Vjaya (Hindi Story) : Ramgopal Bhavuk

विजया (कहानी) : रामगोपाल भावुक

उस दिन सुबह-सुबह जैसे ही मेरी नजर अखबार पर पड़ी। निर्भया की बहादुरी की चर्चा से अखबारों के पृष्ठ भरे पड़े थे। लोग दुष्कर्म करने वालों के विरोध में सड़कों पर निकल आये थे। देश की राजनीति में उफान आ गया था। इससे देश में जिस चेतना का संचार हुआ, आज वही चेतना मुझे जीने के लिये शक्ति दे रही है।

इस घटना ने मुझे याद दिला दी है उस दिन की,जिस दिन वंश प्रताप सिंह ने कॉलेज केम्पस में मेरे साथ अभद्रता कर रहे बलवीर सिंह को बुरी तरह लताड़कर भगा दिया था। उस दिन मैं पहलीवार वंश प्रताप सिंह के व्यक्तित्व से प्रभावित हुई थी।

दूसरी बार कुछ लड़के सड़क चलते में मुझे सुना-सुनाकर आपस में भद्दी हंसी-मजाक करने लगे थे। पता नहीं कहाँ से उसी समय वंश प्रताप सिंह आ धमके और उन लडकों के दो-दो राफट रसीद कर उन्हें भगा दिया। मैं समझ गई स्त्री का यह सौन्दर्य ही आफत की जड़ है।

इस घटना के बाद तो हमारी हाय- हलो बाली मिलन दोस्ती में बदल गई । मैं सीधी -सच्ची उसकी बातों में आती चली गई। हम घूमने-फिरने के बहाने पार्क में मिलने लगे थे। एक दिन शाम के समय हम पार्क में बैंच पर बैठे थे वह बोला- ‘हमारे छुप- छुप कर मिलने को इतने दिन हो गये हैं, अब मुझ से दूरी बर्दाश्त नहीं हो रही है। विजया जी ,मैं तुम से ब्याह शीध्र करना चाहता हूँ।’

मैंने उससे कहा-‘ मैं तुम्हारी जाति की नहीं हूँ ,तुम्हारे घर के लोग मुझे घर में न घुसनंे देंगे।’

वह प्यार प्रदर्शित करते हुए झट से बोला-मैं राजपूत हूँ। हम जमीदार रहे हैं। मेरे परिवार की परम्परा ऐसी नहीं है। हमारे यहाँ सब चलता है, हम पुरानी परम्पराओं को मानने वाले नहीं हैं। तुम मुझे दुनियाँ की सारी लड़कियों से बहुत ही सुन्दर लगती हो। तुम्हारा चेहरा देखने को तरस जाता हूँ। मैं कहे देता हूँ कि तुम्हारे लिये मैं अपनी जान भी दे सकता हूँ। तुमने मुझसे ब्याह नहीं किया तो मैं रेल के नीचे कटकर अपनी जान दे दुंगा। कल सुबह ही मेरा मरा मुँह देख लेना।’

कल सुबह ही मेरा मरा मुँह वाली बात से लगा-कहीं इसने मेरे लिये अपनी जान दे दी तो मैं जीवन भर पश्चाताप करती रहुंगी। इससे अच्छा है, मैं इससे ब्याह के सम्बन्ध में खुली बात करलूँ। यह सोचकर मेरे मुँह से निकल गया-‘ कब करेंगे ब्याह?

वह बोला-‘ आज ही अपने मम्मी-पापा से बात करता हूँ, तुम निश्चिन्त रहो।’

यह कह कर उसने मेरे गले में हाथ डाल लिया। मैं मुस्कराकर रह गई। वह बोला- विजया जी, आप सहमति दें तो मेरी इच्छा हो रही है कि आज अपने नगर के रिसोर्ट में कॉफी पीकर आते हैं।

मैंने इस रिसोट के बारे में पहले से सुन तो रखा था। जब- जब मेरा उसके सामने से निकलना होता तो उसके मैंन गेट पर दो राजशाही बेशभूषा में सजे पगड़ी बाँधे, आगन्तुकों को झुक कर सलाम करते हुए दो पुतले दिखते, जो मुझे अपनी ओर खीचते थे, पर मैं रिसोटमें कभी गई नहीं थी। उसे अन्दर जाकर देखने की इच्छा से मैं उसके साथ रिसोट में जाने को उठ खड़ी हुई।

उसका वहाँ पहले से आना-जाना था। हमारे पहुँचते ही एक स्पेशल कक्ष खोल दिया गया। हम बातें करते हुए पहले उसके पार्क में टहले, इसके बाद हम सजे सँभरे उस कक्ष में जाकर सोफे पर पसर गये । वंश प्रताप ने मुझे से पूछा-‘ क्या खायेंगी?’

