यथार्थवाद (कहानी) : गुरुदत्त

Yatharathwad (Hindi Story) : Gurudutt

: 1 :
" श्रीमानजी, यह चलेगी नहीं । "
" क्यों ? "
" इसमें यथार्थता का अभाव है । "
" वह क्या होती है ? "
" जो जैसा है , उसका वैसा ही वर्णन करना । "
" परंतु सत्य क्या है ? "

" देखिए बाबू साहब, आप पढ़े-लिखेहैं । कुछ लोग आपको विद्वान् भी कहते हैं । आपकी लिखी रचनाएँ पढ़ी भी अवश्य जाती हैं , परंतु वे सदा यथार्थ से दूर होती हैं । अब आप पूछते हैं कि कैसे ? मैं भला कैसे बता सकता हूँ ? मैं तो न लेखक हूँ, न ही विद्वान् । यदि आप इस विषय में जानना चाहते हैं तो डॉक्टर दिनेशजी से मिल लीजिए । वे पी -एच. डी. इन इंगलिश लिट्रेचर हैं । उन्होंने साहित्य - समालोचना पर कई ग्रंथ लिखेहैं । "

" परंतु उपन्यास तो उन्होंने कोई लिखा नहीं । कम - से- कम मेरे ज्ञान में नहीं है । "
" पंद्रह वर्ष पूर्व एक लिखा तो था । हमने ही उसे प्रकाशित किया था । "
" क्या नाम है उस उपन्यास का ? "
" निष्णात । "
“ अच्छा, सुना नहीं । "

" प्रथम संस्करण दो सहस्र प्रतियों का छपवाया था । उन दिनों हमारा काम भी कुछ ढीला था । हमारा बिक्री का प्रबंध इतना अच्छा नहीं था और डॉक्टर साहब भी तब इस पदवी पर नहीं थे, जिस पर कि आज हैं । वह संस्करण अभी तक समाप्त नहीं हुआ । इस वर्ष के आरंभ में स्टॉक लेने पर देखा कि एक सौ से अधिक प्रतियाँ पड़ी हैं । "
" तो इस वर्ष तो उनकी बिक्री हुई होगी । अब तो पचास से अधिक आपके एजेंट देश भर में घूमते हैं । "
" परंतु उस पुस्तक को लिखे अब पंद्रह वर्ष हो गए हैं । तब के यथार्थ और आज के यथार्थ में अंतर आ गया है । देश ने भारी उन्नति की है । इसलिए उनका वह यथार्थ वर्णन आज अयथार्थ हो गया है । "

वार्तालाप हो रहा था एक लेखक और एक प्रकाशक में । लेखक थे केवल और प्रकाशक थे मैसर्स नॉर्दन इंडिया पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड । केवल एक उपन्यास लिखकर लाया था और इस प्रकाशन संस्था के व्यवस्थापक से इसके प्रकाशन के लिए कह रहा था । इस पर उक्त वार्तालाप हुआ था ।

लेखक की यह प्रथम रचना नहीं थीं । कई पुस्तकें पहले निकल चुकी थीं , परंतु उनका प्रकाशक एक पूँजी-विहीन दुकानदार था । एक तो उस प्रकाशक का अपना छोटा सा प्रेस था , जिसमें एक ट्रेडिल मशीन लगी थी । उसी मशीन पर छपाई का अन्य कार्य भी होता था । पुस्तक तो प्रेस में खाली समय में छप जाया करती थी । तीन सौ पृष्ठों की एक पुस्तक के छपने में छह मास लग जाना साधारण बात थी, फिर धनाभाव के कारण कभी पुस्तक का संस्करण समाप्त हो जाता, तो नए संस्करण के लिए कागज खरीदने में सालों लग जाते ।

केवल के मन में विचार आया कि किसी पैसेवाले प्रकाशक के पास जाए तो अच्छा रहेगा । उसके उपन्यासों के प्रशंसकों में से श्रीमती शकुंतला कहीं किसी सभा में उससे मिलीं, तो कहने लगी कि वह अपनी पुस्तकें नॉर्दन इंडिया पब्लिशर्स को क्यों नहीं देते ?

