वालिद साहब (कहानी) : सआदत हसन मंटो

Walid Sahab (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto

तौफ़ीक़ जब शाम को कलब में आया तो परेशान सा था।
दोबार हारने के बाद उस ने जमील से कहा। “लो भई मैं चला।”
जमील ने तौफ़ीक़ के गोरे चिट्टे चेहरे की तरफ़ ग़ौर से देखा और कहा। “इतनी जल्दी?”
रियाज़ ने ताश की गड्डी के दो हिस्से करके उन्हें बड़े माहिर अंदाज़ में फेंटना शुरू किया। उसकी निगाहें ताश के फड़फड़ाते पत्तों पर थीं। लेकिन रू-ए-सुख़न तौफ़ीक़ की तरफ़ था। “तोफ़ी, आज तुम परेशान हो....... ख़िलाफ़-ए-मामूल ऊपर तले दोबार हारे हो....... ऐसा मालूम होता है कि आज शाम को हस्पताल में नर्स मारगरट ने तुम्हारे रोमांस को पोटासीम ब्रोमाइड पिला दिया।”
जमील ने एक बार फिर ग़ौर से तौफ़ीक़ के चेहरे की तरफ़ देखा। “क्यों तोफ़ी आज टैमप्रेचर कैसा रहा?”
नसीर अपनी कुर्सी पर से उठा। तौफ़ीक़ की उंगलीयों में फंसा हुआ सिगरेट निकाला। और ज़ोर का कश लेकर कहने लगा “सब बकवास है....... तोफ़ी ने आज तक जितने रोमांस लड़ाए हैं। सब बकवास थे....... ये नर्स मारगरट का क़िस्सा तो बिलकुल मन घड़त है....... मिरी की ठंडी हवाओं से यहां लाहौर की गरमीयों में आने के बाइस सरसाम होगया है....... ”
तौफ़ीक़ उठ खड़ा हुआ “बको नहीं!”
नसीर हंसा “अगर नहीं हुआ तो आजकल में हो जाएगा....... बताओ तुम्हारे अब्बा कब तक हस्पताल में रहेंगे।” ये कह कर वो तौफ़ीक़ की कुर्सी पर बैठ गया।
तौफ़ीक़ ने अपने किलिफ़ लगे मलमल के कुरते की ढीली आस्तीनों को ऊपर चढ़ा दिया और जमील के कंधे पर हाथ रख कर कहा “चलो चलें....... मेरी तबीयत यहां घबरा रही है।”
जमील उठा “भई तोफ़ी, तुम कोई बात छुपा रहे हो....... ज़रूर कोई गड़बड़ हुई है।”
“गड़बड़ कुछ नहीं....... नसीर की बकवास से कौन है जिस की तबीयत नहीं घबराती।” तौफ़ीक़ ने जेब से बाजा निकाला और मुँह के साथ लगा कर बजाना शुरू कर दिया।
नसीर ने अपनी टांगें मेज़ पर फैला दीं और ज़ोर से कहा “बकवास है.......सब बकवास है....... ये धुन जो तुम बजा रहे हो रशीद इतरे की है....... और रशीद इतरे की कोई धुन सुन कर आज तक कोई ऐंगलो इंडियन या क्रिस्चन नर्स बेहोश नहीं हुई....... बेहतर होगा अगर तुम रूमाल पर थोड़ा सा क्लोरोफाम छिड़क करले जाओ।”
रियाज़ ने ताश की गड्डी रख दी और नसीर की टांगें एक तरफ़ रेल दीं।
“कुछ भी हो। लेकिन हम इतना जानते हैं कि तोफ़ी जहां अपनी गाड़ी का हॉर्न बजाय तो लड़कीयां सुन कर इस पर फ़रेफ़्ता हो जाती हैं।”
नसीर ने सिगरेट की गर्दन ऐश ट्रे में दबाई “और साईकल की घंटी बजाय तो आसमान से फ़रिश्ते उतरने शुरू हो जाते हैं। एक दफ़ा इसकी खांसी की आवाज़ सुन कर बाग-ए-जिनाह की सारी बुलबुलें अपनी नग़मासराई भूल गई थीं....... बड़ा हंगामा होगया था....... मास्टर ग़ुलाम हैदर ने पूरा एक महीना उन को रीहरसल कराई। तब जा कर वह कहीं टों टां करने लगीं।”
