यादों के घेरे (कहानी) : शंकर दयाल सिंह
Yaadon Ke Ghere (Hindi Story) : Shanker Dayal Singh
रात भर उसे नींद नहीं आई है। डनलप का गद्दा क्योंकर इन तख्तियों पर रख दिया जाता है, वह सोचता रहा है और सोचने के क्रम में बेशुमार करवटें बदलता रहा है। उसकी आँखों में बीता कल आज भी तसवीर के समान सामने है।
गाड़ी चलने के पहले ही वह उतर गया था। रूमाल हिलाकर ‘टा-टा, बाइ-बाइ’ कहकर किसी को विदा देना उसे बड़ा अस्वाभाविक लगता रहा है और मीरा भी तो इन बातों को पसंद नहीं करती।
यह चांस अथवा संयोग अथवा मीरा का ‘इंट्यूशन’ मैं ही था, जो उसे इसी गाड़ी के, इसी डिब्बे में खींचकर ले आया था और उसने किसी भी आश्चर्य के रूप में मीरा को, जो स्त्री डिब्बे की एक सीट पर कोने में अकेली दुबकी बैठी थी, न देखा था। बल्कि मीरा ही अचकचाई थी और उसकी बाहर ढूँढ़ती आँखें अंदर की ओर जब मुड़ी थीं, तो उनमें आश्चर्य की कोई सीमा न रह गई थी। और फिर दोनों एक साथ ही पटना जंक्शन उतरे थे, एक ही कुली ने दोनों का सामान उठाया था। वेटिंग रूम के भीड़ भरे अव्यवस्थित वातावरण से बचने के लिए आनंद ने ‘रिटायरिंग रूम’ ले लिया था और तब मीरा ने हँसकर उससे कहा था,’ तुम मिल तो गए थे, पर मैं बार-बार इसी चिंता में थी कि तुमसे बातें कहाँ होंगी। वे प्लेटफॉर्म, वेटिंग रूम या डिब्बे में तो संभव न थीं।’’
और बदले में आनंद मुसकराया था, ‘‘तुम्हारे मन की हर बात मैं पहले ही भाँप जाता हूँ।’’
तब शाम के केवल सात बज रहे थे। मीरा दिल्ली से आ रही थी...उसे टाटा के लिए गाड़ी दस बजे रात में यहीं से पकड़नी थी और आनंद ने मुगलसराय में दिल्ली एक्सप्रेस पकड़ी थी—उसे सवेरे किसी कार से नालंदा राजगीर चले जाना था।
मिलना अकस्मात् हुआ था, पर कैसा सुनियोजित था। दोनों सफर में थे, परंतु एक अनिर्वचनीय सुख ने दोनों को अपने घेरे में कैद कर लिया था। बना-बनाया खाना मीरा के पास था, इसलिए कुली को साढ़े नौ बजे आने के लिए कहकर आनंद ने रिटायरिंग रूम का दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। उसके पास अब केवल ढाई घंटे थे। आसमान में फैले तितर-बितर बादलों के समान ढाई घंटे, पहाड़ी नाले के समान मचलती-बहती धार के समान ढाई घंटे, जिंदगी के अनगिनत बरसों के आयामों में सँजोकर रखे जानेवाले ढाई घंटे। और दोनों में से कोई भी इन ढाई घंटों को खो देने के लिए तैयार न था।
एक फूल होता है, जिसे सूरजमुखी कहते हैं। एक हवा होती है, जिसे दक्षिण-समीर कहकर हम पुकारते हैं। एक क्षण होता है, जिसे हम बोध की संज्ञा देते हैं। और इसीलिए आनंद की आँखों में आँखें डालकर मीरा अपने को भूल जाना चाहती थी।
‘‘आनंद, तुममें क्या है, जो मैं तुमसे दूर जाना सोचकर भी दूर नहीं जा पाती हूँ?’’ मीरा ने कहा था।
‘‘इसका जवाब तो तुम स्वयं अपने आपसे पूछ सकती हो।’’ मीरा की अंगुलियों से अपनी अंगुलियाँ उलझाते हुए आनंद ने तब कहा था।
