँव पहुँच लेने दे फिर अगर मेरे गाँव से कोई भी भरती हो गया तो मेरा नाम बदल देना। मैं गाँव-गाँव घूम कर लोगों को युद्ध की बरबादी के विषय में बताऊँगा और कहूँगा, भाइयो, माँगी रोटी खा लेना पर भरती न होना।"
कहूँगा तो मैं भी यही, किंतु घर पहुँच गये तब न।" करमसिंह के कंधे पर हाथ मार कर अजीतसिंह बोला, “घबराओ नहीं दोस्त! हम जरूर घर पहुंचेंगे। मुझे तेरा भगवान के समान आसरा है। अगर तू न होता तो मैं कब का इस मरुस्थल में तड़प-तड़प कर मर गया होता।"
कुछ समय तक दोनों चुपचाप बदन पर टपकते पसीने की धारों को पोंछते रहे। फिर करमसिंह बोला, “एक बात है।"
"क्या?" "चाहे हम मर जाएँ, हमारे गाँव से कोई भरती नहीं होगा।"
"कैसे?"
"जब हमारे जैसे हजारों जवानों की मौत की खबरें उनके रिश्तेदारों को मिलेंगी तो उनके विलाप को सुनकर लोग त्राहि-त्राहि न कर उठेंगे।"
इस दलील से सहमत होता हुआ कुछ समय तक अजीतसिंह करमसिंह को देखता रहा और फिर बोला, “रोटी का तो कुछ नहीं, थोड़ा-सा पानी ही मिल जाता।"
“पानी?"
"हाँ, पानी।"
पानी के विषय में करमसिंह के पास कोई उत्तर न था। तपते मरुस्थल में जगह-जगह से रेत की आँधियाँ उठ-उठ कर आकाश को छू रही थीं और टीलों के पीछे नाचती धूप की लहरें भूतों का धोखा दे जाती थीं। अचानक उनके कानों ने फड़-फड़ की आवाज सुनी, दोनों ने सिर उठाया, हवाई जहाज , ऊपर चक्कर लगा रहा था। आशा से अजीतसिंह की आँखों में जिंदगी नाच उठी। बोला, “अपना ही लगता है।"
करमसिंह ने गौर से देखा और बोला, "नहीं, शत्रु का लगता है।"
“अपना है यार, क्या बातें करता है।" अजीतसिंह ने कहा और खुशी से पागल होकर उठ खड़ा हुआ।
"नहीं, शत्रु का है।"
“अरे, भाई, अपना ही है मान भी जा" कह कर अजीतसिंह ने हाथ ऊँचे करके इशारे किये और जहाज की ओर भागना शुरू किया।
पहले जहाज गोश्त के ऊपर झपटती चील के समान नीचे आया, जैसे नीचे हवाई छूटती है शाँ-शाँ करता एक गोला नीचे आता हुआ उन्होंने देखा।
“बम्ब! बम्ब!" चिल्लाते दोनों रेत पर लेट गए। एक जोर का दिल हिला देने वाला धमाका हुआ। चारों दिशाएँ धुएँ की चादर में समा गई। धीरे-धीरे धुआँ छंट गया। करमसिंह ने भयभीत आँखें खोल दीं।
क्या हाल है भई?" कहता हुआ करमसिंह उठ कर जिस ओर अजीत लेटा था चल पड़ा। दस कदम आगे अजीत की एक लात पड़ी हुई मिली, पाँच कदम और आगे अजीत का एक हाथ पड़ा था। जहाँ अजीत लेटा था वहाँ एक गहरा गड्ढा खुदा हुआ था और उसके चारों ओर बारूद से जली हुई अजीत की बोटियाँ पड़ी थीं।
किसी डर से करमसिंह के दोनों हाथ ऊपर उठे और...
"मैं हार मानता हूँ। मुझे कैद कर लो।" यह चिल्लाता हुआ करमसिंह उस तपते मरुस्थल में इधर-उधर भागने लगा।