तौफ़ीक़ के सिवा बाक़ी सब हँसने लगे....... नसीर ज़रा संजीदा होगया। उठ कर तौफ़ीक़ के पास आगया। उस के कलफ़ लगे मलमल के कुरते की एक शिकन दुरुस्त की और कहा। “मज़ाक़ बरतरफ़....... लो अब बताओ हस्पताल की लौंडिया से तुम्हारा मुआमला कहाँ तक पहुंचा?....... मैं तो समझता हूँ वहीं का वहीं होगा। एक शरीफ़ आदमी अपनडे साईट्स का ऑप्रेशन कराए पड़ा है....... मुक़र्ररा औक़ात पर ये तुम्हारी नर्स साहबा तशरीफ़ लाती हैं....... जनाब सिर्फ़ एक दफ़ा सुबह और एक दफ़ा शाम वहां जा सकते हैं....... मरीज़, और वो भी क़िबला वालिद साहब....... वो मरीज़-ए-अपनडे साईटस और तुम मरीज़-ए-इश्क़....... ”
रियाज़ ने क़रीब क़रीब गा कर कहा। “मरीज़-ए-इश्क़ पर रहमत ख़ुदा की।”
नसीर की रग-ए-मज़ाक़ फड़क उठी। “और मरीज़-ए-इश्क़ पर जब ख़ुदा की रहमत नाज़िल होती है। तो वो बैंड मास्टर बन जाता है....... आज तोफ़ी का मुँह बाजा बजा रहा है। ख़ुदा की रहमत शामिल-ए-हाल रही तो कल सीकसो फ़ोन बजायगा....... आहिस्ता आहिस्ता इस के साथ दूसरे मरीज़ान-ए-इश्क़ शामिल हो जाऐंगे। फिर ये बरातों के साथ मुँह में कलारनट दबाये फ़िल्मी टीयोनीं बजाया करेगा....... हीरा मंडी से गुज़रते हुए उस की कलारनट का मुँह ऊंचा हो जाया करेगा। गाल धौंकनी की तरह फूलेंगे....... गले की रगें उभर आएँगी....... और रंडियां कोठों पर से इस पर रहमत-ए-ख़ुदावंदी के फूल बरसाईंगी”
तौफ़ीक़ तंग आ गया। हाथ जोड़ कर नसीर से कहने लगा “ख़ुदा के लिए ये भांड पन्ना बंद करो।”
नसीर ने जमील की तरफ़ देखा “लो साहब हम भांड होगए....... दुनिया भर की नकलें ये उतारें। ज़माने भर की ख़ुराफ़ात ये बकें....... और भांड हम कहलाएं....... ये तो आज इन्हें मुँह में घनघनयां डाले देख कर मैंने छेड़ख़ानी शुरू करदी कि शायद इसी हीले उकसें, मुँह से बोलें। “सर से खेलें। वर्ना जा-ए-उस्ताद ख़ाली अस्त, कुजा दाम राम कुजा टें टें” ये कह कर उस ने तौफ़ीक़ के कलफ़ लगे मलमल के कुरते की शिकन दुरुस्त की “भई तौफ़ीक़ ज़रा चहको....... क्या होगया है तुम्हें।”
तौफ़ीक़ ने जेब से सिगरेट केस निकाला। एक सुलगाया और कश लेता कुर्सी पर बैठ गया। मेज़ पर से ताश की गड्डी उठाई और पीसनें खेलने लगा। लेकिन नसीर ने लपक कर पत्ते उठा लिए। “ये बुढ़े जरनैलों का खेल है जो ज़िंदगी में कई बार अपनी तमाम कश्तियां जला चुके हूँ....... तुम इतने मायूस क्यों होगए हो....... मारगरट न सही कोई और सही।” ये कह कर वो जमील और रियाज़ से मुख़ातब हुआ। “यारो बताओ ये फ़नाला कौन है?....... ख़ूबसूरत है?....... चंदे आफ़ताब चंदे महताब है?....... पानी पीती है तो गर्दन में से दिखाई देता है?”
जमील तौफ़ीक़ के पास बैठ गया, “वो फ़ारसी का मुहावरा है....... लैला ब-नज़र-ए-मजनूं बायद दीद....... मारगरट ब-नज़र-ए-तोई बायद दीद,....... क्यों तोफ़ी?”
तौफ़ीक़ ख़ामोश रहा।
“मैं पूछता हूँ, ख़ूबसूरत है?....... उस के बदन से आन्डू फ़ार्म की भीनी भीनी बू आती है?....... उसकी गर्दन देख कर गर्दन तोड़ बुख़ार होता है या नहीं?”
