व्यंग्य (21-38) : महेश केशरी
Hindi Vyangya (21-38) : Mahesh Keshri
ड्रेनेज सिस्टम वाया पाताल लोक वाया यमलोक की यात्रा : (व्यंग्य) : महेश केशरी
ज्यादा गर्मी लग रही है, तो घबराईये नहीं। बहुत जल्दी आप ठंढानें वाले हैं। नहीं -नहीं आपको ए. सी. , फ्रीज , या कूलर खरीदने की जरूरत नहीं हैं। नहीं -नहीं आपको एकवाटिका या वाटरपार्क में भी जाने की जरूरत नहीं है। बेवजह आपको पैसे खर्चने की जरूरत नहीं है। अगर आप पत्नीजीवी जीव हैं, तो बात अलग है। लेकिन आप मितव्ययी जीव हैं। और आपको इतनी कम पगार मिलती है, कि आप बहुत मुश्किल से दिन काट रहें हैं। तो ये पैकेज या ये स्कीम आपके लिए ही है।
अगर आप खर्चीले जीव हैं। तो ये जो आइडिया या स्कीम बताने वाला हूँ। ये आपके लिए तो कतई नहीं है।
ये ऐसे लोगों के लिए है । जो आम- के -आम गुठलियों के भी दाम कहावत से भलीं-भाँति परिचित हैं।
जो मँहगाई का अभी आलम है। और जो हमें सुरसा की तरह निगलने को तैयार है। उससे कुछ हद तक बचाने की स्कीम
है।
लेकिन , अगर एकवाटिका या वाटर पार्क में जाकर आपको अपना पैसा पानी की तरह बहाना है ,तो बहाईये।
लेकिन मैं इसके सख्त खिलाफ हूँ, कि आप ठंढाने के लिए ऐसी जगह जाएँ। वैसे भी कोरोना के काल और इस साल भी
मार्च , अप्रैल और मई में वैसी गर्मी कहाँ पड़ी है। जो हमारे समय में कभी पड़ती थी।
शरीर पर मार्च -अप्रैल और मई के महीने में फफोले निकल आते थे। रात- रात भर नींद नहीं आती थी। तब बिजली घँटों गायब रहती थी। घर से छत पर जाते। और छत से वापस घर में आते।
दो - दो तीन तीन बार पेशाब , करने जाते , रात में। छत से नीचे उतरकर आते और पानी पीते। फिर सोते , फिर जागते। । रात आँखों में कटती। ये कहावत हमारे जमाने की है। लोग इसको प्रेम के संदर्भ में ले लेते हैं।
जी नहीं रात आँखों में कटी का सही मतलब है। या तो आपको खटमलों ने काटा है। या तो आपको रात में मच्छरों ने काटा है। या तो आपको रात में बहुत गर्मी के कारण नींद नहीं आई है। इस संदर्भ में इस कहावत को हम ज्यादा उपर्युक्त मान लेते हैं।
गर्मी में ना हवा चलती थी। ना ही पत्ते हिलते हुए नजर आते थे। निरभ्र आकाश में चमचमाते हुए तारे। और बादलों का तैरता गुच्छा ही दिखता था। और , बादल ललचाते हुए हमें फफोलों के साथ छोड़कर चले जाते थे।
खैर ,कोरोना के बाद मौसम का मिजाज बदला - बदला है। जनवरी , फरवरी , मार्च , अप्रैल, मई , ओलों ने और छिट-पुट बारिश ने पार लगा दी है।
इसलिए मैं आपको कह रहा था, कि पैसे ए. सी. कूलर पर नहीं खर्चना है। अब मई के आखिरी सप्ताह के बाद से धीरे -धीरे गर्मी खत्म होने लगेगी। और वर्षा रानी अपने नखरे दिखाने लगेगी।
दिलचस्प बात ये है, कि हम शहर के लोगों ने पत्ता-पत्ता , बूटा - बूटा , डाली - डाली की तरह शहर के पुल पुलियों पर भी अतिक्रमण कर लिया है।
लिहाजा शहरीकरण और नगर निगम और नगर-परिषदों की ड्रेनेज सिस्टम लाचार दिख रहीं हैं। भारी बारिश की बात छोड़ दीजिए। हल्की बारिश में भी लोग अतिक्रमण के कारण बाढ़ जैसे हालात का सामना कर रहें हैं। जब बारिश होगी तो आप जाम में फँस ही जाएँगें। और जाम में जब फँस जाएँगें तो आप तुरँत ठँड़े हो जाएँगे। आपकी दसियों लाख की कार तब माचिस की डिब्बी की तरह शहर की मामूली या भारी बारिश में तैरेगी। दिलचस्प ये भी है, कि आपने खुली छत वाली अगर कार खरीदी है। तो आपको ड्रेनेज सिस्टम की मेहरबानी से सड़क पर ही समंदर में सर्फिंग करने का नि:शुल्क मजा मिलेगा।
जैसा की प्राय: हर आदमी बेसब्रा है। यदि आप भी कार से उतरकर आगे क्या हो रहा है। देखने जाएँगें। तो आप कमर तक पानी में तैर रहे होंगें। ऐसा मेरा दावा है।
तो फिर आपको जो एहसास होगा। वो वाकई में वाटर पार्क जैसी या एकवाटिका जैसी फिलींग देगा।
मुफ्त की वाटर पार्क सर्विस !
एकवाटिका या वाटर पार्क में आप खुद जाकर भींगना। वो भी पैसे देकर पसँद करेंगें, क्या? जब ड्रेनेज सिस्टम की बदौलत ऐसा मौका आपको मुफ्त में मिल रहा हो। मैं तो नहीं छोडूँगा ऐसा मौका !
मैं ड्रेनेज सिस्टम का शुक्रिया अदा करूँगा। और आपको भी करना चाहिए, कि मुफ्त में ही वाटर पार्क का मजा दे दिया। एकवाटिका या वाटर पार्क में आप फर्जी तरीके से यानी ऊपर -ही - ऊपर से भींगेंगें। लेकिन शहर का जो ड्रेनेज सिस्टम है। वो आपको बहुत नेचुरल तरीके से भिंगायेगा। वाटर पार्क में आप लिमिटेड समय के लिए रह सकते हैं। लेकिन आप कुदरती बारिश और ड्रेनेज सिस्टम की मेहरबानी से अगर दफ्तर से तीन चार बजे निकले हैं। और इत्तेफाक से बारिश शुरू हो गई। तो फिर आप ड्रेनेज सिस्टम की मेहरबानी से दस - ग्यारह बजे से पहले घर नहीं पहुँच पाएँगे। और नगरपालिका और नगरपरिषद के लोग शहर की नालियों का ढक्कन साफ - सफाई के दौरान आजकल खुले ही छोड़ दे रहें हैं। लिहाजा, लोगों को बरसात में कहाँ गड्ढा है। और कहाँ रोड़ ये पता ही नहीं चल रहा। इसलिए लोग पाताल लोक वाया यमलोक का सीधे टिकट पा रहे हैं !
इसलिए आपको ड्रेनेज सिस्टम की मेहरबानी से पाताल लोक की यात्रा अगर करनी हो तो बरसात में ट्रेफिक में फँसकर देखिए!
कुँभ से लौटकर : (व्यंग्य) : महेश केशरी
पत्नी जी अक्सर कहती रहीं हैं , कि आप घूमने- फिरने के शौकीन नहीं हैं। मुझे आपसे शादी ही नहीं करनी चाहिए थी। आपसे शादी करके मैं फँस गई। आप मुझे कहीं घूमाने फिराने नहीं ले जाते। हमारे पड़ोस में एक भाई साहब हैं। वो अक्सर अपनी पत्नी के साथ बाहर जाते हैं। अभी कुँभ में पत्नी समेत नहाकर आए हैं। एक बार पत्नी के साथ नहाने गये थे। और दुबारा ससुर जी के साथ नहाने गये थे।
महीने भर दुकान बँद करके। वैसे हमारे जो भाई साहब हैं। वो रिमोट से चलते हैं। पत्नी जैसा - जैसा कहती है। वैसा - वैसा करते हैं। पत्नी के रिमोट से चलने वाले वो अकेले आदमी नहीं हैं। कुँभ नहाने वाले लोगों में बहुत से लोग ऐसे भी थे। जो कुँभ तो गये थे। लेकिन कुँभ में माता- बाप को छोड़कर घर वापस चले आए। कुछ इनसे भी चार कदम आगे हैं। बीमार माँ- बाप को कमरे में बँद करके कुँभ नहाने गये थे। सब लोग पाप काटने गये हैं। एक सज्जन जो हमारे पड़ोस में ही रहते हैं।बीमार माँ बिस्तर पर पड़ी रहीं। दाने -दाने को मोहताज थी। बेटा खाना भी नहीं देता था। माँ जब मर गर्ई तो उसका दाह-संस्कार बनारस में ले जाकर किया। जीते जी माँ-बाप को पानी नहीं दिया। और पितृ पक्ष में श्राद्ध और कौओं को खिला रहे हैं !
खैर , बात भाई साहब की हो रही थी। जो भाई साहब जाड़े में महीनों नहीं नहाते थे। गर्मियों में सप्ताह - पँद्रह दिन में वो भी बहुत कहने पर नहाने जाते हैं। वो पत्नी जी के कहते ही कुँभ नहाने चले गये। वो भी एक बार नहीं। दो - दो बार। भाई साहब माँ - बाप को एक कप चाय भी नहीं पूछते। माताजी बीमार रहतीं हैं। उनको दवा -दारू नहीं पूछते। लिहाजा मुझे ही सब देखना पड़ता है। हमारा और लोगों की तरह ही हम दो , हमारे दो वाले के हिसाब से देखा जाए। तो हम कुल चार जने हैं। मैं , मेरी पत्नी, और मेरे दो -बच्चे, मेरे माँ-बाप। मेरी एक बहन और मेरी भग्नि भी मेरे साथ ही रहती है। कुल आठ लोगों का साग - सब्जी , आनाज , पढ़ाई -लिखाई और दवाई में ही सब खर्च हो जाता है।
महाजनों को भी देरी बरदाश्त नहीं है। सबको समय से पैसा चाहिए। स्कूल में हर महीने पैसा डालना होता है। किराया वाला किचकिच ना करे। इसलिए उसको भी समय से पैसा चाहिए। कोई मानने को तैयार नहीं है। मैं क्या करूँ। अगर दुकान बँद करता हूँ। तो कमाई मार खाती है। समय से अगर दुकान ना खोलूँ। तो बच्चों के आहार का इंतजाम कैसे होगा। तुम्हारे शौक के सामान , कपड़े- लत्ते,गहना -गुरिया कैसे खरीदूँगा। बात समझने का प्रयास करो।
एक सप्ताह घर से गायब रहो तो घर का बजट बिगड़ने लगता है। भाई साहब घोंघी में बनाते हैं। और चुकनी में खाते हैं। दुकान चले ना चले। एक पेट है। खाया - खाया , ना खाया ना खाया। रोज शाम को पत्नी को दुकान बुला लेते हैं। शाम को घर में खाना नहीं बनता है। पत्नी के साथ होटल बाजी करते हैं।
माँ- बाप के खाने- पीने की जब बात आती है। तो हाथ खड़े कर लेते हैं। पत्नी के चाबी भरने के कारण महीना में आठ- दस दिन दुकान बँद करके ससुराल में जाकर रहते हैं। ससुराल की रोटी खाते हैं। कोई जिममेदारी नहीं है। कारण कोई खर्चा ही नहीं है। यहाँ तो महीने में दो - तीन हजार दवाई में फूँक जाते हैं !
