व्यंग्य (1-20) : महेश केशरी
Hindi Vyangya (1-20) : Mahesh Keshri
बेचने वाले लोग : (व्यंग्य) : महेश केशरी
बेचने में बहुत से लोग उस्ताद होते हैं। ऐसे ही हमारे यहाँ एक बेचूलाल जी हुआ करते थे। वो चीजों को औने -पौने में बेच दिया करते थे। बाजार में सिर्फ और सिर्फ उनका ही माल बिकता था। कारण की वो सबसे सस्ता माल बेचा करते थे। बेचूलाल को कमाई -धमाई से कोई मतलब नहीं था। कम कमाई हो चाहे ज्यादा। उनका ही माल केवल बाजार में बिकना चाहिए। इस बात को ही वो तरजीह दिया करते थे। ग्राहक अगर दरवाजे पर चढ़ा है। तो उसको किसी भी हाल में वापस नहीं जाने देना है। उसको हर हाल में माल बेच ही देना है। बेचूलाल के पिता लार्ड फेंकू थे। उन्होंने देश में चाय पहले सबको फ्री में पिलाई। वो जानते थे निकोटीन का आदी आदमी कहीं से भी पैसे जुगाड़ करेगा । और चाहे जो करे ना करे चाय जरूर पिएगा। लिहाजा लार्ड फेंकू के इस नुस्खे का इस्तेमाल बेचूराम भी करते थे।
पहले ग्राहक को सामान सस्ते में बेचो। और बाजार से प्रतिद्वंदियों का सफाया करो। फिर , माल को
दोगुने - तिगुने मुनाफे पर बेचो। लिहाजा, वे सबसे सस्ता माल बेचते। और माल औने - पौने बेचकर पैसे
बाजार से निकाल लेते। फिर महाजन पैसे के लिए झकता रहता था।
बेचने वाले लोग कुछ भी बेच सकते हैं। बेचना एक कला है।
बेचने वाले के पास हर तरह के लोग हैं। जो डिमाँड और सप्लाई को व्यवस्थित करते हैं। डिमाँड ना भी हो तो किसी चीज को कैसे बेचना है। ये बेचने वाला अच्छे से जानता है। बेचने वाला जरूरत मुताबिक पहले चीजों को अपने पास पर्याप्त मात्रा में जमा कर लेता है। फिर कृत्रिम डिमाँड पैदा करता है। एक समय नमक भी पचास रूपये किलो देश में बिक गया था। जिसको देखो वही नमक खरीद रहा था। दरअसल ऐसी पैनिक सुनियोजित तरीक से की जाती है। प्लान बनाकर। बेचने वाले कुछ भी बेच सकते हैं। बेचने वालों ने निखालिस हवा भी बेच दी है। जो लोग सस्ता खरीदकर मँहगा बेचते हैं। वो लोग हवा कि कीमत जानते हैं। हवा हवाई बातें करके भी लोग बहुत कुछ बेच जाते हैं। बस बेचने के लिए माहौल को बनाना होता है। माहौल बनाकर आप कुछ भी बेच सकते हैं। आपको बनाना दरअसल कृत्रिम माँग ही है। जो बेचने वाला है। वो माँग की कीमत जानता है। जितनी ज्यादा माँग होगी। उतनी ही ज्यादा कीमत होगी।
अभी भावनाएँ उफान पर हैं। जज्बातों के बिकने का दौर है। माहौल बनाकर आस्था भी बेची जा रही है। लोग लीप-पोतकर भी और नाम बदलकर भी इस मँहगाई में कमाई कर ले रहें हैं। अभी बदलने का दौर है। जो दिखता है। वही बिकता है। आज के समय का स्लोगन है। लोग इतना दिखा दे रहें हैं, कि दर्शक आँखें फेर ले रहा है। सब लोग आँखें नहीं फेर रहें हैं। ज्यादातर तो चटखारे ले -लेकर देख रहें हैं।
कारण कि जो दिखाया जा रहा है। उसमें फूहड़पन मिला हुआ है। सबकुछ ढ़ँकने की रवायत खत्म हो रही है। जो दिखाना है। वो सब कोई देख रहा है। पिता भी ,भाई भी , माँ भी बहन भी।भाई दूसरों की बहनों को देख रहें हैं। बहने दूसरों के भाइयों को देख रहीं हैं। प्रगतिशीलता के नाम पर सब बिक रहा है। हमेशा टीन एज बने रहना है। खाली पेट इंजेक्शन लेकर। भले ही चालीस बयालीस की उम्र में मौत आ जाए। लेकिन, दिखना पँद्रह सोलह साल की कुमारी की तरह है। राष्ट्रवाद बेचा जा रहा है। युवाओं को सपने बेचे जा रहे हैं। देश, दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। लेकिन पूरी दुनिया में प्रति व्यक्ति आय में एक सौ तेईसवें नंबर पर है। विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था। लेकिन जेब खाली है। और बड़े -बड़े सपने आँखों को बेची जा रहीं हैं!
मुस्कान जी के बहाने : (व्यंग्य) : महेश केशरी
एक थी मुस्की रानी। उनकी मुस्कान देखकर लोग घायल हो जाते थे। इस तरह करोड़ों दिलों पर राज करती थीं , मुस्की रानी। मुस्की रानी के हुस्न के जादू से पूरा शहर हलकान और परेशान था।वो यूँ तो सबको देखकर बिना वजह मुस्कुराती थी। लेकिन, जब लड़के उनको देखकर मुस्कुराने लगते। तो वो नजर फेर लेती थी। इस नफरत और प्रेम के कॉकटेल का नशा ही कुछ और था। जो लड़कों के सिर पर चढ़कर बोलता था। जैसे ही उनको पता चलता कि सामने वाला लड़का उनको देखकर मुस्कुरा रहा। तो वो मुस्कुराने की फिरकी लेना एकदम से बँद कर देतीं। और बँदा एक दम से बोल्ड हो जाता। उनकी मुस्कुराहट सिर्फ -और -सिर्फ अपने पति के लिए थी। लेकिन, जब वो अपने मुस्कुराहट की फिरकी से अपने पति को बोल्ड करना चाहतीं। तो पति जी अटेंशन की मुद्रा में आ जाते । वो लाख योरकर डालती। लाख दूसरा फेंकती पति पर कोई असर नहीं पड़ता। और वो क्रिकेट की पिच पर लगातार बैटिंग करते रहते। मुस्की जी शहर के और लोगों को तो अपनी गुगली से क्लीन बोल्ड कर देतीं थी। लेकिन अपने पति का विकेट वो नहीं ले पा रही थी। उन्होंने सारे प्रयास करके देख लिए। धीरे - धीरे ये बात पूरे मुहल्ले से होते हुए शहर के हर हिस्से में फैल गई।
जिस मुस्की जी की मुस्कान के पीछे सारा शहर हलकान हुआ जाता था। जिनके चित्तवन की एक झलक पाकर लोग पागल हो जाते थे। उस मुस्की जी के यौवन और चित्तवन से उनके पति को कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा था। चाय की टपरियों , गली-मुहल्लों के चौक - चौपालों पर केवल और केवल इसी बात की चर्चा हो रही थी। मुस्की जी के पति के बारे में लोग संभावनाएँ ,तलाश रहे थे। कि हो ना हो उनका पति नामर्द है । दूसरी चर्चा ये थी। कि लोग उनको समलैंगिक मान रहे थे। कौन ऐसा पति होगा। जो इतनी सुँदर और चंचल , चित्तचोर पत्नी के रहते उसको ना देखे। ना कुछ कहे । बहुत से लोग तो ये भी कयास लगाते कि अगर ऐसा नहीं है। मतलब अगर उनके पति समलैंगिक नहीं हैं। तो जरूर किसी ना किसी से उनका चक्कर चल रहा है। लेकिन चक्कर किससे चल रहा है। ये भी चौपाल और टपरी वाले लोग के लिए शोध का विषय था। ये लोग उस शख्स को तलाश रहे थे। इस तलाशने में भी बहुत सी संभावनाएँ जुड़ी हुई थीं । जैसे वो महिला ,मुस्की जी के पति के दफ्तर में ही काम करती होगी। मान लो अगर ऐसा है। तो जरूर उस नौ- यौवना की मुस्कुराहट , चाल और चित्तवन मुस्की जी से बेहतर होगी ।
नौयौवना का इतिहास भूगोल सब मुस्की जी से सुँदर होगा। लेकिन आजतक किसी ने उस नौ यौवना को नहीं देखा था । लिहाजा , सारा शहर , गाँव, मुहल्ला उस नौ यौवना की तलाश में लगा था । शहर में अदृश्य विज्ञापन हर जगह फैली था । कि आखिर वो नौ यौवना कौन है। जिसका कि मुस्की जी के पति के साथ चक्कर चल रहा है।इधर मुस्की जी परेशान हैं। कि अगर उस नौ यौवना का ( मान लो सचमुच में अगर उसका अस्तित्व है )। तो अब मुस्की जी का क्या होगा। क्या उनकी भी रेटिंग , वैजंती माला , जीनत अमान , परवीन बॉबी , ऐशवर्या रॉय , लारा दत्ता , बिपाशा बसु की तरह गिर जाएगी। या उसका करियर खुशी मुखर्जी, की तरह ग्रो करेगा।
सभ्य होने के हमारे खोखले दावे : (व्यंग्य) : महेश केशरी
इतिहास में शायद ये पहली बार हुआ है, कि कुछ नहीं लेना हो। तब भी सेवा प्रदाता कँपनी रिजेक्शन के लिए भी साईन करवाती हो। और, दिलचस्प ये है कि प्रदाता कुरियर सेवा कंपनी के पास साईन करने को पेन भी नहीं है। इतिहास में अब पहले की तरह के रावण नहीं बचे हैं। जो आत्मसंयमी हो। जो अपहरण के बाद बलात्कार ना करता हो ।
आधुनिक रावण पेन माँगने के बहाने बलात्कार कर रहा है। इस कलियुगी रावण के कई कई रूप हैं। कभी घर में तो कभी बाहर तो कभी हॉस्टल में तो कभी स्कूल में तो कभी ऑफिस में बलात्कार करता आ रहा है ।
अब सीता घर में भी सुरक्षित नहीं है। रावण की भी अपनी सीमाएँ थी। अपनी मर्यादा थी। उसको भी लोकलाज का भय था। वो भी चाहता तो कुटिया के भीतर प्रवेश कर सकता था। उसके लिए लक्ष्मण रेखा भला क्या चीज थी। उसके डर से रावण का भाई कुबेर भी डरकर मारा- मारा फिरता था। लोग उसके सामने पडने से बचना चाहते थे। लेकिन रावण ने किसी का बलात्कार नहीं किया। उसने किसी के पीठ के पीछे ये नहीं लिखा कि मैं , फिर वापस आऊँगा। बलात्कार करने। लेकिन, आज के रावण का अहंकार देखिए। कुकर्म करने के बाद भी बार - बार लौट कर आऊँगा। ऐसा लड़की की पीठ पर लिख रहा है। अपहरण का आत्मबोध या दु:ख रावण को इतना हुआ। और लोकनिंदा इतनी हुई। कि प्रकांड पंडित होने के बाद भी उसकी ऐसा लिखने की एक बार भी हिम्मत नहीं हुई। कि मैं बार -बार या फिर , वापस आऊँगा। आधुनिक रावण को लोकलाज का कोई भय नहीं है। उसको बार बार बलात्कार करना है। नाम बदलकर, रिश्ते बदलकर , चाचा , ताऊ , मामा , भाँजा , भगना बनकर। लेकिन, जिनमें शील ,संयम बचा हुआ हो। जो लक्ष्मण रेखा का सम्मान करते हों। जिनके लिए नीति-अनीति मायने रखती हो। जो घर के अँदर जाकर नहीं। बल्कि घर से बाहर बुलाकर अपहरण जैसा काम भी संयमित तरीके से करते थे। जहाँ युद्व के भी अपने नियम होते थे। जो महिलाओं, बच्चों, बूढ़ों , रोगियों , दुर्बलों , असहायों पर आक्रमण नहीं करते थे। सूर्यास्त के बाद युद्ध निषेध माना जाता था। ऐसे लोग जो राक्षस होते थे। लेकिन संयमित होते थे।
इससे बहुत बेहतर थे वो लोग। जो कबीलाई होते थे। कम- से -कम हमारी तरह प्रगतिशील, संस्कृति के रक्षक , सृजन और विकास के पक्षधर होने का दँभ तो नहीं भरते थे। वो राक्षस जरूर थे। लेकिन मर्यादित थे। हम मनुष्य हैं। लेकिन किस मायने में। जब हम बार- बार लौटकर आने और किसी के बलात्कार और हत्या करने की बात सोचते हैं !
नमक का दारोगा गायब है : (व्यंग्य) : महेश केशरी
अब नौकर अपना हित साधने में लगे हैं । उनकी नजर आपकी तिजोरी पर हमेशा रहती है। दो चार साल काम करने के बाद वो आपके गर्दन पर चाकू फेरने से बाज नहीं आते। वो आपके घर से गहना जेवर और नकदी साफ करके अपने घर की राह लेते हैं। जो समय पड़ने पर आपके नाम की सुपारी भी दे सकते हैं। या आपसे अगर विचार ना मिले तो आपकी हत्या तक कर सकते हैं। ये कलियुग है। यहाँ सेवक सेवा करने के लिए नहीं बल्कि मेवा खाने के लिए पैदा हुए हैं। मेवा खाने का उनका ये अधिकार दुनिया के मजदूरों एक हों यानी कार्ल मार्क्स के विचारों से और पुष्ट हुआ है। आज हर मालिक नौकर के आँखों का काँटा बना हुआ है। मालिक अब नौकरों को फूटी आँखों नहीं सुहाते।
अब यहाँ सब तैश में हैं। पहले के समय में नौकर आज्ञाकारी और मालिक के सेवक होते थे। जो नमक का हक अदा करना जानते थे। जो मरते दम तक मालिक का साथ ना छोड़ते थे। मालिक के आगे पीछे डोलते रहते थे। जिनकी वफादारी कि मिसाल पूरा जमाना देता था। मालिक ने अगर दो बात कह भी दिया तो गम खाकर रह जाते थे। बल्कि हँसकर टाल देते थे। नमक का दारोगा का नया लड़का याद आता है। जो नौकरी को ईश्वर का आदेश मानता है। आज के बाबूओं की तरह नहीं जो दबा- दबाकर खाते हैं। जो मोटी पगार पाते हैं। लेकिन इतने से इनका पेट नहीं भरता। इनको पचाने के लिए हाजमोला वाली गोली चाहिए। जो ये समय- समय पर लेते रहते हैं। और, आम जनता की मेहरबानी से रँगे हाथ पकड़े भी जाते हैं। एक बाबू तो घर की मामूली जरूरत यानी की दो हजार रूपये रिश्वत लेते धर लिए गए। तो बात नमक के दारोगा की हो रही थी।
जो अपनी प्रतिज्ञा से लेशमात्र भी नहीं हटता। बैलगाड़ियों में लदे नमक को जब्त कर लेता है। सेठ रूपयों का लालच देता है। बड़ा पद देने की बात कहता है। सरकार में सेठ की चलती है। वो कहता है। तुमको सरकार से सिफारिश करवाकर दारोगा से ब्रिटिश गर्वनमेंट में कोई ऊँची पोस्ट दिलवा दूँगा। लेकिन वो दारोगा की सैलरी में ही खुश है। सेठ खुश हो जाता है। ऐसा सेवक पाकर। नमक के दारोगा के इस बात से कि आपकी बैलगाड़ियों पर लदे नमक का चालान करके ही दम लूँगा।
आजकल असहनशीलता बढ़ी है। आपके सेवक को आपसे सारी सुविधाएँ चाहिए। लेकिन आप उसको कुछ -कह सुन नहीं सकते। डाँटने -डपटने का अधिकार आपको नहीं है। कहाँ गए पुराने जमाने के वैसे लोग जो मालिक को देखते ही सलाम बजाते थे। मालिक के पीछे -पीछे दौड़ते-दौड़ते अघाते नहीं थे। जो पीछे हाथ बाँधकर चलते थे। जो मालिक के हित - अहित का ध्यान रखते थे। उनके भरोसे पर पूरी की पूरी खेती किसानी चलती थी। मालिक घर में रहें या ना रहें। मालिक को उनका घर वैसा ही मिलता जैसा की वो छोड़कर गए थे। जब भी मालिक लौटते तो घर चकाचक साफ -सुथरा मिलता। आज नौकर पर घर छोड़िए। तो आपके घर का भेद वो चोरों को बता देता है। आपके लिए षडयंत्र करता है।
आज जब दौर बदला है। तो नौकर की हेकड़ी मालिक से बहुत ज्यादा हो गई है। नौकर मालिक की हत्या कर दे रहा है।
इसलिए नमक के दारोगा का दारोगा इस कलियुग में मिलना मुश्किल है!
