विशालाक्षी की विचित्र कहानी : (आंध्र प्रदेश/तेलंगाना) की लोक-कथा

Vishalakshi Ki Vichitra Kahani : Lok-Katha (Andhra Pradesh/Telangana)

विशालाक्षी काशी राज्य के राजा की इकलौती बेटी थी। सौंदर्य में उसके बराबर की तुलना किसी से नहीं कर सकते थे। सौंदर्य के साथ-साथ विद्या भी हो तो सोने में सुगंध के जैसा और भी अच्छा होगा, यों सोचकर राजा ने उसे गुरुओं से शिक्षा दिलवाई। शिक्षा पूरी होते ही वह विवाह के योग्य वयवाली हो गई। “तुम किस प्रकार के वर को चाह रही हो।” पिता ने उससे पूछा।

तब उसने यों कहा, “वर के लिए विद्या, चरित्र एवं रूप तीनों आवश्यक हैं? विद्याहीन पुरुष विचित्र पशु के बराबर है, वैसे ही बुद्धिहीन के पास जितनी संपत्ति भी हो, वह नष्ट हो जाती है। विद्याहीन के रूप में प्रकाश नहीं होता। वह कितना भी सुंदर क्यों न हो, शिक्षित न हो तो उस सौंदर्य की कोई महत्ता नहीं रहेगी। विद्याहीन के हाथ में ‘वित्त’ भी शीध्र ही नष्ट होता है, इसलिए वर के लिए प्राथमिक योग्यता शिक्षा है। चरित्रहीन व्यक्ति पढ़ा-लिखा सुंदर और धनवान होने पर भी बेकार है। चरित्र पर ही व्यक्ति का मान-सम्मान निर्भर रहता है। अतः चरित्र के लिए द्वितीय स्थान दिया जाता है। मनुष्य को देखते ही आकर्षित करनेवाला अंश, सौंदर्य है। आर्योक्ति है कि जहाँ सौंदर्य होगा, वहाँ गुण भी होगा, इसलिए रूप के लिए तृतीय स्थान है। चौथा है संपत्ति। कहा जाता है कि ‘धनं मूलम इदंम् जगत्’ ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा, जिसने यह कहावत सुनी नहीं होगी। चाहे अच्छा काम हो या बुरा काम, आज के संसार में धन ही प्रधान अंश है। यह आप भलीभाँति जानते हैं। मैं आपसे क्या कह रही हूँ? पिताजी! मैं चाहती हूँ कि वर संपत्तिवान भी हो। आपका निर्धन दामाद होना आपके लिए शोभादायक नहीं है न! वैसे ही कहा जाता है कि ‘कन्या वरते रूपय’ अतः वर सुंदर भी होना चाहिए। मेरे मन में जो बात है, उसे मैंने कह दी, बाकी आपकी मरजी।” विशालाक्षी ने कहा।

राजा को उसकी बातें काफी अच्छी लगीं। लगा कि वे कठोर सत्य है। पहले से ही लड़की के प्रति उसके हृदय में असीम प्रेम एवं आसक्ति थी, ऊपर से वह खूब पढ़ी-लिखी सौंदर्यवती है। पिता ने निर्णय लिया कि उसके लिए योग्य वर को ढूँढ़ना है।

लेकिन उसके मन में शंका भरी हुई है। स्त्रियाँ सर्वगुण संपन्न होती हैं, लेकिन पुरुषों में वैसे बहुत कम होते हैं। उसमें भी अविवाहितों में और भी कम होते हैं। विशालाक्षी के लिए क्या मैं योग्य वर को ढूँढ़ सकता हूँ?

फिर भी खुद मुझे अपना प्रयास जारी रखना है। प्रयास में तनिक भी कमी नहीं होनी चाहिए। यों सोचकर अपने दूतों को विविध देश भेज दिया। राजा प्रयासरत थे, इतने में, एक शाम राजकुमारी अपनी सखियों को साथ लेकर पालकी में बैठकर के केदारेश्वर की पूजा करने निकली थी। पालकी गंगा के तट पर पहुँची। वहाँ के सोपानों पर कुछ विद्वान् शास्त्रवाद कर रहे थे। उनकी बातें उसके कानों में पड़ी, उसने असीम खुशी का अनुभव किया। पढ़ी-लिखी वह उन बातों को सुनकर अपने आपको भूल गई थी। इतने में उन पंडितों के बीच में से एक युवक उसे दिखाई पड़ा। उसे देखकर वह असीम आनंद के साथ आश्चर्यचकित हुई थी। वह उन पंडितों के बीच में से तारों के बीच में चंद्रमा के जैसे प्रकाशित हो रहा था। वह इतना सुंदर दिख रहा था कि मानो मन्मथ हो। पंडित के जोर-जोर से शास्त्रों पर तर्क करते रहने पर भी वह भरे घड़े के समान छलके बिना गंभीर बैठा था।

विशालाक्षी ने उससे विवाह करना चाहा। उस युवक के बारे में पूरी जानकारी लेने के लिए सखी से कहा। उसने केदारेश्वर का दर्शन किए और भगवान् से प्रार्थना की कि उस युवक से उसका विवाह हो जाए। यों भगवान् से प्रार्थना कर वह घर वापस लौट गई। तब तक सखी उसके बारे में जानकारी लेकर आई।

