यासो (कहानी) : जोराम यालाम नाबाम

Yaso (Hindi Story) : Joram Yalam Nabam

शाम के सात बजे हैं। अलाव के चारों ओर हम लोग तेकी, येन्यी, ताँगा, मैं और मेरे पति बैठे हैं। बाहर कड़ाके की ठंड है। हमारे बीच आग इस तरह जल रही है, जैसे नाच रही हो और हम सब अपने-अपने हाथों को इस तरह उठाए हुए हैं, जैसे तालियाँ बजाने ही वाले हों। बीच-बीच में कनखियों से अलाव के एक और बैठे ताना तामिन की ओर हम सब देखते, फिर एक-दूसरे को हल्की मुस्कराहट के साथ देखते । येन्यी और तेकी ताँगा के अभिभावक के तौर पर आए हैं, मैं और मेरे पति उनका साथ देने आए हैं, क्योंकि तांगा की भाभी मेरी बड़ी दीदी है। उनके माँ-बाप बहुत पहले गुजर गए थे। सब लोग खामोश बैठे हैं, जैसे किसी चिन्ता में डूबे हुए हों। मुझे बेचैनी-सी होने लगी है । इन्तजार सदा मुझे बेचैन ही किया करता है। साथ-साथ बैठे हों, पर कोई चूँ तक नहीं कर रहा हो, तो और भी अजीब लगता है।

गाँव के बुजुर्ग लोग आमतौर पर बहुत देर सोचने के बाद ही आराम से बोला करते हैं। कभी-कभी उनके भाव-शून्य चेहरे को देखकर भ्रम - सा होने लगता है कि उनकी हममें जरा भी दिलचस्पी नहीं है। उन्होंने धीरे-धीरे कहना शुरू किया, “हम लोग अरुणाचल की सबसे बड़ी संख्यावाले जनजाति न्यीशी के लोग हैं और तुम लोग भी न्यीशी हो। इसलिए मुझे मेरी बेटी की पसन्द पर कोई आपत्ति नहीं है । हमने भी अपनी मर्जी से ही चार-चार शादियाँ की हैं। उसकी माँ से बात करो। यह क्या कहती है, वही जरूरी है। अभी तो चुप है । तुम्हारे जाने के बाद तो ये मुझे खा ही जाएगी।” अपनी पत्नी यासो की तरफ इशारा करते हुए शरारती मुस्कान के साथ कहा। उस औरत के चेहरे पर कोई भाव नहीं था । वह इधर-उधर आती- जाती हुई काम कर रही थी । वृद्ध तामीन ने फिर कहना शुरू किया, “उसकी माँ यासो तो स्वयं हमारे पास भागकर आई थी। बहुत गोरी और सुन्दर थी, लेकिन बहुत ही कम बोलने वाली । शुरू में तो मुझे लगा था, कहीं ये गूँगी तो नहीं है ! बहुत देर पूछने के बाद ही इस बताया कि वह घर से भागी हुई है। अचानक एक अनजान लड़की हमारे घर रहने लगी। धीरे-धीरे मैंने ध्यान दिया, तो वह बीच-बीच में मेरी तरफ शरमा- शरमाकर देखती थी। होन हो, वह मुझे आमन्त्रित करती थी। मुझसे कई साल छोटी। यूँ कहो, बेटी की उम्र की खूबसूरत लड़की । आह कैसा नशा सा छा जाता था। खुद पर यकीन ही नहीं आता था । पहले से ही तीन पत्नियाँ थीं। मैं फिर भी शायद खूबसूरत जवान दिखता था ।"