डॉक्टर साहब नींद बहुत आती है : (व्यंग्य) : महेश केशरी
एक बार एक सज्जन एक डॉक्टर के पास पहुँचे और बोले मुझे सोने की बीमारी है। जब तक मैं पूरी तरह सो नहीं लेता। तब तक मैं बहुत परेशान रहता हूँ। मेरे लिए खाने , पीने , जॉगिंग से लेकर , खेलने-कूदने से भी जरूरी काम सोना है। जिस दिन मैं ,पूरी नींद नहीं ले पाता। उस दिन मुझे खट्टे डकार , अपच सिर का भारी पन की शिकायत रहती है। लोग बाग- शिकायत करते हैं ,कि मैं इतना क्यों सोता हूँ। फिर भी लोगों की बात दरकिनार कर मैं सोता हूँ। अगर मैं ना सोऊँ, तो मुझे कुछ भी ठीक नहीं लगता। मैं समाज में हँसी का पात्र बनकर रह गया हूँ। आप कोई दवा दे दीजिए। जिससे कि मेरी सोने की ये बीमारी हमेशा के लिए खत्म हो जाए। डॉक्टर साहब ने आले से उस सज्जन का मुआयना किया। जीभ देखी, आँख देखी, माथा छूकर देखा। थोड़ी देर बाद पर्ची पर कुछ लिखा। बोले सोने वाले भाई साहब आपका मैनें हर तरह से मुआयना कर लिया है। घबराने की कोई बात नहीं है। आप बहुत भाग्यशाली हैं, कि आपको इतनी नींद आती है। नींद आना कोई बीमारी का लक्षण नहीं है।
ब्लकि नींद का नहीं आना बीमारी का लक्षण है। जहाँ इस दुनिया में लोग पैसे , एशो-आराम के चक्कर में अपना नींद चैन गँवा चुके हैं। और इतना भागदौड़ कर रहें हैं। वहीं आप चैन की नींद ले रहें हैं। ये आज के समय में बहुत बड़ी बात है।
लोग इसी नींद को पाने के लिए सैकड़ों -हजारों रूपयों की गोलियाँ फूँक दे रहे हैं। जो लोग इतना दबा- दबाकर लोगों का बैठे हैं, कि उनको इस बात की हमेशा टेंशन रहती है, कि उसको छुपाएँ कैसे। कहीं कोई जान ना जाए। एक महोदय न्यायाधीश साहब ने इतना दबाया कि उनको नोटों को जलाना पड़ा। फिर भी पकड़े गए। अगर लोग नहीं सोएँगें तो बीमार पड़ जाएँगे। आप चीजों को ठिकाने लगाने के लिए ही जागते हैं। जिसके पास कुछ है ही नहीं उसको भला नींद क्यों नहीं आएगी। नींद उनको नहीं आती जो हत्यारे हैं, जो बलात्कारी हैं। जिन्होंने लोगों का गलत तरीके से मारकर या दबाकर रखा हुआ है। साधारण आदमी पलँग तोड़कर सोता है। उसको किसी बात से भला क्या मतलब। जो लोग सो नहीं पाते। वैसै लोगों को हम डॉक्टर आगरा या काँके भेज देते हैं।नहीं सोना या नींद का नहीं आना रोग का लक्षण है। जिसको नींद नहीं आती वैसे लोग स्वस्थ हैं।
दूसरों के सोने से तीसरे लोग परेशान रहते हैं। उनको ऐसा लगता है, कि ये कौन सा ऐसा काम करता है , कि भगवान ने उसको ऐसी नेमत बख्शी है , कि उसको इतनी नींद आती है। एक हम हैं, जो हमें नींद ही नहीं आती है। वही लोग आपसे जलते हैं , कि ये बहुत ही भाग्यशाली है। जिसको इतनी बेहतरीन नींद आती है। कोई कल्पना भी कर सकता है , कि किसी के ज्यादा सोने से भी किसी की नींद उड़ सकती है। जी हाँ, आपके आराम से बहुत से लोगों को तकलीफ है।
जूते वाले बाबा : (व्यंग्य) : महेश केशरी
हमारे देश में तरह -तरह के लोग हैं। और तरह -तरह की मान्यताएँ हैं। एक जूते वाले बाबा हैं। जिनकी एक डयोढ़ी है। उस डयोढ़ी पर लोग जूता खाने जाते हैं। हर शनिवार और मँगलवार को। वहाँ, बिना भेदभाव के लोगों को जूते से ठुकाई की जाती है। और, लोग मुस्कुरा कर सहर्ष जूते से ठुकाई का आनंद लेतें हैं। जूता की पिटाई दरअसल जूते वाले बाबा के यहाँ पर आशीर्वाद के रूप में लोगों को मिलता है। जिसकी पिटाई वहाँ जूते से नहीं होती, वो अपने आपको अभागा मानता है। जब तक आपके सिर, आँख, कान , नाक और माथे पर से खून ना निकलने लगे। आपसे जूता वाले बाबा खुश नहीं हो सकते। लिहाजा, लोग दम भर मार खाने के बाद ही जूते वाले बाबा की दर से लौटना पसँद करते हैं। जूते मारने वालों की शिफ्ट चलती है। वो शिफ्ट बदल-बदल कर जूता मारने का काम करते हैं। आपका व्यापार ठीक नहीं चल रहा है। आपकी पत्नी आपसे नाराज है। आपको बच्चा नहीं हो रहा है। आपको किसी बला से परेशानी है। आपको आपकी सौतन से परेशानी है। आप परीक्षा में सफल नहीं हो पा रहे हैं। आप लड़की को वश में नहीं कर पा रहें हैं। आप जूते वाले बाबा के पास जाईए। और मनचाही सफलता प्राप्त कीजिए। आपको निराश नहीं होना पड़ेगा। उनकी ख्याति बहुत दूर -दूर तक फैली हुई है।ना-उम्मीद लोग बहुत दूर- दूर से जूते वाले बाबा के पास आते हैं।
उनकी डयोढ़ी पर सुबह से ही जूता खाने और चढ़ाने वालों की भीड़ लगी रहती है। पास में एक पीपल का पेंड़ है। जिसपर लोग जूता चढ़ाते हैं। लोगों को जाड़ा, गर्मी, और बरसात में भी लाइन लगाकर जूता खाते हुए आप देख सकते हैं। लोग कहते हैं, कि बहुत साल पहले जूतापुर के सुल्तान जूता खान और बेगम जूती महल को जब कोई संतान नही हो रही थी।
तो सबसे पहले यही दोनों जूता बाबा से आशीर्वाद लेने गए थे। और उसके साल भर बाद जूता बाबा के आशीर्वाद से जूता खान और जूती महल को शूतल्ला नाम का एक बेटा हुआ। जिसकी शादी बाद में बेगम जीभी से हुई थी । इस तरह जूता खान की वंशबेल आगे बढ़ी। इसलिए भी जूते वाले बाबा के पास जूता खाने वालों की हमेशा भीड़ लगी रहती है।
आज डेढ़ -दो -सौ साल हो गए हैं। जूता वाले बाबा तो अब नहीं रहें। लेकिन उनके वंशज अब भी हैं। जिनके दर्शन पाकर लोग आज भी धन्य हो जाते हैं। उनके यहाँ जूता बाबा के जूते की बाकायदा सुबह शाम पूजा- अर्चना भी की होती है। उस दिव्यात्मक जूते का एक मँदिर भी है। वी. आई. पी. लोगों के दर्शन की अलग से व्यवस्था है। आपको तत्काल दर्शन भी मिल सकता है। उसके लिए आपको अलग से एक हजार एक सौ ग्यारह रूपये की पर्ची कटवानी पड़ती है। रोज लोग नए -नए जूते लाकर जूता बाबा पर चढ़ाते हैं। चढ़ाते तो हैं ही। जो मठ - के कर्ता - धर्ता हैं। वो भक्तों को चार- चार जूते जड़ देते हैं। जिससे कि भक्तों की मनोकामना जल्द-से -जल्द पूर्ण हो जाए ।
विज्ञापन विहिन मनोरंजन का अधिकार : (व्यंग्य) : महेश केशरी
विज्ञापन में लोकतांत्रिक व्यवस्था की तरह उदारता नहीं होती। बल्कि विज्ञापन तालिबानी सोच की तरह तरह क्रूर होता है। जो लोगों पर जबरजस्ती शरीया कानून की तरह थोपा जाता है।
विज्ञापन में दूषित या कलुषित करने का गुण है। जब विज्ञापन नहीं था? तो दुनिया इतनी कलुषित और क्रूर ना थी। इसलिए भी विज्ञापन का विरोध करना चाहिए। आज के समय में जो समाज में प्रतिस्पर्घा का वातावरण है। जो अश्लीलता आयी है। जो फूहड़ पन और नग्णता हमें दिखाई देती है। उसके लिये विज्ञापन ही दोषी या उत्तरदायी है। कहते हैं ,ताली एक हाथ से नहीं बजती। दोनों हाथों से बजती है। ठीक है , हम दिखा रहे हैं। आप आँखें फेर लीजिए। ठीक है ,आँखें फेर लेते हैं, लेकिन विज्ञापन तो रक्तबीज की तरह है।
टी. वी या मोबाईल के स्क्रीन पर जैसे ही कोई समाचार हम देख रहे होते हैं।
विज्ञापन कभी टी.वी.के नीचे से कभी टी. वी. के बाँए से निकल- निकल पड़ता है , अजातशत्रु की तरह। वो जबरजस्ती कहता है। फलाने कोचिंग को निश्चित सफलता पाने के लिए ज्वाईन करो। सौ फीसदी गारंटी है। आपके सफल होने की। अभी ऑप्रेशन सिंदूर टी. वी. पर चल रहा था। एक - एक बाइट दिखाने से पहले दस - दस मिनट का विज्ञापन चल रहा था। मॉक-ड्रिल की तैयारी चल रही थी। बँकरों की बात हो रही थी। सुरक्षित ठिकानों पर छुपने की व्यवस्था की बात हो रही थी। लेकिन क्रीम और पाऊडर बेचना है। भाई ऐसे गाढ़े समय में कौन खरीदेगा तुम्हारे क्रीम और पाऊडर को।
भाई तुम्हारे इस तेल और साबुन का हम इस युद्ध के बीच में क्या करेंगें। मुझे समझ में नहीं आता है। इतना पैसा कमाकर क्या करना है। किसको दिखाना है । जब देश ही नहीं बचेगा। तो क्या होगा इन चीजों का। किस काम में आएँगी ये चीजें ! भाई तुमको युद्ध में भी अपना सामान बेचना है!
विज्ञापन उपभोक्ताओं के मनोरंजन में कंकर की तरह होता है। जैसे आप भोजन कर रहें हों। और आपके दाँत के नीचे पत्थर आ जाए। आपके मुँह का जायका ही बिगड़ जाता है। फिल्म की कहानी या स्क्रिप्ट लिखने वाले को थोड़ी ही पता होता है ,कि उसकी कहानी जब पर्दे पर चल रही हो तो लोग मँजन , तेल और क्रीम बेचने लगेंगे। ये कुछ इस तरह है। जैसे कोई छँदबद्ध कविता में कोई प्रहसन या नाटक की बात चलने लगे। अब आजादी की बात करते।
जिस देश में हम रहते हैं। उसमें बहुत सी आजादी हमें संविधान ने दी है।
वैसे ही हमें विज्ञापन फ्री मनोरंजन का अधिकार भी मिलना चाहिए। मुझे लगता है, कि इस कठिन समय में जब सूचना और संचार -क्राँति अभी चरम पर है। और देश में बेरोजगारी चरम सीमा पर है। इससे निपटने में ये संचार -क्राँति बहुत अहम भूमिका निभाती है। इसलिये देश के नीति -निर्माताओं से अनुरोध है, कि देश के हर उस नागरिक को अबाध गति यानी बिना विज्ञापन के मनोरंजन का अधिकार मिलना चाहिए। जिससे युवा मनोरंजन में ही उलझे रहें। और क्राँति करने की सोच भी ना सकें।
ये दुनिया बिन विज्ञापन के नहीं चल सकती। कहाँ विज्ञापन नहीं है। आज से तीस- चालीस साल पहले इक्के-दुक्के ही विज्ञापन अखबारों में दिखाई पड़ते थे। बजाज का स्कूटर हो या डालडे का प्रचार इतने पर ही काम चल जाता था। ज्यादा खुश हुए तो हीरो साईकिल का विज्ञापन या बुश की रेडियों का विज्ञापन। लेकिन, अखबार में अब खबर गायब है। पहले पेज से ही खबर गायब होती है। उसकी जगह लँबा - चौड़ा विज्ञापन का पेज होता है। दसियों कंपनी की मोटरसाईकिल। डुप्लेक्स बंगलों के इश्तिहार। एक दिन एक आदमी मेरे पास आया। सूट-बूट और टाई -वाई पहनकर। बोला आपके एरिया में डुप्लेक्स बन रहा है। विजिट करने आईयेगा। मैनें पूछा कितने का आयेगा। दाम बताया सत्तर लाख। मन में सोचा, कि भाई इतना अमीर तो हमारा मध्यवर्ग अभी नहीं हुआ है। जो सत्तर लाख का डुप्लेक्स खरीद सके। यहाँ तो आटा ,डाटा ,और तेल , प्याज और सब्जी ने हालत खराब कर रखी है। विज्ञापन मुझे दरअसल युद्ध की तरह लगता है। सरकारों को फायदा होता होगा। जनता को इससे क्या मतलब है। जनता इस अधोषित, जबरजस्ती थोपे गए विज्ञापन नुमा युद्ध को क्यों बर्दाश्त करे। आखिर विज्ञापन को हम क्यों देखें। क्यों आम रस की जगह कोल्ड-ड्रिंक पीया जाए। क्यों हलवे की जगह आइसक्रीम खाई जाए। क्यों रोटी की जगह मोमोज और बर्गर खाया जाए। फ्रिज में रखकर पुराना खाना क्यों खाया जाए। क्यों अपनी सेहत खराब की जाए। लेकिन इससे किसी को कोई मतलब नहीं है। विज्ञापन ने लोगों को ऐसा बाँधा है , कि सब विज्ञापन के होकर रह गए हैं। शादी विवाह , संस्कार , काज - परोजन सब कुछ विज्ञापन के अनुसार हो रहा है। इस विज्ञापन ने लोगों को नकलची बनाया है। घोखा देना , झूठ बोलना, दिखावे की जिंदगी जीना। कर्ज लेकर घी पीना सीखाया है। फलत: हमारा पतन होता जा रहा है। आदमी को सबसे ज्यादा अगर किसी ने बर्बाद किया है। तो वो विज्ञापन और बाजारवाद ने किया है। इसकी ही बानगी है, कि