मेरे मुँह से निकल गया-‘कुछ भी मंगा लें।’

उसने वहाँ रखी एक लिस्ट उठाई और उस पर टिक कर दिये और बैल दबादी। बैरा आकर वह सूची ले गया। उन दिनों मैगी का चलन शुरू हुआ था। वह दो प्लेट में मैंगी और दो आइसक्रीम दे गया। हम दोनों मौज- मस्ती की बातें करते हुए स्वाद ले- लेकर मैंगी खाने लगे। उसके बाद आइसक्रीम खाई।

आइसक्रीम खाने के बाद तो मुझे नशा आने लगा। वंश प्रताप सिंह ने मेरा ध्यान बटाने के लिये मुझे ब्याह के बाद, गोवा में समुन्दर के खुले तटो पर घूमने- फिरने के सुन्दर-सुन्दर सपने दिखाने लगा। मैं बेसुध होती चली गई।

दो-तीन घन्टे बाद मुझे होश आया। बदन में हो रहे उसहनीय दर्द से मुझे समझते देर न लगी कि मेरे साथ धोखा हो गया है। वहाँ मैं उसका विरोध करती तो वहां मेरी सुनने वाला कौन था? परिस्थिति देखकर उस दिन मैं चुपचाप घर चली आई थी।

उसके दूसरे दिन ही उसने मुझे पार्क में बुलाया और मेरे अश्लील चित्र दिखलाये जो उसने अपने मोबाइल से मेरी बेहोशी में खीच लिये थे।

कुछ ही दिनों बाद मुझे बातों- बातों में मेरी एक सहेली से पता चला कि वशं प्रताप सिंह तो विवाहित है। उसके एक बच्चा भी हैं।

मम्मी-पापा भीं मेरे भविष्य के बारे में चिन्तित रहते हैं। मैं मम्मी से यह बात कहने की सोचने लगी। उनसे कहने में भानू भैया के कारण डर भी लग रहा था। मेरे भैया बहुत ही गुस्सैल हैं, उनका स्वभाव मैं अच्छी तरह जानती हूं, उन्हें मेरे बारे में यह बात पता चल गई तो वे उसी दिन मेरा मर्डर कर देगें और वंश प्रताप सिंह को भी जिन्दा दफना देंगे। इससे भैया का जीवन खतरे में पड़ जायेगा। अपनी बेवकूफी पर पश्चाताप करते हुए चुप बनी रही।

वह उन चित्रों के माध्यम से मुझे ब्लेकमेल करने लगा। कभी उसी रिसोट में बुला लेता और कभी कहीं भी। मैं उसके चंगुल से निकलने के लिये छटपटाने लगी, किन्तु एक भी योजना कारगर सिद्ध नहीं हुई।

मैं आत्महत्या करने की सोचने लगी, फिर सोचा-क्या इस तरह मरने के लिये जीवन मिला है। इससे मेरे मम्मी-पापा की बहुत बदनामी होगी। मैं क्यों मरू? न हो तो मैं ही वंश प्रताप सिंह की हत्या कर दूँ ,किन्तु कायर मन साहस नहीं जुटा पाता।

मैं जाने किस डर से समर्पित हूँ, क्यों लगी हूँ मैं उसके दम्भ को झेलने। क्यों स्वीकार रही हूँ उसकी उच्छृंखलता को! बलहीन हूँ इसलिये? नहीं नहीं आत्म विश्वास की कमी है मुझ में! निर्भया जैसी लड़की के साथ घटी घटनायें आत्म विश्वास पैदा करतीं है। अब मुझे भी उसका प्रतिकार करना ही होगा। मैं अब स्वाभिमान से जीना चाहती हूँ।

मैं इसी सोच में थी कि किताब लेने के बहाने मेरी स्कूल की प्रिय सहेली वरुणा यशस्वी से मिलने उसके घर जा पहुँची। वह इन दिनों मीडिया में काम करने लगी थी। मुझे देखते ही बोली-‘हाय विजया! कैसी हो?’

