व्यवधान (बांग्ला कहानी) : रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Vyavdhan (Bangla Story in Hindi) : Rabindranath Tagore

नाते की दृष्टि से देखा जाए तो वनमाली और हिमांशुमाली, दोनों ममेरे-फुफेरे भाई हैं, सो भी बहुत हिसाब लगाने पर, किन्तु इन दोनों का परिवार बहुत दिनों से पड़ोसी रहा है। बीच में सिर्फ एक बगीचे का फासला है और इसीलिए इनका नाता नजदीक का न होने पर भी मेलजोल और घनिष्ठता काफी है। वनमाली हिमांशु से बड़ा है। जब दांत नहीं निकले थे और वह बोल भी न सकता था, तब वनमाली ने उसे गोद में लेकर इसी बगीचे में सुबह-शाम हवा खिलाई है, खेल सिखाया है, रोना बन्द कराया है, थपकियां देकर मीठी नींद सुलाया है और बच्चों को बहलाने के लिए परिणत-बुद्धि प्रौढ़ व्यक्तियों को जोर से सिर हिलाना और अंटसंट बोलना आदि जो भी कुछ उम्र के खिलाफ शरारत और जोर का प्रयत्न करना पड़ता है, उसमें भी वनमाली ने कोई बात उठा नहीं रखी।

वनमाली ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हैं। उसे शुरू से ही बगीचे का शौक था, और था इस दूर के नाते के छोटे भाई पर प्यार का लगाव। वह उसे एक दुर्लभ और कीमती लता की तरह अपने दिल का प्यार सींचकर पाल रहा था। जब वह लता उसके समूचे अन्तर-बाहर को ढंककर खूब फलने-फूलने लगी तब वनमाली अपने को धन्य समझने लगा।

आमतौर पर ऐसा देखने में नहीं आता, किन्तु कोई-कोई स्वभाव ऐसा होता है, जो एक छोटी-सी कल्पना या एक छोटे से बच्चे या किसी बेमुख्यत मित्र के लिए बड़ी आसानी से अपने को पूरी तरह बिखेर देता है, और इस विशाल पृथ्वी पर सिर्फ एक छोटे से प्यार के कारोबार में वह अपने जीवन का सारा मूलधन लगाकर निश्चिन्त हो जाता है। फिर, या तो वह जरा-से मुनाफे पर गहरे सन्तोष के साथ जीवन बिता देता है, या सहसा किसी दिन सवेरे अपना घर द्वार सबकुछ बेचकर राह का भिखारी हो जाता है।

हिमांशु की उमर जब थोड़ी बढ़ गई तब, उम्र और नाते का काफी सिलसिला होने पर भी, वनमाली का उसके साथ मानो मित्रता का बन्धन कायम हो गया। दोनों में मानी छोटे-बड़े का कोई भेद ही न रहा।

ऐसा होने का एक कारण भी था। हिमांशु पढ़ता-लिखता था और उसकी ज्ञान की प्यास आदतन बहुत तेज थी। पुस्तक पाते ही वह पढ़ने बैठ जाता। इससे फालतू पुस्तकें भी बहुत पढ़ी गई, फिर भी चाहे जैसे भी हो, चारों तरफ से उसके मन ने एक पूर्णता प्राप्त कर ली थी। वनमाली खास श्रद्धा के साथ उसकी बात सुनता, उससे सलाह लेता, उसके साथ छोटी-बड़ी सब बातों की चर्चा करता, किसी भी विषय में बालक समझकर कभी उसकी उपेक्षा न करता। दिल के पहले स्नेह-रस से जिसे पाल-पोसके आदमी बनाया गया हो, उम्र पाकर वही अगर अपनी बुद्धि, ज्ञान और ऊंचे स्वभाव के कारण श्रद्धा का अधिकारी बन जाए, तो उसके समान ऐसी बेहद प्यारी वस्तु संसार में शायद ही कोई हो।

बगीचे का शौक हिमांशु को भी था, किन्तु इस विषय में दोनों मित्रों कुछ भेद था। वनमाली को था दिल का शौक और हिमांशु को बुद्धि का। जमीन के ये कोमल पौधे और लताएं, यह बेजान जीवन राशि, जो आदर-जतन की जरा भी लालसा नहीं रखती और साथ ही जतन पाने पर घर के बाल-बच्चों की तरह बढ़ती रहती है, और जो आदमी के बाल बच्चों से भी बढ़कर बच्चे हैं, उनको जतन से पाल-पोसकर बड़ा करने के लिए वनमाली में एक स्वाभाविक प्रवृत्ति थी, किन्तु हिमांशु में पेड़-पौधों के प्रति एक जिज्ञासु दृष्टि थी। अंकुर निकल आए, कुल्ले फूटने लगे, बौर लग गए, फूल खिलने लगे, इन सब बातों में उसका खूब मन लगता था।