समाज में नैतिक मूल्य, अँग प्रर्दशन बढ़ा है। लोग लोक - लाज भूल गये हैं। सही मायने में अगर पूछा जाए तो इस विज्ञापन की जरूरत किसको है। किसी को नहीं, लेकिन इसी विज्ञापन से जो चुनावों में मोटा और तर माल राजनीतिक पार्टियों को जाता है । वो बिना विज्ञापन के नहीं हो सकता है। उससे ही इन विज्ञापन -दाताओं के हौसलों को ऊँची उडान मिली है। सरकार भी इसको लेकर खुश है। और कह रही है, कि चँदा कहाँ से और कितना मिला। इसको राजनीतिक पार्टियों को बताने की कोई जरूरत नहीं है। कायदे से अगर देखा जाए। तो इस विज्ञापन से सीधे -सीधे सरकारों को फायदा है। और आम आदमी का विज्ञापनों की देखा -देखी में घर का बजट बिगड़ता जा रहा है।
विज्ञापन स्थिति प्रज्ञ है : (व्यंग्य) : महेश केशरी
आज किसी भी चैनल पर जाईए। विज्ञापन दाएँ -बाएँ कहीं से भी निकलकर सामने चला आ रहा है। सबसे बुरी हालत क्रिकेटरों की है। उनको विज्ञापनों से ढँक सा दिया गया है। कँधे पर रिफाईन ऑयल का विज्ञापन। पीठ पर एल . ई. डी. टीवी . का विज्ञापन। कमर पर जेल और स्प्रे का विज्ञापन। कोई चढ्ढी बेच रहा है। कोई जाँघिया बेच रहा है। एक दिन मेरा बेटा बोला पापा ये हेलमेट पहन लो। अपना लक पहनकर चलो। पड़ोसी बोला जो दिखता है, वही बिकता है। इसलिए दुकान में सैंपल बाहर टाँगो। बीबी बोली पहले इस्तेमाल करो, फिर विश्वास करो।
एक मशहूर अभिनेता हैं। वो माथे पर मलने वाले तेल से लेकर मसाले और अचार तक बेच रहें हैं। गनीमत ये है ,कि वो कहीं किसी दिन किसी ट्रेन- बस में पानी बोतल , इडली , झाल -मूढ़ी ,चना , अँडा , समोसा ,मैसू , चिप्स , बादाम , चॉकलेट, और केक बेचते कहीं दिखाई ना पड़ जाएँ ।
आदमी का लालच बढ़ता जा रहा है। जब से मोबाइल आया है। सूचना क्राँति आई है। तब से विज्ञापन का दौर लोगों के मनोरंजन का सत्यानाश करने पर तुला हुआ है। आप कोई धार्मिक सीरीयल या कोई फिल्म देख रहें हों । कोई समाचार सुन रहे हों। टी.वी . के नीचे से बाँए साईड से, ऊपर से आगे से पीछे से कहीं से भी आपको जबरजस्ती विज्ञापन दिखाया जाता है। भाई क्यों देखें हम विज्ञापन। ये तो जबरजस्ती की बात हुई।
संविधान में एक और संशोधन होना चाहिए। जिसमें हमको विज्ञापन नहीं देखना है, इसको लेकर भी हम नागरिकों को एक अधिकार मिलना चाहिए। एक कानून ऐसा बनना चाहिए। इस संविधान संशोधन के जरिए हमें विज्ञापन फ्री मनोरंजन का अधिकार मिलना चाहिए। जैसे जब हम कोई किताब पढ़ रहे होते हैं। तो उसके पात्रों से हम बात करने लगते हैं। उससे एक आत्मीयता स्थापित करने लगते हैं, लेकिन , टी.वी. ,फिल्म या और व्यवसायिक प्लेटफॉर्म पर जैसे ही आप कहानी में खोना चाहते हैं। कोई -ना -कोई तेल बेचने वाला, या क्रीम लोशन बेचने वाला आकर आपकी मनोरंजन की आजादी छीन लेता है। आप कहानी फिल्म को एँज्वाय ही नहीं कर पाते। तब तक विज्ञापन चालू हो जाता है। टी. वी. पर तो स्कीप ऑप्सन भी नहीं है। एक मशहूर टी. वी . है। जो आधे मिनट की हेडलाईन दिखाने के लिए भी पँद्रह मिनट का विज्ञापन दिखाता है।
विज्ञापन का हौव्वा ऐसा है , कि आप शहर के जिस भी हिस्से में हों। विज्ञापन आपके पीछे - पीछे भस्मासुर की तरह पीछा करता है। आप पेशाब करने गए हैं , तो वहाँ भी आपको विज्ञापन मिलेगा। विज्ञापन आपके कमरे में आपके खरीदे हुए अखबार ,मोबाइल, टी. वी. सब जगह मौजूद है।
आजकल तो एंटरटेनमेंट ऐप पर भी बिना विज्ञापन वाला अलग पैक है। थोड़ा मँहगा है। दूसरा एंटरटेनमेंट पैक थोड़ा सस्ता है। कहा भी गया है। सस्ती चीजें पेट और मुँह दोनों खराब करती हैं। विज्ञापन ने हमारे संस्कार खराब कर दिए हैं। विज्ञापन ने हमें नैतिक रूप से कमजोर बना दिया है। इसी विज्ञापन ने समाज में नग्नता फैला दी है। मानवीय मूल्यों का तेजी से विघटन हो रहा है। हम बेकार के तनवग्रस्त और भागदौड़ में लगे हुए हैं। हमें समाज और लोगों की चिंता नहीं रही है। लोग स्वकेंद्रित होते जा रहे हैं।
विज्ञापन सब जगह है। जनता को मिलने वाले पोषाहार पर। जहाँ साड़ी - कपड़ा खरीदने गए हैं , उस
दुकान के थैले पर। हर जगह। मिठाई लेने गए हैं ,तो मिठाई के थैले पर।
यहाँ तक , कि अगर आप दवाई लेने गए हैं, तो दवाई की दुकान का नाम और पता भी उस दुकान के थैले
पर भी छपा हुआ है।
हर हिस्से में जहाँ आप टॉयलेट कर रहें हैं। वहाँ भी हकीम जी का विज्ञापन मिलेगा।
गाँवों और कस्बों में दीवार पर नसों के कमजोर होने , पतला पन , टेढ़ापन , सुजाक , श्वेत-प्रदर , सबका शर्तिया इलाज होता है। आप अपनी पत्नी के सामने बहुत देर तक टिक नहीं पाते हैं। ये मर्दाना कमजोरी है। गाँवों -कस्बों से लेकर शहरों में सेक्स एक समस्या है। और विज्ञापन के झाँसे में फँसने वाला हमारा उपभोक्ता उल्लू है। देश में सबसे ज्यादा रोचक विषय सेक्स है। और कुछ बात करने को नहीं है। मँहगाई, बेरोजगारी , और भ्रष्टाचार हमारे देश में गौण मुद्दे हैं।
विज्ञापन में ये भी है , कि बचपन की गलतियों को सुधारने का एक मौका अवश्य मिलेगा। आपको हस्थमैथुन के कारण होने वाली कमजोरी का शर्तिया इलाज यहाँ किया जाता है। आगे बढ़ें तो नि:संतान दंपत्ति फलाने रविवार या बुधवार को अमुक जगह मिले। समस्या का सौ प्रतिशत गारंटी के साथ इलाज किया जाता है। जब हर तरफ विज्ञापन है।
तो ये समझना हमारे लिये जरूरी है, कि हम विज्ञापन के लिए हैं। या विज्ञापन हमारे लिए। तो सवाल का जबाब है , कि जी हाँ जब आप थैलों पर विज्ञापन ढ़ो रहे हैं। क्रिकेटर बनकर, अभिनेता बनकर अपने टी - शर्ट पर चाय , बाम , टायर , मसाले , चिप्स , कोल्ड- ड्रिंक बेच रहे हैं। आप विज्ञापन के गुलाम बन गए हैं। पैसों के लिए आप कितना भी गिर सकते हैं। तो हुए ना आप विज्ञापन के गुलाम।
आप छाँछ , दही लस्सी नहीं पी सकते। आपको मोमोज बर्गर और पिज्जा चाहिए आपको कोल्ड ड्रिंक चाहिए । इसलिए विज्ञापन हमारे लिये है। जो हमारे रक्त में कहीं गहरे बस चुका है। दरअसल विज्ञापन स्थिति प्रज्ञ है !
आईए घर फूँक कर तमाशा देखते हैं : (व्यंग्य) : महेश केशरी
अजीब आलम है। आप पहचान नहीं पाएँगे। अपने दोस्त और दुश्मनों को। जो दोस्त हैं, वो खंजर भोंकने के लिए हमेशा से तैयार हैं। अपनों के बीच के ऐसे लोगों को पहचानना बड़ा मुश्किल है। दरअसल उन्होनें मुखौटे पहन रखे हैं। अच्छा होने का। ऐसे लोगों की पहचान मौके - बेमौके हो ही जाती है।
आपको क्या लगता है। बिस्तर से उठना और बिस्तर और वापस लौटना एक कवायद भर है। और जो एक- एक दिन कट रहा है। वो इतनी आसानी से कट जाता है। दरअसल बिस्तर से उठना और वापस बिस्तर पर लेटना एक लँबी जद्दोजहद से भरा काम है। बिस्तर से उठते ही अंक गणित का खेल शूरू हो जाता है।
ये एक ऐसा गणित है, कि आर्यभट्ट और रामानुज को भी आजतक समझ में नहीं आया। उठते ही आदमी जरूरतों के पीछे भागने लगता है। जरूरतें हैं कि पूरी ही नहीं पड़ती। ये गृहस्थी का गणित है। जिसे कोई गृहस्थ आज तक नहीं समझ पाया। आपके घर में ही आपको ऐसे लोग मिल जाएँगे। जो खा तो आपका रहे हैं, लेकिन आपकी ही पीठ में छुरा घोंप रहे हैं। आप किसका नाम लीजियेगा। कोई हितैषी नहीं है। सब मार-मार कर बचाने में लगे हैं। सबको जमा करना है।
आपका ही खाते हैं। और आपको ही आँख दिखाते हैं। आप लोक -मर्यादा में कुछ नही कहते। सोचते हैं , कि लोग क्या कहेंगे। लोग कहेंगें, कि आप कुटुँब धर्म का निर्वहन ठीक से नहीं करेंगे। लोग को तो बात करने का विषय चाहिए।
ऐसे विषय जिसमें रस हो। जो दूसरों के घरों से जुड़ा हो। जिसका बखान वे लोग रस ले लेकर करें। और आपके गोतिया- देयाद अंत में आपको ही चोर ठहरा देते हैं। अरे गोतिया देयाद की छोड़िये। आपको पालने वाले आपके पालनहार भी आपको ही अंत में गलत ठहरा देंगे। आप भलाई करते जाईए। आप ही अंत में चोर ठहराए जाएँगे।
आपने ही सारा धन मार - मारकर अपने नाम से रख लिया है। और जो आप कर्ज लेकर इधर - उधर से माँग - छाँगकर खा- खिला रहे थे। सब मिट्टी हुआ जाता है। आप सब हैं, चोर बेईमान। ये आपके अच्छे होने का ही नतीजा है, कि लोग आपको इतना करने के बाद भी बुरा - भला कहने का अधिकार रखते हैं। ये लोग आपकी उदारता का फायदा उठाना अच्छे से जानते हैं।
उनको आपके कटुँब से कोई लेना -देना नहीं है। आप भींगते रहिए दु:ख , मुसीबत और परेशानी की चटख धूप में।
उनको केवल अपना हिस्सा चाहिये। माँ-बाप की जिम्मेवारी के नाम पर कुछ नहीं। ना खाना-पीना पूछना। ना ही दर -दवाई, देंगे। सब आपको खुद समझना है। वो अंतिम समय में आएँगे। जिस समय हिस्से और बखरे की बात होगी।
आप खड़े रहिए जिममेदारी का बोझ उठाए। कुटुँब के बड़ों ने आपको पाला-पोसा, आपको बड़ा किया। उस एहसान को लोग भूल जाते हैं। अपने परिवार और बच्चों के लिए चीजें छुप-छुपाकर ले जायी जाती हैं। आप शुरू से मरे जा रहें। हाय रे मेरा कुटुँब, मेरे लोग ! इसके लिए ये कर दूँ। उसके लिए वो कर दूँ। अंत में आदमी अपनों से हार जाता है। क्या करे और क्यों करे?
