Warsa Ki Diary : Ramdhari Singh Dinkar
वारसा की डायरी : रामधारी सिंह 'दिनकर'
कल नाश्ते पर एक अधेड़ पोलिश महिला से परिचय हुआ, जो अंग्रेजी जानती हैं। उनके जरिये हंगरी के एक वयस्क कवि से बातें हुईं। उनका नाम, कदाचित्, सेबोक है। लंबे, गोरे, उम्र कोई 55 साल की, शील, सौजन्य और अहिंसा की प्रतिमूर्ति। कौन कहेगा कि ये हिंसाप्रिय सिद्धान्तों के घेरे में होंगे? वे बुडापेस्ट में रहते हैं। रवीन्द्रनाथ के प्रेमी हैं। रवीन्द्रनाथ ने बुडापेस्ट में रहकर कुछ कविताएँ लिखी थीं, यह बात उन्होंने बड़े ही गौरव से सुनाई। फिर कहने लगे, ‘मेरा देश तो आपके देश से बहुत छोटा है, किन्तु आपके देश की परम्परा का हम लोग बहुत आदर करते हैं।’
नाश्ते पर ही रूमानिया के एक कवि और इटली की एक कवयित्री से परिचय हुआ। कवयित्री बिलकुल छोटी–सी मैना है और उसके मुख से गद्य भी गीत बनकर निकलता है। रवीन्द्रनाथ की रचनाओं से परिचय इन लोगों ने भी दिखाया। रवि बाबू देश के सुयश को खूब बढ़ाकर गए हैं। क्या जाने, रवीन्द्रनाथ के देशवासी होने के कारण ही हम लोग भी उचित से अधिक सम्मान पा रहे हों!
‘कुरुक्षेत्र’ के षष्ठ सर्ग का अंग्रेजी अनुवाद साथ था। मैंने एक–एक प्रति सभी को भेंट कर दी। और तब कल शाम को रूमानिया के कवि ने भी अपनी एक पुस्तक लाकर मुझे भेंट की। यह पद्य–नाटक है। मगर, मैं तो उसे समझ नहीं सकता। फिर भी साथ ले जाऊँगा।
कल नाश्ते के बाद हम म्यूजियम देखने गए। कवि मित्स्केविच के सम्बन्ध में ही यह म्यूजियम सजाया गया है। कवि के जीवन की घटनाएँ चित्रों में दिखाई गई हैं। यही इस म्यूजियम की प्रधान सजावट है। म्यूजियम का समारोह अच्छा रहा। उद्घाटन देश के संस्कृति–मंत्री जी कर रहे थे। उन्होंने म्यूजियम के दरवाजे पर खड़े–खड़े ही भाषण दिया। तब सब लोग अन्दर गए।
म्यूजियम में हम दोनों पर विशेष दृष्टि थी। वह, शायद, इस कारण कि हम खास ढंग की पोशाक में थे और चेहरों से हम साफ भारतवासी मालूम होते थे। हमें देखकर आपस में लोग कुछ बोलते थे, जिसमें बार–बार ‘प्रीमियर नेहरू’–यह नाम आता था। हम लोगों की फिल्म और फोटो कई बार, खास तौर से, लिये गए। बाहर निकला, तब बच्चों ने ऑटोग्राफ के लिए घेर लिया। गरज कि भारत नाम की फसल बहुत अच्छी कट रही है।
फिर हम बाजार देखने गए। किन्तु, त्राहि! त्राहि!! जूते का दाम एक हजार स्लोती, मनीबैग का साढ़े तीन सौ, ओवरकोट के दो हजार और वैनिटी बैग के साढ़े तीन सौ स्लोती। यह अर्थ–विधान भी कितना विचित्र है!
रास्ते में मेहतर, गाड़ीवान और कोयले के मजदूर देखे, जो भारत के समान ही गरीब लगते थे। एक जगह सड़क पर गन्दगी भी देखी। पोलैंड स्वच्छता में भारत से थोड़ा ही श्रेष्ठ है। मगर श्रेष्ठ जरूर है।
अदम मित्स्केविच के शती–समारोह का पहला उत्सव कल शाम को संस्कृति मंडप में हुआ। इसमें पचास देशों के साहित्यकार और कोई साढ़े तीन हजार दर्शक आए हुए थे। संस्कृति–मंडप के जिस हॉल में यह आयोजन हुआ, वह नीचे से ऊपर तक खचाखच भरा हुआ था। मंच पर अपने सहयोगियों के साथ पोलैंड के राष्ट्रपति विराजमान थे। उनके एक ओर तो रूस के कवि श्चीपाचोव और दूसरी ओर फ्रांस के कम्यूनिस्ट नेता कज़ां बैठे हुए थे। कॉमरेड कज़ां की आकृति शीतल, सौम्य और पवित्र है। वे बूढ़े हैं, अत्यन्त बूढ़े हैं और मूँछें वे ग्रामीण के समान कतरकर रखते हैं। वे जब मंच पर पधारे, सारी सभा तालियों से गूँज उठी। फिर राष्ट्रपति ने प्रत्येक देश से आए हुए अतिथियों के नाम पढ़ने शुरू किये और हर नाम पर सभा निश्छल आनन्द से तालियाँ बजाती रही। जब कॉमरेड कज़ां का नाम पढ़ा गया, सभा आनन्द से उन्मत्त हो उठी और तालियाँ इतनी देर तक बजती रहीं कि कॉमरेड कज़ां रोने लगे और बार–बार संकेतों द्वारा उन्होंने सभा से शान्त होने का अनुरोध किया।
फिर, अदम मित्स्केविच के सम्बन्ध में कई विद्वानों के भाषण हुए। भाषण पोलिश, फ्रेंच, रूसी और जर्मन भाषाओं में हुए और भाषणों के अनुवाद केवल पोलिश भाषा में सुनाए गए। कितनी शान्ति! कैसा सौजन्य! कितना उत्साह! लोग जो भाषा नहीं जानते, उसमें दिये गए भाषणों को भी वे धीरज और शान्ति के साथ सुनते हैं। यह सच्चा राष्ट्रीय अनुशासन है। यह सच्चा अन्तरराष्ट्रीय सौजन्य है। अपने देश की याद आई। कितना भेद! वहाँ तो दिल्ली के लोग तमिल कविता के पाठ से ही अधीर हो जाएँगे और, सम्भव है कि कवि को कुछ क्लेश के साथ ही विदा करें।
कंसर्ट, गान और अदम मित्स्केविच की कविताओं के पाठ को लेकर यह उत्सव काफी देर तक चला। स्करजंका नाम की एक अभिनेत्री ने तो काव्य–पाठ द्वारा पूरे घंटे भर अद्भुत समाँ बाँध दिया। ऐसा लगा, मानो मित्स्केविच की पूरी पुस्तक ही उसे कंठस्थ हो! न जाने, हमारी अभिनेत्रियों में साहित्य का यह संस्कार कब उत्पन्न होगा! अथवा सम्भव है, ऐसा संस्कार उनमें अभी भी विद्यमान हो और हम उसके उपयोग से वंचित चले जा रहे हों!
26–11–1955
कल हम नगर देखने गए थे। वारसा यूरोप की प्रसिद्ध पुरानी राजधानियों में से एक है। अनेक शताब्दियों तक राजपुरी बने रहने से नगरों में एक प्रकार का गौरव और गंभीरता आ जाती है। यह लक्षण वारसा में भी विद्यमान है। वारसा ने पोलिश जाति के उत्थान–पतन की अनेक लीलाएँ देखी हैं। किन्तु हिटलर के राज्यकाल में पोलिश जनता का जो विनाश हुआ, वह पहले कभी नहीं हुआ था। उस रावण के राक्षसों ने लाखों पोलों को बेगुनाह मार डाला और आक्रमण के क्रम में पूरे नगर का विध्वंस कर दिया। नगर बहुत कुछ बन चुका हैय किन्तु रचना के काम अभी बहुत बाकी हैं। नगर का एकाध अंश ठीक उसी रूप में पुनर्निर्मित हुआ है, जिस रूप में विनष्ट किया गया था। फिर भी, ध्वंस के कितने ही अवशेष ज्यों के त्यों खड़े हैं। नगर के हृदयद्रावक ध्वस्त अंशों को देखकर बर्लिन हवाई अड्डे की वह बालिका याद आई, जिसके पाँव में मोजे नहीं थे। फिर यह भान हुआ कि उसके मोजे क्यों छीन लिये गए हैं। वारसा का ध्वंस राक्षसी–वृत्ति का परिणाम है और उस बालिका के नंगे पाँव प्रतिशोध की गवाही हैं। किन्तु गांधी जी इस कांड पर क्या कहते?
हिटलर का क्रोध पहले यहूदियों पर टूटा था। उनका सफाया करके वह पोलों पर उतरा। नगर के उस भाग को भी देखा, जहाँ पहले यहूदी रहते थे। यहूदियों के विनाश की स्मृति में एक स्मारक बनाया गया है, जो अत्यन्त भव्य है। मूर्तियों में एक ओर तो यहूदी जाति का संघर्ष खचित है, दूसरी ओर उसका ईश्वर के प्रति आत्म–समर्पण। क्या यही कम्यूनिस्टों का ईश्वर–द्रोह है? मगर पोलैंड कम्यूनिस्ट था नहीं, लड़ाई के बाद हुआ है। अनुमान होता है कि कहीं न कहीं जाकर कम्यूनिज्म भी उस परम्परा को स्वीकार कर सकता है, जिससे वह अभी भाग रहा है। नवनिर्माण की योजना के अनुसार नगर का अभी और प्रसार होगा, जिसका नक्शा हमें समझाया गया। किन्तु इस काम में अभी बीस वर्ष और लगेंगे।
राह में आते–जाते गाड़ीवानों को देखा। घोड़े छोटे, मोटे और पुष्ट हैं तथा उनके पाँव में लंबे–लंबे बाल होते हैं। कोचवान तोशक के पाजामे और कोट पहने हुए थे। बच्चे कनझप्पा टोपी पहनते हैं। यह जनता का निर्धन अंश है, जो कम्यूनिज्म के देश में भी मौजूद है। निर्धनता केवल प्रस्तावों से दूर नहीं की जा सकती। उसे हटाने के लिए वर्षों काम करना होता है। यह काम पोलैंड और भारतवर्ष, दोनों देशों में हो रहा है। किन्तु, इसके लिए समय चाहिए।
लौटते समय युवकों और युवतियों का एक जुलूस देखा, जो गीत गाता हुआ सड़क पर से जा रहा था। सब उत्साह से उच्छल, सब हँसमुख, सब प्रसन्न। सन् 1930–32 ई. की याद आई, जब युवकों में ऐसा उत्साह भारतवर्ष में भी था। मगर अब अपने देश में वह बात नहीं रही। हमारे युवक सरकारों से रुष्ट हैं। यहाँ लोग काम करने में विश्वास करते हैं, भारत में वे यह सोच रहे हैं कि काम हम तब करेंगे जब, न जाने, क्या हो चुकेगा। और भारत में भी जो लोग काम करना चाहते हैं, वे अपना अरमान कहाँ जाकर पूरा करें? अपने देश में तो हम, सबके लिए, काम का दरवाजा भी नहीं खोल सके हैं। पोलैंड को देखकर यह बात सूझती है कि हम भी जब काम करने लगेंगे, तब राजनीति की बातें करना भूल जाएँगे। तत्परता अनुशासन से बढ़ती है और अनुशासन यहाँ रेजिमेंटेशन के अधीन है। तो क्या प्रजासत्ता का ढंग गलत है? मगर मैंने आँखों से इस बात का प्रमाण तो नहीं देखा है कि यहाँ का सारा का सारा अनुशासन रेजिमेंटेड ही है। कम्यूनिस्ट देशों के विषय में जो पूर्व धारणाएँ किताबों से बन गई हैं, सम्भव है, उन्हीं के कारण ऐसा दिखाई पड़ रहा हो। सोचने से तो यही लगता है कि अनुशासनहीनता निन्द्य है, किन्तु, रेजिमेंटेशन उससे भी निन्द्य वस्तु है। मगर, सिविल लिबर्टी के नाम पर लोग बकवास करते रहें और काम न करें, यह कौन अच्छी बात है? प्रजासत्ता की सफलता के लिए भी यह जरूरी है कि हम अपने अधिकारों के साथ अपने कर्तव्यों को पहचानें।
विस्तुला नदी को देखा, जो नगर के बीच से बहती है। जनवरी में यह नदी जम जाएगी और लोग जूते पहनकर उस पर पैदल घूमेंगे। एक पार्क में छोटी–सी झील भी देखी, जिसका पानी जमने लगा है।
सड़कों पर बर्फ जमी हुई थी। हमारे शरीर पर भी बर्फ गिर रही थी। हवा ऐसी कि कान जड़ हो गए थे। हमने कई बार अपनी नाक यह जानने को छुई कि वह मौजूद है या नहीं। इतनी कड़ाके की सर्दी है, फिर भी काम करनेवाले काम कर ही रहे हैं। सड़कों पर जो लोग काम करते हैं, वे यहाँ भी मेजों पर काम करनेवालों के बीच किसी भी तरह खपाये नहीं जा सकते। सारी जनता अभी एकाकार नहीं हुई है।
आज नाश्ते पर पोलिश कवियों से बातें हुईं। मिस्र के नाटककार श्री अजीज अबाजा पाशा से भी वहीं परिचय हुआ। वे खुले दिल के खुशमिजाज आदमी हैं और हम लोगों से बात करने में औरों से अधिक दिलचस्पी लेते हैं। कह रहे थे, ‘जब आप देश लौटें, तब कैरो जरूर उतरें। कैरो में साहित्यिकों से मिलकर आपको प्रसन्नता होगी।’
श्री पियरे लूवी फ्लुके से भेंट हुई। आप ब्रुसेल्स (बेल्जियम) से काव्य–सम्बन्धी पत्रिका निकालते हैं, जो फ्रेंच भाषा में है। उन्होंने पत्रिका का वह अंक दिखाया, जिसमें स्वर्गीया सरोजिनी नायडू की तीन कविताओं के फ्रेंच अनुवाद छपे हैं। कहते थे कि भारत से कविताओं के अनुवाद भिजवाइए, तो मैं उन्हें प्रकाशित करूँ। मगर कौन करेगा हिन्दी कविताओं का फ्रेंच अनुवाद?