केवल ने कहा, " वे बहुत बड़े आदमी हैं । मेरा उनसे परिचय नहीं है । "
" इसमें परिचय की क्या बात है ? मैं मैनेजर को कह दूँगी , आप जैसे लिखनेवाले के लिए वे ही प्रकाशक उपयुक्त हो सकते हैं । "
" आप परिचय- पत्र दे दीजिए । मेरे पास इस समय भी एक उपन्यास की पांडुलिपि तैयार है । "

" परिचय-पत्र की आवश्यकता नहीं । कल किसी समय आप उसके मैनेजर कृष्णकांत से मिल लीजिए । आप जाएँगे तो आपको पता चल जाएगा कि आपके विषय में कहा जा चुका है । "

केवल को इस प्रकार जाने में संकोच होता था । वह उलटी खोपड़ी का व्यक्ति था । संसार में सर्वथा विलक्षण और मानापमान के विषय में दूसरों से भिन्न विचार रखनेवाला । वह समझता था कि उसकी पुस्तकों की अच्छी बिक्री होती है, अतः उसका प्रकाशकों के पास जाकर प्रार्थना करना तो अपनी कला का अपमान कराना है ।

इस पर भी इस विचार से कि कदाचित् उसकी ख्याति अभी उतनी नहीं हुई , जितनी प्रकाशकों को आकर्षित करने के लिए चाहिए । अतः उसको अभी प्रकाशकों के पास जाकर यत्न करना ही चाहिए । इससे वह शकुंतला देवी से प्रोत्साहन पा कृष्णकांत के पास जा पहुँचा ।

यह ठीक था कि व्यवस्थापक महोदय ने केवल का नाम सुनकर कहा था , " आपके विषय में शकुंतलाजी ने कहा था । "

इससे उत्साहित हो केवल ने अपनी नवीन कृति सोमरस के छपवाने की बात कर दी और व्यवस्थापक महोदय ने उक्त वार्तालाप आरंभ कर दिया ।

: 2 :
केवल ने जब यह सुना कि एक लेखक, जिसका लिखा हुआ उपन्यास पंद्रह वर्ष में अप्रभुज्यमान ( ओबसोलीट ) हो जाता है, तो वह विचार करने लगा था कि ऐसा लेखक दूसरों को यथार्थ से दूर कहकर उनकी कैसे निंदा कर सकता है । उसका यथार्थ इतनी जल्दी अयथार्थ हो रहा है कि यथार्थ हो सकता ही नहीं ।

इस विचार के आते ही उसके मन में ग्लानि हुई । उसने अपनी पुस्तक की पांडुलिपि उठाई और उठते हुए कहने लगा, “ क्षमा करें , आपका इतना समय व्यर्थ में गँवाया है । अच्छा, नमस्कार! "
वह जाने के लिए घूमा, तो व्यवस्थापक ने कहा, " केवलजी, सुनिए तो !
केवल घूमकर खड़ा हो गया । बैठा फिर भी नहीं । कृष्णकांत कहने लगा, “ मैं समझता हूँ कि शकुंतलाजी के कहने का मान रखने के लिए हमें आपका एक उपन्यास तो प्रकाशित कर ही देना चाहिए । "

" देखिए, आप तो इस लिमिटेड कंपनी के मैनेजर -मात्र हैं । आपको कंपनी के धन को सिफारिशी लोगों के कहने पर व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिए । मेरी राय मानिए , डॉक्टर दिनेशजी से कोई नया उपन्यास लिखवाकर प्रकाशित करिए । उनसे कहिए कि उनका पहला यथार्थ तो अयथार्थ हो गया है । अब किसी नवीन यथार्थ पर एक उपन्यास लिखिए,
" आपका शकुंतलाजी से कैसा परिचय है ? "

" क्या मतलब! केवल ने सतर्क हो पूछा । उसको ऐसा प्रश्न बहुत ही भद्दा प्रतीत हुआ था । किसी पुरुष से यह पूछना कि अमुक स्त्री से उसका कैसा परिचय है, एक अनर्गल बात थी । इस पर भी उसने अपनी और शकुंतला की सफाई देना उचित समझा ।

कृष्णकांत तो अपने प्रश्न में किसी प्रकार का अनौचित्य नहीं देख सका । इस कारण मुसकराता हुआ केवल के मुख की ओर देखता रहा । केवल ने ही कहा, " मैं उनके विषय में कुछ नहीं जानता । वह कल किसी सभा में अध्यक्षा थीं और मैं श्रोता । सभा के संयोजकों ने सभा के उपरांत उनसे मेरा परिचय कराया, तो बातों - ही - बातों में उन्होंने मुझको आपसे मिलने के लिए कहा था । इससे अधिक मैं उनको नहीं जानता । "

कृष्णकांत ने अपने प्रश्न का कारण बताते हुए कहा, " मैंने तो इसलिए पूछा था कि क्या आप यह जानते हैं अथवा नहीं कि वे हमारी प्रकाशन संस्था के अधिपतियों में से एक हैं । "

" ओह, तब तो आपको यह सबकुछ, जो आपने डॉक्टर दिनेश के विषय में अपनी सम्मति बताई है, उनको बताना चाहिए थी । इससे उनको आपके इतने महापुरुषों से परिचय का ज्ञान हो जाता । अच्छा, अब मुझे आज्ञा दीजिए । मुझे एक अन्य स्थान पर भी जाना है । "

