यासी और आपापलङ - (यासी ला आपापलङ) (ञीशी जनजाति) : अरुणाचल प्रदेश की लोक-कथा

Yasi Aur Apapalang : Folk Tale (Arunachal Pradesh)

काफी समय पहले किसी गाँव में यासी और उसके दो बड़े भाई रहते थे। दोनों भाई यासी पर जान छिड़कते थे। यासी दोनों के जीवन की धुरी थी। क्षण भर के लिए भी दोनों भाई यासी को अपनी आँखों से ओझल न होने देते । यासी भी अपने दोनों भाइयों को खूब आदर-सम्मान देती थी। वह अपने भाइयों का कहना मानती और उनकी खूब सेवा करती। इस प्रकार तीनों का जीवन आनंदपूर्वक व्यतीत हो रहा था। एक दिन यासी ने देखा कि घर में नमक खत्म हो गया। पहले नमक बहुत दुर्लभ और कीमती खाद्य पदार्थ हुआ करता था। पहाड़वासी को नमक मात्र दो ही स्थानों से प्राप्त होता था। एक पहाड़ों से नीचे उतरकर जीपाक मुरअ ( मैदानी क्षेत्र) से तथा दूसरा पहाड़ों से ऊपर चढ़कर जीमअ जोक अर्थात् तिब्बत से । अतः नमक की प्राप्ति के लिए दुर्गम यात्रा करनी पड़ती थी। जब यासी ने दोनों भाइयों को नमक खत्म हो जाने की सूचना दी, तब दोनों भाई गहरी चिंता में पड़ गए। नमक खत्म होने का अर्थ है -अब दोनों भाइयों को यासी को अकेली छोड़, लंबी और कठिन यात्रा पर निकलना होगा। जीपाक मुरअ ( मैदानी क्षेत्र) तो जाया नहीं जा सकता, कारण-वर्षा ऋतु है, मैदानी भागों में भयंकर बाढ़ होगी। मात्र एक ही विकल्प बचा है - जीमअ जोक (तिब्बत) । जीमअ जोक की यात्रा अत्यंत कठिन और दुर्गम है, अतः किसी एक का जाना खतरे से खाली नहीं है। अंत में दोनों भाइयों ने काफी सोच- विचार के बाद यह तय किया कि यासी को इधर घर में अकेली छोड़कर दोनों को एक साथ यात्रा पर निकलना होगा। यात्रा पर जाने से पहले दोनों भाई यासी के लिए सारी चीजों की व्यवस्था कर देते हैं। अतीत में आग जलाने की विकट समस्या थी । केवल चकमक पत्थरों से आग जलाना संभव था । अतः एक भाई ने चकमक पत्थरों को जोर-जोर से रगड़कर चूल्हे में आग जलाई तथा दूसरे ने आग में बहुत सारी लकड़ियाँ डालकर आग को तेज किया। आग तेज जलने लगी तो खूब रोशनी हुई। दोनों भाइयों ने यासी को समझाते हुए कहा, "ध्यान से हमारी बातें सुनो। तुम्हारे लिए खूब आग जलाकर जा रहे हैं, इसे बिल्कुल बुझने न देना। हमारी वापसी तक आग को जलाए रखना। एक बार आग बुझ गई तो पुनः जलाना संभव न होगा। यहाँ आस-पास कोई नहीं है। कुछ कोस दूर मात्र एक आपापलङ (विशालकाय पिशाच ) रहता है। उसके पास आग माँगने हरगिज मत जाना, वह तुम्हें खा जाएगा। " बहन को यह समझाकर दोनों भाई यात्रा पर निकल पड़े।

कुछ दिनों तक यासी ने घर से बिल्कुल बाहर कदम नहीं रखा। वह घर के भीतर ही रहकर आग की रखवाली करती रही। परंतु घर के भीतर बैठी-बैठी वह ऊबने लगी । आखिर यासी थी तो छोटी बच्ची ही । यासी का बाल - अल्हड़ मन बार-बार उसे बाहर जाने को कहता । यासी ने सोचा, कुछ देर के लिए घर के बाहर हो आती हूँ। आग तो तेज जल रही है, शीघ्र तो बुझेगी नहीं, अतः यासी बाहर निकली। बाहर चिड़ियों की चहचहाहट, भौंरों की मधुर गुंजार ने यासी के भीतर नई स्फूर्ति भर दी । दौड़ती, कूदती, फाँदती यासी नदी की ओर गई । वहाँ वह नदी के शीतल जल में तैरने लगी। जब साँझ हुई तो तेज कदमों से घर लौटी। घर में प्रवेश किया तो देखा - आग तो कब की बुझ चुकी है। यासी को अब रोना आ गया, 'अब मैं कैसे खाना पकाकर खाऊँगी ? चलो कुछ दिन जंगली बेर खाकर भी पेट भर लूँगी; किंतु दोनों भाइयों को — उनको क्या उत्तर दूँगी ? दोनों ने तो मुझे सख्त चेतावनी दी थी कि आग को बुझने मत देना । दोनों जब लौटेंगे तो मुझसे बहुत रुष्ट होंगे। अब मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? हाँ, मैं आपापलङ (विशालकाय पिशाच) से आग माँगूँगी। मगर इसके लिए भी दोनों ने मना किया था। अब क्या होगा? नहीं, मैं आपापलङ से ही आग माँगूँगी । और कोई उपाय भी तो नहीं है । आपापलङ मुझे दबोचे, इससे पहले मैं उसे चकमा देकर सर्र से भाग आऊँगी। दोनों भाइयों को इस बात की भनक भी नहीं लगेगी।'