बीज बोने, कलम लगाने, खाद देने मचान बांधने आदि के विषय में हिमांशु को नई-नई बातें सूझतीं और वनमाली उन्हें बड़े आनन्द के साथ सुनता। इस बगीचे के लिए आकृति-प्रकृति के जितने प्रकार के भी संयोग-वियोग सम्भव हो सकते हैं, दोनों मिलकर सब करते।

दरवाजे के सामने बगीचे के बीच में एक पक्की वेदी-सी बनी थी। चार बजते ही वनमाली एक महीन कुरता पहनकर, चुना हुआ दुपट्टा कन्धे पर डालकर, हाथ में नलीदार हुक्का लिए वहीं छाया में जाकर बैठ जाता। कोई मित्र भी पास नहीं और न हाथ में कोई पुस्तक या अखबार। बैठा-बैठा हुक्का पीता और तिरछी निगाह से उदासीन भाव से कभी दाएं और बाएं देखा करता। इसी प्रकार उसका समय हुक्के के धुएं की तरह धीरे-धीरे बहुत ही हलका होकर उड़ जाता, शून्य में बिला जाता, कहीं भी उसका कोई निशान तक न रह जाता।

अन्त में जब हिमांशु स्कूल से लौटकर हाथ-मुंह धोकर कलेवा करके बगीचे में दिखाई देता, तब वह झटपट हुक्के की नली छोड़कर उठ बैठता। तब उसके आग्रह को देखकर सहज ही समझ में आ जाता कि अब तक वह किसके लिए बैठा-बैठा तसल्ली के साथ इन्तजार कर रहा था।

उसके बाद दोनों जने बगीचे में बातें करते हुए टहलते। अंधेरा हो आने पर दोनों बेंच पर बैठ जाते, दक्षिण की हवा पेड़ों के पत्तों को हिलाते हुई वही चली जाती, किसी-किसी दिन हवा चलती भी नहीं थी; पेड़-पौधे तस्वीर की तरह सतर खड़े रहते, सिर पर आकाश-भर में तारे चमकते रहते।

हिमांशु बातें करता, वनमाली चुपचाप सुनता रहता। जो बात समझ से में न आती वह भी उसे अच्छी लगती। जो बातें और किसी के मुंह बहुत बुरी और रूखी मालूम दे सकती थीं, वे ही बातें हिमांशु के मुंह से अच्छी लगतीं। ऐसे श्रद्धावान प्रौढ़ श्रोता के मिल जाने से हिमांशु की भाषण-शक्ति, स्मृति-शक्ति और कल्पना शक्ति को खास लाभ होता। वह कुछ पढ़कर कहता, कुछ सोचकर कहता और कुछ उसी समय बुद्धि में जो आता सो कह डालता, और कभी-कभी कल्पना की सहायता से अपने ज्ञान की कमी को ढंक भी लेता। बहुत-सी ठीक बातें कहता, बहुत-सी गलत भी कह डालता, किन्तु वनमाली सबको गम्भीरता से सुनता। बीच-बीच में दो-एक बात वह भी कहता, किन्तु हिमांशु उसकी बात काटकर जो उसे समझा देता उसी को वह ठीक समझ लेता, और दूसरे दिन छाया में बैठकर हुक्का पीता हुआ उन बातों को बहुत देर तक आश्चर्य के साथ सोचता रहता।

इतने में एक बखेड़ा उठ खड़ा हुआ। वनमाली और हिमांशु के मकान के बीच में एक पानी का नाला था। उस नाले में एक जगह एक नीबू का पेड़ पैदा हो गया। उस पेड़ पर जब फल लगते हैं, तो वनमाली का नौकर उन्हें तोड़ने की कोशिश करता है और हिमांशु का नौकर उसे रोकता है, और इस बारे में दोनों ओर से गाली-गलौज की जो वर्षा होने लगती है, उस वर्षा में अगर जरा भी तत्त्व होता तो शायद तमाम नाला भर जाता।

नतीजा यह हुआ कि वनमाली के पिता हरचन्द और हिमांशु के पिता गोकुलचन्द में इसी बात को लेकर तकरार हो गई। दोनों फरीक नाले के अधिकार का फैसला कराने के लिए अदालत पहुंचे।

वकील-बैरिस्टरों में जितने भी महारथी थे, सभी ने दोनों में से किसी-न-किसी का पक्ष लेकर वाक्युद्ध शुरू कर दिया। दोनों ओर से इतने रुपये खर्च हुए कि सावन-भादों की बरसात में उस नाले में से उतना पानी भी शायद कभी न बहा होगा।

अन्त में हरचन्द की जीत हुई। साबित हो गया कि 'नाला हरचन्द का ही है, और नीबू के पेड़ पर और किसी का कोई हक नहीं। अपील हुई, किन्तु नाला और नीबू का पेड़ हरचन्द का ही रह गया।

जितने दिन मुकदमा चलता रहा, दोनों भाइयों की मित्रता में कोई फर्क न आया। इस आशंका से कि कहीं झगड़े की छाया उन्हें छू न ले, वनमाली दूनी गहराई से हिमांशु को अपने दिल के पास बांध रखने की कोशिश करने लगा और हिमांशु ने भी जरा बेरुखी नहीं दिखाई।