नसीर ये कहता कहता मेज़ पर बैठ गया। “मेंढ़कियों को जो ज़ुकाम होता है इस का ईलाज तो वो ज़रूर जानती होगी....... ख़ुदा के लिए मुझ इस से मिलाओ। वर्ना मुझ पर हिस्टेरिया के दौरे पड़ने लगेंगे।”
जमील ने रियाज़ की तरफ़ देखा। “रियाज़ उस को कई मर्तबा देख चुका है।”
“रियाज़ के देखने से क्या होता है....... उस को तो अंध ओरता है।”
नसीर मुस्कुराया।
“जमील ने पूछा ये अंध ओरता क्या है?”
नसीर ने रियाज़ के चशमा लगे चेहरे को घूर के देखा और जमील को जवाब दिया।
“जनाब ये एक बीमारी का नाम है। इस के मरीज़ औरतों को नहीं देख सकते। चाहे असली पत्थर का चशमा लगाऐं।”
रियाज़ मुस्कुरा दिया। “शायद इसी लिए मुझे मारगरट में वो हुस्न नज़र न आया। जिस की तारीफ़ में तोफ़ी ने ज़मीन-ओ-आसमान के क़लाबे मिला रखे थे।”
तौफ़ीक़ ने अपना झुका हुआ सर उठा कर रियाज़ से सिर्फ़ इतना पूछा “क्या वो हसीन नहीं थी?”
रियाज़ ने जवाब दिया। “हर्गिज़ नहीं....... साफ़ सुथरी लड़की अलबत्ता ज़रूर है।”
“लांड्री से ताज़ा ताज़ा आई हुई शलवार की तरह?” नसीर अभी कुछ और कहना चाहता था कि रियाज़ बोल पड़ा। “हाँ यार....... एक लड़की उस ने शलवार क़मीज़ पहनी हुई थी....... इन कपड़ों में अच्छी लगती थी....... मैं और तोफ़ी मोटर में थे....... तोफ़ी ड्राईव कररहा था....... मोटर हस्पताल के फाटक में दाख़िल हुई तो इसटीअरिंग तोफ़ी के हाथों के नीचे फिसला....... लड़की देख कर हमेशा उसकी यही कैफ़ीयत होती है....... मैंने सामने देखा तो वो शलवार क़मीज़ पहने मटकती चली आरही थी। तोफ़ी ने मोटर ऐन उसके पास रोकी और कहा....... गुड मोर्निंग....... वो मुस्कुराई....... लखनवी अंदाज़ से दायां हाथ माथे तक ले गई। और कहा....... आदाब अर्ज़....... जैसा लिबास वैसी बोली....... लौंडिया है चालाक....... तोफ़ी अभी कोई फ़िक़रा मौज़ूं कर रहा था कि वो छोटे छोटे मगर तेज़ क़दम उठाती आगे बढ़ गई....... तोफ़ी ने फ़िक़रे को चौड़ा और सीने पर दोहतड़ मार कर कहा.......मार डाला....... इतने में मारगरट का अक्स बैक वीव मिरर में नमूदार हुआ। तोफ़ी ने बड़े थीटरी अंदाज़ में एक अदद चुम्मा उस की तरफ़ फेंका और मोटर स्टार्ट करदी।”
“तुम्हारी इस गुफ़्तगु से साबित क्या हुआ?” नसीर ने अपने घुंघरियाले बालों का एक गुछा मरोड़ते हुए कहा। “बात ये है कि जब तक ये ख़ाकसार बक़लम-ए-ख़ुद उस लौंडिया को नहीं देखेगा कुछ भी साबित नहीं होगा....... झूट बोलों तो तोफ़ी ही का मुँह काला हो।”
तौफ़ीक़ ख़ामोश सिगरेट के कश लेता रहा।
जमील ने अपनी कुर्सी ज़रा आगे बढ़ाई और रियाज़ से पूछा। “अच्छा भई ये बताओ तोफ़ी ने कभी उसे मोटर की सैर नहीं कराई।”
रियाज़ ने जवाब दिया “एक दफ़ा इस ने कहा था तो इस से मुझे याद नहीं रहा। उस ने क्या जवाब दिया था। बात दरअसल ये है कि तोफ़ी को खुल के बात करने का मौक़ा ही नहीं मिला....... टैमप्रेचर लेने या टीका लगाने के लिए आती है तो बाप की मौजूदगी में ये उस से क्या बात कर सकता है....... फिर भी इशारों किनाइयों में कुछ न कुछ हो ही जाता है....... मेरा ख़्याल है ये अदाऐं आज सिर्फ़ इसी लिए हैं कि इस के अब्बा जान दो तीन दिनों में हस्पताल छोड़ने वाले हैं क्योंकि ज़ख़म अब बिलकुल भर चुका है....... क्यों तोफ़ी?”
