युद्ध और नारी (निबंध) : महादेवी वर्मा

Yudh Aur Nari (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma

बर्बरता की पहली सीढ़ी से सभ्यता की अंतिम सीढ़ी तक युद्ध मनुष्य जाति का साथ देता आया है। मनुष्य ने अपनी संकीर्ण व्यक्तिगत स्वार्थ भावना का पहला अभिनंदन भी इसी से किया और लोकगत परार्थ भावना की अंतिम आराधना भी इसी से करने जा रहा है। समय के आगे बढ़ने के साथ ही उसकी पत्थर की भारी तलवार, लकड़ी, लोहे और इस्पात की बनते-बनते अब पहले से सहस्रगुणा अधिक भयानक अस्त्र में परिणत हो गई; दूर के शत्रु को बेधने वाले कम तीक्ष्ण बाण मशीनगन के पूर्वज बन बैठे। इतने युगों में मानवजाति ने केवल अनेक प्रकार के वस्त्राभूषणों से अपने को सजाना, ऊँची-ऊँची गगनचुंबी अट्टालिकाओं में बसना, अनेक प्रकार के अप्राकृतिक सुस्वादु व्यंजनों से शरीर को पालना, जाति, वर्ण, देश, राष्ट्र आदि दीवारें खड़ी करके रहना, अनेक नियम-उपनियमों से शासित होना और शासन करना ही नहीं सीख लिया, वरन् उसने अपने मार्ग में बाधा पहुँचाने वाले व्यक्ति की प्रत्येक साँस को विषाक्त कर देने वाले अनेक उपाय भी खोज निकाले हैं। आज के विज्ञान ने उसकी प्रत्येक संहारक कल्पना को पार्थिव रूप दे दिया, प्रत्येक उठने वाली इच्छा को धरती से बाँध दिया और प्रत्येक निष्ठुर प्रयत्न को साकार सिद्धि में परिवर्तित कर दिया। परिणाम वही हुआ, जो होना था।

आज प्रत्येक राष्ट्र हिंसक जंतु की तरह अपनी सद्यःजात पहली इच्छा की पूर्ति के लिए दूसरे राष्ट्र की जीवन भर की संचित संस्कृति को निगल लेने को तुला बैठा है। जब हम स्वार्थ के उस हुँकार को संसार के एक छोर से दूसरे छोर तक प्रतिध्वनित होते सुनते हैं, तब मन में यह प्रश्न उठे बिना नहीं रहता कि इन भिन्न देश और जातियों की, दुधमुँहे बालकों को अंचल की छाया में छिपाए और बड़ों को वात्सल्य से आर्द्र करती हुई माताएँ, तथा आनेवाली आपत्ति की आहट सुनकर मुरझाई हुई स्नेहमयी पत्नियाँ क्या सोच रही हैं।

युद्ध स्त्रियों की मनोवृत्ति के अनुकूल है या नहीं और यदि नहीं है तो पुरुषों ने उससे सहयोग पाने के लिए क्या-क्या प्रयत्न किए, ये प्रश्न सामयिक लगने पर भी जीवन के समान ही पुराने हैं। पुरुष का जीवन संघर्ष से आरंभ होता है और स्त्री का आत्मसमर्पण से जीवन के कठोर संघर्ष में जो पुरुष विजयी प्रमाणित हुआ उसे स्त्री ने कोमल हाथों से जयमाल देकर, स्निग्ध चितवन से अभिनंदन करके और स्नेह प्रवण आत्मनिवेदन से अपने निकट पराजित बना डाला।