मेरी बड़ी पत्नी बहुत समझदार थी। उसको गुजरे तीन साल हो गए हैं। उसके बिना कुछ अधूरा सा लगता था। खैर, एक दिन वह कहने लगी, “सुनो तामीन, इस लड़की को अपनी पत्नी बना लो। आने दोन्यी (माता सूर्य) की कृपा से हमारे पास खेती-बाड़ी बहुत है । लड़की भी मेहनती है । हमारी मदद हो जाएगी। देखते नहीं सबसे बड़ी टोकरी में भर-भर के जंगल से मोटी-मोटी लकड़ियाँ दिन में पाँच-छः बार लाती हैं। लोग दबी जुबान से कहने भी लगे हैं कि तुम्हारी नयी पत्नी आ गई है। सुना है, नाबाम खोदा की पाँचवी पत्नी की इकलौती बेटी है। तुम तो जानते ही हो, उसके पास कितने-कितने गहने-लत्ते हैं। कुछ तो आ ही जाएगा हमारे पास।” कहते-कहते उसकी आँखें लालच के भाव से फैल गईं, और मुँह कुछ देर तक गोल बना रहा। पता नहीं आबोतानी ने औरतों को गहनों के प्रति इतना लालची क्यों बनाया ! यासो को तो उसके माँ-बाप ने इतने आभूषण दिया ही नहीं, क्योंकि वह भगोड़ी थी।” कहते हुए ताना तामिन जोर-जोर से हँसने लगे। हम सब भी खीं खीं कर हँसने लगे। मैं देख रही थी, वह महिला अब भी नहीं हँस रही थी, जबकि उसकी ही चर्चा हो रही थी।

बहुत देर से चुपचाप आपोङ बना रही यासो ने सबको आपोङ दिया और यानम को जल्दी-जल्दी खाना न बनाने पर डाँटती हुई जोर-जोर से इधर-उधर चहलकदमी करने लगी। बाँस के बने घर जरा-सा हिलने-डुलने पर भी छाँग-छाँग की आवाज करते हैं। इसलिए शायद बाहरी लोग इसे छाँग घर कहते हैं । यासो तो फिर गुस्से में थी, सो घर का जोर से आवाज करना घर की मजबूरी थी। ऊपर से ताना तामिन मन्द मन्द मुस्कुराकर उसे और जला रहे थे। मेरे सिवाय बाकी लोग झेंप झेंपकर हँस रहे थे। मैंने कहा, “अरे अब खुलकर हँस दो ! इन्हें रिश्ता मंजूर है।”

यानम और उसकी तीसरी माँ ने खाना परोस दिया । यासो पालथी मारकर ताना तामिन की बगल में बैठ गई और कहने लगी, “तुम लोग ध्यान से सुनो। मेरी बेटी से बाद में मत कहना, भगोड़ी माँ की बेटी है। मैं इस बुड्ढे के घर इसको पसन्द करके नहीं आई थी। वह तो मेरी मजबूरी थी, वरना आज यासो इसकी चौथी पत्नी नहीं, किसी और की पहली पत्नी बनकर बाकी पत्नियों पर राज कर रही होती। मुझे बलशाली पुरुष ही चाहिए था, जिसके साथ मैं स्वयं को सदा सुरक्षित महसूस करूँ, न कि उस ताहीन की तरह का जो मेरे बराबर भी लकड़ियाँ नहीं उठा सकता था। उस रात तो हद ही हो गई थी। उसके माँ-बाप ने जबरदस्ती हमें साथ सुला दिया, परन्तु उस कीड़े ने रेंगने तक की हिम्मत नहीं की। मैंने तो सिर्फ उससे इतना ही कहा था कि हाथ मरोड़कर रख दूँगी, बस वह बिल्ली की तरह सिकुड़कर सो गया। बेवकूफ, रात भर जरा-सा हिला तक नहीं। क्या ऐसे मर्दों के साथ कोई लड़की अपना पूरा जीवन बिता सकती थी ।"

दूसरे दिन उन्होंने हमें फिर अकेले ही जंगल से लकड़ियाँ लाने भेज दिया । मुझे याद है, उसकी भाभी ने कहा था, डरना मत, शुरू-शुरू में अच्छा नहीं लगता, पर धीरे-धीरे सब अच्छा लगने लगता है, मैं क्यों डरने लगी ! डरना तो उसे था । पिरया पू का वह घना जंगल पू जिसके बारे में हमने छुटपन से ही सुन रखा था कि वहाँ हमारे ऐसे रिश्तेदारों की आवाजें सुनाई देती हैं जिनकी मृत्यु कुछ समय बाद होने वाली है। हम जंगल के बीचो-बीच थे। मैंने जोर से चिल्लाकर कहा था, “ताहिन, तुम्हारे पिता ताना- तोबा तुम्हें नीचे खाई की ओर पुकार रहे हैं। तुम कैसे आदमी हो, चुपचाप लकड़ी काट रहे हो?” मैंने नहीं सुना, मैंने नहीं सुना, कहते हुए वह दाव फेंककर मेरी तरफ भागा।

