यदुराज (उपन्यास) : आचार्य नरेन्द्र शास्त्री
Yaduraj (Novel) : Acharya Narendra Shastri
अध्याय : १
बद्री प्रसाद उपाध्याय की कक्षा से आज भी पूर्ववत की तरह जोर - जोर से बच्चों के पढ़ने की आवाज़ आ रही थी , एक बच्चा पहाड़े बोलता , दूसरे बच्चे उसके पीछे पीछे दोहराते , दो एकम दो , दो दूनी चार जिससे पास के रास्ते से गुजरता कोई भी व्यक्ति समझ सकता था की यहां अवश्य पाठशाला लग रही है । पाठशाला के पास से गुजरते हुए पांडे जी ने देखा की एक 7 - 8 साल का बच्चा विधालय की दीवार के पास चिपक कर खड़ा है , वो बच्चा कभी झाक कर विधालय की तरफ देखता तो कभी तो कभी रास्ते की तरफ ऐसा वो इसलिए करता ताकि उसकी चोरी पकड़ी ना जाए ओर निगाह रख सके की कौन इधर आ रहा है कौन - कौन इधर से जा रहा है जैसे ही कोई परिचित उधर से गुजरता वो बच्चा इधर उधर घूमने लगता ताकि वहा से गुजरने वाले को यही लगे की ये अपने किसी काम से इधर से गुजर रहा है , पर आज तो पांडे जी ने उसे रंगे हाथों पकड़ लिया है ।
पांडे जी जैसे ही पास आये बच्चे के चेहरे का रंग उड गया । पांडे जी ने उसका हाथ पकड़ा ओर ले जाने लगे उसे पाठशाला में । बालक भी अपना पुरा जोर लगाकर छुड़ाकर भागने की कोशिश कर रहा था परन्तु पांडे जी के जोर के सामने उस बच्चे की क्या बिसात जो खुद को छुड़ाकर भाग सके । पांडे जी उसे लेकर सीधा हेडमास्टर साहब के ऑफिस गये ओर थोड़ा जोर से कड़क कर हेडमास्टर साहब से बोले मास्टरजी आपको तनख्वाह बच्चों की पढ़ाई ओर उनका ध्यान रखने की मिलती है या फिर ऑफिस में कुर्सी तोड़ने की ।
हेडमास्टर साहब थोड़ा मुस्कुराते हुए चपरासी से बोले करण सिंह पांडे जी के लिए पानी लाइये ।
मै पानी पीने नही मास्टरजी शिकायत लेकर आया हु पांडे जी तपाक से बोले ,
शिकायते भी होती रहेगी पांडे जी ! आप पहले थोड़ा सा शांत होइए , पानी पीजिये फिर फरमाइये ।
लाओ दो पानी कहते हुए गुस्से से पानी का गिलास पकड़ा , पानी पीकर थोड़ा शांत होकर पांडे जी बोले , " मास्टरजी मै पाठशाला के पास से निकल रहा था तो मैने देखा ये लड़का पाठशाला के बाहर वाली दीवार के पास बांस के पेड़ के समीप खड़ा था , लगता है ये शायद विधालय से भाग गया था " ।
ये तो अच्छा हुआ शाला के पास से गुजरते हुए मेरी इस पर निगाह पड़ गई , तो मै सीधा इसको आपके पास ले आया । वैसे किसकी औलाद है ये जो पढ़ाई मे कम ओर आवारागर्दी मे ज्यादा ध्यान रख रही है पांडे जी ने शिकायत करते हुए कहा ।
मास्टरजी - पांडे जी क्या आप इसे नही जानते ।
पांडे जी - नही , मै इसे जानू ये ऐसा क्या किसी लाट साहब का बच्चा है ।
मास्टरजी - लाट साहब का ही समझिये ।
पांडेजी - लाट साहब के बच्चे ऐसे सड़को पर आवारागर्दी नही करते ।
आखिरकार मै भी जानना चाहूंगा की ये बच्चा है किसका ।
मास्टरजी - ये बच्चा मजिस्ट्रेट साहब पंडित कृष्णमूर्ति जी द्विवेदी का बेटा यदुराज है ।
पांडे जी - ओह ! तो ये मजिस्ट्रेट साहब के साहबज़ादे है ,
लेकिन मास्टर जी एक बात मैने देखी जो माता - पिता ज्यादा काबिल होते है उनके नाकाबिल संताने पैदा होती है , ठीक ऐसा ही अपने कृष्णमूर्ति जी के साथ हो रहा है ।
ऐसी बात नही है पांडे जी , अभी तो यदुराज 7 - 8 बरस का ही हुआ है , इतनी सी कम उम्र मे क्या अंदायजा लगाया जा सकता है की ये बच्चा लायक निकलेगा या नालायक । खैर पांडे जी आप समाज के एक जिम्मेदार नागरिक , अच्छा हुआ इतना तो पता चला की पदमपुरा गाँव में भी कुछ जिम्मेदार लोग रहते है , वरना हम तो अभी तक यही समझते थे की यहां सब अपने काम से काम रखते है , समाज मे क्या हो रहा है ? देश मे क्या हो रहा है ? किसी को किसी से कोई मतलब नही ? 'खैर आपके जिम्मेदारी भरे कदमो के लिए आपका शुक्रिया ' ।
पांडे जी चले गये ,
उनके जाने के बाद हेडमास्टर श्रीकांत वर्मा ने मास्टर बद्रीप्रसाद उपाध्याय जी को बुलाया ओर समझाते हुए कहा , देखो बद्रीप्रसाद जी ! अभी ये बच्चे छोटे है , अबोध है , नासमझ है इनका मन कोरी सलेट की तरह है आप उस पर जो लिखना चाहोगे वही तो लिखा जायेगा,
अब ये तो आप पर डिपेंड करता है की आप उनके मन पर क्या लिख रहे हो ?
किस तरह लिख रहे हो ?
अगर आप सकारात्मक भाव से लिखोगे तो देश को समुन्नत बनाने वाले राष्ट्रवादियो को तैयार करोगे ।
यदि नकारात्मक भाव से लिखते हो तों फिर आप विद्रोह ओर द्वेष को पनपाकर चलने वाले बालको का निर्माण करोगे ।
श्रीकांत वर्मा की बातो को सुनकर बद्रीप्रसाद उपाध्याय जी अपनी कक्षा मे चले गए ।
आज तो इस यदुराज के बच्चे की खैर नही , इसकी वजह से आज मुझे कितना सुनना पड़ा , अरे मजिस्ट्रेट का बच्चा है तो कोई इसका मतलब ये तो है नही की इसकी वजह से किसी को भी सुनना पड़े । जब तक चार - पांच डंडे मार - मार कर तोड़ नही दु तब तक मेरा नाम भी बद्री नही ।
एक तो ये कक्षा मे नही आता , आता है तो इसको कुछ आता - जाता नही ।
उपर से मजिस्ट्रेट बाप का ये रौब की कक्षा मे किसी को भी डांट पड़वा दे ।
यदुराज इधर आ! घुडक जमाते हुए बद्रीप्रसाद ने यदुराज को बुलाया ,
धर्मु बेटा तु जाकर दो चार अच्छे - अच्छे डंडे ले आ ।
आज देख मै इसका क्या हाल करता हु ।
धर्मु जो कक्षाध्यापक का मुँह लगा विधार्थी था , कब से अपने गुरु के आदेश कि प्रतीक्षा कर रहा था ,
आनन फानन मे जाकर बांस कि पतली - पतली पांच - छह सरकंडी ले आया , जो देखने मे तो पतली जरूर थी लेकिन उनकी मार असहनीय थी ।
अध्यापक जी जमाने लगे डंडा , ' ऐसे नही सुधरेगा तु ,आजकल बहुत सर चढ़ गया है , आज मार पड़ेगी तो आ जाएगी अक्ल ठिकाने ' ओर जब तक हाथ लाल जर्द नही हो गये तब बालक को छड़ी की मार पड़ती ही रही ।
अध्यापक जी के जाने के बाद यदुराज ने हाथों को सहलाया ,
साथियो ने संवेदना जताई जो अध्यापक जी के कक्षा मे रहते बिल्कुल प्रकट नही हो रही थी । रमेश यदुराज के हाथों पर फुक मारते हुए बोला " दर्द हो रहा है क्या यदु , ये धर्मू भी कैसा निर्दयी है , अपने ही साथियो की पिटाई करवाते हुए इसे जरा सी भी शर्म नही आती , देख तो ! कैसी तीखी छड़ी लाया था , इसको तो कोई काम है ही नही , सारे दिन मास्टरों की जी हुजूरी करता रहता है , ओर अपने संगियों को पिटवाता रहता है , जी हुजूरी करके खुद बच जाता है बस हम सब लपेटे जाते है , देख लेना एक दिन हम सब मिलकर इसकी तबियत ऐसी सही करेंगे की इसका बरसो का हिसाब हो जायेगा ।
यदुराज - रहने दे रमिया वो भी अपना ही साथी है , कुछ गलती मेरी ही होगी , मै ही तो पाठशाला के पास वाले बांस के पेड़ के नीचे खड़ा था । पर मै भी क्या करू यार ? मै कोई शौक से वहा थोड़ी खड़ा होता हु , पाठशाला आते समय एक अजीब सा डर मेरे मन में रहता है मुझे लगता है की मै यहां खुल कर सांस नही ले रहा हु अब तुम्ही बताओ रमिया मै क्या करू ?
रमेश - तु चिंता ना कर दोस्त , सब अच्छा होगा, देखना एक दिन तुम इस वातावरण से इतना घुल मिल जाओगे की तुम्हे यहां से जाने पर , तुम्हारा मन मचलाएगा ।
यदुराज - ठीक है रमेश , अध्यापक जी ने मुझे डंडे से मारा ये बात मेरे घर मत बताना नही तो मुझे ओर मार पड़ेगी ।
रमेश - ठीक है भाई नही बता रहा ।
कुछ समय बाद छुटी होती है सब अपने - अपने घर चले जाते है । जैसे ही यदुराज घर के अंदर दाखिल होते है पंडित कृष्णमूर्ति द्विवेदी जी अपने अतिथि कक्ष के सामने वाले बाग़ में आराम कुर्सी पर बैठकर सिगार का कस खींच रहे थे । नौकर बलिया पंखा झल रहा था । जैसे ही यदुराज दबे _दबे कदमो से अंदर जाने लगा नौकर बलिया ने फुसफुसाते हुए कहा यदुराज...यदुराज.... । आवाज़ सुनते ही द्विवेदी जी सचेत होकर बैठे । आवाज़ दी , यदुराज इधर आओ !
जी पिताजी , डरा सहमा सा यदुराज अपने पिता के पास जाता है ।
कृष्णमूर्ति - आज स्कूल मे क्या हुआ था , पांडे जी ने क्या किया
यदुराज - मै पिताजी ,वो ,वो ................।
कृष्णमूर्ति - क्या वो वो , पुरी बात बता , मुझे सब पता है , मुझे पांडे जी ने सब बता दिया । क्या जरूरत थी तुम्हे स्कूल से बाहर छुपने की ? क्या कमी है हमारे घर में ? तुझे सारी सुविधा दे रखी है इसके बावजूद तु पढ़ाई से जी चुराता है । ये तो अच्छा है की तुम्हारे हेडमास्टर साहब श्रीकांत जी भले आदमी ओर मेरे मिलने वाले है , नही तों तेरी शिकायतों से तों मुझे रोज स्कूल जाना पड़े ।
बेटे तों आखिरकार हम भी किसी के थे , ओर सुविधा तों कुछ थी ही नही , बाप दादा तों यही कहा करते थे की क्या करेगा पढ़कर , जजमानी में आई हुई इतनी पुस्तैनी जमीन - जायदाद है की सात पीढ़ी भी बैठकर खाये तों भी बचे, लेकिन कृष्णमूर्ति को अपने दम पर चलना पसंद था , मै पढ़ा ओर तुम्हारे तों स्कूल भी घर से ज्यादा दूर नही है , हमारे टाइम तो हम नदी पार करके 3 कोस जाया करते थे , बरसात में तो नदी पूरे उफान पर रहती थी, मै फिर भी पढ़ा , ओर आज सब लोग मुझे न्यायमूर्ति कृष्णमूर्ति के नाम से पहचानते है , अगर जजमानी के चक्करो में ही रहता तों घर से खेतो तक ही मेरी जान पहचान होती , इससे आगे नही बढ़ पाता मै कभी भी । चल अब सुनता क्या है अंदर जा ।
कृष्ण मूर्ति जी की विशालकाय हवेली में चारो तरफ प्रवेश के लिए चार दरवाज़े थे । एक दरवाज़े के ठीक सामने बागान था । दूसरे दरवाजे के ठीक सामने सीताराम ओर लक्ष्मण जी का मंदिर संगमरमर से ओर उसका ऊपरी गुबंद सोने की झाल देकर बनाया गया था जिसका निर्माण उनके पितामह रामसहाय जी ने करवाया था जहा हर राम नवमी को अखंड रामायण का पाठ चलता था ओर ये परम्परा रामसहाय द्विवेदी जी के समय से चली आ रही थी जिसे बाद में इनके बेटे धनसीराम ने ओर अब पंडित कृष्णमूर्ति जी भी निभा रहे है । तीसरे दरवाजे के ठीक सामने खुला मैदान था जिसमे कभी - कभी सभा का आयोजन होता था , चौथे दरवाजे को एक गुप्त सुरंग से जोड़ा गया था जो , दरवाजे के ठीक उपर एक घड़िनुमा कील लगाई गई थी जिसको हल्का सा दबाने पर वह दरवाजा बिना आवाज़ किये खुलता था , सुरंग का रास्ता 2 कोस दूर कालिका मंदिर में जाता था जहा विशेष अवसरो पर द्विवेदी परिवार पूजा अर्चना किया करता था । पहले दरवाजे के सामने होल से होते हुए घर का मुख्य दरवाजा जाता था । द्विवेदी जी के जैसा शानदार घर आस पास के पचास गाँवों मे भी नही था ।
कुछ दिनों बाद गाँव मे सरपंच के चुनाव होने थे । सब प्रतिनिधि अपने अपने समर्थन में प्रभावशाली लोगो को लेकर घूम रहे थे । पंडित कृष्णमूर्ति जी का पुरा समर्थन भैरूसिंह पांडे को मिल रहा था , हालाँकि वो कचहरी के कामो के कारण उनके साथ व्यक्तिगत रूप से घूम नही पाते थे तो भी यदा कदा समय निकालते ओर आर्थिक रूप से मदद करते । पांडे जी एक जगह खड़े होकर भाषण दे रहे थे , सैकड़ो की तादाद मे वहा लोग इक्क्ठा थे , कौतुहुलवश यदुराज भी देखने गया । पांडे जी अपने भाषण मे कह रहे थे " मेरे भाइयो ओर बहनो , बच्चे भगवान होते है , उन्ही नन्हें मुन्ने बच्चों की खातिर , उन्ही भगवान की खातिर इस बार सरपंची के चुनाव में मुझे जीता देना , मै वायदा करता हु तुम्हारे बच्चों का भविष्य उज्ज्वल बना दूंगा ' ।
यदुराज - मन ही मन बड़बड़ाते हुए भगवान होते है , ओर तु आंच भी नही आने देगा , उस दिन मेरी तो मास्टरजी से हजामत करवा दी थी , ओर अब कहता है आंच भी नही आने दूंगा, देखो तो साला पांड्या कितना झूठ बोलता है । मन ही मन बड़बड़ाते हुए वो कब जोर - जोर से बोलने लगा खुद उसे पता नही लगा । भीड़ मे सन्नाटा पसरा, सबका ध्यान यदुराज पर ओर वो बोले ही जा रहा है । पास आकर किसी ने कोहनी जमाई , ध्यान टूटा, नजरें उपर उठाकर देखा तो वो स्कूल का चपरासी करनसिंह था । पाठशाला नही चलना क्या ? करनसिंह डांटते हुए बोला ।
यदुराज - चल रहा हु भाई करणा, जल्दी भी क्या है ।
करणसिंह - तुझे जल्दी नही है तों क्या भाई , पाठशाला कोई तुम्हारे समय के हिसाब से तों लगेगी नही ।
ठीक है चलो ।
जैसे ही पाठशाला के बाहर पहुँचे तो पाया पाठशाला मे आज प्रार्थना लेट तक चल रही थी । लेकिन जैसे ही अंदर गये सब बच्चे टकटकी लगाकर देख रहे थे । दरअसल पाठशाला मे कुछ जादूगर जादू का खेल दिखा रहे थे , जिसमे एक बच्चे पर एक कपड़े को ढक देते , कुछ बोलते, ओर जब पर्दा हटाते तो वो बच्चा गायब मिलता , इसके अलावा भी उस दिन पाठशाला मे बहुत से जादू के खेल दिखाए सब बच्चे उन्हे कौतुहूलपूर्वक देख रहे थे । यदुराज की तो मानो आज पलक ही नही झपक रही थी वह निर्निमेष उस खेल को देखता ही रहा , लग रहा था आज वह पहली बार शाला मे अपने पूरे मन से उपस्थित है । जादूगर के इसी खेल के क्रम मे चपरासी करणसिंह भी हेडमास्टर को कहना भूल गया की आज यदुराज सीधा पाठशाला ना आकर चौपाल पर पांडे जी की सभा मे खड़ा था । इसी तरह एक साल बीत गया ।
पाठशाला में दूसरा साल शुरु हुआ । पहली क्लास के बच्चे अब दूसरी क्लास में आ चुके थे । दुसरी क्लास के बच्चे तीसरी क्लास मे । कुछ नये चेहरे भी शाला मे भर्ती हुए थे । जिनमे एक थी पड़ोसी गाँव भागलपुर के महाजन श्रीपाद जी की सुपुत्री भव्या । अध्यापक जी क्लास में आये ,हाजरी लगाई तो पाया आज 2 छात्र क्लास मे नही आये , एक तो वो जो अक्सर नही आता था यदुराज । दूसरा उसका लंगोटिया नवीन । आनन फानन मे स्कूल के चपरासी करणसिंह को बुलाया । क्लास के 5_7 हट्टे कट्टे छात्रों के साथ चपरासी करणसिंह को हिदायत दी की यदुराज ओर उसका लंगोटिया नवीन जहा भी हो दोनो को फ़ौरन पकड़ कर मेरे सामने हाजिर करो । आज्ञा पाकर सभी विधार्थी ओर करणसिंह गाँव मे जाकर पड़ताल करने लगे । भाई , तुमने कृष्णमूर्ति जी के बेटे ओर उसके साथ किसी ओर को देखा है । पास से गुजर रही एक बुढ़िया संतरा के कानो मे ये बात पड़ी । हा ! मैने देखा है । अभी भी वही होगा । पंडिताइन चारुल का पोता ओर उसका लंगोटिया अभी भी चिमनलाल के घर के पोल के सामने फर्श पर पाठशाला के बस्ते को सिराहने रखकर सो रहे थे । थोड़ा जल्दी करो । अगर मौका चुक गये ओर उसे भनक लग गई तो भाग जायेगा । जल्दी जाओ सोते हुए को ही धर दबोचो ।
आनन फानन मे सभी चिमनलाल के घर पहुँचे । चारो तरफ से घेर कर सब बच्चों ओर चपरासी करणसिंह ने यदुराज ओर नवीन को पकड़ लिया ओर सीधा हेडमास्टर साहब के ऑफिस पर ।
श्रीकांत वर्मा - यह सब क्या हो रहा है ? क्यो लाये हो इन दोनो को यहां ?
चपरासी - ये दोनो पाठशाला आने के बजाय चिमनलाल की पोल वाली बाहर की जगह पर सोकर आराम फरमा रहे थे । मास्टर बद्रीप्रसाद जी का आदेश था भला हम कैसे टाल सकते थे । ले आये चिमनलाल के घर से उठाकर सीधा यहां ।
श्रीकांत - क्या जरूरत थी , इन्हे लाने की ?
जब इनका मन पढ़ाई का होता तो ये खुद ही नही आ जाते क्या । ठीक है बेटा तुम दोनो क्लास मे जाओ हेडमास्टर साहब ने यदुराज ओर नवीन को कहा ।
उन दोनो के साथ साथ क्लास मे अन्य बच्चे जो उन्हे पकड़ने गये थे वो भी गये उनके पहुंचते ही बद्रीप्रसाद जी ने कड़वे शब्दों की आग उन पर बरसा दी ।
जब उनके कहने का भी उन दोनो ने कोई प्रतिउतर नही दिया तो मास्टर जी ने धर्मू को रोज की तरह फिर डंडा लाने भेज दिया ।
धर्मू द्वारा लाये गये बांस के मोटे मोटे डंडे से मास्टरजी मार लगाते जा रहे है , ओर उपदेश देते जा रहे है । अरे मै कहता हु क्या जरूरत है तुम्हे छुपने की , स्कूल नही आने की , हम तुम्हे पढ़ाकर कोई तुम्हारा बुरा तो कर ही नही रहे । एक , दो , तीन ......... करते हुए मास्टरजी ने नवीन ओर यदुराज को पूरे तीस डंडे जमाये ।
मास्टरजी के क्लास से बाहर जाते ही सब बच्चों ने उन दोनो को घेर लिया । भव्या ने अपनी सखी नीरू से पूछा । ये दोनो रोज ऐसे ही पीटते है क्या ?
नीरू - नवीन तो रोज तो नही पीटता , वो तो इस यदुराज के चक्कर मे आज ही लपेटे मे आया है । हा , ये यदुराज रोज जरूर पीटता है । घर वाले इसे स्कूल के लिए भेजते है ओर ये रास्ते मे ही गायब हो जाता है । कभी चिमनलाल के घर के पोल के पास सोता है तो कभी गाँव की चौपाल मे सोता हुआ मिलता है ।
भव्या - इसके घर वाले इसे कुछ नही कहते क्या ?
नीरू - इसके पिताजी से इसे लगभग हर महीने 2_3 बार तो मार पड़ ही जाती है । बेचारा यदुराज ।
जानती हो मै पिछले महीने नवीन के घर किसी काम से अपनी माँ के साथ गई थी , नवीन के पिताजी पप्पूराम उसे कह रहे थे की क्या जरूरत है तुम्हे उस यदुराज के साथ रहने की । अरे वो तो मजिस्ट्रेट की औलाद है । उसका ओर हमारा मुकाबला नही हो सकता । वो तो अगर नही भी पढ़ा तो पुस्तैनी जायदाद इतनी आती है की तेरे जैसे दस पंद्रह को तो नौकर भी रख ले तो ज्यादा फर्क नही पड़े ।
लेकिन अगर तू नही पढ़ा तो खाने के लाले जरूर पड़ जाएंगे ।
भव्या - इतना बुरा है क्या यदुराज ?
