यह लाश और मेरी इच्छाएँ (नेपाली कहानी) : एम० एम० गुरुंग
Yeh Laash Aur Meri Ichhayen (Nepali Story) : M. M. Gurung
चिता पर लाश रखी हुई है। सुगन्धित धूप जल रहे हैं। चारों ओर
रंग-बिरंगे फूल हैं पर ये भी मुरझा चुके हैं। इस लाश की तरह प्राणहीन और
शक्तिहीन। हम काफी लोग हैं जो इसके इर्द-गिर्द घेरा बाँघे बैठे हुए हैं। लाश
एक औरत की है। वह तरुणी नहीं है पर नि:सन्तान होने के कारण लगता नहीं
कि उसकी उम्र पक चुकी हो। कल सुबह तक ठीक-ठाक स्वस्थ थी। कोई
कहता--दिल की बीमारी से गुजर गई। कोई कहता--शायद खाने में ज़हर मिल
गया होगा। कोई कुछ कहता तो कोई कुछ पर यह सच है कि वह मर चुकी है।
उसका जो जिस्म यहाँ पड़ा है, उसमें प्राण नहीं है। शक्ति नहीं है, कुछ भी नहीं
है। वह लाश बनी लम्पसार पड़ी है।
'आदमी की ज़िन्दगी भी क्या है ? सोचता हूँ, कुछ भी नहीं है, कल थी
आज नहीं है ।' अच्छा नहीं लगता। मुझे यह अच्छा न लगने का विशेष कारण
भी है पर इसके बारे में किसो को कोई पता नहीं है।
वह आदमी दहाड़ें मारकर रो पड़ता है। मैं उसे पहचानता हूँ। वह
मृत औरत का पति है। उसका इस प्रकार रोना मुझे अच्छा नहीं लगा। मैं
मत-ही-मन कहता हूँ--बेकार का दिखावा ! गहरी वेदना से आदमी ऐसे
खुलेआम नहीं रोता। नामर्द ! कहता है खाने में ज़हर पड़ जाने से मर गई ! ऐसे
आदमी का क्या भरोसा ? मुझे लगता है वह अपनी पत्नी को प्रेम नहीं दे सका,
हृदय से अपना नहीं बना सका। उसे यदि कोई मोह था तो सिर्फ उसके ज़िस्म
से था। वह सुन्दर थी। उसके शरीर की सुन्दर बनावट पर कोई भी पुरुष आकर्षित
हो सकता था। मुझे यह बात अच्छी तरह मालूम है। इस लाश के चेहरे को मैं
देख रहा हूँ। वह मृतावस्था में भी सुन्दर दिखती है। सिर्फ उसमें प्राण-ज्योति
नहीं है, चमक नहीं है। सभी इच्छाओं को मारकर वह जैसे सो रही दिखती है।
बादलों भरी उदास साँझ, चारों ओर एक असामान्य शून्यता व्याप्त है।
कोहरा छाया हुआ है। बारिश होने को है। इसी वक्त दाग-बत्ती जलती है। लोग
लाश को जलाने के लिए बाँस की खपच्चियाँ दूँढ़ रहे हैं। उसके चेहरे पर एक
ज्योति-सी चमक उठती है। एक क्षण के लिए कान्तिहीन चेहरा जैसे जल उठता
है। मैं गौर से देखता हूँ उस चिर-परिचित चेहरे को हमेशा के लिए अन्तिम समय
के लिए। उसका चेहरा वैसा ही दिखता है। उसकी ठुड्डी के नीचे एक काला
तिल, वह सुन्दर नाक सभी पहले की तरह वैसे ही हैं इतने वर्षों के बाद भी।
मुझे उसी तरह दिखते हैं जैसे पहले दिखते थे आज की ही तरह। उसे इस प्रकार
देखने में मुझे कोई संकोच नहीं हो रहा।
वह आदमी फिर दहाड़ें मारकर रोने लग पड़ता है। इस प्रकार रोने से
यह कैसे साबित हो सकता है कि वह मृतका से प्रेम करता था ? मैं सोचता
हूँ। पिछले साल की ही तो बात है वह दूसरी औरत ले आया था। बेईमान !