“अरे देखो, उन्होंने फिर से तुम्हें पुकारा । अच्छा हुआ तुम्हें नहीं दिया, वरना तुम आवाज देते और वह तुम्हारी आत्मा यूँ ले लेते।” मैंने अपना हाथ उसकी छाती में से खींचकर कहा ।

वह रुआँसा-सा हो गया और लकड़ियों को रस्सी से जल्दी-जल्दी बाँधने लगा। मैंने भी टोकरी लकड़ियों से भर ली। वह मेरे आगे-आगे चलने की कोशिश करने लगा। अब बताओ, पीछे से मुझे ही भूत पकड़ लेता तो ! उसी दिन मैंने मन ही मन सोच लिया था कि वह मेरा रखवाला पति हो नहीं सकता। हमारी उम्र भी क्या थी उस समय । लोगों से छुपते- छुपाते ताहिन की बहन के साथ कभी-कभी पत्थर (कंकर) खेला करती थी। लकड़ियाँ लेने जंगल जाती, तो कुछ देर तक पेड़ों पर चढ़कर जोर-जोर से गाना गाती-

माता सूर्य, माता सूर्य
लड़कियों के लम्बे केश क्यों हैं
वे जोर-जोर से रोती हैं क्यों
तुम्हारी किरणे हमें जलाती क्यों
रात हमें जब घेर लेती
तुम आती नहीं क्यों
पंछी बनाओ न मुझको
कोई न पकड़ पाए ऐसा ।

बहुत लम्बा घर था उनका। दस परिवारों के चूल्हे जलते थे। उस दिन हारमुती में जब रेलगाड़ी देखी, तो उस घर की याद आ गई। किसी रेलगाड़ी का टूटा हुआ डिब्बा-सा लगता था। आज की तरह उस समय ओमपली में बिजली नहीं पहुँची थी। अलाव जब तक जलता रहता, तभी तक घर में रोशनी होती थी। आज तो उसी गाँव से नाबाम तुकी मिनिस्टर बन गया है और देखो कैसे सब कुछ पलक झपकते बदल गया। उस शाम खेतों से लोग थककर आ गए थे। मैंने ताहीन के माँ-बाप के लिए जल्दी-जल्दी खाना - सब्जी बना दिया था। सब बहुत खुश हुए। ताहिन के दोनों भाई एक-दूसरे को कुहनी मार-मारकर ताहिन की तरफ तिरछी नजरों से देख-देखकर मुस्कुरा रहे थे। उनकी हरकतों से मेरे मन में एक प्रकार की खिन्नता उत्पन्न हो रही थी । उस समय मुझे अहसास हुआ कि जिसके प्रति हमारे मन में प्रेम नहीं होता, उसके साथ छेड़े जाना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता और तो और उसकी अच्छाई भी बिल्कुल पसन्द नहीं आती। जब कभी उसकी नजरें मेरे शरीर पर फिसलतीं, मेरा खून खौल जाता और मन करता कि इस शरीर के उन अंगों को ही काटकर फेंक दूँ, जिस पर बार-बार उसकी नजरें जाती हैं।

खा-पीकर सब सोने लगे। धीरे-धीरे लोगों की चहलकदमी और आवाजें कम होने लगीं। मैंने इशारे से ही ताहिन से कह दिया था कि यदि वह मेरे पास सोने आया तो उसकी खैर नहीं। रात अब सन्नाटे में बदल चुकी थी। अलाव का अन्तिम अंगार भी बुझ गया था। खर्राटों की आवाजों से ऐसा लगता था जैसे वे अन्धकार को डराकर भगाना चाहती हैं। दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। आँखें बहुत चौकन्नी हो गईं। रात अन्धकारतम अवस्था में थी। धीरे-धीरे दबे पाँव गाले को घुटनों तक दाएँ हाथ में पकड़ा और उस घर से निकलने की कोशिश शुरू की । दिशा का अन्दाजा था । न्यीशी घर में सीमेंट के घर से अलग-अलग रूम तो होते नहीं, सो सब लोग एक-दूसरे की नजर में ही सदा रहते हैं। ऐसे में भागना खतरे से खाली नहीं होता। बस अँधेरे का ही सहारा था। उस कम्बखत चूहे को भी उसी वक़्त सुबकना था, वह भी बिल्कुल इन्सानों की तरह । लोगों को लगा मैं रो रही हूँ। फिर एक-एक कर सब जाने लगे। मुझे मन मारकर तुरन्त फिर से सोने का नाटक करना पड़ा। उफ, पाँव में बम्बू का एक टुकड़ा कैसे घुस गया था कि स्वयं पर ही खीझने लगी थी मैं।