“मैं वहाँ काफी देर तक खड़ी थी, लेकिन उसने मुँह नहीं खोला।” सखी ने कहा। “जो सबकुछ जानते हैं, वे अनावश्यक बकते नहीं हैं न।” उसका समर्थन विशालाक्षी ने किया। “मैंने उसका आवास स्थान पूछा, ‘उसने मालूम नहीं है’ कहा।” “पंडित के लिए अमुख जगह नहीं होती है न। सारा संसार पंडित का ही है,” विशालाक्षी ने समर्थन दिया। पूछा था, “क्या पढ़ा है, उसने कहा था—मालूम नहीं।”

“तुझे भटकाने के लिए ही ऐसा कहा होगा।” वह हँस दी। आखिर में प्रश्न किया, “आपका नाम क्या है?” “हमारे गुरुजी हमें ‘शास्त्री’ पुकारते हैं”। उन्होंने कहा।

“ओ, हो तदनंतर वह आगे और कुछ पूछने का अवसर नहीं देते हुए उठकर चले गए।” “बड़े लोग उनके बराबर के लोगों के अलावा और किसी से खुलकर बात नहीं करते। तुम यह समझे बिना उसे पागल समझ रही हो।” यों कहकर विशालाक्षी ने उसे भेज दिया। हमारी बेटी किसी से प्रेम करती, उससे विवाह करना चाह रही है, यह बात उसकी सखी के द्वारा उसके माता-पिता को पता चली। पिताजी ने पूछा—उसमें विशेष क्या है? विशालाक्षी ने उसे देखकर उसके रूप की काफी प्रशंसा की।

‘इतने दिन मैंने अनावश्यक श्रम किया। विश्वनाथजी ने मुझ पर दया करके इन्हें दिखाया। गाँव के पास में वर को रखकर दूतों को कितनी दूर भेजा था।’ यों सोच रहे थे।

अब और देरी न करते हुए, जल्दी ही उन्होंने अपनी बेटी का विवाह उससे संपन्न किया। विवाह होने के बाद विशालाक्षी को अपने पति के बारे में कई विषयों की जानकारी हुई। वह देखने में सुंदर ही है, लेकिन बुद्धिहीन है। कल जो पढ़ा था, उसकी याद आज नहीं रहती। संसार का ज्ञान बिल्कुल शून्य है। विवाह क्यों, किसलिए, वह बिल्कुल नहीं जानता था।

बुद्धिमान और अकलवाले भी गलतियाँ करते हैं, यह बात सच निकली। विशालाक्षी के भाग्य को कौन बदल सकता है? भविष्य में कुछ भला ही होगा, इसी आशा से उसने परिस्थितियों से समझौता कर लिया। जीवन का सामना करने का निर्णय लिया। अपने पति की कमजोरियों को माता-पिता न जानें, इसका बखूबी प्रबंध किया।

थोड़े समय के बाद पिता गुजर गए थे। उन्हें पुत्र संतान न होने के कारण और विशालाक्षी इकलौती बेटी होने के कारण, किंशुक शास्त्री को राजा बना दिया गया, लेकिन थोड़े समय में ही उसकी बुद्धिहीनता के बारे में मंत्रियों एवं प्रजा को मालूम पड़ा। वे सोचने लगे कि ऐसा व्यक्ति राजा बनकर बैठने योग्य नहीं है। इतने में शत्रु राजाओं ने युद्ध की घोषणा कर दी। वे सभी पहले विशालाक्षी को चाहकर वंचित हुए राजा थे।

वे सभी एकत्रित हुए थे। भानुमति उन पर विजयी होना असंभव मानकर पति को साथ लेकर शत्रुओं से बचकर भागना चाह रही थी। किले के रहस्य जानने के लिए विशालाक्षी ने पुस्तकें मँगवाई थीं। उसको काम आनेवाला ग्रंथ शीघ्र ही मिल गया, उसमें जो बात लिखी हुई है, उसके अनुसार किले से भागने का जो गुप्त द्वार है, उसे पहचानकर घोड़े, मूल्यवान रत्नों एवं पति को साथ में लेकर विशालाक्षी निकली थी। पति में सौंदर्य एवं शुभ लक्षण तो है, लेकिन इसके अलावा वह संसार के बारे में कुछ नहीं जानता था। घोड़े पर सवार करना तो अलग बात है, घोड़े पर बैठने के लिए भी वह डरता था। घोड़े को धीमी से चलाने पर भी वह डर के मारे चिल्लाते था। उसे धीरज बँधाते हुए, किसी-न-किसी प्रकार गुफा को पार कर उसने जंगल में प्रवेश किया। वे आटे में चीनी मिलाकर खाते थे।

वे एक पर्वत के शिखर पर पहुँच गए। घोड़े से उतरने पर रात में हिंसक जानवरों से खतरा मोल लेना पड़ेगा, यों सोचकर वह घोड़े से उतरे बिना धीरे से चलाते हुए सफर करने लगे। इतने में सिंह की चिंघाड़ सुनाई पड़ी। घोड़ा डर गया। विशालाक्षी के लगाम को काफी कसकर खींचने पर भी वह रुके बिना अत्यंत तेजी से दौड़ने लगा। उसका पति घोड़े पर से नीचे गिर गया।