लोग गांधी टोपी से आकृष्ट हैं। इस टोपी को देखते ही उन्हें ‘पंदित नेहरू’ और ‘इंदिया’–ये दो शब्द अनायास याद पड़ जाते हैं।
रात रूसी कवि श्चीपाचोव से खाने की मेज पर दुभाषिये के माध्यम से बातें हुईं। उन्होंने पूछा, ‘आपने भारत कब छोड़ा?’ मैंने कहा, ‘मिस्टर बुलगानिन और मिस्टर ख्रुश्चेव से मिलने के बाद।’ फिर साहित्य के विषय में बातें हुईं। उन्होंने कोई खास जिज्ञासा नहीं दिखाई। मैंने ही कहा, ‘रूसी कहानियों, उपन्यासों और निबन्धों के जो नमूने भारत पहुँचते हैं, उनमें टॉल्स्टॉय, तुर्गनेव और डास्टावेस्की की ऊँचाई तो नहीं मिलती, फिर भी, वे काफी अच्छे होते हैं, मगर रूसी कविताओं के विषय में हम लोग लगभग कुछ नहीं जानते। क्या आप बतलाएँगे कि आपके यहाँ कविताओं के विषय, मुख्यत:, क्या होते हैं?’
मेरा प्रश्न कुछ बहुत अच्छा नहीं था, मगर उसके बहाने कविता के सम्बन्ध में कुछ वार्तालाप खुल सकता था। किन्तु कवि ने उसे यह कहकर टाल दिया कि ‘विषय मैं कहाँ तक बताऊँ? मास्को पहुँचकर मैं काव्य–संग्रहों की कुछ प्रतियाँ आपको भेज दूँगा। आप स्वयं देख लेंगे कि हमारे विषय क्या होते हैं।’ हिन्दी शब्द लोगों ने मेरे नाम के साथ जोड़ दिया है। वे समझते हैं कि यह, शायद, मेरे नाम का ही अंश है। भारतीय को, शायद, वे हिन्दुस्की कहते हैं।
रात ही मित्स्केविच के नाटक ‘फोरफादर्स इव’ का अभिनय देखा, जो साढ़े चार घंटे चलता रहा। दृश्य, प्राय: ‘मोनो लोग’ के ही थे और बहुत लंबे–लंबे। मैं बार–बार सो जाता था। किन्तु दृश्य बड़े ही सुहावने और सजीव थे। अर्थ नहीं समझने पर भी अनुमान होता रहा कि मित्स्केविच महाकवि रहे होंगे।
26–11–1955
अभी–अभी लंच खाकर ऊपर आया हूँ। आज यहाँ से 30–35 मील दूर एक गाँव में गया था, जिसका नाम स्कालिमुफ है। वहाँ ट्रेड यूनियन के केन्द्रीय समिति का प्रधान दफ्तर है। आज वहाँ अतिथियों के लिए गीत, नृत्य और कंसर्ट का आयोजन था। यूरोप की उद्दामता उसकी कलाओं में भी है। कोरस गान किस उत्साह से गाते हैं! कितने लोग! किन्तु, कैसी एकता है! केसकर साहब पाश्चात्य धुनें नहीं चाहते, किन्तु यह कोरसवाली चीज तो अपने यहाँ भी चलनी चाहिए।
गायन बड़े जोर का रहा। उससे भी बढ़कर नृत्य था। नृत्य में व्यायाम का पुट अधिक रहता है। अपने देश में नृत्य की मुद्राएँ तन से अधिक मन को अभिव्यक्त करती हैं। यहाँ नृत्य में भी शारीरिक अभिव्यक्ति ही प्रधान है। लेकिन सब मिलाकर नृत्य प्रभावोत्पादक होता है।
वारसा जैसे भरे–पूरे लंबे और पुष्ट लोग यहाँ नहीं थे। आखिर कलाकार ही तो ठहरे। वे हर देश में शरीर से कुछ सूक्ष्म होते हैं। अलबत्ते, वारसा में अभिनेत्री स्करजंका पहलवान–सी दीखती है। उसकी तुलना में यहाँ की नाचनेवाली लड़कियाँ बहुत नाटी हैं।
कलाकारों में पूरा उत्साह था। वे जी खोलकर अपने गुणों को प्रकट कर रहे थे। मगर यहाँ के श्रोता भी खूब हैं। प्रशंसा में तालियाँ पीटने लगते हैं, तो रुकने का नाम ही नहीं लेते। कलाकारों से अधिक से अधिक प्राप्त करना ये खूब जानते हैं। बढ़ावा और प्रोत्साहन कला का मुख्य आहार है। यह आहार यूरोप में कला को खूब मिलता है। भारतवाले इस मामले में कंजूस हैं। हाँ, दिल्ली और मद्रास में प्रोत्साहन अच्छा दिया जाता है। इससे ज्ञात होता है कि कला को निश्छल प्रोत्साहन वही दे सकता है, जो स्वयं पूर्ण रूप से निश्छल और सुसंस्कृत है।
नाच खत्म होते ही लड़कों और लड़कियों ने हम दोनों को घेर लिया। फोटोवाले फोटो उतारने लगे। कलाकार चुहलें करने लगे और बाकी अतिथि हम लोगों का तमाशा देखने में लग गए। किसी ने मेरी टोपी उतारकर खुद पहन ली और अपनी टोपी मुझे पहना दी। समाँ ऐसा बँधा कि हम दोनों तमाशा बन गए। अजीज अबाजा साहब ने व्यंग्य कसा, ‘आज तो बस आपका ही दिन है। आप बड़े किस्मतवाले निकले।’ अभी लंच पर फ्रेंच प्रोफेसर की पत्नी ने कहा, ‘आज तो आपको कई सफलताएँ प्राप्त हुईं।’
नाचघर में यूनियन के कलाकारों ने कहा, ‘जब प्रीमियर नेहरू आए थे, तब भी हमने नाच दिखाया था।’
एक लड़की को क्या हुआ कि वह आकर लिपट गई और बोली कि तुम लोग मत जाओ। यहीं रहो और हमारे साथ नाचा करो। मैंने देम्बोस्की की ओर इशारा करके कहा कि ये हमें घसीटकर लिये जा रहे हैं।
नेहरू जी के कारण भारत पर अपार भक्ति जग पड़ी है। उसी का प्रसाद आज हमें प्राप्त हुआ। पता नहीं, यह ध्यान देने की बात है या नहीं, किन्तु किसी–किसी अतिथि की आँखों में हल्की ईर्ष्या जरूर थी।
आज लंच में पोलैंड के एक युवक कवि साथ बैठे थे। उन्होंने कई पोलिश कवियों से परिचय कराया। युवक कवि ने नेहरू जी की वारसा–यात्रा की कहानी सुनाई। कैसे लोग बारह बजे दिन में (यानी काम के समय) दफ्तर छोड़कर सड़कों पर आ गए थे, कैसे उनकी एक झाँकी के लिए जनता उद्वेलित और बेचैन थी तथा कैसे नेहरू जी कार से उतरकर लोगों से मिलते और बातें करते थे।
मैंने कवि से पूछा, ‘नेहरू के प्रति आप लोगों में ऐसी भक्ति कैसे उत्पन्न हो गई?’ वे बोले, ‘भारत और पोलैंड की विपत्तियाँ समान रही हैं। नेहरू ने भारत को आजाद कराया, आज वे उसका उद्धार कर रहे हैं। साथ ही, वे शान्ति के देवता हैं। उनके भाषण यहाँ अखबारों में खूब छपते हैं और हमारा सारा देश उनकी बातों को विश्वनेता की बातें मानकर पढ़ता है।’
नेहरू जी ने भारत का नाम उजागर कर दिया। उनके नाम से भारत का नाम है। यहाँ बेनीपुरी और नागार्जुन की वे गालियाँ याद आती हैं, जो उन्होंने पटना–उपद्रव के समय नेहरू जी को दी हैं। धन्य हैं हम भारतवासी!
जब हम कंसर्ट देख रहे थे, मेरा मन कहीं अन्यत्र घूम रहा था। भारत में हम लोग बहुत धीरे–धीरे चल रहे हैं। चलना हमें बहुत तेजी से चाहिए। दिल्ली और प्रान्तीय राज्य, सबकी गति तेज की जानी चाहिए। लद्धड़ और आलसी के समान पड़े रहना और कोई काम नहीं करके केवल सिविल लिबर्टी की बातें बघारना, इससे तो कोई भी देश प्रगति नहीं कर सकता। हमारे देश में केवल स्वतंत्रता ही स्वतंत्रता है। तत्परता, मुस्तैदी और कार्य–पटुता–ये गुण अभी बढ़ ही नहीं पाए हैं। मगर दोष किसका है? हमारे झुंड के झुंड शिक्षित नवयुवक बेकार हैं। हर बेकार ग्रेजुएट एटम बम होता है। उसे काम दो, नहीं तो वह समाज को अराजकता के मार्ग पर ढकेल देगा।
साम्यवाद की दो उपलब्धियाँ यहाँ स्पष्ट दिखाई देती हैं। इस अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में पूर्व और पश्चिम का, गोरे और काले का भेद नहीं है। यह, सचमुच, अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन है। साम्यवाद के घेरे में आनेवाले देश आपस में अत्यन्त सामीप्य का अनुभव करते हैं और साम्यवाद ने बेकारी तथा वर्गभेद का उन्मूलन तो कर ही दिया है।
आते–जाते, रास्ते में, लाल ओवरकोट वाली महिला से बातें हुईं। खूब तेज औरत है। भारत के बारे में तरह–तरह के प्रश्न पूछती है। छुआछूत, जातिवाद, ज्योतिषी, फकीर, भाषा और लिपि, यहाँ तक कि नेहरू जी के आवास, सबके बारे में उसने सवाल किये। फिर पूछ बैठी, ‘आपके बच्चे कितने हैं?’ मैंने कहा, ‘भारत की दृष्टि से अधिक नहीं, केवल चार हैं।’ वह ठठाकर हँस पड़ी और हँसते–हँसते ही बोली, ‘अजी, एक बहुत काफी होता।’
27–11–1955 (चार बजे शाम)
जितना कुछ देखा है, उस पर पक्की राय बनाना जोखिम की बात है। किन्तु, ऐसा लगता है कि सेक्स की तेजी बुर्जुआ समाज की विशेषता है। यहाँ सेक्स कुछ संयत दिखाई देता है। यहाँ की नारियों के मुख पर वे कृत्रिम साज–सिंगार और प्रसाधन कम हैं, जिनसे सेक्स में तेजी आती है और वह आक्रामक हो उठता है। यहाँ की नारियों में सहजता के भाव हैं। उनके चेहरों से यह नहीं झलकता कि वे सेक्स को छिपा रही हैं अथवा उसे प्रकट कर रही हैं। लिपस्टिक वगैरह तो थोड़ा–बहुत दिखाई देता है, किन्तु, केशों की सजावट में असावधानता है। नारियों के बाल भी क्रान्तिकारी ढंग से बिखरे हैं, तो कहीं सामने कपाल पर से कतरे हुए भी। क्या जानें, यह नया क्रान्तिकारी फैशन ही हो! एक बूढ़ी महिला जरा चमक–दमक लिये आती हैं, कुछ बनी–ठनी–सी, जेवर पहनती हैं और उनके बोलने का ढंग भी जरा रईसाना है। ऐसा लगता है कि वे बुर्जुआ युग की यादगार हैं और इस महफिल में ठीक से फिट नहीं हो पाती हैं।
सड़कों पर जाड़े से बचने के लिए कान तो औरतों को भी ढँकना पड़ता है और जब नारी ने अपना सिर और कान ढँक लिये, तो उसका आधा सेक्स तो छिप ही जाता है। किसी मुस्लिम लेखक की एक बात याद आ जाती है कि नारी, चाहे तो, पुरुषों के बीच खड़ी रहकर भी सेक्स से विच्छिन्न रह सकती है। यहाँ की पोशाकें सेक्स को उभरने नहीं देतीं, न औरतों को सेक्स का कोई खास खयाल है। नारियाँ पुरुषों की प्रेरणादात्री नहीं, उनकी समकक्षाएँ हैं। यदि यह उपलब्धि साम्यवाद की है, तो यह अच्छी बात है।
इटली की कवयित्री से आज फिर मुलाकात हुई। मुट्ठी भर की हलकी–छोटी मैना है। एक–एक शब्द पूरी शालीनता के साथ बोलती है, मानो कोई पतली आवाज ग्रामोफोन से आ रही हो!