नीरू - बुरा तो नही है ,बस उसे पलट कर जवाब देना नही आता , मुस्कुराता रहता है , इसलिए सब उसे दोषी समझ लेते है ।
भव्या - अच्छा तो ये बात है , देख आज भी उसने उफ़ तक नही कहा , तीस डंडे , बाप रे ! तीस डंडे चुपचाप खा लिए । मेरे को तो बेचारे पर बहुत दया आ रही है ।
नीरू - चल अब तु ज्यादा दया मत दिखा । इस समय तो छुटी होने वाली है घर चलना है ।
टन टन , टन टन टन .... कुछ समय बाद छूटी होती है ओर सब बच्चे अपने अपने घर चले जाते है । इसी तरह सारे साल की पढ़ाई खत्म होने के बाद एक साल ओर बीत जाता है ।
इम्तिहान के खत्म होने के बाद उसका रिजल्ट आता है । गर्मियों की छुटियो मे यदुराज अपनी मम्मी वैदेही देवी के साथ अपने ननिहाल सुरजपुर जाता है । वहा उसके हमजोलियो से इतना घुल मिल जाता है की उसका अपने गाँव लौटने का मन ही नही करता है । उसका अपने गाँव जाने का मन भी नही है । वह रोज रोज पाठशाला की पिटाई , ओर उसके बाद घर आकर अपने पिताजी की पिटाई से दुखी हो जाता है । वैदेही देवी अपना बस्ता तैयार करने में सुबह से लगी हुई थी , यदुराज बिना बताये किसी को घर से दूर सुनसान हवेलियो में अपने एक दो दोस्तो के साथ चला जाता है ताकि आज का दिन तो निकल सके ।
शाम को जब वो घर आता है तो उसे खूब डांट पड़ती है । अनमने मन से ना चाहते हुए भी उसे अपने गाँव पदमपुरा लौटना पड़ता है ।
यदुराज घर से नहा _धोकर सुबह - सुबह पाठशाला के लिए निकलता है । रास्ते मे वो लक्ष्मीनारायण मंदिर वाले बाग़ में जाकर बैठ जाता है । पाठशाला के रास्ते जाते हुए भव्या और नीरू उसे देख लेती है की आज भी यदुराज पाठशाला नही जायेगा , उसे फिर से मार खानी पड़ेगी ।
भव्या - चल नीरू मंदिर के अंदर बाग़ मे चल ।
नीरू - क्यो
भव्या - अरे देखा नही क्या यदुराज अंदर गया है , शायद वो पाठशाला नही जायेगा , वो सोच रहा है की जब छुटी होगी तब वो सब बच्चों को इधर से जाते हुए देख लेगा ओर उनके साथ ही हो लेगा ओर घर पहुँच जायेगा ,
सबको यही लगेगा की वो पाठशाला जाकर आया है ।
लेकिन क्या पता उससे पहले मास्टरजी उसे फिर से ओर दिन की तरह पकड़ कर मंगवा ले , बेचारे को फिर से मार खानी पड़ेगी ।
नीरू - चल , भव्या ! तु कहती है तो चलते है , एक बार समझा बुझा देते है , आगे वो जाने उसकी समझ , अक्ल होगी तो समझ जायेगा , नही तो रहे अपने भाग्य पर ।
दोनो अंदर जाती है । यदुराज मंदिर के सामने बागान मे टकटकी लगाए गुलाब के फुल को देख रहा है । भव्या ओर नीरू को उसकी पीठ दिखाई दे रही थी ।
यदुराज , ओ यदुराज ! नीरू पुकारती है ।
यदुराज सीधा होकर खड़ा हो जाता है ।
भव्या तुमसे कुछ कहना चाहती है ।
ये शायद पहला मौका था जब भव्या यदुराज से बोलने का प्रयत्न करती है , एक साल की पढ़ाई के दौरान तो उसने यदुराज की मास्टरजी से पिटाई के दौरान हमदर्दी ही जताई थी ।
यदुराज नीरू की बातो की कोई प्रतिक्रिया नही देता है ।
सुनो ! एक मधुर सी आवाज़ यदुराज के कानो मे आती है । वह इस आवाज़ को पहली बार सुन रहा था ।
नजर उठाकर देखा तो एक दस ग्यारह साल की नवबाला जिसके दोनो तरफ चोटी बनाई हुई थी । नीली छींट का घाघरा चोली पहने सामने खड़ी है ।
यदुराज जिसको अभी तक अपने 2_3 लंगोटिया यारो के अलावा हर किसी से बात करने में झिझक आती थी ,
ओर खास तौर पर लड़कियो ओर महिलाओ से तो उसे इतनी शर्म आती थी की वह उनकी आवाज़ से ही दूर रहना चाहता था ।
परन्तु भव्या की आवाज़ सुनकर आज यदुराज उसका प्रतिउतर देना चाहता है ।
यदुराज - हा कहिये ।
भव्या - आप पाठशाला क्यो नही जा रहे ।
यदुराज - मुझे पाठशाला जाने पर डर लगता है ।
मेरा वहा दम घुटता है ।
वो वहा जो पढ़ाते है वो मुझे पढना अच्छा नही लगता , मै जो पढना चाहता हु वो वहा पढ़ाते नही है ।
ओर ऊपर से मास्टरजी मुझे ही छड़ी की सबसे ज्यादा मार डालते है ,
क्लास मे ओर भी बच्चे है पता नही मेरे से क्या खुनस रहती है जो हाथ मलकर मेरे पीछे पड़े रहते है ।
भव्या - ऐसी कोई बात नही है आप नही जानते , जिसे सबसे ज्यादा प्यार करते है डांट भी सबसे ज्यादा उसे ही पड़ती है ।
आप नही जानते गुरुजी आपसे कितना प्यार करते है ।
सबसे ज्यादा प्यार क्लास मे आपको ही करते है इसलिए तो आपको सबसे ज्यादा डांटते है ।
भगवान भी अपने खास भक्तो को सबसे ज्यादा तकलीफ देता है ।
यदुराज - मुझे तो ऐसा नही लगा गुरुजी मुझे सबसे ज्यादा प्यार करते है ?
भव्या - तुम्हे नही लगा , लेकिन मैने बद्रीप्रसाद गुरुजी जी को अपनी पाठशाला का चपरासी नही क्या करणसिंह उसको कहते सुना की यदुराज तो मेरे बेटे जैसा है , उसे मै काबिल बनाना चाहता हु । भव्या हालांकि जानती थी की ये बात वो झूठ बोल रही है लेकिन क्या पता उसके इस झूठ से यदुराज का भला हो जाए ।
ओर रही बात पढ़ाई की तो पाठशाला मे जो गुरुजी पढ़ाये वो पढ़ लेना , घर जाकर जो तुम्हे अच्छा लगे वो पढ़ लेना ।
यदुराज - परन्तु , घर तो पिताजी नही पढ़ने देते ,
कहते है जो पाठशाला मे पढ़ाये वही पढ़ा करो, ये फालतू की चीजे पढ़ने की अभी तुम्हारी उम्र नही हुई है ।
भव्या - कभी तो तुम्हारे पिताजी बाहर जाते होंगे जब वो बाहर जाए तो तुम पढ़ लिया करना ।
यदुराज - अच्छा ये तो बताओ तुम्हारा नाम क्या है ।
भव्या - थोड़ा शर्माकर, मेरा नाम भव्या है ।
यदुराज - अच्छा नाम है
भव्या - चलो , अब पाठशाला चलो ।
यदुराज - पाठशाला तो आज मै नही जाऊंगा , कल पक्का आ जाऊंगा ।
भव्या - नही , चलना तो तुम्हे आज ही पड़ेगा ।
यदुराज - आज तो मै नही जाऊंगा ।
भव्या - मै भी तो देखु कैसे नही जाओगे तुम ।
यदुराज - अच्छा , मै नही जाऊंगा तो क्या कर लोगी तुम ।
भव्या - अभी दिखाती हु,
सीधा यदुराज का हाथ पकड़ कर खींच कर विधालय आ जाती है । पीछे - पीछे नीरू भी आ जाती है ।
विधालय मे जाते ही बद्रीप्रसाद मास्टरजी फिर यदुराज पर बरस पड़ते है , आज तु फिर लेट आया है , ये तो अच्छा हुआ भव्या ओर नीरू तुझे जबरदस्ती खींच लाई । वरना तु तो आज भी नही आ रहा था । इधर आ ओर हाथ आगे कर
भव्या - नही गुरुजी , ये आ रहा था किन्तु इसे चला नही जा रहा था , इसलिए मै सहारा देकर ले आई ।
मास्टरजी - चल ठीक है तुझे आज आज मै छोड़ देता हु , लेकिन इसका मतलब ये नही है तु मेरी निगाह मे नही रहेगा , या मेरा ध्यान तेरे उपर नही रहेगा , मेरा तेरे उपर विशेष ध्यान है , ध्यान रखना इस बात का ।
मास्टरजी के जाने के बाद यदुराज भव्या से पूछता है तुमने मास्टरजी से झूठ क्यो बोला ?
भव्या - अगर मै झूठ नही बोलती तो मास्टरजी तुझे मारते ।
यदुराज - लेकिन इसका मतलब ये तो नही की तुम झूठ बोलकर पाप करो ।
भव्या - ' अगर तुम्हे बचाने के लिए हजार झूठ बोलकर हजार पाप भी करने पड़े तो मै उन हजार पापों को करने को तैयार हु ।
यदुराज - अच्छा , सच मे ऐसा करोगी तुम ।
भव्या - कभी वक्त पड़े तो आजमा लेना ।
यदुराज - फिर ठीक है , कभी वक्त पड़ा तो जरुर आजमाऊंगा ।
इसके बाद दोनो एक साथ हँस पड़ते है ।
एक दिन भव्या ज्यादा व्यस्त रहने के कारण गृहकार्य करना भूल गई , मास्टरजी कॉपिया चेक करने लगे तो भव्या का गृहकार्य नही किया हुआ था । मास्टरजी गुस्से से भव्या से कहने लगे खड़ी हो जा , आज तो तेरी खैर नही , इस यदुराज वाली पट्टी पर बैठते बैठते तूने इसकी पट्टी कब पढ़ ली पता ही नही चला । आज तो मै तुझे भी सुधार कर रहूंगा । जा धर्मू एक डंडा ले आ ।
धर्मू आनन फानन मे डंडा ले आया ।
यदुराज - मास्टरजी ! भव्या से कुछ मत कहना , जो कहना है मेरे से कह लो , इसने तो गृहकार्य किया था , मैने ही इसकी कॉपी फाड़ कर फेक दी ।
यदुराज आज पहली बार झूठ बोल रहा था ओर वो भी भव्या को बचाने के लिए ।
भव्या - नही मास्टरजी , मैने गृहकार्य नही किया , ये ऐसा इसलिए कह रहे है ताकि मार नही पड़े ।
मास्टरजी - आज मार तो तुझे पड़ कर ही रहेगी भव्या , मै भी तो देखु आज तुझे कौन बचाने आता है । जैसे ही मास्टरजी ने भव्या को मारने के लिए डंडा उठाया यदुराज तुरंत मास्टरजी के हाथ से डंडा छीन कर खिड़की के पीछे से भाग गया । मास्टरजी के 2_ 3 पक्के वाले चेले यदुराज के पीछे - पीछे भगे । सामने एक तकरीबन 6 फ़ीट उच्ची दीवार थी यदुराज उस दीवार को कूद कर भग गया , चेलो से वो दीवार कुदी नही गई ओर वो धड़ाम - धड़ाम करके नीचे गिर गये । भागता भागता सरसो के खेत मे जाकर ओझल हो गया । उसने शाम तक का इंतजार किया । शाम को जब छुटी हुई तब वह भी सब बच्चों के साथ हो लिया ।
यदुराज घर नही पहुंचा उससे पहले पाठशाला के चपरासी करणसिंह द्वारा उसकी शिकायत उसके घर पहुंच चुकी थी । यदुराज शाला से छुटी होने ओर घर जाने के दरम्यान जो समय लगता था उसी समय के हिसाब से घर पहुंचा ताकि घर वालों को ये नही पता लगे की वो विधालय से आज भी भाग गया था । बागान के सामने आरामकुर्सी पर कृष्णमूर्ति जी एक हाथ मे चाबुक लेकर दूसरे हाथ से उसको बार - बार निरीक्षित कर रहे थे । चपरासी करणसिंह ओर घर का नौकर बलिया हाथ बांधे खड़ा था । जैसे ही यदुराज घर मे दाखिल हुआ उसकी निगाह चाबुक ओर करणसिंह पर एक साथ पड़ी । वह समझ गया था की अब उसकी शिकायत घर पहुंच चुकी है ओर उसके पास अब बचने का कोई चारा नही है । वह नजर झुकाये चुपचाप अंदर जाने लगा । लेकिन अचानक से कृष्णमूर्ति जी आ खड़े हुए । ऐसे नजरें झुका कर कहा जा रहा है । यदुराज ने कोई प्रतिउतर नही दिया ।
कृष्णमूर्ति - मैने कुछ पूछा है , आज पाठशाला मे क्या किया ? मास्टरजी का डंडा छीन कर ओर धक्का देकर क्यो भागा ।
धक्का तो मैने नही दिया , हालांकि डंडा छीनकर जरूर भागा था यदुराज मन में सोचता हुआ बोलने की कोशिश करने लगा , किन्तु मारे झिझक के उससे बोला नही गया ।
मन ही मन करणा को जी भरकर गाली देता रहा , की मैने इसका क्या बिगाड़ा है , पाठशाला का चपरासी है तो पाठशाला तक रहे , घर मे आकर भी मुझे पिटवाने के बहाने ढूंढने लग गया । हाय राम ! झूठ बोलते हुए इसे जरा सी भी शर्म नही आती ,
मैने सिर्फ डंडा छीना ओर इसने एक बात की दो बात लगाकर घरवालों को बता दी ।
अब तक तो मै इसकी उम्र का लिहाज करता रहा लेकिन जब हिसाब करने लायक हो जाऊंगा तो इसका हिसाब फुरसत से करूंगा , इसकी वर्षो की तबियत हरी हो जाएगी ।
वह खामोश खड़ा सुनता रहा ।
कृष्णमूर्ति जी ने चाबुक की मार लगाना शुरु किया , यदुराज चुपचाप चाबुक की मार खाता रहा , मुह से उफ़ तक नही निकला । परदादी जमना देवी जो लगभग जीवन की अंतिम अवस्था मे थी , अपना चश्मा ठीक करते हुए आई ओर यदुराज को गले लगा लिया ओर कृष्णमूर्ति को डांटते हुए बोली निर्दयी जरा भी दया नही आती , इतने मासूम से मेरे पड़ोते पर चाबुक चला रहा है । धनसिया ने भी क्या कभी तुझ पर चाबुक चलाये थे क्या ?
यदुराज अपनी परदादी के लिपट कर फफक फफक कर रो पड़ा ।
अरे चुप हो जा बेटा , तु तो समझदार है , समझदार बच्चे ऐसे नही रोते है ।
चाबुक की मार इतनी असहनीय थी की यदुराज से बैठा भी नही जा रहा था । शरीर पर जगह जगह नीले निशान हो गये थे । मार ज्यादा पड़ने की वजह से शरीर मे रात मे ताप देकर बुखार आ गया था । रातभर परदादी जमना देवी , दादी चारुला देवी , माताश्री तीनो घर की लक्ष्मिस्वरूपा देवी अपने लाडले पड़ोते , पोते , ओर बेटे के पानी की पट्टिया भिगोकर लगाती रही । रात के आखिरी पहर मे पड़दादी ओर दादी को थकान की वजह से नींद आ गई किन्तु माँ अपने बेटे के पास बैठी रही । माँ की ममता थोड़ी ओर ज्यादा बैचेन हुई तो बेटे का सर उठाकर अपनी गोद मे रख लिया ओर बालो मे हाथ सहलाने लगी , बेटे को नींद आ गई । लेकिन वो नींद मे भी कुछ बड़बड़ा रहा था । माँ ने थोड़ा ध्यान लगाकर सुनने के लिए कानो को छाती के पास ले गई । " नही गुरुजी " भव्या ने तो गृहकार्य कर लिया था मैने ही इसके पेज फाड़ दिये , डंडे लगाने है , मार लगानी है या जो भी सजा देनी है मुझे दो । भव्या निर्दोष है उसको छोड़ दो । माँ को समझते देर नही लगी , अच्छा तो ये वही भव्या है जिसकी वजह से मेरे लाडले को गुरुजी को धक्का देकर भागना पड़ा ओर घर पर इसकी पिटाई हुई । एक बार ये भव्या नाम की आफत मेरे सामने आ जाये फिर देखना मै इसकी क्या खातिर करती हु । तबियत ज्यादा खराब होने की वजह से यदुराज पाठशाला नही जा पाया । भव्या ने देखा यदुराज नही आया , आज मास्टरजी भी उस पर गुस्सा नही थे , ना ही अपने उदंड चेलो की सेना को उसका पता लगाकर पकड़ कर लाने के लिए भेजा । भव्या के मन मे सैकड़ो सवाल चल रहे थे आखिरकार आज यदुराज आया नही तो क्यो नही आया । एक दिन बीता, दो दिन बीते , तीसरे दिन भव्या ने अपनी सखी नीरू से कहा - ' नीरू देख तो ! यदुराज आजकल पाठशाला नही आ रहा , कही उसने पढ़ाई तो नही छोड़ दी ।
नीरू - ऐसी तो बात नही होनी चाहिए , वो जरूर ही किसी मुसीबत मे होगा ।
भव्या - नही , नही ; भगवान करे वो किसी मुसीबत मे नही हो
एक काम करे नीरू आज क्यो ना हम दोनो छुटी के बाद या आधी छूटी मे यदुराज के घर चलते है उसे देख भी आएंगे ।
कैसा है वो
नीरू - ठीक है भव्या ।
आधी छुटी मे दोनो यदुराज के घर जाती है ।
सामने के गेट पर पहरा देने वाला पवन देशमुख तम्बाखू ओर पान खाने बगल मे चला गया था क्योकि पहरा देते समय तम्बाखू खाना मना था । इसलिए वो चोरी छिपे तम्बाखू खाने गया था । इसी दौरान भव्या ओर नीरू घर के अंदर प्रवेश कर गई । हालांकि उन्हे इस बात का पता नही था की घर पर कोई पहरेदार है । थोड़ा अंदर गई तो घर की कामदार पुष्पा बाई झाड़ू पोंछा के लग रही थी । नीरू ने उससे पूछा की यदुराज कहा है । इशारे से उसने यदुराज का कमरा बता दिया ।
दोनो यदुराज के कमरे मे पहुंच गई । वहा पहुंच कर देखा तो यदुराज पलंग पर लेटा हुआ है ओर ठंडी पट्टी सर पर रखी हुई है । नीरू ने आवाज़ दी यदुराज । एक चिर परिचित सी आवाज़ कानो से सुनकर यदुराज झट उठकर बैठा हुआ । आँखे खोलकर सामने देखा तो भव्या ओर नीरू खड़ी है ।
यदुराज - भव्या तुम , यहां !
भव्या - आ नही सकती क्या ?
यदुराज - आ क्यो नही सकती , तुम्हारा ही तो घर है । ये बताओ जब तुम सामने के रास्ते से आई तो तुम्हे पहरेदार ने रोका नही क्या ? उसने तुमसे पूछा नही क्या की किस से मिलना है ?
भव्या - नही तो, जब हम अंदर आये तो यहां कोई पहरेदार नही था ।
यदुराज - पवन देशमुख शायद तम्बाखू खाने गया , इसलिए उसकी शायद तुम पर नजर नही पड़ी ।
भव्या - आपको मेरा आना अच्छा नही लगा शायद , तभी सोच रहे हो पहरेदार होता तो रोक लेता ।
यदुराज - ऐसी बात नही है भव्या तुम्हारा आना मुझे सुकून दे रहा है ।
भव्या - अच्छा ये बताओ पिछले 2 दिन से पाठशाला क्यो नही आये ।
यदुराज - कुछ नही भव्या , ऐसे ही तबियत खराब हो गई थी ।
भव्या - मै भी तो देखु, जैसे एक कुशल वैध नब्ज जांचता है वैसे ही हाथों की नब्ज जांचती है । तुम्हे तो बुखार है, अब ज्यादा बड़बड़ मत करो चुपचाप लेट जाओ । मै तुम्हारा पैर ओर सर दबा देती हु ।
यदुराज - हँसते हुए ही ही ही ........
तुम मेरा सर दबाओगी ,
तुम मेरा पैर दबाओगी ।
तुम्हे पाप नही लगेगा क्या ?
भव्या - जब आप मेरे लिए मार खा सकते हो, तो मै आपका सर क्यो नही दबा सकती ।
नीरू चुपचाप बैठी रहती है ।
भव्या हल्के हाथों से यदुराज का सर दबाती है , सर दबाने के बाद वो पैर दबाने लगती है । इतने ही समय मे यदुराज की माताश्री वैदेही देवी उसके लिए दोपहर का खाना लेकर आ जाती है । सामने निगाह जाती है तो देखती है उसके लाल की जितनी ही उम्र की एक अत्यंत सुंदर किशोरी उसके पैर दबा रही थी । मन को थोड़ी शांति मिलती है । पास जाने पर भव्या ओर नीरू उसके चरण छुती है । नीरू प्रश्न पूछती है चाची जी ये सब कैसे हुआ ?
यदुराज परसो तक तो भला चंगा था , फिर अचानक से इतना बीमार कैसे हुआ ।
वैदेही - क्या बताऊ बेटी, मेरे बेटे के क्लास मे कोई भव्या नाम की छोरी पढ़ती है । उसकी पिटाई हो रही थी तो मेरा बेटा मास्टर की छड़ी छीन कर भाग गया । जिसकी वजह से इसके पिता ने इसे चाबुक से मारा । इसी से इसके बुखार आ गया । अरे ये तो पागल है , कुछ भी कर देता है । अगर वो चुड़ैल मेरे सामने आ जाये तो मै उसका मुँह नोच लु । भव्या की तरफ देखते हुए , एक तुम हो जो कितने मन से यदुराज की दवा दारु कर रही हो । एक वो चुड़ैल है जिसकी वजह से मेरे जिगर के टुकड़े का ये हाल हुआ । अगर वो चुड़ैल मेरे सामने आ जाए ना तो उसका मुँह नोच खाऊ ।
यदुराज - ये तुम क्या कह रही हो माँ, कुछ भी अनाप सनाप बोले जा रही हो ।
वातावरण में सन्नाटा पसरा । दों मिनट की चुपी रही ।
निस्तब्धता ओर चुपी को तोड़ते हुए आँखो मे आंसु लिए भव्या वैदेही के सामने आ खड़ी हुई ।
आपकी गुनहगार आपके सामने हाजिर है , नोच लीजिये मेरा मुँह ।
वैदेही - कैसी बात कर रही हो बेटा , ये सारा कसूर तो उस भव्या का है तुम खुद को दोषी क्यो मान रही हो ।
भव्या - जी मै ही भव्या हु ।
वैदेही - चौकते हुए , क्या ? नही तुम भव्या नही हो सकती ।
भव्या - मै भव्या ही हु , ओर आपको ऐसा क्यो लगता है की मै भव्या नही हो सकती ।
वैदेही - मैने सुना है की वो भव्या नाम की लड़की ने मेरे बेटे को ऐसे ही पिटवा दिया ।
नीरू बीच मे बात काटते हुए नही_ नही चाची जी , आपको जरूर कुछ ना कुछ गलतफहमी हुई है या किसी ने ऐसे ही उल्टा सीधा सीखा दिया ।
वैसे किसने बताई आपको ये बात ।
वैदेही - वो तुम्हारी पाठशाला का चपरासी है ना करणसिंह उसने यदुराज के पिताजी को बताई थी ।
नीरू - चाचीजी आप नही जानती वो करणा कितना बड़ा झूठा है , झूठ बोलता है वो पूरे दिन , पाठशाला में भी तम्बाखू खाने से बाज नही आता , उसने 2_ 3 बार झूठ बोल कर यदुराज को पिटवा दिया । ओर तो ओर चाची जी आप किसी से कहो नही तो आपको एक बात बताऊ ।
वैदेही - बताओ , मै किसी से नही बताउंगी ।
नीरू - वो चपरासी है ना करणा वो पाठशाला से बच्चों के लिए आने वाले गेहूं में से गेहूं निकाल कर बेचता है ओर उन रुपये से बीड़ी पी जाता है ओर तम्बाखू खा जाता है ।
वैदेही - नाश हो उस सत्यानाशी करणा का , अब मेरे समझ मे आया उसकी लुगाई उसके पास क्यो नही रुकी । बुरे काम का बुरा नतीजा । हर किसी की माँ - बहन , बेटियों पर बुरी नजर डालेगा , ओर चोरी चकारी करता फिरेगा तो उसे सजा तो मिलेगी ही , क्या गृहस्थी सुख मिलेगा । हाय मेरे बेटे को कितनी बार झूठ बोल - बोलकर पिटवा दिया ।
अच्छा ठीक है चाची मै चलती हु भव्या ने कहा ।
वैदेही - चाची नही तु मुझे माँ कहा कर ।
भव्या - ठीक है तो माँ मै चलती हु ।
वैदेही - अच्छा सुनो , यहां आती रहा करो , इस घर को अपना ही घर समझो , ओर यदुराज को पाठशाला तुम लेकर जाओ तो अच्छा रहेगा ।
भव्या ओर नीरू चली जाती है । वैदेही उसे गली के आखिरी छोर तक छत से जाती हुई देखती है ।
वैदेही , ओ वैदेही ! चारुल देवी का स्वर वैदेही के कानो मे पड़ता है ।
वैदेही - हा , माँ जी !
चारुल - कहाँ खो गई
वैदेही - कही नही माँ जी, वो लड़की देख रही हो नीले सुट वाली ।
चारुल - हा देख रही हु, क्या हुआ जो ?
वैदेही - वो भव्या है , अपने यदुराज के साथ पढ़ती है । बहुत ख्याल रखती है आपके पोते का । मै सोच रही थी आप उसें अपने घर की बहु बना देते ।
चारुल - कुछ खानदान की इज्जत की भी परवाह है क्या ? उसका कुल , गौत्र मालूम है क्या ? अगर पंडिताइन भी है तो कोनसी ?
