वो कौन था? (कहानी) : इस्मत चुग़ताई

Voh Kaun Tha ? (Story in Hindi ) : Ismat Chughtai

कुदरत जब सितम-ज़रीफ़ी (अत्याचार करने) पर उतर आए तो हज़रत इंसान का तमाशा बना देती है। ठाकुर साहब हरनाम सिंह ने कभी ख्वाब में भी न सोचा था कि उन्हें इतने बड़े इम्तिहान से दो-चार होना पड़ेगा। या तो औलाद देने ही में ख़ुदा ने गफ़लत की और जब दिए तो एकदम दो बेटे! बेटा तो उनके यहाँ एक ही पैदा हुआ लेकिन एक से दो कैसे हो गए? ये भी एक अजीबो-गरीब किस्सा है।

ठकुराइन जब ब्याह कर आई थीं तो मुश्किल से पंद्रह साल की होंगी। राजस्थानी हुस्नो-जमाल का अछूता मुजस्समा (साकार रूप), ठाकुर साहब उनसे बारह साल बड़े थे, खुद भी इकलौते थे और बड़ी जायदाद के तनहा वारिस। पिता का देहांत हो चुका था, बूढ़ी माँ को पोता खिलाने का बेइंतिहा अरमान था। लेकिन सारी मन्नतें-मुरादें मुँह देखती रह गईं। ठकुराइन की गोद न भरी। उन्होंने बेटे का दूसरा ब्याह करना चाहा। लेकिन वो अकड़ गए। ठकुराइन पर सौत लाने का वो ख्वाब भी न देख सकते थे।

लेकिन बीस बरस पूरे भी न होने पाए थे कि ख़ुदा को उन पर रहम आ गया। बच्चे की आमद की तैयारियाँ जोर-शोर से शुरू हो गई। माताजी ने इतने कुर्ते और पोतड़े सिलवाए कि चार बच्चों को पूरे पड़ जाते। एक अलग कमरा सजाया गया। नीला, हल्का नीला कमरा, जिसकी छत पर सितारे टँके थे। झाग जैसे लेस के पर्दे और सफ़ेद पंगूरा जिसके पाये-पटियों पर गंगा-जमुनी नक्श (चित्र) थे और छोटी-छोटी घंटियाँ जड़ी थीं कि बच्चा करवट भी ले तो गुनगुना उठें। उन घंटियों को कुछ इस तरह लगाया गया था कि जब हिलती थीं तो सातों सुर बजते थे और कुछ ऐसी सुरीली आसमानी मूसीकी (लय) उभरती थी जैसे फ़रिश्ते लोरियाँ गुनगुना रहे हो...और भी तरह-तरह के खिलौने सजाए गए। माताजी तो बच्चे के कमरे से ऐसे खेलती थीं जैसे बच्चियाँ गुड़ियों के घर से खेलती हों। एक तरफ़ छोटी-सी मेज़ पर घुटनों चलते बाल-कृष्ण जी सजा दिए गए, उनके सामने छोटे-छोटे दियों की कतार रखी थी जिसमें लौ की जगह लम्बूतरा आध इंची बल्ब जड़ा हुआ था।

ठकुराइन की तबीयत खराब रहती थी। माताजी उनके लिए इमलियाँ तुड़वा कर खट्टा-मीठा कचूमर बनवातीं। ये इमली का पेड़ रहमत माई के छोटे से आँगन में था। वो रोज़ाना साफ़-सुथरी पकी इमलियाँ तोड़ कर रंग-बिरंगी टोकरी में भर के दे जाती। ख़ुद उसकी बेटी के भी बाल-बच्चा होने वाला था। उसका मियाँ बलवे में मारा गया था। ठाकुर साहब ने उसे अपनी कोठी के अहाते में पनाह दे दी थी। रहमत माई को कुछ कम सुनाई देता था। उसकी बदनसीब बेटी सगीरा दुनिया से मुँह मोड़े खाट पर पड़ी आँसू बहाया करती थी, दिन-ब-दिन उसकी सेहत गिरती जा रही थी।

जिस वक़्त ठाकुर साहब के लाल ने जनम लिया. कोठी के कोने से मातम की सदा (आवाज़) बुलंद हुई, सगीरा बच्चा पैदा होने के दस मिनट बाद चल बसी। कोई दाई भी बुलाने की नौबत न आई। अचानक ही बच्चा पैदा हो गया। रहमत माई को कुछ सुझाई न दिया। आनूल कैसे काटा जाए। मेहतरानी को उसने हाथ न लगाने दिया। वैसे ही बच्चे को झोली में डालकर ठाकुर साहब के पास पहुँची। वो ख़ुद बौखलाए हुए थे।