तौफ़ीक़ ने सिर्फ़ इतना कहा। “मुझे सताओ नहीं यार।” और उठ कर बाहर बाग़ में चला गया....... नसीर ने अपनी ठोढ़ी हाथ में पकड़ी और चेहरे पर गहिरी फ़िक्रमंदी के निशानात पैदा करके कहा। “कहीं लम्डे को इस्क तो नहीं होगया।”
“तोफ़ी और इश्क़....... दो मुतज़ाद चीज़ें हैं।” रियाज़ कुर्सी पर से उठा।
और संजीदगी से कहने लगा। “कोई और ही चीज़ हुई है जनाब को....... मेरा ख़्याल है लाहौर में इस का जी लग गया था। वालिद ठीक होगए हैं तो अब उसे वापस मिरी जाना पड़ेगा।”
“बकवास है” नसीर चिल्लाया “कोई और ही बात है....... तुम यहां ठहरो....... मैं अभी दरयाफ़्त करके आता हूँ।”
नसीर उठ कर बाहर चलने लगा तो जमील ने उस से पूछा। “किस से दरयाफ़त करने चले हो।”
नसीर मुस्कुराया। “घोड़े के मुँह से....... अंग्रेज़ी में फ्रोम दी हारसर माऊथ!” ये कह कर वो बाहर निकल गया।
जमील ने रियाज़ की तरफ़ देखा और संजीदगी से पूछा। “हाँ भई रियाज़, ये सिलसिला क्या है....... तोफ़ी एक दिन बहुत तारीफ़ कररहा था। इस मारगरट की....... कहता था कि मुआमला पट्टा समझो....... क्या ये ठीक है?”
“ठीक ही होगा। मेरा मतलब है ऐसा कौन सा चित्तौड़ गढ़ का क़िला ये जो तोफ़ी को सर करना है....... एक दिन कोरसी डोर में काफ़ी मीठी मीठी बातें कर रहे थे?”
“क्या?”
“मैंने पाकेट बुक में नोट की हुई हैं। किसी रोज़ पढ़ के तुम्हें सुनाऊंगा”
जमील के होंटों पर खिसियानी सी मुस्कुराहट पैदा हुई। “मज़ाक़ करते हो यार....... सुनाओ.... कोई और बात सुनाओ.... मेरा मतलब है, ये बताओ कि मैं कभी उस नर्स को देख सकता हूँ।”
“जब चाहो देख सकते हो....... हस्पताल चले जाओ, फ़ैमिली वार्ड में तुम्हें नज़र आजाएगी....... लेकिन क्या करोगे देख के तुम्हारा क़द बहुत छोटा है। वो तुम से पूरी एक बालिशत ऊंची है।”
“इस क़द ने मुझे कहीं का नहीं रखा....... बहुतेरे ईलाज करवा चुका हूँ.... एक सोई बराबर ऊंचा नहीं हुआ.......” “अच्छा,” मैंने कहा, “रियाज़....... बाप की मौजूदगी में तोफ़ी उस से इशारे बाज़ी कैसे करता होगा....... नहीं, लड़का होशयार है!”
रियाज़ ने ताश की गड्डी उठाई और पत्ते फेंटने शुरू किए अच्छी ख़ासी मुसीबत है। हर वक़्त यही धड़का कि वालिद देख न ले, ताड़ न जाये....... कहता था “जूंही उन की निगाहें मेरी तरफ़ उठती थीं, मैं नज़रें नीची कर लेता था....... जब वो आती थी तो दस पंद्रह मिनटों में ग़रीब को सिर्फ़ तीन चार मौके़ आँख लड़ाने को मिलते थे।”
जमील ने पूछा। “डी एस पी हैं न तोफ़ी के अब्बा जान”
“हाँ भाई....... बाप होना ही काफ़ी होता है....... ऊपर से डी एस पी।”
जमील ने आह भरी। “मेरे तमाम रोमांस ग़ारत करने वाले मेरे अब्बा जान हैं....... हज से पहले उन की ग़ारत गर्दी इतने ज़ोरों पर न थी, पर जब से आप ख़ान-ए-काअबा से वापस तशरीफ़ लाए हैं। आप की ग़ारत गर्दी उरूज पर है....... सोचता हूँ शादी करलूं। एक लड़का पैदा करूं और बैठा उस से अपना इंतिक़ाम लेता रहूं।”
रियाज़ मुस्कुराया। “हज करने जाओगे?”