मैंने उत्तर दिया-‘फाइन’

वह बोली-‘इन दिनों मैं देख रही हूँ, तू खोई-खोई सी रहती है, बोल क्या बात है। इधर कैसे भूल पड़ी? अब तो अपने मन की सारी बातें मुझ से कह डाल?’

मैंने उत्तर दिया-‘ अरे कोई बात हो तो कहूँ!’

वरुणा यशस्वी बोली-‘मुरझाये चहरे की लकीरें पढ़ीं तो लगता है तू किसी सोच के गहरे सोच में डूबी है। कहने से मन हल्का हो जाता है और समस्या का समाधान भी निकल आता है।’

मैं उस पर झुझलाई-‘तुझे जाने कहाँ के सपने आते हैं? कोई बात हो तो कहूँ!’

वह विषय पर सीधे आ गई, बोली-‘ मैंने सुना है तू वंश प्रताप सिंह के चक्कर में फस गई है। तू जब तक दबी रहेगी वह दबाता चला जायेंगा।’

मैं समझ गई, सारे वातावरण में हवा फैलने लगी है। मैं इसको रोकने का प्रयास भी करुँ तो भी वह रुक नहीं पायेगी वल्कि दूने वेग से फैलती जायेगी। मुझे अपनी व्यथा स्वीकारने के अलावा कोई विकल्प नहीं सूझा। मैं रिरियाते हुये बोली-‘मेरी समझ में यह नहीं आता कि मैं गलत कहाँ हूँ? नारी के साथ तो उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे बाली बात लागू हो रही है।’

वरुणा यशस्वी ने तनकर खड़े होकर मुझे समझाने का प्रयास किया-‘तू ध्यान से अखबार नहीं पढ़ती। इन दिनों एक घटना घटी है, दिल्ली की बस में एक सफर करती लड़की के साथ कुछ लोगों ने सामूहिक दुष्कर्म करने की कोशिश की। उसने उन लोगों में से किसी को पहचान लिया तो उन लोगों ने उसे बस से नीचे इस तरह फेंका कि जिससे वह मर जाये। संयोग से उस समय तो वह बच गई। उसका इलाज कराया गया,उसे बचाने की पूरी कोशिश की गई किन्तु वह बच नहीं सकी।

अरे! दिल्ली में जो घटा वह सारे हिन्दुस्तान की जुवां पर आ गया है। अब तो ऐसे ही किस्से रोज-रोज अखवारों में भरे पड़े हैं। इस घटना से पूर्व की घटनायें साहस जुटाकर फूट पड़ीं हैं। जाने कब-कब के छिपे किस्से सामने आ रहे है? जो दबी- कुचली जी रहीं थीं, वे सिर उठाकर बात कहने का साहस कर रहीं हैं। तू किस सोच में डूबी है। उठ, अपनी रिपोर्ट थाने में दर्ज करा आ। फिर देख, श्रीमान नाक रगड़ते पीछे-पीछे फिरेंगे।’

मैंने डरते हुये कहा-‘इसमें मेरी कितनी बदनामी होगी? कभी सोचा तू ने।’

वरुणा यशस्वी बोली-‘तू सोच रही है फिर कोई तुझसे ब्याह नहीं करेगा! यही ना।’मैडम, लड़कियों की संख्या घट रही है। अरे! संकट तो उस समय तक है जब तक हम उस घटना को छुपा रहे हैं। जब सबके सामने खुली किताब होगी जो समझदार होगा वह तो तुझ से ब्याह कर ही लेगा। मेरे साथ ऐसी घटना होती तो मैं ब्याह करने वाले से साफ-साफ कह देती कि मैं सच्चे मन की हूँ। राह चलते लूट ली गई हूँ इसमें मेरा क्या दोष? और जो इस बात में दोष माने वह हमसे दूर ही रहे तो अच्छा है।’

अच्छा बता- ‘अहिल्या के पति गौतम ऋषि भोर का तारा उगते ही सरिता में स्नान करने के लिये चले गये। इन्द्र अहिल्या की सुन्दरता से प्रभावित होकर ताक लगाये बैठा था। उसने गौतम ऋषि के भेष में अहिल्या की कुटी में प्रवेश किया और उनसे शरीरिक सम्बन्ध बनाये। अहिल्या यह बात समझ नहीं पाई।