इसे डॉक्टरनी के पास ले जाओ। नाल तो काट दें, कुछ हो न जाए बच्चे को! उन्होंने जल्दी से माई को अंदर भेजा, ऐसे समय रहमत माई का अंदर जाना कुछ माताजी को अच्छा न लगा, लेकिन इससे पहले कि वो रोकतीं, रहमत माई अंदर घुस गई। नर्स ने बच्चे को लेकर तौलिये में लपेटा और मेज़ पर लिटा दिया, क्योंकि उधर माई ने कमरे में कदम रखा बच्चे का नाल काटने तक नर्स ने माई के नवासे का भी नाल काट दिया। क्या गोल-मटोल बच्चे थे। डॉक्टरनी ने ठाकुर साहब के बच्चे को नहला कर सफेद फ्राक पहनाया। लेकिन बाँध कर उसकी दादी की गोद में डाल दिया। उनके आँसू निकल आये। झट हाथ से दस तोले के सोने के कड़े उतार कर डॉक्टरनी को पहना दिए और पोते की बलाएँ लेने लगीं। ठाकुर साहब भी खड़े मुस्कुरा रहे थे।
नर्स ने डॉक्टरनी से कुछ कहा, वो त्योरियाँ चढ़ा कर जल्दी से अंदर गई,
ठकुराइन बच्चे को पहलू में लिटाए मुस्कुरा रही थीं। थोड़ी देर के लिए डॉक्टरनी सन्नाटे में रह गई।

और कुदरत ने एक कहकहा लगाया, क्योंकि उसके बाद बौखलाहटों का एक तूफ़ान सारे घर पर टूट पड़ा। ठकुराइन कहती थीं जो बच्चा नर्स ने उनकी गोद में दिया वही उनका सपूत है। मगर दादी अम्मा ने जिस पोते की बलाएँ लेकर सोने के कड़े डॉक्टरनी को दिए थे वो अपनी गोद वाले बच्चे को ही पोता मानने पर बज़िद थीं। मगर ये सब हुआ कैसे? डॉक्टरनी पूरे यक़ीन के साथ कह सकती थी कि जो बच्चा उसने माताजी की गोद में दिया, वही ठाकुर साहब का बेटा है, लेकिन नर्स कहती थी उसे अच्छी तरह याद है कि उसने ठाकुर साहब के बच्चे को गुलाबी तौलिये में लपेटा था और माई का नवासा फ़ीरोज़ी तौलिये में लिपटा पड़ा था।

वाह! क्या में अपने बच्चे को न पहचानूँगी। ठकुराइन फ़ीरोज़ी तौलिये के चक्कर में नहीं पड़ना चाहती थीं और उनकी गोद का बच्चा बिलकुल बाप पर गया था, हाँ ठोढ़ी माँ पर थी। लेकिन ठाकुर साहब को दोनों बच्चे गोश्त की बोटी की शक्ल के मालूम हो रहे थे। माताजी कहती थीं कि उनकी गोद वाला बच्चा ही उनका पोता है, क्योंकि उसकी तरफ़ उनका कलेजा खिंच रहा है।

लेकिन फिर सब चुप हो गए। रहमत माई खम्भे से लगी बैठी आँसू बहा रही थी। मस्जिद से लोग बेटी का कफ़न-दफ़न करने आए हुए थे। वो नवासे को क्या पहचानती, वो तो ख़ुद को भूली हुई गम के बोझ से दबी जवान बेटी की मौत का धक्का सहारने में जुटी हुई थी।
ठकुराइन ने जब माई के नवासे को देखा तो भौंचक्की रह गई। न जाने क्या सनक सवार हुई कि रो-रो कर हलकान हो गईं। लोग उन्हें धोखा क्यों दे रहे हैं। ठीक कहती हैं माताजी, उनकी गोद का बच्चा ही उनका पूत है। लेकिन जब नर्स उनके पहलू से बच्चा उठाने लगी तो मचल गई।
फिर सब बिलकुल बदहवास हो गए। एकाएकी ठकुराइन दोनों बच्चों को समेट कर अड़ गईं कि मेरे तो जुड़वाँ पैदा हुए हैं, तुम लोग तूफ़ान जोड़ रहे हो।

दूसरे दिन एक हंगामा खड़ा हो गया। सब सोच रहे थे कि दिन की रोशनी में दूध का दूध और पानी का पानी अलग हो जाएगा। अपना बच्चा भला छुप सकता है! खून की कशिश भी कोई चीज़ है! लेकिन जैसे ही उनके पास से एक बच्चा उठाया जाता, वो अपना फैसला बदल देतीं। ठकुराइन की ऐसी हालत हो गई कि बड़ा डॉक्टर बुलवाना पड़ा।