“एक नहीं दस दफ़ा....... साहबज़ादे को साथ लेकर जाऊंगा।”
ये कह कर उस ने मेज़ पर ज़ोर से मुक्का मारा। आवाज़ के साथ ही नसीर दाख़िल हुआ। रियाज़ और जमील दोनों उसकी तरफ़ ग़ौर से देखने लगे। नसीर इंतिहाई संजीदगी के साथ कुर्सी पर बैठ गया। जमील के दिमाग़ में खुद बुद होने लगी। “कुछ दरयाफ़्त किया?”
“सब कुछ” नसीर का जवाब मुख़्तसर था।
रियाज़ ने पूछा “तोफ़ी कहाँ है?”
नसीर ने जवाब दिया। “चला गया है”
“कहाँ” ये सवाल रियाज़ ने किया।
“वापस मिरी।”
नसीर का ये जवाब सुन कर रियाज़ और जमील दोनों बयक-वक़्त बोले “मिरी वापस।”
“जी हाँ.......मिरी वापस चला गया है। अपनी मोटर में....... हस्पताल से सीधा यहां कलब आया....... यहां से सीधा मिरी रवाना होगया है।”
नसीर ने एक एक लफ़्ज़ चबा चबा कर अदा किया।
जमील बेचैन होगया। “आख़िर हुआ क्या?”
नसीर ने जवाब दिया। “हादिसा!”
जमील और रियाज़ दोनों बोले “कैसा हादिसा?”
“बताता हूँ” ये कह कर नसीर ने जेब से सिगरेट की डिबिया निकाली जिस में कोई सिगरेट नहीं था। डिबिया एक तरफ़ फेंक कर वो रियाज़ और जमील से मुख़ातब हुआ।
“मुआमला बहुत संगीन है?”
जमील ने रियाज़ से कहा। “मेरा ख़्याल है तोफ़ी पकड़ा गया होगा!”
रियाज़ ने कहा “मालूम ऐसा ही होता है....... आदमी कब तक किसी की आँखों में धूल झोंक सकता है....... डी एस पी है....... फ़ौरन ताड़ गया होगा....... लेकिन नसीर तुम बताओ। तोफ़ी ने तुम से क्या कहा।”
“बताता हूँ....... ” एक सिगरेट देना जमील
जमील ने उस को एक सिगरेट दिया उसे सुलगा कर उस ने बात शुरू की, “बाप की मौजूदगी में उस की नर्स से इशाराबाज़ी होती थी। ये तुम लोगों को मालूम है....... ये सिलसिला इशारे बाज़ी का बहुत दिनों से जारी था....... तोफ़ी इस में ख़ासा कामयाब रहा था। बाप की मौजूदगी के बाइस उसे बहुत मुहतात रहना पड़ता था वो ज़रा गर्दन घुमाते तो ये फ़ौरन अपनी आँखें नीची कर लेता। इन दिक्कतों के बावजूद उस ने लड़की से रब्त बढ़ा ही लिया। और डयूटी के रोज़ शाम को वो उसे एक मर्तबा सिनेमा भी ले गया।”
जमील गुटका “वाह!”
रियाज़ ने कहा। “मुझ से उस ने इस का ज़िक्र नहीं किया।”
नसीर ने सिगरेट का कश लिया। “सिनेमा में वो ख़ूब एक दूसरे के साथ घुल मिल गए। नर्स को तोफ़ी का चंचल पन्ना बहुत पसंद आया। परसों की मुलाक़ात में आज की शाम तय हुई कि वो तोफ़ी के साथ दूर तक मोटर में सैर करने चलेगी। और तोफ़ी अपनी आदत से मजबूर हो कर अगर कोई शरारत करना चाहेगा तो वो बुरा नहीं मानेगी।”
जमील फिर गुटका “वाह!”
