वीपिंग-विलो (कहानी) : कमलेश्वर
Weeping-Willow (Hindi Story) : Kamleshwar
हैम्पटन कोर्ट पैलेस से निकलकर गरम चाय पीने की तलब सता रही थी। पुराने
किलों या महलों से निकलकर जैसी व्यर्थता हमेशा भीतर भर जाती है, वैसी ही
व्यर्थता मन में भरी हुई थी। एक निहायत बेकार-सी अनुभूति। उदासी भी...पर
उखड़ी-उखड़ी ! कि आदमी अपनी उदासी में भी डूब सके। कभी तुमने सोचा है कि
धुरी शाम मन क्यों घबराया-सा रहता है?
अजीब बदहवासी में काँपता हुआ। क्योंकि तब न रोशनी होती है और न अँधेरे
का गहरा समुद्र जिसमें आदमी डूब जाए। पुरानी इमारतों या इतिहास से गुजरकर
लौटना इतना ही तकलीफदेह होता है।
वह तो कहो, वहाँ टेम्स थी। कुछ बोट्स थीं। अगर टेम्स नदी वहाँ न होती
और वे नावें न होतीं तो मन का क्या हाल होता, सोच सकना मुश्किल है।
पतझड़ की वह पहली शाम थी। हो सकता है, पतझड़ पहले आ चुका हो,
पर मैंने उसे उसी शाम देखा। टेम्स के तट के वृक्ष पत्तों का दान कर रहे थे। झरते
हुए पत्ते नदी के पानी पर धीरे-धीरे थिरकते हुए बह-से रहे थे।
नदी...वह चाहे टेम्स हो या गंगा, सिन्ध हो या वोल्गा...हमेशा इतना एहसास
तो देती है कि यह जिन्दगी मात्र इतिहास नहीं है। इतिहास के आगे भी आदमी को
जाना होता है।
अगर मैं टेम्स के तट पर न उतरता तो शायद रेगीना से मुलाकात न होती। मैं
उधर उतरकर झरते पेड़ के नीचे खड़ा हो गया था। जैसे कभी दिल्ली की पार्लियामेण्ट
स्ट्रीट के नीम के झरते पेड़ों के नीचे खड़ा हो जाता था। तुम चाहो या न चाहो, यादें
हमेशा अपने को दुहरा लेती हैं। फिर यादों का नया क्षण एक और छोटा-सा अंश
जोड़कर चला जाता है।
जैसे कि रेगीना की ही बात है। बहुत छोटी-सी मुलाकात हुई...पर रेगीना इन
तमाम यादों में कुछ और जोड़कर वहीं बैठी रही।
उस तट पर नावें खड़ी थीं। रेगीना भी उधर ही थी। टेम्स का पाट यहाँ चौड़ा
नहीं था इसलिए यह बहुत पास लग रही थी। पता नहीं, तुम्हारे साथ यह होता है
या नहीं, पर मेरे साथ हमेशा यह होता है...यही कि भीड़-भाड़ में या कहीं
अकेले में कोई दिखाई पड़ता है तो एकाएक लगने लगता है कि मेरा इससे कुछ
लेना-देना है। यही रेगीना के बारे में भी हुआ।
टेम्स के उस पार पहुँचा तो एकाएक बोटमैन-रास्तेराहत नजर आया। चाय
की तलब ने जोर मारा और मैं रास्तेराहत में घुस गया। चाय का प्याला लेकर
मेज पर बैठा ही था कि रेगीना दूसरी मेज पर दिखाई दी। उसका रंग बता रहा
था कि वह पूरब की है।
पश्चिम की तो कतई नहीं। इससे पहले कि मैं उसे दुबारा छिपी निगाहों
से देखूँ, वह मेरी मेज के पास आकर खड़ी हो गयी। धीरे से अँग्रेजी में बोली,
“तुम हिन्दुस्तानी हो?''
“हाँ!” मैंने कहा।
वह सामने बैठ गयो। बोली, “मैं नैटाल की हूँ। साउथ अफ्रीका, नैटाल।
क्रिश्चियन हूँ।"
“यहाँ घूमने आयी हैं?"
“नो मैन, घूमना क्या होता है? बस, कहीं भी चले जाना। कहीं से ऊबकर
उखड़ जाना। इसे तुम घूमना कहोगे?'' उसने चाय पीते हुए कहा।
“तो हैम्पटन कोर्ट पैलेस देखने आयी थीं?''