विशालाक्षी काफी प्रयास करने पर भी घोड़े को रोक नहीं पाई। आँखों के सामने ही भयंकर दुर्घटना घटने पर भी पति को पारकर काफी दूर दौड़ने के उपरांत घोड़ा रुक गया।

वह दुःखित हुई थी। वह पति की मारी हुई अभागिनी है। बाकी विषयों को छोड़े तो वह काफी भला मानस था। सोचने लगी कि वह पापिन है। पहली बार जब देखा था, तब विविध प्रकार के ऊहा-पोह में रहकर उसे विवाह करने तक सो नहीं पाई। उस शादी की वजह से ही उसे इस प्रकार की मृत्यु प्राप्त हुई। स्वयं की वजह से उनका निधन हुआ। इस जन्म में उसे सुख का अनुभव करने का भाग्य नहीं है। जीना किसलिए? इससे मरना भला है, यों निर्णय लेकर फाँसी तैयार कर सिर को घुसाया, लेकिन विचित्र है कि विश्वास नहीं कर पाने के जैसे उस क्षण में उसे जबरदस्त नींद आ गई। उस नींद में ऐसा स्वप्न देखा था, जो सच सा लगा।

उस स्वप्न में एक स्त्री दिखाई पड़ी और कहा, “बेटी मरो मत। तेरी भलाई इसी में होगी। मेरी बातों पर विश्वास रखो। आत्महत्या का प्रयत्न छोड़ दो।” यों कहते हुए उसकी ओर काफी दया की दृष्टि से देखा।

इतने में वह जग गई। स्वप्न में दिखाई पड़ी देवी को ढूँढ़ने लगी, लेकिन वह कहीं भी नहीं दिखाई दी। ठीक ही है। मैं इस प्रकार के स्वप्न अकसर देखती ही रहती हूँ। शुभ हो या अशुभ हो, समय ही निर्णय करेगा। फिलहाल आत्महत्या का प्रयत्न छोड़ दूँगी। यों सोचकर वह फिर घोड़े पर चढ़कर जो मार्ग दिखाई पड़ा, उस मार्ग पर चलने लगी। वह मार्ग कहाँ जाएगा, वह नहीं जानती थी।

तेज धूप थी। शरीर से पसीना निकल रहा था। प्यास से गला सूख रहा था। विशालाक्षी तब पानी को उत्सुकता से ढूँढ़ने लगी। अमृत जैसे पानी से भरा हुआ एक सरोवर उसे दिखाई दिया। उसके किनारे पर शीतल छाया देनेवाले वृक्ष और उन पेड़ों पर मधुर गान कर रहे कोकिला और तोते थे।

वह घोड़े पर से उतरकर, सरोवर में कदम रखकर, पेट भर पानी पीकर, घोड़े को भी पानी पिलाकर किनारे पर पीपल पेड़ तक पहुँच गई। पेड़ के नीचे की शीतल छाया के कारण उसे गहरी नींद आ गई। उसे पता नहीं चला कि कब तक वह वैसे ही सोती रही। आँखें खोलकर देखने पर वह एक बगीचे में थी। उसके आश्चर्य की कोई ठिकाना नहीं रहा।

पीपल के पेड़ के नीचे लेटी हुई, वह इस बगीचे में कैसे पहुँची, कौन उसे ले आया, क्या वह विशालाक्षी ही है? यह स्वप्न है या सच! स्वप्न नींद में आता है न? उसकी आँखें खुली हुई थीं!

यह दिन है या रात? सूर्य भी नहीं दिख रहा है, चंद्रमा भी दिख नहीं रहा है, लेकिन अच्छी रोशनी तो है। ठीक है, कुछ भी हो। इस फुलवाड़ी में टहलूँगी, यों सोचकर वह टहलने लगी।

मनोहर फूल के पौधे, फूलों की झाड़ियाँ, फलदार वृक्ष। वह फुलवारी काफी सुंदर एवं आह्लादयुक्त थी, लेकिन जिस मार्ग से वह आई, वह मार्ग दिखाई न दे रहा था। उस उपवन में जितना टहले, उतना आनंद-ही-आनंद है, न कि थकान।

एक पेड़ पर एक विचित्र फल दिखाई दिया। उसने उसे खा लिया। बस भूख और प्यास मिट गई। उसी प्रकार का और एक फल दिखाई दिया। उसे तोड़कर छुपा लिया और एक शाखा पर विचित्र फूल दिखाई दिया। एक ही फूल था। उसकी महक इतनी नहीं थी। उसने उसे तोड़कर छुपा लिया। उसे और थोड़ी दूर चलने के उपरांत एक मंदिर दिखाई दिया। सोना, रत्न और मणियों से उसका निर्माण होने के कारण वह आभापूर्ण था। वह उधर चल पड़ी।