रियाज़ ने उसे टोका। “ख़ामोश रहो जमील।”
नसीर ने सिगरेट का एक लंबा कश लिया। “परसों की मुलाक़ात में जो कुछ तय हुआ था, मैं आप को बता चुका हूँ। तोफ़ी बहुत ख़ुश था। अपने ख़्याल के मुताबिक़ वो एक बहुत बड़ा मैदान मारने वाला था। आज दिन भर वो स्कीमें बनाता रहा....... पैट्रोल का इंतिज़ाम उस ने कर लिया।
करम इलाही ने उसे छः कूपन दे दिए थे। उसी की परमिट पर बीअर की छः बोतलें भी हासिल करली थीं जो ग़ालिबन अभी तक इम्तियाज़ के फ़िरडियर में ठंडी हो रही हैं....... तोफ़ी की स्कीम ये थी कि चैनयूट के पुल तक चलेंगे। हुस्न-ओ-इश्क़ के दरिया चनाब की लहरें होंगे....... मौसम भी ख़ुशगवार होगा। गिलास रास्ते में ख़रीद लेंगे। ठंडी ठंडी बेअर अड़ेगी। ख़ूब सुरूर जमेंगे.... लेकिन.... ”
ये कह कर नसीर एक दम ख़ामोश होगया।
जमील ने बेचैन होकर पूछा। “सारा मुआमला ग़ारत होगया?”
नसीर ने इस्बात में सर हिलाया। “सारा मुआमला ग़ारत होगया।”
जमील ने और ज़्यादा बेचैन हो कर पूछा। “कैसे?”
नसीर ने सिगरेट की गर्दन ऐश ट्रे में दबाई और कहा “प्रोग्राम ये था कि वो शाम को छः बजे हस्पताल जाएगा। घंटा डेढ़ घंटा अपने बाप के पास बैठेगा। इस दौरान में जब मारगरट आए तो वो सैर की बात पक्की करलेगा। बात पक्की हो जाएगी तो वो सीधा इम्तियाज़ के हाँ जाएगा....... कुछ देर वहां बैठेगा। बीअर की एक बोतल पीएगा। बाक़ी पाँच मोटर में रखे और जो जगह मुक़र्रर हुई होगी वहां मारगरट से जा मिलेगा....... दिल-ओ-दिमाग़ सख़्त बेचैन था। घर से वक़्त से कुछ पहले ही निकल आया। हस्पताल पहुंचा। मोटर एक तरफ़ खड़ी की....... वारड की तरफ़ चला।
सीढ़ीयां तय कीं ऊपर पहुंचा। कमरे का दरवाज़ा खोला तो क्या देखता है....... ”
नसीर एक दम रुक गया। जमील और रियाज़ दोनों बयक-वक़्त बोले “क्या देखता है.......?”
“देखता है कि....... ठहरो” नसीर थोड़ी देर के लिए रुका। “मैं तोफ़ी के अल्फ़ाज़ में बयान करता हूँ....... मैंने कमरे का दरवाज़ा खोला। क्या देखता हूँ कि मागरट पलंग पर झुकी हुई है और वालिद साहब....... और वालिद साहब उस के होंट चूस रहे हैं।”
जमील और रियाज़ क़रीब क़रीब उछल पड़े “सच्च?”
नसीर ने जवाब दिया। “दरोग़ बर-गर्दन-ए-रावी”
जमील जिस के दिल-ओ-दिमाग़ पर हैरत मुसल्लत थी बड़बड़ाया “कमाल कर दिया। डी एस पी साहब ने।”
रियाज़ ने नसीर से पूछा। “तोफ़ी ने क्या किया?”
नसीर ने जवाब दिया। “आँखें नीची करलीं और चला आया।”
जमील, रियाज़ से मुख़ातब हुआ “मेरे वालिद साहब क़िबला कभी ऐसे नज़ारे का मौक़ा दें तो मज़ा आजाए। पता नहीं तोफ़ी क्यों इस क़दर परेशान था?”
नसीर ने कहा “तोफ़ी की वालिदा साहिबा उस के साथ थीं....तोफ़ी ने मुझ से कहा मैं तो नज़रें नीची करके चिल्लाया। लेकिन अम्मी जान दरवाज़ा खोल कर अंदर कमरे में चली गईं।”
जमील ने पुर-अफ़सोस लहजे में कहा। “क़िबला वालिद साहब के साथ ये ज़्यादती हुई!”
(2 जून 1950)

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