वजह कुछ हिचकी। या शायद मेरे इस सवाल पर उसने मुझे ठीक से समझना
चाहा। एकाएक मुझे लगा कि क्या मैंने कोई बहुत गलत सवाल कर दिया है। तभी
वह जैसे अपने खोल में समा गयी। बोली, “मेरे साथ और लोग भी हैं। वे पैलेस
देखने गये हैं। मेरा मन नहीं हुआ। मैंने कहा, यहाँ इन्तजार करूँगी। बस इसीलिए
रुकी हुई हूँ। देर हुई, अब वे लोग आते ही होंगे।'”
बात यहाँ पर एक तरह से खत्म हो जानी चाहिए थी। फिर भी बोट-मैन
रास्तेरहत का खाली-खाली हाल देखकर मन हुआ कि सन्नाटे को जमने न दिया
जाए। कुछ रुककर मैंने पूछा, “आप हिन्दुस्तानी हैं?''
“नहीं, '” वह बोली, “बहुत बरस पहले मेरे ग्रैण्डफादर नैटाल आये थे
इण्डिया से। वे हिन्दू थे। फिर मेरे पिता ने ईसाई धर्म अपना लिया। मैं ईसाई हूँ। तुमने
कभी सोचा है कि धर्म बदलने से आदमी की इच्छाएँ भी बदल जाती हैं?''
मैं क्या जवाब देता! कुछ समझ में नहीं आया तो यों ही मैंने कह दिया, “मैंने
अभी तक तो धर्म बदला नहीं है।”
“बदलना भी मत।” वह जैसे चीखती हुई बोली, '“ईसाई हो तो ईसाई रहना।
हिन्दू हो तो हिन्दू रहना। मुस्लिम हो तो मुस्लिम रहना। धर्म बदलने से आदमी को
परायी संस्कृति को सहना पड़ता है। जो हमें अलग-अलग टुकड़ों में बाँट देती है,
फिर हमें चूसती है। और तुम्हें पता है...” कहते-कहते वह रुकी और उसने
अपना सवाल बदल दिया, “तुम्हारा नाम क्या है?''
“नाम! कमलेश्वर। क्यों? एकाएक आपको मेरे नाम की जरूरत क्यों पड़
गयी ?'' मैंने पूछा।
“इसलिए कि इस संस्कृति में आदमी अनाम हो गया है। मुझे नाम न मालूम
पड़े, तो बहुत खोया-खोया महसूस करती हूँ। तुमने अपना सही नाम बताया है न?"
कहते हुए उसने मुझे सहज विश्वास से देखा।
“हाँ," मैंने कहा।
“चलो मान लेते हैं। नहीं तो तुम्हारा पासपोर्ट देखती।” चाय का आखिरी घूँट
लेकर उसने बात का पिछला सिरा पकड़ा--'' संस्कृति एक व्यापार है कमलेश्वर...और
आज का आदमी है उस व्यापार की करेन्सी। हम-तुम करेन्सी हैं।''
मैंने नजर बचाकर घड़ी पर निगाह डाली क्योंकि हैम्पटन से मुझे 5.20 की
गाड़ी वाटरलू के लिए पकड़नी थी। रेगीना के साथी अभी तक नहीं आये थे। उसने
मुझे ताड़ लिया था। वह खुद भी शायद अपने को बचाना चाहती थी। बोली, “तुम
जाओ। या यह करो कि यहाँ से बोट से वाटरलू चले जाओ। सिर्फ चार घण्टे लेती
है।''
मैंने उसकी ओर गौर से देखा। हैम्पटन से बाटरलू तक 45 मिनट में पहुँचा
जा सकता है। वह चार घण्टे वाला रास्ता लेने को क्यों कह रही है...मुझे देखता
देखकर वह मुस्करा दी। फिर धीरे से बोली, “हमेशा उस रास्ते से जाओ जो देर में
कहीं पहुँचाता हो! समझे! समझे! क्योंकि रास्ता हमेशा तुम्हें बेहतर आदमी बनाता
है। जैसा कि वह किसी भी धर्म में पैदा होता है, नेचुरल !''
