या अपना असली चेहरा दिखाऊँ? : हिंदी लोक-कथा
Ya Apna Asli Chehra Dikhaun ? : Folktale in Hindi
एक खूंखार चीते ने किसी तरह अपना रूप बदलने का गुर सीख लिया। उसकी बड़ी इच्छा थी कि वह किसी ब्राह्मण कन्या से ब्याह करे। हालाँकि उसे माँस बहुत पसंद था और उसे खाना नहीं छोड़ सकता था, लेकिन साथ ही उसे ब्राह्मणों के पकाए खाने की गंध और स्वाद बहुत अच्छा लगता था, भले ही उनका खाना शाकाहारी हो। अत: एक दिन उसने युवा विद्वान ब्राह्मण का रूप धरा और एक ब्राह्मण के द्वार पर गया। ब्राह्मण परिवार ने उसे सम्मान के साथ भोजन का निमंत्रण दिया और उसे भात, रसेदार साग, आम का अचार और दही परोसा। उसने उस परिवार की कन्या से विवाह करने की इच्छा दर्शाने में अधिक समय नहीं लगाया। ब्राह्मण के घरवाले उसके रामायण पाठ, मधुर कंठ और संस्कृत के ज्ञान से प्रभावित थे। अतिथि की इच्छा जानकर उन्हें प्रसन्नता हुई। शीघ्र ही विवाह संपन्न हो गया। वर के आगे-पीछे कोई था नहीं जिसे बुलाया जाता और आने की प्रतीक्षा की जाती। कुछ दिनों बाद जामाता ने कहा कि वह जंगल के उस पार अपने घर जाना चाहता है और दुलहन को साथ ले जाने की अनुमति माँगी।
बूढ़े ससुर ने तुरंत उसकी बात मान ली। कहा, “विवाह के पश्चात कन्या पर हमारा कोई अधिकार नहीं। आप ही उसके स्वामी हैं। हमने उसे बहुत लाड़-प्यार से पाला है। उसे अपने से दूर करना निर्वासित करने जैसा है, परंतु मैं जानता हूँ आप उसका सब प्रकार से ध्यान रखेंगे।” अगले दिन जामाता ने प्रस्थान किया। सास ने रास्ते में खाने के लिए कुछ मिठाइयाँ और शकरपारे बाँध दिए। घात में बैठे किसी राक्षस से बचाव के लिए उसने पाथेय की प्रत्येक पोटली में नीम की पत्तियाँ रखी और कुछ पत्तियाँ बेटी के बालों में गूँथ दीं। बेटी को विदा करते समय माँ की आँखें भर आईं।
रास्ते में और सब तो ठीक रहा, लेकिन जब भी दुलहन किसी पेड़ की छाया में या तालाब के किनारे ज़रा सुस्ताने के लिए कहती तो पति का मिज़ाज गर्म हो जाता, “चुपचाप चलती हो या अपना असली चेहरा दिखाऊँ?”
यह बात उसने कई बार कही। ज्यों-ज्यों वे जंगल में आगे बढ़ते त्यों-त्यों पति में आते बदलाव को देखकर उसे कुछ अजीब लगा। आख़िर उससे रहा नहीं गया। बोली, “अच्छी बात है, दिखाओ अपना असली चेहरा!”
उसके यह कहते ही पति का रूपांतरण हो गया। चार पैर। लंबे पीले शरीर पर काली धारियाँ। मुछल चेहरा। तो यह आदमी नहीं, चीता है!! चीते ने कहा “तुम्हारा पति चीता है यह हमेशा याद रखना! हम जल्दी ही घर पहुँच जाएँगे। तुम जो कहोगी ला दूँगा। चावल, सब्जियाँ, मसाले और अपने लिए थोड़ा माँस। वक़्त पर खाना बनाना और घर को साफ़-सुथरा रखना। और हाँ, कभी सपने में भी मेरा कहा मत टालना।”
जंगल के बीच एक मकान में वे पति-पत्नी की तरह रहने लगे। कुछ समय उपरांत पत्नी ने एक चीता शावक को जन्म दिया। पर उसके दिल को चैन नहीं था। जीवन भर अधम चीते के साथ रहने को वह तैयार नहीं थी। न ही उसे पति का माँस और अंतड़ियाँ लाना पसंद था। एक दिन वह घर में अकेली बैठी रो रही थी कि एक कव्वा आया और फ़र्श पर बिखरे चावल चुगने लगा। उसे रोते देखकर कव्वे ने पूछा कि वह रो क्यों रही है। ब्राह्मण की बेटी ने उसे सारी बात बताई और आग्रह किया कि वह उसका एक पत्र पहुँचा दे। कव्वे ने कहा, “ज़रूर। तुम्हारे लिए जो कर सकूँगा, करूँगा।”