वैदेही - माँ जी वो सब तो मुझे नही पता , मै तो इतना जानती हु लड़की अच्छी है , लक्ष्मीस्वरूपा है ।
चारुल__ सिर्फ अच्छा होना पर्याप्त नही होता । शादी - विवाह बहुत सोच समझ कर किये जाते है । समाज मे ऊँच - नीच , मान _मर्यादा को देख कर किये जाते है । ओर घर मे चौखट मिलते किवाड़ ही चढ़ाये जाते है , चौखट ओर किवाड मे ज्यादा अंतर हो तो चौखट या किवाड़ दोनो मे से एक खराब हो जाते है । ओर अभी तो मेरा पोता यदुराज 12 बरस का ही हुआ होगा अभी से उसके विवाह की इतनी क्या फ़िक्र , अभी तो उसे खेलने खाने दे , अभी तो उसके खेलने खाने के दिन है ।
वैदेही - शादी की अभी कौन बात कर रहा है माँ जी , मै तो सोच रही थी रिश्ता पक्का कर लेते है , शादी करते रहेंगे ।
चारुल - वो बाद की बात है बाद मे देखेंगे ।
दोनो अपने अपने काम मे लग जाती है ।
दूसरे दिन जब कृष्णमूर्ति जी तैयार होकर कचहरी के लिए निकल रहे थे तब उन्होंने देखा दो बालिकाएं घर के दरवाज़े पर खड़ी है , पहरेदार पवन देशमुख ने उनका रास्ता रोक रखा है ओर उन्हे अंदर नही आने दे रहा है । इन्हे अंदर आने दो कृष्णमूर्ति पहरेदार को आदेश देता है ।
दोनो बालिकाएं अंदर आती है । दोनो बालिकाएं कृष्णमूर्ति के चरणों को स्पर्श करके प्रणाम करती है , खुश रहो कृष्णमूर्ति दोनो के सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देता है । किसकी बेटी हो तुम जो इतने अच्छे संस्कार है ।
भव्या - जी मै भागलपुर के महाजन श्रीपाद जी की कन्या भव्या और ये मेरी सखी पंडित वीरेन्द्र जी की सुपुत्री नीरू है ।
कृष्णमूर्ति - पंडितो के बच्चे भीड़ मे अलग ही दिख जाते है , खैर भव्या तुमने भी नीरू के साथ इसकी संगत मे रहकर बहुत कुछ सीखा है , बस मेरा बड़ा बेटा यदुराज और मेरी बेटी सीमा नीरू की संगति मे रहकर इसके जैसे लक्षण ले ले तो मेरा भी जन्म सुधरे ।
छोटा बेटा अजयराज तो समझदार है । देखना एक दिन वही मेरे घर का असली वारिश बनेगा , वही मेरे नाम को और बुलंदियों पर लेकर जायेगा ।
भव्या - सीखना चाहिए आदमी को पंडित जी , भले ही किसी से भी सीखे ।
कृष्णमूर्ति - बड़ी तेज हो तुम बोलने मे , खैर ये बताओ यहां किससे मिलने आई थी ।
भव्या - जी वो माँ जी ने कहा था यदुराज को पाठशाला लेकर जाना ।
कृष्णमूर्ति - अच्छा है , अगर तुम ले जा सको तो , मै तो लेकर जाते - जाते थक गया । ठीक है जाओ अंदर ।
दोनो अंदर जाती है , यदुराज जो अभी तक चारपाई पर पड़ा था झट खड़ा हुआ । तुम पाठशाला जा रही हो क्या भव्या ?
भव्या - हां
यदुराज - मै अभी पांच मिनट मे तैयार होकर आया , यदुराज तैयार होने जाता है इतने समय मे ही उसकी माताजी वैदेही देवी आ जाती है । भव्या और नीरू को देखकर वो खुश होती है । आ गई तुम , ठहरो , मै तुम्हारे लिए कुछ नाश्ता लगा देती हो ।
भव्या - मना करते हुए , नही - नही माँ जी , इसकी कोई जरूरत नही है हम घर से खा पीकर निकले थे ।
वैदेही - इसका मतलब तुम इस घर को अपना घर नही समझती हो , पराया घर समझती हो ।
भव्या - ऐसी तो कोई बात नही है माँ जी , बस भूख नही है ।
वैदेही - अरे जितनी है उतनी खा लो , कामदार बाई पुष्पा को झटपट नाश्ता लगाने को कहा जाता है तबतक यदुराज भी पाठशाला के लिए तैयार होकर आ जाता है । चारो ने मिलकर गरमा - गरम पकोड़ी और चाय पी । उसके बाद भव्या यदुराज का हाथ पकड़े सीधे पाठशाला आ गई । पढ़ाई शरू हुई । आज यदुराज पढ़ने के बजाय अपनी कॉपी मे कुछ कर रहा था । हेडमास्टर श्रीकांत पढ़ा रहे थे । जल्द ही उन्होंने ताड़ लिया की यदुराज का पढ़ाई मे ध्यान नही है । यदुराज बेटा जरा इधर आना । हेडमास्टर साहब ने यदुराज को इशारे से अपनी तरफ बुलाते हुए कहा । यदुराज उठकर जाने लगा । वो कॉपी भी लेकर आओ बेटा । जी गुरुजी यदुराज डरते डरते कॉपी लेकर पहुँचता है । आज पुरी क्लास को यही लग रहा था की आज तो यदुराज गया काम से । धर्मू आनन फानन मे डंडा लाने की तैयारी करने लगा । गुरुजी ने इशारे से उसे बैठा दिया । हेडमास्टर साहब ने कॉपी देखी , गुस्से से यदुराज की तरफ देखा , यदुराज थोड़ा डरकर पीछे सरका , गुरुजी ने मुस्कुराकर उसे गले से लगा लिया । शाबाश मेरा बेटा । इतनी अच्छी कला भरी है तुममें । दरअसल वो यदुराज ने भव्या का चित्र बनाया था । चित्र ऐसा बनाया था की कोई मंजा हुआ चित्रकार भी नही बना सके । चित्र देखकर ऐसा लगता था की चित्र अब बोल पड़े ।
शाबाश बहुत आगे तक जाओगे तुम । यदुराज को आज माँ, दादी और परदादी के अलावा ऐसा आशीर्वाद पहली बार मिल रहा था । आँखो से अश्रुधारा बह निकली , झुककर गुरुजी के चरण छुए । थोड़ा मजाक करते हुए बोले , दुनिया पागल है कितनी झूठ बोलती है की यदुराज बड़ा नालायक और अकड़ू है मै तो कहता हु इसके जैसा लायक जहान मे नही है , खैर हीरे की परख जोहरी ही जानता है । खाना खाने के लिए आधी छुटी होती है ।
आधी छूटी मे यदुराज , नीरू , भव्या, नवीन और रमिया पांचो एक साथ आम के पेड़ के नीचे बैठते है ।
भव्या - आप उस दिन मास्टरजी का डंडा छीन कर क्यो भागे ?
यदुराज - तुम्हे कोई हाथ लगाना तो बहुत दूर की बात है , आँख भी दिखाए तो मेरे तो बर्दास्त से बाहर है
भव्या - अच्छा इतनी फ़िक्र करते हो मेरी ।
यदुराज - हा , उससे भी कही ज्यादा ।
भव्या - लेकिन इसका मतलब ये तो नही है की तुम मास्टरजी का ही डंडा छीन कर भाग जाओगे ।
यदुराज - तुम्हारे लिए तो मै जमाने से भीड़ जाऊ और तुम मास्टरजी को ही लेकर बैठी हो ।
भव्या - थोड़ा हँसते हुए , पागल , तुम इन दोनो हाथों से जमाने का मुकाबला कैसे करोगे ।
यदुराज - मेरे हौसले, तुम्हारी प्रार्थना और माँ के आशीर्वाद से ।
इसी तरह कई दिन बीत जाते है ।
पदमपुरा को विशेष 2 चीजे बनाती थी , उन दोनो को देखने लोग दूर - दूर से आया करते थे । एक तो पंडित कृष्णमूर्ति की हवेली , दूसरा पदमपुरा का रामनवमी मेला , जिसमे हजारो की तादाद मे लोग इक्क्ठा होते थे । मेले की पूर्व तैयारी शुरु हो चुकी थी । मैदान की घास को काटकर खुदाई करके साफ सुथरा किया जा रहा था । यदुराज को कुछ दिनों पहले तक एक ही पंसदीदा शौक हुआ करता था अब उसके पंसदीदा शौक 2 हो चुके थे । उसका पहला पंसदीदा शौक हुआ करता था कहानियो की किताबे पढना , जिसके लिए वो सालभर पैसे जोड़ता और फिर ढेर सारी कहानियो की किताबे ले आया करता था । उसका दूसरा शौक हो गया था चित्रकारी जो उसे कुछ दिनों पहले ही लगा था जब उसने पहली बार भव्या का चित्र बनाया था और हेडमास्टर साहब उसके उस चित्र की तारीफ करते करते थके नही थे । यदुराज को पता था मेले मे इस बार भी ढेर सारी किताबे आएगी , और चित्र बनाने की सामग्री रंग व ब्रश । इसलिए वो पहले से ही पैसे जोड़ने लग गया था । हालांकि घर मे उसे कोई पैसे नही देता था कभी कभी परदादी जमना देवी अपने कमीज की जेब से 10 रुपये का नोट निकाल कर दे देती थी जिसे वो बड़े इत्मीनान से अपनी गुलक मे रख लेता था । इस बार वो मेले को लेकर बहुत ज्यादा उत्साहित था क्योकि उसे भव्या के रूप मे एक सच्चा साथी मिल गया था । सोमवार को मेले का आयोजन होना था । शनिवार को ही पाठशाला मे यदुराज ने भव्या और नीरू को मेले का निमंत्रण दे दिया ।
सोमवार को मेला लगना शुरु हुआ । नीरू ओर भव्या यदुराज की बताई जगह पर आ खड़ी हुई । नवीन ओर रमिया यदुराज के साथ पहले से ही वहा खड़े थे । मेले मे तरह तरह की दुकाने - कई प्रकार के जूस , चाट पकोड़ियों की दुकाने , तरह तरह की मिठाईया, ऊँचे - ऊँचे झूले । मेले मे कोई डरते डरते झूले पर झूल रहा है । कोई तरह तरह के रस पी रहा था । यदुराज की जेब मे तक़रीबन 150 रुपये थे । वो भव्या का हाथ पकड़े अपने संगी साथियो के साथ पुस्तकों की दुकान ढूंढ रहा था । जल्द ही उसे पुस्तक की दुकान मिल गई । झटपट यदुराज ने 70 रुपये मे अच्छी - अच्छी सात पुस्तके खरीद डाली । 80 रुपये बचा लिए की इनसे भव्या के लिए कुछ खरीदेगा । भव्या का हाथ पकड़े वह एक दुकान पर आ गया । वहा उसने एक छोटी अंगूठी खरीद कर भव्या को दे दी । भव्या उसके मुँह की तरफ देखती रह गई । एक मिनट की खामोशी के बाद. भव्या ने प्रश्न किया ।
भव्या - तुमने सारे रुपियो की किताबे ले ली , फिर जो बचे उससे मुझे अंगूठी लेकर दे दी । तुमने खुद कुछ क्यो नही लिया ।
यदुराज जेब मे से पैसे निकालते हुए ओर किताबे दिखाते हुए भव्या को बोला की लिया है ना , ये किताबे ओर बचे हुए पैसो से लूंगा रंग व ब्रश ।
भव्या - क्या करोगे इन ढेर सारी किताबों का , तथा रंग व ब्रश का ।
यदुराज - इन कहानियो की किताबो को पढूंगा तथा रंग व ब्रश से चित्र बनाऊंगा ।
भव्या - किसका चित्र बनाओगे ।
यदुराज - है कोई , वक्त पड़ने पर बना हुआ चित्र दिखा दूंगा ।
भव्या - एक हाथ से सर पर ऊँगली रखते हुए, पागल ।
फिर पांचो मिलकर एक साथ हँसते है । शाम तक सब अपने_ अपने घर लौट जाते है ।
अगले दिन विधालय फिर से शुरु हुआ । बद्रीप्रसाद उपाध्याय जी के पीरियड के बाद भव्या ने फुसफुसाते हुए कहा यदुराज ..... ओ यदुराज ... ।
यदुराज - हा , भव्या ।
भव्या - मै कल अपने ननिहाल जा रही हु , किसी शादी मे; तो मै 2_ 3 दिन विधालय नही आउंगी ।
यदुराज उदास होकर, थोड़ा मुँह बनाकर ,
क्या कहती हो भव्या ? क्या तुम्हारा जाना इतना जरूरी है ? मै कैसे रहूंगा ओर वो भी पूरे तीन - चार दिन ।
भव्या - अरे मै क्या करू, मामा जिद पकड़ कर बैठे है की भव्या को जरूर लाना ओर मै लाख जतन करू तो भी मुझे जाना ही पड़ेगा । मम्मी भी कह रही है की भव्या चलना है , मतलब चलना है । अब तुम्ही बताओ मै क्या करू ?
यदुराज - वो सब तो मुझे नही पता , मै तो सीधी सी एक बात जानता हु तुम्हारे बिना ये 3 दिन मेरे विधालय मे बहुत भारी रहेंगे ।
भव्या - अब कर भी क्या सकते है ।
अगले दिन यदुराज विधालय के लिए घर से निकला , रास्ते मे उसने सोचा जब भव्या ही नही आ रही तो मै आकर क्या करूंगा । रास्ते मे उसने अपने बस्ते को छिपाने के लिए गाँव की सुनसान हवेलियो का रास्ता इख्तियार किया । उधर से गुजरते हुए भैरूसिंह पांडे ने सोचा ये लड़का आखिरकार कर क्या रहा है , कहा जा रहा है ? यह पता लगाने के लिए वह यदुराज के पीछे - पीछे हो लिया । रामलाल की सुनी पड़ी हवेली मे यदुराज ने अपने बस्ते को डाल दिया , ओर यह निश्चिन्त करके की किसी ने नही देखा मंदिर की तरफ चला गया । पांडे जी जो अब तक दीवार के पीछे छिपकर उसकी हरकतों को देख रहे थे । यदुराज के जाते ही फ़ौरन बाहर आये ओर उसके बस्ते मे से किताबे निकालकर रद्दी भर दी । विधालय की छुटी होने के समय के नजदीक जब यदुराज हवेली मे अपना बस्ता उठाने गया तो बस्ता अपेक्षाकृत थोड़ा हल्का लगा । खोल कर देखा तो रद्दी कागज़ भरे पड़े है , लेकिन घर तो बस्ता लेकर ही जाना पड़ेगा अन्यथा चोरी पकड़ी जाएगी , कॉपी किताबे फिर लेते रहेंगे । यही सोचकर यदुराज बस्ते को उठाकर घर पहुंच गया । उसके पहुंचने से पहले पांडे जी ने पहुंच कर थोड़ी देर पहले ही सारा हाल बताया था लेकिन यदुराज इस बात से बेखबर था ।
कृष्णमूर्ति द्विवेदी गुस्से से लाल पीला हो रहे थे यदुराज के पहुंचते ही उसे बोले तुम्हारे बस्ते मे से कॉपी ओर पेन देना । यदुराज जानता था की उसके बस्ते मे कॉपी पेन नही है इसलिए उसने बहाना बनाया की अभी कपड़े बदल कर आ रहा हु आते समय कॉपी ओर पेन लेते आऊंगा ।
मुझे कॉपी ओर पेन अभी चाहिए द्विवेदी जी ने स्पष्ट शब्दों मे कहा , अब क्या करे अब तो चोरी पकड़ी गई , अनमने मन से यदुराज द्विवेदी जी के पास पहुंचा । द्विवेदी जी ने बस्ता खोला तो किताबों की जगह रद्दिया भरी पड़ी थी । पेन की जगह सरकंडो के टुकड़े भरे पड़े थे ।
ये सब क्या है द्विवेदी जी ने यदुराज की तरफ गुस्से से देखते हुए कहा ।
यदुराज - कुछ नही , मै तो किताब डालकर पाठशाला गया था , ये रास्ते मे क्या हो गया मुझे नही पता ।
कृष्णमूर्ति - तुम नही जानते इसका मतलब , की ये कॉपी की जगह रद्दिया ओर पेन की जगह सरकंडो के टुकड़े तुम्हारे बस्ते मे कैसे आ गये ।
देखा पांडे जी अब तो ये झूठ भी बोलने लग गया । अरे क्या कुछ नही किया था तेरे लिए मैने , तेरे जन्म के लिए कितनी प्रार्थनाये की थी , तेरी माँ ने तो ना जाने कितने संतान गोपाल स्त्रोत का पाठ किया था की उसके उसके अच्छे लक्षण वाला पुत्र हो । उस दिन जब ये पैदा हुआ तो बरसात पूरे जोर पर थी । हमारी गाडी खराब पड़ी थी , आसपास के गाँवों से गाडी का बंदोबस्त किया । तुझे जन्म देते ही तेरी माँ बेहोस हो गई , डॉक्टरों ने भविष्यवाणी की की जच्चा या बच्चा मे से एक ही बचेगा पर तु बच गया । उस दिन मारे खुशी के मेरी एक चप्पल पैर मे ओर दूसरी का ठिकाना ही नही था । कुछ अशुभ देखकर पंडितो से तेरी कुंडली दिखाई उन्होंने अशुभ घड़ी का जन्म बताकर तुम्हे हमारे लिए अशुभ बताया । तुझे अशुभ समझकर त्यागने के बजाय श्रीकृष्ण भगवान का पुण्यप्रसाद समझकर मैने तेरा नाम यदुराज रखा । बोलते - बोलते पंडित जी की आँखे कुछ नम हुई । ओर आप देख रहे है पांडे जी इसके कोई फर्क ही नही पड़ता । इसकी वजह से मेरी आत्मा रोज छलनी होती है ओर इसके कोई फर्क ही नही पड़ता । अरे तेरे से तो लाख गुना मेरा छोटा बेटा अजयराज है । तेरे को जितनी मौज मस्ती करनी थी , कर ली । तेरे को जितना घूमना था, घूम लिया । आज से तेरा घर से बाहर निकलना बंद । आज से तु पाठशाला भी नही जायेगा । अपने ही गाँव के 2 मास्टर जो अजय को पढ़ाने आते है आज से वो ही घर आकर तुझे भी पढ़ा कर जाया करेंगे ।
यदुराज का घर से निकलना प्रायः बंद हो गया । घर पर ही 2 मास्टर आकर तीनो बहन भाइयो को शिक्षा देने लगे । यदुराज घर से बाहर ना जाने के कारण प्रायः गुमसुम सा रहने लगा , उसे गाँव के उन्मुक्त वातावरण की , भव्या की , अपने सहपाठियों की यादे जेहन मे बनी रहती थी । मास्टरजी द्वारा पढ़ाये जाने के दौरान उसका ध्यान भव्या,उसके दोस्तों के इर्द गिर्द ही रहता । उसका मन बहुत होता था की भव्या से मिले , उसके साथ वैसे ही घूमे, उन पांचो दोस्तों की मित्र मंडली फिर से वही धमाचौकड़ी मचाये परन्तु अब उसके खाने से लेकर सोने तक, उठने से लेकर बैठने तक , बोलने से लेकर सोने तक उसकी हर चीज पर पहरा था । हर चीज पर पहरा होने के बाद भी वह एक काम खुले तौर पर कर लेता था , भव्या को याद , क्योकि यादो पर किसी का पहरा नही होता । मास्टरजी ने पढ़ा कर तीनो बहन भाइयो को कॉपी मे काम करने के लिए दिया । यदुराज का छोटा भाई अजयराज पढ़ने मे होशियार था उसने झटपट से अपना काम कर लिया । मास्टरजी ने सीमा ओर यदुराज की भी कॉपी चेक की , धीमे ही सही लेकिन सीमा अपने काम के लगी हुई थी । लेकिन ये क्या यदुराज को बोला गया पूर्व दिशा मे जाने के लिए ओर वो जा रहा था पश्चिम दिशा मे । वो अपना दिया हुआ काम भूल कर भव्या का चित्र बनाने की कोशिश कर रहा था । चित्र बनाने की प्रक्रिया के दौरान उसने केवल मुख का ही चित्र बनाया था , केश सृजन करना बाकी था जिस कारण चित्र किसका है इस बात की पहचान करना थोड़ा मुश्किल था । कोई गहन परिचित व्यक्ति जिसने इस चेहरे को आत्मा की गहराइयों से अनुभूत किया हो वही पहचान सकता था ।
मास्टरजी का माथा ठनका ,
ये क्या कर रहे हो ? मैने तुम्हे जोड़ घटाव करने के लिए दिये है ओर तुम हो की लीक से हटकर चल रहे हो । सवाल निकालने के बजाय चित्र बना रहे हो । शाम को आना द्विवेदी जी को , तुम्हारी खबर देता हु ।
यदुराज अध्यापक जी के चरण पकड़ता है , गुरुजी माफ़ी दे दो , गलती हो गई , मै कोशिश करता हु गलती नही हो , फिर भी गलती हो ही जाती है ।
मास्टरजी - ऐसे नही सुधरोगे तुम । तुम लातो के भूत हो जो बातो से कभी भी नही मान सकते । बस आज तो शाम को कृष्णमूर्ति जी द्विवेदी जी आ जाये तो तुम्हारा हिसाब करवा दे ।
शाम को कोर्ट कचहरी के काम से लौटकर द्विवेदी जी आते है । मास्टरजी तो बस शिकायतों की पोट बांधकर उनका इंतजार कर रहे थे ।
द्विवेदी जी के घर मे प्रवेश करते ही नौकर बलिया उनसे डायरी ओर कलम रखकर ठिकाने पर रख आता है । द्विवेदी जी की निगाह मास्टरजी पर पड़ती है
मास्टरजी क्या बात है आज इतनी लेट तक गये नही ?
मास्टरजी - आज हमारा हिसाब कर दो , जहा हमारी कद्र नही हमे नही पढ़ाना ।
द्विवेदीजी - कुछ हुआ भी होगा मास्टरजी ।
मास्टरजी - होता तो क्या आपके सुपुत्र यदुराज के सामने तो हम दुखी हो गये ।
द्विदेवी जी - इस बार क्या किया उस नालायक ने ।
मास्टरजी - हम उसको पढ़ाते है ओर वो हमारे से पढ़ने के बजाय दूसरे ही कामो मे लगा रहता है । मैने उसे गणित का काम दिया था करने के लिए इसने उसे करने के बजाय बैठा बैठा ये चित्र बना रहा था । चित्र दिखाते हुए मास्टरजी ने चित्र द्विवेदीजी को पकड़ा दिया तब तक वैदेही देवी भी एक प्लेट मे जलपान लिए आ चुकी थी । देख रही तो अपने कपूत की करतूत चित्र पकड़ाते हुए कृष्णमूर्ति जी बोले , पता नही किसका - किसका चित्र बनता है । अपूर्ण होने के बाद भी चित्र को देखते ही वैदेही समझ गई थी की ये भव्या का चित्र है क्योकि माँ का दिल बेटे की खामोश धड़कन को भी पहचान लेता है । यदुराज आज कही फिर अपने पिता के हाथों नही पिट जाये ये सोचकर वो चुप रही ।
एक मिनट बाद द्विवेदीजी यदुराज के दो थप्पड़ लगाते हुए की मै तो इसको कलेक्टर बनाना चाहता हु की द्विवेदी परिवार की विरासत को खूब बढ़ाये परन्तु ये विरासत बढ़ाना तो दूर की बात है मेरे वारिश बनने तक का भी हकदार नही , मेरा असली वारिस तो मेरा बेटा अजयराज है । निकल जा अभी मेरे घर से , ऐसी संतान होने से तो अच्छा है की मै समझूंगा की मेरे एक बेटा था ही नही ।
वैदेही - रोकर यदुराज को गले लगाते हुए ये क्या कह रहे है आप । अभी बच्चा है ये , ओर है तो आखिर अपना ही खून । गलतियां बच्चों से ही होती है , बड़ो का तो काम होता है उनको क्षमा करना ।
द्विवेदीजी - मैने इसको घर छोड़ने का हुक्म दिया है , अब तुम्हे पुत्र चाहिए या पति ये फैसला तुम्हारा है ।
वैदेही - मेरे लिए तो दोनो ही महत्वपूर्ण है , एक तो मेरे प्राणनाथ है दूसरे मेरे प्राणो के आधार , एक मेरी आत्मा है तो दूसरा मेरा शरीर, ये कैसे धर्मसंकट मे डाल रहे है आप ।
द्विवेदीजी - वो सब मुझे नही पता , मैने इसे अपने आप से बेदखल कर दिया है , अब आगे फैसला तुम्हारे हाथ मे है ।
कोई माँ ऐसा नही चाहती की उसका बेटा घर छोड़ कर जाए । कोई बाप अपने बेटे को जानबूझकर अपने से दूर नही भेजना चाहता। द्विवेदीजी ने ये कड़वी बाते ऊपरी मन से बोली थी उसको विश्वाश था की यदुराज एक बार गाँव मे चक्कर काट कर शाम के खाने के समय तक आ जायेगा । जब पेट मे भूख लगेगी ओर सर्द हवाओ की ठिठुरन से बचने के लिए बदन पर कपड़े नही होंगे तो यदुराज लौट आएगा , फिर वह वही करेगा जो उसका दिल चाहता हो ।
यदुराज आज स्वतंत्र था , अब उसका जो मन करता वो वह कर सकता था , वह घर से सीधा अपने मित्रो के घर चला उनसे मिलता हुआ वह शाम तक भागलपुर पहुंचा । भूख मिटाने के लिए उसने फल खाये तथा रात्रि विश्राम के लिए मंदिर की सीढ़ियों की शरण ली । रात्रि मे ठंड अधिक होने व ठंडी हवा चलने की वजह से देर तक नींद नही आई । आधी रात के बाद पौ फटने तक आँख नही खुली । भव्या एक हाथ मे लौटा, अगर, दुग्ध , पतासे महादेव का जलाभिषेक करने के लिए तथा दूसरे हाथ मे कुछ फल थे जिन्हे शिवलिंग पर अर्पण करना था । मंदिर की सीढ़िया चढ़ते समय भव्या ने देखा की कोई मंदिर की सीढ़ियों पर सो रहा है । पीठ करने की वजह से चेहरा तो नही दिखाई दिया । कपड़ो से कुछ अंदेशा हुआ की ये यदुराज हो सकता है , भव्या ने जगाने की कोशिश की की सुबह हो गई खड़े हो जाओ , आवाज़ दी कोई प्रतिक्रिया नही आई । सीढ़ियों के बगल मे जंगले मे रखी हुई छोटी घंटी लेकर कान के पास जाकर बजाई तो यदुराज आँख मलता हुआ खड़ा हुआ । यदुराज के खड़े होते ही भव्या के होश उड़ गये शरीर की सुध_ बुध जाति रही । यदुराज को अपनी आँखो पर विश्वाश नही हो रहा था । 2_3 बार आँखे खोल कर देखा । भव्या यदुराज के मन के मनोभावो को समझ रही थी , चुटी काटी ,होश आया । भव्या तुम यदुराज बोला ।
भव्या - हा मै , महादेव का जलाभिषेक करने आई थी , पास आकर देखा तो कोई लेट रहा है ।
सीढ़ियों की तरफ आपकी पीठ होने से मै आपको पहचान नही पाई थी । भोर हो गई , मंदिर मे लोगो की आवाजाही शुरु हो चुकी है । मुझे जगा देना चाहिए , यही सोचकर मैने तुम्हे जगा दिया । अब तुम बताओ तुम यहां कैसे ?