मर्दों और औरतों के बीच छुआछूत का यहाँ कोई भाव नहीं है। थियेटर से निकलते समय जब लोग ओवरकोट लेने जाते हैं, तब वे परस्पर घर्षित होते रहते हैं। मगर इसका कोई बुरा नहीं मानता। सेक्स का पाप–भाग, भय–भाग यहाँ नहीं सताता। सेक्स यहाँ छलपूर्ण नहीं, स्वाभाविक और निर्भीक है।
27–11–1955 (रात के समय)
आज वारसा विश्वविद्यालय के भारतीय विभाग में भारतीय कविता पर भाषण देने जाना था। भोर ही उठकर भाषण तैयार किया। यूनिवर्सिटी जाने पर पहले भाषा–तत्त्व–विभाग में गया। वहाँ तुर्की और अरबी वर्ग के छात्र अजीज अबाजा पाशा और टर्की के कवि ‘कमेल’ के साथ बातें कर रहे थे। वहाँ से हम लोग इंडिया सेक्शन में गए। यह विभाग अभी दो सप्ताह पूर्व खुला है। ‘कास्ट्स ऑव सदर्न इंडिया’ तथा मैक्समूलर–कृत ‘सेक्रेड बुक्स ऑव दी ईस्ट’ की जिल्दें वहाँ विशेष रूप से दिखाई पड़ीं। मैंने अपनी कई किताबों का एक सेट इस शाखा को उपहार में दिया। साथ में ‘रामचरितमानस’ की भी एक प्रति तथा ‘शान्तिदूत’ की एक कॉपी भी दी। इस शाखा की ओर से जिस अध्यापक ने भेंट स्वीकार की, उनका नाम यबोंएंस्की है।
भारतीय विभाग से हम लोग चीनी विभाग में आए। यहाँ के प्रोफेसर एक चीनी सज्जन हैं, जिनका नाम चाङ्–चिङ्–क्वे है। मेरे साथ चीन के कवि श्री पियेन भी आए थे। चीन से क्लासिक ग्रन्थ यहाँ हाल में ही लाये गए हैं। अब तक कोई तीस पोलिश छात्र चीनी भाषा सीख चुके हैं। संस्कृत और पालि भी वारसा यूनिवर्सिटी में पढ़ाई जाती हैय किन्तु उस शाखा के प्राध्यापक प्रोफेसर स्लुस्कोविच आज यहाँ नहीं थे। वे यहाँ से दो सौ मील दूर रहते हैं और केवल वर्ग के दिन, समय पर, आकर फिर वापस चले जाते हैं।
भारतीय शाखा में वापस आकर मैंने अपना निबन्ध पड़ा। अंग्रेजी जाननेवाले कुल दस–बारह व्यक्ति ही वहाँ मौजूद थे। ओलगियर्थ ने भाषण की कॉपी ले ली है। वे इसका पोलिश अनुवाद पत्रों में छपाएँगे। विदेशी भाषाएँ सिखाने का काम भारतवर्ष में भी चलता हैय किन्तु अपना देश इतना विशाल है कि यह प्रयत्न दाल में नमक के बराबर ही है। फिर भी, यह सत्य है कि विश्व की एकता तभी सम्भव होगी, जब हर देश में हर भाषा के जानकार, अधिक–से–अधिक संख्या में, तैयार होंगे।
आज संध्या समय वह अंतरराष्ट्रीय कवि–सम्मेलन होगा, जिसमें भाग लेने को हम आए हैं। तय किया है कि ‘कुरुक्षेत्र’ के षष्ठ सर्ग में से कुछ पंक्तियाँ पढ़ूँगा। ओलगियर्थ कहते थे कि कविता का पोलिश अनुवाद अच्छा उतरा है।
28–11–1955
रात का कवि–सम्मेलन भारत के हाथ रहा, इसमें कोई सन्देह नहीं है। आज सागर ने बड़े तड़के अपनी बीवी को खत लिखा : ‘मुबारक हो लो, पोलैंड फतह हो गया।’ मैंने कहा, ‘सागर साहब! कुछ यह भी खयाल है कि तेनसिंह और हिलेरी जब एवरेस्ट पर चढ़े थे, तब धीमे–धीमे यह मजाक भी चलता था कि ये लोग सच कहते हैं या झूठ, यह कौन बता सकता है? दोनों एक दूसरे के ही तो गवाह हैं।’ सागर बोले, ‘मगर दिनकर साहब! यहाँ तो फोटो मौजूद हैं। और क्या यहाँ के अखबारों में रिव्यू नहीं आएगी?’ सागर का मुस्तैद जवाब सुनकर हँसी आ गई और हम दोनों एक दूसरे को देखकर देर तक हँसते रहे।
आज के एक अखबार में कई कवियों के कार्टून निकले हैं। एक कार्टून ‘हिन्दुस्की कवि दिनकर’ का भी है। और सागर की प्रशंसा करते हुए अखबार ने लिखा है कि भारत में अभी कविता संगीत से सर्वथा भिन्न नहीं हो पाई है। टिप्पणी शायद इस बात पर है कि रात मैंने कविता का पाठ भर किया था और सागर ने अपनी कविता तरन्नुम में पढ़ी थी।
रात कवि–सम्मेलन के इंटरवल में जो कवि बधाई देते हुए मुझसे लिपट गए थे, वे क्यूबा के हैं, स्पेनिश में कविता करते हैं और उनका नाम निकोलस गिलन है। और जो कवयित्री फोटो के समय बगल में आ खड़ी हुईं, वे सिसली की हैं। ये बातें आज बारबारा ने बताईं, जो रात ऑटोग्राफ लेने को आई थी।
रात एक और मजाक रहा। कवि–सम्मेलन के इंटरवल में और उसकी समाप्ति के बाद, बधाई देनेवालों का ताँता लग गया था, किन्तु लाल ओवरकोटवाली रमणी, जो कभी–कभी हमारी दुभाषिया बन जाती है, उस समय मेरे पास नहीं आई। होटल लौटने पर उससे लाउंज में भेंट हुई, तब मैंने कहा, ‘इतने लोग मुझे प्रोत्साहन देते रहे, मगर आप कहाँ रह गईं? व्हाई डिड यू नॉट रन एंड कांग्रेचुलेट मी (आप मुझे बधाई देने को दौड़कर क्यों नहीं आईं?)? वह बोली, ‘मर्दों का काम है कि वे औरतों के पीछे दौड़ें। औरतों का तो मर्दों ने दिमाग ही खराब कर रखा है। वे मर्दों के पीछे क्यों दौड़ने जाएँँ? मगर आप लोगों की कामयाबी बहुत बड़ी रही। बधाई के भूखे हों, तो अब ले लीजिए।’
कल तक लोग हममें जो दिलचस्पी लेते थे, आज उससे ज्यादा ले रहे हैं। आज दो कवियों ने पूछा, ‘रात क्या आपने कविता संस्कृत में पढ़ी थी?’ मैंने कहा, ‘नहीं। वह कविता हिन्दी में थी, जो संस्कृत की उत्तराधिकारिणी और हमारे संपूर्ण राष्ट्र की भाषा है।’
ओलगियर्थ बड़े मजाकिये हैं। आज नाश्ते के समय हमारे साथ स्पेन के कवि और उनकी सहधर्मिणी भी बैठी थीं। महिला अधेड़ उम्र की होंगी, मगर सजी–धजी, ठीक कविरानी ही मालूम होती हैं। वे अंग्रेजी नहीं जानती हैं। तीन–चार बार उन्होंने पंडित नेहरू का नाम लिया। मैंने भाँपा तो जरूर कि वे हमसे कुछ बोलना चाहती हैं, किन्तु स्पेनिश का कोई दुभाषिया वहाँ उपलब्ध नहीं था। निदान, बेचारी ने अपना चाँदी का लॉकेट उतारकर मेरी ओर बढ़ा दिया। मैंने भी भावभंगी में यह बताते हुए कि लॉकेट अच्छा है और आपको खूब जेब देता है, उसे फिर उन्हें वापस कर दिया। इस पर, दोनों पति–पत्नी हँसने लगे। इतने में, ओलगियर्थ बोले, ‘लेकिन, मिस्टर दिनकर, जोड़ी बिलकुल अनरोमांटिक है।’ ओलगियर्थ का लक्ष्य, शायद, कवि की ओर था, जो शरीर से कुछ भारी है।
अंग्रेजी की व्यापकता का भारत में बड़ा शोर हैय किन्तु इस सम्मेलन में तो वह बिलकुल लँगड़ी दीखती है। फ्रेंच जाननेवाले लोग बहार में हैं। यूरोप का प्रत्येक विद्वान, प्राय:, थोड़ी–बहुत फ्रेंच अवश्य जानता है। किन्तु, अंग्रेजी के जानकार इस सम्मेलन में बहुत कम हैं। हमारी नाव तो तब तक अटकी रहती है, जब तक कोई अंग्रेजीदाँ दुभाषिया न आ जाए।
29–11–1955
कल पूर्वाह्न में वारसा यूनिवर्सिटी हॉल में कवि–सम्मेलन हुआ। उपस्थिति बहुत अच्छी थी और उससे भी अच्छा लोगों का उत्साह था।
कल शाम को राष्ट्रपति की ओर से दावत थी। हम राष्ट्रपति से कुछ दूर पर घूम रहे थे कि उन्होंने बुलाकर हमें मुख्य स्थान पर ला खड़ा किया। वहीं रूस के राजदूत भी खड़े थे और रूस के कवि श्चीपाचोव भी। रूसी कवि से तो परिचय हो ही गया था, राष्ट्रपति ने भी हम दोनों का बाजाप्ता परिचय कराया और वे बोले, ‘अब आप दो कवियों के भीतर से दो महान देश परस्पर मिल रहे हैं।’
इस दावत में अभिनेत्री स्करजंका भी निमंत्रित थीं। मैंने एक पोलिश कवि से उनके काव्य–पाठ की प्रशंसा की थी और यह भी कहा कि मेरी कविता का अनुवाद भी उन्होंने अच्छे ढंग से उपस्थित किया है। यह बात अभिनेत्री को मालूम थी, अतएव, उन्होंने चाहा कि मेरे साथ उनका फोटो लिया जाए। इस पर एक ग्रुप फोटो लिया गया।
इस अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन की कई विशेषताएँ देखने में आती हैं। एक तो यह कि कोई किसी से तनिक भी अशिष्ट या उदासीन व्यवहार नहीं करता। न तो कोई कवि रूठता है, न किसी को यह अनुभूति सताती है कि लोग उसकी उपेक्षा कर रहे हैं। न चार कवि एकत्र होकर वहाँ अनुपस्थित कवि की निन्दा ही करते हैं। राजनीति तो यहाँ वार्तालाप से बिलकुल बाहर की चीज है।
होटल में मस्ती और बेपरवाही का वातावरण छाया रहता है। सिगरेट के धुएँ प्राय: छोटी–मोटी बदली का रूप ले लेते हैं। हमसे अधिक मित्रता मिस्र और टर्की के प्रतिनिधियों की बैठती जा रही है। यह, शायद, भौगोलिक सामीप्य के कारण।
होटल से बाहर के नागरिक भी अतिथियों का खूब सम्मान करते हैं। ऐसा लगता है, मानो सारा नगर दायित्व के ज्ञान से दबा हुआ हो! सारा वातावरण विनय और निरहंकारिता का है। ऐसे में सांस्कृतिक आदान–प्रदान के कार्य ठीक से चल सकते हैं। यह ऐसा सम्मेलन है, जिसमें न तो कोई प्रस्ताव है, न कोई अपना मत कहने से घबराता है। यह विभिन्न मतावलंबी साहित्यिकों का मुक्त मिलन है। मुझे तो कहीं भी कोई रोक–टोक के लक्षण दिखाई नहीं देते।
पोल होने का गौरव, प्राय: प्रत्येक पोल के चेहरे से झलकता है। यह योग्य भी है। जातियाँ जब विपत्तियों के बीच से सही–सलामत निकलती हैं, उनके आध्यात्मिक तेज में वृद्धि हो जाती है।
30–11–1955
क्रैकोव और पोज़न
क्रैकोव और पोज़न, वारसा के बाद, पोलैंड के सबसे नामी नगर हैं। क्रैकोव की विशेषता यह है कि वह किसी समय पोलैंड की राजधानी था और वहाँ यूरोप का अति प्राचीन विश्वविद्यालय भी अवस्थित है। पोज़न का महत्त्व उद्योगों का केन्द्र होने के कारण है।
1 दिसम्बर, 1955 ई. को वारसा से क्रैकोव जाना था। क्रैकोव में अदम मित्स्केविच की समाधि भी है और उत्सव इस समाधि पर भी हुआ था। किन्तु हम उस दिन क्रैकोव नहीं पहुँच सके।
पहली दिसम्बर को ही बर्लिन रेडियो का एक आदमी माइक लेकर होटल में आया और मुझसे भारतीय कविता पर अंग्रेजी में एक वार्ता रिकॉर्ड करवाकर ले गया। दिन भर शहर घूमकर हम रात की ट्रेन से क्रैकोव के लिए प्रस्थित हुए। अब देम्बोस्की हमारे साथ नहीं थे, प्रत्युत इस बार दुभाषिये के रूप में हमारे साथ मिस्टर मित्सलो नामक युवक चले जो अन्तरराष्ट्रीय कमीशन के सिलसिले में हिन्द–चीन भी रह आए हैं। वे अंग्रेजी खूब जानते हैं और तबीयत से भी निश्छल, उत्साही और मिलनसार हैं।
ट्रेन में जाते ही मित्सलो हमें होटलवाले डिब्बे में ले गए। डाइनिंग कार में भोजन करने को मजदूर और अफसर, सब आते हैं, मगर उनके बीच कोई भेद नहीं दिखाई देता। वर्गहीनता का यह दृश्य हृदय को बहुत अच्छा लगा और मन के भीतर से यह पुकार निकली कि न जाने, अपने देश में यह दृश्य कब देखने को मिलेगा! अभी तो वहाँ लोकप्रिय मंत्रियों से भी बातें उनकी आँख देखकर ही की जा सकती हैं।
डाइनिंग कार में एक बात यह हुई कि एक पंगु भिखारी लाठी टेकता हमारी मेज पर आ पहुँचा। हम जब तक उससे बात करें–करें कि मित्सलो शरमा गए और उन्होंने पाँच स्लोती का एक नोट देकर उसे विदा कर दिया। मित्सलो से मन मिल गया था, इसलिए मैंने उससे कहा, ‘अरे, इसमें भारतवासियों के सामने लजाने की क्या बात है? हमारे देश में तो भिखारी कदम–कदम पर मिलते हैं। यदि तुम्हारे देश में एक भिखमंगा दिख गया तो क्या बात है?’ इस पर मित्सलो ने कहा, ‘आपके देश की समस्या और है। वहाँ आदमी अधिक और रोजगार अभी कम हैंय किन्तु पोलैंड में तो जितने रोजगार हैं, उतने आदमी ही नहीं मिलते। फिर भी, युद्ध में आहत इस आदमी के लिए हम अभी तक कुछ नहीं कर सके, इसका हमें दु:ख है।’
मगर, हिन्दुस्तान में हम अगर ऐसी बातों से दुखी हों भी, तो इस दु:ख को समझनेवाला कौन है?