और सारे मुहल्ले में खबर फैल गई कि बच्चे गहु-महु हो गए और मुहल्ले से बात शहर तक पहुँची। चैमीगोइयाँ होने लगीं। किसी ने कुछ कहा, किसी ने कुछ...रहमत माई हर्राफ़ा (नीच औरत) है, जान-बूझ कर ड्रामा खेला गया है ताकि उसका नवासा ऐश करे और बेचारा ठाकुर साहब का बच्चा भीख माँगे। घोर पाप हो जाएगा! एक हिन्दू का बच्चा मुसलमान के घर पलेगा, संस्कृति को ठेस लगेगी, ये एक गिरोह के लोगों की राय थी।
दूसरे गिरोह (समुदाय) के लोगों का खयाल था कि ठाकुर साहब ने जानबूझ कर घपला किया है। इस तरह वो एक मुसलमान बच्चे को अपने कब्जे में करने पर तुले हुए हैं।
खूब बहसें चलीं। कई मुहल्लों में तनाव फैल गया। एक हिन्दू लड़के ने एक मुसलमान को थप्पड़ मार दिया।
बस दो-चार छुरियाँ चलीं। खून-खराबे होने लगे। पुलिस नाकों पर डट गई, बलवे पर काबू पा लिया गया। बाद में पता चला कि हिन्दू लड़के ने जिस मुसलमान को थप्पड़ मारा था वो मुसलमान नहीं, हिन्दू ही था।

सब झूठ! बलवे में दिलचस्पी रखने वाला गिरोह बोला और बलवा बढ़ता गया। दोनों फ़िरकों के जलसे और मीटिंगें होने लगीं। वफ़्द (प्रतिनिधि-मण्डल) अफ़सरों की खिदमत में हाज़िर हुए। फ़ौरन सुपरिन्टेंडेंट साहब मय-सारजेंटों के दौड़े आए।
"दोनों बच्चों को तस्फिया (फैसला) होने तक सरकारी अस्पताल में भेज दीजिए।"
"क्यों, मैं अपना इकलौता बच्चा खैराती अस्पताल में क्यों भेजूं?" ठाकुर साहब अकड़ गए।

लेकिन सवाल ये था कि उनका बच्चा कौन-सा है? ठकुराइन ने रो-रो कर बुरा हाल कर रखा था। कभी एक को छाती से लगातीं, फिर दिल दूसरे की तरफ़ खिंचने लगता। उन्होंने कह दिया कि एक भी बच्चे को किसी ने हाथ लगाया तो वो हश्र बरपा कर देंगी। पुलिस में हिम्मत है कि बच्चे को ले जाए!
ज़ाहिर है ऐसे वक़्त में ठकुराइन से ज़िद बाँधना उन्हें क़त्ल करने के बराबर था। उनका दिमागी तवाजुन (संतुलन) बिगड़ जाने का खतरा था। वैसे सभी का दिमागी तवाजुन डगमगा रहा था। ख़ुदा ने बरसों बाद एक बच्चा दिया और वो भी इस खटाई में पड़ गया। इसकी वजह से खून-खराबे हो रहे हैं। ठाकुर साहब हैरानो-परेशान थे और बेबस भी।
"बच्चों को ज़रा बड़ा होने दीजिए, हफ़्ते दो हफ्ते में कुछ नाक-नक्शा निकल आएगा। पहचान पड़ जाएँगे।" लोगों ने राय दी।

रहमत माई चौखट पर बैठी रो रही थी। मेहरबानी करके उसका नवासा दे दिया जाए तो वो अपने वतन पीलीभीत ले जाकर किसी आँखों वाली खुदा-तरस औरत की गोद में डाल दे। बिन माँ-बाप का बच्चा पल तो जाएगा, अब वही दुनिया में उसका सब कुछ था। इकलौती बेटी की आखिरी निशानी! और जब बुढ़िया को हकीक़त समझाने की कोशिश की गई तो वो पछाड़ें खाने लगी। मजबूरन ठाकुर साहब ने कहा, “दे दो कमबख्त को बच्चा कि पाप कटे!"
सवाल ये था, कौन-सा बच्चा?
"मुझ अंधी को कुछ नहीं सूझता, तुम आँख वालों के भी दीदे फूट गए।" रहमत माई बड़बड़ा रही थी, “गरीब बुढ़िया का टेटुआ दबाना है तो दूसरी बात है।"
बड़ी झक-झक के बाद एक बच्चे के हक़ में फैसला हुआ कि वो बुढ़िया का नवासा है। लेकिन उसमें एकदम माताजी को अपने पति यानी बच्चे के दादा की शबाहत (छाया) नज़र आने लगी। वो छाती पीटने लगीं।
अब तो रहमत माई को यक़ीन हो गया कि वो लोग उसे झांसा दे रहे हैं। वो फूटकर रोई कि कलेजे हिल गए!

डरते-डरते फिर दूसरे के हक़ में फैसला किया गया। लेकिन उसे लेकर रहमत माई अँगनाई तक मुश्किल से गई होंगी कि ठकुराइन के दाँत भिंच गये, मुँह से झाग जाने लगा।
"ज़रा सोचो तो जिसे बुढ़िया ले जा रही है, दरअसल वही उनका पूत है। कोई गारंटी कर सकता है कि गुत्थी वाक़ई सुलझ गई। फैसला ठीक हुआ है?"