यासी आपापलङ के पास गई। उसे देखते ही आपापलङ की बाँछें खिल गईं । आपापलङ तो इस अवसर की प्रतीक्षा में था । उसने सोचा- शिकार तो स्वयं चलकर मेरे पास आया है, मगर इसे सीधा दबोचना उचित नहीं होगा। यह शिकार तो बहुत चतुर, तेज और फुर्तीली लगता है। कोई विशेष योजना बनाकर इसका शिकार करना होगा। आपापलङ ने अपनी आवाज में शहद सी मिठास घोलकर यासी से कहा, "आओ बेटी, आओ! लगता है, तुम अकेली हो । तनिक भी मत घबराना। मैं तुम्हारी हरसंभव सहायता करूँगा। कहो, क्या समस्या है ?" यासी ने बताया कि वह आग लेने आई हैं। इस पर आपापलङ ने कहा, “हाँ-हाँ ! अवश्य ले जाओ, ले जाओ। तुम भूखी लगती हो। पहले कुछ खा लो पहली बार तुम मेरे घर आई हो, ऐसे कैसे तुम्हें बिना कुछ खिलाए खाली पेट जाने दूँ?" यह कह आपापलङ ने पत्ते में निन्च (शहतूत का फल ) परोसकर दिए। उन मीठे-मीठे सुस्वादु फलों को देख यासी का मन ललचाया। यासी वहीं पाँव पसारकर बैठ गई और आँखें मींचे फलों का रसास्वादन करने लगी। अवसर देख आपापलङ ने चुपके से यासी के पैर में धागा बाँध दिया। जब यासी सारे फल खा गई, तब आपापलङ ने उसको एक मुत्तु (जलती हुई लकड़ी) दिया । यासी ने आपापलङ को धन्यवाद दिया और जलती हुई लकड़ी लेकर घर लौट आई।

यासी ने चूल्हे में जलती हुई लकड़ी के साथ कुछ सूखी पत्तियाँ तथा लकड़ियाँ डालीं और फूँक मारकर आग जलाई। जब आग तेज जलने लगी तो दिन भर की आपा-धापी से थकी यासी वहीं चूल्हे के किनारे लेट गई। उधर आपापलङ धागे के सहारे पीछा करता करता यासी के घर पहुँच गया। दबे पाँव घर के भीतर घुसा और लेटी हुई यासी के ऊपर सीधा झपट्टा मारा । यासी की गरदन में अपना नुकीला दाँत गड़ाकर वह उसका रक्त चूसने लगा। तत्काल ही नन्हीं यासी के प्राण पखेरू उड़ गए। उसने यासी के शरीर का सारा मांस खाकर केवल हड्डियों को छोड़ दिया। फिर बड़ी ही चतुराई से यासी की हड्डियों को यासी का ही कपड़ा पहनाकर राब्की (चूल्हे के ठीक ऊपर वाली छत) के सहारे उन हड्डियों को खड़ा किया, ताकि जब दोनों भाई यात्रा से घर लौटें तो उन्हें लगे कि यासी जीवित है। और स्वयं मङलो ( घर का छप्पर) पर जा बैठा । आपापलङ घर के छप्पर पर बैठकर अपने दोनों पैरों को झुलाते हुए गाने लगा (प्रस्तुत गीत में वह प्रश्न भी कर रहा है और स्वयं उत्तर भी दे रहा है ) -

यासी आची होगु लअठ लो ?
(यासी के दोनों भाई यात्रा के किस पड़ाव पर पहुँचे ?)

अलङ लअठ लो
(शायद पत्थरों वाले पड़ाव पर)

यासी आची होगु लअठ लो ?
(यासी के दोनों भाई यात्रा के किस पड़ाव पर पहुँचे ?)

नाराङ लअठ लो
(शायद नाराङ नामक पड़ाव पर )

यासी आची होगु लअठ लो ?
(यासी के दोनों भाई यात्रा के किस पड़ाव पर पहुँचे ?)