खाते–खाते हम एक–दूसरे को अपने–अपने देश के मजाक सुनाने लगे। यह सिलसिला ऐसा जमा कि हम डाइनिंग कार में बैठे–बैठे ही क्रैकोव पहुँच गए। स्टेशन पर जब हम उतरे, मित्सलो ने हमारा परिचय क्रैकोव लेखक संघ के सभापति, नगर–निगम के अध्यक्ष तथा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर दोब्रोबालस्की से कराया, जो हमारे स्वागत के निमित्त आए थे।
दूसरे दिन हम लोग मित्स्केविच की समाधि पर पुष्प चढ़ाने गए। कवि का शरीर–पात तो देश से बाहर हुआ था, बाद को उनका फूल क्रैकोव के बैवल किले में गाड़ा गया, जहाँ पोलैंड के प्राचीन राजाओं की समाधि है। फिर, हम वह म्यूजियम देखने गए, जो क्रैकोव के राजमहल में अवस्थित है। बैवल के किले में ही, मित्स्केविच के पार्श्व में पोलैंड के दूसरे कवि, स्लोवास्की की भी समाधि है।
राजमहल में घूमते समय जर्मन अत्याचार की कहानी छिड़ गई। प्रोफेसर दोब्रोबालस्की म्यूजियम भी दिखाते जाते थे और यह भी कहते जाते थे कि पोलैंड पर अधिकार कर लेने के बाद जर्मनों ने इस राजमहल को अपना अड्डा बना लिया थाय यहाँ वे शराब पीते थे, यहाँ वे नाचते थे, यहाँ उन्होंने सिनेमाघर बनवाया था और यहाँ वे कूदा–उछला करते थे। म्यूजियम में चित्रों का जो संग्रह है, वह काफी सुन्दर है। क्रैकोव का विश्वविद्यालय सन् 1364 ई. में स्थापित हुआ था और उसे स्थापित करनेवाले पोलिश राजा का नाम काजिमिर महान् था। पेरिस की यूनिवर्सिटी इससे भी पुरानी है। प्रोफेसर ने मुझे यह भी बतलाया कि विश्व की प्राचीनतम यूनिवर्सिटी दसवीं सदी में ट्यूनिशिया में बनी थी। मैंने उनकी सूचना के निमित्त निवेदन किया कि भारत का प्राचीनतम विश्वविद्यालय तक्षशिला में था। विक्रमशिला और नालन्दा के विश्वविद्यालय तो ग्यारहवीं–बारहवीं सदी में आकर नाश को प्राप्त हुए।
क्रैकोव के गिरजाघर पर एक घंटाघर है, जिस पर प्रत्येक घंटा बीतने पर उतनी ही बार तुरही बजाई जाती है। कहते हैं, यह सिलसिला 14वीं सदी से चला आ रहा है और तुरही रुक–रुककर बजाई जाती है, जिसके साथ पोलैंड पर तातार–आक्रमण की कोई स्मृति सम्बद्ध है। कहते हैं, 14वीं सदी में जब तातार लोग क्रैकोव नगर पर चढ़ आए, तब एक चैकीदार घंटाघर पर खड़ा होकर नगरवालों को सचेत कर रहा था कि दुश्मन कितनी दूर पर है। इतने में, एक तीर उसके गले में आ लगा। वह मरते दम तक रुक–रुककर आगाही की आवाज देता ही गया। उसी चैकीदार की याद में हर घंटे तुरही रुक–रुककर बजाई जाती है।
क्रैकोव की यात्रा इसलिए भी याद रहेगी कि वहाँ मेरे एक दाँत में दर्द हो गया। सागर के दाँत में भी, संयोग से, उसी दिन दर्द उठा था। अतएव हम दोनों व्यक्ति अस्पताल ले जाये गए। वहाँ मर्द डॉक्टर कोई था ही नहीं और दाँत उखाड़ने के जो औजार थे, उनमें पूरा जंग लगा हुआ था। मेरा शरीर मधुमेह से पीड़ित है। अतएव मैंने डॉक्टरनी से कहा, ‘आप मेरे दाँत को मत उखाड़ें, केवल दर्द कम करने की कोई दवा दे दें। दाँत उखड़वाना होगा, तो यह काम मैं लन्दन में करूँगा।’ मगर मेरी कौन सुनता? एक डॉक्टरनी ने दाँत को चटाक से तोड़ ही तो दिया। मैं उस पर काफी नाराज हुआ। मैंने कहा कि अगर दाँत का कोई टुकड़ा भीतर रह गया हो, तो मैं अब मर जाऊँगा और यही बात मैंने सागर से भी कही। डायबिटिक शरीर में नासूर हो जाए अथवा मसूड़े के भीतर दाँत का कोई टुकड़ा अटक जाए, तो रोगी की मृत्यु हो सकती है, यह संस्कार मेरे मन में बैठा हुआ था और अब भी है। अतएव, मैंने सागर से कहा कि ‘आए तो हम दो व्यक्ति थेय किन्तु लौटना अब आपको अकेले पड़ेगा। क्योंकि इस पिछड़े हुए देश में कौन मेरी वैसी देख–भाल करेगा, जैसी देख–भाल पटने के डॉक्टर किया करते हैं?’ विचित्र बात यह हुई कि डॉक्टरनियाँ जिद करने लगीं कि दाँत टूटकर भीतर नहीं छूटा है। मैंने कहा कि एक्स–रे करके देख लो। और एक्स–रे के बाद डॉक्टरनियों की गरदनें झुक गईं। दाँत का एक खासा टुकड़ा, सचमुच ही, भीतर रह गया था। मगर अब गुस्सा करने से क्या लाभ था? मैं ऑपरेशन की कुर्सी पर बैठ गया और एक डॉक्टरनी किसी तरह की रुखानी से खोद–खोदकर दाँत निकालने लगी। दाँत जब साफ हो गया, तब मैं पेनिसिलिन लेकर वहाँ से चलता बना। मगर बड़ी डॉक्टरनी को धन्यवाद कि वह रात में मुझे होटल में देखने आई और कुछ सेंक–साँक करके मुझे सुलाकर चली गई। प्रभु की कृपा से घाव दो–तीन दिन में ही अच्छा हो गया। किन्तु डॉक्टरी की दृष्टि से तुलना करता हूँ, तो मुझे अब भी यही दीखता है कि क्रैकोव अठारहवीं सदी में है, जबकि हमारा शहर पटना इक्कीसवीं सदी में पहुँच रहा है।
तीसरी दिसम्बर को लोग हमें क्रैकोव से ओसवेचिम ले जाना चाहते थे। यह स्थान क्रैकोव से कोई 50 मील उत्तर में है। वहाँ जर्मन अत्याचार का एक म्यूजियम कायम किया गया है। कहते हैं, लड़ाई के दिनों में जर्मनों ने कोई सत्तर लाख पोलों को जान से मार डाला। हत्या का यह काम ओसवेचिम में चलता था और कुछ अन्य जगहों पर भी। पोलिश मित्रों का कहना है कि जर्मन हत्यारे एक–एक पढ़े–लिखे, गुणवान पोल को मार डालना चाहते थे। कवि, पत्रकार, प्रोफेसर, शासक, जनसेवी, राजनीतिज्ञ और कलाकार–इनमें से वे किसी को भी जीवित छोड़ना नहीं चाहते थे। जीवित वे केवल उन्हें रखना चाहते थे, जो जर्मनों की बेगारी और मजदूरी कर सकें। मित्सलो ने हत्या की जो कहानियाँ सुनाईं, उन्हें याद करके आज भी उबकाई आती है। ढंग यह था कि सौ–दो सौ मर्द एक साथ पकड़वाकर मँगवा लिये जाते, उनका सिर मुँड़वा लिया जाता कि केशों से जर्मन कारखानों में बु्रश बनवाये जा सकें और फिर सबको गोलियों से मौत के घाट उतार दिया जाता था। हत्या उन्होंने नारियों की भी की। मेरे चकित होने पर मित्सलो ने कहा, ‘प्रोफेसर! नाजी हत्यारों में उतनी भी करुणा नहीं थी, जितनी व्यभिचारियों में होती है।’ ओसवेचिम में एक वधालय भी था, जिसमें लोग बिजली में जीवित ही भून दिये जाते थे, क्योंकि लाखों लोगों को मारने में गोलियाँ व्यर्थ बर्बाद होतीं।
ये कहानियाँ सुनकर हमारा हृदय दहल गया, इसलिए ओसवेचिम जाने से हमने इनकार कर दिया। म्यूजियम तो सिर्फ ओसवेचिम में ही है, किन्तु जर्मनों के मृत्यु–शिविर दहाक, त्रेवलिंका और मैदानक नामक स्थानों पर भी चलते थे। पोलिश जाति समूल विनष्ट होने से बच गई, इसे परमात्मा का ही अनुग्रह समझना चाहिए।
चैथी दिसम्बर को नौ बजे भोर में हम पोज़न पहुँचे और लोगों ने हमें होटल ओरबिस में ठहराया। यहाँ सबसे पहले हम टाउन हॉल देखने गए। यह हॉल पहले–पहल 14वीं सदी में बना था, किन्तु वह जल गया। तब दूसरी बार 1550 ई. में और तीसरी बार 1760 ई. में उसका निर्माण हुआ। फिर हिटलर के राक्षसों ने उसे बर्बाद कर दिया। अब जो भवन खड़ा है, वह सन् 1950 ई. में तैयार हुआ है। भीतर तो नवीनता काफी चमकती है, किन्तु, बाहरी रूपरेखा पुरानी ही रखी गई है। यह पोलों के परम्परा–प्रेम का प्रमाण है।
पोज़न का राष्ट्रीय म्यूजियम देखा। इसमें मित्स्केविच की विभिन्न मूर्तियाँ और भाँति–भाँति के चित्र हैं। चित्रों में कहीं तो वह दृश्य है, जिसमें कवि रोम से पोज़न आ रहे हैं। कहीं उन गाँवों के चित्र हैं, जहाँ उन्होंने पड़ाव डाले थे। कहीं उन दोस्तों के चित्र हैं, जिन्होंने उनकी सहायता की थी।
संगीत का एक म्यूजियम हमें अलग भी दिखाया गया। इसमें देश–देश के बाजे संगृहीत हैं। अपने देश के बाजे भी यहाँ दिखाई दिये। किन्तु देखने की असल चीज़ें यहाँ शापेन के विषय में हैं। शापेन पोलैंड के संगीतज्ञ और कंपोजर थे। वे 19वीं सदी में हुए हैं। सारे देश को अपने गीतों से प्रमत्त करके वे जवानी में ही स्वर्ग सिधार गएय किन्तु उनकी स्मृति यहाँ भली भाँति सुरक्षित है। म्यूजियम में वह पियानो है, जिस पर वे गीत कंपोज करते थे। लकड़ी का उनका एक प्रोफाइल भी है, जिसमें उनका भावावेश स्पष्ट झलकता है। उनकी एक प्रतिमा भी है, जिसे हिटलरी भूतों ने नीचे से तोड़ डाला है। किन्तु सबसे अपूर्व तो उनके करतल और उँगली की पोर्सलिन–प्रतिच्छवि है, जो बहुत ही कोमल और खूबसूरत मालूम होती है। कलाकार की जो उँगलियाँ पियानो पर खेलती थीं, उनकी प्रतिच्छवि बनवाने की सूझ के लिए रचयिता कलाकार को मैंने मन–ही–मन धन्यवाद अर्पित किया।
क्रैकोव और पोज़न में जी खूब लगता था। ये नगर तो कुछ वैसे बड़े नहीं हैं। किन्तु वहाँ साहित्यिकता और हार्दिकता यथेष्ठ है। साम्यवादी सभ्यता की नीरस झाँकी वारसा में अधिक, इन दो नगरों में बहुत कम है। यहाँ की नारियों में भी श्रृंगार और प्रसाधन की परम्पराएँ अभी बदस्तूर चल रही हैं और धार्मिकता के लक्षण भी जनता में अभी शेष हैं। दोनों नगरों में लेखकों से हमारी बातें मुक्त भाव से हुईं। मैं तो सर्वत्र गांधीवाद, रहस्यवाद और आध्यात्मिक विषयों पर ही बोलता था, किन्तु कहीं भी श्रोताओं की ओर से अवरोध की कोशिश नहीं हुई। पोलों के बारे में मेरा यह भाव बना कि वे निश्छल, मिलनसार और खुले दिल के आदमी होते हैं। वे कम्यूनिज्म को बदल देंगे, कम्यूनिज्म उन्हें नहीं बदलेगा।
क्रैकोव में एक कैथोलिक कवयित्री से भेंट हुई। उनकी उम्र 63 साल की है और वे ऑक्सफोर्ड में पढ़ी हुई हैं। उन्होंने कहा कि ‘मैं धार्मिक कविताएँ लिखती हूँ और कैथोलिक प्रेस उनका प्रचार करता है।’ कम्यूनिस्टों ने उनके काम में बाधा नहीं डाली है। बाधा का अनुभव उन्हें अपने धर्म–बन्धुओं से ही हुआ है।
मैंने पूछा, ‘इसके क्या मानी हैं?’ वे बोलीं, ‘यही कि मेरे सबसे बड़े आलोचक कैथोलिक विद्वान ही रहे हैं।’ और वे पूछ बैठीं, ‘क्या तुमने आलोचकों के हाथों मार नहीं खाई है?’