बड़े सोच-विचार के बाद ठाकुर साहब ने रहमत माई को समझाया, “तुम बच्चा पाल तो सकतीं नहीं, किसी से पलवाओगी। मुझे पाल लेने दो। तुम भी जैसे रहती थीं, रहो। तुम्हारी नज़रों के सामने रहेगा।" ठाकुर साहब जानते थे कि बच्चे दोनों नज़रों के सामने रहेंगे। लेकिन उनका बच्चा तो खो गया। वो उसे पूरे यक़ीन के साथ नहीं देख सकते, शक कैसे दूर होगा? रहमत माई चुपचाप सुनती रहीं, फिर बोली, “साफ़ बात है ठाकुर साहब बच्चा आपके यहाँ पलेगा, आपके धरम पर चलेगा। ये कैसे हो सकता है, हश्र के दिन ख़ुदा को क्या मुँह दिखाऊँगी कि एक मोमिन का बच्चा काफ़िर बना दिया। मेरी आकिबत (परलोक) खराब हो जाएगी और फिर बड़े मौलवी साहब तो जमाअत से बाहर करने को कहते हैं। मेरी तो जैसे मिट्टी पलीद हो जाएगी। ख़ुदा का वास्ता मेरा बच्चा मुझे दे दो।"

"तुम्हारा बच्चा मैं देना चाहूँ तब भी नहीं दे सकता। हाँ, अगर तुम सोचती हो कि तुम अपना नवासा पहचान सकती हो तो मैं तुम्हारा बेहद शुक्र-गुज़ार होऊँगा। मेरी मुश्किल भी वही है जो तुम्हारी। मेरे ऊपर भी लोग दबाव डाल रहे हैं। समझते हैं मैं जानबूझ कर बन रहा हूँ, मुसलमान बच्चा हड़प करना चाहता हूँ।"
"और मुझे कह रहे हैं कि आपकी दौलत की लालच में जानकर मैंने ये सारा स्वांग रचाया है। आपको बेवकूफ़ बना रही हूँ।"
लेकिन शहर में तूफान उठा हुआ था। अख़बारों के ज़रिये खबर फैल रही थी। साथ-साथ आग भी फैल रही थी।
इस्लाम ख़तरे में!
हिंदू धर्म शिट हो रहा है!
नारे लग रहे थे। मज़हबी पार्टियों से आगे बढ़ कर सियासी पार्टियों ने बात लपक ली थी और जलसे हो रहे थे, फंड जमा किए जा रहे थे, एक-दूसरे पर गंदगी उछाली जा रही थी।
"मुल्क के साथ नाइंसाफ़ी और जुल्म!"
"मुल्क का बँटवारा काफ़ी नहीं, अब हर घर में एजेंट छोड़े जा रहे हैं।"
"नाज़ियों की तरह बच्चे मुलहिद (विधर्मी) बनाये जा रहे हैं।"
"ये सब नक्सलाइट की कारस्तानी है।"
"जम्हूरियत (लोकतन्त्र) पर ज़बरदस्त चोट!"
“इसमें चीन का हाथ है, हमारे निज़ाम (व्यवस्था) को दरहम-बरहम (तहस-नहस) करने के लिए।"
“सी.आई.ए. सबूताज कर रहा है।"
"गद्दी छोड़ो!"
और फिर पार्टियों में इस सवाल पर जूते चल गये...फूट पड़ने लगी...
वो कौन था? : 37
मिनिस्ट्रियाँ डगमगाने लगी...

इधर कभी लोग रहमत माई को भड़काते और वो ख़ुदा का कहर बन जाती। न अच्छी तरह सुन न देख पाए, न हाथ-पैरों पर काबू। एकदम गाली-गलौच पर उतर आई कि बौखला कर ठाकुर साहब उसे एक के बजाय दोनों बच्चे दे देने पर राजी हो जाते।
लेकिन जब वो भी मुतमइन (आश्वस्त) न हो पाती कि अपना नवासा ही मिल रहा है तो गुस्से और झुंझलाहट में आकर चौखट पर माथा फोड़ने लगती, "अल्लाह रसूल का वास्ता मेरा नवासा मुझे दे दो!” वो घिघियाती तो सबके कलेजे मोम हो जाते।
ऐसा भी होता कि लोगों का ध्यान किसी दूसरे गर्मागर्म हादिसे की तरफ़ बटा हुआ होता और वो हिंदू-मुस्लिम बच्चों के सवाल को भूलकर किसी और सिलसिले में लड़ने-झगड़ने लगते। तब रहमत माई दुआएँ पढ़-पढ़ कर दोनों बच्चों पर फूंकती, अल्लाह पाक सब हिसाब-किताब समझता है। दुआ यक़ीनन उसके नवासे के खाते में ही जमा होगी। इंशा-अल्लाह कोई खयानत न होगी।
ठकुराइन भी सब कुछ भूल-भाल कर सीधी-सादी माँ रह जातीं। उनके प्यार के प्यासे दिल में दो से ज़्यादा बच्चों के लिए जगह पड़ी थी।
बस माताजी की जान अजीब मुसीबत में थी। वैसे वो दोनों ही बच्चों पर अपनी झिझकती हुई मुहब्बत न्यौछावर करने को तैयार थीं, लेकिन उन्होंने अभी तक अपने पोते को भगवान के चरणों में नहीं डाला था। कैसे डालतीं? कहाँ था उनका पोता?
और ठाकुर साहब ने कई बार जेब से रुपया निकाल कर टास भी कर देखा।