माँ कहती थी, हमारे पूर्वज हमसे बात न कर सकने की स्थिति में रोते हैं चूहे के रूप में आकर। खैर उस आत्मा ने उस रात मुझे रोक लिया था। लोग बड़बड़ाते हुए फिर सो गए। कोई कह रहा था, “अरे ताहिन रुलाते क्यों हो ? नयी दुल्हन है, जरा प्यार से।” उन्हें क्या पता था कि दूल्हा कोने में सिकुड़कर सो रहा है। एक बारगी तो लगा कि वही सुबक रहा है। आज जब कभी उसे अपने भरे-पूरे परिवार के साथ देखती हूँ तो सोचती हूँ कि क्या आज मैं अपने बाप की उम्र वाले इस पति के साथ ज्यादा सही हूँ । लगता ही नहीं कि ये वही ताहि है, जिसका मजाक उड़ाते हुए भी ऊब होती थी। मुझे तो उससे बचना था, सो दिमाग नयी- नयी तरकीबें सोचने में व्यस्त रहने लगा ।

नयी थी मैं। तीन महीने हो गए थे मेरी शादी को कुछ महीना जब तक मन न लग जाए, खेती नहीं; जंगल से लकड़ियाँ लाओ और सब के लिए खाना बनाओ । बस, यही काम मेरा । उस दिन सब लोग खेत के लिए निकल गए। उनके साथ ताहिन भी चला गया। वही मौका था। मैं निकल पड़ी वहाँ से । सच कहती हूँ, उस घर को एक बार भी मुड़कर देखने को मनन किया। कैसे तीन महीने गुजारे थे, मैं ही जानती हूँ। वैसे भी जिसके पैरों में काँटे लगते हैं, वही समझ सकता है कि दर्द होता क्या है। उन लोगों का मुझे देखकर आज भी मुँह बिचकाना मुझे बुरा नहीं लगता। उनकी जगह मैं भी होती तो यही करती। आखिर मैंने उनके खानदान की बहू होने से इन्कार जो किया था। जो बिक चुकी हो, उसका इस तरह से बगावत करना खतरे से खाली नहीं था। ओमपुली से दोईमुख तक पैदल आना कोई मामूली बात नहीं थी। मुझे तो चलना ही था। पकड़ी जाती, तो जो सजा भुगतनी पड़ती उसके सामने मृत्यु भी कम ही थी । यासो का जो हाल हुआ था, उसे देखकर किसी भी बिक चुकी लड़की की भागने की हिम्मत कभी नहीं होती। भारी-भरकम लकड़ी के साथ एक पैर को इस तरह बाँध दिया जाता है कि लड़की खिसक खिसककर ही चल-फिर सकती है। उसके दोनों हाथों को पीछे की तरफ बाँध दिया जाता है ताकि वह चाहकर भी स्वयं को छुड़ा न सके। ऐसी स्थिति में पति उसके साथ मनमानी भी कर सकता है। और फिर लड़की पत्नी बना ली जाती है। रास्ते में शेर भी आ जाए तो उसके लिए भी तैयार थी मैं। पिताजी के साथ शिकार पर अपने से भी ऊँचे कदवाले जंगली सूअर को अपने दाव से गिरा दिया था मैंने ।” कहते-कहते यासो की आँखें गर्व से चमकने लगीं।