जब आप हमारा ही खाईयेगा। और हमें ही आँख दिखाईयेगा। और ऊपर से भीतर से भीतरघात भी कीजियेगा। आपको खाने के लिए भी चाहिये। और जमा करने के लिए भी। आप से कोई हिसाब ना माँगे। कोई कुछ ना कहे। तो बहुत बढ़िया। यदि कोई पूछ ले, कि अमुक चीज इतने की आती है। आपने इतना क्या किया। तो आप सबसे खरब। मुझसे हिसाब लोगे।
लोग आपकी पत्नी को भी भड़काते हैं। अपने लिए भी कुछ जमा करके रखना। फलाना ऐसा कह रहा था, कि हम ये , ये चीज नहीं दे सकते।
भाई तुम भी पैसा रखना। हो सके जब तुम्हारी उम्र हो जाए, तो शायद तमको भी तुम्हारा पति नहीं पूछे। अरे भाई ये अलगाव वाद की चिंगारी काहे भड़का रहे हो। मुझे लगता है , कि ये संयुक्त परिवार की अवधारणा धीरे -धीरे खत्म हो रही है। उसका कारण यही भीतरघात है। आप जिसको खिला - पिला रहें हैं। जिसके दवा-दारू की व्यवस्था कर रहें हैं। जिसके लिये आप जीवण में इतना भाग दौड़ कर रहें हैं। जिसके चलते आपने एक दिन की छुट्टी तक नहीं ली। आप घिस गए। मर गए देते -देते। लेकिन आखिर में आप ही सबसे बेकार साबित होईएगा। लिख लीजिए। जब तक आप दे रहें हैं। तब तक आप ठीक हैं। जहाँ आप देना बँद कर दीजियेगा। आप दुनिया के सबसे खराब इंसान माने जाएँगे। यही सत्य है । ये कुटुँब जो है , गिद्ध की तरह है। आपको केवल नोंचना जानता है। आप अपने शरीर का सारा गोश्त नुचवा लीजिए। कुटुँब खुश रहेगा। इसके बाद यदि आप अपने जीवण के आखिरी पाँच-दस साल कहीं शाँति से जीना चाहते हैं। और कहीं कुछ अपना खोलना या कुछ नया करना चाहते हैं। तो आप चोर हैं। आप कुटुँब के पीछे घिस जाईये। मर जाईये, खप जाईए। कोई कुछ ना कहेगा। सब लोग आपके मरने - खपने के इंतजार में हैं … आपने कर्जा -महाजन करके, किसी से उधार पैंचा करके सबके लिए जीने के साधन जुटाईए। उसको खिलाईए - पिलाईए पढ़ाईए -लिखाईए। लेकिन अंत समय में आप अकेले बच जाते हैं।
चौपर और काबिल लोग : (व्यंग्य) : महेश केशरी
एडजस्ट आपको छोड़े -बड़े सब लोगों के साथ करना पड़ता है। आप बहुत काबिल हैं। लेकिन यकीन मानिए जब आप इन काबिल लोगों के चक्कर में पड़ जाते हैं। तो ऐसे लोग अपने साथ -साथ दूसरों को भी ले डूबने को तैयार हो जाते हैं। इनको साठ किलो और पैंसठ किलो के भार में कोई खास अंतर नहीं समझ में आता है। भाई किसी हेलिकॉप्टर को एक निश्चित वजन के साथ सामान लाने और ले जाने के लिए टेस्ट किया गया है। ये आपके अनसंधान को धत्ता बताते हैं। जितने किलो का वजन विमान उठा सकता है। उससे ज्यादा वजन वो नहीं उठा सकता। ये बात बहुत अच्छे तरीके से मालूम होने पर भी ऐसे महानुभाव किसी कि नहीं सुनते। इसका खामियाजा जब लोग भुगतते हैं। तब उनके साथ - साथ और लोग भी पिसते हैं। आपको बहुत ज्यादा मतलब आठ नौ हजार घँटे का प्लेन या हैलिकॉप्टर चलाने का एक्सपीरियंस हो । आप लाख अच्छे पायलट हों। कुछ तथाकथित होशियार लोगों के आगे आपकी एक नहीं चलती। और वही होता है, कि हम तो डूबेंगे सनम और तुमको भी ले डूबेंगे।
तो अभी एडजस्ट करने का समय है। हमारे यहाँ लोग एडजस्ट करने में महारत रखते हैं। ट्रेन का उदाहरण ले लीजिए। बस का उदाहरण ले लीजिए। आपको हर जगह लोग एडजस्ट करते मिल जाएँगे। अगर आप मीडिल क्लास हैं। तो आपको ज्यादा एडजस्ट करना पड़ता है। हर जगह मन - मारना पड़ता है। हाई क्लास के लिए सब व्यवस्था है। वो एडजस्ट नहीं करता है। उसके सामने सब एडजस्ट करते हैं। आप ट्रेन से सफर कर रहें हैं। और यदि साधारण श्रेणी में यात्रा कर रहें हैं। तो चार लोगों की सीट में पाँच लोग धँस कर बैठ सकते हैं। कुछ तो खड़े -खड़े ही सफर करते हैं। सफर दरअसल सफर suffer करना रह गया है। यदि आप साधारण श्रेणी में यात्रा कर रहें हैं, तो सोकर नहीं जा सकते । आपके सोकर जाने से लोगों को परेशानी है। आखिर आप साधारण श्रेणी में सोकर क्यों जाएँगे। आप सोकर जाएँगें .और हमको बैठने की भी जगह नहीं मिलेगी। ऐसा भी भला कहीं होता है। अगर आप गालियाँ देना नहीं जानते, तो साधारण श्रेणी में यात्रा कीजिए। .नि:संदेह ही दुनिया की भद्दी- से -भद्दी गालियों से आपका साक्षात्कार होगा।
इधर इस लायक हो गया हूँ , और लक्ष्मी की कृपा हुई है। और पिछले बारह -तेरह साल से रिजर्वेशन में सफर करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। लेकिन, उतने समय में ही और लोग मुझसे सामाजिक स्टेटस में आगे निकल गए और हैं। और थर्ड ए. सी. और सेकेण्ड ए. सी. में सफर करने लगे हैं।
लिहाजा मेरा कुछ वैसा ही हाल है, कि मैं अँधों में काना राजा होने की हैसियत रखता हूँ। लिहाजा रिजर्वेशन से सफर कर रहा हूँ।
इसलिए साधारण लोगों का गुस्से का टेंपर कितना हाई हो सकता है। इसका कतई अँदाजा नहीं था। इधर एक- दो बार साधारण श्रेणी में यात्रा करने का अनुभव प्राप्त हुआ। ट्रेन अभी चली ही थी , कि दो लोग आपस में उलझ गए। बात आप से शुरू हुई थी। और रे ,बे पर पहुँच गई। एक भाई साहब बोल रहे थे। अगर तुमको सोकर जाना है , तो रिजर्वेशन करवाकर चलना चाहिए। तुमको साधारण श्रेणी में सफर नहीं करना चाहिए।
हम सबसे ज्यादा उनसे ही लड़ते हैं। जो हमारे अपने लोग यानि मीडिल क्लास का है। कुछ दूर ट्रेन या बस में साथ -साथ चलना है। लेकिन एक- दूसरे को देखना नहीं चाहते। सबसे ज्यादा लड़ाई सीट को लेकर रहती है। ट्रेन रूकी नहीं , कि सीट लूटने के लिए लोग दौड़ पड़ते हैं।
जैसे ही कोई दूसरा नया स्टेशन आने को होता है। पैर पीठ चौड़ा करके लेटने और बैठने की कवायद शुरू हो जाती है । बच्चों को सलाह देते हैं , कि सो जाओ।चौड़ा होकर बैठो , पैर फैलाकर या सीट पर पालथी मारकर बैठो। जिससे दूसरों को सीट ना मिले। दूसरे आपके कम्पार्टमेंट में ना आ जाएँ।
लोग बड़े जँक्शनों में स्टोपेज आने से पहले ही दरवाजे बँद कर देते हैं। असंवेदनशील होने की पराकाष्ठा अगर आपको कहीं देखनी है। तो आप ट्रेन के साधारण श्रेणी में चलकर देखिए। लोग एक दूसरे को देखना भी नहीं चाहते।
इधर तेरह साल से सामान्य श्रेणी में चलने का तजुर्बा जाता रहा था। आज जब चौदहवें साल में साधारण श्रेणी में यात्रा करने का अनुभव प्राप्त हुआ, तो लगा मैं किसी और दुनिया में आ गया हूँ। ये एक अप्रत्याशित अनुभव था। रिजर्वेशन में आपकी सीट आरक्षित होती है।
मैं , अक्सर अपनी पत्नी और बच्चों के साथ इस यात्रा पर होता हूँ। रिजर्वेशन में जल्दी कोई आपके कंपार्टमेंट में नहीं आता। कोई आ भी गया तो रिक्वेस्ट करके बैठता है। भईया बस एक स्टोपेज तक चलना है। बैठने दीजिएगा। मैं , स्वीकृति में सिर हिला देता हूँ। अक्सर जब हम साथ -साथ सफर कर रहें हैं, तो थोड़ी दूर तक कोई साथ चले। तो भला इसमें क्या दिक्कत हो सकती है। जब तक हम रिजर्वेशन में सफर कर रहे थे ।
तब तक हमें इस बात का कोई एहसास नहीं था , कि दुनिया कितना कोलाहल और क्लेश द्वेष और मलिनता से भरी पड़ी है।
कोई कोलाहल नहीं। सब लोग अपनी अपनी सीट पर शाँति से बैठकर खाना खा रहें हैं। कोई मोबाइल देख रहा है। कोई कुछ , कोई कुछ . सभ्य और शाँत दुनिया। शोर विहिन।
साधारण श्रेणी के लोग। साधारण और एक -दूसरे को भद्दी भद्दी और गँदी-गँदी गालियाँ देते हुए। पहले जब तक मैं रिजर्वेशन में यात्रा कर रहा था। तो मेरा ये मानना था , कि एक ही तरह की दुनिया है। जिसमें लोग एक दूसरे को गाली नहीं बकते। सभ्य और सौम्य दुनिया। मेरा जो तिलस्म था। वो टूट गया था . वैसे लोग वहाँ थे। जो ट्रेन में अपने अधिकारों के लिए लड़ने मरने और कटने के लिए तैयार थे। ये ऐसे लोग थे। जिनको ट्रेन की साधारण श्रेणी में सफर -करते वक्त सबसे ज्यादा अपने अधिकारों के लिए लड़ना आता था। जो चुनाव के वक्त दो बोतल दारू या दो तीन हजार में बिक जाते थे!
खूबसूरत पड़ोसन हर दिल का इलाज : (व्यंग्य) : महेश केशरी
पत्नी और पड़ोसन में बहुत सी समानताएँ हैं। जैसे आप अपनी पत्नी और पड़ोसन को नहीं बदल सकते। अच्छे हों या खराब दोनों को साथ रखना पड़ता है। पत्नी जहाँ ईश्वर द्वारा थमायी गई आपदा की तरह होती है। तो वहीं पड़ोसन अवसर की तरह या आशीर्वाद की तरह होती है। जिन्होनें बहुत पुण्य कर्म किए होते हैं। उनको खूबसूरत पड़ोसन मिलती है।
पड़ोसन शब्द के पर्यायवाची शब्दों में इधर इजाफा हुआ है। अगर हम गौर करें , तो आपकी साली , उनकी दोस्त, आपकी जेठ साली , उनकी सहेलियाँ ,आपकी सढूआईन , आपके साले की पत्नी को अपग्रेडेड शब्दकोश के अनुसार पड़ोसन मान सकते हैं। या कम- से- कम हर पति की ये दिली ख्वाहिश होती है , कि ये सब लोग उसके पड़ोस में रहें।
हर खराब पति को बकौल पत्नी जी के अनुसार एक खूबसूरत, मजबूत और टिकाऊ पड़ोसन की जरूरत होती है। इससे होता ये है , कि जब- जब पत्नी जी का मनहूस चेहरा पति को दिखे। तो वो अपनी पड़ोसन को देखकर थोड़ा रिफ्रैश हो ले ।
पत्नी को हम बाल मान लेते हैं। इसके पीछे बहुत से तर्क हो सकते हैं। पहला तर्क ये है , कि पत्नी बाल का खाल निकालने में माहिर होती है। दूसरा पत्नी द्वारा बनाए खाने में बार - बार बाल आता है।
पत्नी रूमाल पूछती है। रूमाल के ऊपर लगे दाग पूछती है। लिपस्टिक का निशान पूछती है। लेकिन, पति का हाल नहीं पूछती .
जिन पतियों का शादी से पहले सिर पर घने - घने और घनेरे बाल हुआ करते थे। गृहस्थी और क्लेश में वहाँ केवल सूखा रेगिस्तान मिलता है।
पत्नी जी चलती फिरती सलाह - मश्विरा केंद्र की तरह होती हैं। बात -बात पर सलाह देती रहतीं हैं। पत्नी जी को हमेशा लगता है , कि वो एक शिक्षिका हैं। और पति एक बेवकूफ विधार्थी। जिनके कान की खिंचाई पत्नी जी दिन भर में दसियों बार करतीं रहतीं हैं।
पड़ोसन के साथ सुविधा ये है , कि वो आपको देख के हमेशा मुस्कुराती रहती है। और , आप उसको देखकर मुस्कुराते हैं। उस समय आपकी उम्र में दो- ढाई दशक का अंतर आ जाता है। आप फिर से साईकिल उठाकर पुराने दिनों में अपने कॉलेज या स्कूल की यात्रा पर निकल पड़ते हैं।
आप हमेशा उसकी मुस्कुराहट देखकर सोचते रहते हैं , कि आपका चाँस है। या आपको चाँस मिल सकता है। बस थोड़ा सा प्रयास करना है।
पड़ोसन को आप सलाह देने के लिए लालायित रहते हैं। आप हमेशा यही चाहते हैं , कि कब पड़ोसन मुँह खोले। और आपको कुछ बोलने का मौका मिले। पडोसन को बिन माँगे भी आप उसको सलाह देने के लिए तैयार रहते हैं। आप चाहते हैं ,कि आपके हर फैसले में आप अपनी पड़ोसन की राय लें । दरअसल हर स्वास्थ्य केंद्र में डॉक्टरों को अपने बगल में एक खूबसूरत सक्रेटरी रखना चाहिए।
जो आपकी पड़ोसन की कमी आपको अस्पताल में भी पूरी कर सके ।
पड़ोसन अगर खूबसूरत हो , तो आप उसको देखने के लिए बार- बार बॉलकानी में आते हैं। आपका दिल बल्लियों उछलने लगता है। आप तब प्रेम-पत्र लिखने बैठ जाते हैं। और आपको आपकी क्रश की याद आ जाती है।
जवानी या जब आप विधार्थी जीवण में थे। और जिस तरह से लड़कियाँ स्कूल और कॉलेज में आपको देखकर मुस्कुराती थी। कुछ - कुछ वैसी ही फीलिंग आने लगती है। अगर आपकी पड़ोसन बहुत खूबसूरत है, तो आप बार- बार छत पर चले जाते हैं। इस तरह से आपको अलग से वर्जिश करने की जरूरत नहीं पड़ती। तब आपका तनाव भी कम हो जाता है। करैले का जूस भी शहद सा मीठा लगता है। आप जो अधेड़ावस्था में हैं।तो पड़ोसन को देखने के बाद आपका दिल जवान हो जाता है। ये बात विज्ञापन में गलत बताई गई है , कि आपके दिल को हमेशा सोयाबीन ऑयल सफोला जवान रखता है। दरअसल दिल के जवान रहने में पड़ोसन का अहम योगदान होता है।
ये शोध में पाया गया है , कि जिन लोगों की पड़ोसन जवान और खूबसूरत पाई गई। उनमें दिल की बीमारी होने की सँभावना ना के बराबर होती है ।
पड़ोसन दरअसल शरीर में मौजूद दिल की तरह होती है। जो मन रूपी हमारे शरीर में बराबर और नियमित ऑक्सीजन की आपूर्ति करती रहतीं है।
पत्नी को बिना देखे आप महीनों या सालों रह सकते हैं।या सही मायनों में अगर पूछा जाए। तो पत्नी को कौन पति देखना चाहता है। पड़ोसन अगर एक दिन ना दिखे , तो मुर्छा आने लगती है। पत्नी को देखते ही बची- खुची भूख मर जाती है। पड़ोसन को देखत ही उसको डेट पर ले जाने को जी चाहता है। उसके साथ कोल्ड कॉफी पीने का मन करता है।
पड़ोसन दरअसल पाचक की तरह होती है। जो आप दिन भर में उल्टी सीधी चीजें खाकर अपने को परेशानी में डाल लेते हैं। तो पड़ोसन रूपी पाचक आपका हाजमा ठीक रखती है।
पत्नी जहाँ करैले का भर्ता है । तो पड़ोसन पालक पनीर की सब्जी। पत्नी जी जहाँ झाड़ , झँखाड़ , कैक्टस की तरह बिना उगाए ही उग आती है। और जो रात दिन आँखों में चुभती रहती है। वहीं पड़ोसन को खाद पानी देकर सींचना पड़ता है।
पड़ोसन बोगेनवेलिया, रातरानी , गुलाब , रजनीगन्धा की तरह मादक होती है। इन फूलों की खूशबू से आपका पोर - पोर महकने लगता है। पत्नी अगर नीम और एलोवेरा का कड़वा घूँट है । तो पड़ोसन काजू की बर्फी।
पड़ोसन जब धीरे से हँसती हैं। तो दिल में धँसती हैं।वहीं पत्नी जी का मुखारविंद हमेशा गुस्से से लाल रहता है।
भुगातान कीजिए और गलती भी मानिए : (व्यंग्य) : महेश केशरी