मिस सेजल का स्वंयवर : (व्यंग्य) : महेश केशरी
मिस सेजल क्वाँरी हैं। अब तक उनकी उम्र तीस पार हो चुकी है। लेकिन उनकी शादी नहीं हुई है। जब वो सत्रह -अठ्ठारह साल की थीं। तो मुहल्ले के लगभग सारे लड़के उनके ऊपर फिदा थे। आते -जाते मुस्कुराते और उनको लव-लेटर देते। उनको देखकर आँहें भरते। लेकिन मिस सेजल किसी को भाव नहीं देतीं।
कॉलेज जातीं तो कितने ही आवारा और माशूक किस्म के लड़के उनको देखकर मुस्कुराकर मर - मर जाते। लेकिन वो उनको भाव नहीं देती थी।
इस कारण सेजल के बारे में धीरे - धीरे मुहल्ले के लड़कों में ये बात फैल गई, कि वो बहुत हद तक नकचढ़ी हैं। और किसी के हाथ नहीं आने वाली है। जब सेजल चौबीस- पच्चीस साल की हुईं। तो उनके माँ बाप को उनकी शादी की चिंता हुई। सेजल के पिताजी शहर -शहर, पड़ोसियों, रिश्तेदारों के कहने पर इधर- ऊधर लड़का देखने जाते? लेकिन मिस सेजल जी को अपने सपनों का राजकुमार जो चाहिए था। वो लाखों करोड़ों में एक हो ।
मिस सेजल अपने माँ बाप की एकलौती संतान थी। माता-पिता ने उनको बड़े नाजों से पाला था। मिस सेजल की हर बात माँ - बाप मानते थे। मिस सेजल के लिए जब लड़का देखने की शुरुआत हुई। तो लड़की वालों के यानी मिस सेजल की बहुत सी शर्तें थीं।
ये इतिहास में शायद पहली बार हो रहा था , कि लड़की की शर्तों पर शादी होनी थी। और जो इन शर्तों को पूरा करता। वही मिस सेजल का पति बनता।
मिस सेजल जी ने शादी को कभी गँभीरता से नहीं लिया। आस-पड़ोस, नाते-रिश्तेदार सब लोग तीस के बाद जोर देने लगे। लेकिन मिस सेजल के कान पर जूँ नहीं रेंग रही थी। वो पहले कैरियर बनाना चाह रही थी। इसी खब्त में उनके शादी के दिन निकलने लगे। उनको मालूम था, कि शादी ही तो है। कोई बहुत बड़ी चीज थोड़ी ही है। ताजमहल थोड़ी ही है। जिसको बनवाने में बीस साल लगे। पलक झपकते ही हो जाएगी। सफल होने के बाद तो लोग उनके पीछे -पीछे शादी करने के लिए घूमेंगे। खैर इसी उधेड़बुन में समय निकलता रहा। ना तो उनका कैरियर ही बन सका। ना ही शादी ही हो सकी। लिहाजा उनको भी लगा, कि चलो कैरियर तो ना बना सकी । लिहाजा अब शादी कर ही लेनी चाहिए। लेकिन मिस सेजल ऐसी- वैसी लड़की ना थी। वो व्यवस्था से टकराने वाली और कुछ -कुछ क्राँतिकारी युवती थीं। उन्होंने कानून की पढ़ाई की थी। लिहाजा उनके खून में हमेशा गर्मी रहती थी ।
मिस सेजल की बहुत सी शर्तें थीं। लड़का पान - बीड़ी , सिगरेट , तँबाकू किसी चीज का सेवन ना करता हो। शराबियों से मिस सेजल को सख्त नफरत थी।
लड़का अकेला होना चाहिए। यानि उसके कोई भाई - बहन नहीं होना चाहिए। लड़का गाँव में नहीं रहता हो। बल्कि शहर में रहता हो। घर अच्छा होना चाहिए। फिल्मी दुनिया में लगाये गये सेटों की तरह। यही नहीं घर अच्छी जगह पर लोकेटेड होना चाहिए। जैसे बड़े महानगरों में से कहीं। लड़का गोरा - चिट्टा होना चाहिए। लड़के की कमाई बीस - पच्चीस लाख रूपये सालाना होनी चाहिए।
और भी छोटी- बड़ी कुछ कुछ शर्तें थीं। जैसे शादी के बाद मिस सेजल को खाना - बनाना , कपड़े धोना ,बर्तन माँजना , घर की साफ सफाई करनी ना पड़े। उनको कदम -कदम पर नौकर , चाकर ,धोबी , नाई , ड्राईवर वाला घर चाहिए था। इसके अलावा शादी के तुरंत बाद उनको माँ नहीं बनना है। पाँच सात साल के बाद ही वो माँ बनना चाहेंगी। वो बच्चे को अपना दूध नहीं पिलाना पसँद करेंगी। बल्कि डब्बे का दूध पिलाना पसँद करेंगी। वैगरह -वगैरह।
जब अब मिसेज सेजल पैंतीस की नहीं चालीस की हो गईं हैं । और उनकी डिमाँड के अनुसार लड़का नहीं मिला। तो उनके पिताजी और माताजी ने स्वयंवर का आयोजन किया है। जो लोग उपरोक्त शर्तों के साथ शादी करना चाहते हैं। वो अविलंब संपर्क करें। इस स्वयंवर की घोषणा हुए भी दो साल बीत गये हैं। लेकिन किसी ने स्वयंवर में आने का कष्ट नहीं उठाया। लिहाजा ऑनलाईन आवेदन भेजने की तारीख को अगले पाँच साल के लिए बढ़ा दिया गया है ! इच्छुक व्यक्ति संपर्क कर सकते हैं।
गर्मी रे गर्मी : (व्यंग्य) : महेश केशरी
मार्च बीतते ना बीतते गर्मियों की आहट शुरू हो जाती है। और लोग आइसक्रीम, ,नींबू , शिकंजी ,अमझोरा और लस्सी पर टूट पड़ते हैं। गौर से देखा जाए तो शिंकंजी वालों , सत्तु विक्रेता , लस्सी वालों और आइसक्रीम वालों के ओवर टाइम का यहाँ से सिलसिला शुरु हो जाता है ।लस्सी के लिए गाय - भैंसों और अन्य दूध देने वाले दुधारू पशुओं को भी ओवर टाईम इसी अप्रैल- जून के महीने में करना पड़ता है। ओवर टाईम गाय -भैंस ही नहीं करते । बल्कि सूरज भगवान् भी करते हैं। वो जो सुबह पाँच बजे से आग का गोला लेकर लोगों को दौड़ाना शुरु करते हैं। तो शाम के छ: , साढ़े छह तक दौड़ाते रहते हैं। ये सूर्य भगवान् के ओवर टाईम करने का नतीजा है, कि जो बहुत तेज और जुझारू जिम करने वाले लोग होते हैं। वो भी कोना पकड़ लेते हैं। जो दौड़ने वाली मशीन पर निरंतर भागते हैं। उनको भी सूर्य भगवान् के ओवर टाईम करने से रेस्ट लेना पड़ता है।
पँखों के बाद सबसे ज्यादा वर्जिश बिजली के बोर्ड पर लगे स्वीचेज करते हैं। इनको भी इस समय लोग सबसे ज्यादा दबाते हैं। ये महीना स्वीचेज के भी ओवरटाइम करने का होता है। गर्मियों में ल़ोग निर्दयता से खटखटाते हुए इनको दबाते हैं। गर्मी का सीजन शुरु होते ही सब बातों की चर्चा जैसे खत्म हो जाती है। और जिस बात पर सबसे ज्यादा चर्चा होती है। वो बात होती है ,गर्मी की। अप्रैल , मई और जून के महीने तक लोग एक - दूसरे से यही पूछते आपको दिख जायेंगे, कि भाई आज जितनी गर्मी तो कभी पड़ी ही नहीं थी। मैनें कभी नहीं देखी थी , ऐसी गर्मी।
अरे नहीं भाई कल से ज्यादा गर्मी आज है। हाँ , वहाँ की होगी पैंतालीस डिग्री। लेकिन यहाँ भी थोड़े ही कम गर्मी पड़ रही है। कुछ लोग तो चार कदम और आगे बढ़कर बोलते हैं, कि नहीं ऐसी गर्मी उन्होंने अपनी जिंदगी में कभी नहीं देखा था । ऐसी गर्मी कभी नहीं पड़ी होगी। जैसी कि इस बार पड़ी है। और ऐसे लोग हर साल ऐसा कहते हुए बार - बार मिल जायेंगें। गर्मियों में लोग काम कम करते हैं। और सुस्ताते बहुत ज्यादा हैं। मान लीजिए अगर एक आदमी दस मिनट कहीं से चलकर आता है। तो आधे घँटे पँखें के नीचे सुस्ताता है। पँखे की तो जैसे शामत ही आ जाती है।
गर्मी आते ही महीनों से बँद पड़े पँखे को झाड़ा पोंछा जाने लगता है। तेल की डिबिया को ढूँढ़ा जाने लगता है। दिलचस्प बात ये है , कि गर्मियों में लोगों का पारा हाई हो जाता है। और आपको लोग बार -बार ये कहते हुए मिल जायेंगें , कि यार दिमाग मत खराब करो। लोगों का एक -दूसरे के ऊपर खीजना और परेशान होना इसी गर्मी में होता है। और लोगों का ये चिरपरिचत कथन आप इस मौसम में सबसे ज्यादा सुनेंगें, कि भाई मेरा दिमाग मत खराब करो। गर्मी से ऐसे ही दिमाग खराब हुआ पड़ा है।
इसी मौसम में ए. सी. को साफ किया जाने लगता है। ए. सी. ठीक से काम करे। इसके लिए उसकी सेवा सतमासू बच्चे की तरह करनी पड़ती है। टूथ-ब्रश से उसकी जाली की नियमित -सफाई करनी पड़ती है।
सबसे ज्यादा मध्यम वर्गीय परिवारों में जो झगड़े ज्यादा होते हैं। कि कूलर के किस साईड में कौन सोयेगा। इस कारण से होता है। फ्रिज में पानी का बोतल भरकर क्यों नहीं रखा । इन बातों पर ही सबसे ज्यादा माथा-पच्ची इन घरों में होती है।
कूलर में पानी भरने की आज इसकी बारी थी। तो कल तेरी बारी थी।
कश्मीर, शिमला , मसूरी , नैनीताल , की टिकटों की बुकिंग पहले ही हो चुकी होती है। बर्फ के गोले सैलानियों का इंतजार अक्तूबर से और मार्च तक करते हैं, कि कब आकर वे गोले बनाकर एक - दूसरे पर फेंकेंगें।
परीक्षा की बारी अब ए. सी ., फ्रिज , पँखे और कूलर की होती है। सबसे ज्यादा वर्जिस पँखों की होती है। एक आदमी रूम से बाहर निकलता नहीं कि दूसरा घुस जाता है। पँखा सोचता है कि चलो अमुक आदमी थोड़ा बाहर गया है। थोड़ा सा सुस्ता लिया जाए। लेकिन नहीं। तब तक कमरे में कोई दूसरा आ जाता है।
पँखा मुँह -कान टेढ़ा करके फिर से नाचने लगता है। पँखा तो अकेले आदमी चलायेगा नहीं। लिहाजा टी. वी. के रिमोट की गर्दन दबाई जाने लगती है। टी. वी. पर कोई बढिया प्रोग्राम यदि नहीं आ रहा है। तो आदमी रिमोट को साइड में रख देता है। अब आदमी मोबाइल में घुसकर मोबाइल के गर्दन को दबाने लगता है।
और उससे भी विकट समस्या बिजली की होती है। लोड़- शेड़िग की। बिजली रानी अप्रैल से जून के महीने में गूलर का फूल हो जातीं हैं। इतनी आँख मिचौली और इंतजार करवाती है , कि पूछिये ही मत। आजकल के ऑनलाईन प्रेमी जोड़े भी एक -दूसरे का उतना इंतजार नहीं करते होंगे। जितना इंतजार गर्मियों में बिजली रानी लोगों को करवाती है।
ज्यादा पावर कट वाले हिस्सों में गृहणियों का एक हाथ इंवर्टर और घर के पँखों और बत्तियों के स्वीचेज पर रहता है।
बिजली गई नहीं, कि घर के सारे लाइट और पँखों को बँद करना है।
लाइट आई नहीं , कि सब लोग अपने -अपने कमरे के पँखे को चालू कर देते हैं।
गर्मियों में सबसे ज्यादा पूछे जाने वाला प्रश्न यही है, कि लाइट आई या नहीं। आई थी चली भी गई वाह रे बिजली रानी !
बिजली रानी के पैर जमीन पर टिकते ही नहीं !