यदुराज एक ही सांस मे शुरु से लेकर अंत तक पुरी बात बता देता है , बस भव्या अब मै यहां ओर नही रहूंगा , रोज - रोज की कीच - कीच से तो अच्छा है की मै घर छोड़ दु घरवालों को मुझसे छुटकारा मिल जायेगा ओर मुझे खुली हवा मे सांस के साथ सुकून ।
भव्या - पागल , ऐसे नही होता है , माँ - बाप की डाट फटकार मे भी प्यार ओर सीख छिपी हुई होती है , वो तुम्हारा भला चाहते है इसलिए डाटते है । उनकी बातो को ज्यादा दिल पर मत लगाया करो ।
यदुराज - ऐसी भी क्या प्यार ओर नसीहत , मै जिस काम को करना ही नही चाहता , जिस काम को करने मे मेरा मन ही नही है , अनमने ढंग से करूंगा तो भी वो काम वैसा तो नही होगा । वो जो पढ़ाते है वो मुझे अच्छा नही लगता ओर मुझे जो अच्छा लगता है वे वो पढ़ाना नही चाहते ।
भव्या - वो सब तो ठीक है , आदमी जिस चीज को पसंद नही करता भले ही वो लाख अच्छी हो उसे अच्छी नही लगती , पढ़ाई मे तुम्हे जो पसंद नही है वो जबरदस्ती भी पढ़ाएंगे तो तुम्हे पल्ले नही पड़ेगी, लेकिन इसका मतलब ये थोड़ी है की तुम घर छोड़कर माँ को छोड़कर चले जाओगे , जानते हो माँ तुम्हारे बिना कितनी बैचेन होगी , मेरी बात मानो तो घर को लौट जाओ ।
यदुराज - मै जानता हु मेरे घर से आने के बाद घर मे कोई सुखी ना होगा सिवाय पिताजी के , लेकिन मेरा भी स्वाभिमान मुझे इस बात की इजाजत नही देता की मै बेशर्मो की तरह रोज तानो के माहौल मे रहु, भले ही मेरा घर हो या किसी ओर का । रही बात तुम्हारी बात मानने की तो मै फिलहाल तुम्हारी हर बात मान सकता हु सिवाय इस बात के ।
भव्या__ थोड़ा मुँह बनाते हुए , ठीक है , लेकिन एक प्रार्थना तो स्वीकार करोगे ।
यदुराज - क्या
भव्या - मै ये फल लाई थी इन्हे खा लो , पता नही तुमने कुछ खाया भी होगा या नही ।
यदुराज - ये फल तो तुम भगवान भोलेनाथ को अर्पित करने लाई थी ना , तो उन्हे ही अर्पित करो ।
भव्या - मुस्कुराते हुए , भगवान को मै फिर अर्पित कर दूंगी , तुम ये फल खा लो , भगवान तो हर किसी मे होते है ना , ओर वैसे भी तुमने ही कहा था कुछ भी मांग लेना ।
यदुराज - हाथों से फल लेते हुए , लाओ , वैसे भी कोई तुमसे जीत थोड़ी सकता है ।
भव्या__ हँसते हुए जीत सकते हो ना , तुम । इसके बाद दोनो एक साथ हँस पड़ते है ।
यदुराज को फल खिलाने के बाद भव्या ने महादेव का जलाभिषेक किया , जाते हुए बोली यदु तुम यही रुकना मै अभी जाकर तुम्हारे लिए खाना लाती हु ।
भव्या के जाने के बाद यदुराज ने सोचा की मै लाख जतन करू फिर भी भव्या मुझे बातो ही बातो मे बहला फुसलाकर घर भेज ही देगी । अच्छा तो यही होगा की मै यहां से जल्दी से जल्दी चला जाऊ । यदुराज वहा से निकल जाता है एक अनजान दिशा की ओर , अजनबी राहो पर , जहा उसे ना तो ये पता कहा जाना है, किधर जाना है ।
भव्या थोड़ी देर घर से खाना विधालय के बस्ते मे लेकर पहुंची तो वहा यदुराज नही दिखा । हृदय विचलित हुआ , आँखो से अश्रुधारा बह निकली , मुँह से एक करुण सी चित्कार निकली । हाय यदुराज ! कहा गये तुम ! ना जाने किधर जाओगे , अपनी सुध बुध ले पाओगे या नही , कौन तुम्हे भूख होगी तो भोजन देगा । सर छुपाने के लिए किसकी छत का तुम आशियाना लोगे ।
यदुराज ने कुछ दूरी पर चलकर हाथों से एक ट्रक को रुकने का इशारा किया । यदुराज ने ट्रक मे बैठने से पहले कहा शहर जाना है लेकिन एक बात मै बता देता हु मेरे पास तुम्हे देने के लिए किराया भाड़ा नही है । तुम्हारी मर्जी है तो बैठाओ , नही है तो मत बैठाओ । एक क्षण ड्राइवर ने विचार किया ओर कहा बैठो । ट्रक मे बैठते ही ड्राइवर ने पूछा पूर्णिया जा रहे हो तुम । यदुराज शहर का नाम नही जानता था इसलिए उसने स्वीकृति मे हामी भर दी क्योकि उसे डर था की अगर वो नही बता पाया तो ये ड्राइवर समझ नही जाए की मै घर से भाग कर जा रहा हु अन्यथा ये मुझे फिर से वापिस पकड़कर कही मेरे घर नही ले जाये । पूर्णिया मे कोनसी जगह उतरोगे तुम ड्राइवर ने अगला प्रश्न किया । तुम मुझे जहा गाड़िया रूकती है वहा उतार देना यदुराज ने उतर दिया ।
अच्छा बस स्टैंड उतरोगे तुम ड्राइवर ने अपनी बात को दोहराते हुए कहा । यदुराज एक बार ड्राइवर की तरफ देख रहा ओर दूसरी बार खिड़की की तरफ । वह पसीने__ पसीने हो गया । ड्राइवर ने उसके मन की स्थिति को भापकर अंदायजा लगा लिया की घर वालों की स्वीकृति से तो ये बच्चा नही जा रहा । बेटा तुम घबराओ मत , सही जगह उतारूंगा तुम्हे ट्रक ड्राइवर ने कहा । मेरा नाम सुखविंदर है , मै पूर्णिया के पास अगरतलाई का रहने वाला हु । तुम्हारे जितनी उम्र का मेरे भी एक बेटा है मनप्रीत । मेरी हर बात मानता है मै ज्यादा पढ़ा लिखा नही हु , वो पांचवी जमात मे पढ़ता है । मुझसे कहता है की गुरुजी विधालय मे बताते है की पिता का दर्जा स्वर्ग से भी बढ़कर होता है । अब यदुराज को कुछ तसल्ली मिली की वह किसी महफूज जगह किसी विश्वाश के आदमी के साथ है । एक ढाबे पर आकर सुखविंदर ने ट्रक रोक दिया । पहले कुछ खाना खा लेते है बेटा , भूख ओर थकान को यदुराज के चेहरे पर पढ़कर सुखविंदर ने खाना खाने के लिए गाडी रोकी थी ।
यदुराज - मुझे भूख नही है ,
सुखविंदर - पेट पर हाथ फेरते हुए , सब इसके लिए ही होता है ना ये पापी पेट होता ना हम ओर तुम इस समय साथ होते , थोड़ा ही सही लेकिन खा लो ।
ठीक है कहते हुए यदुराज ने भरपेट भोजन कर लिया । इसके बाद ट्रक मे रवाना होकर दोनो पूर्णिया पहुंच गये । शरदानंद छात्रावास के सामने सुखविंदर ने गाडी रोक दी , उतर जा बेटा, यही आएंगे तुम्हे लेने जिनके तुम जा रहे हो । यह छात्रावास उनके मित्र मधुसूदन पंडित का था । मधुसूदन पंडित से सुखविंदर ने कानो कान कुछ कहा । ठीक है मै चलता हु ध्यान रखना यह कहकर वे ट्रक लेकर चले गये । मधुसूदन पंडित जो दयालु प्रवृत्ति के साथ धार्मिक व्यक्ति थे वे यदुराज के पास आये ओर सर पर हाथ फेरते हुए बोला की बेटा जब तक तुम्हारे मिलने वाले लेने आये तब तुम चाहो तो इस छात्रावास मे विश्राम कर सकते हो , घबराने की तुम्हे बिल्कुल आवश्यकता नही है । जब तक दूसरा आशियाना नही मिले तब तक इसी मे रह लेते है यह सोचकर यदुराज ने हामी भरी ओर अंदर चला गया ।
उधर दूसरी तरफ यदुराज की परदादी पंडिताइन जमना देवी को जब ये पता चला की उसके जिगर के टुकड़े को घर से बाहर निकाल दिया तो उसका खाना पीना छुट गया इसी के चलते वो बीमार हो गई । यदुराज के घर से निकाले जाने का अफ़सोस हर कोई कर सकता था , सबके सैकड़ो बार मिन्नत करने के बाद भी द्विवेदी जी ने यही कहा जब ठोकरे खायेगा तो अपने आप आ जायेगा , मै तो उसे लाने नही जा रहा , द्विवेदीजी जिद्द के बड़े पक्के थे , एक बार उनके मन मे जचने के बाद उनको मनाना थोड़ा मुश्किल भरा था । शाम को द्विवेदीजी घर लौटे , पता चला उनकी दादी माँ बहुत बीमार है । डॉक्टर मनमोहन देसाई को बुलाया गया । सारे शरीर की जांच करने के बाद डॉक्टर साहब ने बताया की ये खा पी नही रहे ओर कोई बात इन्हे अंदर ही अंदर खाए जा रही है जिस कारण ये बीमार है , अगर कुछ दिन इनकी सेवा करना चाहते हो तो इन्हे शीघ्रता से खाना खिलाकर दवाई देकर ठीक करो । क्योकि जब तक ये खाना नही खाएंगे जब तक ऐसी कोई दवा नही है जो इन्हे ठीक कर सके । द्विवेदी जी ने अपनी पत्नी वैदेही को इशारा किया की वो अभी तुरंत भोजन बनाकर लाए । कुछ देर के बाद भोजन बनकर तैयार हो गया । द्विवेदी जी खुद थाली हाथो मे लेकर अपनी दादी को खिलाने लगे । जैसे ही पहला निवाला मुँह के समीप पहुंचा जमना देवी ने उनका हाथ पकड़ कर रोक दिया ।
द्विवेदी - ये क्या कर रहे हो माँ ? खाना नही खाओगे तो आप ठीक कैसे होगे ?
जमना - मर ही तो जाउंगी , मर जाने दो , वैसे भी तुझे किसकी फ़िक्र है ।
द्विवेदी - फ़िक्र क्यो नही है माँ । कभी ऐसा होता है क्या की बेटे को माँ की फ़िक्र नही हो ।
जमना - नही है , अरे तु मेरे जिगर के टुकड़े को मुझसे अलग करके चाहता है की मै ओर ज्यादा उम्र पाउ । क्या ये सम्भव है ?
द्विवेदी - इसमे गलती आपके लाडले की है , वो इतना बिगड़ गया है की पढ़ने की सुध बुध नही रही । पूरे दिन चित्रकारी मे लगा रहता है , मै उसे पढ़ा लिखाकर कलेक्टर बनाना चाहता हु ओर वो आलतू - फालतू के कामो मे मे ही लगा रहता है ।
जमना - अरे पढ़ ही तो कम रहा है , उसे अच्छा नही लगता इसलिए नही पढ़ता , कोई चोरी चकारी करता है , उसके कोई ऐसे वैसे उलाहने घर आते है । मै एक बात तुझे बता देना चाहती हु जब तक यदुराज खुद अपने हाथों से आकर मुझे खाना नही खिला देता तब तक मै ना कुछ खाउंगी ओर ना तुम्हारी ये दवाइयां लूंगी .... ।
अगले दिन कृष्णमूर्ति द्विवेदी जी ने अखबार मे यदुराज की गुमशुदगी का इश्तहार दिलवा दिया, 3 दिनो तक ना कोई खोज खबर आई ओर ना ही कोई इश्तहार पढ़ने वाले किसी पाठक ने इस संदर्भ मे सूचना दी । चौथे दिन शाम को फोन की घंटी बजी ट्रिंग ट्रिंग ... ।
द्विवेदी जी ने आनन फानन मे फोन उठाया ,
हैलो कृष्णमूर्ति द्विवेदी जी बोल रहे है क्या दूसरी तरफ से आवाज़ आई ।
हा , जी मै ही बोल रहा हु , द्विवेदी जी ने उतर दिया ।
अख़बार मे इश्तहार देखा था आपका ये बच्चा हमारे पास सुरक्षित है , आप इसे कल आकर ले जा सकते है ।
द्विवेदीजी - ठीक है मै कल आकर इसे ले जाता हु , आप पता बताइये ।
जी मै शरदानंद छात्रावास से बोल रहा हु , मेरा नाम मधुसूदन पंडित है , बस स्टैंड से अगली गली सदर थाना रोड पर आ जाना ।
ठीक है मै कल आता हु द्विवेदीजी ने फोन रखते हुए कहा ।
दूसरे दिन द्विवेदीजी अपनी मोटरकार मे बैठकर छात्रावास पहुंचते है । मदुसूदन पंडित से मिलना है द्विवेदीजी ने गेटकीपर को कहा । जी अभी वो थोड़ी देर मे पूजा समाप्त करके आते है , आप तब तक यहां वेटिंग रूम मे इंतजार कीजिये ।
थोड़ी देर बाद मधुसूदन पंडित पूजा समाप्त करके आये , वेटिंग रूम मे कोई है , उससे मिलना चाहिए ये सोचकर वो अंदर जाने के बजाय सीधा वेटिंग रूम मे आ गया ।
नमस्कार पंडित जी मै कृष्णमूर्ति द्विवेदी कल अपनी फोन पर बात हुई थी । हा मजिस्ट्रेट साहब , पहचान गया , अभी तक तो आपका नाम ही सुना था आज साक्षात् दर्शन भी हो गये ।
द्विवेदी जी - मधुसूदन जी मेरे बेटे को बुला लीजिये , मै उसको शीघ्रता से ले जाना चाहता हु ।
मधुसूदन - इतनी भी क्या जल्दी है द्विवेदी जी थोड़ा ठहरिये , मुझे भी आपसे वार्ता करनी है , वैसे तो आपके बेटे ने मुझे सब बता दिया है , फिर भी मै आपका पक्ष जानना चाहता हु । आखिरकार यदुराज घर से भागा तो क्यो भागा ?
द्विवेदी - वो उसका पढ़ाई लिखाई मे जरा सा भी ध्यान नही है ओर ये पिछले कई सालो से चला आ रहा है । मैने उसकी पिटाई कर दी ओर कहा की घर से निकल जाओ , ऐसा मैने उपरी मन से कहा था ' मैने सोचा शायद वो शाम तक लौट आएगा ' । ऐसा मेरा कहने का मकसद सिर्फ यही था की यदुराज सुधर जाए ।
मधुसूदन - लेकिन इसका मतलब ये तो नही है की यदुराज बिल्कुल भी नही पढ़ता, उसकी एक पेंटिंग देखी थी मैने कितनी अच्छी चित्रकारी है उसकी , ओर आप कहते हो की कुछ आता जाता नही ।
द्विवेदी जी - मधुसूदन जी चित्रकारी से पेट नही भरता, मै तो उसे कलेक्टर बनाना चाहता हु ओर वो फालतू के कामो मे उलझा रहता है , मास्टरजी ने उसे जो काम आज तक दिया है वो काम उसने कभी किया ही नही ।
मधुसूदन - द्विवेदी जी मै आपकी बातो पर चलो कुछ देर के लिए सहमति जता देता हु , लेकिन क्या आप जानते हो आप ऐसा करके बच्चे को विद्रोही बना रहे हो । आज वो आपकी बात इसलिए नही मानता क्योकि आपने उसकी कभी सुनी ही नही , सिर्फ अपनी ही चलाते रहे । कोई आपकी बात सुने इस लिए जरूरी है की आप भी उसकी सुनो , कोई आपकी बात माने इसके लिए जरूरी है की आप भी उसकी कुछ बात मानो । रिश्तो मे हम जो देते है वही हम तक लौट कर आता है भले ही वह प्यार हो या नफ़रत । मेरी तो यही सलाह है आपको की उसे अपनी बात अगर मनवानी हो तो पहले खुद भी उसकी कुछ इच्छाएं , उसकी बाते सुनो क्योकि एकदम से किसी को नियंत्रण मे नही लिया जा सकता । ओर आप तो खुद ही इतने विद्वान हो मै आपको क्या समझाऊ ।
चलो अब हमारे छात्रावास मे चलकर अपने बेटे से मिल लो । छात्रावास के अंदर जाने पर वहा विभिन्न समूहों मे बच्चे अलग अलग गतिविधिया करते मिले , वातावरण मे शांति थी । द्विवेदी जी को यहां का माहौल बहुत पसंद आया । मधुसूदन पंडित से प्रश्न किया की यहां कितने बच्चे रहते है , ओर आपकी वर्षभर की कितनी कमाई हो जाती है । बच्चे तो हजारों की संख्या मे है, ओर रही बात कमाई की तो वो मैने कमाई के लिए नही खोल रखा कुछ चीजे सुकून देती है बस इसलिए वरना पुरखो की हजारों बीघा जमीन है , यहां इन बच्चों मे रहकर थोड़ी शांति सी मिलती है । फर्स के पास एक खम्बे के सहारे यदुराज बैठा था , द्विवेदीजी किसी तरह उसे रिझा बुझाकर घर ले गये
घर आते ही सब उसका इंतजार कर रहे थे । जमना देवी को तो मानो उसमे ममता ही अटकी हुई हो । यदुराज ने उन्हे खाना खिलाया , ओर अपने हाथों से दवाई दी । एक दो दिन के उपचार के बाद वो शीघ्र स्वस्थ्य हो गई । यदुराज का क्षण __क्षण वहा सदियो के बराबर था । उसका मन करता था की किसी भी तरह से हो बस भव्या उसे जल्दी से आकर मिल ले , उससे ढेर सारी बाते करनी है । उसे अपना हाल सुनाना है की इतने दिन उसने कैसे काटे है । अब उसने सोच लिया गाँव की पाठशाला मे भले ही बद्रीप्रसाद उपाध्याय जी छड़ी की मार लगाए या कोई ओर अध्यापक वह वही पढ़ेगा । मार ही तो खायेगा कम से कम भव्या ओर अपने संगी साथियो के साथ कुछ वक्त तो गुजारा करेगा । डरते डरते वह अपने पिता के पास पहुंचा । पिताजी मै अपने गाँव की पाठशाला मे ही पढना चाहता हु , आज से आपको मेरी कोई शिकायत नही मिलेगी । मास्टरजी वहा जो पढ़ाएंगे मै वो सब याद करके रखूंगा , बस मुझे अपने गाँव की पाठशाला मे पढ़ने दो । यदुराज ने डरते डरते सारी बात कह दी ।
पिछले तीन साल से तुम गाँव की पाठशाला मे ही पढ़ रहे हो , ओर एक नही तुम्हारी हजार शिकायत आ चुकी है , ओर तुम ये बात हर बार कहते हो की आज के बाद कोई शिकायत नही आएगी फिर भी तुम्हारी शिकायत आ ही जाती है , गाँव के इन आवारा बच्चों के साथ रहकर तु भी आवारा हो गया है , मैने तुम्हे छात्रावास भेजने का फैसला कर लिया है । द्विवेदीजी ने स्पष्ट शब्दों मे कहा ।
भव्या से मिलने ओर अपने साथियो के साथ पढ़ने की कोई दाल गलती न देख यदुराज ने अपनी माँ से पिताजी को कहलवाया लेकिन सारे प्रयास व्यर्थ रहे ।
होनी को कुछ ओर ही मंजूर था । कुछ दिनों बाद यदुराज की परदादी जमना देवी का देहांत हो गया । पुरा परिवार शौक ओर गम के मातम मे डुबा हुआ था , यदुराज तो पिछले 2 दिन से अपनी सुध बुध भुला बैठा था , मै कहा हु अपने इस सत्य का ज्ञान भी आज उसे तीसरे दिन हुआ । एक तो परदादी का देहांत जो उसे अपनी जान से ज्यादा प्यार करती थी ,दूसरा छात्रावास जाने के बाद वो भव्या से कब मिलेगा इसका उसे भान नही । कुछ भी हो भगवान एक बार छात्रावास जाने से पहले भव्या को देख लु ऐसा कोई इंतजाम हो जाए , ऐसी वो तरकीब सोचने
अचानक से एक विचार उसके मन मे आया । इस समय सारा परिवार दिनभर व्यस्त रहता है , क्यो ना गुप्त रास्ते से कालिका मंदिर होते हुए भागलपुर जाउ । जब सुबह भव्या महादेव मंदिर मे पूजा करने आएगी तो उसको मिलने का ठिकाना बता दूंगा । ओर हम मिल सकेंगे । रात मे सब खाना खाकर सो गये , दिनभर के थके हुए थे तो सबको जल्दी ही नींद आ गई । यदुराज हवेली के चौथे दरवाज़े के पास पहुंचकर कीलनुमा घड़ी को हटाता है , नवरात्रि के अवसर पर जब द्विवेदी परिवार कालिका मंदिर मे पूजा करता था तब इसी रास्ते से जाता था । इस कारण से यदुराज को उस गुप्त रास्ते का सम्पूर्ण ज्ञान हो गया था । दरवाजा बिना आवाज़ किये खुल जाता है । यदुराज प्रवेश करके उस दरवाज़े को बंद कर देता है । गुप्त रास्ते मे अपेक्षाकृत अंधेरा अधिक था इसका भान यदुराज को पहले से ही था इसलिए उसने 2 कोस के रास्ते के लिए जरूरत के हिसाब से एक मसाल ले ली । घंटेभर मे वह कालिका मंदिर पहुंच गया । । कालिका मंदिर मे पूजा अर्चना के बाद वह सीधा भागलपुर के शिव मंदिर के लिए निकल गया । भोर होने से पहले वह शिव मंदिर मे पहुंच चुका था । अब किसी तरह से सुबह हो ओर भव्या मंदिर मे आये । एक कदमो के आने के आहट हुई , भव्या आई होगी , क्या वह मेरी पीठ से पहचान लेगी यही सोचकर यदुराज ने सीढ़ियों की तरफ पीठ करके शिवलिंग के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया । जैसे - जैसे कदमो की आहट पास आती , यदुराज की बैचेनी बढ़ती जाती । एकदम से ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी ने पीछे से छुआ हो , शरीर थोड़ा खींचा, यदुराज ने एक गहरी सांस लेकर पीछे देखा वो मंदिर का पुजारी था । आना था किसे आ गया कौन , खैर अब पुजारी जी आ ही गये तो आरती मे शामिल हो लेंगे । आरती शुरु हुई , मंदिर मे बजने वाले शंख के दिव्य स्वर की जगह भव्या का मधुर स्वर आज उसके कानो मे गुंज रहा था , झालर की आवाज का स्थान पायल की मधुर झंकार ने ले लिया था । यदुराज प्रार्थना मे इतना मशगूल हुआ की कब आरती समाप्त हुई कब पुजारी अपने घर गया उसे पता ही नही चला । फिर किसी के छुअन का एक मधुर एहसास हुआ , हल्के से पीठ घुमाई सामने भव्या खड़ी थी । लगा आज बरसो मुराद पुरी हुई है । कहा थे यदुराज तुम ? कैसे हो तुम ? कोई खोज खबर तक नही तुम्हारी , जानते हो मै कितना बैचेन थी तुम्हारे बिना ? खैर तुम्हे क्या ? तुम्हे तो अपने स्वाभिमान की पड़ी है ना ! कोई मरे तो मर जाए , घरवालों से नाराजगी थी इसमे मुझे क्यो घसीटा , क्या कसूर था मेरा । भव्या ने एक ही सांस मे बीसो प्रश्न कर दिये । भव्या इन सबका तुम्हे जवाब दूंगा , पहले तुम मेरी बात सुनो । अब तुम घर जाओ जल्दी से तैयार होकर विधालय के लिए जाओ तो नीरू के पुराने घर की तरफ आ जाना , मै तुम्हे वही मिलूंगा , अगर आज तुम नही मिल पाई तो दुबारा मुलाक़ात कब होगी वो ईश्वर जाने । ऐसा मत कहो यदु भव्या ने मुँह पर ऊँगली रखते हुए कहा । मै तुम्हे ऐसी जगह कही नहीं जाने दूंगी जहाँ तुम मुझसे दूर रहकर लौट कर ना आ सको । मै अभी थोड़ी देर मे आती हु ।
कुछ देरी के इंतजार के बाद नीरू और भव्या नीरू के पुराने घर की तरफ आ जाती है । यह मकान गाँव के पुराने मोहल्ले मे था । अधिकतर लोग पुराने मकानो को छोड़कर नई जगह रहने लगे थे इस कारण यहां अपेक्षाकृत लोगो की आवाज़ाही व दखलंदाजी कम थी । विधालय बस्ता तैयार करके भव्या पहुंची । यदुराज जिससे इंतजार की घड़िया काटी नही जा रही थी । बातचीत का दौर शुरु हुआ , तो तुम जा रहे हो यदु ..... भव्या ने प्रश्न किया । , हा भव्या ; जा रहा हु , नही जाऊ इसका कोइ विकल्प भी नही है , जाना जरूरी है जाना तो पड़ेगा । क्या मेरे लिए भी नही रुक सकते यदु .....
