वियोग : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

Viyog : Acharya Chatursen Shastri

वे मुझे महाशय कहकर पुकारते थें और मैं उन्हें हरीश कहा करता था। उनका पूरा नाम तो हरिश्चन्द्र था, पर मै प्यार से उन्हें हरीश कहा करता था। बचपन से जब कि वे नंगे होकर नहाया करते थे―तब तक, जब तक कि वे बड़े भारी इन्जीनियर हुए, मैंने बराबर उन्हें इसी नाम से पुकारा। इन्जी- नियर होने के ९ दिन बाद ही तो वे मर गये!

बहुत दिन बीत गये हैं धुँधली सी याद है। मैं अपने घर के पिछवाड़ी, गेद बल्ला खेल रहा था, रुई की गेंद थी और बाँस का बल्ला। उन्होंने गली के छोर में आकर गेंद लपक ली। हरा कोट पहने थे और सिर पर मलमें की टोपी थी। छोटा सा मुॅह था और सुनहले बाल कन्धे पर लहरा रहे थे। उम्र कितनी थी सो नहीं बता सकता, जिस बात को समझने का ज्ञान नहीं था -- आवश्यकता भी नहीं थी, अब वह कैसे याद आ सकती है? ये मेरे ऑखों में गढ़ गये। मैंने आगे बढ़ कर कहा -- "तुम खेलोगे?" उन्होंने कहा -- "खिलाओगे?" मैंने खिला लिया। वही पहला दिन था। इस जन्म में यही पहली मुलाकात थी। उसी दिन से हम एक हुए।
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बातों का, तार कभी नहीं टूटता था। रोग तो देखा नहीं था, चिन्ता से तब तक व्याह नहीं हुआ था, शोक का अभी जन्म ही नहीं हुआ था। मौज थी, उछाह था प्रेम था। हम दोनों उसे खूब खाते थे और बखेरते थे।

मुझे रोज़, एक पैसा पिता जी देते थे। अठवाड़े के पैसे इकट्ठे करके मै उनकी दावत करता था। जङ्गल के एकान्त मे, चाँदनी की चमक मे, हम लोग एक दूसरे को देखा करते थे। अब कुछ याद नहीं रहा, क्या २ बातें होती थीं, पर इतना कह सकता हूँ कि कांग्रेस मे और बड़े लाट-की कौन्सिल मे, व्याख्यान देकर, बड़े बड़े राजा महाराजाओं से मुलाकात करके जो गर्व---जो प्रसन्नता आज नहीं मिलती है, वह उस बातचीत में मिलती थी। जिस दिन वह बात न होती थी उस दिन नीद न आती थी, भोजन न रुचता था छुट्टी का दिन बुरा दिन था। गर्मी की छुट्टियाँ तो काल थीं। उसमे वे पिता के पास चले जाया करते थे। दो महीने का वियोग होता था।

जब वे ज्यादा लाड़ मे आते थे 'तू तू' करके बोलते थे। और भी ज्यादा प्यार करते तो घूसों से घड़ते थे। मैं उन्हे कभी न मारता था, उनकी माता पर फरियाद करता था, वे उन्हे धमका कर कहती थीं---"पगले। बड़े भाई से इस तरह बोला करते हैं? ऐसा गधापन किया करते हैं?"

तब वे अपनी मा को इतरा कर जवाब देते--"अम्मा! तेरा बेटा बड़ा बदमाश हो गया है, यह बिना पिटे ठीक न होगा। बुढ़िया झुंझला कर वहाँ से बड़बड़ाती उठ जाती थी, हम लोग खिलखिलाते, ही ही, हू हू करते, धमर कुटाई करते, अपने रास्ते लगते थे।

कितनी बार अन्धेरे कमरे में हम एक साथ सोये हैं। कितनी चाँदनी रातें गंगा के उपकूल पर बिताई हैं। कितने प्रभातों की गुलाबी हवा मे हमने एक साथ स्वर मिला कर गाया है, दोपहर की चमकीली धूप में स्वछन्द विहार किया है। वर्षा ऋतुमे हम जंगल मे निकल जाते, माधोदास के बाग़ से एक टोकरा आम भर ले जाते और नहर में जल-बिहार करते, आम चूसते-गुठलियों की चांदमारी करते। गर्मी के दिनों में प्रातःकाल ही खेत पर आ बैठते और ताजे ताजे खर्बूजे खाते। वे प्रायः कहा करते--'तुम मुझसे इतना प्रम मत बढ़ाओ, मुझे डर लगता है---तुम नाराज हो गये तो मैं कैसे जीऊँगा।' कभी वे मेरे हाल को देखकर कहते-'महाशय! तेरी उम्र की रेखा तो बहुत ही छोटी है।' मैं देखकर कहता-"अच्छा मैं मर जाऊँगा तो तू रोएगा तो नहीं?' वे बड़ी देर सोचकर कहते..'रोऊँगा तो जरूर' इसके बाद वे कुछ और कहना चाहते थे पर मैं समझ जाता था मुँह भींच देता था, बोलने देता ही न था।