लेकिन दिल को सुकून और यकीन न मिला। रुपए का कहना मानकर उन्होंने एक बच्चा माई को दे दिया। क्या मालूम वही उनका अपना हो? उन्हे ब्लड-टेस्ट पर भरोसा था। खून की जाँच पड़ताल होने के बाद ज़रूर मुअम्मा (पहेली) हल हो जाएगा। इसलिए बच्चों के ज़रा बड़े होने का इंतज़ार था। इतने छोटे बच्चों के खून टेस्ट करवाने के ख़याल से ही ठकुराइन तूफ़ान उठाने लगतीं। वैसे सब उन्हीं को मुजरिम कहते थे। ऐसी भी क्या माँ जो बच्चे को न पहचान पाए। गाय, बकरी, कुतिया, बिल्ली तक पहचान लेते हैं। आप-ही-आप माँ को पता चल जाता है। लेकिन ठकुराइन इस बला की थीं कि जैसे मिट्टी का तोदा पहले तो माता जी ने बहू को डाँटा-फटकारा। लेकिन जब वो धारों-धार रोई, कसमें खाईं कि वाक़ई वो ख़ुद बहुत ज़ोर लगाती हैं लेकिन पता ही नहीं चलता, और न कोई उम्मीद है कि चल सकेगा। बस उन दो में से एक तो उनका अपना है ही।

उधर शहर में कुछ सूबाई इलेक्शन शुरू हो रहे थे। मुख्तलिफ़ गिरोह (विभिन्न दल) एक दूसरे पर छींटे कस रहे थे। उन दो बच्चों का सवाल फिर से उठ खड़ा हुआ। जब कोई सज्जन अपनी कार-गुज़ारियों के बारे में भाषण देने को खड़े होते, बच्चों के इस अल्मीये (त्रासदी) को दरम्यान में ज़रूर घसीट लाते और जो तबाह-कारियाँ उन बच्चों के गड-मड हो जाने से शहर में फैल रही थीं, वो उन पर अपनी राय-ज़नी करते और ज़ोर-शोर से वादा करते कि अगर वो इलेक्शन में जीत गये तो इस तरह के खौफ़नाक घपले बिलकुल न होने पाएँगे। क्योंकि वो अपने फ़िरक़े के हकूक (अधिकारों) की खातिर अपना खून पसीना एक कर देंगे।
मुखालिफ़ीन भी चूकने वाले न थे। उन्होंने ठाकुर साहब की क़ौम-परस्ती और दूर-अंदेशी को सराहा कि किस होशियारी से उन्होंने मुखालिफ़ फ़िरक़े का बच्चा हिंदुआ डाला। अगर सारी क़ौम में ऐसी जागृति आ जाए तो मुल्क के सारे दलिद्दर दूर हो जाएँगे।
इस बयान पर मुसलमानों में कोहराम मच गया। अगर इसी तरह मुस्लिम बच्चों का गबन होता रहा तो बहुत जल्दी इस्लाम के नाम-लेवा ख़त्म हो जाएँगे। कौमी रहनुमाओं के वफ़्द पर वफ़्द (प्रतिनिधि मंडल) सरकार पर जोर डालने लगे। दोनों तरफ़ से जहाँ किसी की इलेक्शन मुहिम ठंडी पड़ने लगती, लोग भजन-मंडलियों
और कव्वालों के हंगामों के बावजूद जलसों की तरफ़ से बेतवज्जुही बरतते तो फ़ौरन कैंडीडेट बच्चों के घपले का सवाल पैदा कर देते, एकदम लोगों में जान पड़ जाती, शद्दो-मद से जलसों में जाने लगते।

फिर वो वक़्त भी आ गया कि बच्चों का ब्लड टेस्ट किया गया। सारी रात ठकुराइन करवटें बदलती रहीं। राम जाने कौन-सा बच्चा उन्हें मिलेगा? कौन-सा रहमत माई ले जाएगी? उनकी बरसों से तरसी हुई ममता दोनों बच्चों पर तूफ़ान की तरह फट पड़ी थी। बार-बार उठकर बच्चों को तकती रहीं। दोनों गोल-मटोल हो गए थे, दोनों का रंग गोरा था...एक राजपूत था, दूसरा पठान! कभी दोनों के दादा परदादा एक ही पेड़ के पत्ते रहे होंगे। थोड़े और बड़े हो जाएँ तो पता चलेगा। अभी तो बस चीनी के गुड्डे जैसे थे। साथ-साथ सोते-जागते, साथ ही खाते-पीते। इसलिए बिल्कुल जुड़वाँ बच्चों की तरह एक ही जैसे मालूम होते। दोनों में से वो एक को नहीं चुन पा रही थीं।