मुझे अपनी बातें याद करके हँसी आ गई। बोला, ‘मैडम! मैं तो वह अभागा हूँ, जिसे बाप भी पीटता है और बेटा भी।’ इस पर कवयित्री ठठाकर हँसने लगीं। फिर बोलीं, ‘हाँ, साहित्य में पीढ़ियाँ एक–दूसरे का रौब कम मानती हैं।’
उन्हीं से यह बात भी मालूम हुई कि पोलैंड में धार्मिक कविताएँ तो कैथोलिक प्रेस छापते हैं, किन्तु बाकी हर रचना सेंसर के अधीन है। सेंसर जिसे पास नहीं करता, वह रचना प्रकाश में नहीं आती है और नामंजूर रचनाओं की नामंजूरी का कारण बताने का भी रिवाज नहीं है।
यह शुद्ध रेजिमेंटेशन का सबूत था, अतएव, मैंने कहा, ‘इस प्रकार बंधन में रहने से तो आपका साहित्य निष्प्राण हो जाएगा?’ किन्तु, इस सुस्पष्ट सत्य को भी कवयित्री ने स्वीकार नहीं किया। वे बोलीं, ‘साहित्य तो वही उत्तम होता है, जिसे जनसाधारण समझे और उससे आनन्द उठा सके। कला को भी जनजीवन से सम्बद्ध होना चाहिए। पोलैंड में हम इसी उद्देश्य को सिद्ध करना चाहते हैं। यह अच्छा हुआ कि सरकार का ध्यान इस बात की ओर गया है। आपके यहाँ टैगोर हुए हैंय किन्तु उनकी कविताएँ केवल पंडितों के लिए हैं। जनसाधारण के पल्ले वे क्या पड़ती होंगी? युद्ध के पहले पोलैंड में भी ऊँचा साहित्य लिखा जाता था। मगर उन दिनों लेखकों की बातें लेखक ही समझते थे। जनता उन्हें ग्रहण नहीं कर पाती थी। मगर, आज जो नाटक लिखे जा रहे हैं, वे जनता की भी समझ में आते हैं।’
कवयित्री की बातें सुनकर मैं क्षण–भर को विचारों में डूब गया। दुनिया में महल भी हैं और झोंपड़ियाँ भी। उचित तो यह होगा कि सभी झोंपड़ियाँ महल बन जाएँँ। मगर वह कार्यक्रम श्रम और समय से सिद्ध होगा। इसलिए अधीर लोग महलों को तोड़कर वहाँ झोंपड़ियाँ बनाने का नारा लगा रहे हैं। तो क्या साहित्य में भी महल तोड़कर अब केवल झोंपड़ियाँ खड़ी की जाएँँगी? कवयित्री की बातें कुछ ठीक से समझ में नहीं आईं। मैंने केवल यह कहा, ‘रवीन्द्र के बहुत–से गीत हम भी गाते हैं और वे ही गीत आप बंगाल के मछुओं से भी सुन सकती हैं।’
कवयित्री ने यह भी बताया कि जर्मन कवि गेटे–कृत ‘फौस्ट’ के, पोलिश में, पाँच अनुवाद निकले हैं। एक अनुवाद उनका भी किया हुआ है। अनुवादों की कठिनाई का वर्णन करते हुए वे बोलीं, ‘यह गुनाह बेलज्जत–जैसा काम है। घोर परिश्रम के बिना आप किसी भी कलाकृति का अनुवाद नहीं कर सकते और अनुवाद कर लेने पर आप पाते हैं कि वह बिलकुल निर्जीव है।’
पोज़न की एक साहित्य–गोष्ठी में साहित्यिकों ने चाहा कि मैं भारतीय छन्दों के बारे में कुछ कहूँ और छन्दों के कुछ उदाहरण भी सुनाता चलूँ। मैंने हिन्दी और उर्दू के कितने ही छन्द उन्हें सुनाए। विशेषत:, ये ‘आयएम्बिक पेंटामीटर’ और ‘बरवै’ छन्द की तुलना उन्हें खूब पसन्द आई।
‘रेजिमेंटेशन’ के पक्ष में चाहे जितनी भी दलीलें दी जाएँ, किन्तु पोलैंड के साहित्यकारों से मेरी जो बातें हुईं, उनमें मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि साहित्य में रेजिमेंटेशन का प्रयोग यहाँ असफल हो चुका है और अब लेखक और कवि साहित्य के स्वाभाविक लक्ष्य की ओर मुड़ रहे हैं।
कविता इधर के देशों में, प्राय:, मर चुकी है। कवियों से मैंने बार–बार मिस्टिसिज्म के बारे में बातें कीं। सोचता था, रहस्यवाद का नाम सुनकर वे हँस देंगे। किन्तु, मेरी बात वे समझते ही नहीं थे। जब मैं समझाकर कहता, तब वे केवल यह कह उठते कि हमारे यहाँ ऐसी कविताएँ धार्मिक कोटि में रखी जाएँगी।
अन्तरराष्ट्रीय कवि–सम्मेलन
भारत में अब तक मैंने कोई पाँच सौ कवि–सम्मेलनों में भाग लिया है। इनमें से दस–पाँच सम्मेलन ही ऐसे रहे होंगे, जिनमें उर्दू, बंगला या किसी अन्य भारतीय भाषा के कवि साथ रहे हों। अन्यथा ये सभी सम्मेलन हिन्दी–कवियों के थे तथा उनके श्रोता भी हिन्दी जानने और समझनेवाले लोग थे। किन्तु वारसा का अन्तरराष्ट्रीय कवि–सम्मेलन इन सभी सम्मेलनों से भिन्न था। यह एक ऐसा सम्मेलन था, जिसमें तीस देशों के कोई पैंतालीस कवि उपस्थित थे और अधिकतर उनकी भाषाएँ भी परस्पर भिन्न थीं। हाँ, सुननेवाली जनता, विशेषत:, पोलैंड की थी, जो पोलिश बोलती है और रूसी जैसे–तैसे समझ लेती है।
यह अन्तरराष्ट्रीय कवि–सम्मेलन पोलैंड के राष्ट्रीय कवि अदम मित्स्केविच की सौवीं निधन–तिथि मनाने को आयोजित किया गया था। अदम मित्स्केविच सन् 1798 ई. में जनमे थे और सन् 1855 ई. में उनका देहान्त हुआ। लिखना उन्होंने सन् 1820 ई. में आरम्भ किया और, प्राय:, चैदह वर्ष तक काव्य लिखकर सन् 1834 ई. से कविता लिखना उन्होंने छोड़ दिया। उनकी सबसे बड़ी कृति ‘पन ते दोश’ है, जिसे मित्स्केविच ने सन् 1834 ई. में पूर्ण किया। पोलैंड का इतिहास भारत के राजपूतों के इतिहास से मेल खाता है। पोलिश जाति का इतिहास वीरता और बलिदान का इतिहास है, किन्तु उसके समस्त बलिदान, अन्त में, विपत्तियों में विलीन होते रहे। अदम मित्स्केविच ने अपनी जाति की पीड़ाओं को अभिव्यक्ति दी तथा उसकी वीरता को उभारा। ‘पन ते दोश’ में पोलिश जाति की वेदना और वीरता, दोनों का कलात्मक चित्रण हुआ है और, इसीलिए, यह काव्य पोलैंड का अप्रतिम राष्ट्रीय काव्य समझा जाता है। मित्स्केविच रूसी कवि पुश्किन और जर्मन कवि गेटे के मित्र थे एवं बायरन तथा शीलर का उन पर काफी प्रभाव था। विचित्र बात यह है कि पोलैंड का यह राष्ट्रीय कवि कभी भी अपने देश में न रह सका। उसकी सारी उम्र निर्वासन में बीती, बल्कि, अपना अधिकांश समय उसने फ्रांस में व्यतीत किया।
‘पन ते दोश’ लिखने के बाद, मित्स्केविच ने काव्य–रचना छोड़ दी, इससे यह नहीं समझना चाहिए कि उस समय तक उनकी काव्य–प्रतिभा का स्रोत सूख गया था। असल में, जिस उमंग से उच्छल होकर वे काव्य लिख रहे थे, उसी उमंग को आकार देने के लिए उन्होंने कविता से अवकाश ग्रहण किया। उनके सामने पोलैंड को स्वाधीन करने का प्रश्न सबसे प्रमुख था। वे पोलैंड के केवल कवि ही नहीं थे, वरन् उसके नेतृत्व का भार भी उन पर आ पड़ा था। इसी कर्तव्य को पूरा करने के लिए वे पत्रकार बन गए और जब पत्रकारिता भी अयथेष्ठ दीखने लगी, तब राजनीतिक नेता बनकर उन्होंने पोलैंड के लिए क्रान्ति की सेना तैयार करने में अपने को लगा दिया। अर्थाभाव के कारण उन्होंने प्रोफेसरी भी स्वीकार की थी और कॉलेज में भी पोलिश छात्रों के भीतर क्रान्ति की भावना भरने के लिए वे बदनाम थे। कविता लिखना बन्द कर देने के बाद वे कहा करते थे, ‘सपनों के गीत कब तक गाता रहूँ? अब तो वह समय आ गया है, जब कवियों के हाथों उन सपनों को आकार दिया जाना चाहिए, जिनके वे अब तक गीत ही गाते रहे हैं।’
मित्स्केविच रोमांटिक कवि थे। रहस्यवाद की कविता, कदाचित् उन्होंने नहीं लिखी। किन्तु, अपने अन्तिम दिनों में वे रहस्यवादी भी हो गए थे और अदृश्य के स्वप्न में प्रविष्ट होने को वे बहुत बेचैन थे।
मित्स्केविच के काव्य से मेरा परिचय नहीं था। इधर जो थोड़ा–बहुत परिचय हो पाया है, उससे मुझ पर यह प्रभाव पड़ा है कि वे सचमुच महाकवि थे एवं उनका स्थान गेटे, पुश्किन और बायरन से नीचे नहीं माना जा सकता। उनकी कविताओं के अनुवाद यूरोप की सभी भाषाओं में उपलब्ध हैं। अंग्रेजी में उनकी कविताओं का अनुवाद कैलिफोर्निया के प्रोफेसर न्वायस ने किया है। एक और अनुवाद सुश्री मौदे बिग्स का है, जो सन् 1885 ई. में प्रकाशित हुआ था। यह अनुवाद न्वायस के अनुवाद से अधिक अच्छा लगता है। मित्स्केविच की कृतियाँ अरबी और तुर्की में भी आज से कोई पचास वर्ष पूर्व ही आ चुकी हैं।
पोलैंड तबाह और बर्बाद देश है। पिछली लड़ाई के समय हिटलर ने सत्तर लाख पोलिश मानवों का वध करवाया, जिनमें कलाकारों, मनीषियों और बुद्धिजीवियों की संख्या काफी बड़ी थी। अब तो वारसा फिर से बनकर तैयार हो गया है, फिर भी वहाँ जाने पर ध्वंस की इतनी कहानियाँ सुनाई पड़ती हैं कि आदमी की यह जिज्ञासा आप–से–आप समाधान पा जाती है कि रूस और पोलैंड शान्ति के लिए ऐसी घनघोर पुकार क्यों मचा रहे हैं। शान्ति की पुकार तानाशाही देशों की चाल नहीं है। वह निश्छल पुकार है। ‘शान्ति–शान्ति’ चिल्लाकर वहाँ की जनता शान्ति ही चाह रही है, युद्ध नहीं।
लन्दन, पेरिस, बु्रसेल्स और जिनेवा को देखकर यूरोप के विषय में जो अनुमान हुआ, उससे तो यही कहा जा सकता है कि पोलैंड यूरोप का गाँव है। किन्तु इस वर्णन से पोलैंड का अनादार नहीं होता। उदाहरणार्थ, पोलैंड में जो ग्रामीण हार्दिकता है, प्रेम–परिचय में वहाँ जो घनत्व है, वह लन्दन और पेरिस में नहीं दिखाई पड़ा। मशीनों का उपयोग पोलैंड में भी हो रहा है, किन्तु आदमी वहाँ मशीन से अभी बहुत कुछ ऊपर है। कदाचित् यही कारण है कि लौह–प्राचीरों का देश होते हुए भी पोलैंड उन प्राचीरों से बहुत कुछ स्वतन्त्र है, प्रत्युत, जो कुछ मैंने वहाँ देखा, उससे मुझे तो यह कहने का कोई आधार नहीं मिलता कि पोलैंड के चारों ओर कोई लक्ष्मण–रेखा भी विद्यमान है। लोग कला का आनन्द लेने में पटु हैं। कलाकारों का सम्मान वे उसी प्रकार करते हैं, जैसे भारतवासी देवताओं और मंत्रियों का।