दगाबाज ! ढोंगी! मैं मन-ही-मन में कुढ़ रहा हूँ। उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम
चारों दिशाओं में चिता जल उठती है। अब इस आग की तीखी गरम लपटें लाश
की तरफ बढ़ रही हैं। और जल्दी-जल्दी इस लाश के मांस को खाती जा रही
हैं। बह आदमी, उसका पति चिता में कूद पड़ने का अभिनय करता आगे बढ़ता
है। अब लेने को बचा ही क्या है ? देने को बचा ही क्या है ? मैं उसे पकड़
लेता हूँ। मन करता है, उसे भी इसी चिता में झोंक दूँ। वह गिर पड़ने जैसा
अभिनय कर रहा है। उसे लाश से दूर पीछे की ओर ले जाकर बैठाता हूँ। वह
नज़रें उठाकर मेरी ओर देखता है। आग की लपटें और ज्यादा गरम हो जाती
हैं। धूप, चन्दन, घी, सरसों आदि जलती लाश पर फेंके जा रहे हैं। मैं चिता की
ओर जाता हूँ। उसका चेहरा एक बार फिर देखने की इच्छा हो उठती है पर वहाँ
अब कुछ नहीं है वह सुन्दर चेहरा नहीं है, वह आकर्षक जिस्म नहीं है। अब
वह जलकर निपट काला और भयानक हो चुका है। वह सुन्दर केशराशि जल
कर राख हो चुकी है। हवा चल रही है और मांस जलने की दुर्गन्ध नथुनों से
टकराती है। जनाज़े में आए लोग नाक पर हाथ रख लेते हैं। मुझे नाक पर हाथ
रखने में संकोच हो रहा है पर मैं भी लाश से कुछ दूर हट जाता हूँ। काफी
साल पहले मैं जिस जिस्म पर मोहित हो गया था, वह सुन्दर शरीर दुर्गन्ध
बिखेरता धूँ-धूँ जल रहा है। शरीर के सुन्दर अंग काले और चीथड़े होते जल
रहे हैं। उस आदमी ने अब रोना छोड़ दिया है और कुछ दूर बैठा कुछ सोच
रहा है। शायद यह सोच रहा है कि उसने अपनी मृत पत्नी पर अन्याय किया
है। हो सकता है वह मन-ही-मन खुश भी हो रहा हो। यह भी हो सकता है
कि वह अपने पाप का प्रायश्चित्त कर रहा हो। यह भी हो सकता है कि वह
अपनी दूसरी जीवित पत्नी के तरुण यौवन के बारे में सोच रहा हो। मैं फिर
उत्तेजित हो जाता हूँ। उसकी यह मृत पत्नी एक ज़माने में मेरी प्रेमिका थी, सिर्फ
प्रेमिका ही नहीं। इतना ही नहीं, वह मुझसे शादी करने को तैयार थी। यह सब
उसे कह देने की इच्छा होती है।
कड़ाके की सर्दी है आग की लपटें और ज्यादा तप्त होती जा रही हैं।
अब दुर्गन्ध चलनी बंद हो गई है। बारिश होने वाली है।
हाँ हाँ, उस वक्त बर्फ गिरने को ही थी। मौसम भी आज की तरह ही
था, बादलों से ढकी साँझ उदास होती साँझ हम यौवन के उन्माद की तपिश
से सराबोर थे। हम एक-दूसरे के जिस्मों से सटे मस्त थे, उन्मादित थे, बर्फ के
फाहे गिर रहे थे और नोचे धरती पर पड़ते ही विलुप्त होते जा रहे थे।
"आदमी की इच्छा भी ऐसी ही होती है, नहीं बर्फ की तरह।'' मैं कहता
हूँ!
वह कहती है, ''जी।''
“तुम्हारी क्या-क्या इच्छाएँ हैं, माया ?” मैं फिर कहता हूँ।
“कुछ भी नहीं। सच, कुछ भी नहीं।” वह कहती है।
“आदमी बहुत-सी इच्छाएँ अपने अन्दर पाले रखता है।'' मैं फिर कहता
ह्ँ।
“कैसे ? बताओ तो। मैं ये बड़ी-बड़ी बातें नहीं जानती।'' वह उत्तर देती
है।
“जैसे हमेशा इसी तरह बैठे रहने की इच्छा, हमेशा जिन्दा रहने की इच्छा,
शादी करने की इच्छा और ढेर-सी इच्छाएँ।'' मैं कहता हूँ। वह खिलखिला
कर हँस पड़ती है। हँसते-हँसते वह लोटपोट हो जाती है। मुझसे अलग होकर
दूर जाकर बैठ जाती है। हम घर की ओर चल पड़ते हैं। दोराहे पर आकर
अपने-अपने घर की ओर चल देते हैं। उसने काली साड़ी पर हरा कोट पहन
रखा था। वह जा रही होती है और उसका आकार घुँधला होता जा रहा है। बर्फ
फुस-फुस गिर रही है, साँझ गहराती जा रही है...आज की साँझ की तरह पर
यह काफी साल पहले की बात है मगर लगता हैं जैसे कल की बात हो।
...जनाजे में आए लोग जाने लगे हैं। लाश जलाने वालों को भी जल्दी
है--और लकड़ियाँ डालकर अब ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। ''घी सरसों है तो और
डालो ! सर्दी भी कितनी है ! दिन ढलने को हो रहा है जल्दी करो।''
बाँस के लम्बे-लम्बे नुकीले डंडों से बचे-खुचे मांस-पिण्ड को लाश
जलाने वाले उलट-पलट कर जलाने के लिए जोर-जोर से प्रहार कर रहे हैं।
“मर्द की छाती जलने में जिस प्रकार देर होती है उसी प्रकार औरत के
कूल्हे, और जोर-से प्रहार करो !” किसी अनुभवी का कथन। वह नाक अब
कुरूप होता जा रहा है। वह मर्द उसे इस प्रकार जलते आँखें फाड़-फाडकर देख
रहा है। वह क्या सोच रहा है, मैं नहीं बता सकता। अपनी कहूँ तो मैं अपनी
इच्छाओं के कंकड़ बीन रहा हूँ...बीते कल, आज और आगामी कल के। यह
श्मशान अब शून्य और खामोश है। यहाँ और भो काफी कब्रें हैं। कुछ बहुत
पुरानी, कुछ हाल की ही। अनगिनत इच्छाओं की समाप्ति का इतिहास यहाँ उकेरा
गया है।
“अब बड़ी मुश्किल से लाश जल गई है या कुछ बाकी है ?'' कोई कहता
है। सचमुच लाश जल चुकी है, बची-खुची भी जलकर राख हो चुकी है। गर्म
राख का ढेर सिर्फ अवशेष के रूप में रह गया है।
...मैं अब वापस जा रहा हूँ। इस सुनसान श्मशान घाट को छोड़कर।
चलते-चलते अपनी अनगिनत इच्छाओं को बीन रहा हूँ कल की, आज की और
आगामी कल की। शून्य साँझ रात को डाक रही है। मोड़ पर आ पहुँचता हूँ
और एक बार फिर मुड़कर उसे देखता हूँ। पर वहाँ कुछ नहीं सिर्फ जली हुई
लाश का धुआँ आकाश में फैलकर उड़ रहा है...उड़ रहा है।