ठाकुर साहब ने जब ब्लड टेस्ट के मानी (अर्थ) समझाए तो ज़मीन-आसमान एक कर दिया, “हाय। मैं अपने लाल का लहू निकालने दूंगी? डॉक्टर से कहो कि नब्ज़ देखकर जो फैसला करना हो, कर दें।"
छोटी-बड़ी कौन-सी बीमारी है जो डॉक्टरों से छुपी है, देर-सबेर सब ही की पकड़ हो जाती है। मगर कौन माई का लाल है जो नब्ज़ देखकर मज़हब या अक़ीदा पहचान जाए।
लेकिन ठकुराइन के दिमाग में ये बात ठूँसने का कोई रास्ता न था। डॉक्टरों ने भी कहा कि ज़रूरी नहीं कि सही फैसला हो जाए। ये ज़रूरी नहीं कि बाप-बेटे का खून एक ही ग्रुप का हो। ठकुराइन गुप-चुप क्या समझतीं। बस यही कहे जाती थीं, जो डॉक्टर नब्ज़ देखकर न पहचान पाए वो पाखंडी है, जूते मार के निकाल दो। वो दोनों को लेकर कुंडी चढ़ाकर कमरे में बैठ गई।
उनके इस रवैये पर और भी रंग-बिरंगी अफ़वाहें उड़ने लगीं।
"असल में ठकुराइन का बच्चा ठाकुर साहब से नहीं किसी और से है। इसलिए वो ब्लड टेस्ट से कतरा रही हैं।"

इंसान खस्लतन (प्रकृति से) आदमखोर है। अब खाना हराम हो गया है तो मुँह में पानी भरता है। चिढ़ कर दुख पहुँचा कर ही कलेजा ठंडा कर लेता है। जिस्मानी तोड़-फोड़ और काट-छाँट से जी नहीं भरता तो दिलो-दिमाग में बर्मा करके तेज़ाब भरना चाहता है। इस अफ़वाह ने ठाकुर साहब को झिंझोड़ कर रख दिया। बेटे की ख़ुशी तो मिट्टी में मिल ही चुकी थी, अब दिल में एक गंदे शक ने डंक उठाया, सहम कर पास-पड़ोस पर नज़र डाली...ठकुराइन का यार कौन है? जी चाहा उसी वक्त तीनों को मौत के घाट उतार दें, फिर अपने भेजे में गोली मार लें।

उधर रहमत माई आक़िबत (परलोक) के बोरिये समेटने पर तुली हुई थी। बच्चे के कान में अज़ान देने के लिए मौलवी लाई थीं, तभी माताजी और ठकुराइन राम-राम कह उठी थीं। बड़ी खींच-तान के बाद ये फैसला हुआ था कि फिलहाल दोनों के कान में अज़ान दिलवा दी जाए। अल्लाह का नाम कान में पड़ने से कोई नुकसान नहीं। जब मौलवी अज़ान देकर सवा रुपया फ़ी-बच्चा के हिसाब से ढाई रुपए लेकर चलता बना तो माताजी ने रहमत माई की रीं-रीं की परवाह किए बगेर बच्चों पर गंगा-जल छिड़का और आरती उतार दी।

अब रहमत माई को हुड़क उठ रही थी, बच्चों की मुसलमानियाँ हो जाएँ तो अच्छा है, फिर बड़ा हो गया तो तकलीफ़ ज़्यादा होगी।
लेकिन ठकुराइन बच्चों के मुतअल्लिक (सम्बन्ध में) कोई भी छुरी-चाकू वाली बात नहीं सुनना चाहती थीं। उन्होंने साफ़-साफ़ कह दिया कि अगर उनके बच्चे को हाथ लगाया तो रहमत माई की गर्दन काट देंगे।

बच्चे तो बच गए। लेकिन इस बात पर हंगामा हुआ और दो-चार गर्दनें कट गई। बात बढ़ती चली गई। कुछ मनचलों ने रहमत माई के कोठे को आग लगा दी और वो अपना सामान समेट कर कोठी में ले आई। मुखालिफ़ीन (विपक्षी) क्यों चुपके बैठते। लूट-मार तो कुछ लोगों की आमदनी का वाहिद (एकमात्र) ज़रिया है। काम की चीजें लूट लीं, कूड़ा जला दिया।