नहीं मुई बिजली को भी अभी ही जाना रहता है। सचमुच हमारे यहाँ कि बिजली व्यवस्था बहुत खराब है। और यकीन
मानिये दुनिया की जितनी भी भद्दी से भद्दी और गँदी से गँदी गालियाँ है। वो सब बिजली विभाग के लोग इसी महीने में
खाते हैं। फिर तो लोग जैसे सब भूल जाते हैं।
ये गर्मी के महीने के ओवर टाईम करने का नतीजा है , कि आदमी का एक हाथ हमेशा जेब में रूमाल खोजता फिरता है । ये गर्मी के मौसम का ही मजा है, कि लोगों को पैर मोड़कर बैठने में परेशानी होती है। पैर मोड़ा नहीं कि पसीना होना शुरू । इसको ऐसे समझना चाहिये, कि लोग दरअसल गर्मी में गर्मी से नहीं बल्कि पसीने से परेशान रहते हैं। और नाम गर्मी का लिया जाता है।
और , लोग कहते हैं, कि वो गर्मी से परेशान हैं। दरअसल बहुत समय से हम ऐसा बोलते -सुनते आ रहें हैं। इसलिए हम आदतन कहते हैं , कि यार हम गर्मी से परेशान हैं। दरअसल आप गर्मी से नहीं बल्कि पसीने से परेशान रहते हैं। लेकिन कहते हैं, कि यार हम गर्मी से परेशान हैं।
ये गर्मी के मौसम की कृपा है , कि जो लोग अपने को बहुत जब्बर और मजबूत मानते हैं। उनको गर्मियों के मौसम में लू चने चबवा देता है। और उनको आम का शरबत यानी अमझोरा पीना पड़ता है। और आम को पकाकर देह पर मलना पड़ता है।
गर्मी के मौसम की कृपा से ही लोगों के शरीर पर दाने , फोड़े , फुँसी , फफोले निकल जाते हैं। लड़कियों के चेहरे पर डार्कनेस , धब्बे इसी गर्मी की कृपा के कारण होता है।
मच्छर और रॉफेल की जरूरत : (व्यंग्य) : महेश केशरी
गौर से हम देखें तो पाकिस्तान और मच्छर एक दूसरे के पर्याय वाची शब्द हैं। दोनों छुपकर खून पीते हैं। आपको विश्वास नहीं हो रहा है। तो आप गर्मी, या बरसात में कहीं भी खुले में बैठकर , सोकर या लेटकर देखिए। मच्छर आपको काट खाएँगें। इसी तरह पाकिस्तान भी मच्छर की तरह ही है। लेकिन वो गर्मी , बरसात या सर्दी का इंतजार नहीं करता। जब मन होता है , पूरी दुनिया में जब जैसे भी मौका मिले वो लोगों को काट लेता है।
मच्छर और पाकिस्तान दोनों काटने के बाद बाथरूम या लैट्रिन में जाकर छुप जाते हैं। गँदे लोगों की गँदी पसँद ! पाकिस्तान भी ऐसा ही करता है। वो देश दुनिया की मासूम जनता को धोखे से मारता है। आमने - सामने कभी वो हमारे देश से नहीं लड़ता। उसको पता है कि सामने पड़ने पर हमारा देश उसको मच्छर की तरह मसल कर रख देगा।
पाकिस्तान को पता है , कि हमारे देश के सामने उसकी औकात एक मच्छर से ज्यादा की नहीं है। बावजूद उसके वो छिप - छिपकर हमारे देश की नीरीह जनता और सेना पर पीठ पीछे वार करता है। मच्छर भी छिपकर ही काटता है ! पाकिस्तान भी !
इसी तरह जब हम सोने वाले होते हैं। तो मच्छर लोग हमारी मच्छरदानी के पास सटकर हमारे कानों में ऊँ - ऊँ की आवाज करते हैं। गलती से आप कहीं खटिया या चौकी या पलँग पर लेट गये हैं। और मच्छरदानी नहीं लगाया है।
तब तो उस दिन मच्छरलोगों की पार्टी हो जाती है।
पाकिस्तान की भी हालत कुछ -कुछ ऐसी ही है। वो चाईना के फुसफुसिया ड्रोन से हमला करता है। वो भी छुपकर।. लेकिन हमारे बहादुर जवानों के आगे ससुरे की औकात मच्छर जितनी ही है। फट से काट कर झट से मच्छर की तरह भाग जाता है। मच्छर और पाकिस्तान दोनों बहुत छोटे हैं। बावजूद इसके पूरी दुनिया इनसे परेशान है। दुनिया के बहुत से हिस्सों में जो फिदायीन हमले होते हैं। उनको पालने - पोसने वाला पाकिस्तान ही है। मच्छर और पाकिस्तान में और भी बहुत सी बातें समान हैं। दोनों का जीवण चक्र गँदगी से शुरू होता है। और गँदगी में खत्म हो जाता है। दोनों संडास या कीचड़ में जमे गँदे पानी में जन्म लेते हैं। दोनों की सोच मे विकृति है। एक डेंगू और मलेरिया फैलाता है। दूसरा आतँकवाद।
वहीं कुछ विकसित देश भी हैं। जिनको अपना हथियार बेचना है। ये हथियार इन मच्छरों के काटने से बचाने वाला है। जिसको कि हम स्वीटड्रीम क्वाइल, स्वीट नाइट लिक्विडेटर, एँटी मॉस्कीटो क्रीम मान लेते हैं । जिसको शाँति से जिंदा रहने वाले हर देश को ये चाहिए। लिहाजा मच्छर होने चाहिए। सारा खेल इन मच्छरों का है।
इन्हीं मच्छरों को इन विकसित देशों को अपना हथियार भी बेचना है। हथियारों के खरीददार ये मच्छर ही हैं। दरअसल सही मायनों में आतंकवाद के सरपरस्त यही वो विकसित देश हैं। जिनकी सरपरस्ती में पाकिस्तान जैसे मच्छरनुमा देश उछल - उछल कर पूरी दुनिया के लोगों को काटते हैं। इन विकसित देशों ने ही इस आतंकवाद जैसी समस्या क़ो स्थायी बनाकर रखा हुआ है।
एँटी मॉस्कीटो क्रीम जिसको शरीर पर मलकर हम कुछ समय के लिए इन मच्छरों से बच सकते हैं। चाहे तो ये विकसित देश एक बार में ही ऐसे लिक्विडेटर बना सकते हैं। जिससे पाकिस्तान सरीखे मच्छर पर अगर एक बार छिड़काव कर दिया जाये। तो उनका समूल नाश हो जाए। लेकिन यहाँ बाजारवाद भी एक कारण है। इन विकसित देशों की अपनी महत्वकाँक्षाएँ और लालच हैं। उनको ताकतवर बने रहना है। और हमलोगों के लिए मच्छर जैसी छोटी -छोटी समस्या रख छोड़ना है। जिससे हम दूसरे कामों में ना लग सकें। जो विकसित देश रॉफेल बना सकता है। उसको भी तो आतंकवाद से खतरा है। चाहे तो पाकिस्तान जैसे मच्छर को तुरंत मसल दें । लेकिन इनकी नियत में खोट है। अगर मच्छर ना रहेगा। तो शाँति या अमन पसँद लोग एँटी मॉस्कीटो क्वॉईल क्योंकर खरीदेंगे ? जब लड़ने वाले देश ही ना रहेंगें। तो इन विकसित देशों के हथियार आखिर कौन खरीदेगा? इनका व्यापार चौपट जो हो जायेगा। सब लोग डर में हथियार खरीदकर रख रहें हैं। एँटी मॉस्कीटो क्वॉईल। ताकि वो चैन से सो सके। लेकिन लिक्विडेटर का जब तक प्रभाव रहता है। तभी तक मच्छर नहीं लगते। हालत ये है कि जब तक मच्छर रहेंगें। तब तक इनके हथियार बिकेंगें। इसलिए ये जो अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष है। वो पाकिस्तान जैसे मुल्क को कर्ज देता है। ताकि ये मच्छर जिंदा रहें और लोगों की नींद हराम करते रहे !
पत्नी और प्रेमिका का तुलनात्मक अध्ययन : (व्यंग्य) : महेश केशरी
पत्नी और प्रेमिका में अगर आपको चुनाव करना हो तो आप किसे चुनेंगें। जाहिर है आप प्रेमिका को चुनेंगें। प्रेमिका जी.एस.एम. मोबाईल की तरह है। जिसमें कोई भी सीम आप डाल सकते हैं। लेकिन पत्नी सी. डी. एम. ए. फोन की तरह है। उसमें उसी कंपनी का सीम कार्ड लगेगा। जिस कंपनी का फोन है। आईये पत्नी और प्रेमिका में तुलानात्मक अध्ययन करते हैं।
प्रेमिका जहाँ एसी. की ठंडी हवा है। वहीं पत्नी घर्र -घर्र की आवाज करने वाला पुराना पँखा। पत्नी जहाँ देशी ठर्रा है। वहीं प्रेमिका रेड़ वाईन।
यदि आप घर में हैं। तो पत्नी से आपको वो हर सुविधा मिल जायेगी ( पत्नी नाक -भौं सिकोड़कर वो सुविधा आपको देगी। ) जिसके आप हकदार हैं।
पत्नी का चुनाव करते समय पति को ये अघोषित वैधानिक चेतावनी नहीं बताई जाती, कि इस कंपनी के उत्पाद की कोई , गारंटी , बदली या वापसी नहीं होगी।
पत्नी स्वदेशी सामान की तरह लँबी और टिकाऊ है।
प्रेमिका चाइनीज रौशनी वाले लट्टूओं की तरह है। जो जलते - जलते कभी भी बँद हो सकती है। यानि चाइनिज सामान की तरह जिसकी कोई गारंटी वारंटी नहीं है।
पत्नी का मूड कभी भी खराब हो सकता है। पत्नी मौसम की तरह होती है। कभी भी बदल सकती है। प्रेमिका जलवायु की तरह है। या कम - से - कम ऋतुओं की तरह। प्रेमिका के मूड़ का पता आप आसानी से लगा सकते हैं। यानी जब लगे कि अब गर्मी खत्म हो रही है। और बरसात आने वाला है। उससे पहले ही आप छाता यानी दूसरी प्रेमिका का जुगाड़ बिठा लें। प्रेमिका आपको हमेशा कूल मूड़ में मिलेगी।
एक ताजा सर्वे से ये बात पता चली है, कि जिन लोगों ने शादी नहीं की। वो शादीशुदा लोगों से ज्यादा खुशहाल रहते हैं। उनमें माईग्रेन , डिप्रेशन , उच्च रक्तचाप, शूगर सब नियंत्रित पाया गया। वहीं शादीशुदा लोग रोज इन बीमारियों से ग्रसित होकर गोलियाँ खा रहें हैं ।
शादीशुदा लोगों के घर का बजट इन बीमारियों के कारण बिगड़ा हुआ है। प्रेमिका रखने वाले लोग इस मामले में बहुत भाग्यशाली हैं।उनको ओयो रूम का और खाने पीने का ही केवल खर्चा उठाना पड़ता है। पत्नी पुराने मॉडल की कार है। प्रेमिका तो बुलेट सी रफ्तार है। प्रेमिका आजीवण शैंपेन की बोतल की तरह रहती है। पतली , लचीली , सुपाच्य।
पत्नियाँ अड़ियल , जिद्दी, और छोले भटूरे की तरह फूली हुई और बेकार। पत्नी पास आती है, तो जान निकालने लगती है। हाथ - पैरों में कंपकंपी छूटने लगती है। दिल की धड़कने बढ़ जातीं हैं ( दु:ख और डर से )।
प्रेमिका को भी देखते ही दिल की धड़कनें बढ़ जातीं हैं ( खुशी से )। प्रेमिका को देखते ही दिल गार्डन - गार्डन ( बाग - बाग ) हो जाता है। पत्नी का नाम लेते ही बाग के सब फूल मुरझा जाते हैं। पत्नी और उसके खर्चे अमेरिका के रक्षा बजट तरह मँहगे होते हैं। प्रेमिका का खर्चा वेटिकन सिटी के पूरे बजट जितना होता है।
जहाँ पत्नी दाल , भात और चोखा है। वहीं प्रेमिका , काजू बर्फी और चिकन कबाब है। जहाँ पत्नी सूखी हुई रोटी और आचार है। वहीं पत्नी मई की चिलचिलाती हुई गर्मी का एहसास है। वहीं प्रेमिका आइसक्रीम सा वरदान है। जहाँ प्रेमिका सावन की हरियाली और फुहार है। वहीं पत्नी सीजनल बुखार है।
पत्नी जहाँ हटा सावन की घटा है । पत्नी मेरे अँगने में तुम्हारा क्या काम है ।
वहीं प्रेमिका चँदा मेरे आ मेरे आ .....चँदा मेरे आ.. ,
आधा तेरा इश्क ........ आधा मेरा... , बाकी हो पूरा चँद्रमा......।
तू है तो मुझे फिर और क्या चाहिए .......,
तू मेरा कोई ना होके भी कुछ लागे......।
छूने से तुझको .... भींगी रूतों को पँख लगे.......।
कैसे कटे दिन रात ...ओ सजनी रे ...