उस मंदिर के मंडप में वीणावादन करनेवाली एक स्त्री बैठी हुई थी। उसने विशालाक्षी को बैठने के लिए इशारा किया। विशालाक्षी उस देवी को नमस्कार कर बैठ गई। उसने बहुत अच्छी तरह संगीत का आलाप किया। विशालाक्षी भी संगीत सीखी हुई थी, इसलिए उसके प्रति उसमें प्रेम उमड़ आया। यहीं नहीं, उसने जिन स्वरों का आलाप किया, वे अत्यंत अद्भुत स्वर हैं। संगीत की विदुषी कहलानेवाली विशालाक्षी को भी उसका संगीत अत्यंत अद्भुत लगा।

उसका नाम वीणावती है। उसे पता चला कि उसने तुंबुर के पास संगीत सीखा था। हर दिन वह विशालाक्षी पर कृतियों का आलाप करती थी। उस गान-माधुर्य से परवश होकर विशालाक्षी नींद में डूब गई।

जब वह जागी, तब वह एक पीपल के पेड़ के नीचे लेटी थी और थोड़ी दूर पर घोड़ा। ओह यह सारा स्वप्न है, वह समझने लगी थी। इतने में साड़ी के पल्लू में बाँधे हुए फूल एवं फल देखे! उसे समझ में नहीं आया कि कौन सा सत्य है और कौन सा स्वप्न है। उस फूल और फल को सामने रखकर उनकी सुगंध को सूँघती हुई, खुश होती हुई बैठी थी। वह उसी तरह बैठी रही कि क्या करना है, उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। सोचा था कि फल खाकर भूख और प्यास की पीड़ा से मुक्त होना, वीणावती के मृदु-मधुर संगीत को सुनना, फल और पुष्प मिलना, यह सारा उस विशालाक्षी देवी की कृपा के अलावा और कुछ नहीं है।

तब से उसके मन में कोई चिंता नहीं रही। उसने मन में धीरज बाँध लिया। आशा हुई थी कि पति जल्दी ही मिलनेवाले हैं। हृदय आनंद से हिलोरियाँ भरने लगा। उठकर फूल एवं फल को आँचल के छोर में गाँठ बाँधकर घोड़े पर चढ़कर पश्चिम दिशा की ओर निकल पड़ी।

तब तक एक पहर दिन का समय बचा था। उसने अँधेरा होने के पहले ही किसी गाँव तक पहुँचने का संकल्प किया।

घोड़े को तेजी से दौड़ाया। वह मार्ग में थोड़ी दूर जाने के बाद दक्षिण की ओर मुड़ गई। शाम तक वह एक अग्रहार की सरहद तक पहुँच गई, वहाँ पर एक बीस वर्ष का ब्रह्मचारी पेड़ की डाली पर फाँसी पर लटकाते हुए दिखाई पड़ा। उसने झट घोड़े से उतरकर उसके हाथ पकड़कर पूछा कि तुम कौन हो, क्यों आत्महत्या करना चाह रहे हो, तुम्हारे लिए कोई नहीं है क्या? यों प्रश्न करने लगी।

अँधेरे के वजह से वह उसे सही ढंग से पहचान नहीं पाने के कारण, पुरुष समझकर, “श्रीमान्! मेरा हाथ छोड़िए, मेरे जीवित रहने का कोई फायदा नहीं है। परेशानियाँ जो झेलीं, काफी हैं। संसार में दरिद्र और विद्याविहीन के जीवित रहने से बढ़कर और कोई नीच काम नहीं है,” यों कहते हुए उसने मुख नीचा कर लिया। “हे विप्र! उच्च जन्म है तुम्हारा। गरीबी के कारण मरने की कोई आवश्यकता नहीं है। अपना वृत्तांत बताओ। मैं तुम्हें धनवान् बनाऊँगी” विशालाक्षी ने कहा। उसने अपने पराधीन जीवन का विवरण दिया। विशालाक्षी का मन पिघल गया। “वटुवा! यह फल महिमान्वित फल है। काफी दिन होने पर भी वह जैसा का तैसा रहता है। सूखेगा नहीं। इसे जो खाते हैं, उन्हें भूख और प्यास नहीं लगती। इसे ले जाकर अपने राजा को देना, वह तुम्हें आवश्यक धन देगा। सुख से जिओ।” यों कहकर, भीमशर्मा नामक उस विप्र को अपने पास जो फल था, दे दिया।

उस रात को अग्रहार में गुप्त रूप से एक जगह पर सोई थी। तड़के उठकर फिर सफर करने लगी। वह मार्ग में पूर्व की ओर चली। दोपहर तक सफर किया। तेज धूप होने के कारण थोड़ी देर विश्राम लेने के लिए सोचकर, एक पेड़ के नीचे घोड़े को बाँधकर परिसर में टहलने लगी। वहाँ की विशिष्टताओं को देखने लगी। इतने में एक बूढ़ा ब्राह्मण आँसू बहाते हुए अपने दस बच्चों को साथ लेकर आते हुए दिखाई दिया। उसका दीन मुख देखकर, ‘श्रीमान!’ आपका नाम क्या है, कहाँ से आ रहे हैं, कहाँ जा रहे हो, यह लड़की कौन है? यों पूछे बिना नहीं रह पाई।