उस वक्त दो-एक पार्टियों में ज़ोरों का जूता चल रहा था। हुकूमत के खिलाफ़ लोगों को भड़काने में कुछ देर नहीं लगती। लोग वैसे ही महँगाई, बेरोज़गारी और घरों की किल्लत से भरे बैठे रहते हैं, बात-बात पर स्ट्राइक और बंद लग जाते हैं। फ़िरक़ा-वाराना फ़साद शुरू हो जाए तो सारे बंद और स्ट्राइक भूल कर लोग फ़िरका-परस्तों को गालियाँ देने में मसरूफ़ हो जाते हैं। इस तरह जो गरीब मजबूर लोग मारे जाते हैं तो कुछ आबादी के मस्अले पर भी ख़ुशगवार असर पड़ता है। लेकिन इन दो बच्चों के मस्अले ने बेहद गम्भीर सूरत अख्तियार कर ली। रहमत माई का कोठा जलाया गया, इसके जवाब में ठाकुर साहब की कोठी जलाने की कोशिश की गई। हालाँकि वो कोठा जिसमें माई रहती थी, ठाकुर साहब ही का था, लेकिन इंतिक़ाम में अक्ल कौन ज़ाया करे!

मुसलमानों का एक लम्बा जुलूस कोठी के गिर्द आकर रुका। नारे लगने लगे...जवाब में दूसरी तरफ़ से फ़ौरन हिन्दुओं का मजमा आ गया और बाकायदा मोर्चा कायम हो गया। रहमत माई भूली-बिसरी आयतें पढ़-पढ़ कर फूंकने लगीं और ठकुराइन ने बच्चों को गोद में ले लिया और कोठे पर जाकर डट गई। जीने पर ठाकुर साहब बंदूक तान कर खड़े हो गए। नौकर-चाकर खिड़कियाँ-दरवाजे बंद करने लगे।
बाहर बाकायदा दोनों मोर्चे डटे हुए थे। "रहमत माई को जबरिया कैद से आज़ाद किया जाए और उसका नवासा उसके सिपुर्द किया जाए।" मुसलमानों की माँग थी।
"रहमत माई और उसके नवासे को एक ठाकुर का घर गंदा करने की सज़ा मिलनी चाहिए...।" हिन्दू कह रहे थे।
"रहमत माई जिंदाबाद!"
"रहमत माई मुर्दाबाद!"
और रहमत माई खुश-क़िस्मती से ऊँचा सुनती थी। वो सिर्फ शोरो-गुल सुन रही थी, जो उसने अपने जवान दामाद की मौत से पहले सुना था।

बातों के बाद फ़रीक़ीन (दोनों पक्ष) एक-दूसरे पर ईंट-पत्थर फेंकने लगे, फिर चाकू और छुरियाँ निकल आई।
ठाकुर साहब फ़ोन पर फ़ोन कर रहे थे। धड़ाधड़ उन्होंने हवा में चंद फायर किए, दंगाई एकदम हड़बड़ा कर भागे।
“सुनो भाइयो, सुनो!” ठाकुर साहब चिल्लाये, मजमा ठिठक गया। उन्होंने पूरे मजमे (जन-समूह) पर एक उड़ती हुई निगाह डाली। लोग आजकल ऐसा लिबास पहनते हैं कि अंदाज़ा लगाना मुश्किल हो जाता है कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान! ज़्यादातर मैले-कुचैले नेकर और उटंगे पतलून पहने हुए थे।
लोग फिर चिल्लाने लगे, “रहमत माई को रिहा करो! बच्चा वापिस दो!!"
"रहमत माई डायन है! बच्चा मलेच्छ है! निकालो दोनों को!" ।
"अच्छा, अच्छा मैंने सुन लिया। मैं वादा करता हूँ, आप लोग कल सुबह तशरीफ़ लाइए, आप लोग जो फैसला करेंगे, आप सब के सामने उस पर अमल करूँगा। ठीक?"

थोड़ी देर खद-भद खिचड़ी पकती रही। फिर लोग अपनी राय देने लगे। वो क्या कहना चाहते थे, ठाकुर साहब सुन नहीं पाए क्योंकि उसी वक्त पुलिस की जीपें सनसनाती आन पहुँची। आते ही दनादन फायरिंग होने लगी। जैसे दंगाइयों को दंगा करने की जगह बेदयानती से समझौता करते देखकर पुलिस चिढ़ गई हो। दम भर में मैदान साफ़ हो गया। ठाकुर साहब ने तमाम तफ़सील बताई और बरवक़्त पहुँचने का शुक्रिया अदा किया।
"ठाकुर साहब आप आग से खेल रहे हैं, ख़त्म कीजिए इस मज़ाक़ को। रहमत माई और उसके नवासे को हम पुलिस की हिफ़ाज़त में ले जाते हैं...।"