ओ कमलेआ ...... ओ कमलेआ ... गीत है।
प्रेमिका जहाँ गुलाब जामुन है , रसमलाई है । पत्नी वहीं मधुमक्खियों का छत्ता है ।
मारिये अपने अँदर के रावण को : (व्यंग्य) : महेश केशरी
आज के नफरत पसंद लोगों के लिए साहित्यकारों के लिए विचार कुछ इस तरह के हैं। ये दोगले या कथित प्रगतिवादी , साहित्यकार, कलाकार या बुद्धिजीवी हैं।
यानी जो लोग दूसरे लोगों या समाज के दर्द की बात करें। समाज से रूढ़ियों को खत्म करने की बात करें। कुछ रचनात्मक कार्य करने का काम करे। दूसरे के दु:ख को पढ़े - लिखे। वैसे प्रगतिशील लोग , बुद्धिजीवी , कलमकार कहलाने के लायक नहीं हैं। वो लोग दोगले हो जाते हैं।
बचपन से यदि हम वैसे लोगों के साथ रहें। जो कट्टर हों। तो हम भी कट्टर बन जाते हैं। संयोग कहिये कि मेरा जन्म अस्सी के दशक का रहा है। अभी के समय का होता तो मैं भी तलवार लेकर रोड़ पर दूसरे पँथ के लोगों को ललकार रहा होता। और आज का नफरती हीरो वाला खिताब पा चुका होता। दुर्योग होगा कि अभी हम जिस माहौल में रह रहें हैं। वो हमें अराजक नफरती , और कुँठा ग्रस्त बना रहा है। ऐसा समाज जिसमें लोग एक समय के बाद दूसरों से नफरत करते- करते अपने आप से भी नफरत करने लगेंगे। ऐसी चीजें हमारे आसपास तेजी से फैल रहीं हैं। लोग कहते हैं, कि दूसरे लोगों को अपने धर्म के भीतर कमियाँ नहीं दिखाई देती। और वो अँधों की तरह उसका अनुकरण करते हैं। वो सालों से उसी लीक पर चल रहें हैं।
फिर सवाल उठता है, कि उनमें और जानवरों में भला अंतर क्या है। जानवर भी खाता और हगता है। उसके बाद बच्चे भी पैदा करता है। जानवर से हम इस मायने में अलग हैं, कि ईश्वर ने हमें सोचने समझने की ताकत दी है। यही चीज हमें इस धरती पर औरों से अलग करती है। सोचने की ताकत यानी, बुद्धिमत्ता !
तो फिर उदार मानवीय मूल्यों का क्या मूल्य है। दिलचस्प बात ये है, कि आज के युवा और साठ साल के बुजुर्ग भी कट्टर होने की सलाह देते हैं। हम कट्टर क्यों हों। उदार क्यों नहीं। कट्टर बनेंगे, तो तालिबान की तरह हो जायेंगे। अभी कट्टरता वाला समय है। मदद के लिए कोई आगे नहीं आता। सब लीपा- पोती में लगे हुए हैं। अपने -अपने खोल हैं। सब उसमें सुरक्षित होना चाहते हैं। माहौल को खराब किया जा रहा है। जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था में हम रह रहें हैं। वो उदारवाद की देन है। ये पश्चिम के मूल्य हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था, समता का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार। ये कट्टर होने के बाद नहीं मिलने चाहिए। आप अगर तालिबानी सोच के हैं। तो फिर रहिये लालटेन वाले युग में।
लोग दूसरों को देखते हैं। दूसरे की बेवकूफियाँ देखते हैं। और फिर वैसी ही बेवकूफी करने के लिए तैयार हैं। दिलचस्प बात ये है कि,वो बड़े - बड़े अख़बारों में मोटिवेशनल आलेख लिखते हैं। सोचिए ऐसे लोग दूसरों को भला क्या मोटिवेट करेंगें! जो आकंठ पाखंड या कुँठा से लेश हैं। जो अपने अलावे दूसरों को हीन समझते हैं। वो चाहते है़ कि हम भी उनकी तरह ही उग्र बनें। हम भी उनकी तरह कट्टर बनें। जिससे हम कम -से- कम उस कौम के प्रति वफादार रहें। भले ही हम इंसानियत को ताक पर रख दें। भलाई करना भूल जाएँ। दरअसल वो अपनी तरह ही हमें कुँठित बनाना चाहते हैं। उनको पता नहीं है, कि कुँठित और कट्टर बनने के बाद हमारी मानवीयता और आत्मीयता जाती रहती है। तब हम एक चलती फिरती लाश होते हैं। ऐसी स्थिति में हमारी रचनात्मकता जाती रहती है। कट्टर होने के बाद हमारा व्यक्तित्व कुँद हो जाता है। और यही नफरत हमें अपने आप से भी नफरत करना सीखा देता है। ऐसे लोगों से मैं यही कहना चाहता हूँ, कि अपनी ऊर्जा को सकारात्मक कार्यों में लगाएँ। आपकी नकारात्मकता आपको ले डूबेगी। नफरत से सिर्फ हम नफरत कर सकते हैं। लेकिन प्रेम से हम पूरी दुनिया जीत सकते हैं। सिकंदर ताकतवर था। वो दुनिया को अहंकार से जीतना चाहता था। लेकिन हार गया। क्योंकि वो प्रेम से नहीं कुँठा और अहँकार से दुनिया को जीतना चाहता था। ऐसे ही कुँठित लोग सल्फास खाकर या फँदे पर झूलकर आत्महत्या कर लेते हैं।
आपके अँदर एक रावण है। उसको मारिये नहीं तो वो आपको मार देगा।
चूहों की लापरवाही और शराब : (व्यंग्य) : महेश केशरी
दुनिया में जहाँ बहुत सारे सुख हैं। वहाँ गैर जिम्मेदार होने का सुख भी बहुत अनुपम सुखों में से एक है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, कि इस सुख का मजा कोई जिम्मेदार व्यक्ति कभी नहीं ले सकता। जितना सुख गैरजिम्मेदार व्यक्ति लेता है। ऐसे लोग हमारे देश में बहुत तादाद में मिल जायेंगें। जो आसानी से चीजों को गुमा देते हैं। गुम जाना जैसे कोई छोटी बात हो। या कोई बहुत ही सामान्य घटना हो उनके लिये।
गृहणियाँ गुमाने में बहुत होशियार होती हैं। ऐसी ही एक गृहणी बड़े भाई की माताजी भी हैं। जो चीजों को बहुत जल्दी गुमा देतीं हैं। और बड़े भईया के पिताजी चीखते - चिल्लाते रहते हैं, कि तुम्हारा रखा हुआ सामान भगवान् को भी नहीं मिलेगा। मैं कभी- कभी सोचता हूँ, कि जब भगवान् ने दुनिया बनाई है। और उसी दुनिया में बड़े भाई साहब के माँ को भी बनाया है। तो भगवान् को कैसे पता नहीं होगा, कि अमुक चीज कहाँ रखी हुई है। बहरहाल , बड़े भईया के पिताजी भी कम नहीं है। एक बार बस से कहीं जा रहे थे। तो अपना बैग गुमा दिया।
गैर जिम्मेदार लोगों की पहचान।
1 चीजों को जहाँ से उठायेंगे. वहाँ नहीं रखेंगे।
2.आपसे लिया सामान लेकर भूल जायेंगे।
3. उनका जूता कहीं और मिलेगा और उनकी जुराबे कहीं और।
4.आपको समय देकर भूल जायेंगे।
ये अपनी गैरजिम्मेदारी को अपनी भूलने वाली खोल में छुपाकर रखते हैं। जैसे ही आप कहेंगें। आप बहुत गैरजिम्मेदार हैं। वो अपनी बत्तीसी चमका देंगे। कहेंगें क्या करें सर भूल जाता हूंँ। उनके पास एक खोल है। भूलने की आदत वाली। कछुए की तरह जब भी उनको कहीं से खतरा महसूस होता है। वो भूलने की खोल में छुप जाते हैं। और दाँत दिखा देते हैं। ऐसे लोग प्राय: आपको हर जगह मिल जायेंगें।
जिम्मेदार लोग तरह - तरह की जिम्मेदारियाँ निभाते -निभाते एक दिन टें बोल जाते हैं। मौज में रहते हैं गैरजिम्मेदार लोग। ऐसे ही एक गैर जिम्मेदार लोग में हैं। छोटे भाई साहब। छोटे भाई साहब गैर जिम्मेदार हैं। इतने गैरजिम्मेदार हैं, कि सब कुछ भूल जाते हैं।
सबकुछ मतलब सबकुछ। जिम्मेदार लोग किशोरावस्था से जिममेदारी उठाने लायक हो जाते हैं। और उठाते भी हैं। इनमें ढाबों पर काम करने वाले छोटी - छोटी उम्र के लड़के आपको दिख जायेंगे। वक्त ने इनको बहुत कम उम्र में ही बड़े - बड़े तेजाबी तजुर्बे दे दिए होते हैं।
और गैरजिम्मेदार लोग साठ में भी खाट तोड़ते नजर आ जायेंगे।
गुमाने में सचिवालय भी अव्वल आता है। अभी प्रदेश में नियुक्ति से जुड़ी फाईलों में आग लग गई। व्यंग्य की भाषा मे अगर हम गुमाने और आग लगने की घटना को एक ही मान लें। जिसको कम -से -कम मुझे व्यंग्यकार होने के चलते छूट मिलनी चाहिए। क्योंकि दोनों घटनाओं में लापरवाही ही नजर आती है।तो सचिवालय से नियुक्ति की फाइलें गुम गईं या जला दी गईं। दोनों को अपनी सुविधा के अनुसार आप कुछ भी मान सकते हैं। लेकिन मैं गुम होना ही मान लेता हूँ। बिहार में हजारों काटून शराब चूहे पी गये। इसे भी हम चूहों की लापरवाही ही मान लेते हैं। और ये कह सकते हैं , कि चूहों ने शराब की हजारों बोतलें कहीं गुमा दी। इस हिसाब से अगर देखा जाए। तो अब आदमी के साथ - साथ जानवर भी गैर जिम्मेदार हो गये हैं!
भूलने के अपने फायदे हैं। आप खुद चीजों को भूलकर दूसरों को टेंशन दे दीजिए। भूलने से आपको एक तरह के नहीं बल्कि अनेकों फायदे हैं। भूलने से आपका दिमाग चुस्त - दुरूस्त रहता है। आप हमेशा टेशन फ्री रहते हैं। भले ही लोग आपको गैर-जिम्मेदार कहें। आपका कौन सा घर से कुछ लगता है। गैर-जिम्मेदार शब्द आपके शरीर से थोड़े ही चिपक जाता है। भूलने से आदमी का ग्लूकोज नियंत्रित रहता है। बी. पी. की समस्या नहीं रहती !