कृष्णकांत अभी विचार ही कर रहा था कि वह इसको केवल की विनय - भावना समझे अथवा अभिमानयुक्त कथन , कि केवल दुकान से बाहर निकल गया । दो ही मिनट में पुनः केवल को शकुंतला देवी के साथ भीतर आते देख वह और भी अधिक परेशानी अनुभव करने लगा था । वह सोच रहा था कि उसका डॉक्टर दिनेश की इस ख्याति प्राप्त लेखक के विषय में पूर्ण सम्मति बतानी पड़ेगी ।

" कृष्णजी, " शकुंतला ने मैनेजर के सामने बैठते हुए कहा , “ आपने केवलजी की नवीन कृति देख ली है । "
" जी नहीं , देखी तो नहीं । "
" आपने इनकी कोई प्रकाशित पुस्तक पढ़ी है?
" उपन्यास पढ़ने के लिए मुझे अवकाश ही कहाँ मिलता है! "
" तो फिर आपने इनकी पुस्तक छापने से एकदम इनकार क्यों कर दिया है?
" कुछ दिन हुए इनका उल्लेख डॉक्टर दिनेशजी के साथ हुआ था और उनकी बात मुझको स्मरण थी । मैंने वही बात इनको बता दी है । इससे यह रुष्ट होकर चल दिए । "
" तो यह बात है । लेकिन डॉक्टर दिनेश कब से उपन्यासकार बने हैं ? "
" समालोचक तो वे चोटी के माने जाते हैं । "
" इनके विषय में उन्होंने क्या समालोचना की है ? "
" वे कहते थे कि केवलजी यथार्थवादी नहीं हैं । यह आदर्शवादी हैं । यह कलाकार नहीं हैं , उपदेशक हैं । ये भाषाविज्ञ नहीं हैं , यह बाजारू भाषा लिखते हैं । "

इस सम्मति को सुन लाल मुख शकुंतला चुप रही । वह डॉक्टर दिनेश को भलीभाँति जानती थी । कॉलेज में वह उससे पढ़ती रही थीं । इससे वह केवलजी के विषय में उससे मिलने का विचार करने लगी थीं ।

शकुंतला को चुप देख कृष्णकांत ने अपनी सफाई देते हुए कहा, "मुझे इस कंपनी में धन लगानेवालों के हानि लाभ का विचार तो करना ही चाहिए । कंपनी की ख्याति का भी ध्यान रखना पड़ता है । " ।

शकुंतला ने कृष्णकांत से तो कुछ नहीं कहा । उसने केवल के हाथ से पांडुलिपि लेकर कहा, " आइए मेरे साथ । मैं इस विषय में कुछ खोज करना चाहती हूँ । "
दोनों उठकर दुकान से बाहर आ गए ।

: 3 :
केवल शकुंतला की खोज का अर्थ समझ नहीं पाया । इस कारण दुकान से बाहर आ, वह प्रश्न भरी दृष्टि से शकुंतला की ओर देखने लगा ।

शकुंतला अपनी मोटरकार में आई थी । उसने मोटर दुकान के पास खड़ी ही की थी कि अपनी पुस्तक की पांडुलिपि बगल में दबाए केवल दुकान से बाहर निकल रहा था । केवल ने शकुंतला को देखा, तो नमस्कार किया । शकुंतला ने समझा कि मैनेजर भीतर नहीं होगा , इस कारण यह निराश लौट रहा है । उसने पूछा, " केवलजी! मैनेजर नहीं है क्या भीतर ? "

" आपको मिले नहीं ? "
"मिले तो हैं , किंतु उन्होंने पांडुलिपि अस्वीकार कर दी है । "
" क्यों ? "
" यह अब आप पता कर लीजिए । मुझसे तो सत्य छिपा भी सकते हैं । "
एक क्षण तक विचार करने के बाद शकुंतला ने कहा , " आप आइए , मैं भी तो समझ लूँ कि क्या मतलब है उनका । "
"व्यर्थ है । "
" केवलजी! आइए तो । "

शकुंतला ने पांडुलिपि अपने हाथ में पकड़ ली और दुकान में चली गई । विवश केवल को भी पुनः दुकान में जाना पड़ा । अब जब वे बाहर आए तो केवल गंभीर विचार - मग्न था और शकुंतला क्रोध से लाल हो रही थी । उसने कहा, " गाड़ी में बैठ जाइए , मैं डॉक्टर दिनेश से मिलने के लिए जा रही हूँ । "
" आप व्यर्थ में ही अपना समय और पेट्रोल व्यय कर रही हैं । मुझे तो अपनी योग्यता पर ही संदेह होने लग गया है,"
" जरा मैं देखना चाहती हूँ कि मेरे प्रोफेसर आपके विषय में क्या और क्यों कहना चाहते हैं ? "
" तो आप जाइए । मुझे तो इसमें कुछ सार प्रतीत नहीं होता । "
" आप डॉक्टर दिनेश से परिचित हैं । "
" मैं तो उनको पहचानता नहीं । "