आप जो भी सेवाएँ लेते हैं। उसके बदले पे करते हैं। आप टैक्सी लीजिए और पे करके सैर पर निकल जाईए। बार में जाईज पे कीजिए और बढ़िया शराब आपको परोसी जाएगी ।आप पे कीजिये और रेस्टोरेंट में बढिया खाना खा लीजिए । आप किताब खरीदिए और पे कीजिए। अच्छा ज्ञान आपके हाथ आऐगा। लेकिन दिमाग दौड़ाईए और अँदाजा लगाईए कि आप कहाँ पे करतें हैं। और आपको मन माफिक सेवा नहीं मिलती है। उलटे आप पे करने के बाद अपने आप को गिल्टी भी फील करते हैं। जी हाँ आप शादी करने के बाद भी आजीवण पे भी करतें हैं। और गिल्ट भी फील करते हैं। राशन , दवाईयाँ, स्टेशनरी , दूध , धोबी , नाई , बच्चों की फीस एल . आई सी. और सबसे ज्यादा अपनी श्रीमती जी के सौंदर्य प्रसाधन पर जितना हम पे करते हैं। उसको देश के तमाम पति अगर जोड़-घटाव कर लें। तो किसी छोटे -मोटे देश की जी. डी. पी. जितना तो बजट बन ही सकता है।
शादी के बाद आप सफाई ही देते नजर आते हैं।आपका ज्यादातर समय घर के जालों - कोनों अतरों को साफ करते ही बीतता है।शादी ही एक ऐसी संस्था है। जहाँ पेड करने के बाद भी आपको सफाई देनी पड़ती है। आपको शादी के बाद हर बात के लिए गिल्ट करार दिया जाता है।
शादी के बाद आदमी की बची- खुची अक्ल भी घास चरने चली जाती है। आदमी शादी के बाद आदमी नहीं रहता। बल्कि वो गधा बन जाता है। बोझ ढ़ोने वाला गधा। और दिलचस्प बात ये है, कि वो ये बोझ खुशी -खुशी ढ़ोने के लिए तैयार भी हो जाता है। घोड़े और गदहे दु:खी होने पर दुलत्ती मारने की कुव्वत रखते हैं। आदमी शादी के बाद गदहा होते हुए भी दुलत्ती मारना जैसे भूल जाता है। और साल - दर साल इन गदहों की संख्या में उतरोत्तर बढ़ोत्तरी होती जा रही है। और पति नामक गधे उछल -उछल कर हर साल घोडी चढने को लालायित रहते हैं। पति नामक जीव वो गदहा है। जो शादी के बाद अपना और अपने कुटुँब का बोझ खुशी -खुशी ढ़ोता है। दिलचस्प ये है , कि ऐसे गदहों की संख्या में उतरोत्तर साल-दर - साल बढ़ोत्तरी हो रही है।
मैं , पेड सेवाओं में विश्वास करता हूँ। पेड सेवाओं की खासियत है। आपको लोग अपनी परेशानी नहीं बताएँगें। प्रेम से आपको सारी सेवाएँ समय से बिना किसी चूँ-चपड़ के मिलती रहेंगीं। उदाहरण के लिए यदि आप धोबी के पास कपड़े घुलवाते हैं। तो आप उसको पेड करते हैं। लिहाजा आपको ये जानने की जरूरत नहीं है, कि उसने कितना सर्फ डाला। कितना पानी डाला। कितने बार उसको पीटने से पीटा। या कितने पानी से उसने कितनी बार धोया। आपने पैसे दिए। और आपका काम खत्म।
खाने में यदि आपको साग या पालक पनीर पसँद है। चावल पसँद है। तुरँत जोमेटो या स्वीगी से ऑनलाईन ऑर्डर कीजिए। वो तुरँत लेकर हाजिर हो जाएगा। वो नहीं बताएगा। गर्मी , लू या बारिश, ठंड की परेशानी।
जिस रेस्टोरेंट से आपका खाना आया है। आप उसके रसोईए को नहीं जानते होंगें। मतलब भी नहीं होना चाहिए। उसने चावल को कितनी बारीकियों से चुनकर बनाया है । साग के पत्तों को कितनी मेहनत से देख-देखकर साफ किया है । तकनीकी बातों को जानकर भला कोई क्या करेगा । ये बात आपको कोई नहीं बताएगा।
लेकिन इसके उलट अगर आप शादी कर चुके हैं। तो आपको तरह -तरह के बहाने और उलाहाने सुनने को मिलेंगें। चावल तुम देखकर नहीं ला सकते थे। आधा घँटा चावल को साफ करने में ही लग गया। बेकार में मेरा आधा घँटा बरबाद हो गया । अपने कपड़े आप खुद ही धो लिया करो। मेरे हाथ धर लेते हैं। बच्चों और किचेन से टाईम ही नहीं मिलता। और क्या कहा, पालक पनीर। भूल जाओ। सर्दियों में ऐसे ही दिन छोटा होता है। काम करते- करते मेरा कचूमर निकल जाता है। साग- वाग हमसे नहीं बनेगा। धोबी कह सकता है, कि कपड़े आप खुद धो लीजिये। कपड़े धोते- धोते मेरे हाथ दु:ख जाते हैं। अगर आप गलती से कह दें। भाई कल से कपड़े लेने मत आना । धोबी फौरन सोचेगा। लगता है कोई , दूसरा मेरे कंपटीशन में खड़ा हो गया है। तभी तो साहब नाराज होकर कपड़े प्रेस करने को नहीं देना चाहते। इस बार इतना बढ़िया काम करके दूँगा , कि साहब कभी किसी दुसरे को देने की सोचेंगे ही नहीं।
दोनों पेड सेवाएँ हैं। सर्विस में अंतर देख लीजिए। क्या कोई रेस्टोरेंट ये कहकर साग या पालक- पनीर बनाने या बेचने से मना कर सकता है , कि सर्दियों में दिन छोटे होते हैं।
लिहाजा साग या पालक पनीर की सब्जी हमारे यहाँ नहीं है। वो रसोईए को पैसे का लालच देगा। ओवरटाईम करने वालों को रखेगा। पैसे में बहुत ताकत होती है। पैसा लोगों को नींद से जगा सकता है। ओवरटाईम करवा सकता है। पैसा ही नये - नये आइडिया लेकर आता है। उसको कमाने के लिए लोग थकते नहीं हैं। दौड़ते रहते हैं। भागते रहते हैं। साथ में मुस्कुराते भी रहते हैं।
आप दस बजे रात में अगर चाय की डिमांड करते हैं। तो श्रीमती जी आँख बँद किए-किए ही कहेंगी। नहीं अब मुझमें एनर्जी नहीं बची है। कल चाय बना दूँगी। कल पी लेना । कहीं कुछ स्पेशल पकौड़े , लिट्टी , की बात कर दीजिए। तो कहेंगी। होटल से मँगवा लेते हैं। दोनों मिलकर खाएँगे। वो सब तो ठीक है। लेकिन, होटल में बिना पेड किए कुछ नहीं मिलता है। अब एक ही सेवा के लिए आदमी दो -दो बार पेड तो नहीं करेगा ना। अब ये बात बताना तो जैसे श्रीमती जी के गले में घँटी बाँधने के समान है।
पेड सर्विस में आदमी को देते हुए। एक ठसक सी महसूस होती है, कि भाई तुमने सामान दिया। और मैनें पैसे। किसी को कोई तकलीफ नहीं। आप किसी रेस्टोरेंट में जाईए। वहाँ लिखा मिलेगा। स्वागतम्। आपको जब बिल थमाया जाता है। तो बिल के नीचे लिखा होता है। कृपया पुन: पधारें। आपने श्रीमती के किचेन के ऊपर कभी लिखा हुआ देखा है , कि कृपया पुन: पधारें। या आपका हमारे किचन में स्वागत है। आप अगर घर जाईएगा। तो श्रीमती जी तरह-तरह की परेशानियों से आपका स्वागत करेंगी। आज गर्मी बहुत है। आज चोखा भात ही मिलेगा , खाने को।
गैस खत्म था । आज खाना नहीं बना है। होटल से कुछ खाने का ऑर्डर कर दो। मेर तबीयत सुबह से ही खराब है। इसलिए खाना नहीं बनेगा आज। यानी शादी करने के बाद पति वो गधा है। जो पेड तो करता है। लेकिन सर्विस नहीं ले पाता। ठसक तो तेल लेने चली जाती है।
इसलिए अगर आपको फक्र और ठसक की जिंदगी जीनी है।अगर आपको पेड करना है। और सर्विस लेनी है। और आप आजीवण ये चाहते हैं , कि आपकी जिंदगी शाँति से चले। कोई चिक-चिक कोई झिकझिक ना हो। तो आजीवण बैचलर रहने का प्रण लीजिए। मैं दावे कह साथ कह सकता हूँ, कि कोई एक आदमी इस धरती पर या इस दुनिया में बता दीजिए। जो शादी के बाद पेड भी करता हो। और सर्विस भी लेता हो । नहीं जी ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।
और कोई मिलेगा भी नहीं । जिसने शादी किया वो ताऊम्र पेड ही करता है।
यूटयूबर और मल्टी टैलेंटेड लोग : (व्यंग्य) : महेश केशरी
अक्लमँदों की कमी नहीं है। पूरी दुनिया में नाना प्रकार के अक्लमँद आपको मिल जाएँगे। ऐसे लोग आपको हर काम उल्टा ही करता दिख जाएँगे। एक साहब हमारे यहाँ आज आए बोले मेरा वॉलीवाल फट गया है। स्टीकर मिल जाएगा। मैनें कहा स्टीकर कहाँ लगाईयेगा। बोले वॉलीबाल के ऊपर। मैनें कहा आप बेवजह में स्टीकर खरीदने की जहमत उठा रहें हैं। आप अपने थूक से भी से भी उसको साट सकते हैं। बेकार में कागज या कपड़े के स्टीकर पर पैसे क्यों खर्चने।
आप पैसा जमा करते जाईए। और उसको लिहाफ में भरकर यमलोक लेते जाईयेगा। इधर यमलोक में नयी स्कीम आई है। जो आदमी दुनिया का सबसे बड़ा कँजूस होगा। या जिसने कँजूसी कर- करके ढ़ेर सारा पैसे बचाया होगा। उसको पैसों के लिहाफ के साथ स्वर्ग में जाने की सुविधा होगी। आपको देखकर लोग सीखेंगें। हम हवा को स्टीकर या थूक लगाकर रोक सकते हैं। ऐसे लोग सिर पर स्टीकर लगाकर धूप से बचेंगें। छाता खरीदने की भला जरूरत क्या है। जब बारिश होगी तो रेनकोट की जगह स्टीकर पहनकर घूमेंगें। जब स्टीकर हवा को रोक सकता है। तो पानी को क्यों नहीं।
मेरे पास बहुत तरह के बहुत से वी. आई. पी .किस्म के लोग आते हैं। जो वेल -एजुकेटेड होते हैं। उनका कहना होता है ,कि भाई आप चिप एंड बेस्ट किस्म की चीज दिखाईए। मैं उनको साफ-साफ मना कर देता हूँ , कि भाई जो चिप होगा वो बेस्ट नहीं होगा। थूक से सतुआ नहीं साना जा सकता। उसके लिए पानी की जरूरत होती है। लेकिन लोग पानी खर्चना ही नहीं चाहते। दमड़ी में सभी के प्राण अटके रहते हैं। ऐसे लोग मल्टी टैलेंटेड होते हैं। यूट्यूब नहीं हो गया। स्कूल हो गया। सब लोग सीखने में लगे हैं। और सीखकर ही मल्टी टैलेंटेड हो गये हैं। सब लोग एक-दूसरे का रोजगार छीनने में लगे हैं। रसोईया यानी कुक का काम भी यूट्यूब से सीखकर किया जा रहा है। लोग यूटयूब पर कुकिंग सीख रहे हैं। दरवाजे की फिटींग करने से लेकर तरह- तरह के काम। आजकल मैकेनिकों के भूखों मरने के दिन आ गये हैं। सबका काम ये मल्टीटैलेंटेड लोग कर पा रहें हैं। सब काम , मतलब सब काम। टी. वी. , एल . ई . डी . सब बनाने लगे हैं। सब यूटयूब से देखकर। एक दिन एक साहब एल. ई. डी. , टी. वी . खोलकर लेते आए। बगल के इलेक्ट्रोनिक की दुकान पर। टी .वी. पर यूट्यूब पर देखकर काफी जोर आजमाईश की गई थी। लेकिन आशातीत सफलता नहीं मिली थी। लिहाजा सब प्रयास करने के बाद ही वो इलेक्ट्रोनिक दुकान पर आए थे। टी.वी.मिस्त्री ने बताया इसमें चार -पाँच हजार का खर्चा आएगा। ग्राहक बोला हजार, पाँच -सौ में बनेगा, तो बनाईए। नहीं तो टी. वी. वापस कर दीजिए। मल्टी टैलेंटेड होने का यही फायदा है। सब काम आप अच्छे से कर सकते हैं। भले आपको काम करने का हुनर आता हो या नहीं।
लीची की नजाकत और आम का सीजन : (व्यंग्य) : महेश केशरी
फलों में सबसे बुरी हालत केले और आम की होती है। उनका सीजन होता है। लीची का कोई सीजन नहीं होता। लीची के आने जाने का कोई टाईम नहीं होता। लीची भारतीय ट्रेनों की तरह होती है। देर से आती है। और तुरंत चली जाती है। यात्री बड़ी छटपटाहट के साथ लीची का स्वागत करतें हैं। सोचते हैं कि कुछ देर रूकेगी।और इत्मीनान से उसका स्वाद लिया जाएगा। लेकिन लीची तो दिखती भी नहीं। और सरपट नौ -दो -ग्यारह हो जाती है। वो दरअसल नई -नई घर में आई बहुरिया की तरह होती है। मुँह दिखाई के चार दिन बाद मायके। लोग रस लेना भूल जाते हैं। आईये आज लीची और आम का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं।
लीची को देख लीजिये। हमेशा गुलाबी ड्रेस में सजी धजी। लगता है , जैसे कोई रशियन राजकुमारी हो। अभिजात्य पन रेशे - रेशे से टपकता है। लगता है किसी फनकार ने कोण - कोण तराशा हुआ है । लीची को कोई अगर एक बार देख ले। तो ऐसा लगता है, कि बिना खाए रहा ही नहीं जायेगा। एक खाओ तो लगता है, कि एक और खा ही लिया जाए। कुदरत ने इतना खूबसूरत बनाया है , कि पूछो ही मत। खोल से निकलते ही आपका स्वागत उसका रस आपकी ऊँगलियों पर गिरकर करता है। आपसे ये कहता है, कि प्यारे प्रियतम अब आप मेरी कोमल काया और मीठे रस को अपने मधुर अधरों से पान कीजिए। मेरी गुदाओं को अपनी जिव्हा पर फेर - फेर कर ग्रासनलिका से उदरस्थ कीजिए। कहने का मतलब है। लीची मतलब नफासत , नजाकत , तहजीब और संस्कार।
अब आम की हालत देख लीजिए। पिल-पिला होता है। लोग आम को दाब - दाब कर देखते हैं। कहतें हैं बढ़िया - बढ़िया और हरे -हरे छाँट कर दो। अरे वो वाला मत दो। बहुत पिलपिला और मरियल है। अरे भाई वो सड़ा हुआ है। मत दो। वो हरा वाला। जो कम पका हुआ है। वो वाला दो।
ज्यादा पका हुआ और पिलपिले और पोपले मुँह के लोगों को लोग बाहर का रास्ता समय से दिखा देते हैं।
बरसाती सीजन में आम की शक्ल काली हो जाती है। इतिहास गवाह है , कि फल -सब्जियों को बेचने वाले लोगो को हम आम नजर से ही देखते हैं। और आम आदमी होने के कारण उसको हमेशा अंडर स्टीमेट करते रहते हैं। वही आम आदमी हमारे अडियल रवैये का जबाब लीची के सीजन में देता है। इसी अंडर- स्टीमेट करने के कारण जब लीची का सीजन आता है। तो फल वाला एँग्री यँग मैन यानी अभिताभ बच्चन की तरह बात करता है। लीची दो सौ रूपये किलो है। लेना है तो लो। नहीं तो चलते बनों। मानों कुछ इस तरह से कह रहा हो , कि मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता।
मुझे लगता है , कि फल वालों को भाव केवल लीची के सीजन में ही मिलता है। तब लोग बड़े सहलाकर पूछते हैं। भैया जी लीची कैसे दिए। सही सही लगा लीजिए। लड़कियाँ मुस्कुरातीं हैं। भैया हमशे भी इतना लोगे। औरतें मनुहार करतीं हैं। क्या , भैया हमारे मुहल्ले के होकर हमको ही लूटोगे।
सालों पहले जो बात कही गई थी। वो आज भी ठीक- ठाक लगती है। रामचँद्र कह गए सिया से ऐसा कलयुग आएगा। हँस चुगेगा दाना दुनका। कौआ मोती खाएगा।
बात सच भी है। बात आम की हो रही है। जो बारह मासी है। यानी आम और साधारण जिसकी कोई कद्र नहीं है। आपका जब तब साथ देने वाला। बच्चों को फुसलाना हो, तो कच्चा कैरी खरीद लीजिए। यानी कच्चा मैंगो बाईट। बच्चा और बाप दोनों खुश। पचास पैसे की एक आती है। आम का अमावट बारहों महीने होता है। अमावट खाईए और मन बहलाईए। गर्भवती औरत का जब जी मिचलाता है। तो वो कच्चा कैरी ही खाती है।घर में जब बढ़िया सब्जी ना बनी हो। तो कच्चा कैरी का आचार ही घर में गृहयुद्ध होने से बचाता है। उस आम के जो हमेशा से खास रहा है। फलों का राजा आम। खटाई में काम आने वाला आम। कच्चे आम का गुडम्मा बना लीजिए।