पुरुष की शक्ति और दुर्बलता उस आदि नारी से नहीं छिपी रही होगी, जिसने पुरुष की बर्बरता को पराभूत कर उसकी सुप्त भावना को जगाया। इन पवित्र गृहों की नींव स्त्री की बुद्धि पर रखी गई है, पुरुष की शक्ति पर नहीं। अपनी सहज बुद्धि के कारण ही स्त्री ने पुरुष के साथ अपना संघर्ष नहीं होने दिया। यदि होने दिया होता तो आज मानव जाति की दूसरी ही कहानी होती। शारीरिक बल के अतिरिक्त उन दोनों के स्वभाव में भी भिन्नता थी । पुरुष की यदि ऐसे वृक्ष की उपमा दी जाए, जो अपने चारों ओर के छोटे-छोटे पौधों का जीवन रस चूस चूस कर आकाश की ओर बढ़ता जाता है तो स्त्री को ऐसी लता कहना होगा, जो पृथ्वी से बहुत थोड़ा-सा स्थान लेकर अपनी सघनता में बहुत-से अंकुरों को पनपाती हुई उस वृक्ष की विशालता को चारों ओर से ढँक लेती है। वृक्ष की शाखा प्रशाखाओं को काट कर भी हम उसे एकाकी जीवित रख सकते हैं, परंतु लता की, असंख्य उलझी-उलझी उपशाखाएँ नष्ट हो जाना ही उसकी मृत्यु है ।

स्त्री और पुरुष के इसी स्वभाव जनित भेद ने उन्हें एक दूसरे के निकट परिचय प्राप्त करने योग्य बना दिया । स्त्री का जो आत्म-निवेदन पुरुष को पराभूत करने के लिए हुआ था, वह संतान के आगमन से और भी दृढ़ हो गया। उसने देखा कि उसे एक सबल पुरुष पर शासन ही नहीं करना है, वरन् अनेक निर्बलों को भी उसके समान सबल बनाना है। उसके इस कर्तव्य-बोध के साथ ही गृह की नींव पड़ी। जब उसने अपने शिशु को सामने रखकर कहा कि इसे तुम्हारे समान बनाने के लिए मुझे निरंतर धूप- शीत से बचाने वाली छाया, नियमित रूप से मिलने वाला भोजन और नियत रूप से हिंस्र पशु, शत्रु आदि से रक्षा करने वाले प्रहरी के रूप में तुम्हारी आवश्यकता है, तब पुरुष पत्तों की कुटी बनाकर, आखेट द्वारा भोजन का प्रबंध करके अपनी सारी शक्ति से उस नए संसार की रक्षा करने में प्रवृत्त हुआ। पहले जिन शत्रुओं से वह निर्भीकता पूर्वक उलझ पड़ता था, अब उनके सहयोग की आवश्यकता का अनुभव करने लगा। संघर्ष में जो सबल व्यक्ति अपनी रक्षा करता था, वही अब सुकुमार संगिनी और कोमल शिशु को लेकर दुर्बल हो उठा, क्योंकि उसके प्रतिद्वंद्वी उसे हानि पहुँचाने में असफल होकर उसके गृह-सौंदर्य को नष्ट कर सकते थे । सबल ने अपने गृह की रक्षा और रक्षितों के सुख के लिए निर्बलों का सहयोग स्वीकार किया और निर्बलों ने अपने और अपने गृह दोनों के लिए। इस प्रकार हिंसक पशु के समान युद्धपरायण मानवजाति अपने सुख की परिधि को धीरे-धीरे बढ़ाने लगी। युद्धों का सर्वथा अंत तो नहीं हुआ, परंतु अब व्यक्ति अपने गृह की रक्षा के लिए तत्पर हुआ और जाति एक विशेष गृह- समूह की रक्षा के लिए मरने-मारने लगी । फिर भी स्त्री में कभी वह रक्तलोलुपता नहीं देखी गई, जिसके कारण युद्ध केवल युद्ध के लिए भी होते रहे।