संयोग से उसी समय गौतम ऋषि स्नान कर लौट आये। इन्द्र को कुटिया से निकलते हुए देख लिया तो क्रोध में आग-बबूला होकर अहिल्या को शिलावत जीवन जीने का शाप दे डाला।’

अब कह- ‘अहिल्या का इसमें क्या दोष था? वह बेचारी पति के शाप से लम्बे समय तक शिलावत जीवन जीती रही। श्रीराम गुरुदेव विश्वामित्र के साथ अहिल्या के आश्रम में पधारे, उन्होंने अहिल्या के पति गौतम ऋषि को बुलाकर समझाया-‘इन्द्र ने रूप बदलकर इनके साथ जो किया। इसमें अहिल्या का क्या दोष? आपको दण्ड देना चाहिए था इन्द्र को। आपने दण्ड दिया अहिल्या को। यह आपका कहाँ का न्याय था?’

गौतम ऋषि को श्री राम की तर्क संगत बात मानना पड़ी, उन्होंने अहिल्या से क्षमा माँगते हुए अपना लिया।,

मुझे वरुणा की बात उचित लगी- ये कह तो ठीक ही रही है। यह सोच कर मैंने अपने मन की बात उससे कही-‘आपकी बातों से मैं सहमत हूँ। शंकालू स्वभाव वाले दूर ही रहें तो अच्छा है। ऐसे महापुरुषों से तो भगवान बचाकर ही रखे।’

वरुणा गम्भीर होते हुए बोली-‘ तो अब क्या सोचा तुमने, उसकी रिपोर्ट लिखाने थाने चलें।’

‘मैंने मन ही मन पहले अपने आत्म विश्वास को टटोला फिर कुर्सी से उठते हुए कहा- ‘चलें।’

...और वह मुझे लेकर थाने के लिये निकल पड़ी।

सड़क पर उसी समय वंश प्रताप सिंह टकरा गया। सामने पड़ते ही शिकायती लहजे में बोला-‘विजया जी, मैं तीन दिन से आपको फोन ट्राई कर रहा था, इन दिनों आप हमारा फोन ही नहीं उठा रहीं है।’

मैंने सजोये आत्म विश्वास के साथ उत्तर दिया-‘तेरे फोन में मेरे खून पीने की ही बात होगी न।’

वह बोला-‘ क्या बात है? आज आपकी भाषा बदली इुई है। हम हैं कि दिन रात आपकी चिन्ता में खोये रहते हैं। आप क्रोध उगल रही है। वरुणा जी आप अपनी सहेली को समझाइये ना। आज ये समझोता तोड़ रहीं हैं।’

वरुणा बोली-‘कभी न कभी तो ऐसा समझोता टूटना ही है। चाहे कल टूटे ,चाहे आज। फिर आज ही क्यों नहीं?’

इसका अर्थ है, इस सब में आपकी साजिस है। हम आपको भी देख लेंगे।’

वरुणा बोली-‘ अभी ही देख लें। देर न करें। मैं चून की बनी गुडिया नहीं हूँ जिसकी जैसी चाही आकृति बना ली। हम दोनों तो पुलिस स्टेशन जा ही रहीं है। आप चाहें तो साथ चल सकते हैं। हम सारी बातें पुलिस के सामने खोलकर कह देना चाहतीं हैं। हमें अब किसी बात का डर नहीं है।

वरुणा की बात सुनकर वंश प्रताप सिंह पहले तो एक पल को सहम गया फिर अपने आप को सम्हालते हुए बोला-‘ देखता हूँ थाने में तुम्हारी रिपोर्ट कैसे लिखी जाती है?’