उसने अपनी कहानी यों सुनाई, “अम्मा! हम विदर्भ देश के हैं। मेरा नाम कृष्णशर्मा है। ये बच्चे, मेरे बच्चे ही हैं। मेरी पत्नी प्रसव में व्याधिग्रस्त होकर हाल ही में चल बसी। देखभाल करने के लिए कोई स्त्री नहीं है। इन बच्चों से काफी परेशानी हो रही है। मैं अत्यंत गरीब हूँ। भिक्षाटन करके जीविका चलाता था। अब हमारे देश में अकाल तांडव नृत्य कर रहा है। भीख भी नहीं मिल रही है। कहीं चले जाने से भीख मिलेगी, इसी आशा से इस देश को छोड़कर निकल पड़ा हूँ। दो दिन से खाना नहीं खाया। ये बच्चे भूख को सहन नहीं कर पा रहे हैं।” यों कहकर उसने लंबी साँस ली। “इस बोझ को सहन न कर सकने के कारण मर जाना अच्छा समझा। तुम दयामयी-सी लग रही हो। उदात्त महिला सी लग रही हो। मेरी थोड़ी सी सहायता करो माँ?” यों उस दीन ब्राह्मण ने प्रार्थना की।

वह उसके दुःखपूर्ण वृत्तांत को सुनकर बहुत चिंतित हुई थी। उसका हृदय करुणा से पिघल गया। ऐसे गरीब व्यक्ति की सहायता करने के अलावा और कोई अच्छा काम नहीं होगा, यों सोचकर विशालाक्षी ने महिमामय उस पुष्प को उसे देकर, “ओ ब्राह्मण! यह पारिजात साधारण पुष्प नहीं है। अत्यंत विशिष्ट पुष्प है। इसे बाहर रखने से इसकी महक आठ मील तक फैल जाती है। इतने दिन होने पर भी यह पुष्प मुरझाया नहीं। तुम्हारे प्रति तरस आकर इसे तुझे दे रही हूँ।” यों कहकर उस विचित्र पुष्प को उसके हाथ में रखा।

“हे माँ इस पुष्प से मैं क्या कर सकता हूँ। मुझे क्या चाहिए? मात्र दो वक्त का खाना।” उस गरीब ब्राह्मण ने कहा। “इसे ले जाकर तुम्हें तुम्हारे कुटुंब का सदा जो पोषण करेगा, उन्हें देना। तुम्हारी समस्या का हल होगा।” उसने कहा। वह उसे नमस्कार कर, कृतज्ञता ज्ञापन कर विदा हो लिया। वह फिर घोड़े पर चढ़कर सफर करने लगी। वह मार्ग में थोड़ी दूर जाकर पूर्व की ओर से उत्तर की ओर मुड़ी।

विशालाक्षी ने इस मार्ग को पहचानकर कहा—ओह, यह मार्ग फिर उत्तर की ओर ही जाएगा! इस तरफ जंगल के अलावा गाँव नहीं है! मेरे पति कहाँ पर हैं? पता नहीं चला। स्वप्न में देवता के कथन पर विश्वास कर इस प्रकार भटक रही हूँ। पीछे मुड़कर और एक मार्ग पकड़ लूँ या इसी मार्ग पर चलूँ? यों थोड़ी देर सोचकर आखिर में उसी मार्ग पर चलने का निर्णय लेकर आगे बढ़ी।

शाम तक सफर करने पर एक गाँव भी नहीं दिखाई दिया। तब वह दुःखित हो गई। यह जंगल है। यहाँ जरूर हिंसक जानवर होंगे। इसमें रात कैसे काटूँ? फिर वह तो प्राण त्यागने के लिए तैयार है, उसे हिंसक पशुओं से डर क्यों? यह सोच कर अपने को सँभालकर फिर आगे बढ़ी।

वहाँ पर पशुओं का रंभाना सुनाई पड़ा, इसलिए उसने सोचा कि निश्चित ही वहाँ कोई गाँव होगा। विशालाक्षी उधर चल दी। वहाँ जनजाति के लोग रहते थे। वे राक्षस जैसे दिख रहे थे। वे उत्सव मना रहे थे। चौपाल में दीप जलाकर उसे घेरकर, कुछ पीते हुए जंगली वाद्य बजाते हुए नाच-गा रहे थे।

उन्हें देखते ही उसके होश उड़ गए। फिर समझ गई थी कि उन्होंने उसे नहीं देखा। बस घोड़े से उतरकर एक खेत में उसे बाँधकर गाँव की ओर एक कोने में चली गई, वहाँ झोंपड़ियाँ में कोई नहीं था। वह एक झोंपड़ी के चबूतरे पर बैठकर विश्राम करने लगी।

थोड़ी देर बाद एक स्त्री वहाँ पहुँचकर जनजातीय भाषा में उससे कुछ पूछ रही थी। उस भाषा को न जानते हुए भी, जानने के जैसे “मैं तो परदेसी बढ़िया हूँ। रास्ता भटक गई, इधर चली आई। सुबह चली जाऊँगी,” कहा। वह विशालाक्षी की बातें न समझ पाने के कारण, ओह। ओह। वनदेवी यहाँ आकर हमारे चबूतरे पर बैठी हैं, यों चिल्लाते हुए वह जहाँ दीप जल रहा है, उस चौपाल की ओर दौड़ी थी।