" तो वे भी आपको नहीं जानते होंगे । इस कारण आपका नाम नहीं बताऊँगी । आप भी केवलजी से अपरिचित व्यक्ति बन जाइएगा । अपनी उपस्थिति में अपने विषय में कही जानेवाली बातों का आनंद भी लीजिएगा । "

केवल ने आपत्ति नहीं की । शकुंतला स्वयं कार चला रही थी । केवल को लेकर यूनिवर्सिटी एन्क्लेव में डॉक्टर दिनेश की कोठी पर जा पहुँची । वह जानती थी कि शनिवार के दिन डॉक्टर घर पर ही होता है । शकुंतला की कार रुकते ही डॉक्टर बरामदे में आ गए ।
" आओ, शकुंतला, कैसे आना हुआ? "

" आज तो मैं व्यापार - संबंधी बात करने के लिए आई हूँ । आपने वचन दिया था कि आधुनिक अंग्रेजी की कविता पर समीक्षा नामक पुस्तक हमारी कंपनी को देंगे । सुना है, वह तैयार है, मैं उसकी पांडुलिपि लेने के लिए आई हूँ । "
" मेरी शर्त तो आपको विदित ही है । मैं बीस प्रतिशत रॉयल्टी लेता हूँ और वह भी पूर्ण पुस्तक का अग्रिम ही । "
"कितने पृष्ठ की पुस्तक होगी ? "
" साढ़े चार सौ पृष्ठ की । "
" इसका मूल्य तीस रुपए हो जाएगा । "
" हाँ । "
" दो सहस्र प्रतियों की रॉयल्टी हुई बारह हजार । "
" हाँ । "
" आप आधा अग्रिम ले लीजिए और आधा एक वर्ष बाद । "
" नहीं, मुझे अन्य प्रकाशक अग्रिम देने के लिए तैयार हैं , मैं उनसे अधिक की माँग कर रहा हूँ । "
" तो हमसे भी अधिक ही लेंगे । "
" नहीं , आप मेरी छात्रा रही हैं । इस कारण आपसे सौदेबाजी नहीं करूँगा । आप बारह हजार के चैक के साथ अनुबंध लिखकर भेज दीजिए । "
" पुस्तक कब मिलेगी ? "
" एक - आध सप्ताह का काम और है । रुपया मिल जाने से शीघ्र समाप्त करने में उत्साह बढ़ेगा । "
" अच्छा, एक बात और है, आपने केवल नामक हिंदी के उपन्यासकार का नाम सुना है ? "
" हाँ , सुना है । "
" उसने एक पुस्तक हमारे पास प्रकाशन के लिए भेजी है । "
" क्या नाम है ? "
" सोमरस । "
" यह भी भला कोई नाम है? यह किसी आयुर्वेद के ग्रंथ का नाम तो हो सकता है, उपन्यास का नहीं । "
शकुंतला मुसकराकर पूछने लगी , “ आपने कभी केवल का कोई उपन्यास पढ़ा है ? "
" मेरे पास सोमरस पीने के लिए समय नहीं है । न ही उसकी आवश्यकता है । "

" तब तो आपको व्यर्थ ही कष्ट दिया है । मैं समझती थी कि उसके विषय में आप कुछ जानते होंगे । देखिए, इसकी एक रचना संत समाज तो पिछले पाँच वर्ष में हमारी दुकान से दो हजार से ऊपर बिक चुकी है और अभी भी सारे देश के दुकानदारों से माँग आ रही है । "
" पाठकों में किसी उपन्यास की माँग उसकी श्रेष्ठता का प्रमाण नहीं होता । "
" तो किसी वस्तु की श्रेष्ठता का क्या प्रमाण है ? "
" जब कोई विद्वान् उसकी सिफारिश करे ? "
" और विद्वान् की विद्वत्ता का क्या प्रमाण है? "
" वाह , यह भी कोई बताने की बात है! "
" परंतु विश्वविद्यालय के एक प्राध्यापक के पास तो समय नहीं है इस ख्याति- प्राप्त लेखक के विषय में कुछ जानना चाहे । "

