विश्वास : कश्मीरी लोक-कथा
Vishwas : Lok-Katha (Kashmir)
कहा जाता है कि प्राचीन काल में एक तपस्वी ब्राह्मण कश्मीर में रहा करता था। परिवार बड़ा होने के कारण उनका पालन-पोषण करने में असमर्थ रहा करता था। वह रातभर अपनी तपस्या में लीन रहता था और दिनभर मेहनत-मजदूरी करने में अपने को खपा देता। जितना ही वह नम्र और अच्छे स्वभाव का था, उतनी ही इसकी पत्नी क्रुद्ध और तीव्र स्वभाव की थी, जो उसे हर समय बहुत तंग करती रहती थी।
एक दिन ब्राह्मण काम ढूँढ़ने के लिए निकला पर कहीं भी काम न मिला। शाम को वह डरते-डरते आँगन में प्रविष्ट हुआ; पर ज्यों ही उसे पत्नी ने खाली हाथ आते देखा वह हाथ में 'दुकरुन' (वह छोटी मजबूत टहनी जिससे चूल्हे के अन्दर की जलती उपलों की आग को चलाते थे। इसका अगला सिरा अधजला और लम्बाई गज भर (तीन फुट) हुआ करती थी।) लेकर आँगन में आई और आव देखा न ताव, पति पर प्रहारों पर प्रहार करने लगी। दूसरे दिन फिर ब्राह्मण काम की तलाश में निकला, पर इस दिन भी भाग्य ने साथ न दिया। घर पहुंचा तो वहाँ बच्चों को भूख से तड़पते देखा। यह देख उसका कलेजा मुँह को आया। करता भी क्या, अतः बच्चों को खाली पेट सुला दिया। उसे नींद कैसे आती ! सोचने लगा कि भगवान ने स्वयं कहा है कि मैं रात होने से पहले कीड़े-मकोड़ों तक के लिए अन्न की व्यवस्था करता हूँ। यदि पुस्तकों में लिखी यह बात सही है तो मेरे कलेजे के टुकड़ों के लिए अन्न की व्यवस्था क्यों नहीं हुई। इनके पेट खाली क्यों रह गए ! यह सोचने के पश्चात् वह उठ खड़ा हुआ। पुस्तक खोली। वहाँ बिल्कुल यही लिखा था। अपने आप से कहने लगा-यह ग़लत है, सरासर गलत! इस बात को पुस्तक से मिटाना ही ठीक है। यह कहकर कलम हाथ में ली और इस वाक्य को ही काट दिया। पुस्तक बन्द करके रख दी और लेट गया।
अगले दिन प्रातः पुनः काम की खोज में निकल पडा। दिन-भर काम करने के बाद कई पैसे की कमाई हुई। इन पैसों से सेरभर (लगभग एक किलो) आटा खरीदा और घर आ गया। पर ज्यों ही आँगन में पैर रखा वहाँ दूसरा ही आलम था- हर दिशा जगमग और हर कोई काम में व्यस्त! उसे लगा शायद वह किसी दूसरे के घर में आ गया है। दहलीज़ पर नज़र पड़ी तो वहाँ उसकी पत्नी चेहरे पर चमक और अधरों पर मुस्कान लिये बाँहें उठा उसके स्वागत को तत्पर थी। जब वह दहलीज पर आया तो पत्नी ने हँसते हुए उसके मुख में मिश्री का एक ढेला डालते हुए कहा, "आज हमारी उम्रभर की विपदा और अभाव दूर हो गए। आपके एक मित्र ने हमें इतना धन और सम्पत्ति दिया कि हम पीढ़ियों तक निश्चिन्त हो गए। प्रभु ! उसे दीर्घायु प्रदान करें और लोमष ऋषि की आयु दें।" पत्नी की बात सुनकर ब्राह्मण सोचने लगा कि मेरा ऐसा कौन मित्र है जिसमें इतनी दातृशक्ति है ? हो-न-हो कोई भ्रम वश यह धन दे गया। कहीं मेरी पत्नी ने किसी सीधे-सादे व्यक्ति को अपनी चतुराई से तो नहीं ठगा है ? "अरी, वह व्यक्ति था कौन ?" ब्राह्मण ने पत्नी से पूछा।
"अजी, क्यों नाटक करते हो! जैसे कुछ पता ही नहीं! वह वही था जिसकी कल कहीं पर आपने जिह्वा काट दी है।" पत्नी ने उत्तर दिया। "काफी खून बह रहा था बेचारे का। कह रहा था, अपने पति से कहना कि मेरी जीभ में टाँका लगा दे जिससे खून बहना बन्द हो जाए।"
"बकवास न कर! मैंने किसकी जीभ काटी है? मुझे पूरा-पूरा बता दे कि वह था कौन! नाम क्या था उसका ?" पति एक साँस में बोल पड़ा।
"जब आप सुबह शहर की ओर चल पड़े तभी एक घोड़े वाला आया। उसके घोड़े की पीठ पर एक थैला था। मुझसे पूछा कि तुम्हारा पति कहाँ है ? मैंने कहा, वे काम से गए हैं। उसने कहा, यह थैला ले लो तो मैं जाऊँ। हमने थैला लिया और ऊपर की मंजिल पर इसे खाली किया, इसमें हीरे, रत्न, मोती और सोने के सिक्के थे। थैला लौटाते हुए हमने उनसे पूछा कि आप कौन हैं ? क्या नाम है आपका ? ये रत्न-हीरे आदि कहाँ से लाए ? उसने जवाब में कहा कि तुम्हारे पति का मुझ पर ऋण था। कल रात तुम लोगों के पास कुछ भी खाने को नहीं रहा होगा। तुम्हारे पति ने क्रोधीले लहजे में मुझ से तगादा किया। मेरी जुबान से जब कुछ देर के लिए बोल न फूटे तो वह उठा और मेरी जुबान काट डाली। यह कहकर उसने अपनी जीभ दिखा दी। वह कटी थी और उससे लगातार खून बह रहा था।" पत्नी बोलती जा रही थी। उस दृष्टिवान साधक की समझ में सारी बात आ गई और बिना घर में घुसे उन्हीं कदमों से लौट पड़ा।
"आप कहाँ चल पड़े?" पत्नी ने पूछा। "उस बेचारे की जीभ में टाँका लगाने।" पति बोल पड़ा। चलते-चलते वह ब्राह्मण एक तपोवन में पहुंचा और फिर कभी घर न लौटा।
(पृथ्वी नाथ मधुप)