वहाँ उस बूढ़ी की चिल्लाहट को सुनकर शराब पीते हुए नाचने-गानेवाले सभी वनवासी उसकी बातें सुनकर चलो-चलो कहते हुए विशालाक्षी, जहाँ पर बैठी थी, उस झोंपड़ी की ओर चल पड़े। उसे देखकर उसने प्राण पखेरू उड़ गए।

इतने में उसे एक उपाय सूझा। बाल बिखेरकर सिर पर भवानी चढ़ने के जैसे इधर-उधर झूमती हुई नाचने लगी। पहुँचे हुए वनवासी उसके साथ कदम बढ़ाते हुए नाचने लगे। डफला बजाने लगे।

थोड़ी देर बाद वे डफला बजाना और नाचना बंद कर उसकी मनौती करते हुए-देवी! तुझे, बलि देंगे, शरबत पिलाएँगे। शांति से हमारी देखभाल करो। हमारे मंदिर में आना। यों प्रार्थना करने लगे।

लेकिन विशालाक्षी जिधर दीप जल रहे हैं, उस चौपाल की ओर दौड़ी। मंदिर कहाँ पर है, मालूम न होने के कारण ढफला बजाते हुए पद गाते हुए...उसका अनुसरण किया। गाल मारते हुए, नमस्कार करते हुए चौपाल के पास पहुँच गए। उन सभी से नाचना, डफला बजाना रोकने के लिए इशारा किया। औरतें ने बातें करना बंद नहीं किया था।

“इस साल हमारी देवता बढ़िया, बहुत बढ़िया कपड़े पहनकर आई।

हमारी देवी को पति है क्या, औरतों के लिए मर्द नहीं होते क्या? इस देवता के पति का नाम है पोतराजु। हाँ बच्चे तो नहीं हैं।

हम भी तो उसके बच्चे ही हैं न! यहीं देवता ने हमें जन्म दिया है। पता नहीं देवी यहाँ कितना समय रहेगी? सोने की गुड़िया जैसी है। दो दिन रहने से दर्शन कर सकते थे।

हमेशा के जैसा सुबह चली जाएगी, अब क्यों अधिक समय रहती?

विशालाक्षी ने उसकी सारी बातें ध्यान से सुनी थी। तड़के में गद्दी से उठी।

देवी चली जा रही है, यों कहते हुए वे हड़बड़ी करने लगे। चिल्लाते, डफला बजाते हुए विदा की।

वह खेत में आकर घोड़े पर चढ़ी थी। वे थोड़ी दूर तक उसके पीछे चलकर फिर लौट गए।

देवता ने ही इस आपत्ति से पार कराया। यदि मैं वन देवता के रूप में अभिनय नहीं करती तो वे मुझे जरूर मार डालते थे—यों सोचते हुए विशालाक्षी ने घोड़े को उस रास्ते की ओर दौड़ाया, जिस रास्ते से वह आई थी। उस जनजातीय स्त्री की बातों ने ही उसे एक उपाय सुझाया। दैव शक्ति ने ही उस रूप में उस बोली में उसकी रक्षा की।

वह यों घोड़े पर सवार होकर कोटीश्वरम् नामक क्षेत्र पहुँच गई थी। वह दिन शिवरात्रि का दिन होने के कारण वहाँ पर बहुत लोग पहुँच गए। घोड़े को दूर बाँधकर सरोवर में स्नान कर मंदिर में गई। उस मंदिर में उसे एक स्त्री दिखाई पड़ी। विशालाक्षी को लगा कि उसे कहीं देखा था, नख-शिख देखे थे। वह इसे पहचानकर, “क्या बेटा! क्यों ऐसी देख रही हो। क्यों कहीं देखी हुई सी लग रही हो?” हँसते हुए पूछने लगी।

“हाँ, वही स्मरण करने का प्रयास कर रही हूँ। एक दिन उपवन के मंदिर के मंडप में मैं जब वीणा बजा रही थी, तुम वहाँ आई थी न! गीत गाना समाप्त होने के बाद तुम से बात करना चाह रही थी, लेकिन इतने में तुम नींद में डूब गई थी! फिर आज तक दिखाई नहीं पड़ी।” क्या अब स्मरण में आया। विशालाक्षी के विस्मय की कोई सीमा नहीं रही। यह काफी अजीब सी लग रहा था। स्वप्न में देखी हुई देवी सच में दिखाई देना विचित्र ही है। यह भी शायद उस अजीब पुष्प एवं फल जैसी माया ही हो। यों सोचकर स्मरण आया, माँ। कहाँ थीं। उस बगीचे में से तुम जो फल और पुष्प को लाई थी! क्या उन्हें सुरक्षित रखा।

“ब्राह्मण की दीन स्थिति को सुनकर मेरा मन पिघल गया है। उन्हें उसे दे दिया। विशालाक्षी ने कहा। तब वह काफी चिंतित होती हुई बोली, “उन्हें देवता ने तुझे दिया। ऐसी चीजों को क्या दूसरों को दे सकते हैं?” ठीक है दैव-कृपा पर विश्वास रखो। वे कहीं नहीं जाएँगे।” उसने कहा।

विशालाक्षी ने उस उपवन के बारे में उससे पूछने के लिए सोचा, “यहीं रहो। अंदर जाकर भगवान् का दर्शन कर आती हूँ।” यों कहकर मंदिर के अंदर गई। काफी समय होने पर भी बाहर नहीं आई। तब विशालाक्षी ने अंदर जाकर ढूँढ़ा, लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ी। ओह! मैं उसके बारे में विवरण नहीं ले पाई हूँ। यों काफी चिंतत होती हुई, वहाँ से उसे ढूँढ़ती हुई बाहर आई।

फिर यात्रा शुरू की। धर्मपुरी नामक राजधानी नगर पहुँची। वहाँ पर एक सराय के चबूतरे पर विश्राम कर रही थी। इतने में दो मुसाफिरों का आपस में बातें करना सुनाई पड़ा।

लोग झुंड-के-झुंड में जा रहे थे। कहाँ जा रहे हो, मालूम है?

आज रात को महल में बड़ी सभा संपन्न होने जा रही है। सभा की विशेषता क्या है, सुना है—धर्मांगद महाराजा के दीवाण में एक अद्भुत फल पहुँचा है। उस की जाति के बारे में भी कोई नहीं जानता। उसे खाने से क्या होगा, कोई नहीं जानता। वैसे ही कहा जा रहा है कि मलजाल देश के राजा चंद्र वर्मा के यहाँ एक विचित्र पुष्प लाया गया है। वह कितने दिन होने पर भी नहीं मुरझाएगा, सुगंध एक योजन दूरी तक फैलेगी। उन दो चीजों के बारे में भाषण होंगे। बाद में मदन मंजरी नामक वेश्या संगीत का गायन करेगी।” बातें सुनाई पड़ने से विशालाक्षी के मन में उनके बारे में क्या कहेंगे, सुनने का कौतूहल जगा, लेकिन स्त्री वेश में सभा में जाना ठीक नहीं है, समझकर पुरुष वेश में सभा में उपस्थित हुई।

वह सभा सुंदर दीपों से अलंकृत की गई थी। सभा के बीच में उस पुष्प एवं फल को लटकाया गया था। उनकी सुगंध वहाँ के लोगों को आनंदित कर रही थी। वलयाकार में सजाए गए सिंहासनों पर विविध देशों के राजा बैठे हुए थे। इतने में राजा ने सभा में प्रवेश कर कहा, “सम्माननीय आर्य! कोई भी लोकातीत वस्तु मिलने पर उसकी विशिष्टता की जानकारी सभी को देना राजा का कर्तव्य होता है। यह फल और पुष्प की विशिष्टता आपको अलग रूप से कहने की जरूरत नहीं है। पंद्रह दिनों से ये मुरझाए बिना जैसा का तैसा है। समग्र रूप से उनके बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए इस सभा को बुलाया गया है। इनके बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी वाले कुछ लोग इस सभा में हैं। पहले भीम शर्मा इसके बारे में बोलेंगे।”

तब भीम शर्मा ने उठकर राजा और सभा को नमस्कार किया। “मेरा नाम भीम शर्मा है। मैं विजयपुरी अग्रहारम का रहनेवाला हूँ। मेरे भाई-भाभी के द्वारा किए गए अपमान को सहन न कर पाने के कारण...विद्याविहीन मैं जीवित रहना बेकार समझकर आत्महत्या करने लगा...अश्वारूढ़ एक संन्यासी ने मेरे वृत्तांत को सुनकर, मेरे प्रति तरस आकर इस फल को मुझे दिया और कहा कि यह महिमान्वित फल है, किसी साधारण मनुष्य को नहीं देना। मैं इसे महाराज को देकर मेरी गरीबी को दूर करनेवाला बढ़िया इनाम प्राप्त करने के उद्देश्य से धर्मपुरी पहुँचा था। कितनी परतों में इसे छुपाने पर भी इसकी सुगंध चारों ओर फैलने लगी। जब मैं सड़क पर चल रहा था, कुबेरदत्त नामक एक वैश्य ने उस गंध को पहचानकर अपने पास बुलाकर विवरण पूछा। वैसे भोगी से झूठ क्यों बोलू, यों सोचकर मैंने ही उसे फल का विवरण दिया। उसने मुझे आदर के साथ मंजिल पर ले जाकर फल को दिखाने के लिए पूछा, और प्रश्न किया कि “क्या इसे खाने से संतान होगी?” यह मैं नहीं जानता हूँ, कहा, “दस सिक्के में दोगे,” पूछा था, “मुझे एक गाँव मिलना है”—इसे सामान्य व्यक्ति को न देने के लिए उसने कहा।