डॉक्टर हँस पड़ा । कहने लगा, " यह मेरे विषय में कहने लग गई हो । "
" हाँ और नहीं भी । आप इसके विषय में कुछ तो जानते हैं , परंतु अनेक ऐसे हैं , जो उतना भी नहीं जानते। "
" मैं क्या जानता हूँ । "
“ यही कि आप जानते हैं कि आप कुछ नहीं जानते । "
दोनों हँसने लगे । डॉक्टर ने झेंपते हुए पूछा, " तो न जानना भी किसी प्रकार का जानना होता है। "
" हाँ , जब भक्त परमात्मा के विषय में यह कहता है कि वह अवर्णनीय है, तो वह ज्ञानवान समझा जाता है । इस प्रकार भक्त अपने ज्ञान की सीमा का वर्णन करता है । "
" ऐसी बात नहीं। मैं केवल के विषय में जानता हूँ । वह न तो उपन्यासकार है, न ही कलाकार, वह यथार्थवादी नहीं । आदर्शवादी है और यह बात उपन्यासकार का दोष माना जाता है, गुण नहीं । "
" यह आपको किसने बताई है ? "
"किसलिए पूछती हैं ? "

" देखिए, यहाँ केवल तो बैठा नहीं, जो किसी पर मानहानि का दावा कर दे। मैं तो उसके विषय में किसीविद्वान् का मत जानने के लिए चली थी । इसी कारण आपसे पूछ रही हूँ । अब उस मत को जानकर प्रसन्न हो गई हूँ , जिसको आप अपने से अधिक विद्वान् मानते हैं और जिसके मत से आपने केवल को अयोग्य मानने में संकोच नहीं किया, परंतु वे महापुरुष हैं कौन ? "

इस प्रकार किसी को अपने से अधिक विद्वान् समझा जाना डॉक्टर साहब को अभीष्ट नहीं था, परंतु वह यह भी कहना नहीं चाहता था कि उसने अपनी सम्मति किसी ऐरे - गैरे नत्थू- खैरे के मुख से सुनकर बनाई है । इस कारण किसी बड़े आदमी का नाम लेना चाहता था , परंतु किसका नाम ले ? एकाएक डॉक्टर साहब को एक बात सूझी । कुछ दिन पहले ही उसकी कृष्णकांत से केवल के विषय में बात हुई थी और वह केवल के विषय में कुछ ऐसे ही विचार रखता था । एक बड़ी प्रकाशन संस्था के मुख्य व्यवस्थापक का नाम ले देना डॉक्टर साहब को पसंद आया । उसने कहा, “ एक तो कृष्णकांत ही है । वह अर्थशास्त्र में एम . ए. है । उसकी भी ऐसी सम्मति है । "

" अच्छा, वह ऐसा कहते थे? सत्य ही बहुत योग्य व्यक्ति हैं वह । तब तो मानना ही पड़ेगा । अच्छा, डॉक्टर साहब , बारह हजार का चेक कल ही मिल जाएगा । पुस्तक हमारी रही । "

बारह हजार का नाम सुन डॉक्टर साहब कुछ नरम से पड़ गए और कहने लगे, " कुछ चाय वगैरह नहीं पियोगी, शकुंतला ? "
" चाय तो हम पीकर ही चले थे, भोजन अब घर जाकर कर लेंगे । "
" आपने इनका परिचय तो कराया ही नहीं । "
" ये मेरे दूर के कोई रिश्तेदार हैं । दिल्ली देखने आए हुए हैं । "
इस प्रकार ये दोनों वहाँ से विदा हुए । शकुंतला ने मोटर में बैठ , हँसते हुए कहा, “ अब आपको कहाँ जाना है? "
"मुझे घर ही जाना है । आप टैक्सी- स्टैंड पर मुझे छोड़ दीजिए । "
" मैं इंडिया गेट की ओर जा रही हूँ । आपको लालकिले पर छोड़ दूंगी । "
" ठीक है । "
दोनों शांत भाव से जा रहे थे ।

लालकिले के समीप पहुँचकर शकुंतला ने गाड़ी खड़ी कर दी । केवल गाड़ी से उतरा और उसने शकुंतला से अपनी पांडुलिपि माँगी । शकुंतला ने पूछा, " क्यों , छपवानी नहीं है ? "

“ जी नहीं , मैं कोई अविद्वान् प्रकाशक ढूँढ़ना चाहूँगा, परंतु मैं इससे पूर्व डॉक्टर साहब की कोई कलापूर्ण कृति पढ़कर ज्ञानवान बनना चाहता हूँ । "
" बात यह है केवलजी, मेरी खोज अभी समाप्त नहीं हुई । मुझे अपनी सूझबूझ पर अभी भी संदेह नहीं है । मैं अभी और यत्न करूँगी। "

" आप अपना मूल्यवान समय इस तुच्छ सी बात के लिए व्यय कर घाटे में ही रहेंगी। मुझे यह दे दीजिए । मैं अब समालोचनाएँ ही लिखा करूँगा। उपन्यास लिखना बंद कर दूंगा । "