नायु लअठ ला
(शायद नायु नामक पड़ाव पर )

यासी आची हो आमिङ बाआ तारीनअ ?
( यासी के दोनों भाई क्या उपहार ला रहे हैं ? )

आसिङ आमर बाआ तारी।
(जंगली कंदमूल ला रहे हैं ।)

दोनों भाई यात्रा से लौट आए। जब दोनों घर पहुँचे तो देखा - घर का द्वार भीतर से बंद है। दोनों ने यासी को आवाज दी। पर भीतर से कोई उत्तर नहीं मिला। दोनों ने घर का द्वार पहले खटखटाया, मगर द्वार खुला नहीं। फिर द्वार को पीटा, तब भी नहीं खुला। एक तो लंबी यात्रा की थकान और दूसरे भीतर से कोई उत्तर न मिलना- इससे बड़ा भाई क्रुद्ध हो गया। उसने छोटे भाई से कहा, दाव (स्थानीय तलवार) से काटकर द्वार को गिरा दो । छोटे भाई ने तुरंत बड़े भाई के आदेश का पालन किया। द्वार को गिराने के पश्चात् बड़े भाई ने पहले भीतर प्रवेश किया। उसने देखा, यासी राब्की के पास खड़ी है। उसने क्रोधित स्वर में कहा, "यासी हम तुम्हें बुलाते रहे और तुमने कोई उत्तर ही नहीं दिया ? तुम हमारे साथ कोई मजाक कर रही हो या फिर कुछ दिनों की हमारी अनुपस्थिति से तुम उदंड हो गई हो ? उत्तर दो यासी?" यासी जीवित होती तो न उत्तर देती ! एकदम चुप्पी ! चुप्पी ने आग में घी का काम किया। वह और क्रुद्ध हो गया और उसने आवेश में आकर इर उप्पु (तीर-धनुष) निकालकर यासी पर चलाया। तीर के लगते ही यासी का कंकाल भरभराकर गिर गया। दोनों भाई एकदम अचंभित हो गए। दोनों को काटो तो खून नहीं । किंतु दोनों थे बुद्धिमान, इसलिए दोनों को यह समझते देर नहीं लगी कि यह सब उस विशालकाय पिशाच आपापलङ का किया धरा है। दोनों ने इधर-उधर आपापलङ को खोजा, पर वह मिला नहीं। दोनों बाहर निकले और ऊपर देखा तो वह छप्पर पर बैठा दिख गया। एक भाई ने उस पर तीर चलाया, किंतु आपापलङ ने लपककर तीर को पकड़ लिया, ठहाका लगाकर हँसा और कहने लगा कि " इस तीर से मेरा बाल भी बाँका नहीं होगा, यह तो मेरा है।" फिर दूसरे भाई ने नङख्यो (भाला) लहराकर फेंका। उसे भी उसने पकड़ लिया और कहा, "इससे भी मेरा कुछ नहीं होने वाला, यह तो मेरा है ।" इस प्रकार दोनों भाइयों ने कभी दाव (स्थानीय तलवार) से तो कभी हअगङ (कुल्हाड़ी) से भी प्रहार किया, परंतु उनके सारे वार खाली चले गए और उधर आपापलङ ऊपर बैठा दोनों की खिल्ली उड़ाता रहा। अंततः दोनों भाइयों ने आपस में सलाह-मशविरा किया कि घी सीधी उँगली से नहीं निकलेगा, उँगली टेढ़ी करनी पड़ेगी। दोनों भाइयों ने इरि रिक्मा (सूअरों में सर्वश्रेष्ठ ) को मारा और उसका मांस आपापलङ को दिया । भुक्खड़ आपापलङ मांस को गप्प गप्प खाने लगा। दोनों भाइयों ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, “आप तो हमारी अपेक्षा से भी अधिक बलशाली हैं। हमने तो अपनी हार मान ली। हम समझ गए कि किसी भी युक्ति से आपका वध नहीं हो सकता।" अपनी प्रशंसा सुन आपापलङ के मन में आनंद के लड्डू फूटने लगे और वह तपाक से बोला, “पानी भरने के लिए जब तालाब जाते हो तो तालाब के किनारे पासर (सरकंडा ) की झाड़ी तो देखी ही होगी। बस करना क्या है ! एक सरकंडा लेकर मेरी गुदा में घुसाकर मुँह से खींच निकालना, तुरंत मेरी मृत्यु हो जाएगी। "

अब किस बात की देरी थी ! यह सुनते ही छोटा भाई दौड़कर तालाब की ओर गया और वहीं किनारे से सरकंडा ले आया। बड़े भाई ने आपापलङ को धक्का देकर नीचे गिराया और उसकी छाती पर बैठकर उसे हिलने तक न दिया। छोटे भाई ने तुरंत ही एक पतला सरकंडा उसकी गुदा में घुसाया और बड़े भाई ने उस सरकंडा को मुँह से खींच निकाला । तत्काल आपापलङ की मृत्यु हो गई। देखते-ही- देखते सरकंडे की धार से आपापलङ का शरीर सैकड़ों टुकड़ों में बँट गया और बाद में उसके शरीर के ये टुकड़े ताजी (मक्खी), तारुङ (मच्छर) और जुम्ञीर (छोटी प्रजाति की मक्खी) में परिवर्तित हो गए। ञीशी जनजाति का यह विश्वास हैं कि मक्खी, मच्छर आदि मनुष्य का रक्त इसलिए चूसते हैं, क्योंकि ये रक्त चूसनेवाले पिशाच आपापलङ के शरीर के टुकड़ों से पैदा हुए हैं।

(साभार : डॉ. जमुना बीनी तादर)

  • मुख्य पृष्ठ : अरुणाचल प्रदेश कहानियां और लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : भारत के विभिन्न प्रदेशों, भाषाओं और विदेशी लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां