विश्वासघात (कहानी) : भूपेश प्रताप सिंह

Vishwasghaat (Hindi Kahani) : Bhupesh Pratap Singh

रूपनारायण सरकारी नौकरी करते थे इसलिए घर में किसी चीज़ की कमी न थी।स्वभाव से मितव्ययी होने के कारण वे अपने ऊपर बहुत कम खर्च करते थे लेकिन घर के दूसरे सदस्यों के संबंध में यह बात बिलकुल भी लागू न होती थी। अत: उन्हें कंजूस कहना उनके साथ अन्याय करने जैसा होगा।भाइयों में बड़े होने के कारण जिम्मेदारियाँ भी अधिक थीं।उम्र में बड़ा होना भी सामाजिक तौर पर एक तरह का बंधन हो जाता है। समाज का एक बहुत अजीब नियम है कि जो बड़ा होता है उसे सब सहन करना पड़ता है। रूपनारायण के साथ भी यही था। उन्हें भी अपने भाइयों की शिक्षा,स्वास्थ्य पर खर्च करना ही होता था।उदारता की भी सीमा होती है। जीवन में एक समय ऐसा आता ही है कि हर किसी को तय करना ही पड़ता है कि वह त्याग करेगा या फिर संग्रह।चूँकि संग्रह के विचार में ही भावी सुख की कल्पना समाहित होती है इसलिए साधारण सोच रखने वाले उसी दिशा में बढ़ जाते हैं,परिणाम कुछ भी हो।

समय की बलिहारी समझते हुए रूपनारायण भी परिवार के अन्य सदस्यों से मुँह मोड़ने लगे।उनके बड़े बेटे सागर ने इसी साल हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की थी।प्रतियोगी परीक्षा दी तो चयन भी हो गया और प्रशिक्षण प्राप्त करने सुदूर शहर की एक नामी संस्थान में चला गया। रूपनारायण को लगा कि अब उनका मनोरथ पूरा हो जाएगा परंतु विधाता की गति कौन जान सकता है। सागर गया तो था प्रशिक्षण प्राप्त करने लेकिन तीन साल बीतने तक किसी को एक साल का भी प्रमाणपत्र न दिखाया।पूछने पर गोलमोल जवाब दे देता। पहले वह कभी झूठ न बोलता था इसलिए रूपनारायण भी उसकी बातों पर विश्वास कर लेते थे। पढ़ाई के लिए रुपये भेजते रहते थे।जब बेटे का भविष्य़ सँवर रहा हो तो रुपयों की चिंता कौन करता है? आखिर अपने न रहने पर भी तो सब उन्हीं का होता है। जब कुछ होना होता है तो कोई कारण बन ही जाता है। एक दिन नैना ने कहा,'' हम लोग सागर को रुपये भेजते हैं। कभी पूछना भी तो चाहिए कि वह इन रुपयों को कहाँ खर्च करता है?"

''पूछने से खर्चे कम नहीं हो जाएँगे। इतनी महँगाई है तो रुपये तो खर्च होंगे ही। हम कौन सा खुद पर खर्च करते हैं।"-रूपनारायण ने कहा।

'' मैं माँ हूँ।अपनी कोख से पैदा किया है,बहुत ममता है लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि उससे कुछ पूछा ही न जाए।सुना है हॉस्टल में लड़के बनते कम, बिगड़ते ज्यादा हैं।"

'' इतना ही डर था तो जाने ही क्यों दिया?"

'' क्या करती पल्लू से बाँधकर कब तक रखती। पढ़-लिख लेगा तो सुखी रहेगा लेकिन पिछ्ली बार कहने पर भी वह अपना प्रमाणपत्र नहीं दिखाया। एक बार आपको उसके हॉस्टल में जाकर उससे मिलना चाहिए ।मैं उसके लिए कुछ मिठाइयाँ बना दूँगी। आपका वहाँ जाना उसके दोस्तों को भी अच्छा लगेगा।"-इतना कहते-कहते नैना भावुक हो उठी।