जिस दिन अदालत से हरचन्द की जीत हुई उस दिन घर में, खासकर में, खुशियां मनाई जाने लगीं, सिर्फ वनमाली की आंखों में नींद नहीं रही। उसके दूसरे दिन करीब चार बजे वह उदास चेहरा लिए बगीचे की उस वेदी पर ऐसे जा बैठा जैसे दुनिया में और किसी के भी कुछ नहीं हुआ, सिर्फ उसकी बड़ी भारी हार हुई है।

अन्तःपुर उस दिन, सूरज डूब गया, छः बज गए, परन्तु हिमांशु नहीं आया। बनमाली ने एक गहरी सांस ली और हिमांशु के मकान की ओर देखा। खुले जंगले में से देखा कि अलगनी पर हिमांशु के स्कूल के कपड़े लटक रहे हैं, बहुत-से चिरपरिचित लक्षणों से जान लिया कि हिमांशु घर ही में है। हुक्के की नली फेंककर वह उदास मुंह लिए टहलने लगा, और हजार बार उसी जंगले की तरफ देखा किया, पर हिमांशु बगीचे में नहीं आया।

शाम को दिया-बत्ती जलने पर वनमाली धीरे-धीरे हिमांशु के घर गया।

गोकुलचन्द दरवाजे पर बैठे हुए अपनी गरम देह पर ठंडी हवा लगा रहे थे। उन्होंने कहा, "कौन है?"

वनमाली चौंक पड़ा। मानो वह चोरी करने आया हो और पकड़ा गया हो। कांपती हुई आवाज से वह बोला, “मैं हूं, मामाजी!"

मामा ने कहा, “किसे ढूंढ़ने आए हो घर पर कोई नहीं है।"

वनमाली फिर अपने बगीचे में लौट आया और चुपचाप बैठ गया।

जितनी रात बीतने लगी, उसने देखा कि हिमांशु के मकान के एक-एक करके सब जंगले बन्द हो गए, दरवाजे की संध में से जो उजाला चमक रहा था, वह भी क्रमशः बुझ गया। अंधेरी रात में वनमाली को ऐसा मालूम हुआ कि हिमांशु के घर के सारे दरवाजे सिर्फ उसी के लिए बन्द हो गए हैं, सिर्फ वही अकेला बाहर के अंधेरे में पड़ा रह गया है।

दूसरे दिन फिर वह बगीचे में आकर बैठ गया। सोचने लगा, 'आज शायद आए तो आ सकता है।' जो बहुत दिनों से रोज आया करता था वह एक दिन के लिए भी न आए, यह बात वह किसी भी तरह सोच न सका। कभी भी उसने यह नहीं सोचा था कि उसका यह बन्धन कभी किसी तरह टूट जाएगा। इतना निश्चिन्त था कि उसे पता तक नहीं कि कब उसके जीवन के सारे सुख-दुख उस बन्धन में जकड़ गए। आज अचानक मालूम हुआ कि वह बन्धन टूट गया है, किन्तु एक ही क्षण में उसका यह सर्वनाश हुआ है, यह वह किसी भी तरह दिल से विश्वास न कर सका।

हर रोज नियम से वह बगीचे में जाकर बैठता है, शायद दैवयोग से किसी दिन वह आ जाए, किन्तु ऐसा दुर्भाग्य कि जो नियमित रूप से रोज-रोज हुआ करता था, वह दैवयोग से एक दिन भी न हुआ।

रविवार के दिन, वनमाली ने सोचा कि पहले की तरह आज भी हिमांशु सवेरे हमारे यहां खाने को आएगा। पक्का विश्वास तो नहीं था; किन्तु फिर भी आशा वह न छोड़ सका।

सब आए, पर वही नहीं आया।

तब वनमाली ने सोचा, 'तो अब शायद खाकर ही आएगा।

खाकर भी नहीं आया।

वनमाली ने सोचा कि शायद आज खा-पीकर सो गया है, जगने पर आएगा।'

कब जागा, सो तो नहीं मालूम, पर आया नहीं।

फिर वही शाम हुई, रात हो गई, हिमांशु के घर के दरवाजे जंगले एक-एक करके सब बन्द हो गए, और एक-एक करके सब बत्तियां भी बुझ गईं।

इस तरह सोमवार से लेकर रविवार तक सप्ताह के सातों दिन उसकी तकदीर ने जब छीन लिए, और उम्मीद को सहारा देने के लिए हाथ में जब एक भी दिन बाकी नहीं बचा, तब हिमांशु के बन्द मकान की तरफ उसकी डबडबाती हुई दर्द भरी आंखों ने एक मर्मभेदी अभिमान की फरियाद जीवन की सारी पीड़ा को सिर्फ एक ही दर्द भरी आवाज में भरकर उसने कहा, "हे दयामय!"

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