ठाकुर साहब सर झुकाए सोचते रहे। वाक़ई अब उन्हें फैसला करना होगा, यूँ काम न चलेगा।
“अमन-आमा (शांति-व्यवस्था) में खलल पड़ रहा है। ये आग बहुत खतरनाक सूरत अख्तियार कर सकती है।"
“जी मैं समझ गया, आप फ़िक्र न करें। जैसा आप कहते हैं, वैसा ही होगा।"
"तो फिर देर न कीजिए।"
"आज और रहने दीजिए, रहमत माई की तबीयत भी अच्छी नहीं, बच्चे सो रहे हैं। जगाया तो कच्ची नींद में हलकान हो जाएँगे। फिर ठकुराइन को भी समझाना है।"
“वो समझ जाएँगी?"
"क्यों न समझेंगी, एक दिन तो फ़ैसला होना ही है।"
पुलिस अफ़सर के जाने के बाद वो अंदर नहीं गए, बाहर ही टहलते रहे। सारे लॉन पर पथराव की वजह से ईंट-पत्थर पड़े थे। वो पैर बचा-बचा कर चलते रहे।

फिर वो अंदर गए, बच्चों के कमरे में जीरो पावर का नीला बल्ब जल रहा था...नीला कमरा...नीले पर्दे...नीली रोशनी में जैसे आकाश का कोई अछूता कोना था, जहाँ दो नन्हें-नन्हें फरिश्ते मीठी नींद सो रहे थे। सफ़ेद बेबी-बेड पर दोनों बच्चे अड़े सोये हुए थे। ठकुराइन कई दिन से तक़ाज़ा कर रही थीं कि बच्चों के लिए एक और बेड मँगवाइए, बड़े हो रहे हैं, एक-दूसरे को हाथ मारेंगे। वो मुस्कुरा पड़े।
हिन्दू-मुसलमान जो ठहरे! लात-घूसा न चलाएँगे तो खाना कैसे हज़म होगा।
गौर से वो बच्चों को देख रहे थे, जैसे पूछ रहे हों, “तुम कौन हो?" जैसे बच्चे वाक़ई बोल ही पड़ेंगे।
ठकुराइन पहले तो बहुत बिगड़ीं। लेकिन जब मालूम हो गया कि कोई और चारा नहीं तो दोनों को एक-एक घुटने पर डाले सारी रात बैठी सिसकियाँ भरती रहीं। सिर्फ एक रहमत माई थी जो पड़ी खर्राटे लेती रही। जैसे उसका नवासा मिल गया हो। बाक़ी सबने रात आँखों में काट दी।
सुबह सबके चेहरे पीले हो रहे थे। ठकुराइन की आँखें सूज रही थीं।
फिर फैसले का वक़्त आ गया। दरबार सजा...लोग तमाशा देखने जमा हुए...पुलिस का इंतज़ाम काबिले-तारीफ़ था...ठाकुर साहब बरामदे में बैठे थे...

ठकुराइन ने दोनों को नहला कर प्यार किया...कुर्ते पहनाए...काजल डाल कर नज़र का टीका माथे और पाँव के तलवे में लगाया...फिर आँखों के नल खोल दिए।
"रहमत माई अपना नवासा उठा लो!"
"ऐं!" रहमत माई खाँसी। “तुम ही दे दो बहू जी!"
"मैं अपने हाथ से इनका मैला पोतड़ा भी न दूंगी!" राजपूतनी गुर्राई।
"जल्दी करो माई, बाहर लोग इंतज़ार कर रहे हैं।"
"इंतज़ार कर रहे हैं तो करने दो, खुदा की मार उनकी सूरतों पर!" इत्मीनान से वो कराही। घुटने चटकाती, मुँह ही मुँह में किसी को कोसती उठी। एक बच्चा उठाया और बाहर चली।
"ऐ माई सुनो तो!"
"काहे को?" वो टर्राई।
“पहचान लिया?" ठकुराइन ने मरी आवाज़ में पूछा।
"हाँ, हाँ, क्यों न पहचानूँगी। मेरा नवासा हुआ ना!" वो लपक कर बाहर चली गई। ठकुराइन का दिल साथ खिंचता चला गया। उन्होंने बेबी-बेड में लेटे बच्चे को देखा जैसे वो कोई अजनबी हो, आज पहली बार मुलाकात हुई हो। उन्होंने उसे गोद में ले लिया, लेकिन गोद खाली ही रही।

बाहर जाकर रहमत माई ने मजमे को बताया कि शुक्र ख़ुदा का कि उसका नवासा मिल गया। सब ख़ुश-खुश चले गए। फ़ख़्र से जाते हुए मजमे को देखा फिर गोद के बच्चे को देखा और सीढ़ियों पर उतरते-उतरते रुक गई। कुछ देर पगलाई-सी आँखों से देखती रही, फिर ऐसे पलटी जैसे कोई चीज़ भूल आई हो।
"ना बहू जी! मैं उस निगोड़े को न पहचानती।"
माई ने बच्चा ठकुराइन की गोद में डाल दिया।

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