हम लोगों का खाना कब का खत्म हो गया था पता ही नहीं चला। खाते-खाते दिलचस्प बातें सुनते जाने में जो मजा है, उसका पता उस दिन मुझे लगा । बचपन से हम लोगों को तो सिखाया जाता रहा कि भोजन के वक़्त बात नहीं करना। ऐसे नहीं करना, वैसे नहीं करना, वगैरह-वगैरह। कितनी देर तक हम लोगों ने हाथ भी न धोए, शायद इसलिए कि हमारे उठने-बैठने से कहीं उसका ध्यान भंग न हो जाए। सब लोग तन्मय होकर सुन रहे थे । यानम ने हमें पानी दिया और इशारे से ही कहा कि हम बैठे-बैठे वहीं पर हाथ धो लें। छाँग घर की यही तो सुविधा है। कहीं भी हाथ धुला लो । कहीं भी बैठ जाओ । हम न्यीशी लोग चाहे कितने भी करोड़पति बन जाएँ, छाँग घर के बिना अधूरे ही हुआ करते हैं।

वह उसी भावदशा में थी। आगे कहने लगी, “संगरी सोलो आदि पहाड़ों पर कब चढ़ती और कब उतर जातीं, आन दोन्यी गवाह थी । हिरणी की फुर्ती जैसे मुझमें समा गई थी। आज कोई मुझे एक लाख भी दे और वहाँ उतनी ही तेजी से चलूँ, तो मर ही जाऊँगी। किसी की आवाज सुनती तो तुरन्त जंगल में छुप जाती । यही करते-करते वहीं पर शाम होने लगी और फिर खेतों से लोगों का लौटना शुरू हो गया। दिल जोर-जोर से धड़क रहा था जैसे ओखली में दो औरतें धान कूट रही हों। कभी जंगल से, कभी रास्ते से चलती। कभी बहुत देर तक झाड़ियों में छुपी रहती, जब तक दूर किसी गाँव से यात्रा करते लोगों की आवाजें भी कानों से दूर न हो जाएँ। अच्छा होता, वह गर्मी का मौसम होता। मेरे तन पर उस फटे सूत कपड़े के सिवाय हाथ में भी कुछ नहीं । उस कड़ाके की ठंड में भी मैं पसीने से तर-बतर थी।"

धीरे-धीरे दूर से ईटानगर की बिजली की चमक दिखने लगी। मैं और तेजी से दौड़ने लगी। लगता था जैसे जुगनुओं की तरह चमकती रोशनी मुझे अपने आगोश में प्यार से बुला रही है और हम जाने कितनी सदियों से बिछड़े हुए प्रेमी थे। कभी लगने लगता, रोशनी बहुत करीब आ गई, तो कभी पहले से भी अधिक दूर दिखने लगती । ये पहाड़ भी हमें चकमा देकर बहुत मजा लेते हैं। पास का आभास होता, तो मैं अपने कदमों को तेजी से बढ़ाने लगती थी और दूर दिखता तो दोनों हाथों को झुकाए हुए घुटनों पर रखकर शरीर ढीला कर लेती। ऐसे में थकान कुछ ज्यादा लगने लगती और ठंड भी ज्यादा बढ़ जाती। मैं फिर गिरती -पड़ती दौड़ने लगती गर्मी पाने के लिए। मेरी किस्मत अच्छी थी कि पीछा करने वाले दिखाई नहीं दे रहे थे। वे ढूँढ़ नहीं रहे होंगे सोचना बेवकूफी थी। जितना हो सके, कदमों को तेजी से बढ़ाना ही बुद्धिमानी थी। माता सूर्य मेरे साथ थी, तभी तो उसने मुझे रास्ता दिखाने उस रात चाँद को भेजा था। कहीं-कहीं चाँद की रोशनी गायब हो जाती, उन राक्षस सरीखे पेड़ों के कारण। उस वक़्त मुझे लगने लगता था कि जिस तरह पिताजी महीनों किसी यात्रा से नहीं लौटते थे वैसे चाँद की रोशनी गायब हो रही है। उन अँधेरों के कारण तेजी से भागना मुश्किल लगता। और तब बचपन में सुनी राक्षस की कहानी मुझे डराने लग जाती थी। और फिर भूत-प्रेत तो होता ही है, वरना चूहे कैसे इन्सानों की तरह सुबकते हैं। हमेशा साथ नहीं देता, शायद इसी वजह से लोग चाँद को पिता का दर्जा देते हैं। जरा-सी भी आहट हुई नहीं कि शरीर फक पड़ जाता था । कभी किसी जंगल में जाओ तो पता चलेगा, पक्षी भी कैसी डरावनी आवाजें निकालते हैं। बहुत गुस्सा आ रहा था पिताजी पर कि उन्होंने दस मिथुन में मुझे बेच दिया था । उनको वापस करने के लिए तो मुझे धनी व्यक्ति का ही सहारा लेना था। उसके लिए चाहे मुझे किसी की तीसरी तो क्या चौथी बीवी भी क्यों न बनना पड़ता ।