शकुंतला मुसकराई और बोली, " कदाचित् बारह हजार की राशि सुन मुख से लार टपकने लगी है? "
" जी नहीं, मैं जानता हूँ कि बारह हजार आपकी कंपनी नहीं दे रही । यह तो भारत भर के पुस्तकालय डॉक्टर साहब की पुस्तक खरीदकर देंगे । यह उनकी पदवी उनको दिला रही है । "
" हाँ , यह तो है ही । डॉक्टर साहब की ख्याति ही उनको इतनी बड़ी रॉयल्टी दिलवा रही है । "

" वास्तव में मैं समालोचना इस कारण लिखने का विचार नहीं कर रहा कि उससे मुझे कुछ धन मिलेगा । मेरा इस प्रकार की पुस्तक लिखने का विचार इस कारण है कि मेरी भी पुस्तकें बिना पढ़े प्रशंसा की पात्र बन सकेंगी। "
शकुंतला हँस पड़ी । उसने पांडुलिपि वापस नहीं दी और मोटर लेकर चली गई ।

: 4 :
इस घटना के कई दिन बाद एक सभा में शकुंतला की केवल से पुनः भेंट हुई । सभा के उपरांत केवल वहाँ से भाग जाना चाहता था । उसको अपनी पुस्तक अस्वीकार किए जाने के अप्रिय शब्द सुनने में रुचि नहीं थी, परंतु शकुंतला ने केवल का मार्ग रोक लिया । कहने लगी , " केवलजी, बहुत जल्दी में हैं क्या ? "

" जी नहीं, जल्दी में तो नहीं हूँ, किंतु मैं सोचता था कि आपका समय व्यर्थमें क्यों नष्ट करूँ । यथार्थता यह है कि मैं आजकल अपने ज्ञानवर्धन में लीन हूँ और इस कारण अपने जीवन का एक - एक क्षण भी मूल्यवान अनुभव करने लगा हूँ । "

"मैं आपसे मिलने का विचार कर रही थी । एक तो आपके घर का पता मालूम नहीं था और दूसरे आपके मूल्यवान समय का विचार आ रहा था । खैर, अब तो आप मिल ही गए हैं । इतना समय तो आपका जा ही चुका है । उसका कुछ लाभ तो आपको हो ही जाना चाहिए । आइए, किसी स्थान पर बैठकर बात करेंगे । "

शिष्टाचार के नाते केवल और अधिक इनकार नहीं कर सका । उसने केवल इतना कहा, "मैं तो आपके मूल्यवान समय की ही बात सोच रहा था । "
" आप आइए भी । "

केवल को मोटर में बैठाकर वह उसे जर्स में ले गई । वहाँ एक कोने में बैठकर उसने चाय का ऑर्डर दे दिया । जब बैरा ऑर्डर लेकर चला गया, तो शकुंतला ने पूछा, “ आजकल क्या लिख रहे हैं ? "

" अभी तो कुछ नहीं लिख रहा । आपको बताया तो है कि आजकल ज्ञानवर्धन का शौक सवार हुआ है । कुछ कला, यथार्थ और भाषा के विषय में जानकारी प्राप्त कर रहा हूँ । मैं समझता हूँ कि वर्तमान युग में इस युग की जानकारी प्राप्त किए बिना कुछ लिखना मेरी धृष्टता ही थी । अब तो इस ज्ञान के प्रकाश में ही लिगा। "
" तो कुछ समझेहैं कि नहीं अब तक ? "

" हाँ , यथार्थ और भाषा के विषय में तो कुछ- कुछ धारणा बन गई है । इस धारणा से मैं अपना लेखन -कार्य निर्भीकता से चला सकूँगा । "
" मैं समझती हूँ कि आप यह सबकुछ न करें, तो ही अच्छा है, अन्यथा आप अपनी शैली को ही बिगाड़ लेंगे । "

" देखिए, मेरी एक धारणा यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी सूझबूझ होती है । उसको उस पर ही निर्भर रहना चाहिए । यह तो ठीक है कि उस सूझबूझ का मार्जन होता रहे , जिससे कि वह सूझबूझ निरंतर उज्ज्वल, स्वच्छ और सरल बनती जाए । यदि कोई किसी दूसरे की सूझबूझ पर अपना जीवन चलाने लगा तो उसकी दशा उस किसान बाप - बेटे की तरह होगी , जो गधे को खाली लिये जा रहे थे। बाप - बेटा नीचे और गधा उनके कंधे पर हो जाएगा ।