नाक के नीचे : (व्यंग्य) : महेश केशरी
दुनिया में बहुत तरह के नाक होते हैं। लंबी नाक , मोटी नाक , पतली नाक . नाक की बनावट भौगोलिक परिस्थितियों और जलवायु के प्रभाव के कारण भी अलग - अलग होती है। हमारे देश में बहुत सी बातें कहीं गई हैं। जो मुहावरों में देखी सुनी और पढ़ी जाती हैं। नाक का बाल होना .मतलब गर्व किये जाने लायक काम करने वाला। नाकों चने चबवाना। मतलब बहुत ज्यादा परेशान करना। क्रिकेट और दूसरे मैचों में लोग देश की प्रतिष्ठा बचाने की बात को नाक बचाना कह लेते हैं। अजीब संयोग है कि जिस नाक को हम आजीवन बहुत देर तक देख भी नहीं पाते। लेकिन उसको लेकर प्राण दिए रहते हैं। दिन भर में एक बार अगर गलती से भी अपनी नाक को कभी ढँग से हम देख पाये। तो शायद ये बहुत बड़ी बात होगी। ऐसा सबके साथ होता है। कभी आप रोजमर्रा की जिंदगी से समय निकलकर देखियेगा। आप अपनी नाक को एक मिनट भी ठीक से नहीं देख पाते। जिस नाक को हम अपनी दोनों आँखों की पुतलियों को बहुत सीधा करके भी नहीं देख पाते। उसी नाक के लिए हम आजीवण लड़ते रहते हैं। ये आखिर है क्या। नितांत हमारी कुँठा ! इसी को हम नाक कहते हैं। जब हम बेबस हो जाते हैं। और , अपनी कुँठाओं का दमन नहीं कर पाते तो नाक का सवाल बना लेते हैं। अपनों से , खासकर रिश्तेदारों से हम मनमुटाव कर लेते हैं। उनके जैसा मकान , उनके जैसी कार , उनके जितना वेतन , उनके जितना बैंक बैलेंस जब तक नहीं हो जाता हम नाक उठाकर नहीं चल सकते। हमारे सामने भला उनकी औकात ही क्या है ?
इसी नाक के लिए आदमी तीन की जगह तेरह देने को तैयार हो जाता है। डाक जब पड़ती है। तो यही चलता रहता है। टेंडर मुझे मिलना चाहिए. नुकसान होगा तो होगा . बहुत कमाया है . इस बार घर से घाटा देंगें। लेकिन तुमको खत्म कर देंगें। बच्चू तुमको ये टेंडर नहीं लेने देंगें। तुमको नाकों चने चबवा देंगे। हो किस फेर में। अपना माल खरीद दाम पर बचेंगें। लेकिन तुमको नहीं बेचने देंगें। लोग आन में कान कटाने को तैयार रहते हैं। लेकिन आन में कान नहीं कटता। नाक कट जाती है। और उनको पता भी नहीं चलता !
खापों में नाक बहुत ऊँची है। उनके फैसले नाकों के लिए किये जाते हैं। वहाँ ऑनर किलिंग आम बात है। नाक के लिए। जिंदा लोग टाँग दिये जाते हैं। नहीं तो टँग जाते हैं। हुक्का- पानी बँद होने का खतरा है। समाज से खदेड़ेजाने का भय। रोटी - पानी , दिया -सलाई ना मिल पाने का दु:ख। ये कैसी नाक है। जो सामने की दोनों पुतलियों को सीधा कर पाने के बावजूद ना दिखे। उसे कुँठा में भरकर हम दिन रात देखें। उसके लिए तिल-तिल जलते रहें।
कहते हैं कुत्ते की नाक बहुत तेज होती है। लेकिन कुत्तों में नाक के लिये लड़ाई नहीं होती। कुत्ते नाक के लिए नहीं लड़ते। आदमी नाक के लिए लड़ता है। इतना लड़ता है कि लड़ते - लड़ते वो आदमी से कब जानवर बन जाता है। उसको पता ही नहीं चलता। इस मामले में कुत्ते आदमी से ज्यादा समझदार हैं! कम- से- कम बेअक्ल होकर अक्ल वालों को मात दे रहे हैं। महिलाओं की नाक बहुत तेज होती है। वो गाँव -समाज में सूँघ लेती हैं। कि किसका किससे चक्कर चल रहा है। किसका गर्भ कितने महीने का है। किसके घर में बाप और बेटे की नहीं बन रही है। किस घर में सास पतोहू में अनबन है। गाँव - समाज की औरतों के नाक के सूँघने की क्षमता सबसे ज्यादा होती है।
सत्तासीन या सरकार में बेठे लोग बड़े - बड़े घोटालों को अँजाम दे देते हैं। और ये उसी नाक का कमाल है। कि जिन प्रशासनिक अमलों के नाक के नीचे ये सब होता है। उनको कुछ पता ही नहीं होता !
पत्नी और हार : (व्यंग्य) : महेश केशरी
हार की कामना कौन करता है। लेकिन कुछ लोगों को इस प्रतिस्पर्घा के युग में जहाँ सब लोग जीतने के लिए ऐडी-चोटी का जोर लगा दे रहें हैं। इस गाढ़े वक्त में भी कुछ लोगों को हार चाहिए। सब लोग जीतने की कामना करते हैं। हार का महत्व जीतने के बाद है। जीत गये तो हार चाहिए। फूलों का हार , गेंदे का केसरिया हार , चंपा का हार , रजनीगंधा का हार , बिना हार के जीतने वाले का स्वागत कैसे होगा।
लेकिन शायद आप गलत सोच रहें हैं। आज के समय में भी लोगों को जीत से ज्यादा हार प्यारी है। और उनको हार चाहिए। अव्वल तो इसमें जो पहला नंबर है। उसमें हमारी श्रीमती जी हैं। जिनको हर दूसरे- तीसरे दिन हार चाहिए। नहीं जी लड़ने झगड़ने में तो उनका कोई सानी नहीं है। यहाँ पर उनको केवल जीत चाहिए। दूसरे हार की बात हो रही है।
खैर , छोड़िये। दूसरे आजकल हर गली - मुहल्ले में जो टपोरी टाइप लड़के आपको मिल जायेंगें। उनको अपनी प्रेमिकाओं से हार चाहिए। तीसरे चुनाव में जीत दर्ज करने वाले जो नेताजी हैं। जिनको जीतने के बाद हार चाहिए। चौथे वो जो जीवण की एकदम नई पारी को खेलने की शुरूआत करने वाले हैं। यानी जयमाल के समय उनको एक - -दूसरे को पहनाने के लिए हार चाहिए। मैदान में खिलाड़ियों का स्वागत करने के लिए हार चाहिए।
मेरी श्रीमती जी गाहे बगाहे -हार की चर्चा करती रहतीं हैं। और मैं अक्सर श्रीमती जी को टालता रहता हूँ, कि हार की तुम्हें भला क्या जरूरत है। तुम्हारे प्यार में मैं पहले ही क्लीन-बोल्ड हो चुका हूँ। जब भी तुम बॉल डालती हो। मैं तुम्हारी आँखों में खो जाता हूंँ। और तुम मुझे अपनी गुगली से हर बार घायल कर देती हो।
जब ज्यादा गुस्सा करती हो। तो अक्सर योरकर गेंद भी डालती हो। और मैं मिडिल विकेट की तरह धरती पर दंडवत करने लगता हूँ। खैर ये तो रही क्रिकेट की भाषा में तुम्हारी तारीफ। मैं तुम्हारी तारीफ में ये कहना चाहता हूँ, कि तुम इतनी खूबसूरत हो, कि तुम्हें देखकर स्वर्ग की अप्सराएं भी शरमा जाएँ। तुम्हारी जैसी अप्सरा को देखकर ही किसी गीतकार ने ये गीत लिखा होगा । कि ना कजरे की धार। ना मोतियों के हार। ना कोई किया श्रृंगार। फिर भी इतनी सुंदर हो।
तुम्हारी गोरी , नर्म मुलायम गर्दन पर सोने का हार अपनी सुंदरता में फीका पड़ जायेगा। क्यों सोने का उपहास अपनी गर्दन में पहनकर करवाना चाहती हो। तुम्हारी कंचना काया के आगे हीरे - जवाहरात, नीलम - पन्ना सब बेकार हैं। तुम्हारे हँसने से चाँदनी छिटकती है। तुम्हारे मुस्कुराने से दिशायें मुस्कुराती हैं। तुम कालिदास की एतिहासिक काव्य की कविता हो। तुम जब बोलती हो। तो लगता है जैसे किसी बाग में कोयल ने कू की है। दिल करता है कि तुम्हारी कू - कू ताउम्र सुनता रहूँ । तुम्हारे नैन - नक्श हिरणी की तरह हैं। इतने विशिष्ट गुणों से बनी तुम इस धरती पर कोई साधारण स्त्री नहीं हो। तुम एक असाधारण स्त्री हो। सोना -चाँदी , हीरा- पन्ना, नीलम - मुँगे की चाह साधारण स्त्रियों को होती है। तुम विशिष्ट हो ! विशिष्ट लोग साधारण लोगों की तरह बात नहीं करते। रानी लक्ष्मीबाई, रजिया सुल्तान , सरीखी विशिष्ट महिलाओं को कभी इन सोने - चाँदी सरीखे चीजों की कभी चाह हुई है। फिर तुम सोने - चाँदी के फेर में क्यों पड़ी रहती हो।
लेकिन श्रीमती जी को जबतक ये बातें और उनकी तारीफ में जब तक मैं ये कसीदे पढ़ता रहता हूँ। बस उतनी देर तक ही वो शाँत रहती हैं। उसके बाद सब भूल जातीं हैं। नहीं भूलतीं तो हार की बात !