दौड़ती जा रही थी कि अचानक वह रास्ता आ गया, जो उस वक़्त कच्चा बन रहा था। हमारे गाँव से भी लोग वहाँ मजदूरी करने गए हुए थे। चाँद की उस शीतल रोशनी में मुझे वह रास्ता बहुत ही सुखदायक लग रहा था। इतनी दूर तक आ गई, मगर कोई भूत नहीं मिला। माता सूर्य की कृपा थी। एक मोड़, दो मोड़ और फिर चौथे मोड़ से कुछ दूरी पर नाचता हुआ अलाव जल रहा था । हो न हो, ये वही लोग हैं जो रास्ता बना रहे हैं। यदि तालाम और सोरेन ने मुझे पहचान लिया, तो सारी मेहनत मिट्टी में मिल जाएगी और फिर उसी डरपोक के साथ पूरी जिन्दगी...! वह ख्याल आते ही माथे पर पसीने की नन्हीं बूँदें चमकने लगीं और तब मुझे अजीब सी गर्मी महसूस होने लगी। पर नहीं, खोदा की बेटी यासो इस तरह हार नहीं मान सकती ।

फिर जंगल-जंगल से होकर चलने लगी ताकि कोई देख न ले। बहुत मुश्किल से पहाड़ के इस पार वाली सड़क तक पहुँची ही थी कि सोरेन की आवाज सुनाई दी पता नहीं वह वहाँ क्या कर रहा था, मूर्ख! मैं घबराकर फिर झाड़ी में कूद पड़ी और नीचे कल-कल बहती उस छोटी नदी में गिर पड़ी। ठंड से पूरा शरीर सुन्न पड़ गया। जिस दिन मुझे ससुराल ले जाया जा रहा था, उस दिन भी भागने की कोशिश की थी और ऐसे ही एक नदी में गिर पड़ी थी। कितनी आसानी से पिताजी ने पकड़ लिया था। माँ की डाँट तो बस आज भी जुबानी याद है। खैर जैसे-तैसे घुटनों के बल फिर से चलने लगी। शरीर थर-थर काँप रहा था। ठंड से और पकड़े जाने के डर से । किसी तरह सड़क तक पहुँची। आधी रात। ऊपर से कड़ाके की ठंड । आज भी जब कभी याद करती हूँ, तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं।” कहती हुई यासो ने बदन पर लिपटी शाल को कुछ खींचकर अपने को जोर से लपेट लिया । अनायास ही मेरा हाथ भी आग को और तेज करने के लिए जलती हुई लकड़ी की ओर उठ गया । यासो अपनी दृष्टि अलाव पर टिकाए हुए थी और निरन्तर कहती जा रही थी, “पता नहीं क्यों, उस वक़्त बड़ा गुस्सा आ रहा था। जबकि उसका कोई खास कारण नहीं दिख रहा था। मैंने दुगुने वेग से दौड़ना शुरू किया। याद नहीं, कितने मोड़ों के बाद याबा का घर आ गया। मेरे बचपन की प्यारी सखी याबा। कहती थी सोरेन से ब्याह करेगी और बलपूर्वक अपने ही माता-पिता के द्वारा हरण करवा लिया गया था । दोइमुख आई थी मैं एक बार माँ के साथ। इसी के घर में हमने खाना खाया था। तीन बच्चों की माँ बन चुकी मेरी हमउम्र याबा । मुझसे दस बरस बड़ी लग रही थी। जब हँसती थी तो लगता था दाँत किसी डॉक्टर को दिखा रही है।"