मित्स्केविच का शताब्दी–समारोह मनाने के लिए निमंत्रण पोलिश एकेडेमी ऑव् साइंस की ओर से भेजे गए थे और क्या वैज्ञानिक, क्या कवि और क्या प्राध्यापक, अतिथियों के स्वागत में सारे के सारे पोलिश लोग हाथ बाँधे खड़े थे। अल्बानिया, चीन, फ्रांस, इंग्लैंड, दोनों जर्मनी, इटली, स्पेन, स्विट्जरलैंड, रूस, टर्की, अमरीका, मिस्र, फिनलैंड, क्यूबा, बुलगेरिया, युगोस्लाविया, डेनमार्क, इजराइल आदि तीस देशों से कोई एक सौ वैदेशिक अतिथि वारसा पधारे हुए थे, जिनमें से आधे तो कवि थे, बाकी आधे लोग प्राध्यापक, विद्वान अथवा आलोचक रहे होंगे। भारत की ओर से मैं गया था और मेरे साथ उर्दू के प्रसिद्ध कवि सागर निजामी साहब थे। एक विचित्र बात यह देखी कि कवियों और विद्वानों के इस अन्तरराष्ट्रीय मेले में अंग्रेजी की नाव चल नहीं पाती थी। जिन्हें फ्रेंच भाषा का ज्ञान था, वे बड़ी आसानी से लोगों से मिल लेते थे, किन्तु एकमात्र अंग्रेजी माध्यम का भरोसा रखने के कारण मुझे परिचय बढ़ाने में काफी दिक्कत हुई। फिर भी अंग्रेजी के जरिये अथवा दुभाषिया मिल जाने के कारण मैं जिन लोगों के सम्पर्क में आ सका, उनमें से कुछ लोग काफी अच्छे व्यक्ति और ऊँचे साहित्यकार थे। इनमें से श्री पियरे लुई फ्लुके की सज्जनता से मैं काफी प्रभावित हुआ। फ्लुके साहब बेल्जियम के हैं और बु्रसेल्स में रहते हैं। कविता के सम्बन्ध में फ्रेंच भाषा में वे दो पत्रिकाएँ निकालते हैं–एक वार्षिक और दूसरी मासिक, जिनका यूरोप में बड़ा नाम है। वार्षिक में सरोजिनी नायडू की कहारोंवाली कविता का फ्रेंच अनुवाद छपा था, जिसे उन्होंने मुझे बड़े उत्साह से दिखाया। रूस से सम्मेलन में तीन कवि आए हुए थे, जिनमें से मेरा परिचय श्री स्टीफेन श्चीपाचोव से अच्छा रहा। श्री श्चीपाचोव की उम्र 60 के करीब होगी। बड़ी ही प्रसन्न मुद्रा के व्यक्ति हैं। सारे समारोह में पोलिश लोग उनका सम्मान सर्वाधिक करते थे। वे एक तरह से इस समारोह में मीर–मजलिस बने हुए थे। लोगों से पता चला कि रूसी भाषा के लिरिक कवियों में श्री श्चीपाचोव का स्थान सर्वोच्च है। क्यूबा के स्पेनिश कवि श्री निकोलस गिलन भी खूब मिलनसार हैं। कविता के लिए उन्हें स्टालिन पुरस्कार भी मिला है। अन्तरराष्ट्रीय कवि–सम्मेलन में कविता पढ़कर जब मध्यान्तर में मैं बाहर निकला, तब दौड़कर वे मुझसे लिपट गए। वे मेरे कमरे में भी जब–तब आकर भारतीय कविता के विषय में बातें करते थे। रूमानिया की एक कवयित्री थीं, जो मुझसे काफी हिलमिल गई थीं। नाम तो उनका याद नहीं है, किन्तु वे छोटी–सी गुड़िया–सी लगती थीं और जब भी बोलतीं, मालूम होता, कोई वीणा बज रही है। इसी प्रकार बुलगेरिया की कवयित्री ब्लागा दिमित्रोवा भी बड़ी मिलनसार हैं। छात्र–जीवन समाप्त करके अभी तुरन्त बाहर आई हैं, किन्तु कविता के क्षेत्र में उन्होंने अभी ही ख्याति प्राप्त कर ली है।
28 नवम्बर के संध्या समय अन्तरराष्ट्रीय कवि–सम्मेलन वारसा के एक संगीत–भवन में आरम्भ हुआ। हॉल के भीतर हम लोग ग्रीन रूम की ओर से मंच पर लाये गए। एक क्षण के अन्दर मंच पर सभी कवि अपनी–अपनी जगह लेकर बैठ गए। मंच और श्रोता–समुदाय तथा दीर्घा पर जब मैंने दृष्टि डाली, मेरा हृदय आनन्द से भर गया। ऐसे सुसज्जित हॉल में मैंने पहले कभी कविता नहीं पढ़ी थी, न यही अनुमान था कि कवि–सम्मेलन में भी ऐसी शान्ति और भव्यता तथा गम्भीर सौन्दर्य का ऐसा वातावरण हो सकता है। मंच पर आगे की ओर छह कुर्सियों का अर्ध–मंडल था, जिन पर बैठनेवाले व्यक्ति, कदाचित्, यूरोप के प्रसिद्ध साहित्यकार रहे होंगे। ऐसा अनुमान मैंने इसलिए लगाया कि रूसी कवि श्चीपाचोव इसी पंक्ति में बैठे या बिठाये गए थे। मैं और सागर साहब दूसरी पंक्ति में बैठे। मंच के बाईं ओर पोलैंड के लेखक–संघ के सभापति और पोलिश भाषा के ख्यातनाम कवि इवास्केविच अपने कार्यकर्ताओं को लेकर अलग बैठे थे। उन्हीं की मेज पर से कवियों के नाम पुकारे जाते थे। सम्मेलन में कई कवियों ने मित्स्केविच की कविताओं के अनुवाद अपनी भाषाओं में सुनाए। इनकी कविताओं के अनुवाद सुनाए नहीं गए। बाकी जो भी कविताएँ पोलिश या रूसी में नहीं थीं, उनके पोलिश अनुवाद भी सुनवाए जाते थे। इवास्केविच की मेज के पीछे ही एक और मेज थी जहाँ एक अभिनेत्री तथा दो युवक बैठे थे। अनुवाद सुनाने का काम इन्हीं लोगों का था।
हममें से सागर साहब ने मित्स्केविच पर एक नई कविता लिख रखी थी, जिसका अंग्रेजी अनुवाद भी वे भारत से साथ ले गए थे। मैं कोई नई कविता न लिख सका थाय किन्तु ‘कुरुक्षेत्र’ के षष्ठ सर्ग का अंग्रेजी अनुवाद मेरे साथ था। यों भी, मैं कोई ऐसी कविता सुनाना चाहता था, जिसमें उस प्रयोग की झाँकी हो, जिसमें भारत लगा हुआ हैय जिसमें उस भाव की कोई झलक हो, जो अति–वैज्ञानिकता के विरुद्ध जग रहा हैय जिसमें आत्मा के उस आकाश की ओर कोई संकेत हो, जिस पर बादल छाए जा रहे हैं। स्पष्ट ही, मेरी सारी आवश्यकताएँ ‘कुरुक्षेत्र’ के षष्ठ सर्ग से पूरी होती थीं। अतएव, मैंने उसी के एक अंश का पोलिश अनुवाद करवाने को प्रोफेसर ओलगियर्थ को दे दिया। कवि–सम्मेलन के दिन मुझसे ओलगियर्थ कह गए थे कि आपकी कविता का पोलिश अनुवाद बड़ा ही स्वाभाविक उतरा है।
मैं आरम्भ में इस चिन्ता से कुछ–कुछ दबा हुआ था कि न जाने, हिन्दी कविता सुनते समय श्रोताओं की क्या प्रतिक्रिया हो। किन्तु धीरे–धीरे जब मैंने यह देखा कि सभी भाषाओं की कविताएँ जनता पूरे धीरज, बल्कि उत्साह के साथ सुन रही है, तब मेरी चिन्ता जाती रही। सूची पर कवियों के नाम अक्षरानुक्रम से रखे गए थे। मेरा नम्बर बारहवाँ था। कविता पढ़ने के लिए कोई खास मेज नहीं रखी गई थी। जब मेरा नाम पुकारा गया, मैं पंक्ति के आगे बढ़कर खड़ा हो गया। तालियाँ उसी प्रकार बजीं, जैसे सब के खड़े होने पर बजती थीं। और कविता पढ़ने के समय फिर शान्ति भी वैसी ही घनी हो गई, जैसे सबके पढ़ते समय होती थी। किन्तु कविता पढ़कर मैं ज्योंही अपने स्थान पर लौटा, तालियों की गड़गड़ाहट से भवन का रंध्र–रंध्र गूँज उठा। यह भी कोई असाधारण बात नहीं थी। असाधारणता तब दिखाई पड़ी, जब यह भान हुआ कि तालियाँ रुकनेवाली नहीं हैं। मैं अभिभूत हो उठा। कई कवियों ने आकर मुझसे हाथ मिलाया और कहा कि ऐसे समय आपको जनता के सामने खड़े हो जाना चाहिए। मैं खड़ा हो गया। किन्तु तब तो जन–समुद्र में तरंगें और भी जोर से उठने लगीं। मैं चकित रह गया कि यह क्या चीज है। अर्थ समझे बिना इतना प्रोत्साहन! किन्तु भीतर से कोई बोल उठा–यह तुम्हारे लिए नहीं है। यह उनकी अभ्यर्थना है, जो तुम्हारे पीछे खड़े हैं। यह गांधी की अभ्यर्थना है, यह रवीन्द्र की अभ्यर्थना है, यह जवाहरलाल का अभिनन्दन है, यह उस महाध्येय की प्रशंसा है, जिसे लेकर स्वतन्त्र भारतवर्ष संसार के सामने खड़ा हुआ है। तुरन्त अपने ही मन के भीतर से किसी मसखरे ने आवाज दी–और यह उस अचकन, चुस्त पाजामा और गांधी टोपी का भी चमत्कार है, जिसके कारण तुम सबसे अलग पहचाने गए हो। तब बुद्धि बोली–इसके सिवा, एक और बात है कि अब यूरोप की कविताएँ पढ़कर सुनाने के लिए नहीं, मन–ही–मन बाँचकर समझने के लिए लिखी जाती हैं। यह बाजी भारतीय कविता का वह गुण मार रहा है, जिसका विकास मंच पर हुआ है। मुझे समाधान मिल गया। फिर भी, गुण–ग्राहक जनसमुदाय के सम्मुख मैं सम्मान में विनत रहा।
मेरे पढ़ने के बाद मेरी कविता का पोलिश अनुवाद पोलैंड की सुप्रसिद्ध अभिनेत्री स्करजंका ने सुनाया। स्करजंका की आवाज में वह पौरुष है, जिसे गरजता हुआ दर्द कह सकते हैं। एक सभा में उसने मित्स्केविच की एक लंबी कविता का पाठ कोई घंटे भर तक किया था और सारी सभा उसके काव्य–पाठ पर दंग रह गई थी। आज भी उसके काव्य–पाठ का जादू अनोखा रहा। जनता फिर तरंगित हो उठी और फिर मुझे बार–बार उठकर सभा–समुद्र को शिरसा नमन करना पड़ा।
19 कवियों के काव्य–पाठ के बाद मध्यान्तर हुआ और हम लोग चाय पीने को ग्रीन रूम में आ गए। अब सभी कवियों ने मुझसे हाथ मिलाना आरम्भ किया और सब–के–सब बधाई देने लगे। बुलगेरिया की कवयित्री दिमित्रोवा तथा अन्य दो कवियों की पत्नियाँ फोटो के लिए खड़ी हो गईं तथा ऑटोग्राफ लेने के लिए लड़कों और लड़कियों ने ग्रीन रूम पर धावा बोल दिया।
सागर साहब का नम्बर उनतीसवाँ था। उनका काव्य–पाठ मध्यान्तर के बाद हुआ। उन्होंने, सदा के अनुसार, आज भी अपनी कविता तरन्नुम में पढ़ी। फिर तो सभा में आनन्द का कोलाहल छा गया। तरन्नुम की शायरी और तराना लगानेवाले सागर निजामी! बधाइयाँ ऐसी बरसीं कि कुछ मत पूछिए।