आखिर उसने वे मुझे एक लाख में मना लिया। उसे फल देकर पैसे माँगे। वे इसे एक पेटी में छिपाकर कल सबेरे आना। परेशान नहीं होना। पैसा लाने के लिए आदमी को भेज रहा हूँ,” कहा। उसकी बातों पर विश्वास कर मैं, अपने घर चला गया। उसने दूसरे दिन भी पैसे नहीं दिए तो नहीं दिए, उलटे कल आओ, परसों आओ कहकर मुझे घुमाने लगा। दस दिन घूमने के बाद मैं ऊब गया। शंका भी होने लगी। फल को मुझे वापस देने को कहा। मेरी बात पर वह हँसता हुआ बोला, “ओ पागल ब्राह्मण! क्या सच में आपने विश्वास किया, उस फल के लिए एक लाख रुपए दूँगा? असल में तुम उस फल के लिए एक गाँव ही माँगे थे। तुम्हारी लालसा को सबक सिखाना चाहा था, इसलिए एक लाख देने के लिए कहा था। ये दस रुपए ले लो। राजा भी तुझे इससे ज्यादा नहीं देता।” कहा था। उसने जो धोखा दिया, उससे निश्चेष्ट होकर, “मेरे फल को मुझे वापस दे दो।” कहा। इस पर उस वैश्य ने उसे खाकर देखा। कोई परिणाम नहीं दिखाई दिया। “चाहे तो ये दस रुपए लेकर निकलो, नहीं तो जा निकल जा,” कहा।

मैंने शोर मचाकर गला फाड़कर लोगो को बुलाया। एक फल के लिए एक लाख रुपए!...यों कहकर वह मुझे अपमानित किया।

धर्मप्रभु होने के कारण मेरी शिकायत को सुनकर, उन्होंने कुबेरदत्त को बुलवाया। पिछली रात ही चोर द्वारा उसके पूरे घर को लूटने की वजह से वह सड़क पर आकर रोने लगा। चोरों ने फल की रखी हुई पेटी की भी चोरी की। उस समय कुबेरदत्त ने उठकर कहा, “यह ब्राह्मण जो कुछ कह रहा है, सच ही है। ब्राह्मण को धोखा देने के कारण मेरे घर में एक रुपया भी नहीं बचा। मुझे सही दंड मिला।” यों कहकर अपने गालों पर मारने लगा।

बाद में राजा की आज्ञानुसार हाथ बाँधकर सभा में पेश किए गए चोरों का नायक बोला, “हे महान्! कुबेरदत्त के घर को लूटकर यथावत् इस गाँव के निपुणिक को स्वर्णकार के पास ले गए थे। उसने हमारे सामने ही सभी पेटियाँ खोलकर उनमें रखी सारी चीजों को दिखाया। एक पेटी में यह फल है। इस प्रकार का फल वैश्य ने कहाँ से लाया है? यों सोचकर हम सभी आश्चर्यचकित हुए थे। निपुणिक ने उस फल को माँगा तो उसे हम उस फल को दे दिया। हम यही जानते हैं।” कहकर बात को पूरा किया।

तब निपुणिक उठकर बोला, “हे महोदय! इस फल को दो-तीन दिन अपने पास रखकर बाद में इस प्रकार के फल को मैं खाऊँ तो क्या प्रयोजन होगा, यों सोचकर वेश्या तारावली को प्रेम से दे दिया।” कहकर बैठ गया। तारावली ने इस फल की महिमा से बेहद खुशी से उसे खाए बिना हमारे मकान में गेंद के जैसे लटकाया। इतने में राजा के सैनिक उस फल को ढूँढ़ रहे थे, खबर मिली। तब उसे यहीं पर रखने से बहुत बुरा हाल होगा, सोचकर उस फल को कहीं फेंकने के लिए, दादी कहने के कारण, मैंने डर के मारे उसे एक पेटी में रखकर किसी कंदरा में फेंककर आने के लिए रात में दादी को दिया। बाद में क्या हुआ, मैं नहीं जानता हूँ।” कहा।

राज सैनिक ने दादी को सभा में प्रवेश कराया। वह थर-थर काँपती हुई “महान्! मैं उस फल को रखी हुई पेटी को सिर पर रखकर गड्ढे की ओर जाते समय मार्ग में रहे, मेरे प्रिय को देखने उसके घर गई तो उसने पूछा था कि उस पेटी में क्या है? उसने उस अद्भुत फल की काफी प्रशंसा की और मेरे मन में उसके प्रति जो प्रेम था, उसकी प्रशंसा की। मैंने सुबह मेरी स्वामिन तारावली के पास आकर उस फल को गड्ढे में फेंक दिया।” उसने कहा।

प्रिय ने कहा, “मुझे इस विशिष्ट फल को खाने से भी क्या लाभ है? दुकान में ले जाकर बेचने से अधिक मूल्य मिलेगा, यों सोचकर इस फल के पीछे कपट को जाने बिना, ले जाते वक्त उसकी सुगंध चारों ओर महक उठी। लोग मक्खियों के जैसे इकट्ठा हुए। इतने में राज सैनिक ने आकर मुझे बंदी बना लिया।” उसने कहा। सभी सदस्यों ने तालियाँ बजाकर अपने आश्चर्य को व्यक्त किया। तब महाराज सभा को संबोधित कर बोले, “अब आप लोग अद्भुत पुष्प के बारे में सुनेंगे। उस बात को सुनकर एक ब्राह्मण उठ खड़ा हुआ।

(साभार : प्रो. एस. शेषारत्नम्)

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