मीरा ने अपने उत्तर में निरीह आँखों से आनंद की ओर देखा था। आनंद ने अंगुलियाँ छोड़ दी थीं और उसने मीरा की बाँहें थाम ली थीं और दोनों कुरसी से उठकर डनलप के गद्दे पर आ गए थे और डनलप हिला था, तख्त के पाँवों में मचमचाहट हुई थी...तभी मीरा ने आनंद से कहा था, ‘‘जितने भोले तुम दीखते थे, उतने भोले तुम हो नहीं।’’
बाहर घड़ी में टन की आवाज हुई थी, साढ़े आठ। अब उनके पास केवल एक घंटे का समय था—खोने के लिए, पाने के लिए, इतिहास को सही रूप में परखने के लिए।
डॉ. आनंद कुमार प्राध्यापक हैं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान विभाग के छात्र अपने इन खोए-पाए मनीषी-चिंतकदार्शनिक प्रोफेसर से बड़े प्रसन्न हैं। बुद्धि की गरिमा और व्यक्तित्व की मर्यादा—दोनों का संयोग-सम्मिश्रण डॉ. आनंद में है। अविवाहित हैं, किंतु जीवन की समरसता से विरक्त नहीं। मौका मिला नहीं कि खँडहरों, बियाबानों, सागर-तटों, वन-प्रांत में, आश्रमों की सैर को निकल पड़ते हैं। जिंदगी के प्रति कहीं कोई कम नहीं, कहीं कोई गाँठ नहीं, कहीं कोई उलझाव नहीं। जिंदगी में भूलें अधिक हैं, यादें कम।
मीरा सिन्हा सुश्री हैं, श्रीमती हैं। मनोविज्ञान में ही एम.ए. करने का सौभाग्य-सुख इन्हें भी मिला है। जीवन में कई सपने सँजोए रहीं और अंत में जर्मनी से उच्च शिक्षा प्राप्त कर लौटे एक इंजीनियर की बीवी हो गईं। बहरहाल जमशेदपुर में घर-गृहस्थी है। पति के साथ टेलको कॉलोनी में रहती हैं और शादी के दो साल बाद तक कोई तीसरा न आया है, इसीलिए कभी-कभार अकेले-दुकेले दिल्ली, कलकत्ता, राँची, पटना आने-जाने की सुविधा है। दिल्ली में पिताजी कृषि मंत्रालय में वरिष्ठ अधिकारी हैं।
कभी-कभी पूरी जिंदगी बीत जाती है, लेकिन याद करने के लिए एक-दो क्षण ही शेष रह जाते हैं। आँखों में आँसू आते हैं, हृदय में ज्वार-भाटा उठता-गिरता है, काल का नर्तन होता चलता है। हम तैरना जानते हुए भी डूबते जाते हैं। और इसी तरह मियादी बुखार जैसे ज्वर से त्रस्त रहते हैं, हमारी आँखें लाल रहती हैं, नथुनों से गरम साँसें आती-जाती हैं, खाँसी-सर्दी का हलका प्रकोप रहता है और हम हैं कि जिए चले जाते हैं। और हमारी यह जिंदगी जिंदगी के नाम पर हास्य का आलंबन है। लेकिन ऐसे में ही कहीं कोई बिजली कौंधती है, आकाश बिखरता है, मौत का साया हमसे दूर जा गिरता है। ऐसे क्षण जिंदगी के सौ-पचास सालों में अंगुलियों पर गिने-गुँथे होते हैं और ऐसे ही क्षणों में आनंद और मीरा समझ रहे थे कि इन्हें कैसे अनमोल बनाया जाए।
मनु और फ्रायड और युंग वहाँ खड़े-के-खड़े रह जाते हैं, जहाँ आदमी आदमी को सही रूपों में देख लेता है, पहचान लेता है, पा लेता॒है।
‘‘बार-बार तुम्हारी पहली तसवीर मेरी आँखों में कौंध जाती है।’’ मीरा ने कहा था।
‘‘मैं जानता था कि किसी-न-किसी दिन तुम मेरे इतने पास आ जाओगी।’’ आनंद बोला था।
मीरा ने अपनी हथेली आनंद की पीठ पर डाल दी। उसने उसे फेरना शुरू किया था, मानो किसी बच्चे को सहला रही हो। ‘‘आनंद, बहुत दिनों से मेरी यह साध थी कि तुम्हारी पीठ पर हथेलियाँ फेरूँ और तुम मेरी बाँहें दबा दो। तुम्हारी ओर देखती थी तो अनायास ग्रीक मूर्तियाँ याद आ जाती थीं—सुडौल बाँहें, अवयवों का मांसल उतार-चढ़ाव...’’ वह कहीं बुरी तरह उलझ गई थी।