मै तो जाना हीं नही चाहता , पर भेज रहे है जबरदस्ती और मै कुछ नही कर सकता ।
वापिस कब आओगे ....।
वापिस आने का तो पता नही परन्तु तुम हरपल मेरे अहसासो मे रहोगी भव्या..... ।
कहते_ कहते आँखो से नीर बहने लगे ,
यदु ..... भव्या एक हाथ से आँसू पोछते हुए , गोद मे लेट जाओ ।
गोद मे लेटकर भव्या ये मेरी जिंदगी का सबसे सुखद पल है ।
पुरुष सामान्य रूप से दो प्रकार की स्त्रियों की गोद मे सुकून का अनुभव करता है , एक तो माँ और दूसरी प्रेमिका । बातो ही बातो मे यदुराज भव्या की चुड़ामणि उसके बालो से कब निकाल लेता है उसे पता ही नही लगता । जाते समय भव्या बालो को टटोलकर यदु मेरी चुड़ामणि नही मिल रही । हँसते हुए इतनी सी बात भव्या वहा से आऊंगा तो तुम्हे चुड़ामणि पहना दूंगा । अश्रुओ की बहती धाराओं के साथ दोनो विदीर्ण हृदय से एक दूसरे से विदा लेते है ।
अध्याय : २
आज से यदुराज के जीवन की एक नई शुरुआत थी । नया माहौल , नई जगह, नया स्कूल , नए लोग , नया परिवेश प्रत्येक चीज उसके लिए नई थी । पुरानी चीजे भला कभी किसी से छूटती है क्या ? स्थान बदलने से हलचल जरूर होगी किन्तु यादे तो शाश्वत है जैसे किसी रस्सी की रगड़ से निशानो का बन जाना शाश्वत है उसी तरह कोई किसी स्थान को छोड़ देने पर रस्सी के निशान की तरह स्थान की स्मृतिया मस्तिष्क के किसी कोने मे कौंध जाती है । आज यदुराज के छात्रावास का पहला दिन था । दोपहर तक पहुंचने के बाद एक कमरे मे सामान को व्यवस्थित करने की प्रक्रिया के दौरान ही शाम का समय हो गया । गुरुकुल पद्धति के अनुसार आश्रम मे छोटे छोटे झोपडीनुमा कमरे बनाये गये थे । एक कमरे मे 4 अन्तेवासी रह सके , इतनी पर्याप्त जगह थी । पक्की दीवारों के स्थान पर जालिनुमा दीवार लगाई गई थी ताकि प्रत्येक अन्तेवासी की गतिविधियों को रास्ते से राह चलते भी देखा जा सके । संध्या का समय हो गया चला था , यदुराज दीवार के पास बैठा चिंतन मनन कर रहा था । प्रार्थना सभा मे संध्या करने नही चलना क्या ? स्वर गुंजा , ध्यान दूसरी जगह होने के कारण यदुराज उसे सुन नही पाया । कंधे पर हाथ रखकर थोड़ा हिलाकर ,
अजी , मैने कहा प्रार्थना सभा मे संध्या करने नही चलना क्या ? तुम जाओ मेरा मन नही है यदुराज ने कहा ।
मन नही है , ऐसे कैसे मन नही है , आज तुम्हारा पहला दिन है इसलिए शायद तुम्हे पता नही है , शाम के 6 बजते ही प्रत्येक अन्तेवासी को प्रार्थना सभा मे पहुंचना अनिवार्य होता है । 6 बजते ही दिनिया घूम फिर कर देखता है कही कोई रह तो नही रहा , सब के सब प्रार्थना मे पहुंच गये क्या , आज शायद नही आया क्योकि आज यहां कई विधार्थी नए है , इन्हे यहां के माहौल मे घुलने मे समय लगेगा इसलिये शायद दिनिया को नही भेजा ।
यदुराज - ये दिनया कौन है , ओर अगर कोई नही जाये तो ये क्या कर लेगा ?
अरे तुम नही जानते दोस्त ये दिनिया बहुत सिरफिरा इंसान है , किसी को भी अगर अगर यह देख ले की की ये 6 बजे के बाद भी नही गया तो यह उसकी पिटाई कर देता है ।
यदुराज - उसकी कोई गुरुजी से शिकायत नही करता क्या, या गुरुजी को इन सबका पता नही है ?
अरे दोस्त तुम नए _नए हो इसलिए शायद तुम्हे समझने मे वक्त लगेगा , गुरुजी को उसके बारे मे पता नही है पहली बात तो ये , दूसरा उसकी अगर कोई शिकायत करता है तो वो उसे बाद मे बहुता मारता है ।
अच्छा तुम्हारा नाम क्या है ? बात खत्म होने के बाद यदुराज ने पूछा ।
ही ही ही .... तुम भी ना पानी पीकर जात पूछ रहे हो ।
मुझे तुम्हारा नाम पता है तो तुम्हे मेरा नाम क्यो नही पता यदुराज ?
अच्छा अब बता देता हु भूलना मत , मेरा नाम भानु है ।
भूलूंगा क्यो भानु , तुम्हारा नाम ही ऐसा है , भला तुमको भूल जाऊंगा तो तुम्हारे नाम की चमक मुझे भूलने देगी ।
इसके बाद दोनो प्रार्थना सभा मे जाते है ।
प्रार्थना सभा मे संध्या करने का तरीका यदुराज को आज थोड़ा अजीब लगा , पवित्रीकरण से आचमन तक , करन्यास से शिखाबंधन तक आज सब उसके उपर से जा रहा था । उसे इतना तो समझ आ रहा था की कुछ बोल रहे है परन्तु क्या बोल रहे है ये उसे समझ नही आ रहा था । रात को खाने के समय सबको मैश मे बुलाकर दरी पट्टी बिछाकर सामने एक चौकी रख दी गई , भानु ठीक यदुराज के बाई तरफ बैठा था , सबका भोजन समाप्त होने को था ये क्या यदुराज ने तो एक निवाला तक नही खाया था तुम खाना क्यो नही खा रहे भानु ने पूछा ,
बस ऐसे ही मन नही है , पता नही घर पर सबने खाया होगा या नही ,
घर पर सबने खा लिया होगा यदुराज तुम ज्यादा चिंता मत करो, वो अपना ख्याल रखेंगे ओर आज से तुम अपना ख्याल रखो ।
ये कोई एक दिन की बात नही है की नही खाया तो चलेगा ,यहां कई साल गुजारने है । यू कब तक भूखे रहोगे ।
चलो मुँह खोलो ,
आ_ आ .. यदुराज के मुँह खोलते ही भानु एक बड़ा सा निवाला उस के मुँह मे दे देता है । भोजन समाप्त होने के बाद सब अपने अपने निर्धारित कमरों मे पहुंचते है । तुम कुछ भी कहो भानु यहां मेरा मन जरा सा भी नही लग रहा , हालांकि तुम अपना अपनापन मुझे दिखा रहे हो , मेरा ख्याल भी रख रहे हो । पर उसकी यादे मेरा पीछा ही नही छोड़ रही ।
उसकी किसकी ...... सब अन्तवासियो का स्वर एक साथ प्रतिक्रिया मे गुंजा ।
यदुराज - अब जाने भी दो , किसी अन्य अवसर पर बताऊंगा ।
समय बीता, पहले जो दिन अपेक्षाकृत बहुत बड़े लगते थे वो अब धीरे - धीरे थोड़े छोटे लगने लग गये । तकरीबन 3 महीने बीतने पर एक दिन यदुराज की हिंदी की कॉपी किसी ने निकाल ली , जिस पर उसका नाम नही लिखा हुआ था । लेकिन अब तक दिया गया सारा होमवर्क पुरा कर रखा था । आज हिंदी के अध्यापक मनोहर जी काम चेक करने वाले थे । किसी विधार्थी का काम पुरा नही किया हुआ था , यदुराज का काम पुरा था इसी बात का उसने फायदा उठा लिया ओर जब कॉपी चेक करने की बारी आई तो यदुराज जाकर खड़ा हो गया । मार खाने के लिए हाथ आगे बढ़ा दिया , लेकिन आज उसकी पहली गलती है ये सोचकर मनोहर जी ने मार लगाने के बजाय बैठा दिया ।
भानु - तुमने होमवर्क कर तो रखा था , फिर तुमने कॉपी क्यो नही दिखाई ?
यदुराज - मेरी कॉपी मुझे मिली नही ।
भानु - शायद किसी ने निकाल ली होगी ।
फिर ये बात तुमने अध्यापक जी को क्यो नही बताई ?
यदुराज - ना तो मै ये कह रहा की मै भूल गया , ओर ना ही मै ये कह रहा की किसी ने निकाल ली होगी ।
भानु - मुझे पता है , किसी ने निकाल ली है , ओर अब तुम देखना मै भी पुरा ध्यान रखूंगा की कौन तुम्हारी उस कॉपी को लेकर चेक करवाने आता है । आते ही उसे तुरंत पकडूँगा । थोड़ी देर बाद दीपक यदुराज की चुराई हुई कॉपी चेक करवाने आता है । कॉपी चेक होने के बाद दीपक अपने साथियो की तरफ एक कुटिल मुस्कुराहट से देखता है । जिसकी आँखे कह रही थी की इस समय मुझसे शातिर कोई नही , मै जिसको चाहू उसको बेवकूफ बना सकता हु । किन्तु आज भानु ने उसकी आँखो मे झांककर आँखों से सुरमा ही चुरा लिया था । मास्टरजी दीपक ने जो कॉपी चेक करवाई है वो उसकी खुद की कॉपी नही है । वो कॉपी उसने यदुराज की चुराई थी । क्या चोरी ओर कॉपी की , अगर ये साबित हो गया तो आज इसकी जो पिटाई होगी उसे सब याद रखेंगे । यदुराज बेटा तुम खड़े हो जाओ , ओर इधर आओ । यदुराज के पास आते ही गुरुजी ने कॉपी दिखाकर क्या ये कॉपी तुम्हारी है ।
यदुराज अपनी कॉपी को पहचान गया था , किन्तु आज खामख्वाह दीपक की पिटाई होगी इसलिए उसने मना कर दिया की नही गुरुजी ये मेरी कॉपी नही है । अब गुरुजी का गुस्सा भानु पर होता है , ऐसे ही तूने किसी पर जूठसे इल्जाम कैसे लगा दिया ।
मैने किसी पर जूठा इल्जाम नही लगाया गुरुजी , मै इसकी कॉपी के कलर को देख कर पहचान सकता हु । कलर तो एक जैसे भी हो सकते है किन्तु एक जैसे कलर होने से कॉपी भी एक ही हो ये कैसे सम्भव । अब तो तुम्हे छोड़ देता हु लेकिन मेरी एक बात ध्यान रखना दुबारा ऐसे ही किसी पर जूठा इल्जाम मत लगाना ।
छुटी होने के बाद सब बच्चे क्लासरूम से बाहर आते है , वहा एक अप्रत्याशित घटना घटती है । दीपक ओर उसकी मित्र मंडली भानु के पास आकर उसे तरह _तरह की धमकिया देते है । उसी समय यदुराज पीछे से उनके पास आ जाता है वह वहा खड़ा खड़ा चुपचाप तमाशा देख रहा होता है किन्तु उनकी धमकियों का उसने कोई प्रत्युतर नही दिया ।
उनके जाने के बाद भानु चुपचाप जाने लगता है । भानु ! पीछे से यदुराज बोलता है , लेकिन भानु आज उसकी बात अनसुनी कर देता है । अरे यार मेरी बात तो सुन , भानु की तरफ से कोई प्रतिक्रिया ना पाकर यदुराज भाप लेता है की इस समय वो अवश्य ही गुस्से मे है । खैर कोई बात नही , थोड़े समय बाद इसका भी गुस्सा शांत हो जायेगा ।
रात को खाने का समय हुआ । सभी बच्चे मैश मे अपने अपने संगी साथियो के साथ बैठे है लेकिन यदुराज ओर भानु पास - पास बैठते हुए भी एक दूसरे से दूर बैठे है ।
सबका भोजन समाप्त होने को था लेकिन यदुराज ने एक निवाला तक नही तोड़ा , भानु ने चुपचाप बिना बोले एक निवाला उसके मुँह मे रख दिया ।
यदुराज - मै ऐसे तो बिना किसी अधिकार भावना से तुम्हारे हाथ से भोजन नही करूंगा
भानु ने उसकी बातो को लगभग अनसुना कर दिया ।
यदुराज - मै कुछ कह रहा हु ओर तुम बहरे बने बैठे हो , मै कह रहा हु बिना किसी अधिकार भावना से मै तुम्हारे हाथ से भोजन नही कर सकता भाई ।
भानु - हर जगह अधिकार भावना नही होती , कुछ जगह मानवीयता भी होती है , जो तुम उन पर भी दिखाते हो जो उसके लायक नही होते ।
यदुराज - ऐसा क्या कर दिया मैने ?
भानु - जब तुम्हारी कॉपी उस दीपक ओर उसके साथियो ने चुराई तो तुम्हे गुरुजी को बताना चाहिए था की होम वर्क तो मैने कर रखा है किन्तु मेरी कॉपी किसी ने चुरा ली । जब मैने दीपक के पास तुम्हारी कॉपी को पहचान लिया ओर मैने गुरुजी से उसकी शिकायत की तो तुम्हे सच का साथ देकर कॉपी तुम्हारी है ये कबूल करना चाहिए था । मुझे तो बिना मतलब के ही डांट पड़ी , मेरे सच बोलने का मुझे ये इनाम मिला ।
यदुराज__ यार कॉपी को तो मै पहचान गया था , किन्तु मै गुरुजी को शिकायत कर देता तो वो पीटते , ओर मेरे बारे मे ना जाने क्या - क्या उलटी सीधी बाते सोचते ।
भानु - ओह! तो जनाब ने बहुत महान काम किया है , मुझे लगता है तुम्हारी आरती उतारी जाये । तुम्हारी समस्या ये है की दूसरा तुम्हारे बारे मे कुछ भी गलत ना सोचे । अब तुम क्या सोच रहे हो की वो तुम्हारे बारे मे गलत नही सोचेंगे , तुम्हे महान बताएंगे , जिसको तुम्हारे बारे मे जो सोचना है वो सोचेगा ही , भले ही उसके साथ लाख अच्छाई ही क्यो ना कर दो । ओर सच जानकर गुनाह पर पर्दा डालने वाला भी उतना ही गुनहगार होता है जितना गुनाह करने वाला ।
यदुराज - ठीक है भाई , अब दादाजी मत बन , ही ही ही ........ ।
भानु - जब तक तुम पलट कर जवाब देना ना सीखोगे तब तक तो मै दादाजी ही बनता रहूंगा , ही ही ही ..... दोनो एक साथ हँस देते है ।
धीरे - धीरे अन्तवासियो को ओर सुदृढ़ बनाने के लिए उनसे कार्य ज्यादा करवाया जाने लगा । सुबह 4 बजे पहली सीटी के साथ उठना , अपनी दैनिक क्रियाओ से निवृत होकर ग्राउंड मे पहुंचना , उसके बाद तकरीबन 1 कोस दौड़ना, दौड़ते - दौड़ते शरीर पसीने से तर हो जाया करता था । उसके बाद विभिन्न प्रकार के योग ओर व्यायाम , सूर्य नमस्कार आदि । इसी क्रम मे सुबह के 7 बज जाया करते थे ।
अगला चरण प्रार्थना सभा मे प्रभात संध्या के साथ मधुसूदन पंडित जी का ज्ञान ओर धर्म से भरा हुआ एक घंटे का व्याख्यान , जो कदाचित कुछेक विधार्थियों को उबाऊ लगता था । शुरुआत मे तो कक्षा के कुछ कामचोर छात्र इधर उधर होकर , बालकनियों मे छीपकर जैसे तैसे वक्त को गुजार लेते थे , ओर प्रार्थना समाप्त होने पर आते छात्रों के साथ मिलकर नास्ता करने के लिए मैश में चले जाया करते थे ताकि उनकी चोरी नही पकड़ी जाये । बदलते वक्त के साथ नियंत्रण ओर भी कठोर होता जा रहा था । ग्राउंड से लेकर प्रार्थना सभा तक बच्चों के अलग अलग दल बनाकर एक दलनायक नियुक्त कर दिया , जिसकी जिम्मेदारी तय की गई की वह अपने ग्रुप की सदस्य संख्या को संतुलित रखे , अगर एक भी अन्तेवासी कम मिलता है तो इसकी सूचना दलनायक को दे ।
दूसरे दिन प्रातः 4 बजे की सीटी के साथ उठकर उन्हे भी प्रत्येक बच्चे की तरह तैयार होकर ग्राउंड मे पहुंचना पड़ा । जब दौड़ने का समय हुआ तो आज जो बच्चे पहली बार दौड़ रहे थे उनमे से कुछ तो सब बच्चों के बराबर दौड़ नही सके , कुछ पिछड़ गये ओर कुछ गश खाकर गिर गये । प्रार्थना सभा मे सबसे प्रातः संध्या करवाने के बाद मधुसूदन पंडित जी ने स्पष्ट शब्दों मे कहा की जो बच्चे ये सोच रहे है की वो दौड़ेंगे नही तो उनका किस को पता चलेगा , कोई इधर - उधर छिप कर बच जाता है ओर वो ये सोचते है की उनका किसी को नही पता तो हमे सबका पता रहता है । हम जानबूझकर अनजान इसलिए बने हुए थे ताकि आप खुद ही सुधर जाओ ... नही तो हमे तो सुधारना ही है । जिंदगी भी तो एक दौड़ ही है , कोई सपने के पीछे दौड़ता है तो कोई अपना छुट गया उसको बचाने के लिए । ये दौड़ ओर व्यायाम सुबह इसलिए नही होती की हम सब चाहते है की आप सब फ़ौज या रक्षक दलों मे जाए । ये इसलिए होती है क्योकि हम चाहते है की आपका शरीर बलिष्ठ हो , रोग ओर बीमारिया आपसे कोशो दूर रहे । आप आज नही दौड़ोगे तो कल को जब आप बीमारियों से घिर जाओगे तो डॉक्टर को दिखाने के लिए तुम्हे उनके पीछे - पीछे दौड़ना पड़ेगा । बात तो सही कह रहे है पंडित जी , यदुराज ने भानु से कहा । अब चाहे कुछ भी हो , मै गिरु या पीछे रहु मै तो दौड़ूंगा ।
दूसरे दिन सुबह 4 बजे यदुराज ओर भानु तो सीटी बजने से पहले ही उठ गये थे , हा उनके कमरे मे घड़ी नही लगी हुई थी इसलिए वो सुबह 4 बजने वाली सीटी का इंतजार कर रहे थे । सुबह 4 बजते ही दोनो अपने सब साथियो ने साथ निवृत होकर ग्राउंड मे पहुंच चुके थे ओर एक सांस मे 3 कोस दौड़ करके प्रार्थना स्थल पहुँचे । पुरी मनोवृति से भाग लिया क्योकि वो तो आज नही तो कल उन्हे स्वीकार करना ही था , जितनी जल्दी मन से स्वीकार करते उतना ही उन्हे इसका फायदा मिलता । भानु सुन रहे हो आज तो पैर जकड़ रहे है , जवाब ही नही दे रहे कैसे पार पड़ेगी दादा यदुराज ने भानु के हाथो से हल्का सा स्पर्श किया । भानु जिसका ध्यान अभी तक मधुसूदन पंडित जी के व्याख्यान पर लगा हुआ था , किन्तु यदुराज के हाथो का स्पर्श पाकर वह हल्का सा सजग होकर देखने लगा । तुमने कुछ कहा यदु ! दादा मै कह रहा था आज तो पैर शून्य हो गये है , ठीक से बैठा भी नही जा रहा । तुम चिंता मत करो यदु , आज हमारा पहला दिन है ना तो कुछ दिन तो ये दर्द करेंगे ही । लेकिन धीरे - धीरे ये सब सामान्य हो जायेगा ।