लेकिन चर्चे खास के हैं। जी हाँ आम के साथ -साथ अभी लीची का भी सीजन है। जी- हाँ सही समझे .बात लीची की ही हो रही है। सब तरफ शहर में उसके ही चर्चे हैं। मैनें दुकानदार से पूछा। भाई लीची कैसे दिए। लीची दो सौ रूपये किलो बिक रहा है। मैनें कहा लीची कुछ कम करके दे दो। बोला कम नहीं होगा। दो सौ रूपये किलो ही लगेगा। लीची में रेट कम नहीं कर सकता। आम ले लीजिए उसमें कम दूँगा। मैनें पूछा भाई ऐसा क्यों ? दुकानदार बोला लीची - लीची है। और आम -आम है। मतलब ये कि लीची महीने में पँद्रह -बीस दिन ही मिलता है। और आम लँबे समय तक। इसलिए लीची के भाव हैं।
जो हर पल हर जगह मौजूद है। उसकी कोई कीमत नहीं है। आम- आम बना हुआ है। और लीची खास। आजकल लीची के ही चर्चे हैं।
अब मुझे दुकानदार की बात अब समझ आई। जो आपके लिए सस्ता और सुलभ है। मतलब वो आम है। .उसकी कोई कद्र नहीं। नौकर अगर स्वामीभक्त है , ईमानदार है, तो वो आम की तरह ही है, साधारण। नौकर अगर ईमानदार है, तो बॉस की लात और बात दोनों खाता है। पति सीधा है , तो वो भी आम है। पत्नी , माता-पिता अपनी सुविधा के अनुसार हमेशा लताड़ते रहते हैं। इसलिए हर वो छोटी -मोटी चीज जो आसानी से आपको उपलब्ध है। और आप उसे दाम देकर खरीद सकते हैं। वो आम है। नेताजी सभा के लिए भीड़ बुलाते हैं। जनता आम की तरह उनका इंतजार करती है।.इसलिए जनता आम की तरह ही है। जो अनुपलब्ध हैं यानी नेताजी वो खास हैं।
पत्नी भक्त पति की पहचान : (व्यंग्य) : महेश केशरी
एक सज्जन से मेरी बात हो रही थी। तभी उनकी पत्नी का फोन आया। उन्होंने अपनी पत्नी का नंबर अपने मोबाइल में जान के नाम से सेव कर रखा था। ऐसे लोग मुझे अक्सर दिखाई पड़ जाते हैं। जो इस तरह से अपनी पत्नी का नाम अपने मोबाइल में सेव करके रखते हैं। इनको अच्छे से पता है, कि ये जो उनकी जान है। वो प्राण खाने के लिए ही इस दुनिया में आई है। इस तरह से जान , जानूँ , डार्लिंग , माई लव ,स्वीटहार्ट , नाम से अपनी प्रिये , या प्रियतम का नाम सेव करके रखने का एक फैशन सा चल पड़ा है। उसके बहुत से कारण हो सकते हैं। एक कारण ये हो सकता है, कि उसका पति उससे बहुत प्रेम करता है। इसलिए उसका नंबर इस तरह से रोमांटिक अँदाज में सेव करके रखता है।
दूसरा कारण ये हो सकता है, कि आपकी पत्नी का डर आपके मन में समाया हो। बहुत संभव है, कि पत्नी जी रूठ जाएँ। फिर उनको मनाने में पतियों को बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं।
इस क्राँतिकारी युग में मोबाइल ने लोगों की ऐसी-तैसी करके रख दी है। कारण कि आपकी गतिविधि पर आपकी श्रीमती जी हमेशा निगाह बनाए हुए रखतीं हैं। आप अनमैरेड नहीं हैं। इसका पता आपके फेसबुक एकाऊँट से चल जाता है। पत्नियों की हमेशा ये कंडीशन होती है , कि आप अपना व्यक्तिगत एकाऊँट फेसबुक पर नहीं रख सकते। अगर रखेंगें। तो बैंक के एकाऊँट की तरह ज्वाईँट एकऊँट रखना होगा। ताकि आप कोई ऐसी वैसी हरकत करें। तो इसका पता तुरंत पत्नियों को चल सके।
आजकल ज्वाइँट एकाऊँट खोलने का फैशन, राधा कृष्ण गुप्ता, की तरह है। ताकि आप राधा को छोडकर किसी और को चारा ना डालने लगें ।
यानी आपके नाम के साथ आपकी पत्नी का नाम भी जुड़ा होना चाहिए। एक सेल्फी खींसे निपोरते हुए अच्छे कपड़ों में होनी चाहिए। बॉयो में एँगेज्ड , या मैरेड विथ फलानी या चिलानी या ढ़िमकानी जरूर लिखा होना चाहिए। तभी आप अपनी मोबाइल की रोड़ पर सोशल साइटस् चला सकते हैं।
ये वैसे लोग हैं। जो अपनी पत्नी से बेहद प्रेम करने वाले लोगों में से होते हैं। इसके एवज में इनको कुछ विशेष नहीं करना पड़ता। बल्कि हर सँड़े- के- सँड़े अपनी पत्नी जी को लेकर बाहर होटल में जाना पड़ता है। बीच -बीच में ये जोड़े वाटरपार्क में चोंच -से -चोंच लड़ाते हुए भी आपको दिख जाएँगे।
बीच -बीच में ऐसे पतियों को ससुराल के चक्कर लगाते रहना पड़ता है। जो पत्नी से करे प्यार, वो उनकी बात मानने से कैसे कर सकता हैं , इंकार।
दरअसल ऐसे लोगों की खास पहचान होती है। ये परम पत्नी भक्त होते हैं। अभी के माहौल में जैसा कि चल रहा है। आज कि राजनीति में जैसे अभी लोग भक्त और चमचों में से कोई किसी की बुराई नहीं सुनना चाहता। एक अगर कुछ कहता है। तो दूसरा तुरंत विपक्षी पर कुत्ते -कौए की तरह झपट्टा मारने लगता है। पत्नी भक्त आदमी और तो सब बातें सुन सकता है। लेकिन अपनी पत्नी की बुराई नहीं सुन सकता। उसकी पत्नी की कोई बुराई कर दे तो, पत्नी भक्त पति उस पर चढ़ बैठता है। ये वही पति नामक जीव है। जो पत्नी के कहने पर झाड़ू बुहारू भी करता है। ये वही पति है। जो रसोई में आटा भी गूँथ देता है। ये वही पति है , जो जरूरत पड़ने पर पोंछा भी लगा देता है। ये वही पति है, जो माँ- बाप के समय में एक गिलास पानी भी उठाकर नहीं पीता था। वो परिस्थितियों के कारण घर का पत्नी भक्त बना हुआ है। ये वही पति है। जो माँ- बाप से बागी बना बैठा हुआ है। ये वही पति है। जो चौमिन -चिल्ली , मोमोज, पिज्जा- बर्गर काले पॉलीथीन में भरकर चोर दरवाजे से घर में बिना आवाज किए घुसता है। जो माँ -बाप से उनके खैर-खबर की बात नहीं पूछता। और पत्नी भक्त बना फिरता है।
अब सवाल उठता है , कि ऐसे पत्नी-भक्त पतियों की पहचान कैसे करें। बहुत सरल है। ऐसे पति तुरंत निर्णय नहीं ले पाते। इनका सारा निर्णय पत्नियॉं ही लेती हैं। ये बीच बीच में केवल मुस्कुराते भर हैं। चाहे शादी - ब्याह हो। कोई काज - परोजन की बात चल रही हो। सब में ये पत्नियाँ आगे -आगे चलतीं हैं। और किसी आज्ञाकारी छात्र की तरह ये पति ,पत्नी जी का अनुसरण करते हुए पीछे -पीछे चलते हैं।
वैसे तो ऐसे पति बाहर से बहुत कड़क मिजाज होना ही दिखना पसँद करते है़ं। जो बाहर ये कहते नहीं अघाते की घर में उनकी ही चलती है। जो मन चाहे वो बनवाते हैं। और जो मन चाहे वो खाते हैं। उनका कहना पत्नी इतना सुनती है , कि उनकी आज्ञा के बिना घर में पत्ता तक नहीं हिलता। बावजूद उनको अक्सर रात का खाना या सुबह का नाश्ता भी नसीब नहीं होता । बावजूद वो बाहर ये गप हाँकतें हैं , कि घर से बहुत हैवी नाश्ता करके चला था। आलू के गर्मा -गर्म पराठे और पनीर की सब्जी खाकर निकला हूँ। और वही लोग उसी दिन चौक पर सुबह -सुबह आपको नाश्ता करते दिख जाएँगें। जब पकड़े जायेंगे, तो कहेंगे। रात में बहुत हैवी खाना खा लिया था। लिहाजा चौक पर कुछ हल्का -फुल्का नाश्ता कर रहा हूँ। ऐसे बहुत से पत्नी भक्त आपको आस-पास दिखाई देंगे। जो ऊपर से नारियल की तरह कठोर और अँदर से बहुत मुलामय होते हैं। ऐसे पत्नीभक्त, पति रात्रि में अपनी पत्नी के पैरों की मालिश करने से भी बाज नहीं आते। पत्नी अगर कह दे, तो ऐसे स्वामीभक्त पति सँडास भी साफ कर देते हैं। बर्तन-धोना, कपड़े साफ करना इनके प्रिय कामों में से होता है।
आईए आपका चालान काटते हैं : (व्यंग्य) : महेश केशरी
आईये चालान काटते हैं। आपका चालान कभी भी और कहीं भी कट सकता है। इसके लिए आप हमेशा ही तैयार रहिए।
आप अपने जेब को हल्का करने के लिये हमेशा आप तैयार रहिये। आजकल सी . सी. टी. वी कैमरों से आपकी निगरानी की जा रही है। आप बिना हेलमेट , बिना लाईसेंस के गाड़ी चला रहें हैं। कोई बात नहीं। पहले ट्रैफिक हवलदार डँडा लेकर या चलाकर आपको रोकता था। अब मुस्कुरा कर काम चलाता हैं। बँदा जाएगा कहाँ। मुल्ले की दौड़ मस्जिद तक। आना और जाना आपको इसी सड़क से है। जाईयेगा कहाँ। आपका लाईसेंस फेल है। आपका गाड़ी नंबर डाला और आपकी कुँडली निकलकर बाहर आ गई। आपका क्या-क्या फेल है। सब जानकारी हाजिर। आपके लिए बड़े - बड़े गड्ढे खोदे गए हैं.। कहीं ना कहीं आपको फसना ही है। आप ट्रैफिक पुलिस के चक्कर में पड़े नहीं कि , आपको छठ्ठी का दूध याद आ जाता है। आपका लाईसेंस फेल है। नहीं फेल है। अच्छा कोई बात नहीं। आपका प्रदूषण तो फेल होगा ही। प्रदूषण ठीक है। तो गाड़ी का पेपर दिखाईए। अच्छा गाड़ी का पेपर भी ठीक है। तब आगे बढ़िए।
आपका स्वागत टोल प्लाजा पर हो रहा है। वहाँ टोल तो देना ही है।
हमारे शहर में एक दिन ट्रेफिक पुलिस कुछ ज्यादा सक्रिय हो गई। और तितर - बीतर और इधर उधर खड़ी गाड़ियों का चालान कटना शुरू किया । लोगों में चर्चा होने लगी। चलान कटना या कोई अच्छी- बुरी घटना हम भारतीयों के लिये एक उत्सव की तरह होता है।
सबके चेहरे चकल्लस हो रहे थे। बहुत तरह के चर्चे होने लगे। चलाना किसका किसका कटा है। कुछ ने कहा। चार पहिए और निजी वाहनों का। एक सज्जन बिदककर बोले। अच्छा टेंपो वालों को छोड़ दिया। ये तो बहुत बुरा हुआ। चालान निजी और सार्वजनिक वाहनों दोनों का कटना चाहिए था। हालत ये है, कि लोग चालान कटने से पहले ही परेशान हैं।
उल्टा किसी को ये दु:ख सता रहा है, कि चालान सिर्फ और सिर्फ निजी वाहनों का क्यों काटा गया। ये तो बहुत नाइंसाफी है। क्या मोटरसाईकल वालों का नहीं काटा। ऐसा भी कहीं होता है ,भला, कि चार पहिया निजी वाहनों का चालान काटा और दुपहिया वाहनों का नहीं काटा। ये तो बहुत बुरा हुआ। तभी एक तीसरे सज्जन पहुँच गये। चौथे सज्जन से बोले यारा श्याम लाल का चालान आज कट गया।
गनीमत है मैनें आज कार निकाली ही नहीं। नहीं तो बेकार में दो हजार का फटका लगता। तीसरे सज्जन अपनी होशियारी दिखाकर शेखी बघार रहे थे।
पाँचवें सज्जन बोले। ये यहाँ की टीम नहीं थी। बाहर की टीम थी। हाँ ठीक बोल रहें हैं। बाहर से आई थी। उनकी बातों से लग रहा था, कि जैसे उनके चचा सी. बी. आई . में थे।
हमारे यहाँ गुटखा बैन है। एक बार एक मैजिस्ट्रेट हमारे यहाँ गुटखा की छापेमारी करने के लिए आए। गुटखा की छापेमारी वो क्या करते। वो पीछे चल रही भीड़ से परेशान थे। सब दुकानदार हुजूम बनाकर मैजिस्ट्रेट के पीछे - पीछे चल रहे थे। सबको उत्सुकता थी। किसके यहाँ रेड़ में कितना पैकेट गुटखा मिला है।
ऐसे लोग चलते फिरते दूरबीन की तरह होते हैं। जो जान लेते हैं, कि किसके पेट में कितना पानी है। एक सज्जन बोले।
जानते हैं,चुन्नू जी का चालान आज सुबह -सुबह कट गया। पच्चीस हजार फाईन लगा है। सुबह- सुबह दो बोरा गुटखा लेकर पुलिस गई है उनके यहाँ से। दूसरे सज्जन बोले। अरे मुझे तो कल रात ही पता चल गया था, कि अगले दिन गुटखा बेचने वालों के यहाँ रेड पड़ने वाली है। सारा माल दुकान से उठाकर घर लेकर चला गया था।
मेरे यहाँ भी मैजिस्ट्रेट आया था। दुकान में कुछ नहीं मिला। मैनें इतनी होशियारी जरूर दिखाई। ऐसा लगता था। मानों वो सज्जन अंतर्यामी हों।
ऐसे बहुत से लोग है़ं । जो होशियार होते हैं। और मौका देख -देख के इनकी होशियारी ऐसे- वैसे मौकों पर कूद - कूदकर बाहर निकल आती है। ऐसे होशियार चँद लोगों की वजह से ही होशियारी शब्द जिंदा है। ऐसे लोगों को दूसरों की बदहाली - और बरबादी देखने में बड़ा मजा आता है। उस पर रस ले- लेकर वो घँटों चर्चा करते हैं । उसके स्वाद में जो मजा है। उसके क्या कहने।
एक समय की बात है। उन दिनों कोरोना बहुत ज्यादा बढा हुआ था। ये बात उन दिनों की है। उन दिनों राज्य में गुटखे की बिक्री बँद थी। जुगाड़ तन्त्र के माध्यम से गुटखा बिक रहा था। एक दिन थाने के एक वजनदार थानेदार ने दुकानदार से चार पुड़िया गुटखा फ्री में माँग लिया। दुकानदार ने देने से मना कर दिया। थानेदार जी ने जहमत उठाई। उनको हर चीज फ्री में खाने की आदत थी। लिहाजा थाने के सज्जन जी बिलबिलाए। और राज्य सरकार को पत्र लिख दिया। और, ये सूचित करने का जहमत उठाया, कि हमारे राज्य में गुटखा पहले से ही प्रतिबंधित है। और अमुक दुकानदार गुटखे को फलाने जगह धुँआधार तरीके से बेच रहा है। खैर , पुलिस आई और सारा गुटखा जब्त करके ले गई। दुकानदार पर केस हो गया। न्यायालय से बेल करवानी पड़ी। दुकानदार पहले से ही खीजा हुआ था। बोला , हमको पकड़ने से कुछ नहीं होगा। रिटेलर को मत पकड़िए। जो होलसेल कर रहा है। उसको पकड़िए। इस तरह दुकानदार की उदारता के कारण बड़ी मछली भी पकड़ में आ गई।
जमीन के ऊपर और नीचे : (व्यंग्य) : महेश केशरी
काला ही सार्वभौम है। रँगाई पुताई या मेकअप की जरूरत किसे होती है। जाहिर है , गोरे लोगों को। यानि रँगना वो लोग चाहते हैं। जिनमें छल है या जो छद्ममी लोग है़। तहखाने में बँद लोग। जिनके अपने गहरे राज होते हैं। जो जितना जमीन के ऊपर होते हैं। उतना ही जमीन के नीचे भी। जिनको आवरण की दरकार है।
काले लोग आलू की तरह हैं। सब्जियों में राजा की तरह। ऐसे लोगों को किसी भी सब्जी में मिला दीजिए। वो उसके होकर रह जाते हैं।
काली पेंसिल, लाल पेंसिल, हरी पेंसिल, पीली पेंसिल। सब अलग - अलग रँग के, लेकिन सबके अँदर काले रँग की ग्रेफाईट। पेंसिल की नोंक काली, अक्षर काले।
हममें से बहुतों ने अफसर- अफसराईन को गुस्से में आकर तँजिया लहजे में कहते सुना होगा। काला अक्षर भैंस बराबर। यानि उनके अलावे सब लोग कुपढ़।
गरीब -कुपढ़ मजदूरों को अपने आप को कोसते हुए आप सुनेंगे। हम पढे- लिखे नहीं हैं, बाबू। करिया अक्षर भैंस बराबर हैं । इन्हीं काले अक्षरों को पढ़ने और पढ़ाने के लिये लोग मोटी -मोटी फीस खर्चते हैं। बच्चे कॉपी काला कर रहें हैं , या नहीं। यानी पढ़ लिख रहें हैं , या नहीं। इस बात को लेकर माँ- बाप टेंशन में जीते हैं। फिर भी काज परोजन में काले से परहेज करते हैं!