प्रमाणपत्र न दिखाने की बात रूपनारायण के दिमाग में घर कर चुकी थी। अगले दिन उन्होंने नैना से कहा,'' मैं रास्ते में ही मिठाई खरीद लूँगा। जल्दी से खिचड़ी बना दो,मैं खाकर चला जाऊँ।" नैना ने खिचड़ी बना दी। रूपनारायण खाना खा कर सागर से मिलने के लिए चल पड़े। उनके जाने का उद्देश्य अलग था इसलिए उन्होंने सागर को पहले से सूचित करना उचित न समझा। रूपनारायण जब हॉस्टल पहुँचने वाले थे तभी देखा कि चार-पाँच लफंडर लड़के हा-हा ही-ही करते आ रहे थे। उन्हीं के बीच सागर भी था। सागर की नज़र जब अपने पिता पर पड़ी तो चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। उसका इशारा मिलते ही दूसरे लड़के इधर-उधर निकल लिए। पिता को साथ लेकर सागर हॉस्टल पहुँचा लेकिन रूपनारायण को तो केवल नैना की ही बातें याद आ रही थीं। अलमारी पर नज़र पड़ी तो स्कॉच की दो बोतलें दिखीं।अब पूछने को कुछ ज्यादा बचा न था फिर भी नैना की बातों की सच्चाई समझने के लिए जब दबाव डाला तो सागर ने बताया कि वह पहले साल की परीक्षा भी पास न कर सका था लेकिन डर के मारे उसने यह बात किसी को न बताई। रूपनारायण उसे अपने साथ लेकर घर आ गए। अब उनकी सारी आशाओं पर पानी फिर चुका था। उनकी मनोदशा ऐसी हो गई जैसे पक रही फ़सल पर पाला पड़ गया हो। स्वभाव से तो पहले ही गंभीर थे,अब और भी अधिक मौन रहने लगे। नैना तो पति और पुत्र के बीच फँसकर उचित-अनुचित का निर्णय लेना भी भूल गई। सागर तो प्रायश्चित भी नहीं कर पा रहा। अपनी माँ का इस तरह परेशान रहना सागर को बहुत अखरता था।नैना भी यह बात समझ रही थी इसलिए वह सागर से बात तो करती थी, पर उसे बहुत कुछ खोया हुआ सा लगता।

एक दिन सागर ने घर छोड़ने का निर्णय ले लिया। गाँव के एक लड़के को साथ लेकर बाज़ार गया और वहाँ पहुँचकर अपनी साइकिल उसे देते हुए यह कहकर घर वापस भेज दिया कि रात आठ बजे बता देना कि सागर नौकरी खोजने शहर चला गया। हुआ भी यही। बेटे के शहर जाने का समाचार सुनकर उस रात नैना ने खाना न खाया। माँ का हृदय तो वह सुधासिंधु है जिसकी ममता की लहरों में अखिल ब्रह्मांड का विष अमृत में बदल जाता है फिर उसका अपना सागर इससे अछूता कैसे रह गया,यह बात नैना को आज बहुत पीड़ा पहुँचा रही थी। खैर, समय सब कुछ बदल देता है। कुछ दिनों बाद घर में स्थिति सामान्य होने लगी। सागर भी कभी-कभी फ़ोन पर माँ से बात कर लेता लेकिन अपने बारे में इतना ही बताता कि वह ठीक है।

सागर जब शहर पहुँचा तो उसके रिश्तेदारों नें उससे ऐसे मुँह मोड़ लिया जैसे कोई सरोकार ही न हो लेकिन सुविधा की अपेक्षा असुविधा अधिक सिखाती है। जीवन में संघर्ष की नई कला का उदय इसी तरह होता है। सागर भी शहर में मुसीबतों से दो चार होने लगा। जीवन के लिए भोजन ज़रूरी था। उसने मजदूरी करने का निर्णय लिया। दिनभर मजदूरों के साथ काम करता और शाम को ढाबे में खाना खाकर किसी पार्क में ही सो जाता था। सागर इस स्थिति में अधिक दिनों तक नहीं रह सकता था,अत: एक दिन वह काम की तलाश में एक गैराज पर गया। हॉस्टल में रहकर बहिर्मुखी होना आज उसके काम आया। गैराज का मालिक एक खुशमिज़ाज सरदार था। वह सागर की बातों से प्रभावित होकर उसे अपने काम पर रख लिया। उसी गैराज में रहने के लिए जगह भी दे दी। अब सागर का जीवन कुछ सरल हो गया। पढ़ाई से भले ही सागर का मन उचट चुका था लेकिन शारीरिक श्रम में उसका कोई सानी न था। अपने इसी गुण के कारण वह सरदार से बहुत स्नेह पाता था परंतु साथ में काम करने वालों को यह अच्छा न लगता था। कुछ ही महीनों में सागर गाड़ियों की मरम्मत का काम अच्छी तरह सीख गया। व्यापारी का उसूल होता है कि वह जिसे काम देता है उसे अपने सामने पूड़ियाँ नहीं देखना चाहता। इसे वह अपनी शान में गुस्ताखी समझता है क्योंकि इससे उसके अहं को ठेस लगती है। सागर को भी इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ा। हुआ यूँ कि एक दिन सागर काम कर ही रहा था कि राघव नाम का एक ड्राइवर अपनी गाड़ी ठीक कराने आया। वह काम बताकर चला जाता तो ठीक था लेकिन चूँकि सरदार जी ग्राहक को भगवान मानते थे तो बैठाकर चाय पिलाने लगे।

चाय पीते-पीते ही राघव बोला-'' सरदार जी, बुरा न मानो तो एक बात कहूँ।"

''अरे पाज़ी, तेरी बातों का हमने कब बुरा माना ? तू हमेशा इसी गैराज पर अपनी गड्डी बनवाता है। जो बोलना हो दिल खोलकर बोल लेकिन पैसे पूरे लूँगा।"

''अरे सरदार जी, आप भी कैसी बातें करते हैं। खर्च करने के लिए ही तो कमाता हूँ।कहना यह चाहता था कि आपकी गैराज में इतने लोग काम करते हैं लेकिन सागर के हाथों में जो जादू है वह तो किसी जादूगर में भी नहीं है, पूरा अलबेला उस्ताद है,अलबेला। मेरी गाड़ी तो इसी से ठीक करवाना। इतवार को मैं अपनी गाड़ी लेने आऊँगा।"

सरदार कुछ कहता इससे पहले ही राघव चलता बना। अचानक की जाने वाली तारीफ़ संदेह का कारण बन जाती है। उसी समय से सरदार के दिमाग में सागर के प्रति संदेह ने अपनी जगह बना ली थी। सरदार का दूसरा नौकर बनवारी पहले ही सागर से ईर्ष्या रखता था क्योंकि मेहनती सागर के रहते उसे कामचोरी का अवसर न मिलता। अगले दिन मौका मिलते ही बनवारी ने सरदार से कहा,'' सरदार जी, मुझे तो लगता है कि जब सागर के पास अधिक रुपये हो जाएँगे तो वह आपका साथ छोड़ देगा। मैनें तो सुना है कि वह अभी से इसकी योजना भी बनाने लगा है।" अगर पहले से ही दूध खराब हो तो गरम करते ही फट जाता है। यहाँ तो बनवारी ने आमचूर ही डाल दिया था। सरदार का संदेह अब और भी बढ़ गया। उसने बनवारी की बातों पर हमेशा ही विश्वास किया था फिर आज तो संदेह की कोई गुंजाइश ही कहाँ थी। उसने अगले दिन शाम को सागर को बुलाकर यह कहते हुए हिसाब कर दिया कि अभी काम कम है जैसे ही और काम आता है तुम्हें वापस बुला लिया जाएगा।जब तक तुम्हारी व्यवस्था और कहीं नहीं हो जाती तब तक तुम यहाँ रह सकते हो " सागर काम पर बने रहने के लिए मिन्नतें करता रहा लेकिन सरदार का दिल न पसीजा।

रविवार को अलसुबह जब राघव अपनी गाड़ी लेने आया तो सागर को वहाँ न देखकर बहुत दुखी हुआ। जब उसने सरदार से उसके बारे में पूछा तो सरदार ने कहा-'' मैं गैराज चलाता हूँ, खैरात नहीं। इतना काम ही नहीं है कि किसी को हमेशा के लिए रख सकूँ।बनवारी ने आपकी गड्डी बना दी है।" राघव को इतना तो समझ में आ गया कि कुछ गड़बड़ है लेकिन क्या है,इसे वह न समझ सका। सरदार को रुपये देने के बाद वह गैराज से गाड़ी निकालकर सड़क पर आ गया। स्नेह आकर्षित करता है। राघव सड़क पर पहुँचा ही था कि उसकी नज़र मुकुल छोले भंडार पर पड़ी। सोचा कुछ खा लूँ तो चलूँ। जब वह वहाँ पहुँचा तो सागर भी वहीं खड़ा मिला। शायद वह भी नाश्ता करने के लिए ही आया था।

सागर के कंधे पर हाथ रखते हुए राघव बोला-'' नमस्कार सागर भाई।"

'' नमस्कार जी, मैनें आपकी गाड़ी कल ही बना दी,लाए या नहीं "- सागर ने उत्सुकता से पूछा।

''आपने बना दी थी? सरदार तो कह रहा था कि----।"-कहते-कहते वह चुप हो गया।

''कोई बात नहीं भाई, आपका काम हो गया,यह बड़ी बात है।आइए,कुछ खाते हैं।"

राघव ने सोचा कि सरदार ने इसे नौकरी से भी निकाल दिया है फिर भी यह शिकायत नहीं कर रहा है। वह फिर बोला,''मैनें तो सुना कि सरदार ने तुम्हें काम से हटा दिया है।"

''हाँ,काम ही कम हो गया तो क्या करते,आखिर तन्ख्वाह भी तो देनी पड़ती है।बिना काम के तन्ख्वाह देना मुश्किल होता है।" राघव को वर्षों से ऐसे ही समझदार आदमी की तलाश थी। अब तक ऑर्डर के मुताविक छोले भठूरे टेबल पर आ चुके थे।नाश्ता करते-करते ही राघव बोला,''देखो सागर भाई,भगवान की दया से मेरे पास पैसे तो हैं लेकिन गाड़ी चलाने के अलावा मुझमें कोई दूसरा हुनर नहीं है। पूरी रात सड़कों पर ट्रक चलाना जोखिमभरा काम है। अगर तुम चाहो तो गैराज खोल दूँ। रुपये मैं लगा दूँगा,काम तुम सँभाल लेना। अगर लक्ष्मी और सरस्वती का मेल हो जाए तो हम दोनों का ही जीवन सँवर जाए।"

उसकी बात सागर को ठीक लगी।वह तुरंत बोला,''अगर ऐसा हो सके तो बहुत अच्छा होगा।" यह बात जब सरदार को पता चली तो उसने सिर पीट लिया।उसे क्या पता था कि उसका ग्राहक ही सागर की नैया पार लगाना शुरू कर देगा लेकिन अब कर ही क्या सकता था। उसी दिन ही उसने सागर को साफ़-साफ़ कह दिया कि अब वह उसे अपनी गैराज में नहीं रहने देगा। इसके बाद से लगभग पंद्रह दिनों तक सागर राघव के साथ ही रहा। फिर शुभ मुहूर्त देखकर पूरी तैयारी के साथ खोला गया। नीयत ठीक हो तो बढ़ती होने में देर नहीं लगती। देखते-देखते गैराज से बहुत अच्छी आय होने लगी।लगभग छ: वर्षों तक तो सागर उसी गैराज में रहता भी था। बाद में एक छोटा सा मकान भी खरीद लिया।जब शादी हुई तो अपनी पत्नी को भी शहर ले आया। बच्चों का जन्म भी शहर में ही हुआ।

वर्षों तक साथ काम करते रहने के कारण राघव और सागर आपस में सुख-दुख बाँटते रहते थे। दोनों में किसी तरह का दुराव-छिपाव न था। छुट्टी करना तो जैसे सागर ने कभी सीखा ही न था परंतु आज सागर गैराज पर न आया था। किसी अनहोनी से आशंकित हो राघव जब उसके कमरे पर पहुँचा तो देखा कि सगार पीड़ा से कराह रहा था। पूछने पर उसकी पत्नी सुजाता ने बताया कि इनके पेट में अल्सर है। अभी कुछ देर पहले ही अस्पताल से इन्हें लेकर आई हूँ। डॉक्टर ने बताया है कि इनका ऑपरेशन होगा।