कुछ दिनों बाद चौमासा यानी बरसात का मौसम शुरु होने वाला था । इस महीने मे पढ़ाई का महत्व अक्सर बच्चों के लिए कम होकर नैसर्गिक मस्ती उनके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाया करती है । आज आसमान श्यामल वर्ण का दिखाई दे रहा था , सो गुरुजी ने सब बच्चों से कह दिया की अब आप अपने कमरे मे जाकर विश्राम कर सकते हो । सब अन्तेवासी अपने - अपने निर्धारित कक्षों मे जा रहे थे । बादल चारो तरफ उमड़ घुमड कर बल खा रहे थे । अचानक एक बादल को देखकर यदुराज बोला " भानु देख तों बादलो मे उसका अक्स दिखाई दे रहा है " ओर यह कहते हुए वह वहा से भागने लगा , भानु ओर यदुराज के अलावा उस जगह कोई दूसरा था नही तो भानु भी उसे रोकने के लिए उसके पीछे - पीछे भागने लगा । रुक जा यदुराज ! कोई अक्स वक्स नही है । "अरें है देख तो सही , वो देख नीली छीन्ट का घाघरा ; वो उसकी लाल चोली अरे देख तो , वो उसके गुलाबी होंठ ; वो नागिन की तरह बल खाते हुए उसके बालो की लटा देख तो मुझे सब दिखाई दे रहा है यह कहते हुए वह ओर तेज - तेज से भगने लग गया । रुक यदु ....... अरे नही भानु .... देख तो.... उसके बालो मे लगी चुडामणि "यह कहते हुए वह रुक गया । अरे उसकी चुडामणि तो मै लेते आया था चुपके से । उसने ना जाने कहा - कहा नही ढूंढा होगा । उस दिन भी जब हम आखिरी बार मिले थे तब वो चुडामणि ही ढूंढ रही थी जो मैने चुरा ली थी मैने वायदा किया था अबकी बार शहर से आऊंगा तब तुम्हारी चुडामणि अवश्य लाऊंगा पता नही यार भानु उसने चुडामणि खरीदी होगी की नही । यह कहते हुए वह सर को पकड़ कर बैठ गया । भानु ने पास आकर थोड़ा गले लगाते हुए तु चिंता मत कर भाई बाजार से जाकर एक दिन दोनो खरीद लाएंगे । बरसात ओर अंधड़ आने की वजह से आम के फल टूट - टूट कर जमीन पर सैकड़ो की संख्या मे फैल गये थे जिन्हे देखकर लगता था की प्रकृति इन टूटे हुए आमो से सीधे वृक्ष उगाकर इस संसार को आम्रमय बनाना चाहती हो । यदुराज..... देख तों..... कितने आम लगे है । हा भानु जब मै , भव्या , नीरू , रमिया ओर नवीन पांचो दोस्त बारिश होती थी उसके बाद आम को इक्क्ठा करने के लिए पूरे पदमपुरा की खाक छान मारते थे । हाय भव्या ! मेरी भव्या कहते हुए वह आम इक्क्ठे करने लगा । भानु ये आम मै भव्या के लिए इकटठे कर रहा हु जब हम मिलेंगे तो उसे मै ढेर सारे आम दूंगा । इसके बाद दोनो छात्रावास मे चले जाते है ।
उधर दूसरी तरफ यदुराज को छात्रावास भेज दिया गया तो भव्या का मन पाठशाला मे थोड़ा कम लगने लगा । किन्तु इसके बावजूद भी वो पाठशाला आया करती थी । यदुराज को अपने साथ ना पाकर भव्या , नीरू , नवीन , रमिया चारो अक्सर गुमसुम ओर मायूस रहा करते थे । किन्तु नवीन उन सबकी उदासी को दूर करके हसाने की चेष्टा किया करता था । वह कहता यदुराज यहां आ जायेगा तो उसे फिर से मार खानी पड़ेगी । ओर यह धर्मु तो उस पर वैसे ही खुनस खाये हुए है यह तो ओर भी मोटा डंडा लाकर देगा ताकि उसके ओर जोर से लगे , अब वहा है तो पिटाई से तो बच रहा है , बेचारे को जवाब भी तों देना नही आता , अगर वहा गुरुजी मार भी लगाते होंगे तों कम से कम हमे तो वो नही देखना पड़ता । इसके बाद सब एक साथ हँस पड़ते । हँसते हँसते अचानक भव्या की हँसी मायूसी मे बदल जाती । 2 साल बीत गये उन्हे , पता नही कब आएंगे । यहां तो तिल जितना समय ही पहाड़ जैसा लगता है । एक वो है जो टेलीफोन , चीट्ठी , किसी के हाथो से समाचार कुछ नही , सब कुछ सोचती हु जो मै ही । उसे भी तो अक्ल दे भगवान वो भी तो मेरी सुध ले , ओर फिर आँखो से अविरल बहती अश्रुधारा ।
नीरू एक ऊंगली से आंसू पोछते हुए चुप हो जा भव्या , मैने तो मम्मी को बार - बार यही कहते सुना है की आत्मा सो परमात्मा । हम किसी को अगर दिल से किसी के बारे मे जैसा सोचते है वैसा ही वो सोचता है । हम किसी के बारे मे अगर अच्छा सोचते है तो वो भी अच्छा सोचता है ओर अगर हम किसी के बारे मे बुरा सोचते है तो वो भी बुरा ही सोचेगा । तु उसको इतना याद करती है तो ये बारिश उधर भी हो रही होगी । ही.. ही...ही... फिर दोनो एक साथ हँस पड़ती है ।
यदुराज को गये कई दिन हो गए थे , लेकिन उसके अभी तक ना कोई चिट्ठी , ना टेलीफोन, ना ही कोई संदेश आया था । इससे उसकी माताजी वैदेही देवी बड़ी बेचैन हो रही थी और उसने कई बार पंडित कृष्णमूर्ति द्विवेदी जी से इस बारे में पूछा भी था की यदुराज की चिट्ठी या कोई संदेश आया क्या , लेकिन कृष्णमूर्ति जी हर बार यही कहकर उसको दिलासा दे देते थे कि अब वह ठीक है और मन पढ़ाई में अच्छा लगा होने के कारण कभी कभार चिट्ठी लिख दिया करता है वह फिलहाल घर से थोड़ी दूरी बनाकर रहना चाहता है ताकि उसका मन भटककर उसकी पढ़ाई बाधित ना हो । वैदेही देवी जानती थी कृष्णमूर्ति जी ये सिर्फ उनको दिलासा देने के लिए कह रहे है । पहरेदार पवन देशमुख भी अब गुमसुम सा और उदास बैठा रहता है उसे तंबाकू खाने के लिए रोकने टोकने वाला अब कोई नहीं है । उसे तंबाकू खाते हुए यदुराज का टोकना आज उसके ना टोकने से भी बेकार लग रहा है । आज सुबह से ही बारिश की फुहार हवा के साथ पृथ्वी को भिगो रही है । वैदेही देवी ने गरमा गरम पकौड़ी बना कर डाइनिंग पर टेबल पर सजा दी है और उम्मीद लगा कर बैठी है इसकी खुशबू से उसका बेटा खिंचा चला आएगा । एक गाड़ी गई , दो गाड़ी गई इस प्रकार नुक्कड़ के आखिर तक जब सब गाड़ी आ जा चुकी थी तब कृष्णमूर्ति की द्विवेदी जी की गाड़ी पो... पो..... करते हुए घर के अंदर दाखिल हुई । सीमा और अजय ने अपनी माँ को टोकते हुए कहा की मां तुम भी खामख्वाह की चिंता करते हो । भैया वहा ठीक है । सीमा बोली मुझे भी तो देखो हर रक्षाबंधन पर एक राखी मेरी ऐसे ही बच जाती है अब भैया आएंगे तो मैं भी पूरा हिसाब करूंगी दोनों हाथ राखियो से भर दूंगी , बरसो का हिसाब एक दिन मे हो जायेगा ।
बरसात के मौसम मे जब नदी नाले उफान पर थे , बादल उमड़ - घूमड़कर बरखा बरसा रहे थे । एक दिन अन्तवासियो ने इच्छा प्रकट की कि उन्हे महानंदा नदी के दर्शन करने सभी इजाजत दी जाये । दिनिया गार्ड के देखरेख व निर्देशन मे सभी अन्तवासियो को पूर्णिया से कुछ दूरी पर महानंदा नदी को देखने की इजाजत पूर्णतः हिदायत के साथ दे दी गई । सभी अन्तेवासी उछलते_कूदते, हो.... हो.... करके तेज चिलाते हुए नदी के किनारे छपाछप करते हुए पानी को उलीचने लगे । ये क्या ? अचानक से दीपक का पैर फिसला ओर वो नदी मे गिर पड़ा । बचाओ... बचाओ.... कोई चीख रहा है , कोई चिल्ला रहा है । कोई सहायता मांगने के लिए इधर - उधर दौड़ने लगा । पानी मे से आवाज आई धम्म ........ ये क्या , यदुराज दीपक को बचाने के लिए कूद पड़ा । लेकिन उसे तो खुद तैरना नही आता । वह धीरे - धीरे जल की गहराइयों मे जाने लगा । देखने वालों की आँखे सकपकाई, हृदय की धड़कने शिथिल होती जा रही थी , भानु चीख पुकार मचाने लगा । मरता क्या ना करता ? खुद को डूबता देख बचाने की जुगत मे यदुराज पानी मे हाथ पैर इधर - उधर मारने लगा , इसी प्रयास मे वह पानी को काटकर सीधा तैरने लगा । पानी की लहरों के बीच उछलते दीपक को बचाकर किनारे ले आया । कोई हाथ पैर दबाने लगा । कोई छाती के बल लिटाकर छाती पर दबाव देकर फेफड़ों मे भरा पानी निकालने लगा , थोड़ी देर मे सबकी मेहनत का नतीजा दीपक को होश आया । मै यहां कैसे आया , मुझे पानी से बाहर कौन निकाल कर लाया ? इस तरह से दसियो सवाल एक साथ कर डाले । तुम्हे यदुराज पानी से बाहर निकाल कर लाया है भानु ने प्रतिउतर देते हुए कहा ।
महानंदा माई की कृपा थी की तुम बच गये ।
दीपक - यदुराज ने , लेकिन उसको तो तैरना भी नही आता ।
भानु - तैरना बेशक नही आता दीपक , लेकिन जब तुम डूब रहे थे तब उसने आव देखा ना ताव , सैकड़ो लोग खड़े थे, जिसमे कुछ तुम्हारे अंतरंग मित्र भी थे जो खड़े तमाशा देख रहे थे, अपनी जान की परवाह किये बिना उसने तुम्हारी जान बचाई थी ।
दीपक लगातार यदुराज को देख रहा था , उसके हृदय मे पल रही नफ़रत का स्थान पश्चाताप ने ले लिया था , आँखो मे बदले की भावना की जगह पश्चाताप के आँसू बह रहे थे , आगे बढ़कर यदुराज को गले लगा लिया । मुझे माफ़ कर दो दोस्त , मैने आज तक अनजाने या जानबूझ कर तुम्हे बहुत कष्ट पहुंचाया , मुझे माफ़ करो । वर्षो के गिले शिकवे दूर हुए । दो दुश्मनो ने आपस मे एक दूसरे को गले लगाया । तुम तो सच मे चुंबक हो दादा ! भानु ने यदुराज को टोकते हुए कहा । हा... हा... ही.... ही.... सब एक साथ हँस पड़ते है ।
मधुसूदन पंडित जी ने अब रामायण ओर अध्यात्म की शिक्षा देना शुरु कर दिया था । वैदिक ऋचाओ का गायन अब छात्रावास मे गुंजने लग गया था । शास्त्र के साथ ही स्वावलम्बी तथा आत्मरक्षा प्रशिक्षण के लिए तलवारबाजी , घुडसवारी तथा तैराकी आदि का विशेष प्रशिक्षण दिया जाने लगा । एकनिष्ठता तथा गुरुभक्ति के चलते यदुराज शास्त्र ओर शस्त्र मे जल्द ही प्रशिक्षित हो गया । सब शास्त्रों मे उसे रामायण सर्वाधिक पसंद थी । तुलसीदास कृत रामचरितमानस ओर वाल्मीकि रामायण की उसे एक _एक चौपाई ओर एक - एक श्लोक उसे कंठस्थ याद था । मर्यादा पुरुषोतम भगवान श्रीराम उसका प्रिय पात्र था । अपने पिता की आज्ञा से निरपराध होकर भी पितृभक्ति निभाने के लिए 14 वर्षो का वनवास भोगने वाला वनवासी राम , जब राजा महाराजाओ मे अनेको विवाह करने का प्रचलन था तब भी सीता जैसी पतीव्रता पत्नी के लिए रावण जैसे दुराचारी से भिड़ने वाला राम । वल्कल पहनकर कन्द मूल खाकर वानरो ओर भालुओ के सहयोग से समुद्र का दर्प चूर करके त्रिलोकविजेता दशानन को धूल चटाने वाला सन्यासी राम । राह को पुष्पो से सुवासित करके पथ निहारती सबरी के बेर खाकर भक्तो के वचन की रक्षा करके समाज मे समता का संदेश देने वाला राम यदुराज का प्रिय पात्र व उसकी दृष्टि मे प्रातः स्मरणीय प्रथम पूज्य पुरुष था । छात्रावास मे अन्तेवासियो का अंतिम वर्ष चल रहा था । कुछ समय पश्चात उनका समावर्तन संस्कार था ।
इसी बीच एक बुरी खबर आई जिस जगह छात्रावास संचालित था वो मधुसूदन पंडित की पैतृक जगह नही थी उस पर किसी प्रतिवादी ने दावा कर रखा था , उस केस मे मधुसूदन पंडित हार गये । उन्हे आगामी 15 दिवस मे छात्रावास की जगह को छोड़कर दूसरी जगह छात्रावास शिफ्ट करना था । पूर्णिया मे रहते - रहते मधुसूदन पंडित जी भी उब गये थे इसलिए उन्होंने काशी मे रहने का फैसला किया । आनन - फानन मे ट्रेन से जाकर काशी मे एक बना बनाया मकान देख लिया । हवेली थोड़ी पुरानी जरूर थी , मगर महफूज थी , नया छात्रावास बनाने मे समय लगता इसलिए मधुसूदन पंडित जी ने अस्सी घाट के निकट उस हवेली को निश्चित करके आ गये । कुछ दिनों बाद सभी अन्तेवासियो को ट्रेन से लेकर काशी पहुँचे ।
अब छात्रावास की दिशा ओर दशा बदलने से विधार्थियों का मानसिक स्तर भी बदल गया था । पहले जालीदार कमरे हुआ करते थे , अब उनकी जगह चारो तरफ दीवारो से युक्त कमरों ने ले लिया । पहले छात्रावास मे अपेक्षाकृत बड़े स्नानागार होते थे , अब छात्रावास की नई जगह मे स्नानागार नही था अपितु गंगा नदी मे ही गंगा घाट पर स्नान के लिए जाना होता था । काशी आने के बाद बंदिशे अन्तेवासियो पर पूर्णिया के बजाय थोड़ी कम हो गई थी । गंगा घाट ओर अस्सी घाट के निकट तकरीबन 2 कोस का अंतराल था । पहले तो विधार्थियों को अकेले नही भेजा जाता था उनके साथ प्रत्येक अवसर पर दिनिया गार्ड को भेजा जाता था । अब दिनिया गार्ड की हस्तक्षेप हर काम मे थोड़ी कम करके उनको स्वतंत्र रूप से कार्य करने के लिए छुट दे दी गई ।
आज यदुराज ओर भानु दोनो सूर्योदय से पूर्व गंगा घाट पर स्नान के लिए निकले । गंगा घाट पर जगह - जगह भारी भीड़ थी । सुबह वहा की दीप आरती सहज ही मन मोह रही थी । कदम - कदम पर पंडो का जमावड़ा था , आइये जजमान पूजा करवाइये , पितृ ऋण से मुक्ति के लिए तर्पण करवाइये , पिंडदान करवाइये , दीपदान कीजिये पुण्य. कमाइए ..... इत्यादि इत्यादि । भीड़ को चीरते हुए एक खाली सी जगह पाकर दोनो स्नान करने लगे । गंगा स्नान करने वालों की भीड़ के साथ - साथ लोग अपने प्रियजनों का तर्पण करवाने भी आ रहे थे । आज यदुराज और भानु ने पहली बार गंगा मे डुबकी लगाई थी । हर - हर गंगे बोलते हुए दूसरी डुबकी लगाई , गंगा स्नान करने वाले कही पानी मे नही डूब जाये इसकी सुविधार्थ जगह - जगह लोहे की बेल और छड़ लगाई गई थी ताकि स्नानार्थी उनको पकडकर स्नान कर सके । बेल के दूसरी तरफ जाने का मतलब था खतरा जहा जलस्तर और अधिक गहरा रहा था , दीवारों पर लिखी चेतावनी स्पष्ट शब्दों मे देखी जा सकती थी । बार - बार माइक से घोषणा की जा रही थी " यात्री कृपया गहरे पानी मे ना उतरे, स्नान के लिए बेल को पकडकर रखे। सब नियमो और चेतावनियो की अनदेखी करके यदुराज गहरे पानी की तरफ चला गया । उधर मत जा यदु .... भानु जब तक पुरी बात बोलता तब तक तो वो जल मे तैराकी के मजे ले रहा था । गंगा मे घंटो भर तैरना यदुराज का पंसदीदा शौक बन गया था । प्रातः काल मे सूर्योदय पूर्व आना , ठीक गंगा आरती के समय बजते शंख - झालरों की आवाज़ इतना सुकून देती थी की घंटे भर तैरने के दौरान भी समय का भान नही रहता था ।
एक दिन प्रातः काल मे यदुराज और भानु जब स्नान को गये तब जैसे ही यदुराज ने पानी मे डुबकी लगाई तब अचानक से शंख झालरों की आवाज़ के बीच एक अलग ही प्रकार की आवाज़ महसूस की , यह आवाज़ किसी के नूपुरो की आवाज़ थी । नजरें उठाकर उपर देखा तो एक सतरह बरस की नवबाला सामने खड़ी थी । उसके काले बाल हवा के झोको से उड़ कर चेहरे पर आ रहे थे प्रतीत हो रहा था जैसे सावन के बादलो की घटा ने स्वच्छ आसमान को घेरकर श्यामल कर दिया हो । लम्बा चौड़ा ललाट, मीन सदृश आँखे, लम्बी तुरही नाक , गुलाब की खिली हुई 2 पंखुड़ियों के से दोनो होंठ उनके बीच मे चमकते सफ़ेद दाँत प्रतीत होते थे मानो सीप से सफ़ेद मोती बाहर आने को आतुर हो , गदराया हुआ तन , लम्बी गर्दन ,दूध की तरह धवल श्ररीर उसे देखकर लगता था की ना तो इतनी सुंदर ना तो इंद्र की अमरावती की कोई अप्सरा ( उर्वशी , मेनका , रम्भा ) और ना ही कुबेर की अलकापुरी की किसी यक्षिणी मे ऐसा सौंदर्य देखा था । ब्रह्मा ने बस उसको बनाने वाली सम्पूर्ण मिट्टी ही उसके शरीर मे लगाकर किसी और को बनाया ही नही हो या फिर कहो तो कामदेव और रती ने सम्पूर्ण सौंदर्य का वर उन्हे ही देकर बाकी संसार को निरीह ही रख दिया हो । कोई देखे तो देखता ही रह जाये । उसको लगातार देखते - देखते ना जाने कितना समय यदुराज को बीत गया । स्नान करके जब भानु ने अपने मीत का ध्यान अन्यत्र पाया तो हाथ आँखो के आगे ले जाकर पूछा " कहा ध्यान नही है " दृष्टि मे अवरोध आ जाने से यदुराज की तन्द्रा टूटी , कही ध्यान नही है और फिर दोनो छात्रावास की तरफ चल दिये ।
दूसरे दिन प्रातः काल मे ही यदुराज भानु के साथ गंगा स्नान को गया । लेकिन आज वह आनन फानन मे ही डुबकी लगाकर पानी मे खड़ा रहा । वह प्रतीक्षारत था की वह नवबाला आज भी आएगी । इंतजार खत्म हुआ , थोड़ी देर बाद वह नवबाला भी गंगा स्नान को आई । तब तक गंगा घाट पर अपेक्षाकृत भीड़ थोड़ी ज्यादा हो गई थी , नव नवबाला जल मे भीगकर अब पानी से बाहर निकलकर जाने को थी । यदुराज की तो उस सुंदरी से निगाहे ही नही हट रही थी । वह सुंदरी भी अपने तीर कमानो का भरपुर इस्तेमाल करके उसे घायल करने मे कोई कसर नही छोड़ रही थी ।वह कभी सीधी देखती तो कभी तिरछी , जब यदुराज की निगाहे इधर - उधर होती तो वो उसकी तरफ देखती , जब यदुराज उसकी तरफ देखता तो वो इधर - उधर देखती । कभी देखकर मुस्कुराती तो कभी तिरछी नजरो से देखकर नजरें फेर लेती । सदियो से स्त्रियों के यही तो प्रबल हथियार रहे है जिनसे वह बिना किसी तीर कमान के भी पुरुषो का शिकार करती आई है । जो काम तलवार की तेज धार नही कर पाती वो काम एक स्त्री की तिरछी नजरें कर जाती है । तलवार की मार से आर्त व्यक्ति तो सम्भव भी है की बच जाए लेकिन एक नवयौवना के नैन कटारो से पीड़ित व्यक्ति सम्भव ही नही खुद को बचा सके । मै इस सुंदरी के मोह जाल मे नही फसूंगा , मै अगर फ़स गया तो बाकी पुरुषो की प्रवृत्ति मे और मुझमे अंतर क्या रहेगा , नजरें उठाकर उपर देखा तब तक वो नवबाला जा चुकी थी ।
नही.... नही.....
मै इस तरह से तो किसी के आकर्षण मे इतना विचलित नही हो सकता , जो मुझे खुद को ही नही भान की ये हो क्या रहा है ,स्त्रियों का तो काम ही है पुरुषो को अपने मोहपाश मे फासना अब ये तो उनके खुद के विवेक पर निर्भर है की वे खुद को कितना बचा पाते है ,
अभी यदुराज सोच ही रहा था की इतने मे भानु ने आकर विचारों मे खलल डाला ।
चलना नही है क्या भाई ?