यहाँ तक, कि दुनिया की खूबसूरत पेंटिंग्स , कला-कृतियों को बनाने में ज्यादातर काले ग्रेफाईट पेंसिल का ही इस्तेमाल होता है।
काले रँग की बात आती है, तो नींबू - मसाले युक्त काली चाय की याद आ जाती है। ग्रीन -टी तो यूँ ही बदनाम है। पूरे शहर में काली चाय के चर्चे हैं। काली चाय पीने के अपने जबरदस्त फायदे हैं। काली चाय गैस नहीं बनाती है। काली चाय पीने से हमारा हाजमा दुरूस्त रहता है।
काली चाय पीने से आपको लोगों के सामने शर्मिंदा नहीं होना पड़ेगा। दूध वाली चाय से सेहत के बिगड़ने का डर है। आप मोटे होने लगेंगे। काला चना खाईये, और घोड़े की तरह हमेशा जवान और तँदरूस्त रहिए। इसी रँग से मिलती जुलती पत्नी ले आईए। हमेशा आपका मुँह जोहती रहेगी।आपने खाना खाया या नहीं। आपके नहाने जाने से पहले ही गुसलखाने यानी बाथरूम में पानी , साबुन, तौलिया , शैम्पू सब धर आएगी। पराठा आप एक माँगेगे। तो दो धर देगी। ठूँस ठूँस कर खिलाएगी। तब तक, जब तक आपका पेट ना फट जाए।
कितने फायदे गिनवाऊँ, काले रँग की। आपकी पत्नी अगर साँवली है। तो लोगों का ध्यान उधर नहीं जायेगा। दोस्त आपके घर पर कम आएँगे। आपके महीने में अलग से बचत होगी। बढ़ती मँहगाई और रोज- रोज दूध के बढ़ते दाम। रोज - रोज शक्कर के बढ़ते भाव ने लोगों को पहले ही परेशान कर रखा है। साँवली पत्नी होगी। तो बार बार आपके दोस्त आपके यहाँ चाय पर या खाने पर आने की जिद नहीं करेंगे।
बिन काला सब शून्य : (व्यंग्य) : महेश केशरी
दिलचस्प ये है, कि हम अपने तमाम अच्छे दिन काला जमा करने में खर्च देते हैं। तमाम टैक्स हैवन कँट्री में एकाऊँट खुलवाते जाते हैं। अपने तमाम काले को जमा करने के लिये। दिलचस्प है ,कि हम सफेद दिखना चाहते हैं। लेकिन काला जमा करते जाते हैं।
काले से डर इतना है, कि लोग अपने- अपने वाहनों के नीचे काले रँग का जूता टाँग देते हैं। जैसे काला ही हमें बचाएगा। नीचे लिखा होता है। बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला ।
मैं , इसको ऐसे नहीं लेता। इसको ऐसे समझना चाहिये, कि जो लोग समाज में बहुत चरित्रवान बने फिरते हैं। जो आचरण और व्यहवार में अलग- अलग हैं। उनके लिए ही ये लिखा गया है , कि भाई बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला ।
अनुष्ठान में काला कपड़ा नहीं चलेगा। इस वाक्य ने दरअसल इस व्यंग्य को जन्म दिया है।
दुनिया में तमाम सृजनशील चीजों में काले रँग की अपनी महत्ता है। ये सृजन की हर चीज में मौजूद है। सीताफल को लीजिए। उसके बीज काले। तरबूज हरा, उसके बीज काले। मीठे अँगूर भी काले, जामुन भी काला।
धरती पर फल लगाने वाले, बारिश करवाने वाले , बादल काले। मेघ काली , घटाएँ काली। घटाओं के घिरने से रात का काला होना। कालेपन में उजास भरता हमारा चाँद। चाँद को निहारने वाले हमारी आँखें काली। आँखों की भवें काली , पुतलियाँ काली। सिर पर बारिश , गर्मी से बचाव करने वाले हमारे बाल काले। काले रँग का महत्व उनसे पूछिए। जिनके बाल सफेद हो गए हैं। महीने में चार बार अपने बालों को डाई करते फिरते हैं। एक सफेद बाल दिखा नहीं , कि उसको काला करने का जुगाड़ बैठाने लगते हैं।
गोरे - गोरे मुखड़े पे काला-काला चश्मा । इस गाने के क्या मायने हैं। इसका मतलब ये है, कि गोरा तब तक अधूरा है। जब तक काला भी साथ ना हो। गोरा आगर लय है , तो काला ताल है। गोरा अगर सुर है , तो काला सँगम है। एक के बिना दूसरा अधूरा है। यानी दोनों एक- दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का कोई महत्व नहीं है । शरीर गोरा हो,लेकिन बाल सफेद। कितना भद्दा लगेगा। बिना काले बालों के सुँदर शरीर की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
दरअसल हर सफेदपोश , अपनी सफेदी के नीचे अपना कालापन छिपाए घुमता है। और कालेपन से परहेज करता रहता है।
सबसे पहले स्लेट दिखाई देता है । जिस पर हम ककहरा से लेकर गिनती तक सीखते हैं। ए से एप्पल ” बनाना भी बच्चे इसी काले रँग की स्लेट पर सीखते हैं। फिर उससे ध्यान हटा तो ब्लैक बोर्ड दिखा। वो भी काला ही था। ऐसे लोग अपने बच्चों को ब्लैक बोर्ड, जो कि काला ही होता है। उस पर बड़े ही चाव से पढ़ाते हैं। ऐसे लोगों को तब काला रँग अशुभ का प्रतीक नहीं दिखाई देता।
ईख तैयार करने वाली मिट्टी भी काली होती है। ईख सबको चाहिए। काली मिट्टी या काले रँग से सबको परहेज है। कमल कीचड़ में ही खिलता है।कीचड़ भी काला होता है।
खेत की मिट्टी काली ही होती है। जिससे हम हरा सोना उगाते हैं। इतिहास भरा पड़ा है। काले की महिमा से।
जिन लोगों ने दुनिया को बहुत बेहतर बनाया। वो लोग काले ही थे। वो मजदूर ही थे। जिन्होंने धरती को खून -पसीना जलाकर सोना पैदा किया। मुगलिया सल्तनत में बनी सँगमरमर की सफेद ताज महल भी काले मजदूरों ने बनाया।
एफिल टॉवर , चाईना की विशाल दीवार ,सब काले लोगों ने बनाया। इतना ही नहीं जिस सड़क पर आप चलते हैं। वो भी कोलतार की बनी हुई और काली है। काले रँग से परहेज है , तो उसपर चलना छोड़ दीजिए ।
और इसी काले अलकतरे से लोगों ने ठेकेदारी करके अरबों खरबों कमाए हैं। नेताजी लोगों का जो पेट फुला हुआ है। वो भी काली कमाई से फूला हुआ है। काले का हमारा जीवण में अभूतपूर्व योगदान है। कोको-कोला , काला। पेप्सी काली। यहाँ तक की थम्स-अप और डाई का विज्ञापन करके सफेद लोगों ने बहुत काला का भी कमाया है।
काले का महत्व यहीं नहीं खत्म हो जाता। बच्चों को नजर -गुजर से बचाने वाला टीका यानी काजल भी काले रँग का बना है।
अभी जो आप पँखें के नीचे बैठकर परम आनंद की अनुभूति कर रहें हैं। आप जो मोबाईल पर खटर - पटर कर रहें हैं। उसकी बैटरी भी काली है। गौर कीजिएगा। यहाँ तक की जो आपके घर में बीजली मौजूद है। वो भी काले रँग के कोयले से बनती है।
इसी कोयले की काली कमाई से कई सफेदपोशों ने अपने गाँव ज्वार में कई कित्ता मकान बना लिए। स्त्रियों का आभूषण कोयले में दबे हीरे से से बनता है।
कवियों , प्रेमियों की भाषा में तो जैसे कालापन ही पैठ पाता है। वातावरण में स्याह (काली )धुँध उतर आई थी। तुम दिन ढले मिलने चले आना उसी काली पहाड़ी पर।
तुम जब अपने काले- काले बाल लहराती हो। तो काली - काली घटाएँ घिरने लगतीं हैं। काले- काले खूबसूरत पहाड़। वो खूबसूरत ठँडी और काली रात।
झूठ बोले कौआ काटे। काले कौए से डरियो। मैं मैके चली जाऊँगी तुम देखते रहियो ..।
ये बिखरी सी जो लटें हैं. ...।
उन्हें चेहरे पे उड़ने दो ना ....। बहुत खूबसूरत हो ...बहुत खूबसूरत हो ......।
हम काले हैं, तो क्या हुआ दिलवाले हैं....।
से लेकर
तेरी काली काली आँखें। जो गाना है। वो अपने समय का सबसे हिट गाना रहा था। नब्बे के दशक के लोग आज भी उसको गुनगुनाते हुए मिल जाएँगे।
ये जो दुनिया हम देख रहें हैं। वो इन काली- काली पुतलियों से ही देख पा रहें हैं।
कृष्ण काले , शिव काले , सती काली।
शिव के गले में पड़ा साँप काला। काली शिला। उस पर विराजमान शिव को समस्त दुनिया काला होने के बावजूद पूजती है। कारण है, कि शिव भोले हैं। प्राय: काले और मेहनत कश लोग आपको काले और सीधे -साधे ही मिलेंगे। जो माँगना है , माँग लो। हँसकर अपनी जान भी दे देंगे। नफरत करने वाले लोग हमेशा से सफेद रँग के पक्षधर रहें हैं। यही गोरे लोग थे। जिनसे हमारे काले भारतीय लोगों ने लोहा लिया। उनको नाकों चने चबवा दिए। कालों का हमेशा से ही इस धरती पर बुरा हाल रहा है। काला होना मतलब नीग्रो होना। काला होना मतलब हब्शी होना है।लेकिन गोरे लोग घमँड ना करें। गोरे रँग पर इतना गुमान ना कर! गोरा रँग दो दिन में ढल जाएगा यानि अंत में काला ही बचेगा। ब्लैकहोल.. काला होना स्थाई है। सत्य की तरह!
स्वर्गलोक में कुत्ते की पुण्यात्मा : (व्यंग्य) : महेश केशरी
एक बार एक कुत्ते ने धरती पर बहुत अच्छे-अच्छे काम किए। लिहाजा यमराज उसको लेकर सीधा स्वर्ग पहुँच गये। कर्म फल के अनुसार कुत्ते को स्वर्ग का सारा सुख मिलना तय हुआ था। लेकिन कुत्ता खुश नहीं था। कुत्ते से जब पूछा गया , कि भाई तुम स्वर्ग में आकर भी खुश नहीं हो। बताओ ऐसा क्यों?
कुत्ता बहुत देर तक चुप रहा। फिर दुबारा पूछा गया , कि भाई तुम्हें तो सीधे स्वर्ग मिला है। तब भी तुम खुश नहीं हो। कुत्ता बोला मैं खुश तो हूँ। लेकिन धरती पर के नेताजी सरीखे खुशी मुझे नहीं मिल पा रही है। कुत्ते ने नेता होने के कई फायदे गिनाए।
यदि आप नेता बन जाते हैं। तो कुछ भी कर सकते हैं। आपको दुनिया में मौजूद कोई भी सुख मिनटों में हासिल हो सकता है। नेताजी बन जाने पर आपको फ्री की स्वास्थ्य सुविधाएँ मिल जातीं हैं। आपको कैंटिन में फ्री या बहुत कम पैसे में खाना मिल जाता है। आपका सड़क मार्ग में कोई टोल - टैक्स नहीं लगता। हवाई यात्रा मुफ्त में मिल जाती है।
साल में टी. ए. , डी. ए. अलग से मिलता है। आप विदेशों का दौरा हर साल मुफ्त में कर लेते हैं। आप एक बार चुनाव जीत
जाईए। आपको लाईफ टाईम पेंशन मिलती है। इस पद के लिये कोई आयु सीमा नहीं है। यानि आप कभी रिटायर नहीं
होते।
और सबसे बड़ी बात की हमारी बात को अक्लमंद लोग भी बहुत गंभीरता से सुनते हैं। हम जो कुछ कहते है़। दरअसल
उसका वो मतलब नहीं होता। जो सामने वाला समझ लेता है। कहने का मतलब ये है, कि हम देशभक्त को गाली भी दे
सकते हैं। और माफी भी माँग सकते हैं। और ये बहुत आसानी से कह सकते हैं , कि हम वो नहीं बोले जो आपने सुना। या
वो ये कहते हैं, कि आपने गलत सुना। या वो ये बहुत आसानी से कह सकते हैं, कि मेरा वो मतलब नहीं था। जो आप
समझे। यानी हर हालत में गलती सुनने वाले की होती है। बोलने वाले की नहीं। सुनने वाले को बात समझ नहीं आती। हर
सुनने और समझने वाला बेवकूफ़ है। इस तरह से आप कभी भी नेता बनने के बाद लोगों को बना सकते हैं।
तब क्या किया जाए। चित्रगुप्त महाराज और यमराज भी चिंतित होकर सोचने लगे। इस पुण्यात्मा कुत्ते को कैसे खुश किया जाए।
कुत्ता बोला प्रभु अभी तो मेरा दूसरा जन्म हुआ नहीं है। उसमें भाई चित्रगुत जी के अनुसार कम -से -कम दस साल का समय है। तब तक मैं स्वर्ग में ही विचरण करना चाहता हूँ। और मेरी दिली इच्छा है , कि स्वर्ग में एक बार चुनाव हो। और मैं इस स्वर्ग का नेता यानी प्रमुख बनूँ। और आप इस चुनाव की पूरी प्रक्रिया लाईव देख सकें।
और अपने पुण्य के कारण मुझे मालूम है ,कि आपके द्वारा मुझे किसी अच्छे योनि में ही जन्म मिलेगा। इसलिए मेरे पुण्य कर्मों को देखते हुए, यहाँ स्वर्गलोक में एक बार चुनाव करवा दीजिये। उस कुत्ते के पुण्य कर्म बहुत बेहतरीन थे।
लिहाजा यमराज को उस पुण्यात्मा कुत्ते की बात माननी पड़ी। तय समय में धरती की तरह स्वर्गलोक में भी राजा का चुनाव होना तय हुआ। लेकिन, चुनाव किसका होना था। कुत्तों का। ये समस्या भी उस पुण्यात्मा कुत्ते के पास रखी गई। कुत्ते ने इस समस्या को भी हल कर दिया। बोला , इधर दस सालों तक जिन -जिन कुत्तों का फिर से धरती पर किसी भी योनि में पुनर्जन्म नहीं होना है। और जो स्वर्ग को पाने वाले मेरी तरह पुण्यात्मा हैं। उनको तत्काल बुला लिया जाए। ऐसा ही हुआ। चुनाव की तारीख का ऐलान हुआ। पोस्टर- बैनर बने।
धरती की तरह वहाँ भी कान-फोंडूँ लाऊड-स्पीकर से भरपूर प्रचार हुआ। इतने बेहतरीन तरीके से चुनाव की तैयारी हो रही थी , कि सब देवी- देवता , यक्ष -यक्षिणी ,गँर्धव ने चुनाव और उसकी तैयारी को देखा। तो गदगद हुए बिना ना रह सके। पूरे स्वर्ग लोक में जैसे किसी उत्सव की तैयारी जैसा माहौल था।
अब चुनाव में कुल बीस दिन बचे थे। इसी बीच स्क्रूटनी भी हुई। बहुत से कुत्तों के फॉर्म रिजेक्ट हो गये। चुनाव से दस दिन पहले पुण्यात्मा कुत्ते ने अपना नाम चुनाव के प्रत्याशी पद से वापस ले लिया। कारण पूछा गया तो बोला। मैं इस बार चुनाव नहीं लडूँगा। कारण कि मैं पहली बार स्वर्ग लोक में चुनाव लड़ने जा रहा हूँ। कहीं कुछ ऊँच -नीच हो गई तो। लिहाजा ये तय हुआ कि पुण्यात्मा कुत्ता अगली बार चुनाव लडे़गा ।
चुनाव हुआ। और चुनाव के बाद कुत्ते को ही स्वर्ग का राजा बनाया गया। और कुत्तों को उनकी योग्यता के अनुसार उनके विभागों का बँटवारा कर दिया गया। अब लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत सबको स्वर्ग में कुत्तों के प्रधान मंत्री की बात माननी थी।
लिहाजा यमराज , चित्रगुप्त जी और स्वयं राजा इँद्र भी कुत्तों के नेतृत्व में स्वर्ग में रहकर ही जीवण -यापण करने लगे। कुत्तों के मंत्रिमंडल में कैबिनेट में कुछ कुत्तो़ं को मन-माफिक विभाग नहीं मिला था। लिहाजा वो नाराज चल रहे थे। विपक्ष में होर्स ट्रेडिंग की बात चल रही थी। विपक्ष के लोग रूलिंग पार्टी के साँसदों पर डोरे डाल रहे थे। रुलिंग पार्टी को पसीने छूट रहे थे। प्रधानमंत्री जी की नींद हराम हो रही थी।
जिस समय सरकार बनी थी। रूलिंग पार्टी के दो -तिहाई से भी ज्यादा सांसद सरकार में मौजूद थे। लेकिन, मौजूदा सरकार में मनचाहा विभाग या मंत्रालय ना पाकर कुत्तों का एक दल विपक्ष से मिलकर सरकार को अल्पमत में लाना चाह रहा था। सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाना तय हो रहा था।
फ्लोर पर टेस्टिंग की बात चल रही थी। कुत्तों की रुलिंग पार्टी का मानना था, कि ये सब मृत्युलोक पर मौजूद विदेशी ताकतों के इशारे पर हो रहा है। मृत्युलोक वाले हमारी सरकार गिराना चाह रहे हैं।
विपक्ष होर्स ट्रेडिंग करके अपनी सरकार बनाना चाह रहा था।
इँद्र का सिंहासन कुत्तों के प्रधानमंत्री बनने के कारण पहले ही छिन गया था। अब वो एक रिसोर्ट में रह रहे थे। इँद्र को आनन - फानन में रिसोर्ट खाली करने को कहा। ताकि बागी साँसदों को उस रिसोर्ट में रखा जा सके।
लिहाजा इँद्र भगवान् अब रोड़ पर आ गये थे। और पुण्यात्मा कुत्ते के साथ आकर फुटपाथ पर रहने लगे। वो पुण्यात्मा कुत्ते को देखकर पूछ रहे थे, कि धरती पर भी लोगों का हक ऐसे ही कुत्तेनुमा नेताजी लोग मार रहें हैं क्या? जैसा कि मैं अभी - अभी चुनाव करवाकर अपने सिंहासन से अपदस्थ हो चुका हूँ।
और अब अपने घर या रिसोर्ट से जैसे मैं बाहर आ गया हूँ। मृत्युलोक पर भी कुछ - कुछ ऐसी ही हालत जनता की होती होगी क्या ?