........और वह कुछ कदम हमारे पीछे-पीछे चला, फिर हमारे दृढ़ इरादे को देखकर ठिठक कर रह गया।

उसके जाते ही वरुणा बोली-‘अरे! पागलों की बस्ती में घटी दुर्घटना को जो लोग हमारे शील से जोड़ते हैं ,निःसन्देह वे इन्सान सन्देह के घेरे में पले-बढ़े होते हैं।

यह कह कर वह कुछ सोचते हुए बोली-‘ देख, तू आगे- आगे थाने चल, पीछे से मैं अपने मीडिया वालों को लेकर आती हूँ।’ यह कह वह एक गली में मुड़ गई।

मैं थाने जाते हुए सोचने लगी- मैंने भैया के डर से अपने मम्मी- पापा से यह बात किसी तरह छिपा कर रखी है। मैं यह भी जानती हूँ ,जो बच्चे अपने माँ-वाप से ऐसी बातें छुपाते हैं उन्हें मेरी तरह की त्रासदी झेलना ही पड़ती है। मैं सोचती रही- किसी तरह इस समस्या का समाधान मैं ही निकाल लूँगी लेकिन समस्या दिन प्रतिदिन बढ़ती चली गई और आज यह समस्या इस कगार पर आकर खड़ी हो गई कि अपनी रिर्पोट लिखाने थाने जा रही हूँ।

यही सोचते हुये मैं पुलिस स्टेशन पहुँच गई।

अब मैं क्या कहूँ-पुलिसवालों की निगाहें मेंरे अन्तरतम को भेदकर हृदय के उस कोने तक पहुँच रहीं थी जहाँ स्थाई भावों का निवास है। मैंने भी एक सिपाही की ओर घूर कर देखा, उसने मेरे आक्रोश को पहचान लिया। निगाहें झुकाली, वह नम्र बनते हुए बोला-‘मैडम, आपका यहाँ आना कैसे हुआ?’

मैंने कहा-‘रिपोर्ट लिखाना है।’

वह बोला-‘अभी आप बैठें , दरोगा जी कहीं बाहर गये हैं। उनका इन्तजार तो करना ही पड़ेगा!’

मैं एक पास पड़ी बैंच पर बैठ गई। प्रतिक्षा करते कुछ समय निकल गया । मैंने पास बैठे, लिखा-पढ़़ी कर रहे दीवान से पूछा-‘मैं यहाँ कब तक बैठूँ?’

उसने मुझे घूरकर बेरहमी से देखा और बोला-‘ जब तक साहब आ नहीं जाते, बैठना ही पड़ेगा। क्या पता कब आयें? और किसी जरूरी काम में फस गये हो तो देर रात तक लौट पायें।’

मैं समझ गई, यह रिर्पोट लिखने को टाल रहा है। मैंने पूछा-‘ अपने एस0 पी0 साहब का नम्बर बतलायेंगे?’

यह सुनकर वह खिसिया गया, बोला-‘मैं उनका नम्बर क्यों रखने लगा।’

मैंने इधर-उधर निगाह दौड़ाई, सामने तख्ती पर एस0 पी0 साहब का नम्बर लिखा था। मैंने अपने मोबाइल में उस नम्बर को फीड़ कर लिया। यह देखकर वह बोला-‘ आप थोड़ी देर और बैठें, आपके लिये कुछ करते हैं।’

वह इधर-उधर झाँक कर बोला-‘ठीक है मैं आपकी रिर्पोट लिखे लेता हूँ। आप हमारा भी ध्यान रखेंगीं कि नहीं?’

मैं समझ गई इसकी नियत ठीक नहीं है। मैं उसके मनोभाव समझकर बोली-‘आप रिर्पोट जल्दी लिख लें, मीडिया वाले भी आने वाले हैं फिर न कहना की मैंने पहले क्यों नहीं बतलाया।’

यह सुनकर एक बार उसे गुस्सा और आ गया बोला-‘मीडियावाले मेरा क्या करेंगे? बैसे मैं तो खुद ही रिपोर्ट लिखने की सोच रहा था कि नहीं ,अन्यथा तुमसे बैठने की क्यों कहता?अच्छा अब तुम अपनी रिर्पोट लिखा दीजिये।

.......बह रिर्पोट लिखने लगा। उसी समय वरुणा यशस्वी के साथ मीडिया वाले आ पहुँचे। उन्होंने भी मुझ से जो-जो बातें पूछीं, उन्हें आप सब जानते है कि ऐसी स्थिति में पुलिस वाले और मीड़िया वाले कैसे- कैसे प्रश्न पूछकर नारी देह को नग्न करते हैं।

मुझे तो उस समय भारी आश्चर्य हुआ जब मेरे मम्मी- पापा भी थाने आ पहुँचे। वे आते ही मुझे सुनाकर बोले- ‘यदि वरुणा फोन नहीं करती तो हमें पता ही नहीं चलता।’

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