वास्तव में यह पुरुष के दृष्टिकोण से युद्ध को देख ही नहीं सकती। कुछ स्वभाव के कारण और कुछ बाहर के संघर्ष में रहने के कारण पुरुष गृह में उतना अनुरक्त नहीं हो सका जितनी स्त्री हो गई थी। उसके लिए गृह का उजड़ जाना एक सुख के साधन का बिगड़ जाना हो सकता है, परंतु स्त्री के लिए वही जीवन का उजड़ जाना है। उसने अपने आप को उसमें इतना तन्मय कर दिया था कि उसका घर उसके लिए जीवन से किसी प्रकार भी भिन्न नहीं रह गया। युद्ध गृह के लिए प्रलय है; इसी से संभवतः वह उससे विमुख रही है। युद्ध के लिए वीरों को जाता देखकर पुरुष सोचेगा, देश का कितना गुरु महत्व इनके सम्मुख है और स्त्री सोचेगी, कितने आर्तनाद से पूर्ण घर इनके पीछे हैं। एक कहेगा यह जा रहे हैं, क्योंकि इनका देश है; दूसरी कहेगी यह जा रहे हैं, पर इनके स्नेहमयी पत्नी और बालक हैं।

स्त्री केवल शारीरिक और मानसिक दृष्टि से ही युद्ध के अनुपयुक्त नहीं रही; वरन् युद्ध उसके विकास में भी बाधक रहा है। जिसे कल की आशा नहीं, जिसके नेत्रों में मृत्यु की छाया नाच रही है, उस सैनिक के निकट स्त्री केवल स्त्री है। उसके त्याग, तपस्या, प्रेम आदि गुणों का वह क्या करेगा ! इन गुणों का विकास तो साहचर्य में ही संभव है। सबेरे तलवार के घाट उतरने और उतारने वाला, वीर, स्त्री की रूप-मदिरा का केवल एक घूँट चाह सकता है। वह उसके दिव्य गुणों का मूल्य आँकने का समय कहाँ पावे और यदि पा भी सके तो उन्हें कितने क्षण पास रख सकेगा ! इसी से प्रायः युद्धकाल में स्त्री संपूर्ण स्त्री कभी नहीं बन सकी। कुरुक्षेत्र की रुधिर-स्नाता द्रौपदी न महिमामयी जननी के रूप में हमारे सम्मुख आई और न गौरवान्वित पत्नी के रूप में प्रकट हुई। वैभव की अन्य सामग्रियों के समान वह शत्रु भय से भागते फिरने वाले पांडव भाइयों में बाँटी गई और युद्ध का निमित्त मात्र बनकर जीवित रहने के लिए बाध्य की गई। वास्तव में स्त्री के गुणों का चरम - विकास समाज के शांतिमय वातावरण में ही है, चाहे समय के अनुसार हम इसे न मानने पर बाध्य हों ।

स्त्री के स्वभाव और गृह के आकर्षण ने पुरुष को युद्ध से कुछ विरत अवश्य किया, परंतु इस प्रवृत्ति को पूर्णतः दबा देना संभव नहीं था। बाहर का संघर्ष भी समाप्त नहीं हो सकता था । समय ने केवल यथार्थ विस्तृत कर दिया, फलतः व्यक्ति, जाति, देश या राष्ट्र-विशेष के स्वार्थ से अपने स्वार्थ को संबद्ध कर परार्थसिद्धि का अभिनय-सा करने लगा। सुख के साधनों के साथ पिपासा भी बढ़ी, स्वत्व की भावना के साथ अपने अधिकार को विस्तृत करने की कामना भी विस्तार पाने लगी ! आज इस भौतिकवाद के वातावरण में मनुष्य बर्बर युग के क्रूर पुरुष से अधिक भयानक हो उठा है। बाहर संघर्ष है, कर्मक्षेत्र इतना रुक्ष है कि पुरुष स्त्री और गृह को जीवन की आवश्यकताओं में एक समझता है, परंतु उसे यह सह्य नहीं कि स्त्री उसकी अधिकार - लिप्सा में बाधक बने । उसकी इच्छा की सीमा नहीं, इसी से युद्ध-संस्था की भी सीमा नहीं तथा अन्याय और अत्याचार की भी सीमा नहीं । यदि स्त्री पग-पग पर अपने आँसुओं से उसका मार्ग गीला करती चले, तो यह पुरुष के साहस का उपहास होगा, यदि वह पल-पल में उसे कर्तव्य-अकर्तव्य सुझाया करे तो यह उसकी बुद्धि को चुनौती होगी, और यदि वह उसका साहचर्य छोड़ दे तो वह उसके जीवन की रुक्षता के लिए दुर्वह होगा।