"मैंने आपके ‘ सोमरस की पांडुलिपि पढ़ी है और बहुत पसंद की है । उसमें मुझे यथार्थ के ही दर्शन हुए हैं । उसको पढ़कर मैं अनुभव कर सकी हूँ कि आपकी रचनाएँ क्यों सर्वप्रिय हैं । जनसाधारण जिसको यथार्थ समझता है , उसी सरल भाषा और सुगम शैली में मैं आपकी कृतियाँ देखती हूँ ।

" यदि आप उस सरलता, स्पष्टता और सहज शैली को छोड़, किसी महापंडित की रुचि का अनुसरण करेंगे तो विश्वास रखिए कि आप जन - जन से दूर होते चले जाएँगे । आपकी गणना महापंडितों में तो हो जाएगी , परंतु आपकी पुस्तकें फिर पुस्तकालयों की आलमारियों की शोभा- मात्र रह जाएँगी । "
"इससे हानि किसकी होगी ? "

" जनता की । जो यथार्थ जानने की लालसा रखती है और उसको वह उन महापंडितों के ग्रंथों में मिलता नहीं ।

" आपने अपनी इस नई रचना में लिखा है - इन महल - अटारियों के विषय में लिखू अथवा उनमें रहनेवालों के विषय में ? बताओप्रिये! किसके विषय में जानना चाहती हो ?

" आपका नायक अपनी देहातिन पत्नी को पत्र लिख रहा है और उसको नई दिल्ली के विषय में लिख रहा है ।

आगे चलकर आपकी पुस्तक का नायक लिखता है — महलों के विषय में जानकर क्या करोगी ? वे तो क्षण -भंगुर हैं । साथ ही तुम्हारे पति को अप्राप्य हैं । उनमें रहनेवाली की कुटिलता , नृशंसता, अनर्गलता , मिथ्या दृष्टि और पशुता तो ऐसी है, जो तुम्हारे पति की पहुँच की परिधि में है । उनके विषय में जानना चाहो , तो लिख सकता हूँ । परंतु प्रिये , क्या तुम चाहती हो कि मैं इस गंदगी को टटोलते हुए इसमें लिप्त हो जाऊँ ? यदि इस गंदगी में लिप्त हो गया , तो इस मलिनता से मुक्त होने के लिए कई जन्म भी पर्याप्त नहीं होंगे ।
"मैं विचार करती थी कि इससे अधिक यथार्थ का दर्शन और क्या हो सकता है। "

बैरा चाय ले आया था । केवल उसकी अपनी पुस्तक के उद्धरण सुनाते हुए सुन रहा था । उसको कुछ ऐसा प्रतीत हुआ कि शकुंतला ने उसका अक्षर - अक्षर स्मरण कर रखा है ।

बैरा चाय रख गया तो शकुंतला ने बात बदलकर कहा, " मैंने आपकी कृति अपनी कंपनी से प्रकाशित करने का प्रबंध कर दिया है । "
" परंतु ... "

केवल ने कहने का यत्न किया, पर शकुंतला ने बात बीच में ही टोककर कह दिया, " आप कृष्णकांत के विषय में कह रहे हैं न? कंपनी के मालिकों की उनसे एक मीटिंग में बातचीत हुई थी । वे बेचारे इस विषय में कुछ ज्ञान नहीं रखते । उनके ज्ञान का स्रोत तो कोई कामरेड बंसल था । उसने ही उनके मस्तिष्क में कुछ कूड़ा- करकट भर दिया था । "

" वे जब आपकी रचनाओं में कला का अभाव बताने लगे, तो मैंने उनसे पूछ लिया - कला किस चिडिया का नाम है ?
" वे कहने लगे, कला...कला तो कला को ही कहते हैं ।

" पाँचों संचालक यह सुनकर हँस पड़े । वह बेचारा घबरा गया । मैंने कहा, गधा क्या होता है? इस प्रश्न का उत्तर गधा गधा होता है नहीं हो सकता । जब उसने देखा कि उसकी अपनी प्रतिष्ठा क्षीण होने लगी है, तो उसने कहा , कला वह है, जो वास्तविकता से दूर , परंतु लुभायमान हो । इस पर तो पुनः हँसी फूट पड़ी । हमारे एक पट्टीदार तो उसकी इस विवेचना से क्रुद्ध होकर कहने लगे कि क्या गधा मैनेजर रखा हुआ है ।

" इस पर मैनेजर ने कहा कि वह यह बात अक्षरशः डॉक्टर दिनेश एम.ए., डी.लिट्, कैंब्रिज, प्राध्यापक दिल्ली विश्वविद्यालय, राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित और हिंदी विभाग के अध्यक्ष की कही हुई दोहरा रहा है ।