लेकिन हार का भूत है, कि विक्रम और बैताल की कहानी की तरह विक्रम के कँधे से नीचे उतरने के कुछ ही देर बाद पुन: विक्रम के कँधे पर सवार हो जाता है। श्रीमती जी को हार के अलावे कुछ नहीं चाहिए। श्रीमती जी की हर दूसरी बात के बाद हार की बात याद आ जाती है। मैं श्रीमती जी को समझता हूँ, कि श्रीमती जी अभी जमाना खराब चल रहा है। लोगों के पास काम -घाम नहीं हैं। लोग चैन स्नेचिंग कर रहें हैं। हार की खूबसूरती देखकर लोग क्या करेंगें। लोगों के पास जब खाने को नहीं रहेगा। और आप हार पहनकर चलेंगीं। तो उनके दिलों पर छुरियाँ ना चलेंगी। कि आप खाये - पिए अघाये लोग हैं। आपके पास इतना है, कि आप खा पीकर सोने का हार पहनेंगीं। और हम देखते रहेंगे। इस आर्थिक विषमता ने लोगों को ये एहसास करवाया है , कि एक आदमी भूखों मरे। और उसी समाज में कोई हार पहनकर चले। ये उनकी पूरी तरह से हार है। अलबत्ता वो हारना नहीं चाहते। और पेट के लिए संघर्ष करते हैं। श्रीमती जी आप क्या चाहती हैं, कि लोग आपकी सुराहीदार गर्दन को स्नेच करके लहूलुहान कर दें। आपको ये गवारा है ? श्रीमती जी इस बात को कुछ देर के लिए समझतीं हुई नजर आतीं हैं। लेकिन महीने-पँद्रह दिन में फिर वो हार की बात पर आकर हार के लिए जिद करने लगतीं हैं।
मुँह जोहने वाले लोग कहाँ मिलेंगे : (व्यंग्य) : महेश केशरी
पत्नी और सम्मान दो विपरीत ध्रुवों की तरह हैं। होते तो वे एक ही ग्रह पर हैं। लेकिन उनका मिलना कभी संभव नहीं होता। या यूँ कह लें कि आप दुनिया की नजर में चाहें जो हों लेकिन पत्नी की नजर में आपकी औकात थाली के बैंगन जितनी है। या बॉस के सामने चपरासी की जो औकात होती है। वही औकात पति की पत्नी के सामने होती है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, कि इस दुनिया में बहुत से लोगों से मेरा मिलना- जुलना रहा है। लेकिन कोई भी मुझसे जी , आप , सर , महोदय, महाशय इत्यादि सम्मान जनक शब्दों से ही मेरा स्वागत सत्कार करता रहा है। लोग मुँह जोहते हैं। बात करने के लिए। सोचते हैं। कभी तो ये आदमी कुछ कहेगा। ना कभी अच्छा बोलता है किसी से ना ही कुछ खराब। कैसा आदमी है , ये।
लोग सोचते हैं। ये कभी तो कुछ अच्छा -खराब अपने मुँह से कहे । खराब कहकर अपना मुँह और किसी दूसरे का मूड़ क्यों खराब किया जाए। ये हमारा बड़प्पन है कि आदमी को बस काम से काम रखना चाहिए।
इस एक आदत ने कहीं का नहीं छोड़ा है। लोग घमंडी भी समझते हैं। समझते हैं तो समझें। बेवजह क्यों किसी से कुछ कहना। लोग ऊँगली पकड़कर हाथ पकड़ लेते हैं। आप अपना सामाजिक दायरा बढ़ाईये। देखिये आपको नोंचनेवाले लोग पैदा हो जाते हैं , या नहीं। आपकी पैदा की हुई संतान आपकी नहीं होती। बाहर के लोग भला क्या खाक आपके होंगे। जिनको लोगों से लाग लपेटा या लेना देना हो। वही मतलब रखें।हमें क्या हमें ना तो आधो से लेना है। ना माधो को देना है।
इन चीजों से आप बाहर थोड़ा असमाजिक, या अव्यवहारिक होकर काम चला सकते हैं। इससे यकीन मानिये फायदा ही होता है। फायदा नंबर एक बेकार के दोस्तों से आपका कीमती समय नष्ट होने से बच सकता है। आप ये समय चिंतन- मनन , ध्यान- साधना , योग , पूजा -पाठ या सद् साहित्य पढ़कर बीता सकते हैं।
चाय- कॉफी ,पान -तँबाकू , बीड़ी - सिगरेट, छोले - कुलछे, चाट - पकौड़ौं जैसी अस्वास्थ्यकारी चीजों से दूर रह सकते हैं। सामाजिक दायरा बढ़ाने के बाद आप ना चाहते हुए भी इन चीजों से दूरी नहीं बना सकते। ये चीजें जब तक आप समाज से दूर रहते हैं। तब तक आपके लिये वैकल्पिक हैं। आपके पास ऑप्सन है। लेकिन जैसे ही आप ज्यादा सामाजिक हुए आपके पास सारे विकल्प धीरे - धीरे खत्म होने लगते हैं। तो ये तो रही समाज की बात।
आप जितना समाज में रहकर लोगों से बचते हैं। आप एक आवरण बनाकर जीते हैं। आप लोगों से हर तरह के संपर्क से बचना चाहते हैं। जो लोग आपका बाहर में मुँह जोहते हैं, कि बँदा कभी तो बोलेगा। कुछ तो बोलेगा। जो बाहर के लोग आपके लिये पलक - पाँवड़े बिछाये रहते हैं। किसी हलवाई के समान। जिसके दुकान पर कोई सम्मानित व्यक्ति आया हो। हलवाई कह रहा हो। सर गुलाब जामुन चखिए। मुँह में डालते ही घुल जाएँगे। ये बर्फी खाकर देखिए गजब की मुलामय है। मुँह में डालते ही घुल जायेगी। आपकी एक- एक अदा पर लोग समंदर में कूदने को तैयार हों। आपकी एक झलक मिल जाने से लोगों का दिन बन जाता हो। आपको लोग जहाँ हाथों -हाथ लेते हों।
घर आते ही आपका वो मजबूत और अटूट किला धराशायी होकर गिर जाता है।
अपने काम के अलावे आप दुनिया में किसी और के प्रति उतना जबाबदेह नहीं हो सकते। कहा भी गया है। कर्म ही पूजा है। आप थोड़ा बहुत ऊपर नीचे मैनेज कर लेते हैं। बॉस है तो बोल दिया। चलता है।
लेकिन जब आप घर आते हैं। तो छोटी- छोटी चीजों के लिए बेकार में चिक-चिक होने लगती है। आप हर उस चीज के लिए उत्तरदायी ठहराये जाते हैं। जिसका आपके साथ थोड़ा -बहुत या ना के बराबर ही संबंध रहा है। आदमी अपने काम और जिम्मेदारियों के प्रति उत्तरदायी है। वो भी काम के घँटों के दौरान। आप घर आते हैं रिलेक्स करने के लिए। अब छोटी -छोटी बातों के लिए टोका-टाकी चालू हो जाती है। फ्रिज में पानी की बोतल भरकर क्यों नहीं रखा। अभी- अभी पोंछा लगाया था। तुमने घर गँदा कर दिया। उतना ही थाली में लिया करो। जितना खा सको। तुम क्या खाओगे या क्या नहीं खाओगे। ये बताकर जाया करो। खाना एक ही बार गर्म होगा। बार- बार नहीं। बच्चों की फीस इस महीने क्यों नहीं भरी। टीचर बच्चों को भला -बुरा कह रहीं थी। काम करने वाली कोई बाई रख लो । तुम्हारे और तुम्हारे घरवालों के नखरे बहुत बढ गये हैं। देहिये - देहिये खाना नहीं बनेगा। जो बन गया है। वही खाना पड़ेगा। सहसा राजा होने का भ्रम जाता रहता है। आप तुरंत अर्श से फर्श पर गिर जाते हैं। आपको याद आने लगते हैं। आपका मुँह जोहने वाले लोग!बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले। अगर मुँह जोहने वाले लोग इस हालत में देख लें, तो कितनी बेईज्जती होगी !
हिंदू हैं , लेकिन हिंदी नहीं चाहिए : (व्यंग्य) : महेश केशरी
ये तो वही बात हो गई। कि गुड़ खाते हैं लेकिन गुलगुल्ले से परहेज है। मैं शर्तिया बता सकता हूँ। कि आपका इलाज कोई डॉक्टर नहीं कर सकता। या तो आप गुड़ खाते ही नहीं। ना ही आपका गुलगुल्ले से कोइ संबंध है। लेकिन आप अपने आपको हलवाई भी कहते हैं। आप दावा भी करते हैं, कि आपकी पार्टी सबसे स्वादिष्ट रसगुल्ले बनाती है। और गुड़ और रसगुल्ले को सबसे ज्यादा प्रमोट भी आप ही करते हैं। संरक्षक संहारक नहीं हो सकता। आपके कथन में विरोधाभाष है। आप संरक्षक भी हैं, और विरोधी भी।
आपका पूरा हलवाई समाज कहता है। दूसरे धर्म के लोगों के बारे में। कि पहले देश फिर राज्य। तब आप क्या ऐसा नहीं सोचते, कि नेशन फर्स्ट।
इसी हिंदुस्तान का महिमा मंडन करते आप थकते ना थे। इसी नेशन को आर्यावर्त, हिंदुस्तान, भरत , से भारत के नाम से जाना जाता है। आर्यों की समृद्ध , सभ्यता। जो पाँच हजार सालों की रही है। इस सभ्यता का जिक्र आते ही आपकी छाती गर्व से फूल जाती है। गर्व से आपका सीना चौड़ा हो जाता है। फिर आप हिंदी का विरोध क्यों करते हैं। या आपके लिये नेशन फर्स्ट नहीं है। आपके लिये राज्य फर्स्ट है। वहाँ की क्षेत्रियता फर्स्ट है। यानी आप हिन्दुस्तानी नहीं हैं। आप केवल मराठी हैं। पहले तय कर लीजिए। आप देशभक्त हैं या राज्य भक्त। आपके पुरखे तो हिंदुस्तान के लिए हिंदूओं के लिए जान देते थे। आपके पुरखों ने केसरिया अपनाया। केसरीया वालों के साथ चले। आपका ज्ञान बताता है, कि देश के संविधान में बाइस भाषाओं में हिंदी भी एक भाषा है। अरे भाई साहब हिंदी केवल भाषा नहीं है। देश की आत्मा है। हिंदी को निकाल दें तो देश में शून्य बचेगा।
देश में अस्सी से नब्बे फीसदी लोग हिंदी भाषा बोलते हैं। समझते भी हैं। क्या कहा। आपको अपने राज्य के कोर्स में हिंदी को तीसरी भाषा के रुप में उसको अनिवार्य करने से आपका विरोध है। भाई मैं आपको ये कहना चाहूँगा कि हिंदी देश की आत्मा है। इसलिये मेरे और देश के और नागरिकों के हिसाब से भी। उसको पहली अनिवार्य भाषा के रूप में वहीं नहीं देश के सभी राज्यों में अनिवार्य कर देना चाहिए। आप हिंदी नहीं लिखना- पढ़ना जानते। वो भी अपने ही देश में। तो भारतीय होने के नाते हमलोगों को डूब मरने की बात है। और आप जो प्रजा के और भाषा के इतने ही बड़े शुभचिंतक होते। तो आपको आपके राज्य की जनता विपक्ष में बैठने को ना कहती। इसलिए भाषा का विरोध खासकर हिंदी का करना छोड़िये। केसरिया के साथ आपके बाप- दादा चले थे। आप भी चलिये!
स से सहलाईये : (व्यंग्य) : महेश केशरी
ये जुबान का ही कमाल है। कि कुछ लोग जुबान की वजह से पान खाते हैं। और कुछ लोग लात। मीठी जुबान से लोग अपना बहुत पुराना फँसा हुआ काम भी निकाल लेते हैं। दौर बदला है। तो जुबान के साथ - साथ लोगों को अब थोड़े पैसे भी खर्चने पड़ते हैं। लेकिन अभी - भी जुबान की कीमत कम नहीं हुई है। कमिटेड होकर नहीं।
स से सहलाकर भी आप ये काम कर सकते हैं। बस आपको मौका देखकर चौका मारना है। यानि सहलाना है। आजकल लोग सहलाकर ही सारा काम निकाल रहें हैं। बिना सहलाये आपको जेब ढीला करना पड़ सकता है। और जब सहलाकर काम चलाया जा सकता है। तो फिर जेब ढीला करने की क्या जरूरत है। सब सहलाते हैं अपनी अपनी जरूरत से।
नेताजी आजकल सांप्रदायिकता में सुलगाकर लोगों को सहला रहें हैं।
रात को पति , पत्नी के पाँव सहलाता है। डिमांड पूरा करवाने के लिए करवाचौथ पर पत्नी, पति के पाँव सहलाती है। सहलाने की भी अपनी जुबान है। बहुत कोमल। आप तरह -तरह से सहला सकते हैं। सहलाना दर असल मानव का गुण बनता जा रहा है। चुनाव आता है। तो नेताजी सहलाने लगते हैं। टीचर का पैर स्टूडेंट परीक्षा परीणाम से पहले सहलाता है। बिना सहलाये कोई काम नहीं हो सकता है।
सहलाने वाले हैं। तो समय की कद्र मत कीजिये। सफल अभिनेता हमेशा लेट से आता है। इंतजार करवाइये। इंतजार का मजा आपने लिया है या नहीं लिया है। अगर नहीं लिया है। तो अपने किसी मनचले दोस्त से पूछिये। इंतजार का मतलब जब लड़की आपको किसी कैफे में घँटों इंतजार करवाती है। वैसे भी आप किसी नेता अभिनेता की तरह लोगों को इंतजार करवाइये। जो सस्ता और सुलभ है। उसकी कोई कीमत नहीं है। जो चीज लंबे इंतजार के बाद मिले। उसका सुख ही कुछ और है !