अंत में पुरुष ने इस बाधा को दूर करने के लिए जो सहज उपाय ढूँढ निकाला, उसने सभी दुश्चिंताओं से उसे मुक्त कर दिया। उसने एक नए आविष्कार के समान स्त्री के सम्मुख यह तर्क रखा कि तुम्हारी युद्ध-विमुखता के मूल में दुर्बलता है। तुममें शक्ति नहीं, इसी से यह कोरी भावुकता प्रश्रय पाती है। तुम्हारा आत्मनिवेदन तुम्हारी ही रक्षणीयता प्रकट करता है, अतः यह लज्जा का कारण है, गर्व का नहीं । अपने स्वभाव की यह नवीन व्याख्या सुनकर मानो नारी ने अपने-आपको एक नए दर्पण में देखा, जिसने उसे कुत्सित और दुर्बल प्रमाणित कर दिया। उसका रोम-रोम विधाता से प्रतिशोध लेने के लिए जल उठा। उसने पुरुष के निकट पुरुष का ही दूसरा रूप बन जाने की प्रतिज्ञा की। वे अस्त्र, जो निष्ठुर संहार के कारण उसे त्याज्य जान पड़ते थे, उसके आभूषण हो गए। युगों से मानवता की पाठशाला में सीखा हुआ पाठ वह क्षण में भूल गई और पुरुष ने अपने मार्ग को प्रशस्त पाया। आज के पुरुष ने स्त्री पर जो विजय पाई है, वह मानवजाति के लिए चाहे उपयोगी न हो, परन्तु उसके संकीर्ण स्वार्थ के लिए आवश्यक है।

पुरुष स्त्रियों की ऐसी सेना बना रहा है, जो समय पर उसके शिथिल हाथ से लेकर रक्तपात न बन्द होने देगी, सहानुभूति को गर्व के भारी पत्थर से दबाकर मनुष्यता का चीत्कार सुनेगी और स्नेह को वैभव का बन्दी बनाकर अपने आपको कृतकार्य समझेगी। सुदूर भविष्य के गर्भ में क्या है, यह तो अभी कह सकना सम्भव नहीं, परन्तु आज की निस्तब्धता में किसी आँधी की ही सूचना छिपी हो तो आश्चर्य नहीं।

इसी युग में नारी ने ऐसा वेष बनाया है, यह कहना इतिहास की उपेक्षा करना होगा। अनेक बार उसने आपत्तिकाल में अस्त्र धारण कर सृष्टा का पद छोड़कर संहारक का कार्य किया है, परन्तु भेद इतना ही है कि प्रायः वह क्षणिक आवेश बुद्धिजन्य न होकर आशंकाजन्य था । उसमें और इसमें उतना ही अन्तर है जितना प्रयत्न और सिद्धि में। पहले का भाव संस्कार नहीं बन सका था। केवल एक अधिक सुन्दर सत्य की रक्षा के लिए उसने असत्य का परिहार स्वीकार किया। था। आधुनिक युद्ध-प्रिय राष्ट्रों की नारियों में यह संस्कार जन्म पा रहा है कि करुणा, दया, स्नेह आदि स्वभाव-जात गुणों के संहार के लिए यदि पुरुष - जैसा पाशविक बल उनमें न आ सके तो उनकी जाति जीने योग्य नहीं। इसी से वह मातृ-जाति अन्य सन्तानों का गला काटने के लिए अपनी तलवार में धार देने बैठी है।

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