सम्मान तो हमारा भारतवासी होने के कारण पहले से ही था, किन्तु अन्तरराष्ट्रीय कवि–सम्मेलन के दूसरे दिन से उसमें स्पष्ट वृद्धि हो गई। हाँ, कवि–सम्मेलनों में सफलता पानेवाले कवि के प्रति जो द्वेष भारत में अनायास फैलता है, उसकी बानगी वारसा में भी देखी। कवि–सम्मेलन के दूसरे दिन रात के समय मैं और सागर डाइनिंग हॉल में भोजन करके सिगरेट पी रहे थे। पास की मेज पर फिनलैंड के एक कवि बैठे थे। शायद कुछ नशे में रहे होंगे। हमें सुनाकर बोले, ‘अगली बार जब मैं कविता सुनाने आऊँगा, तब अपनी वायलिन साथ लाना हरगिज नहीं भूलूँगा।’ चोट करारी थी और सागर को वह लग भी गई। मगर, मुस्कुराते हुए ही उन्होंने कहा, ‘समझ गया। यह चोट मुझ पर है।’ इस पर बेचारा फिनिश कवि झेंप गया और शर्म छिपाने को कहने लगा, ‘नहीं, मैं यह कहना चाहता था कि कविताएँ मैं भी गा सकता हूँ। आप लोग मेरे कमरे में चलिए। मैं अपनी कविताएँ आपको गाकर सुनाऊँगा।’ सौजन्य के कारण हम कवि के साथ उनके कमरे में गए और उन्होंने अपनी कविताएँ गा–गाकर हमें सुनाईं भी। मगर कहाँ सागर की तरन्नुम और कहाँ ऊँघते फिनिश कवि का ऊँघता गीत! हम थोड़ी देर बैठकर अपने कमरे में चले गए।
अन्तरराष्ट्रीय कवि–सम्मेलन का एक आयोजन वारसा यूनिवर्सिटी में भी हुआ, जहाँ छात्रों, छात्राओं तथा प्राध्यापकों ने कवियों का स्वागत बड़े ठाठ से किया। हम लोगों ने यहाँ भी वे ही कविताएँ सुनाईं, जो पहले दिन सुनाई थीं और उनके पोलिश अनुवाद भी सुनाए गए। मेरे बाद कविता पढ़ने को इंग्लैंड के कवि लारी ली खड़े हुए। ली साहब जरा मस्त तबीयत के आदमी हैं। मेरी तरफ देखकर उन्होंने अपनी कविता का शीर्षक घोषित किया–‘बॉम्बे अराइवल दैट इज़ द फर्स्ट इंग्लिशमैन लैंडिंग इन बॉम्बे।’ मुझे लगा, ली मुझे देखकर ही यह कविता सुना रहे हैं। इसलिए मैंने भी एक हल्की चोट की, ‘मिस्टर ली, यू कुड राइट ए मोर एलेगेंट पोयम ऑन बॉम्बे डिपार्चर नाउ।’ ली से जवाब देते नहीं बना। उन्होंने हाथ जोड़कर मुझे प्रणाम किया, जैसे मैं करता था। सभा में जोर का ठहाका उठा जिसमें हम लोगों की भी हँसी शामिल थी। श्चीपाचोव अंग्रेजी नहीं जानते हैं। इसलिए, दुभाषिये के द्वारा उन्हें इस मजाक का हाल बताना पड़ा। फिर तो वे भी खूब हँसे।
वारसा में अन्तरराष्ट्रीय कवि–सम्मेलन हुआ और वह बहुत ही सफल रहा। जनता ने उनका भी हौसला बढ़ाया, जिनकी कविताएँ वह समझ सकती थी, और उनका भी जिनकी कविताओं के केवल अनुवाद ही उसके पल्ले पड़े। किन्तु यदि हम भारत की चैदह भाषाओं के कवियों को एक मंच पर एकत्र करें तो क्या होगा? क्या जनता प्रत्येक भाषा के कवि को निश्छल प्रेम देगी? या जो भाषा वह नहीं समझती है, उसकी कविताएँ सुनते समय बेवकूफी की हँसी हँसेगी? यदि शान्त रहकर निश्छल सत्कार देगी, तो भारत भी सुसंस्कृत देश है। यदि नहीं, तो संस्कृति के अभिमानी इस प्राचीन देश को अभी पोलिश जाति से भी कला–प्रेम और सौजन्य की शिक्षा लेनी चाहिए।
पोलैंड की भाषा और साहित्य
पोलिश भाषा स्लाव–परिवार की है। पूज्यवर राहुल जी कहा करते थे कि स्लाव भाषाएँ संस्कृत के बहुत समीप हैं। इसके कुछ थोड़े प्रमाण मुझे भी मिले। एक दिन मैं ओपेरा देख रहा था कि बाहर निकलने की हाजत हुई। अब जो बाहर निकला, तो अंग्रेजी जाननेवाला कोई व्यक्ति नहीं। मैंने जब ‘बाथ’, ‘ट्वायलेट’, ‘यूरिनल’, अनेक शब्द कहे, तब एक आदमी मेरा अभिप्राय समझ गया और उसने ‘नीजे’, ‘नीजे’ कहकर नीचे जाने का संकेत किया। और, सचमुच, ‘त्वायलेत’ नीचे ही था। पीछे पता चला कि मांस को पोलिश भाषा में ‘म्यांसो’ कहते हैं, पीने को ‘पिच’, माता को ‘मातका’, भ्राता को ‘व्रात’ और आँख को ‘ओको’। इसी प्रकार, गोमांस के लिए वहाँ ‘गव्यादीन’ शब्द चलता है। सम्मेलन में बाहर से प्रोफेसर रेगमे भी आए हुए थे। उनकी आकृति शुद्ध ब्राह्मण की–सी लगी। वे यूरोप में अभी संस्कृत के सबसे बड़े ज्ञाता समझे जाते हैं। उन्होंने भी कहा कि ट्यूटनिक और लातीनी भाषाओं की अपेक्षा स्लाव भाषाएँ संस्कृत के अधिक समीप हैं, जिससे यह अनुमान होता है कि भारत और स्लाव देशों के आर्यों के पूर्वज कुछ अधिक समय तक साथ रहे होंगे।
परशियन भाषा भी संस्कृत के अत्यन्त समीप थी, किन्तु, सत्रहवीं शताब्दी में उसका चलन रुक गया। अब लिथूनियन भाषा ही ऐसी है, जो स्लाव भाषाओं में संस्कृत के सर्वाधिक निकट है। रूसी कवि श्चीपाचोव रूसी भाषा में ही बोलते थे और उस समय बराबर मुझे संस्कृत वाक्यों की यति याद आती थी।
पोलैंड में मुझे यह भी जानने की इच्छा हुई कि यहाँ विज्ञान के पारिभाषिक शब्दों का क्या हाल है। क्या पोलैंड वालों ने अपने शब्द बनाये हैं या वे अन्तरराष्ट्रीय शब्दों को ही लेकर काम चला रहे हैं? पता चला कि पोलैंड में विज्ञान के, प्राय:, आधे से अधिक शब्द पोलिश हैं अथवा वे अन्तरराष्ट्रीय शब्दों के पोलीकृत रूप हैं। वैसे बहुत–से चालू अन्तरराष्ट्रीय शब्दों के लिए भी पोलैंड में पोलिश शब्द ही चलते हैं। उदाहरणार्थ, पोलैंडवाले ऑक्सीजन को ‘लेन’ (Tlen) कहते हैं और हाइड्रोजन को वोदोराद (Wodorod)। ‘Wodor’ वाटर से बना होगा, जिसका अर्थ है–वह तत्त्व, जिससे जल उत्पन्न होता है। यहाँ अपने देशवासियों की विचित्र रुचि की याद आई, जिन्हें हाइड्रोजन आसान और जलाणु कठिन मालूम होता है। इसी प्रकार, कार्बन को वहाँ वेगील (Wegiel) कहते हैं, जिसका अर्थ कोयला है। प्रोफेसर लांगे से इस विषय पर बात हुई तो उन्होंने बताया कि पोलैंड की सामान्य रुचि सभी शब्दों के पोलीकरण की ओर थी। किन्तु विज्ञान की प्रगति जिस तेजी से हुई, उस तेजी से पोलिश भाषा उसे पचा नहीं सकी। यहाँ मैं फिर अपने देश की बात सोचने लगा। पोलैंड में तो, खैर, विज्ञान की थोड़ी–बहुत राष्ट्रीय परम्परा भी थी, किन्तु हमने तो जो कुछ सीखा है, अंग्रेजी के जरिये ही सीखा है। हम क्या करें? यदि पोलिश भाषा तेजी से विज्ञान को न पचा सकी, तो भारतीय भाषाएँ उसे पचा सकेंगी क्या? प्रश्न दो प्रकार के हैं : एक तो विज्ञान का पूरा यूरोपीय उत्तराधिकार हमें भारतीय भाषाओं में ले आना है। दूसरे, विज्ञान का मौलिक चिन्तन भी, कभी न कभी, हमें भारतीय भाषाओं में करना है। कोश रचकर हम अंग्रेजी शब्दों के प्रतिशब्द तो दे सकते हैं, किन्तु प्रतिशब्दों में जिन्दगी की गर्मी तभी आ पाएगी, जब वे सम्यक् प्रयोग में आएँगे। मुझे यह भासने लगा कि अंग्रेजी शब्दों के भारतीय प्रतिशब्द जरूर बनाए जाएँँ, किन्तु उन प्रतिशब्दों में अंग्रेजी रूपों के चलन के लिए भी द्वार मुक्त रहना चहिए। नहीं तो, विज्ञान में हम गच्चे खा जाएँगे। राष्ट्रीयता के जोश में हमें विज्ञान की प्रगति को नहीं रोकना है। विज्ञान, स्वभाव से ही, अन्तरराष्ट्रीय है।
प्रोफेसर लांगे हमारे योजना–आयोग के भी सलाहकार हैं। उन्हें देखा कि लिखकर वे हिन्दी सीख रहे हैं। उनके घर में संस्कृत का व्याकरण और वेदों के भाष्य भी दिखाई पड़े। 19वीं सदी में यूरोप में संस्कृत साहित्य के प्रति जो उत्साह जगा था, उसकी लहर पोलैंड में भी फैली थी। स्लावनिक भाषाओं में खोज करते–करते लोग संस्कृत तक जा पहुँचे और संस्कृत का अनुवाद वे अपनी भाषाओं में प्रकाशित करने लगे। उपनिषदों के कई पोलिश अनुवाद मैंने प्रोफेसर लांगे के यहाँ देखे। कुछ जिल्दें भारतीय धर्म पर भी देखीं। स्वेंचित्स्की नामक एक विद्वान ने 19वीं सदी में भारतीय साहित्य पर एक मोटी जिल्द पोलिश भाषा में प्रकाशित की थी। भारतीय धर्म पर पुस्तक प्रोफेसर शायर ने लिखी। शायर पिछले युद्ध में मारे गए।
जिन–जिन देशों में साम्यवाद पहुँचता है, वहाँ साहित्य साम्यवादी दर्शन के अनुसार नियंत्रित कर दिया जाता है। साम्यवादी दर्शन में धर्म की प्रशस्ति नहीं चल सकती, क्योंकि धर्म अफीम का काम करता है। साम्यवादी दर्शन में रहस्यवाद निन्दनीय समझा जाता है, क्योंकि वह मनुष्य की भावना और विचार को अनुपयोगी दिशा की ओर ले जाता है। साम्यवादी दर्शन में ऐसे साहित्य के भी चलने देने की मनाही है, जिससे समाज में विलासिता या कदाचार बढ़ते हों अथवा आत्महत्या, निराशा और उदासी का प्रचार होता हो। युद्ध के बाद पोलैंड में भी साहित्य का यह नियंत्रण हुआ, किन्तु नियंत्रण से निकला हुआ साहित्य जनता को रुचिकर न हो सका। अतएव, अब वहाँ नियंत्रण ढीला कर दिया गया है। फिर भी वह मौजूद है। लेखक और कवि तो सचेत साम्यवादी होने के कारण रहस्यवाद और रोमांसवाद की रचनाएँ नहीं करते, किन्तु जनता में दोनों के लिए चाव है, अन्यथा मित्स्केविच और स्लोवास्की की कविताओं को वह चाव से नहीं पढ़ती।