आप सहलाने वाले हैं। तो आपको लेट-सेट होने से भी कोई आपका क्या बिगाड़ लेगा। जब सैंया भैये कोतवाल तो डर काहे का।
सबको सहलाईये। ऊपरवाले से लेकर नीचे वाले तक। ऊपरवाला ये सोचकर कि चलो हटाओ ये तो जुनियर है। और बेचारा सहलाता भी बहुत बेहतरीन तरीके से है। ये कहकर आपको माफ कर देगा। नीचे वालों की भी आप सहलायिये । नीचे वाला सोचेगा कि सीनियर है। और सीनियर होकर जुनियर की सहला रहा है।
यही क्या कम बड़ी बात है। बेचारा चलो जैसा भी है। लेकिन सहलाता बहुत बढ़िया है। सहलायियेगा तो सीनियर तो आपकी बात मानेगा ही। जुनियर भी आपके पेंडिंग पड़े काम कर डालेगा। बस मक्खन लगाते जाईये। और कुलीगों को निपटाते जाईये।
साहब की चाकरी के बहुत से फायदे हैं। ऑफिस जल्दी आकर क्या कीजियेगा। कल के पेंडिंग काम को निपटाईयेगा। अपना काम अपने कुलीग को बताईये। बहाने बनाईये। अपनी पीठ दर्द का। या तो कह दीजिए। पेट में दर्द है।
समय से ऑफिस मत आईये। साहब की चाकरी कीजिए। साहब चालीसा दिन -रात पढ़िये। उसका ही जमाना है। आप जितनी जी- हुजूरी करेंगें। आपको उतनी जल्दी तरक्की मिलेगी। साहब का माली बन जाईये। साहब का शोफर बन जाईये। साहब की हाँ -में- हाँ मिलाईये। उसका ही जमाना है। आप जितना स्वामीभक्त होंगे। उसका आपको उतना ही फायदा मिलेगा। दुनिया में जितने भी सफल लोग आज आपको दिखाई देते हैं। वो इसी स्वामीभक्ति के कारण सफल दिखाई देते हैं। मैं लोगों को अक्सर मक्खन लगाते देखता हूँ। बात साहब को सलाम करने से ही शुरू करनी चाहिए। किसी से काम लेना है। तो सुबह शाम उसको गुड मार्निंग, गुड ऑफ्टर नून कहिये। आपका काम जो महीनों में होने वाला है। वो एक सप्ताह में हो जायेगा। ये सब लच्छेदार जुबान के कारण ही संभव हो सकता है। जो हर सहलाने वाले के पास होती है!
जुबान और उसकी कीमत : (व्यंग्य) : महेश केशरी
पहले जुबान की बहुत कीमत होती थी। उन दिनों लोग कागज पर अपनी बात लिखकर नहीं देते थे। अकेले में कही बात भी जुबान मानी जाती थी। तब जुबानी याद करने के दिन थे। जब जुबान होती थी। वेद - उपनिषद् , लोकोक्ति - मुहावरे - पहाड़ों को लोग मुँह जुबानी याद कर के रखते थें। ये एक पीढी- से दूसरी- पीढ़ी तक चला जाता था। लोग चीजों को याद रखते थे। ये सब अब गुजरे जमाने की बातें हैं। अभी समय ये है कि सुबह लिया। और शाम को पूछो तो ये जबाब मिलता है। कि कब तुमसे लिया था। लोग आज अगर आप से पाँच सौ से हजार माँग कर ले जाते हैं। और आप दो दिन में अपना पैसा माँगने लगते हैं। तो लोग आपसे अपने संबंध विच्छेद कर लेते हैं। दस बीस हजार अगर ले लिया तो आपका फोन उठाना बँद कर देते हैं। ज्यादा तँग कीजियेगा तो सामने वाला आपको ब्लॉक लिस्ट में डाल देता है। यानी लोग उन दिनों आज की तरह जुबानफरोश नहीं होते थे। लोग लेते समय चीजों को याद रखते थे। कि अमुक आदमी से मैनें ये चीज उधार ली है। अमुक चीज को अमुक दिन लौटाना है। जिस दिन लिया उस दिन से लौटाने के दिन तक लोग उस बात को याद रखते थे। कि अमुक ने अमुक चीज हमें अमुक समय के लिए उधार दी थी। ये याद रखना बड़ी बात होती है। उस समय कागज का आविष्कार नहीं हुआ था। लोग चीजों को बोलकर याद रखते थे। जाहिर है ये बोलना या दुहराया जाना जुबान से किया जाता था। लिहाजा चीजें लँबे समय तक याद रहतीं थीं । तो वो जुबान का समय था। दिलचस्प बात ये थी। कि उन दिनों कागज का आविष्कार नहीं हुआ था। उस समय ताले भी नहीं होते थे। और लोग जुबानफरोश भी नहीं हुआ करते थे!जरूरत ही नहीं पड़ती थी। लोग जुबानी जो थे। जो कह दिया सो कह दिया। जो बोल दिया वो पत्थर की लकीर। सूर्य पश्चिम से निकल सकता है। लेकिन जुबान देने वाला अपनी जुबान से नहीं फिर सकता। जुबान से फिरा हुआ आदमी असल बाप की औलाद नहीं हो सकता था। लोग शिवशंकर कहलाना पसंद करते थे। संकर कहलाना नहीं। लेन -देन मुँह जबानी हुआ करता था। कागज लोगों की सुविधा के लिए आया था। लेकिन लोग इस्तेमाल से बचते थे। कौन लिखा पढ़ी करे। बेकार का टँटा।
जो पुराने लोग थे।वो ज्यादा जुबानी थे। जैसे -जैसे आदमी पढ़ता लिखता गया। शिक्षित होता गया। उतना ही बेईमान होता गया ! शिक्षा ने आदमी को बेईमान बना दिया। फिर क्या फायदा उसके इतना पढ़ा लिखा होने का ! जब उसके जुबान की कोई कीमत ही नहीं हो। जो पढ़-लिखकर छल - प्रपंच करना सीख जाये।
लिहाजा जुबान की कीमत खत्म होने लगी। लोग अब तहरीर कापियों में लिखकर रखने लगे। नीचे उसके लेनदार का अँगूठा लगाया जाता था। या हस्ताक्षर ले लिया जाता था। ताकि पढ़ा-लिखा आदमी अपनी जुबान से मुकर ना जाए। कागज पर लिखकर रखने की जरूरत तब पड़ी। ताकि लेनदार से वापसी के समय उस कागज को दिखाया जाये। और बकाये की वसूली की जाये। ये और बात है कि लोगों के लिखना और पढ़ना सीखने के बाद ही जुबाने खाली होने लगीं। लोग जुबान फरोश होने लगे। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ। कि आदमी में पहले जुबान फरोशी आयी। फिर लोग झूठ बोलने लगे। झूठ बोलने के बाद भी जब लोगों का काम नहीं चलने लगा। तब लोग चोरी -चकारी करने लगे। और आजकल जब अपने दिये पैसे माँगने जाओ। तो लोग कहते हैं, ज्यादा जुबान मत चलाओ। दे दूँगा तुम्हारे पैसे। बहुत बोलते हो तुम। खा नहीं जायेंगें तुम्हारे पैसे।
कान है, तो जहान है : (व्यंग्य) : महेश केशरी
हमारे शरीर के अभिन्न हिस्सों में कान है। कान की महिमा अपरंपार है। कान के बिना कोई काम नहीं हो सकता। आपको चश्मा पहनना है। तो कान चाहिए। ईयर फोन लगाना है। तो कान चाहिए। बिना कान के कुछ नहीं हो सकता। ये कान ही है। जिसका चालीसा हम बचपन से ही सुनते आ रहे हैं। बचपन में मास्टर साहब कहते थे। होमवर्क करके नहीं लाये तो कान पकड़कर मुर्गा बन जाओ। ये अलग बात है कि आज तक मैनें मुर्गे का कान नहीं देखा। मुझे मुर्गे के कान को देखने की बहुत इच्छा थी। लेकिन आज तक नहीं देख पाया। मैं सोचता हू़ँ। कि मुर्गे ने कब कान पकड़ा होगा, कि उसको देखकर टीचर को याद आया होगा। कि हर शरारती छात्र को कान पकड़कर मुर्गा बनने की सजा दी जाये।
स्कूल में अध्यापक अक्सर समझाते। जो मैनें पढ़ाया है। उस पर ध्यान दो। दूसरे क्या कहते हैं। उस पर कान मत दो। कभी किसी को कहते सुना कान खोलकर सुन लो। तुम्हारा ये काम मैं कभी जिंदगी में नहीं करूँगा।
बचपन और जवानी के दिनों में अक्सर लोग समझाते। कौआ कान लेकर उड़ गया। तुम कान देखोगे या कौए को ? वगैरह - वगैरह। खैर जो भी हो।
बड़े हुए तो माता - पिताजी समझाते। कि मेरी हर बात कान खोलकर सुन लिया करो । मानो मैं हर बात पर कान बँद करके सुनता होऊँ, आजतक।
बुआ हमेशा कहतीं। ये लड़का मेरी बात पर बिल्कुल कान नहीं देता। मैं हमेशा ऐसे लोगों से पूछना चाहता हूँ। कि जब इन लोगों के पास अपने - अपने कान हैं हीं। तो ये लोग दूसरे तीसरे लोगों से कान क्यों माँगते हैं।
कान खोलकर सुन लो मुहावरे का सही अर्थ तब पतियों को समझ में आता है। जब उनकी शादी हो जाती है। दिन में हर दूसरी - तीसरी बात पर पत्नी बरजती है। तुम मेरी बात पर बिल्कुल कान नहीं देते। कल तुमसे बाजार से आलू लेने को कहा था। और तुम भिंडी उठा लाये। और भिंड़ी लाये भी हो तो कैसे। बिल्कुल सड़े हुए। कान के साथ - साथ तुम्हारे हाथ और आँखें भी खराब हो गई है , क्या ? देखकर नहीं ला सकते थे। सारे टमाटर सड़े निकले।
पति कभी ऊँचा बोल दे। तो पत्नी कहती है, कि इतना ऊँचा क्यों बोलते हो। कान अभी सही सलामत हैं , मेरे। तुमलोगों की चाकरी कर - करके मेरा दिल और दिमाग दोनों खराब हो गया है। एक कान ही बचा है। जो अभी सही सलामत हैं। और अगर गलती से आपने कह दिया। तुम्हारे कान खराब हैं क्या ? तुम ऊँचा सुनती हो। तब तो घर में महाभारत होना लगभग तय ही है। वैसे महाभारत से गुरूजी याद आये। गुरूजी जो कान खींचते थे। वो भी भला क्या कान खींचते थे। जब तक कान लाल ना हो जाये। कान पकड़कर मुर्गा बनना भी उन दिनों मुर्गासन की तरह था। एक तरह से मुर्गा बनने से व्यायाम भी हो जाता था। जब से लोग नौकरी में आयें हैं। कुर्सी ही तोड़ रहें हैं। पेट ढोल की तरह बाहर निकला जा रहा है। गुरूजी के समय मुर्गासन करने से मुर्गे की तरह हमारा पेट भी अँदर था। और हम मुर्गे की तरह पतले दुबले और फिट भी थें।
अप्रैल भाई आप जेब कतरे हो : (व्यंग्य) : महेश केशरी
अप्रैल आया नहीं कि काम याद आ जाता है। ये कामकाजी महीना है। इसमें बाबूओं के काम करने की रफ्तार बढ़ जाती है। जो बाबू सालों भर कछुए की माफिक रेंगते रहते हैं। अचानक से उनकी रफ्तार घोड़े की तरह अप्रैल माह में बढ़ जाती है। वो गदहे से यकायक घोड़े में तब्दील हो जाते हैं। जिस तरह शादीशुदा पुरूष को नयी या पुरानी प्रेमिका के फोन कॉल्स परेशान करते हैं। या उन गुप्त कॉलों का पत्नी को कहीं पता ना चल जाये। इस तरह का डर सताते रहता है। और अप्रैल का महीना भी बाबूओं की परेशानी को कुछ- कुछ उसी से तरह बढ़ाता रहता है।
जिनको साल के बाकी ग्यारह महीने अप्रैल याद नहीं आता है । अप्रैल आया नहीं की उनकी नींद हराम हो जाती है। नया वित्तीय वर्ष। नयी -नयी मुसीबतें लेकर आता है।
मोटे ताजे लोगों के लिये अप्रैल पुराने गठिया या वात के दर्द की तरह आ जाता है। मोटे ताजे लोगों को गर्मी भी पतले लोगों की तुलना में अधिक लगती है। इसलिए मोटे ताजे लोगों के लिए अप्रैल बहुत कष्टदायी महीना होता है। लेकिन जहाँ पँखा- कुलर वालों के चेहरे अक्तूबर- से- फरवरी के बीच लटके नजर आते हैं।
वहीं अप्रैल का महीना आते ही उनके चेहरे की मलिनता को झाड़ - पोंछकर हरा - भरा कर देता है। उनके बुझे हुए चेहरे अचानक से चमकने लगते हैं।
अप्रैल का नाम यूँ ही नहीं अप्रैल पड़ा है। ब्लकि सचमुच में अप्रैल महीना लोगों के पसीने छुड़ा देता है। अप्रैल का महीना सुबह के आठ -नौ बजे से ही लू ओर लपटों से आपका स्वागत करता है। आप ऋतिक रौशन की तरह घर से ऑफिस के लिए निकलते हैं। और ऑफिस से जब घर पहुँचते हैं। तो आपका चेहरा सदाशिव अमरापुरकर की तरह हो जाता है। आपको अप्रैल में काम कि कमी नहीं है। अगर अप्रैल महीने को जेबकतरा महीना कहा जाये। तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
आपकी जेब अप्रैल में ही स्कूल , कॉपी - किताब , एडमिशन - री - एडमिशन का अतिरिक्त बोझ उठाती है।
आपके सारे पैसे इन्कम टैक्स में कट जाते हैं। वैसे तो सबसे छोटा महीना फरवरी का होता है। लेकिन नौकरी पेशा लोगों के लिए अप्रैल महीना सबसे छोटा महीना होता है।
इस पूरे महीने में काम करने के बाद भी सैलरी सप्ताह भर की मिलती है। इस तरह से भी अगर देखा जाये तो नौकरी पेशा लोगों का सबसे छोटा और कष्टप्रद महीना अप्रैल ही होता है। और इसी अप्रैल में सरकारी आदमी जो सबको अपने सरकारी होने का धौंस जमाता फिरता है। उसको ये अप्रैल का महीना पूरी तरह से और बहुत अच्छे से अप्रैल फूल बना देता है!