हम लोग कभी झूठ न बोलते थे, कभी छल न करते थे।

पर हॉ लड़ कभी कभी पड़ते थे। पर वह लड़ाई बड़े मजो की होती थी। उसमें जो हार मान लेता था---उसी की जीत होती थी और उसी की खुशामद होती थी। जीतने वाले को उसे जगल में या छत पर लेजाकर गले मे बांह डाल कर मिठाई खिलानी पड़ती थी। कभी कभी बड़ा सा गुलाब जामुन मुंँह मे ठूँस देना पड़ता था। और कभी कभी? हाँ उसे भी अब न छिपाऊँगा वही गुलाब जामुन आधा उसके मुँह मे देकर आधा दांतों से कुतर लेना पड़ना था। हम लोग एक दूसरे को पढ़ाया करते थे। हमारे बीच मे कोई न था। हम दोनों एक थे। हममे एक प्राण था, एक रस था, एक दिल था---एक जान थी।

पर यह देर तक रहा नहीं। हृदय से भीतर न रहा गया। वह हवा खाने बाहर निकला। कुछ काम काज का भार भी उस पर पड़ा। बस हवा बह चली, तार टूट गया। मोती बिखर गये। बुद्धि बढ़ गई। अपने को पहचानने लगे। पाजी ज्ञान ने कान भर दिये। डायन बुद्धि ने बहका दिया। हमने अपनी अपनी ओर को देखा। अपनी अपनी सुध ली। उसी क्षण से परस्पर को देखना कम हुआ परस्पर की सुध लेने की सुध ढीली पड़ गई। वही ढील कहाँ की कहाँ ले गई? न पूछो कथा का यह भाग बहुत ही कड़आ हैं।

हम लोग अपने अपने रास्ते लगे। अब चिट्ठियों का तार बचा था-वही केवल पुल था। पहली चिट्ठी पूरे १५ दिन में मिली थी। गुलाबी लिफाफा था, वह फट कर चूर-चूर हो गया है, पर अब तक सहेज रक्खा है। स्वप्न मे भी न सोचा था कि उसकी उम्र उनसे भी बड़ी होगी। कैसा सुन्दर वह पत्र था। सरल तरल प्रेम की वह वस्तु आज तक जीवन को जीवन देती है। फ़िर तो कितने पत्र आये और गये। अभी तक इतना जरूर था---हम लोग बुद्धिमान अवश्य हो गये थे, पर पत्र मे बुद्धिमानी को काम मे न लाते थे।

तीन साल तक पत्र व्यवहार बन्द रहा। पर समाचार मिलते रहे। दोपहर का समय था। मैं भोजन के आसना पर जाकर बैठा। मेरी स्त्री थाली परस रही थी। एक कार्ड मिला। उसमें उनका मृत्यु समाचार था। मैं मरता तो क्या? न रोया, न बोला, न भोजन छोड़ा। चुप-चाप भोजन करने लगा। उठकर बैठक मे लेट गया। रोना फिर भी न आया। बहुत इरादा किया पर व्यर्थ। हार कर सो गया।

पर अब ज्यों ज्यों दिन बीत रहे हैं, वात पुरानी हो रही है, मैं रोता हूँ। जब अकेला होता हूँ तब रोता हूँ। जब कोई दुख देता है तब रोता हूँ। जब कोई धोखा देता है अपमान करता है तब रोता हूँ। अब कोई चिन्ता हेती है तब रोता हूँ। जब कोई बात हँसी की देखता हूँ तो रोता हूँ। किसी बालक को हरा कोट पहने देखता हूँ तो रोता हूँ। कही व्याह होते देखता हूँ तो रोता हूँ। मेरे जीवन के प्रत्येक दैनिक कार्य इसी योग्य हो गये हैं कि बिना रोये उनमें स्वाद ही नहीं आता। हज़ार जगह रोता हूँ, जन्म भर रोऊंगा।

कभी कभी उन्हें स्वप्न में देखता हूँ, वही स्कूल की पुस्तकों का बण्डल बगल में, वही खिलवाड़ की बातें, वही ऊधम यही ही-ही-हा हा, वही धौलधप सब होता है, हूबहू मालूम होता है! पर! पर आँख खोलकर देखता हूँ तो मालूम देता है---वह सब स्वप्न है। वे दिन बीत गए हैं। अब मैं बड़ा हो गया हूँ जवान हो गया हूँ और अकेला रह गया हूँ। और? और वे मर गये हैं--पृथ्वी पर हैं ही नही!