देख तो सुरज सर पर चढ़ आया है ,
दोनो छात्रावास मे चले जाते है ।
दूसरे दिन प्रातः काल एक लड़की जिसने लाल रंग की आस्तीन पहन रखी थी तथा लाल रंग के दुपट्टे से चेहरे को ढक रखा था ,
सीढ़ियों के पास आकर बैठ गई ।
वह गंगा स्नान करने आये लोगो मे शायद किसी का इंतजार कर रही थी , जैसे ही यदुराज और भानु स्नान करने उतरे वह उन्हे एकटक देखे जा रही थी , इसी दरम्यान उनके साथ छात्रावास से
आये हुए अन्य छात्रों से वह कुछ बातचीत करने मे व्यस्त हो गई थी , बातचीत करने से देखने वालों को ऐसा लगता था मानो इनकी बरसो की जान पहचान हो । शायद वो कुछ पूछ रही थी । आज यदुराज की निगाहे चारो तरफ शायद किसे तलाश कर रही थी । बार - बार पानी मे गोते लगाना फिर नजरें उठाकर देखना , आशातीत व्यक्ति के ना दिखाई पड़ने पर फिर गोते लगाना । इन सबके बीच एक बात थोड़ी अजीब हो रही थी वो युवती एकटक होकर घटनाक्रम को देख रही थी । लाल दुपट्टे के बीच उसकी बड़ी - बड़ी आँखे लग रही थी जैसे इन्हे पहले कही देखा हो । काफी जोर देने पर भी याद नही आ रहा था । लेकिन वह नवबाला वही थी जो नित्य यदुराज को मिल जाया करती थी लेकिन भानु और यदुराज दोनो ही इस बात से अनभिज्ञ थे । किसी को अपनी लत लगाकर कुछ समय के लिए बिछोह कर लेना शायद शुरुआती दौर से ही प्रेम को प्रगाढ़ करने का माध्यम रहा हो , उसी माध्यम का प्रयोग वह युवती कर रही थी । गंगा स्नान के बाद कुरता पहनकर जब तक यदुराज गली के आखिरी छोर तक नही गया तब तक वह युवती उसे देखती रही ।
आज छात्रावास मे भानु के पापा उससे मिलने आये थे , सब छात्रों ने मिलकर उन्हे चारो तरफ से घेर रखा था , तरह - तरह की प्रतिक्रियाये हो रही थी , सब अपने - अपने घरवालों की बाते सबसे साझा कर रहे थे इस दरम्यान किसी के घरवाले 5 बार मिलने आ चुके थे तो किसी के घर वाले सात बार । केवल यदुराज के घरवाले थे जो इन 7_ 8 वर्षो की अवधि के दौरान एक बार भी नही आये थे । ऐसा नही था की उसे ये सब बाते महसूस नही होती थी की जब सबके परिजन उससे इतनी बार मिलने आये और उसके परिजनों ने उसकी खोज खबर तक नही ली , परन्तु वह अपना दुःख भी बांटे तो किससे , ना चाहते हुए भी दिल का दर्द आँखो मे स्पष्ट दिखाई देने लगा । भानु ने पहचान लिया , किन्तु इस समय वो चुप रहा । शाम के समय जब प्रार्थना से निवृत हुए तब भानु ने पूछा " तुम्हारी आँखो मे आँसू क्यो थे यदु " शुरु से लेकर अंत तक का सारा किस्सा एक सांस मे कह दिया । माँ वैदेही देवी , पिता कृष्णमूर्ति , भव्या , नीरू और वो सब ....... ।
तुम चिंता ना करो दादा एक दिन सब अच्छा हो जायेगा ,
और वैसे भी छात्रावास मे अब अपने दिन ही कितने शेष है , इसके बाद तुम्हारे गाँव की वही सौंधी मिट्टी का आँगन और ये खुली हवा ।
अगले दिन गंगा स्नान को प्रातः ही पहुंच गया । गंगा स्नान करने के लिए जैसे ही जल मे उतरा , सामने वही नवबाला खड़ी मुस्कुरा रही थी । आज जो भी हो वह इस नवबाला का परिचय जानकर ही रहेगा । आनन - फानन मे बाहर निकला , उस नवबाला की हँसी उसकी धड़कनो को शिथिल कर रही थी । जुबान ह्रदय के जज्बातो का साथ नही दे रही थी । एक बार नजर घुमाकर दूसरे घाट की तरफ देखा , फिर उस नवबाला की तरफ देखा तब तक वह नवबाला जा चुकी थी । माथा पीटा, हाय मेरी किस्मत , पास रहकर भी मैने उसका परिचय नही जाना जिस प्रकार कस्तूरी हिरण के कस्तूरी पास होती है लेकिन फिर भी वह उसकी कस्तूरी की सुगंध से अनभिज्ञ इधर - उधर भटकता रहता है , उसी प्रकार मैने उसका नाम - पता जानने की बजाय इधर - उधर की बातो मे समय गुजार दिया ।
भानु ने पास आकर सांत्वना दी , की आज नही तो कल उसका पता पूछ लेना ।
अगले कई रोज गंगा घाट स्नान को आते वह युवती नही मिली । घंटो भर उसकी राह तकते भी वह नही दिखी , मन विचलित हुआ , मस्तिष्क मे सैकड़ो सवाल एक साथ कौंध गये , कही उस सुंदरी ने वह शहर तो नही छोड़ दिया , कही वह बीमार तो नही , इत्यादि .......।
अचानक एक दिन वह नवयुवती अपने 2_ 3 सखियो के साथ एक छोटी बच्ची को गोद मे लेकर सड़क पार करते दिखी । सड़क पर ट्रैफ़िक ज्यादा होने की वजह से वह युवती उस सड़क को पार ना कर पा रही थी , यदुराज ने आनन फानन मे हाथ पकड़ा और सडक पार करवा दी, यह वही युवती थी जो रोज गंगा स्नान को जाते समय घाट पर मिल जाया करती थी । तुम्हारा नाम क्या है , इतने दिन तुम कहा थी यदुराज ने 2_ 3 प्रश्न एक साथ ही कर डाले । थोड़ा सांस लेते हुए वह युवती बोली मेरा नाम मोहिनी है और ये जो गोद मे देख रहे हो यह मेरी बेटी है नताशा । यह बीमार थी इस वजह से मै नही आ सकी । तुम शादीशुदा हो यदुराज ने थोड़ा चौकते हुए पूछा । हा ! मै शादीशुदा हु और मेरे वो .. बनारस के सबसे सुंदर युवक है ।
थोड़ा मुँह लटकाते हुए यदुराज घमंड ठीक नही , आखिरकार मिलना तो मिट्टी मे ही है ।
इसे घमंड कहो, गुमान कहो या गर्व कहो वो आपकी भाषा लेकिन किसी दिन आईने के सामने आपकी मुलाक़ात करवाउंगी । यदुराज भावार्थ न समझ कर ठीक है कहता हुआ अपनी राह की तरफ आगे बढ़ गया ।
तुमने उससे झूठ क्यो बोला प्रियवंदा की तुम्हारा नाम मोहिनी है , दूसरा झूठ ये की तुम्हारी शादी हो चुकी , तीसरा झूठ ये की नताशा तुम्हारी बच्ची है । तुम्हे पता है एक झूठ को छुपाने के लिए कितने झूठ बोलने पड़ते है । " झूठ बोलने का एक नुकसान ये भी होता है की वह झूठ हमे याद रखना पड़ता है क्योकि अगली बार जब हम बोलेंगे और पहले जिस चीज के बारे मे झूठ बोला था अबकी बार सच बोलेंगे तो मारे जाएंगे । प्रियवंदा की सखी मिंटू ने मुहफट कह दिया । प्रियवंदा मुस्कुराते हुए मैने नाम झूठ बोला इसमे एक रहस्य है शायद अभी तुम नही समझ सको , मेरी शादी हो चुकी ये सच है , मै मन ही मन किसी को अपना मान चुकी और रही नताशा की तो मै उसकी मौसी हु तो वो मेरी बेटी ही होगी ना ,मैने झूठ कहा बोला ।
मिंटू - तुमने कहा की तुम मन ही मन किसी को अपना मान चुकी लेकिन किसे , वैसे समझ तो हम भी रहे है लेकिन तुम बता दो तो अच्छा रहेगा ।
मोहिनी - मै कैसे बता दु, मुझे शर्म आती है , वक्त आने पर तुम खुद समझ जाओगी ।
मिंटू - लेकिन , मोहिनी तुमने तो रिश्ते की शुरुआत ही झूठ से की है , झूठ से शुरु कोई भी रिश्ता ज्यादा नही चलता क्योकि झूठ के पैर नही होते ।
ज्येष्ठ का महीना आ चुका था इसी श्रावणी पूर्णिमा को यदुराज और उसके कक्षा सहपाठियों का समावर्तन संस्कार होना था । वातावरण मे गर्मी के अलावा आसमान धुलभरी आँधियो से अटा रहता था वातावरण मे उमस ज्यादा रहने लगी थी । अस्सी घाट के किनारे भीड़ भाड़ ज्यादा होने से गर्मी की वजह से उकता जाते थे इस कारण मधुसूदन पंडित जी ने सभी को दिन मे भी थोड़ा गंगा घाट किनारे घूमने की छुट दे रखी थी । काशी विश्वनाथ के दर्शन और पिंडदान करने आने वाले भक्तो और यात्रियो के कारण वहा भीड़ का जमावड़ा रहता था । सर्पिली वेग सी चलती गंगा की लहरे किसी के भी व्यथित मन को शांत करने के लिए श्रेष्ठ औषधि थी । यहां आकर सुकून मिलता था मानो वर्षो के प्यासे मरुस्थल मे भटकते राहगीर को जल का सोता मिल गया हो ।
अगले रोज गंगा घाट पर स्नान के दौरान मोहिनी और मिंटू ने यदुराज के दोस्तों भानु , दीपक , गोपाल इत्यादि को बातो मे लगा रखा था । शायद वो उनसे कुछ जानकारी हासिल कर रही थी तभी यदुराज भी भानु के बगल मे आकर बैठ जाता है । तुम्हारा घर कहा है मोहिनी ? यदुराज ने पूछा ? तुम्हारा दिल ही मेरा घर है अब तो यदुराज , मेरी कोई चीज अब मेरी नही रही वो तुमसे मिलकर तुम्हारी हो गई जैसे नदी का पानी समुद्र से मिलकर नदी का पानी नही रहता वह सागरमय हो जाता है ऐसे ही मेरा सर्वस्व तो तुम चुरा चुके । मोहिनी जिसे तुम प्रेम समझ रही हो वो प्रेम नही है वो चेहरे का आकर्षण है , अभी तुमने जाना ही कितना है मेरे बारे मे , ये नही हो सकता मोहिनी , तुमने बिना कुछ जाने कुछ ज्यादा ही ख्वाब देख रखे है । ख्वाब नही देख रखे यदु , मै जानती हु ये सच होंगे , मै ये भी जानती हु इस समय तुम्हारे ह्रदय मे कौन है लेकिन कब तक , जैसे आज मेरे रोम - रोम मे तुम्हारा कब्जा है , मेरी साँसों का तार - तार तुम्हे पुकारता है , हृदय मे धड़कन की जगह तुम धड़कते हो , जितनी बार तो मै दिनभर मे साँसे नही लेती होउंगी जितना तुम्हे याद करती हु यदु ।
तुम्हारा कहना ठीक है मोहिनी , तुम अपनी जगह भी ठीक हो लेकिन इस जन्म मे तो मै कम से कम किसी और का ऋणी हु, जब तक मै उऋण ना हो जाऊ तब तक किसी के बारे मे सोचना भी गुनाह है । पाप - पुण्य को तो मै नही जानती यदु , मै तो तुम्हारी चरणानुरागिनी बनना चाहती हु ,क्या इतनी सी जगह भी नही है क्या ?
फिलहाल मै आपके किसी भी प्रश्न का जवाब देने मे असमर्थ हु मोहिनी , विदा चाहता हु , छात्रावास भी जाना है । जाते - जाते एक बात भी सुनते जाओ यदु ! अगर तुम्हारी अर्धांगिनी बनने का सौभाग्य मिला तो मै मानूंगी की ईश्वर प्रेम तपस्या को सम्पूर्ण करके उसका फल अवश्य देता है अन्यथा सब किताबी बाते है , मै तुम्हारा इंतजार करूंगी .... ।
छात्रावास मे वो सब बाते उसके जेहन से निकल नही पा रही थी । भानु बातो से कुछ दुःख हल्का करने की कोशिश कर रहा था । एक तो वो है भानु जो इस चेहरे पर आसक्त है , दूसरी तरफ भव्या जो तब भी साथ थी जब कोई मेरे साथ नही था , मेरे बचपन की संगी , प्रेम अनासक्त भी होता है और आसक्त भी , प्रेम मे आकर्षण भी होता है और विकर्षण भी , मोहिनी का प्रेम आकर्षण से शुरु है और जो प्रेम आकर्षण से शुरु होता है वो रूप सौंदर्य के ढलते ही विकर्षण मे बदल जाता है जबकि भव्या का प्रेम सुरक्षा की भावना से प्रगाढ़तम रूप तक पहुंचा है जो साँसों की अंतिम डोर तक रहेगा । भानु चुपचाप बैठा सुन रहा था । ऐसा कुछ नही है यदु... मोहिनी का प्रेम आज भले ही आकर्षण से शुरु हो रहा हो किन्तु सुरक्षा की भावना सुनिश्चित होने के बाद लड़की अपने प्रेमियों पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती है , जीवन तुम्हारा है मर्जी तुम्हारी ।
आख़िरकार श्रावणी पूर्णिमा के दिन छात्रावास की अंतिम कक्षा के विधार्थियों को विदाई करने का समय सुनिश्चित हुआ । व्यथित और दुःखी मन से सब विधार्थियों ने विदा ली ।अब ये भी नही पता भविष्य मे दोबारा मुलाक़ात होगी भी या नही , होगी तो कब होगी और क्या पता नही भी हो , बस सब कुछ संभावनाओं पर टिका हुआ था । छात्रावास जीवन की समाप्ति का सूचक आगामी जीवन मे आने वाले परिवर्तनो और तुफानो का परिचायक था जहाँ उन्हे समाज मे स्वयं की पहचान के लिए एक द्वन्द करना था , खुद को स्थापित करने की चुनौती थी ।
अध्याय : ३
श्रावणी पूर्णिमा को छात्रावास से समावर्तन के बाद गाँव लौटते हुए जगह - जगह लगे हिन्दोले , मल्हार गाती महिलाये , रास्ते की हरियाली सब कुछ अलग था , सब कुछ बदला हुआ सा नजर आ रहा था । श्रावण का महीना हो और जेहन मे प्रेयसी का स्मरण ना हो ये कभी सम्भव है । वर्षभर का प्यासा चातक ( पपीहा) पक्षी भी बरसात मे अपने प्रेमी बादल को पी.. पी.. करके पुकारने लगता है । भागलपुर पहुंचते ही मोटरगाडी को थोड़ी देर रुकवाकर यदुराज और ड्राइवर रुक जाते है । आमो के झुरमुट के बीच कुछ लड़किया गीत गाकर झूला झूल रही थी । पास आकर थोड़ा गौर से देखा तो वो लड़की जो उन सबमे महत्वपूर्ण थी शायद किसी बात पर उनसे रूठकर बैठी थी उसकी बाकी सखिया उसको रिझाने का प्रयास कर रही थी । यदुराज उस युवती को देखते ही पहचान गया था परन्तु वह युवती नही पहचान पाई , पास आकर थोड़ा घुरकर देखने लगा । अब युवती जो कुछ पहले से नाराज थी कुछ इन बचकानी हरकतो से चिढ गई थी उसका गुस्सा सातवे आसमान पर था , ये क्या हरकत है । नजर उठाकर सामने देखा तो एक उन्नीस बीस बरस का नवयुवक सामने खड़ा था । लम्बा कद, गठीला बदन , नीली आँखे , चौड़ा ललाट, लम्बी भुजाये , मजबूत फड़कते भुजदंड कोई देखे तो देखता रह जाये , किसी तरह खुद को सम्हाल कर वह युवती सामने आ खड़ी हुई । कुछ तमीज नाम की चीज है की नही , अब नजरो से खा ही जाओगे क्या ? युवक ने कोई प्रतिक्रिया नही दी । युवती का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था ,हूँ मुझे क्या , सैकड़ो लोग इस राह से गुजरते है , मै किस किस के मुँह लगु यह कहते हुए वह नवयुवती पीठ फेरकर उसकी तरफ आकर खड़ी हो गई । युवक जो कुछ देर पहले तक शांत खड़ा था । अपने झोले से एक चुड़ामणि निकालकर झट उस युवती के बालो मे लगा देता है , इस अज्ञात हरकत से वह युवती गुस्से मे जैसे ही कुछ करने को होती है झट हाथ पकडकर शांत हो जाओ , भव्या ! इस प्रकार किसी अपरिचित से अपना नाम सुनकर आग बबूला भव्या झटपट अपने बालो मे हाथ देती है , चुड़ामणि को हाथ मे लेकर गौर से देखती है , पुरानी स्मृतिया मस्तिष्क मे कौंध जाती है । यदुराज ... ओ.. यदुराज । कहाँ थे तुम , कितने वर्षो बाद खबर ली , मिले भी तो अजनबी की तरह , तुम मुझे जान गये और मै पागल तुम्हे पहचान भी नही पाई , फिर तुमने भी क्यो नही बताया । बरसो के बिछुडे आज मिले थे । जिस प्रकार बरखा रानी के फैलते साम्राज्य मे अपने बिलो से बाहर निकले सर्पिणी का फन उठाकर फूफकारते हुए एक दुसरे लिपट जाते है उसी प्रकार यहां वर्षो के संगी साथियो ने हृदय से लगकर एक दूसरे को सीने से सटा रखा था , थोड़ी देर मे बरसात शुरु हो चुकी थी बारिश के बाद दोनो अपने - अपने घर पहुँचे ।
पुरा परिवार पलक पावडे बिछाकर कबसे इंतजार कर रहा था । माँ वैदेही देवी , दादी चारुल देवी , बहन सीमा, भाई अजयराज सबसे जी भरकर मिला व ढेर सारी बाते की । घर मे केवल पंडित कृष्णमूर्ति की बातो से नही लग रहा था की बेटा इतने साल बाद लौटा है तो उसके प्रति कुछ व्यवहार बदला या फिर कुछ और । यहां आकर वो फाइनली अपने बचपन के मित्र रमिया और नवीन से मिला वो दोनो भी बहुत बदल चुके थे , नवीन अब राजनीति मे सक्रिय हो चुका था वही रमिया अपना पुस्तैनी धंधा सम्हालने लगा था । भागलपुर और पदमपुर के बींच आमो का एक बड़ा सा बागान पड़ता था वही यदुराज और भव्या ने मिलने का ठिकाना बना रखा था , दोनो का प्रेम विशुद्ध प्रेम था , काम वासना व विकार की तो छायामात्र भी उन्हे ना छु पाई थी । घंटो भर साथ रहने के बाद भी दोनो का प्रेम निष्पाप था लेकिन दुनिया का दस्तूर होता है अच्छी चीजों की जरूरत सबको होती है फिर जो उसका हकदार होता है उसको उसके भाग्य से वंचित रहना पड़ता है । भव्या की गोद मे उसके आँचल की छाव मे सोए हुए यदुराज को देखकर उसकी प्राथमिक पाठशाला के चपरासी करणसिंह ने बातो को अनावश्यक बढ़ाकर उसके घरवालों को बता दिया , कृष्णमूर्ति द्विवेदी तो पहले ही ताव खाये हुए थे कुछ उन्हे शिकायत मिल जाने से बहाना मिल गया , सुनाने लगे अपनी पत्नी को " मै कहता नही था की इसके लक्षण ठीक नही है , पता नही क्या - क्या गुल खिलायेगा ? अब तो आनन फानन मे इसकी शादी कर देनी चाहिए जब कुछ घर गृहस्थी की जिम्मेदारी आएगी तो कुछ समझेगा । कृष्णमूर्ति द्विवेदी जी का इतना बड़ा परिवार भला उससे कौन रिश्ता नही जोड़ना चाहे , इतनी जमीन - जायदाद की सात पीढ़ी भी कुछ ना करे तो बैठा खाए । अच्छे घरो से सैकड़ो की संख्या मे रिश्ते आना शुरु हुए उन सब रिश्तो को छोड़कर पंडित कृष्णमूर्ति द्विवेदी जी ने उनमे से एक रिश्ता पक्का कर दिया और अपने बेटे को हिदायत देते समझाया " तेरे लिए हमने रिश्ता देख लिया है , लड़की ऊँचे कूल की है , लाखो मे एक है , अब तु कितना भी जतन करे तेरा विवाह इसी के साथ होगा । भव्या के प्रति चल रहे अनुराग की वजह से यदुराज को इन सब बातो मे कोई दिलचस्पी नही थी , भव्या के अलावा उसका दिल अन्य किसी को स्वीकारने के लिए कतई तैयार ही नही था । वो भी बार - बार एक ही जिद्द पर अडा था मै भव्या को मन ही मन पत्नी मान चुका , अब सांसारिक रूप से मेरा विवाह होगा तो भव्या से अन्यथा किसी से नही ।
ये नही हो सकता , हम द्विवेदी ब्राह्मण और वो ठहरी जाति की महाजन ये नही हो सकता , दोनो मे संबंध कभी नही हो सकता , पूर्व और पश्चिम मे संबंध एक दूसरे के पूरक होते है एक साथ नही होते , अगर लड़की ब्राह्मण कूल की भी होती तो भी मै सौ बार सोचता की हमारे बराबर वाली जमात मे है या नही और यहां तो जात ही अलग है , तुम्हारा विवाह श्रीपाद महाजन की पुत्री से कदापि नही हो सकता , स्पष्ट शब्दों मे चेतावनी देकर पंडित कृष्णमूर्ति द्विवेदी बाहर चले गये ।
कुछ दिनों तक इसी बात को लेकर पिता पुत्र मे कोई बोलचाल नही हुई । दशहरे पर शस्त्र पूजन के बाद तलवारबाजी के खेल का आयोजन किया जाना था जिसमे आसपास के नामी गिरामी तलवारबाज अपना जौहर दिखाने आ रहे थे । खेल शुरु हुआ , आख़िरकार मे आखिरी मुकाबले की तलवारबाजी मे एक युवक को सात तलवारबाजो से अकेले लड़कर अपना शौर्य दिखाना था , जब कोई खड़ा नही हुआ तब द्विवेदी जी के लाडले ने ताल ठोकी , लोगो ने समझाया की पंडित जी ये शस्त्र चलाना तुम्हारे बस का नही है ये क्षत्रियो का काम है , तुम तो शस्त्र के बजाय शास्त्र मे पारंगत रहो । लेकिन उन सबकी बातो को अनसुना करके यदुराज ने सातो तलवारबाजो को एक मुहूर्त से भी कम समय मे चारो खाने चित कर दिया , उसके युद्ध शौर्य को देखकर लग रहा था की 7 क्या अगर 70 तलवारबाज भी होते तो वह उन्हे नही छोड़ता । इससे आसपास के सब जगह उसकी तलवारबाजी के जौहर की चर्चा फैल गई ।
अगले रोज जब यदुराज और भव्या अपने निर्धारित किये गये स्थान पर मिल बैठकर बाते कर रहे थे , तब भव्या के मन मे अनेको आशंकाये और सैकड़ो प्रश्न थे । हमारी शादी को आपका परिवार स्वीकार नही करेगा यदु... ! और आपके अलावा पर पुरुष का मै चिंतन भी नही कर सकती क्योकि भारतीय नारिया मन से किसी को एक बार अपना सर्वस्व मान ले तो फिर सामने साक्षात् इन्द्र ही क्यो ना हो वे उसके अलावा अन्य किसी का वरण नही करती । भव्या मै भी तुम्हारे अलावा पत्नी के रूप मे अन्य किसी का वरण नही कर सकता , तुम बचपन की संगी हो, मेरी हमराज हो , मेरी हमदर्द हो मै भला किसी ऐसे पराई लड़की को पत्नी के रूप मे कैसे चुन सकता हु , तुम सुंदर हो यदु, तुम्हारे पास हजारों विकल्प है , कही तुम किसी के आकर्षण मे मोहित होकर मुझे भूल बैठे तो । इत्मीनान रखो भव्या अगर मेरी शादी कही होती है तो तुमसे अन्यथा कही नही । इस प्रकार एक दूसरे के प्रबल प्रेम के वशीभूत होकर दोनो एक दूसरे से अटूट वायदा करते है । झरना, पेड़ , खुला आसमान उनके निष्काम प्रेम के साक्षी होते है ।
चैत्र नवरात्रि को होने वाली दुर्गा पूजा 9 दिनों तक सुरंग वाले कालिका मंदिर मे हुआ करती थी , जिसमे प्रथम पूजा करने का अधिकार द्विवेदी परिवार को था तत्पश्चात समाज के सम्भ्रान्त वर्ग को था सामाजिक रूप से पिछड़े तथा अछूतों को पूजा मे शामिल होने का अधिकार ना होकर केवल पूजा के बाद लंगर बनाकर बंटने वाली प्रसादी पाने का अधिकार था , रामनवमी को होने वाली राम पूजा मे भी उन्हे शामिल होने का लेशमात्र भी अधिकार नही था । इस बार यदुराज ने डंके की चोट पर सबके सामने कह दिया था की इस बार सर्वप्रथम पूजा करने का अधिकार उन लोगो को रहेगा जिनको आज तक वंचित रखा गया , किसी को अगर आपत्ति हो तो वो उनका सामना कर सकता है । शरीर मे अतुलनीय बल, अद्वितीय तलवारबाज , साथ मे मिल रहा अछूतों का पुरा समर्थन भला किसकी मजाल जो शेर के मुँह मे हाथ देकर उसके दाँत गिनने की धृष्टता कर सके । सम्भ्रांतो की मीटिंगे होना शुरु हुई, कई सैकड़ो वर्षो की प्रतिष्ठा दाव पर लग रही थी , अब तक जिन्होने इंसान को इंसान नही समझा था वे स्वयं की सत्ता को खतरे मे देखकर तरह - तरह के उपाय खोजने लगे । मिलकर फैसला हुआ इस मशवरे पर द्विवेदीजी की सूचित करके आगे की कार्यवाही उन पर ही छोड़ देनी चाहिए ।