जी. एस. टी. के दायरे में रहकर जेब काटिये : (व्यंग्य) : महेश केशरी
अप्रैल का महीना आया नहीं कि हम बच्चों के स्कूलों के नखरे उठाने लगते हैं। हम ड्रेस से लेकर बेल्ट तक। और जूते से लेकर किताब की जिल्द तक के लिए भागने लगते हैं। सबसे ज्यादा मुस्कुराहट किताब माफियाओं के चेहरे पर दिखाई देती है। बकरा ( अभिभावक ) आया है। तो काटेगा ही। .कटेगा तो बटेगा ही। सब प्राईवेट स्कूलों का हाल एक ही तरह का है। एक सा। सब कुछ स्कूल और पुस्तक माफिया को ही बेचना है। और खरीदेगा कौन ? खरीदेगा अभिभावक।
खरीदेगा नहीं तो जायेगा कहाँ ? स्कूल सीधे - सीधे हत्या का दोषी अपने आपको कहलाने से रोकता है। वो बीच में एक काटने वाले कटर को रखता है। जो बहुत शर्प है। जिस पुस्तक की लागत सौ रूपये की आती है। उस पर वो छ: सौ की एम. आर . पी. डलवाता है। एक सौ रूपये की किताब पर छ: सौ की एम . आर . पी. लगा दी जाती है। या किताब माफिया अपने मन से अपने मार्का की किताब स्कूलों में बेचता है। पहले वो अपने मार्का का एक रजिस्ट्रेशन करवा लेता है। जिस पर किसी प्रकाशक को उसकी ही किताब पर थोड़ा बहुत इधर -उधर हरे -फेर करके ( एक दो चैप्टर घटा बढ़ा कर ) अपनी मनमाफिक किताब बनावाता है। फिर उस पर अपनी मनचाही एम . आर . पी. डलवाता है। चालीस प्रतिशत से लेकर साठ प्रतिशत तक का कमीशन स्कूल को जाता है। सब लोगों के पौ बारह हैं। एक प्राईवेट स्कूल दस प्रतिशत से लेकर पंद्रँह - बीस प्रतिशत का इजाफा अपने वार्षिक शुल्क में करता है। टाई से लेकर बेल्ट तक में चालीस से लेकर पचास प्रतिशत तक कमीशन खोरी का धँधा अप्रैल में किताब माफिया से लेकर कपड़ा माफिया तक करते है।
हाल के अखबार में मेरी नजर एक खबर पर गई थी। कि एक किताब माफिया की कमाई एक मंत्री के एक महीने की कमाई जितनी होती है। उसके बराबर की कमाई किताब माफिया करता है। एक मंत्री जितना एक महीने में कमाता है। उससे थोड़ा ही कम कमाई एक किताब माफिया एक महीने में करता है। एक बार की बात है। कि जब एक थाने के एक एस . एच . ओ. को जब ये बात पता चली थी। कि एक किताब माफिया ने दो करोड़ रूपये एक महीने में कमाये हैं। और वो भी अपनी दुकान में केवल कोर्स की किताबों को बेचकर के ही । तो एस. एच. ओ. साहब ने अपने साले को जो एक प्रतिष्ठित प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कर रहा था। उसको प्राईवेट स्कूल की किताबों का प्रकाशक बनने की सलाह दे डाली थी। और सचमुच में उसका साला आज के डेट में जितना अधिकारी बनकर नहीं कमाता। उससे ज्यादा प्रकाशक बनकर कमा रहा है।
इसी तरह शहर के पॉकेटमार , चोर - चुहाड़ , उठिईगिर , और जो पहले अपहरण का कारोबार करते थे। उनकी एक आपात बैठक मंत्री जी ने बुलाई। और लॉ- एंड - ऑर्डर को ठीक करने की तरकीब बताई ।
जिससे साँप भी मर जाये और लाठी भी ना टूटे। जिनके कारण शहर में दिन - दहाड़े डाके पड़ते थे। उसके उन्मूलन के लिए राज्य के कानून मंत्री ने एस . एच. ओ. के साले से प्रेरणा लेकर उनको शहर में बने शॉपिंग सेंटर में बने नये - नये दुकानों को खोलकर चलाने का आदेश दे दिया था। जिससे शहर में क्राइम का ग्राफ गिरे। और आम शहरी का जीवण ठीक- ठाक से चले। लेकिन दुकान आवंटन करने से पहले कानून मंत्री जी और वित्त मंत्री जी का ये सख्त निर्देश था । कि आप लोगों ने बहुत दिनों तक चोरी - डकैती , उठाईगिर का काम किया है। अब आपका प्रमोशन पुस्तक विक्रेता के पद पर कर दिया गया है। आप कानून और जी. एस . टी . के दायरे में रहकर लोगों की जेब कानूनी तरीके से काटिये। और हमारे लिये हर पाँच साल में जो लोकसभा और विधानसभा का जो चुनाव आता है। उसमें डोनेट कीजिए। इस तरह क्राइम का ग्राफ भी कम हो जायेगा। और राजकोष में उतरोत्तर बढ़ोत्तरी भी होगी। क्राइम पूरी तरह खत्म हो जायेगा। और इस तरह हमारा राज्य क्राइम फ्री स्टेट का दर्जा भी पा लेगा। उठाईगिरों में आजकल पुस्तक-विक्रेता बनने की होड़ सी लगी है !
जनता चारों खाने चित्त है : (व्यंग्य) : महेश केशरी
खुद्दन जी मालदार आसामी हैं । इधर मँहगाई ने कमर तोड़ दी है। खुद्दन जी का दौड़ धूप वाला धँधा है। ट्राँस्पोर्टिंग का काम करते हैं। इसलिये कस्बे से शहर जाना होता है। इधर वो एक दिन कस्बे से दो - चार घँटे के लिए भला क्या गायब हुए। उनका घर चोरों ने साफ कर दिया। इससे पहले भी इस कस्बे में चोरियाँ हुआ करती थी। लेकिन इधर नाक के नीचे से चोरियों की संख्या में उतरोत्तर इजाफा हुआ है। महीने में इधर एक- दो चोरियाँ हो जाना कोई नई बात नहीं है।लेकिन इधर चोर चार -पाँच लाख की नगदी समेत जेवर इत्यादि पर भी हाथ साफ कर चुके थे। लिहाजा सड़क जाम करने की सोची गई। लेकिन हालत वही ढाक के तीन- पात वाली थी। इससे पहले भी महीने भर पहले कस्बे में चोरी हुई थी।खुद्दन जी ने तब भी कॉलोनी के मुखिया होने के नाते थाने में जाकर शिकायत दर्ज कराई थी। लेकिन थाने की हालत अलग है। वहाँ दूसरा खेल चल रहा है। लेकिन कप्तान साहब कॉलोनी का हाल लेने नहीं आये। वो दिन है और आज का दिन है।
पुलिस कप्तान अपने परेशान है। उनको कमाई वाला एरिया चाहिए। मनचाहे एरिया में पोस्टिंग की रेट हमारे यहाँ तीन करोड़ है। लिहाज कप्तान साहब जुगाड़ में लगे हुए हैं। इधर थाने के एस .एच . ओ . साहब का भी वही हाल है। पच्चीस तीस -लाख का जुगाड़ उनको भी चाहिए। उनको भी कमाई वाला एरिया चाहिए। मंत्री जी की चाँदी है। वो दोनों हाथ से नोट बटोर रहें हैं। ट्राँस्फर और पोस्टिंग में लगे हुए हैं। और माल पीट रहें हैं। देश में दो चीजों का बहुत ही जोर चल रहा। अभी रामनवमी है। लिहाजा राम की चर्चा बहुत जोरों पर है। दूसरी चर्चा औरंगजेब , बाबर , अकबर और राणा साँगा की हो रही है।
राम लक्ष्मण और सीता जी को कोई टेंशन नहीं है। वो वनगामी जीव हैं। उनको कंँद -मूल , फल - फूल , खाने को मिल ही जायेगा। औरंगजेब , अकबर , राणासाँगा अपनी अपनी जगहों पर आराम फरमा रहें हैं। लिहाजा उनको भी खाने -पीने की कोई जरूरत नहीं है। हालत खुद्दन सरीखे लोगों की खराब है। जो चावल जुटाते हैं। तो नमक घट जाता है। नमक जुगाड़ते हैं तो चीनी। खुद्दन सरीखे लोगों का जीना मुहाल हुआ जाता है। सरकार में सब बाबा किस्म के लोग हैं। जिनको बाल -बच्चों की कोई चिंता नहीं है। उनके ना आगे -नाथ ना पीछे पगहा है।चोर पुलिस के खेल में मंत्री जी खूब भाँग छान रहें हैं। इधर एक और घटना कोढ़ में खाज की तरह हमारे सूबे में घट गई है। घटना विस्थापन की है। बहुत सालों पहले रैयतों की जमीन ये कहकर ली गई, कि उनको नौकरी मिलेगी। लेकिन नौकरी की राह देखते विस्थापितों की आँखें पथरा गईं। वो दिन है। और आज का दिन है। नौकरी ना मिलनी थी। ना मिली। अरे नहीं भाई सरकारी नौकरी के लिए नहीं। बल्कि संविदा पर नौकरी के लिए। संविदा पर नौकरी के लिए लोग जान देने पर तुले हैं। है भी बेईमानी वाली बात। सालों पहले इस भरोसे ही लोगों ने अपनी -अपनी जमीनें दी थी। लेकिन नौकरी गधे के सिर से सींग की तरह गायब है। इधर नौकरी की माँग तेज हुई। और उधर संघर्ष में एक युवक मर गया। लिहाजा आँदलोन उग्र हुआ जा रहा है। क्रेडिट लेने की होड़ मची हुई है। विस्थापन के मुद्दे को मैनें उठाया। तो मैनें उठाया। विस्थापन गरीबों की समस्या है। उनको ही लड़ना चाहिए था। लेकिन उनके मुद्दे को दूसरे राजनीतिक दल के लोग अपने - अपने खाते में क्रेडिट करने में लग गये हैं। इससे लोग उबरे भी नहीं थे। कि बाहरी भीतरी के नाम पर एक नया बखेड़ा खड़ा हो गया है। कुछ इस तरह कि रोजे छुडाएँ, तो नमाज गले आन पड़ी। बाहरी भीतरी के बहाने भी लोग अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं।
हालत तो आम जनता की खराब हुई जा रही है। तेल , नून साग - सब्जी जुटाते - जुटाते। मंत्री जी उगाहने में लगे है। खूब ट्राँस्फर पोस्टिंग हो रही है। दारोगा जी , पुलिस कप्तान सब अपने - अपने स्तर पर उगाही करने में लगे हैं। कमीशन खोरी पर ही पूरा- का -पूरा तंत्र खड़ा है। चोरियाँ धड़ाधड़ है रहीं हैं। ना औरंगजेब को मतलब है। ना रामजी को। चोर के बहाने साहूकारों की दावत है। जनता चारों खाने चित्त है।