जब वो इन कुत्ते सरीखे नेताओं को अपना भगवान् मान लेती होगी।
पुण्यात्मा कुत्ता बोला। हाँ प्रभु आपको मृत्युलोक की सच्ची तस्वीर दिखाने के लिए ही मैनें ये सब स्वाँग रचा है। ताकि आप नेताओं का टुच्चापन देख सकें।
अपने साँसदों को विपक्ष के साथ मिलते - जुलते देखकर प्रधानमंत्री जी के कान खडे हो गये।
उन्होंने चित्रगुप्त जी को और यमराज को मांडवाली या नेगोसिएशन के लिये अपने नाराज मंत्रियों के समूह के पास भेजा।
और फिर प्रेम से बुलाकर रिसोर्ट के कमरे में विपक्ष के अविशवास प्रस्ताव लाने तक बँद करवा दिया ।
उनसे उनकी नाराजगी का कारण पूछा गया। भरसक उनको हर तरह से संतुष्ट करने का प्रयास किया गया। स्वर्ग की अप्सराओं फ्रैंकलिन, मिंयाँ सलीफा को कुत्तों की खातिरदारी करने को कहा गया। अब स्वर्ग में भी लोकतांत्रिक व्यवस्था थी। इसलिए सबको उसके अनुसार ही चलना था। फ्रैंकलिन और मिंयाँ सलीफा अपने भाग्य को कोस रहीं थीं, कि उनकी ऐसी अधोगति होनी थी, कि कुत्तों कि सेवा अप्सराएँ करें!
यही हाल इँद्र का था। वो , चित्रगुप्त जी , यमराज भाई सबके- सब इन कुत्तों के सत्ता पर काबिज हो जाने के कारण अपने पद से अपदस्थ थे।
अब जो होना था। पाँच साल के बाद ही होना था। पाँच साल तक पूरी व्यवस्था ऐसे ही रहनी थी। यमराज भाई , चित्रगुप्त जी और भगवान् इँद्र को अब अपनी गलती का एहसास हुआ था। वो चुनाव और नेताजी सरीखे कुत्तों को वोट देकर जीता चुके थे।
पुण्यात्मा कुत्ता इनके मजे ले रहा था। बोला भगवान् धरती पर भी बिल्कुल ऐसी ही हालत है। अच्छे लोगों ने राजनीति को तज दिया है। मृत्यलोक में भी बिल्कुल ऐसी ही हालत है। वहाँ नेताओें ने ऐसी ही भसड़ मचा रखी है। जैसे यहाँ स्वर्गलोक में इन कुत्तों ने भसड़ मचाई हुई है। अच्छे लोग फुटपाथ पर रह रहें हैं। कुत्ते सरीखे नेताजी लोगों ने बंग्लो और डुप्लेक्स खरीदा हुआ है। नेताजी सरीखे कुत्ते लोग रेड वाईन पी रहें हैं। और आदमी ठर्रा।
आम आदमी और यहाँ आपमें कोई विशेष फर्क नहीं है। जिसको महलों में होना चाहिए। वो फुटपाथ पर आपकी तरह सो रहा है । मृत्युलोक पर लोग घास-पात खा रहें हैं। और कुत्ते सरीखे नेताजी मुर्ग- मुसल्लम पर हाथ फेर रहें हैं। आपकी तो शादी हो गई है। इसलिए आप निश्चिंत हैं।
मृत्युलोक पर लोग एम. ए. , बी. ए. और बड़ी -बड़ी डिग्रियाँ लेकर पचास के हुए जा रहें हैं। उनके चाँद दिखाई देने लगे हैं। लेकिन इन घूसखोर नेताओं ने सालों से नौकरी की कोई वैकेंसी नहीं निकाली है। लिहाजा वो नौकरी के इंतजार में हैं। वो कहावत है ना ,कि जब तक नौकरी नहीं मिलेगी। तब तक छोकरी नहीं मिलेगी। धरती पर आटा और डाटा इन नेताओं ने उधोगपतियों की सहायता से मिलकर मँहगा कर दिया है। लिहाजा, अब ना धरती पर लोग आटा खरीद पा रहें हैं , ना डाटा। बार - बार ये प्रतियोगिता परीक्षा करवाते हैं। और मोटी फीस फॉर्म भरने में लेते हैं। तिस पर परीक्षाएँ दो -तीन साल बाद होती हैं । और परीणाम तो आते ही नहीं। उससे पहले पेपर लीक हो जाता है। फिर से फॉर्म भरने को कहा जाता है। फिर से परीक्षाओं की डेट निकलती है। इस बीच उम्मीदवार की आयु सीमा खत्म हो जाती है।
थाईलैंड की यात्रा : (व्यंग्य) : महेश केशरी
अगर आप बूढ़े नहीं हैं। तो बीच बीच में थाईलैंड जाते रहिये। अगर आप बीच- बीच में थाईलैंड नहीं जाते हैं। तो लोग आपको आवश्यक रूप से बूढ़ा मान लेंगे। जिस तरह मार्केट में तरह तरह के जैल और गोलियाँ आ गईं हैं। और अगर आप उसका इस्तेमाल करते हैं। बावजूद इसके यदि आप बीच -बीच में एक - दो बार थाईलैंड की यात्रा कर लेते हैं। तो लोग आपको बूढ़ा मानने से इंकार कर देंगे। यानी अगर आप मर्द हैं। तो बीच - बीच में थाईलैंड की यात्रा पर जाते रहें। इससे आपकी बूढ़ापे में भी मर्दानगी बची रहेगी। ऐसा एहसास कम से कम लोगों को तो जरूर होगा। अगर आप साल भर में दो- चार बार थाईलैंड आते -जाते रहते हैं।
थाईलैंड जाने के फायदे
1.आप अभी बिलकुल जवान हैं।
2.आप अपने आप खुराफाती हो जाएँगे।
3.आपके चेहरा सवाना के घास के मैदान की तरह हरा हो जायेगा।
4.आपके शरीर के कस - बल ढीले नहीं पड़े हैं।
5.पड़ोसी खासकर पुरूष जो थाईलैंड जाकर आनंद लेना
चाहते है़। वो जल-भूनकर रह जाएँगे।
6.आप गोलियाँ ले रहें हों।जैल का प्रयोग करते हों। यानि अगर आप साठ - सत्तर के हो गये हैं। तब भी एक बार थाईलैंड
होकर आईये। लोग मान लेंगे की आप जवान हैं।
7.अगर आप पचास वर्ष के हैं। और आप बार -बार थाईलैंड जा रहें हैं।तो सेक्सोल़ोजी के अनुसार आपकी उम्र पच्चीस
साल की है।
थाईलैंड का नाम सुनते ही हम पुरूषों के मन में गुदगुदी मच जाती है। इतनी खुशी होती है। इतनी खुशी होती है,कि उसे शब्दों में बता पाना नामुमकिन है। थाईलैंड और उसकी प्राकृतिक खूबसूरती , वहाँ के नजारे ,वहाँ के पहाड़, वहाँ की नदियाँ। खैर हम प्राकृतिक सुँदरता को देख रहें होते हैं। वहीं पत्नियों के दिमाग में बस उसी का ख्याल आता है। जिसके बारे में लोग थाईलैंड को जानते हैं। सबको लगता है कि हम पुरूष बस उसी के लिए थाईलैंड की यात्रा करना चाहते हैं।
थाईलैंड का नाम सुनते ही सबसे पहले पत्नियों के कान खड़े हो जाते हैं। थाईलैंड बवासीर की बीमारी की तरह है। जैसे अगर आपको बववसीर की बीमारी है। तो केवल और केवल आपको और आपके डॉक्टर को ही पता होनी चाहिए। अगर दूसरे इष्ट मित्रों को पता चल जाए। तो आप हँसी के पात्र हो जाते हैं। अगर आप थाईलैंड जा रहें हैं। तो आपको अपने घर में यही बताना है, कि आप किसी दूसरे एशियाई देश जैसे जावा , सुमात्रा, की यात्रा पर जा रहें हैं। और थाईलैंड तो बिल्कुल भी नहीं जा रहें हैं।
थाईलैंड का नाम लेते ही लोग आपको उस नजर से देखने लगते हैं। क्या कोई आदमी अपने घर में बता कर जा सकता है , कि वो थाईलैंड जा रहा है।
महिला अगर किसी काम से थाईलैंड जाए , तो चल सकता है। ये बहुत मामूली बात है।
लेकिन पुरूष जाए तो बस वही बात है। थाईलैंड जहाँ पेट्रोल है। वहीं पुरूष आग है। थाईलैंड अगर माँस का टुकड़ा है , तो पुरूष बाघ ! बाघ के भरोसे कोई माँस नहीं छोड़ सकता।
वहीं अगर पुरूष थाईलैंड जा रहा है। तो घरवालों के कान खड़े हो जाते हैं। अड़ोसियों -पड़ोसियों को अगर पता चल जाए कि, आप थाईलैंड जा रहें हैं। तो पूछिए ही मत। बस वो आपको देखकर मुस्कुराते हैं। यकीन मानिये उनकी मुस्कुराहट तब इतना बेइज्जत करती है , कि पूछिये ही मत।
आपको कोई घर से धक्के मारकर निकाल दे। तब भी उतना दु:ख नहीं होगा। जितना थाईलैंड का नाम सुनकर लोग आपको मुस्कुरा कर देखते हैं। तब होता है।
आपकी कोई जूतम पैजार कर दे। तब भी उतना दु:ख नहीं होगा। जितना दु:ख आपको तब होगा। जब आप थाईलैंड की यात्रा पर जा रहें हैं। और आपको देखकर आपका कोई पड़ोसी मुस्कुरा भर दे। लगता है जैसे किसी ने घड़ों पानी उझल दिया हो।
थाईलैंड की यात्रा अगर पुरूष कर रहा है। तो लोगों के मन में पटाया के वीच , खूबसूरत थाई लड़कियों तसव्वुर में आने लगतीं हैं।
अगर आदमी थाईलैंड चला जाये।और आकर गँगा में डूबकी लगाकर भी ये कहे कि, उसने थाईलैंड में जाकर डुबकी नहीं लगाई है। तो लोग मानने को तैयार नहीं होते। दरअसल हमारी पुरूष जाति के लोगों ने हमारा चरित्र कुछ ऐसा बिगाड़ दिया है, कि लोग हमें शक की नजरों से देखते हैं।
पत्नियाँ और जगह तो हमें अकेला जाने की इजाजत दे देतीं हैं। लेकिन, थाईलैंड जाने की बात सुनते ही उनके कान खड़े हो जाते हैं। थाईलैंड की यात्रा ऐसी है, कि आप किसी को बता भी नहीं सकते।
इधर मैं ऑफिस के काम से थाईलैंड जाने को तैयार हुआ। निश्चिंत समय पर मुझे टिकट भी मिल गया। और अगले दिन मुझे थाईलैंड की यात्रा पर जाना था। दो -तीन दिन का काम था। मैनें ये बात हालाँकि सबसे छुपाकर रखी थी, कि मैं थाईलैंड की यात्रा पर जा रहा हूँ।
कैसे ना कैसे ये बात मेरी पत्नी जी को पता चल गई। लिहाजा पत्नी जी की मुझसे ठन गई। बोलीं थाईलैंड में ऐसा भला कौन सा काम है। जो आपको जाना है। मैं भी साथ चलूँगी। मैंनें समझाया कि ऑफिस के काम से जाना है। मेरा टूर - एंड- ट्रैवल का काम है। कभी - कभी जाना पड़ता है वहाँ। साल में जाकर एक बार हिसाब -किताब करना पड़ता है। लेन -देन का मामला होता है। पत्नी जी बोलीं मैं खूब समझ रहीं हूँ। इस लेन -देन को।
तुम टेस्ट बदलने जा रहे हो। घर में आलू और साग खाकर बोर हो गये हो। इसलिए चोरों की तरह बाहर जाकर चिकन और बिरयानी खाने जा रहे हो। लेकिन तुम्हारा यहाँ चलने वाला कोई जोर नहीं है। या तो मुझे साथ ले चलो। या टिकट कैंसल करवाओ। खैर , काम जरूरी था। इसलिए थाईलैंड जाना जरूरी था। पत्नी जी गुस्सा होकर नाक मुँह -फुला चुकी थीं। दो - तीन दिन के बाद थाईलैंड से लौटना था। मैं थाईलैंड से तीन दिन बाद लौट आया। ऑफिस गया तो सब दोस्त मुझे देखकर मुस्कुरा रहे थे। कोई कुछ कह नहीं रहा था। लेकिन मैं उस मुस्कुराहट का मतलब समझ रहा था!