वह ताड़ का पत्ता लाई और उस पर लोहे की कील से घरवालों को पत्र लिखने लगी। पत्र में उसने ब्यौरेवार अपना हाल लिखा और भाइयों से उसका उद्धार करने की विनती की। फिर ताड़ के पत्ते को उसने कव्वे के गले में बाँध दिया। पत्र को लेकर कव्वा उसके गाँव गया और उसके भाइयों के सामने ज़मीन पर उतरा। कव्वे के गले में बँधे ताड़ के पत्ते को देख उन्होंने उसे खोलकर पढ़ा। तीनों भाई उसी पल कव्वे के साथ चल पड़े।
जंगल में घुसते समय उन्हें एक भटका हुआ गधा मिला। छोटे भाई का बचपना अभी गया नहीं था। वह थोड़ा खिलंदरा था। उसने गधे को साथ ले लिया। भाइयों ने उसे समझाने का प्रयास किया, पर वह ज़िद पर अड़ा रहा। आगे चलकर उन्हें एक काला चींटा दिखा। मझले भाई ने उसे नारियल के खोपड़े में बंद करके साथ ले लिया। पास ही एक ताड़ का पेड़ ज़मीन पर पड़ा था। बड़े भाई ने उसे उठा लिया। चीते से लड़ाई में इसकी ज़रूरत पड़ सकती है।
सूरज सर पर चढ़ आया। उन्हें कड़ाके की भूख लगी। सो वह एक तालाब पर रुके और उसका समूचा पानी पी गए। वे वहाँ से चलने को ही थे कि उन्हें धोबी की एक टंकी दिखी। उन्होंने उसे भी अपने साथ ले लिया।
थोड़ी देर बाद वे बहन के पास पहुँच गए। बहन की आँखों में आँसू छलक आए। बोली, “तुम्हें आया देखकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई। पर चीता किसी भी क्षण वापस आ सकता है। तुम ऊपर दुछती में छुप जाओ। जब वह खाना खाकर चला जाएगा तो हम आगे की बातों पर विचार करेंगे।”
तीनों भाई दुछती में जा छुपे। गधे, चींटे, ताड़ के तने और धोबी की टंकी को भी वे दुछती में अपने साथ ले गए। चीते ने आते ही इधर-उधर सूंघा और बोला, “मुझे आदमी की गंध आ रही है।”
पत्नी ने कहा, “आदमी की गंध नहीं आएगी तो किसकी आएगी? तुमने आदमजाद से ब्याह जो किया है!”
“तुम्हारी गंध मैं पहचानता हूँ। यह वह नहीं,” चीते ने कहा। वह भूखा था और पत्नी का बनाया ब्राह्मणों का भोजन खाना चाहता था। ज्यों ही ब्राह्मण की बेटी ने उसके लिए केले के पत्ते पर भात परोसा दुछती में बैठे चंचल छोटे भाई ने कहा, “मुझे पेशाब लगा है। मुझसे और नहीं रुका जाता।” बड़े भाई ने कहा, “जाओ, कर लो, पर कोई आवाज़ मत करना।” पेशाब की धार सीधे चीते की पत्तल पर गिरी।
“यह क्या है?” चीते ने संदेह से पूछा।
पत्नी ने कहा, “ओह, यह ? दुछती में घी की हंडिया रखी थी। वह गिर गई होगी।”
थोड़ी देर बाद छोटे भाई ने कहा, “मुझे टट्टी लगी है। मैं क्या करूँ?”
बड़े भाई ने कहा, “ठीक है, कर लो!”
और छोटे भाई ने कर दी। वह सीधे चीते की पत्तल पर गिरी। चीता गुर्राया, “यह क्या है? यह टट्टी लगती है।”
पत्नी ने कहा, “खाना खाते समय गंदी बातें मत करो। मैंने मसूर की खिचड़ी दुछती में रखी थी। यह बिल्ली या चूहों की करतूत लगती है।”
चीता सब चट कर गया। सोचा, यह छौंकी हुई मसालेदार खिचड़ी होगी। सहसा उसने दुछती से ज़ोरदार आवाज़ सुनी, “चीते, तुम्हारा अंत आ गया है। मैं तुम्हारा साला यहाँ बैठा हूँ। मैं तुम्हें कच्चा चबा जाऊँगा।”
चीता भौंचक रह गया। ऊपर देखते हुए बोला, “तुम कहाँ हो?”
“यहाँ ऊपर! मेरी दहाड़ सुनो!” बड़े भाई ने कहा। तभी छोटे भाई ने गधे गुदा में चींट डाल दिया। चींटे ने अंदर नाज़ुक स्थान पर काटा तो गधा सप्तम सुर में ढेंचू-ढेंचू करने लगा। चीते के होश उड़ गए, “यह तुम्हारी आवाज़ है? मुझे अपना पैर दिखाओ!”