राघव ने कहा,'' भाभी,आप बिलकुल भी चिंता मत कीजिए ।भगवान ने चाहा तो भैया जल्दी ठीक हो जाएँगे। आज ही हम इन्हें अच्छे अस्पताल में ले चलते हैं।"

इतना कहकर राघव ने फौरन एक गाड़ी मँगवाई। गैराज का काम था तो बहुत से ऐसे लोगों से परिचय भी था, इसलिए गाड़ी का प्रबंध भी जल्दी हो गया। अस्पताल में भर्ती करने के बाद इलाज़ शुरू हुआ। सप्ताह भर बाद स्वस्थ होकर जब सागर घर आ गया तब सुजाता के जान में जान आई।

वाणी परोपकार की दासी होती है। राघव ने इस बार सागर की जो मदद की थी उनके लिए सुजाता उसकी बड़ाई करती रहती। सभी की एक हद होती है। हद के पार विनाश प्रतीक्षा कर रहा होता है। सुजाता के मुँह से राघव की इतनी प्रशंसा, यह बात सगार को मन -ही मन बेचैन करती। स्वार्थ में सनी वाणी का माधुर्य कभी-कभी इतना घातक सिद्ध होता है कि जीवन की दिशा बदल जाती है। कुछ महीनों से सागर को इसका अनुमान होने लगा था।

एक दिन उसने सुजाता से कहा,''तुम राघव को कमरे पर आने से रोकती क्यों नहीं।"

''मैं क्यों रोकूँ? अपने दोस्त तो तुम नहीं रोक सकते क्या? एक कप चाय पिलाना तुम्हें भारी पड़ रहा है तो मना कर दो।"

'' मैं कुछ बोलूँगा तो वह अपना व्यापार अलग कर लेगा। फिर हमारी दशा कुकुरमुत्ते जैसी हो जाएगी ।"

''तो अभी कौन सी अच्छी है? जो कमाते हो सब तो पी जाते हो।"

"फिर भी अपना घर तो मैं चलाता ही हूँ।"

''पता नहीं क्या चलाते हो,सारा खर्च तो राघव ही उठाता है।"

इतना कहकर सुजाता अपने काम में लग गई। आज सागर को अपनी कमजोरी का अहसास हो रहा था। सुजाता की बातों से उसका कलेजा फटा जा रहा था लेकिन बोलने को अब ज़्यादा कुछ बचा न था। किसी तरह रात बीती। अगले दिन गैराज पहुँचते ही राघव से बोला, '' बहुत हो चुका,गैराज से मेरा हिस्सा अलग कर दो। अब तुम्हारे साथ काम नहीं कर सकता।"

''अब कैसा हिस्सा? आधा तो सुजाता को लिख चुका हूँ "-राघव ने तल्ख आवाज़ में कहा।

''सुजाता को,मगर कब और क्यों ?"

'' जब तुम अस्पताल में थे। उसने यह भी कहा था कि हो सकता है कि तुम बचो ही न, और यदि बच भी गए तो काम करने लायक ही न रहो।"

आज से पहले भाभी कहने वाला राघव आज सुजाता कह रहा था।सागर उलटे पाँव कमरे पर वापस लौटा। दरवाज़े के बाहर से ही बोला,''मेरे साथ विश्वासघात हुआ।"

''किसने किया "-सुजाता ने पूछा।

''एक हो तो कहूँ।आज मैं हमेशा के लिए यह शहर छोड़कर गाँव जा रहा हूँ।"

इतना कहकर सागर सड़क पर आ गया।सुजाता ने भी रोकने की कोशिश न की।सागर की मेहनत का फल अब उसका हो चुका था।सागर भी तय कर चुका था कि अब वह सड़क पर नहीं रहेगा। अगले दिन ही वह गाँव आ गया। रूप नारायण को जब यह सब पता चला तो वे सन्न रह गए। उन्होंने नैना से इतना ही कहा कि विश्वासघात का फल अनंत काल तक भोगना पड़ता है लेकिन सागर ने स्वयं को माँ-बाप की सेवा में समर्पित कर दिया था। कभी-कभी बच्चों की याद आती थी तो आँखें भर आती थीं लेकिन सुजाता उसके हृदय से विदा हो चुकी थी ,शायद यही उसकी शांति भी थी।

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