मैंने याबा, याबा चिल्लाया । सब जाग गए। बच्चे रोने लगे। वह दौड़कर बाहर निकली। 'पता था, तू एक दिन यही करने वाली है। अच्छा हुआ तारे शिकार के लिए जंगल गए हैं। वरना मर्दों को भागने वाली लड़कियों की मदद करना किसी अपमान से कम नहीं लगता । माँ-बाप द्वारा तय किए रिश्ते को छोड़कर भागना कितनी शरम की बात है।' वह कहती जा रही थी और मेरा काँपना और बढ़ रहा था। उसने जल्दी-जल्दी आग जलाई और कपड़े बदलने को दिए। मुझसे खाना भी खाया नहीं जा रहा था । उसकी डाँट की अपेक्षा बिल्कुल नहीं थी। रोए जा रही थी। पाँव में कई काँटे चुभे हुए थे और खून कितना बह रहा था। अच्छा हुआ कि इसका अहसास जंगल में नहीं हुआ। उस समय मैंने माता सूर्य को मन-ही- मन शुक्रिया कहा, जिसने ठंड को बनाया, जिसके कारण मुझे दर्द का अहसास तक नहीं हुआ। कपड़े कई जगहों से फटे हुए थे। पता नहीं कैसे और कहाँ । वह सब देखने के बाद याबा बहुत नरम पड़ गई। अबकी वह रो रही और मैं खा रही थी। हम दो सहेलियों की बातें इतनी लम्बी थीं कि रात भी कम पड़ गई और वैसे भी जब वहाँ पहुँची थी तो मुर्गे ने अपने पहली बॉंग दे ही दी थी। उस दिन वह खेत नहीं गई ! हम बातें ही करते रहे। उसी ने तो बताया था कि ताना तामिन सरकार के ऐसे नौकर हैं, जो गाँववालों के बड़े-बड़े झगड़ों निपटारा करते हैं। उनका सरकारी नाम कोतोकी है। उनकी दूसरी और तीसरी पत्नी तो तुम्हारी तरह भागी हुई थी जिन्हें उन्होंने मिथुन देकर छुड़ाया। वह अच्छे आदमी हैं । तुम्हें उन्हीं की शरण में जाना चाहिए। लेकिन तुम्हें पहली पत्नी कहलाने का सुख कभी नहीं मिलेगा ।'

“पहली बार आ रही थी इस घर में । खाली कैसे आती । लकड़ियों का एक गट्ठर लेकर आई थी। सबकी प्रश्नसूचक नजरों का सामना किस हिम्मत से किया था, माता सूर्य जानती हैं। मेहनती शुरू से रही हूँ, उसी कारण यहाँ मुझे जगह मिली; किसी के दया से नहीं । मैंने आपका वरण किया था आपने मेरा नहीं।” यह कहकर वह हल्के से मुस्कुराई । फिर कहने लगी, “आज मेरी पहली सन्तान को अपना साथी मिल गया है, जो उसकी अपनी पसन्द है। तुम्हारे माँ-बाप नहीं हैं तो क्या हुआ मेरी बेटी की पसन्द है वह खुश रहेगी। तुम लोग पढ़े-लिखे हो, एक से अधिक विवाह मत करना । यहाँ तो कभी-कभी ताना तामिन भूखे ही रह जाते हैं, क्योंकि हरेक पत्नी को लगता है कि ये हमसे नहीं, दूसरी वाली से अधिक प्रेम करते हैं। ये हैं, कि कभी डाँटते नहीं। पता नहीं, सोचते होंगे कि हमें इनकी परवाह ही नहीं।” कहते-कहते उसकी आँखें नम सी हो आईं। सब लोग हँस रहे थे। बातें कर रहे थे। धीरे-धीरे उनकी आवाजें मेरे सोचों में खो सी गईं। मैं सोच रही थी, बिल्कुल स्थिर-सी लगने वाली और सदा खामोश सी रहने वाली यह औरत उस नदी की तरह है, जो दूर से तो लगता है कि बह नहीं रहीं परन्तु पास जाकर देखो तो कितनी तेजी से कल-कल करती बहती हैं। जाने कितने रहस्य अपने में समेटे खामोश लेटी हुई-सी । उसने उन परम्पराओं से विद्रोह किया, जो अनपढ़ न्यीशी स्त्रियों को रोते रहने पर मजबूर करती हैं। किसी की चौथी बीवी बन जाने का दर्द तो है, परन्तु अपना जीवन जीने का ढंग अपनी मर्जी से चुना |

दूसरे दिन हम लोगों ने विवाह की तारीख तय की और चल दिए अगली तैयारी के लिए ।...

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