वह भी अब कुछ छटपटा रही थी। मैं उसके अन्दर की छटपटाहट को भी देख
रहा था। हम बोटमैन रास्तेराहत से निकलकर स्टेशन की तरफ चलने लगे थे। मैंने
फिर घड़ी देखी और बेहद अनजाने में एक बेहूदा सवाल कर बैठा, “पाँच बज कर
पन्द्रह मिनट हो रहे हैं। पैलेस तो शायद साढ़े चार बजे बन्द हो जाता है। आपके साथी
लोग अभी नहीं आये...और अब आप यहाँ अकेली... "
उसने बात काट दी। बोली, “तुम जहाँ-जहाँ जाओ, वहाँ से एक पिक्चर
पोस्टकार्ड भेजते जाना।"
“लेकिन आपका पता?'' मैंने संकोच से कहा।
“पता लिखो। रेगीना सेवालाल। केयर ऑफ अण्डर द ब्लू स्काई।'' उसके
इस मजाक से मैंने थोड़ा कुण्ठित महसूस किया। क्या उसने मुझे राह चलते दिलफेंक
आदमियों की तरह समझा है। मैंने नोटबुक जेब में रख ली।
“तुमने मुझे गलत समझा।'! रेगीना ने एकाएक पिघलते हुए कहा, “' मेरा पता
सचमुच कोई नहीं है। जब किसी के पास वह सब न हो जिसे लेकर वह अकेला
रह सके, तब उसका कोई पता नहीं होता।''
मुझे लगा, वह आत्मरति में लीन होती जा रही थी। मैं स्टेशन की ओर
बढ़ा तो उसने कहा, “तुम जाओ मैन, साथी आते होंगे। बाई।''
और मैं स्टेशन की ओर बढ़ गया। वह टेम्स के किनारे की ओर चल दी। मैं
अपनी हड़बड़ी में था। टिकट लेकर प्लेटफॉर्म पर पहुँचा तो गाड़ी छूट चुकी थी।
हैम्पटन थोड़ा दुरदराज का स्टेशन था, इसलिए लन्दन तक की गाड़ियाँ देर-देर बाद
चलती थीं। अब मेरे पास फिर करीब 40 मिनट का वक्त था।
वक्त काटने के लिए मैं एम्बैंकमेण्ट के सहारे आकर खड़ा हो गया। दीवार
के नीचे मोजे की शक्ल में घास का एक छोटा-सा हिस्सा फैला हुआ था। इसके बाद
भीगा हुआ किनारा था। दाहिनी तरफ तीन-चार नावें खड़ी थीं। इस पार वाला पेड़
खामोश खड़ा था। कभी-कभार एकाध पत्ते चुपचाप चकराते हुए झरते और खामोशी
से घास पर लेट जाते।
मोजे की शक्ल में फैला हुआ घास का छोटा-सा मैदान और भी ज्यादा खामोश
लग रहा था। दूर पर उसकी एड़ी के पास एक वीपिंग-विलो का पेड़ बाल छितराये
खड़ा था। उसके बाल धीरे-धीरे सरसरा रहे थे, जिससे अहसास हो रहा था कि हवा
अभी कहीं चल रही है।
वीपिंग-विलो के नीचे बेंच थी और उस बेंच पर रेगीना चुपचाप बैठी थी। वह
टेम्स का बहना देख रही थी या बादलों का छितराना--इसका कुछ पता इधर से नहीं
लग रहा था। क्योंकि उसकी पीठ इस तरफ थी।
मेरा मन हुआ कि नीचे उतरकर जाऊँ और चुपचाप उसकी बगल में बैठ
जाऊँ। उस वीपिंग-विलो के पेड़ के नीचे, पर उसके एकान्त को तोड़ देने की हिम्मत
नहीं हुई। उसका सफरी सामान भी बेंच पर रखा हुआ था, जिसे मैंने पहले नहीं देखा
था। वह उस पर कोहनी टिकाये चुपचाप बैठी थी। शायद अपने में पूरी तरह लीन
या अपने से बहुत दूर।
रेगीना के साथी अब तक नहीं आये थे। उसके कोई साथी सचमुच आनेवाले
थे या नहीं, इसका कोई ठीक पता नहीं था।
वक्त जैसे ठहर गया था। अभी कुल पाँच मिनट बीते थे। वीपिंग-विलो के
नीचे बैठी रेगीना इतनी निश्चल थी कि वह एक मूर्ति की तरह लग रही थी। फिर
वह नहीं हिली। पूरे 30 मिनट मैं उसे देखता रहा...टेम्स बह रही थी। वीपिंग-विलो
के छितराये बाल काँप रहे थे पर रेगीना निश्चल थी।
मैं स्टेशन की तरफ चला आया था।
और दूसरे दिन अन्ना को पिक्चर पोस्टकार्ड भेजते हुए मैंने लिखा था--
“हैम्पटन कोर्ट पैलेस के सामने टेम्स है। टेम्स के दायें किनारे पर मोजे की शक्ल
में कटा हुआ घास का छोटा-सा टुकड़ा है। उसकी एड़ी पर वीपिंग-विलो का
एक पेड़ है। पेड़ के नीचे बेंच पर रेगीना नाम की एक लड़की की मूर्ति है जो
अपना सफरी सामान लिये वहाँ बैठी है। कभी इंग्लैण्ड आना तो इस मूर्ति को
जरूर देखना। उसका पता है--केयर ऑफ, अण्डर द ब्लू स्काई!"
(बम्बई : 1972)