द्विवेदीजी एक तो गाँव के सम्भ्रान्त लोगो के अगुआ दूसरा अगर कालिका मंदिर मे उनके परिवार के अलावा अन्य किसी के हाथो से पूजा होती है तो ये सबसे बड़ी हार उनके परिवार जी होगी , जिस पूजा को करने के उनकी कई पीढ़िया तक प्रथम अधिकारी रही आज वो कोई और करेगा । भगवान ऐसी औलाद तो किसी को ना दे जो अपने ही पिता के खिलाफ बगावत कर दे । अपने बेटे को पहले तो खूब समझाने की कोशिश करने लगे , द्विवेदीजी ने इस दौरान पुत्र धर्म की सतयुग से त्रेतायुग तक के आदर्श पुत्रो का उदाहरण सामने रख दिया , लेकिन पुत्र भी कहा कम था लड़ाई धर्म व अधर्म की थी और फिर गीता मे तो जब अर्जुन ने अपने ही संबंधियों के खिलाफ लड़ने से मना कर दिया तो भगवान ने भी उसे धर्म के लिए किसी से भी लड़ जाने की प्रेरणा दी , यहां कुछ तो गलत था । अपनी बात ना बनती देख द्विवेदी जी ने चालाकि का सहारा लिया , उनका पुत्र उनके कहने के अनुसार तो शादी करने वाला था नही तो सोचा क्यो ना श्रीपाद महाजन की पुत्री भव्या से ही विवाह संस्कार सम्पन्न करा दे उसके बाद तो ये मेरे मनमुताबिक चलेगा । श्रीपाद महाजन से मिलकर दोनो परिवारों ने एक दूसरे के साथ सगाई पक्की कर दी , सगाई और विवाह के बीच सालभर का फासला रखना तय हुआ । यदुराज और भव्या का आज खुशी का ठिकाना नही था , आज उनकी हर मुरादें पुरी हो रही थी , भविष्य मे होने वाली घटनाओ से बेखबर दोनो भविष्य की योजनाए बना रहे थे वैसे भी भगवान ने किसी मानव को भविष्य मे देख सकने की क्षमता इसलिए नही दी होगी ताकि वह उसके चक्कर मे अपना वर्तमान तो कम से कम ना खराब करे ।
चैत्र माह शुरु हो गया , शुक्ल पक्ष शुरु होते ही नवरात्र शुरु थे , नवरात्र के कुछ महीनो बाद यदुराज और भव्या का विवाह सम्पन्न होना था । कालिका मंदिर मे होने वाली पूजा को लेकर मुनादी करवाई जा चुकी थी की इस बार पूजा गाँव के पिछड़े और शोषित लग अग्रपूजा करने के अधिकारी होंगे क्योकि उन्हे पिछड़ेपन का डर दिखाकर आज तक वंचित रखा जाता रहा है । गाँव के सम्भ्रान्त और प्रतिष्ठित लोगो ने अनेको प्रकार से यदुराज को समझाने की कोशिशे की गई , धमकिया दी जाने लगी मगर सब बातो को दरकिनार करके आज प्रथम दिवस की पूजा सम्पन्न करवाकर वह और उसका भाई अजयराज देर रात चन्द्रमा की छाँव तले गाँव के गहरे जंगल से होते हुए लौट रहे थे । रह - रहकर जंगल मे सियार और श्वानों की आवाज़ के साथ उल्लुओ का शोर रास्ते की वीरानियों को और बढ़ा रहा था । सन्नाटे को चीरते हुए किसी के करुण चित्कार का शोर कानो मे रह - रहकर आ रहा था । किसी अबला स्त्री की पुकार आ रही है दादा ! आपने महसूस की क्या ? अजयराज ने अपने भाई यदुराज को कहा । थोड़ा रूककर , तलवार म्यान से निकली , आ तो रही है अजय ! दोनो आवाज़ की दिशा मे चलते है । दोनो के पास जाने पर कुछ आदमी वहाँ मौजूद थे जो कदमो की आहत पाकर भाग निकले , गहरी झाड़ियों के पीछे एक औरत को एक पेटी के अंदर बंद करके रस्सियो से बाँध रखा था । चेहरे पर खरोचो के गहरे निशान थे जिन्हे देखकर लग रहा था शायद उससे जबरदस्ती की कोशिश की गई थी , चेहरा स्पष्ट रूप से न देखा जा सकता था जिस कारण पहचान नही हो रही थी लेकिन यदुराज का दिल जोरो से धड़क रहा था कद काठी को देखकर वह युवती भव्या ही लग रही थी । आनन - फानन मे उसे अस्पताल मे भर्ती करवाया गया , डॉक्टरों ने बचने की कोई गुंजाइस नही बताई । युवती को होश तो आ चुका था लेकिन उसके पास वक्त कम रह रहा था । यदु.... ! होश मे आते ही युवती ने पुकारा । नर्स जो उसकी दवा दारु के लगी हुई थी आनन - फानन मे बाहर आकर उसे होश आ गया । वह किसी यदु... को बुला रही है । कलेजा फटा जा रहा था , पैरो तले से जमीन खिसक गई , भगवान करे वह नही हो किसी तरह खुद को सम्हाल कर दोनो भाई अंदर गये । यदु.... आ गये तुम ! चलो इस इत्मीनान से तो चली जाउंगी की अंतिम समय तुम्हारे साथ गुजारा है । इस आवाज़ को वह हजारों बार सुन चुका था , लाखो की भीड़ मे पहचान सकता था । आँखे डबडबाई ,नही भव्या ! क्या बोलती हु तुम , कुछ नही होगा तुम्हे , अभी कुछ दिनों बाद तो हमारी शादी है । ये सब हुआ कैसे ? तुमने मंदिर मे आज जो सब किया उससे गाँव के बड़े - बड़े लोग तुम्हारे दुश्मन बन गये , उनमे इतनी हिम्मत तो थी नही की तुम्हारा मुकाबला कर पाते । मुझे संदेशा भिजवाया गया की आमो की बगिया के पास उस वाले मैदान मे तुम मुझे बुला रहे हो । हर बार हम वही मिलते थे लेकिन इस बार साजिश थी , रंजिश थी इन सब बातो से बेखबर मै वहाँ आ गई । वहा घात लगाकर बैठे करणसिंह , भैरोसिंह पांडे , लूटनसिंह इत्यादि सब ने .......... बोलते बोलते रुलाई फुट पड़ी । सुनते ही दोनो भाइयो की भुजाये फड़की , बड़े ने तलवार म्यान से बाहर निकाली , एक अंगुष्ठ तलवार पर रखते ही हाथ से रक्त निकल आया उसे मांग पर सजाकर अब तुम मेरी परिणीता हो भव्या । मै उन सब को छोडूंगा नही । एक गहरी सांस लेकर ओह यदु.... । तो इस नाते मै तुमसे कुछ माँगने की भी अधिकारी हु । हा भव्या जरूर । मेरी साँसों के हर तार पर तुम्हारा पहरा है , तुम कुछ भी मांग सकते हो ये एक ब्राह्मण का वचन है । अभी कुछ दिनों पहले तुम्हारे पिता ने जो रिश्ता पक्का किया था तुम उस लड़की से पाणिग्रहण कर लो । थोड़ा गुस्से मे , क्या कह रही हो तुम ? मेरी विवाहिता तुम हो , और शादी कोई खेल नही जो आज इसके साथ कल इसके साथ । वैसे भी भव्या स्त्रिया सब कुछ बाँट सकती है इस दुनिया मे अगर बांट नही सकती तो सुहाग । मै जानती हु यदु , लेकिन मेरे जीवन की यात्रा बहुत कम है और तुम्हे बहुत शिखर पर जाना है ।
इस लम्बे पड़ाव की यात्रा के दौरान कोई हो जो तुम्हारा ख्याल रख सके, तुम्हारा दुःख बांट सके , तुम्हे अकेलापन महसूस नही हो । " प्रेम सुरक्षा की भावना चाहता है " ।
और व्यक्ति जिससे प्रेम करता है उसको वह हर हाल मे सुरक्षित देखना चाहता है । इसी सुरक्षा की भावना के नाते भव्या ने वो सब मांग लिया । सोच क्या रहे हो यदु...... ! अगर दे नही सकते तो मना कर दो मै इसी दुःख के साथ चली जाउंगी की मैने आखिरी समय मे कुछ माँगा और तुम वो भी नही दे सके । मै नही चाहते हुए भी तुम्हारे आगे मजबूर हु , ठीक है वचन दिया । एक गहरी सांस लेकर भव्या पंचतत्वों मे विलीन हो जाति है ।
कुछ दिनों बाद सब सामान्य हो जाने के बाद कृष्णमूर्ति द्विवेदी ने यदुराज का रिश्ता काशी के सुदर्शन पंडित की पुत्री प्रियवंदा से कर दिया , ये वही प्रियवंदा थी जो काशी मे गंगा घाट पर मोहिनी थी , इसी ने जिद्द करके अपने पिता को कहा था रिश्ता होगा तो यदुराज के साथ अन्यथा जिंदगी भर कुंवारी रहूंगी । उधर भव्या के वियोग से यदुराज में संसार के प्रति अनासक्ति का भाव पैदा हो गया था । लड़की की तस्वीर देखे बिना घर वालों की स्वीकृति और भव्या की अंतिम इच्छा व प्रदत्त वचन मानकर शादी के लिए सहमति प्रदान कर दी । उसकी नजरें करणसिंह , भैरोसिंह पांडे इत्यादि को ढूंढ रही थी । अपने अंजाम की खबर से वाकिफ करणसिंह , भैरों सिंह पांडे समेत उनके सभी साथियो ने खुद को पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था । यदुराज के प्रतिशोध से अच्छा है ना कुछ साल की सजा भुगत कर मौत से तो बच जाये । पंडित कृष्णमूर्ति जिस न्यायालय मे जज थे उसी न्यायालय मे उन सब मुजरिमो की पेशी होनी थी । द्विवेदी जी ने तो पर शादी की स्वीकृति ही अनमने मन से दी थी , मन ही मन तो वो बहुत खुश हो रहे थे किन्तु न्यायाधीश थे , ना चाहते हुए भी उन्हे उन मुजरिमो को सजा तो देनी थी अतः उन्होंने उम्रकैद या फांसी की सजा के बजाय सभी को महज 5 साल की सजा मुकरर्र की , अपने प्रेम के प्रति हुई इस नाइंसाफी से दुःखी यदुराज ने पिता का घर छोड़ दिया । माता वैदेही देवी समेत भाई और बहन ने रोकने के लिए हजार मिन्नते की लेकिन उसकी भी जिद्द थी की वह अब लौट कर इस चौखट पर नही आएगा । सुदर्शन पंडित तक यदुराज ने संदेशा भिजवा दिया की पहले मै न्यायमूर्ति पंडित कृष्णमूर्ति द्विवेदी का बेटा था , अब मै पथान्वेषी ( रास्ते का अन्वेषण या खोज ) करने वाला महज एक युवक , ना कोई ठिकाना - ठांव, ना खुद की पहचान । क्या इसके बाद भी आप अपनी बेटी का पाणिग्रहण मुझसे करना चाहोगे । उतर स्वीकृति में मिला । विवाह के बाद सुदर्शन पंडित ने यदुराज को बंगला, और जमीन की पेशकश करते हुए घर जमाई बनने का आग्रह किया लेकिन उनके इस भाव को अपने स्वाभिमान के सामने अस्वीकृत करके यदुराज ने शहर मे एक भाड़े का मकान ले लिया ।
जिंदगी मे अब समस्याओ का आगमन हो गया था । पहले जिनके महल जैसे घर मे सैकड़ो कमरे थे अब किराये के घर मे रहने लगे थे , जहा कई तरह के व्यंजन घर मे बनते थे वहाँ अन्न के दाने के दर्शन दुर्लभ हो गये थे , जिनके घर मे कई नौकर व कामदार 24 घंटे रहते थे वो खुद दुसरो के घर नौकरी ढूंढने वाला था । सारी लड़ाई बस स्वाभिमान की थी । अभी तक प्रियवंदा से यदुराज की कोई वार्ता नही हुई थी , वो इस बात से बेखबर था की यह वही बनारस के गंगा घाट की मोहिनी है । शाम को भोजन के समय मुलाक़ात हुई , नवोढा का तो अभी तक चेहरा भी नही देखा था । शाम को भोजन के समय प्रियवंदा का चेहरा देखते ही यदुराज विस्मित हो गया , यह वही मोहिनी थी जो गंगा घाट पर नित्य मिला करती थी । बिना भोजन किये जाने लगा , प्रियवंदा चरण पकड़ कर बैठ गई , प्रिय भले ही मेरा हजार बार तिरस्कार करो किन्तु भोजन का तिरस्कार मत करो । तुम जूठी हो कभी प्रियवंदा तो कभी मोहिनी । भव्या को भी शायद तुम्हारी ही नजर लग गई । इस समय आप कुछ भी कह सकते हो आपको कहने का अधिकार है किन्तु मै भव्या का बुरा चाहूंगी या सोच सकती हु ये सोचना भी आपका गलत है ।आपको कुछ दिखाती हु , अपने बस्ते से भव्या की तस्वीर निकाली , और डबडबाई आँखो से उसे एक आले मे रख दिया ।
मुझे माफ़ करो मोहिनी , मै तो तुम्हे इसी नाम से जानता हु बस , तुम भव्या से कितना प्रेम करती हो मै तो ये तक नही जानता था ।
दोनो की आँखो से अश्रुधारा बह रही थी , पति पत्नी के कर्तव्य के आगे खुद को छोटा महसूस कर रहा था, पत्नी पति के दुःख से दुःखी थी । मै भव्या का स्थान नही ले सकती , मेरे लिए वो मेरी बड़ी बहन के समान है । कभी हम समृद्ध हुए तो भव्या के नाम से बहुत कुछ करेंगे हम ।
तुम साक्षात् त्याग और तपस्या की प्रतिमूर्ति हो मोहिनी ! मै तुम्हे आश्वास्त करता हु कभी तुम्हे दुःखी नही होने दूंगा ।
अगले रोज काम की तलाश में कई महाजनों की दुकानों और कार्यशाला में यदुराज ने चककर काटे किन्तु अनुभव ना होने की वजह से कही काम नही मिला । थक हारकर जब वो घर जा रहा था तो एक गाड़िया लुहार के गाड़े के पास सुस्ताने लगा , लुहार जो कभी धौंकनी चलाता तो कभी घन के हथोड़ा मारता । वह अकेला ही दो व्यक्तियों के बराबर काम करने की कोशिश मे लगा हुआ था । बाहर यदुराज को देखकर बोला क्या तुम घन के हथोड़ा मारने मे मेरी मदद करोगे , मै तुम्हे पहले ही बता देता हु 2 घंटा हथोड़ा मारने के सौ से ज्यादा रुपये नही दूंगा । अंधा क्या चाहे , 2 आँखे , ठीक है काम कोई भी हो ; करने मे क्या शर्म , इस बात का फक्र तो है की अपने 2 हाथों से मेहनत करके खा रहे है किसी के सामने हाथ तो नही फैलाने पड़ रहे । 2 घंटे घन पर हथौड़ा मारते - मारते हाथो पर छाले पड़ गये । कभी काम ना करने की वजह से सांस तेजी से फूल रही थी , पर पेट पालने की भी तो जुगत है ।
शाम को अपनी पहली कमाई लेकर पत्नी के हाथों मे रख दी , झूठ बोलते हुए कहा आज से मै किसी सेठ के यहा मुनीमाई करने लग गया । मोहिनी ने रुपये लौटाते हुए कहा ये काम आपके लायक नही है वैसे तो , आप ठहरे एक चित्रकार , हृदय के भावो को कैनवास पर उतारने वाला हिसाब मे पक्का नही होगा , जब तक आपकी चित्रकारी का काम अच्छे से ना चलने लगे तब तक ही मुनीमाई ठीक है । मेरी मानो तो एक ब्रश , रंग व पेंटिंग बनाने की सामग्री ले आओ । बाजार से रंग , ब्रश , इत्यादि सामग्री ले आया । दिन में लुहार की धोंकनी में घन पर हथौड़ा पीटता और रात मे चित्रकारी । पहला चित्र बड़ी फुरसत से बनाया , लेकिन इतना शानदार चित्र , तस्वीरे ही बोल पड़ती थी । कई दिनों तक प्रसिद्ध चित्रकारों की कार्यशाला मे बेचने का प्रयास किया । लेकिन सब उसके औने_ पौने दामों मे ही खरीदना चाहते थे । मन मसोसकर रह गया , क्या मेरी कला को परखने वाले पारखी भी मिलेंगे या नही ? क्योकि जब तक एक कलाकार को उसकी कला का उचित पारिश्रमिक नही मिलता तब तक वो अंधेरे मे ही पथभ्रष्ट रहता है । लोहार की धौंकनी मे काम करते हुए एक दिन उधर से गुजरते हुए द्विवेदीजी ने देख लिया , घर चलो यदु ...... ! तुम्हे परिवार की इज्जत का जरा सा भी ख्याल नही है , लोग सुनेंगे तो हँसेंगे की न्यायमूर्ति द्विवेदी का बेटा लोहार का काम करता है । आप आज भी अपने बेटे को लेने नही आये पापा, आज भी आप अपने मेरे इस काम से कम होते अपने रुआब रुतबे को बढ़ाने की कोशिश करने आये थे । अगर मेरी इतनी ही फ़िक्र होती तो अपनी बहु के गुनहगारो को सख्त सजा दी होती । आँखे होते हुए भी सत्य को ना देख सकने वाला भी सूरदास ही होता है । तुम भूल रहे हो यदु.... मै बाप हु तुम्हारा , इन नीच लोगो के काम करते करते तुम बड़ो से बात करने की तमीज भी भूल गये । घर के दरवाजे खुले है , आना चाहो तो आ सकते हो , कहते हुए द्विवेदीजी अपनी गाडी में बैठकर चले गये ।
तकरीबन एक महीने बाद एक सेठ की निगाह यदुराज की उस तस्वीर पर पड़ी । ऐसी कला जो आज तक उसने नही देखी थी , लाखो रुपये दाम देकर उसने वो तस्वीर खरीद ली और उसे शहर की प्रदर्शनी में लगवा दिया । अब उस कलाकार के नाम की चर्चा पूरे शहर में थी । कल तक गुमनामी की जिंदगी जीकर गुजर बसर करने वाला यदुराज अब मशहूर चित्रकार बन चुका था । जिंदगी हर किसी को तराश्ती है , पतझड के बाद बाद नए पलाश भी आते है ।
अब उसकी बनाई हुई एक एक पेंटिंग लाखो में बिकती थी । पेंटिंग तैयार होने से पहले खरीदने वाले ग्राहकों में खरीदने को लेकर होड़ रहती थी । शहर से दो कोस दूर यदुराज ने भगवान श्रीराम का माता सीता व लक्ष्मण सहित एक भव्य मंदिर बनवाया व मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा करवाई , जहा पूजा के लिए कोई परिवार विशेष या वर्ग विशेष का ही दबदबा ना रहकर सबको समान अवसर मिलता था । इसके बाद तो अनेको मंदिर बनवाये गये , प्याऊ लगवाई गई । आज शादी को पुरा एक साल हो गया था । शाम को काम से जल्दी निवृत होकर मोहिनी के लिए कुछ आभूषण लेकर यदुराज घर पहुंचा । आपसे कुछ मांगू , आज हमारी शादी की सालगिरह को एक साल हो गया , आप मना तो नही करोगे ।
तुम अर्धांगिनी हो मोहिनी , तुम्हारा अधिकार है ।
मोहिनी - आपने अपनी मेहनत व बलबूते से अपनी तरक्की को इतना बढ़ाया है आज आपका नाम व परिचय किसी का मोहताज नही है , मै समझती हु इन सबमे एक शख्स का विशेष महत्व है ।
हाथों को चूमकर , हा जानता हु मोहिनी ! तुमने किन परिस्थितियों मे साथ दिया है ।
मोहिनी - मै अपनी बात कर ही नही , मै तो भव्या की बात कर रही हु । अगर वो बचपन से आपके जीवन में नही रहती तो आप यहां नही रहते । मै तो उसकी ऋणी हु । चाहती तो साथ रहकर पूजा और सेवा करना चाहती थी । परन्तु मेरा ऐसा सौभाग्य कहा । काश वो हमारे साथ होते , उनके जितनी अच्छाईया तो नही है मुझमे फिर भी उनसे कुछ सीख पाती । अब तो चाहती हु आप भव्या के नाम पर एक ऐसा हॉस्पिटल बनवाओ जहा सबका इलाज मुफ्त मे हो सके । " अपने लिए तो जिंदगी जानवर भी जी लेता है , रही बात भोजन की तो वो तो कोई भी पेट भर लेता है इंसान वही है जो दुसरो के लिए जीना सीखे " ।
तुमने मांगा भी तो क्या मोहिनी । वो तो मै बिना मांगे भी दे देता । भव्या मेमोरियल हॉस्पिटल पूर्णिया के साथ - साथ अन्य एक दो शहरों में भी स्थापित किया गया । अपनी आय के 90 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा वो दुसरो के निमित्त खर्च किया करता था । विवाह के तकरीबन 2 साल बाद एक पुत्र की प्राप्ति हुई । आज घर का कोना - कोना खुशियों से चहक रहा था , छोटे यदुराज के आने से घर मे बधाई देने वालों का ताँता लगा हुआ था । आज शहरभर मे इतनी भीड़ थी की कदम रखने की जगह भी नही थी । एक साल बीतने पर लगातार यदुराज का स्वास्थ्य स्तर गिरता जा रहा था । मोहिनी के बार - बार कहने पर शहर के आनंद हॉस्पिटल में इलाज के दौरान सारे शरीर की जांच के दौरान पता लगा वह ब्लड कैंसर से जूझ रहा है । डॉक्टर ने स्पष्ट हिदायत दी आप आप इस समय इसकी चपेट में इतने ज्यादा हो बच सकने की कोई उम्मीद नही है , जितना हो अपने परिवार के साथ समय बिताओ । हद मार कर 6 महीने आप बस जिंदा रहोगे । अपने मन की व्यथा को मन में दबाकर यदुराज घर गया । डॉक्टर साहब ने क्या बताया मोहिनी ने तुरंत जाते ही प्रश्न किया । कुछ नही शरीर में कमजोरी बताई है । रुको एक दूध का गिलास लाती हो , दूध पकड़ाते हुए आप मानते किसकी हो । खुद का ख्याल तो रखते हो नही बस काम ही काम ।
आज से मै घर ही रहकर तुम्हारी और रोनित की ही देखभाल करूंगा । ब्लड कैंसर की बात उसने सबसे छुपा रखी थी , वह अपने परिवार की आँखो में आंसु नही देखना चाहता था ।
समय के साथ बीमारी का असर गहराता जा रहा था । चार महीने बीत चुके थे अब वह ज्यादा समय नही रहेगा , वह अपने गाँव की मिट्टी में अपनी मातृभूमि की छाँव में अंतिम सांस लेना चाहता था किन्तु बात स्वाभिमान की थी द्विवेदीजी के घर भी नही जाना चाहता था ।
मै अपने गाँव जाना चाहता हु मोहिनी , वहा की मिट्टी मुझे बुला रही है । पति पत्नी दोनो रास्तेभर की तैयारी करके निकल पड़ते है । गाँव के पास पहुंच कर आमो की बगिया के पास मोटरगाडी को रुकवा देते है । तुम जानती हो मोहिनी , ये जगह हमारे बचपन की बेहतरीन यादो की साक्षी है । अपने लंगोटिया मित्र नवीन के घर कुछ दिन के लिए रुक जाते है । पंडित कृष्णमूर्ति द्विवेदी को किसी तरह सूचना मिल जाती है की उसका बेटा अब इसी गाँव में है । माँ वैदेही देवी जिद्द करती है की वो नही मान रहा तो आज आप ही उसे मना कर ले आओ , मेरा दिल बहुत घबरा रहा है । जब गाँव तक आ गया तो आज नही तो कल घर भी आ जायेगा वैदेही ।
उधर दूसरी तरफ आज यदुराज के सुबह से ही छाती में भयंकर दर्द हो रहा था । छाती पर दबाव महसूस होने से लग रहा था अंदर कुछ घुट सा रहा है । खांसी चलने पर रुमाली मुँह के लगाकर खाँसने पर खून आया । कही कोई देख तो नही रहा , सबसे नजरें बचाकर रुमाली फेंक दी । आज शायद मेरा अंतिम समय है । रोनित अभी तक सो रहा था उसको कसकर आलिंगन किया , मोहिनी के मस्तिष्क को चूमा । ख्याल रखना मोहिनी अपना और रोनित का , मै एक लम्बी यात्रा पर जा रहा हु । आज यदुराज का व्यवहार थोड़ा अजीब सा लग रहा था । वह यदुराज के पीछे - पीछे जाने लगी , बताओ भी कहा जा रहे हो , आज आप ऐसी अजीबो - गरीब बात क्यो करते हो । दौड़ते दौड़ते और सवाल करते - करते वह द्विवेदीजी के घर के पास तक आ गये । घर से तकरीबन बीस कदम दूर घर के बाहर खून की उल्टिया शुरु हो जाति है । मोहिनी चीख पुकार मचाकर सहायता के लिए चिल्लाती है । द्विवेदीजी के घर का पहरेदार पवन देशमुख बाहर आकर देखता है तो यदु खून की लगातार उल्टिया किये जा रहा है । शीघ्रता से जाकर अंदर समाचार भेजता है । शरीर में कमजोरी होने से यदुराज निढाल होकर गिर जाता है , मोहिनी गोद में सर रख लेती है । क्या हुआ आपको । अभी हॉस्पिटल में चलते है , आप जल्द ही ठीक हो जाओगे । अब दुनिया की कोई वैधशाला मेरा इलाज नही कर सकती मोहिनी । तुम्हे तकलीफ ना हो इसलिए बताया नही मै ब्लड कैंसर से जूझ रहा था अपने अंतिम समय में हु । तब तक द्विवेदी परिवार सहित आसपास के लोगो का जमावड़ा हो जाता है । मै एक अच्छे बेटे का फर्ज निभाते हुए आपकी आज्ञा का पालन नही कर सकता बाबूजी , क्या करे जो दुसरो का फैसला ठीक से नही करते मजिस्ट्रेट बाबू वक्त उनसे उनकी ही औलादो के साये तक को छीन लेता है , मुझे माफ़ करो । मोहिनी और रोनित को तो परायेपन का अहसास मत करवाना मेरी तरह , मेरी आखिरी ख्वाहिश तो पुरी करोगे ना बाबूजी । मिट्टी को हाथों में लेकर सबके दिलो में धडकने वाली धड़कन अब बंद हो चुकी थी । जाने वाला एक लम्बी यात्रा पर जा चुका था । मैने सबके साथ न्याय किया बेटा यदु एक सिवाय तुम्हारे ,और आज जब मुझे मेरी गलती का अहसास हुआ उसे देखने के लिए तुम जिंदा नही हो । तभी भीड़ में से आवाज आती है यदुराज मरा नही है , जिंदा है , हमारी धड़कनो में धड़क रहा है ।