बड़े भाई ने ताड़ का तना नीचे लटका दिया। चीते ने कहा, “क्या? इतना बड़ा?”
चीते के भय का फ़ायदा उठाते हुए मझले भाई ने कहा, “अब मेरा पेट देखो! तुम पूरे के पूरे इसमें समा सकते हो।” कहते हुए उसने धोबी की टंकी दिखाई।
“ऐसी भयंकर आवाज़! इतना बड़ा पैर! इतना मोटा पेट! बाप रे!” कहते हुए चीता जान बचाकर भागा।
अब तक रात हो गई थी। चीते का डर दूर होने से पहले ही वह वहाँ से चले जाना चाहते थे। सो जो कुछ बचा था खा-पीकर वे जाने की तैयारी करने लगे। चीता शावक नींद में सो रहा था। उससे छुटकारा पाने के लिए उन्होंने उसे दो टुकड़ों में काटा, टुकड़ों को भट्टी के ऊपर लटकाया और भट्टी पर तवा रख दिया। फिर चारों भाई-बहन वहाँ से रफ़ूचक्कर हो गए।
चलते समय बहन ने सामने का दरवाज़ा भीतर से बंद कर दिया और पिछले दरवाज़े से बाहर आ गई। वध किए गए शावक के टुकड़ों से टपकता ख़ून भट्टी पर रखे तवे पर गिरता तो सू-छन्न सू-छन्न की आवाज़ होती। आधी रात को चीता दबे पाँव लौटा तो उसने देखा कि सामने का दरवाज़ा बंद है और भीतर से सू-छन्न सू-छन्न की आवाज़ आ रही है। उसे लगा कि पत्नी चिल्ले बना रही है।
“तो दरवाज़ा बंद करके तुम भाइयों के लिए चिल्ले बना रही हो! अभी देखता हूँ”, वह बुदबुदाया और बिना आहट किए घर के पीछे गया। अंदर जाकर क्या देखता है कि उसके लाडले शावक के दो टुकड़े भट्टी के ऊपर लटके हैं, पत्नी भाग गई है और क़ीमती सामान ग़ायब है—हार, झुमके, अंगूठियाँ और रेशम और तमाम चीज़ें जो उसने राहगीरों को मार-मारकर इकट्ठीं की थीं।
बेटे की मौत से उसका कलेजा टूक-टूक हो गया। पत्नी के विश्वासघात से उसका ख़ून खौल उठा। उसने क़सम खाई कि ब्राह्मण की बेटी को वह पाताल से भी ढूँढ़ निकालेगा और उसके टुकड़े-टुकड़े कर देगा।
पर कैसे? उसी जादुई युक्ति से उसने युवा ब्राह्मण का रूप धरा और को चल पड़ा। उसकी पत्नी और सालों ने उसे दूर से ही देख लिया और उसका सामना ससुराल को चल पड़ा। उसकी पत्नी और सालों ने उसे ही देख लिया और उसका सामना करने के लिए तैयार हो गए। बूढ़े सास-ससुर ने द्वार पर उसकी अगवानी की। साले भी उसकी दावत के लिए चावल, सब्जियाँ, शीरा वगैरा जुटाने और उसकी सेवा के लिए भाग-दौड़ करने लगे। उन्हें अपनी ख़ातिरदारी में जुटा देखकर वह फूला नहीं समाया। उसे ऐसा एक भी साला नज़र नहीं आया जो भीमकाय हो और जिसकी आवाज़ डरावनी हो। घर में सब इकहरे बदन के थे और उनकी आवाज़ भी मीठी थी।
इस बीच बड़े साले ने घर के पीछे बेकार पड़े कुएँ को टहनियों से और घास-फूस से ढक दिया और उस पर रेशमी दरी बिछा दी। रिवाज के मुताबिक मालिश और स्नान के लिए सालों ने जीजाजी से रेशमी दरी पर विराजने का निवेदन किया। उसके बैठते ही दरी घास-फूस और टहनियों समेत भयंकर आवाज़ के साथ कुएँ में गिर गई। तीनों भाइयों ने अदेर कुएँ को पत्थरों, कचरे और मिट्टी से पाट दिया। इस तरह दुष्ट चीते का अंत हुआ।
यह कथा एक तमिल कहावत को समझाने के लिए कही जाती है जिसका शाब्दिक अर्थ है, “मानते हो या (तुम्हें) अपना असली चेहरा दिखाऊँ?”
(साभार : भारत की लोक कथाएँ, संपादक : ए. के. रामानुजन)