पोलैंड ओपेरा का देश है। इंग्लैंड में नाटक अच्छे होते हैं, किन्तु ओपेरा तो बस पोलैंड के ही देखने योग्य हैं। मैंने पोलैंड के अनेक नगरों में कई ओपेरा देखे और सब–के–सब मुझे अच्छे लगे। किन्तु यहाँ भी स्पष्ट दिखलाई पड़ा कि मंच का सांस्कृतिक महत्त्व पोलैंड के शासकों के सामने स्पष्ट है और वे मंचों से कोई भी ऐसी चीज दिखलाने के विरुद्ध हैं, जिससे साम्यवादी दर्शन को धक्का लगता हो। वहाँ प्रत्येक नाटक का मोड़ साम्यवादी दर्शन की ओर होता है। इसे स्पष्ट करने के लिए, उदाहरण के तौर पर, एक ओपेरा की व्याख्या करूँगा। क्रैकोव में मैंने एक ओपेरा देखा, जो शीरीं–फरहाद की कहानी पर विरचित है। इसकी रचना नाजिम हिकमत नामक एक तुर्की नाटककार ने की है, जो अब स्वदेश से निर्वासित होकर रूस में रहते हैं। कहानी में फरहाद चित्रकार के रूप में दिखलाया गया है। शीरीं बीमार है। उसकी बड़ी बहन देश की रानी है। रानी अपने सौन्दर्य की बलि देकर शीरीं को अच्छा करती है। शीरीं का फरहाद से प्रेम हो जाता है और रानी भी फरहाद पर, मन–ही–मन, मरने लगती है। इसलिए, फरहाद और शीरीं का ब्याह नहीं हो पाता। तब ईरान में अकाल पड़ता है और रानी फरहाद से कहती है कि यदि तुम पहाड़ काटकर जनता के लिए पानी ला सको, तो शीरीं तुम्हें मिल जाएगी। फरहाद इस कार्य में सफल हो जाता है। पानी आने लगता है किन्तु नहर में अभी और काम बाकी है। फरहाद जनता का पूजनीय वीर हो जाता है और सारी जनता उसके इशारों पर चलने लगती है। इस स्थिति से घबराकर या प्रसन्न होकर रानी शीरीं को फरहाद के पास भेज देती है। शीरीं फरहाद से कहती है कि अब कोई रुकावट नहीं है, इसलिए, आओ, हम ब्याह कर लें। किन्तु फरहाद इस प्रस्ताव को यह कहकर ठुकरा देता है कि अभी जनता के बहुत–से काम बाकी हैं। अभी और ठहरो। विवाह हम जनता का सारा कार्य पूरा करके करेंगे। स्पष्ट ही, इस नाटक की शिक्षा यह है कि कर्तव्य प्रेम से बड़ा है और समाज की आवश्यकता के लिए व्यक्ति को अपनी भावनाओं का बलिदान करना ही चाहिए।
नाटक देखते–देखते अपने देश की याद आई। सुना था, जब ‘देवदास’ फिल्म पहले–पहल निकली, तब कलकत्ते की झील में नगर के अनेक युवक प्रेमियों ने आत्महत्याएँ की थीं। और इस दुष्परिणाम के बावजूद ‘देवदास’ अति उत्तम चित्र माना जाता है। हमारे साम्यवादियों में भी विचित्रता है। जहाँ विरोध करना ध्येय है, वहाँ तो वे उनका भी विरोध करते हैं, जो प्रगतिशीलता की राह पर बहुत आगे जा चुके हैं और, जहाँ उन्हें विरोध नहीं करना है, वहाँ वे रहस्यवादियों की भी उड़–उड़कर तारीफ करते हैं। प्रगतिशीलता की जो कसौटी भारत में तैयार हुई थी, उसे साम्यवादियों ने संदिग्ध बना डाला। यदि यह कसौटी सन् 1935 ई. से बरकरार चली आई होती, तो हमारे यहाँ भी स्वस्थ साहित्य को बहुत बल मिला होता।
पोलैंड की अर्थ–व्यवस्था के कुछ मनोरंजक पहलू
साम्यवादी राज्य की एक विशेषता यह भी है कि वहाँ, प्राय:, प्रत्येक व्यक्ति को कुछ–न–कुछ काम करना पड़ता है। पोलैंड में यह पता तो नहीं चला कि बैठकर खानेवाले को वहाँ कोई दंड दिया जाता है या नहीं, किन्तु काम करने की प्रवृत्ति वहाँ, प्राय:, सबमें दिखाई पड़ी। पिता, पति या संरक्षक की कमाई पर जीना, कदाचित्, दंडनीय नहीं है, क्योंकि दो–एक पोलिश मित्रों को जान गया हूँ, जिनकी पत्नियाँ काम नहीं करतीं। फिर भी देश की अधिकांश नारियाँ स्वयं काम करती हैं और परिवार की आय केवल पुरुषों के अर्जन पर ही निर्भर नहीं है। श्रम का महत्त्व वैसे तो सारे यूरोप में है और उसका सुफल पोलैंड भी पा रहा है।
एक दिन वारसा का बाजार देखने गया, तो वहाँ का हाल देखकर दंग रह जाना पड़ा। सभी दुकानें वहाँ सरकार की होती हैं। यह, प्राय:, देखने में आता है कि एक ही मकान के अन्दर विभिन्न तल्लों पर आपको सभी सामान मिल जाते हैं। अपने यहाँ की पान की दुकान के सदृश कुछ अत्यन्त छोटी–छोटी दुकानें भी दिखाई पड़ीं, जिनके बारे में मुझे बतलाया गया कि वे सरकारी नहीं हैं। किन्तु यह साधारण बात है। विस्मित होने की बात यह रही कि चीजों के दाम सुनकर तबीयत चकरा गई। एक जोड़ी साधारण जूते का दाम एक हजार स्लोती (रुपये) लिखा था। औरतों के मामूली वैनिटी बैग वहाँ साढ़े तीन सौ के मिलते हैं। और साबुन की एक टिकिया का दाम पैंतीस रुपये होता है। सागर ने एक मामूली छड़ी खरीदी, जिसके लिए बाईस रुपये देने पड़े। मैंने एक गुड़िया खरीदी, जिसके 98 रुपये लगे। किन्तु इस स्थिति का अंदाज हमें होटल में ही लग गया था, क्योंकि वहाँ से हम जो सिगरेट खरीदते थे, उसके बीस के पैकेट का दाम साढ़े बारह रुपये देना पड़ता था।
हम लोग जिस होटल में ठहराए गए थे, उसका नाम होटल ब्रिस्टल था और उसका ठाठ बड़ा ही अमीराना था। मेरे मन में यह जिज्ञासा उठी कि इसमें जो व्यक्ति रोज भोजन करेगा, उसे क्या देना होगा? हिसाब लगाने पर पता चला कि होटल ब्रिस्टल में 30 दिनों तक रोज एक समय नाश्ता और दो समय भोजन का खर्च बारह सौ रुपये से ऊपर होगा।
अब मैं यह जानने की कोशिश करने लगा कि यहाँ वेतन का क्या सिलसिला है। पता चला कि पोलैंड के मंत्री प्रति मास साढ़े सात हजार स्लोती पाते हैं और उपमंत्री कोई छह हजार स्लोती। प्रोफेसर का वेतन चार हजार और असिस्टेंट प्रोफेसर का तीन हजार स्लोती है। अखबार के प्रधान संपादक साढ़े चार हजार के लगभग पाते हैं और मेहतरों का मासिक वेतन पन्द्रह सौ स्लोती है। हाँ, मजदूरों में कोयला खान के मजदूर बहुत अच्छे हैं। उनका मासिक वेतन तीन से साढ़े तीन हजार तक है। इसके अतिरिक्त, उन्हें घर और पोशाक मुफ्त मिलती है और समय–समय पर उन्हें इनाम भी दिये जाते हैं।
जैसाकि पहले बता चुका हूँ, पोलैंड में कवियों और कलाकारों का बड़ा सम्मान है और यह सम्मान केवल वाचिका ही नहीं, आर्थिक भी है। प्रत्येक अभिनेता और अभिनेत्री को राज्य की ओर से प्रति मास दो हज़ार रुपये वेतन दिया जाता है। इसके सिवा, प्रत्येक खेल के उन्हें पाँच सौ रुपये रॉयल्टी के तौर पर मिलते हैं। कवि की जो पुस्तक प्रकाशन के लिए स्वीकार की जाती है, राज्य की ओर से उसकी रॉयल्टी की काफी बड़ी रकम उसे प्रकाशन के पूर्व ही मिल जाती है। पुस्तक की प्रतियाँ बिकीं या नहीं, इस स्थिति का कवि की मुख्य आय के साथ कम सम्बन्ध है या कह सकते हैं कि कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि बाद के संस्करणों पर रॉयल्टी नाममात्र को ही दी जाती है।
यह अच्छी स्थिति है, किन्तु इसे हम संतोषजनक नहीं कह सकते। इसलिए मैंने जानना चाहा कि इसके सिवाय कवि की और क्या आय है। पता चला कि प्रत्येक कवि किसी–न–किसी अखबार के दफ्तर में भी काम करता है, जहाँ से उसे दो से लेकर साढ़े तीन हजार रुपये तक मिल जाते हैं। अभी तो शान्ति–समिति के भी बहुत–से काम फैले हुए हैं और लिखनेवालों की आय का एक जरिया वह भी है। भारत की तरह वहाँ के कवि रेडियो में काम करते हैं। असल में, पोलिश कवि की आमदनी के अनेक रास्ते हैं, जैसे–रेडियो, सिनेमा, पत्र–पत्रिकाओं, ग्रामोफोन, मंच और नाटक में ली जानेवाली कविताओं की रॉयल्टी और प्रसिद्ध होते ही विभिन्न नगरों की ओर से मिलनेवाले पुरस्कार। भारत में तो अभी यह परम्परा ही नहीं बनी है कि नगर–विशेष अपनी पसन्द के कवि को बुलाकर उसे पुरस्कृत करें।
पोलैंड में अनेक बार यह सुना कि यहाँ का सबसे सुखी वर्ग कवियों और कलाकारों का वर्ग है। इस वर्ग की आय भी अधिक है और उसे आय–कर भी कम देना पड़ता है। पोलैंड के इनकम टैक्स कानून में कवियों के लिए खास रियायत रखी गई है। कवि और कलाकार पोलैंड में भी करोड़पति नहीं हैं, किन्तु वहाँ वे अमीर जरूर हैं और यह सुख केवल उन्हीं को नहीं है। जो बहुत प्रसिद्ध हैं, बल्कि उन सभी लोगों को, जो कला का पेशा अख्तियार किये हुए हैं। प्रसिद्ध होते ही पोलैंड के कवि अपने देश के सांस्कृतिक दूत हो जाते हैं और सरकार उन्हें बाहर भेजती ही रहती है। यह ठीक है कि अधिक रुपये जमा करके वे उद्योग या व्यापार खड़ा नहीं कर सकते, किन्तु तब वे मकान खरीद सकते हैं, मोटर ले सकते हैं तथा चित्र और मूर्तियाँ खरीदकर अपने घरों को सजा सकते हैं। पोलैंड में औसत प्रोफेसर को जो वेतन मिलता है, उसे न्यून समझना चाहिए। किन्तु जो प्रोफेसर बाहरी काम कर सकते हैं (अर्थात् अनुवाद का काम, पुस्तक लिखने का काम आदि), वे बाहर से वेतन की अपेक्षा अधिक कमा लेते हैं। प्रोफेसर एबांस्की खुद अनुवाद वगैरह से वेतन की अपेक्षा अधिक पैसे कमा लेते हैं। उन्हीं ने यह भी बताया कि कोयला–खान के मजदूर कभी–कभी इतने पैसे कमा लेते हैं कि उनकी आमदनी कवि और प्रोफेसर की आमदनी से भी बढ़ जाती है।
पोलिश किसान, अधिक से अधिक, 50 बीघे जमीन रख सकता है। जो किसान अपने बाल–बच्चों के साथ स्वयं खेती करते हैं, उन्हें सरकार की ओर से भी सहायता दी जाती है और उन्हें आय–कर भी नहीं देना पड़ता। किन्तु जो किसान खेती के लिए मजदूर रखते हैं, उन्हें सरकारी सहायता तो दी ही नहीं जाती, उल्टे उन पर इनकम टैक्स भी लगाया जाता है।
पोलैंड की आर्थिक व्यवस्था में दो सिद्धान्त हैं, जो बहुत अच्छे हैं। एक तो नियत कार्य–समय से फाजिल काम करने के लिए विशेष प्रोत्साहन, जिससे प्रत्येक सुयोग्य व्यक्ति का सारा समय काम में लगा रहे और दूसरा, उन कामों के लिए अधिक वेतन देना, जो स्वास्थ्य के लिए बुरे और जीवन के लिए संकटपूर्ण हैं। यदि मेहतरों की आमदनी चार हज़ार प्रति मास होती, तो पोलैंड की आर्थिक व्यवस्था की हम और प्रशंसा करते।
('मेरी यात्राएँ' पुस्तक से)