" इस पर मैंने कह दिया कि वे तो कहते थे कि उनकी केवल के विषय में जो धारणा बनी है, यह आपके कथनानुसार ही बनी है । इसमें अचंभे की बात तो यह है कि आपने केवलजी की एक भी रचना पढ़ी नहीं है और फिर कला के ये मूर्खतापूर्ण लक्षण डॉक्टर दिनेश के नहीं हैं , कदाचित् ये भी आपने कला के ज्ञान के अभाव में
डॉक्टर दिनेश का नाम लेकर कह दिए हैं ।

" फिर वह कहने लगा कि उसका एक मित्र बंसल है । वह बहुत उपन्यास पढ़ा करता है । उसने ही कहा था कि केवल जैसा शुष्क लेखक जनता को ठग रहा है । उस रक्त - शोषक को मार्केट से बाहर कर देने से लोक कल्याण ही होगा ।

" मैंने कहा, तब तो कामरेड बंसल से पता करना चाहिए कि उसका यह ज्ञान किस आधार पर बना है । संभव है , उसका ज्ञान भी सुना- सुनाया होगा ।

" तब हमारे एक नए संचालक बोले , शकुंतलाजी, छोडिए इस बात को । मैं जानता हूँ कि कामरेड लोगों की सम्मति किस आधार पर और कहाँ से बनती है । इन कामरेडों की पोलिट ब्यूरो नाम की एक संस्था है । वह संस्था प्रत्येक विचार , प्रत्येक लेख, प्रत्येक नेता , प्रत्येक रीति -रिवाज , अभिप्राय है कि संसार की प्रत्येक गतिविधि के विषय में यह देखकर अपनी सम्मति निर्धारित करती है कि उससे कम्युनिज्म को हानि होती है अथवा लाभ ? कम्युनिज्म की जो विरोधी बातें होती हैं , उनकी निंदा कर दी जाती है और जो उसके अनुकूल होती है, उसकी प्रशंसा । यह सम्मति देश भर के कामरेडों में प्रसारित कर दी जाती है और सब तोते की भाँति उसको दोहरा दिया करते हैं ।

" उन्होंने कहा कि उन्हें विश्वास है कि कामरेड बंसल ने केवल की किसी भी रचना के कभी दर्शन भी नहीं किए होंगे । इस पर भी उसकी पुस्तकों के कुछ छितरे वाक्य उन्होंने कंठस्थ किए होंगे , जिससे उसकी निंदा सप्रमाण सिद्ध कर सकें ।

" यह सुन कृष्णकांत का मुख मलिन हो गया और वह कहने लगा कि यह सबकुछ सत्य हो सकता है । इस पर भी उसका तो यह कहना है कि भारत के पचास हजार वेतनधारी कामरेड केवलजी के विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं , इसलिए उनकी पुस्तक छापते हुए हमें अपनी कंपनी के हिताहित का विचार तो करना चाहिए । यह कंपनी है और लाभ के लिए खोली गई है । इसलिए हमें हानि का काम नहीं करना चाहिए ।

" इस पर तो पाँचों संचालक उससे रुष्ट हो गए । उन्होंने आपकी रचना स्वीकार कर ली है । यह निश्चय किया गया है कि पुस्तक की तीन हजार प्रतियाँ छपवाई जाएँ और आपको दो सहस्र रुपया रॉयल्टी के रूप में अग्रिम दे दिया जाए । "

केवल ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा, " शकुंतलाजी , यह आपने क्या कर दिया ? आपका कृष्णकांत यदि वेतनभोगी कम्युनिस्ट नहीं है, तो निश्चय जानिए कि वह फैलोट्रेवलर अवश्य है । आपकी दुकान को वह इसमें घाटा करा देगा । "

" उससे हम दिवालिए नहीं हो जाएँगे। "
" परंतु मेरे कारण आपकी हानि तो मेरे दुःख का कारण बन जाएगी । "
" आप चिंता न करें । यदि कृष्ण ने कुछ भी गड़बड़ की , तो उसको दूध की मक्खी की भाँति निकालकर फेंक दिया जाएगा । "
" देख लीजिए , मैं तो यही सम्मति दूँगा कि आप डॉक्टर दिनेश - जैसों की पुस्तकों को ही प्रकाशित करें । उनके नपे- तुले ग्राहक हैं । सब सरकारी पुस्तकालयों में उनकी पुस्तकों के लिए स्थान और रुपया है । "
चाय पीते हुए शकुंतला ने बात बदलकर कहा, " आपकी सफलता का रहस्य क्या है ? "
" मैं तो स्वयं को अभी सफल समझता नहीं । मैं सफल होने का यत्न कर रहा हूँ । "

शकुंतला समझ गई। उसने कहा, " मैं आपको बधाई देती हूँ कि आप सफलता के वास्तविक रहस्य को समझते हैं और उसके लिए यत्नशील हैं । "

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