‘‘मीरा!’’ आनंद के मुँह से बड़े परिश्रम से शब्द निकले, ‘‘सबसे बड़ा सत्य सबसे बड़ा झूठ है और सबसे बड़ा झूठ सबसे बड़ा सच। सारनाथ तुमने देखा होगा, बुद्ध की मांसल मूर्तियाँ उसी सत्य की परिचायक हैं। वही मांसलता, वही अवयवों का उतार-चढ़ाव और तभी सुजाता चरणों में समर्पित हो गई थी।’’ आनंद के मुँह से उसका प्रतिपाद्य विषय बोल रहा था।
‘‘आनंद, हम जीवन से सर्वथा दूर हैं, लेकिन विश्वासों की परिधि के निकट। मैंने प्रतिज्ञाएँ कीं कि तुम्हें न सोचूँ, मगर अपने आपसे मैं पराजित होती रही हूँ। तुम मानो या न मानो, क्योंकि मैं भी स्वयं न तो भवितव्य मानती हूँ और न संयोग, बल्कि इंट्यूशनों पर विश्वास करती हूँ और इसीलिए जब मैं कल दिल्ली से चली थी तो मेरे मन में कहीं से यह भाव आया था कि तुम रास्ते में जरूर मिलोगे...और इसीलिए मैं हर स्टेशन पर अपनी आँखें बाहर टिकाकर इस सत्य की पहचान कर लेना चाहती थी।’’ मीरा ने एक ही साँस में वह सब कह दिया॒था।
बाहर किसी के पैरों की चाप सुनाई दी, आनंद ने अपनी पकड़ ढीली कर दी। मीरा हँसी—‘‘किवाड़ अंदर से बोल्ट हैं और देखनेवालों ने देखा ही होगा कि एक पुरुष और एक नारी अंदर हैं, तो इसमें हर्ज ही क्या कि लोग जैसी चाहें वैसी कल्पना कर लें।’’ उसने बड़ी निश्चिंतता से यह कहा था और आनंद को स्वयं अपने आप पर झेंप आ गई थी।
‘‘मुझे और कुछ नहीं चाहिए। मुझे जो मिलना था, मिल गया। अब किसी बात की न कामना है, न लालसा। क्यों नहीं हम यहीं लक्ष्मण रेखा खींच दें।’’ आनंद ने कहा।
‘‘आनंद, तुम बात नहीं समझते। रेखाओं का अतिक्रमण ही अपहरण नहीं होता।’’ यह कहते हुए मीरा ने अपने को और भी आनंद के नजदीक कर लिया था। एक ओर अतिशय भार पाकर डनलप थरथरा उठा था।
परंतु दूसरे ही क्षण मीरा सँभल गई, ‘‘आनंद, तुम गंदे आदमी हो।’’ उसने किंचित् मुसकराते हुए यह कहा था।
आनंद ने भी छेड़ा था, ‘‘गंदा भले होऊँ, जटिल नहीं हूँ।’’
‘‘तुम न गंदे हो और न जटिल ही, तुम शैतान हो, शैतान!’’ मीरा ने अपने आप ही अपने को संशोधित किया था।
आनंद ने मीरा के गाल पर हलकी सी चपत मारी, ‘‘शैतान तो बच्चे हुआ करते हैं।’’ और उसकी बाल-सुलभ चपलता स्पष्ट हो आई थी।
मीरा की आँखों में क्या कुछ तो छलक रहा था, जिसे पहचानते हुए भी आनंद न पहचान पाने की कोशिश कर रहा था कि मीरा अपने को बेतरह सँभालने की चेष्टा कर रही है—स्त्री का स्वाभाविक परिवेश वह छोड़ नहीं सकती, परंतु सबके बावजूद वह अपने को सँभाल नहीं पा रही थी।
और तभी बाहर किवाड़ पर किसी ने दस्तक दी, ‘‘हुजूर, साढ़े नौ बज गए, अब चला जाए।’’ कुली ने पुकारा था।
कातर, निरीह और विवश आँखों से उन दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा था, मानो केवल एक क्षण बीता हो और वह क्षण भी इतना जल्द कैसे बीत गया! हालाँकि दोनों इस बात को समझ रहे थे कि यह बीता क्षण सौ बरसों के बराबर है और बरस-पर-बरस बीत जाएँगे, जिंदगी बीत जाएगी, लेकिन यह क्षण यादों के वृत्त बनकर कभी नहीं बीतेगा।