विसंगतियों का त्रिभुज (कश्मीरी कहानी) : अर्जुन देव मजबूर

Visangtiyon Ka Tribhuj (Kashmiri Story) : Arjan Dev Majboor

राष्ट्रीय राजमार्ग पर बने पत्थरों के घेरे पर बैठते ही उसकी आँखों के सामने बना त्रिभुज चमकने लगा। तीर-से मोटे, चूने से खिंचे, तीन संकेत-चिह्न जिनके साथ ऊधमपुर, जम्मू और श्रीनगर के नाम जड़े थे। वह इस स्थान पर प्रायः बैठने आया करता था। सूर्य की तेज किरणें उसकी पीठ में काँटे चुभो रही थीं। इसी स्थान पर वह छह वर्ष पूर्व उतरा था।

घर से निकलते समय जब उसने अपने नए तिमंजिला मकान को जी भरकर देखा तो वह अन्दर ही अन्दर रो उठा, बिहवल हो उठा। जिस भूमि से वह पीढ़ियों से सम्बद्ध था, उससे छूटकर वह एक ऐसे पक्षी-सा हो गया था जिसका घोंसला अकारण छूट गया हो। ट्रक में बैठा तो उसके अपने जीवन के सारे चित्र एक लम्बे मनःपटल पर पसरने लगे। जिन्दगी की एक इमारत एक ही झटके में ढह गई थी। आँखों में अनछुए प्रकृति के दृश्य आ-आ कर पीछे छूट रहे थे और मन में अचानक हालात बिगड़ने का कोलाहल पूछ रहा था कि अब क्या करोगे?

उसने पढ़ा था इतिहासों में कि शताब्दियों पूर्व उसके पूर्वज इस वसुन्धरा से निकलने पर बाध्य हुए थे, किन्तु उसे विश्वास नहीं आ रहा था कि ऐसा हुआ होगा। किन्तु आज वह स्वयं इस बेइन्साफी का अनुभव कर रहा था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा क्योंकर हुआ। हाँ, इतना स्पष्ट था कि कश्मीर में असहिष्णुता की एक आँधी-सी चला दी गई थी और यह कहीं बाहर से आई थी; अपनी धरती की तो रीत ही कुछ और है।

जब पैरों-तले से अपनी जमीन खिसक जाए तो उस सुखद भूमि का मूल्य पहचानते सारा भूतकाल कचोटता हुआ यादों के दरीचे पर उपस्थित हो जाता है। उसे अपने पिता का वह कच्ची दीवारों वाला मकान याद आया जिसे मकान कहना उचित न होगा। बड़े होकर उसने सोचा कि कहीं वह परिवार सहित इस कच्चे मकान-तले दब न जाए, इसलिए किसी न किसी तरह एक पुख्ता मकान बनवा लिया जाए। उसने अपना और अपने परिवार का पेट काटा, कर्ज लिया, कुछ जमीन भी बेच दी और तब जाकर उसे एक पुख्ता मकान मिला, जिसमें उसने सुख-दुःख, सब-कुछ देखा। उसे अपना मित्र मुहीउद्दीन याद आया जो मकान की बुनियाद के चारों कोनों के लिए तराशे हुए सुन्दर पत्थर लाया था। तीनों मंजिलों में दरवाजों और खिड़कियों की लकड़ी हासिल करने के लिए उसे कितने पापड़ बेलने पड़े थे। जब से लकड़-चोरों ने वनों की सफाई की थी, तब से साधारण व्यक्ति को लकड़ी प्राप्त करने के लिए दिक्कत आने लगी थी। यह सब याद करके वह कुढ़ के रह जाता। मकान के आँगन में एक ओर, सरू के तीन पेड़ स्वागत करते हुए आकाश की ओर देख रहे थे और आँखों में ठंडक भर रहे थे।

चारों तरफ बैंत के पेड़, पास में बहती बल खाती बड़ी ही प्यारी-प्यारी नदियाँ, जिनकी कल-छल उसे दिनभर बकते रहने पर रात को मजे में सुला देती। दो बराण्डे, ऊपर-नीचे, दूर-दूर के पर्वत-शृंगों पर जमी शताब्दियों की बर्फ की रोशनी और मनमोहकता को बैठनेवालों की आँखों में खींच लाते। वासंती वायु सालभर अपने लाखों फूलों की खुशबू लिये आस-पास डेरा डाले महसूस होती।

त्रिभुज के तीनों ओर बसें, कारें, ट्रक और अन्य वाहन आ-जा रहे थे। कश्मीरी सेबों से भरा एक बड़ा ट्रक आकर उसके सामने कुछ देर के लिए रुक गया। सेबों की सोंधी-सोंधी खुशबू से उसके नथुनों में मिठास-सी भर गई और उसे अपना फलों का छोटा-सा बगीचा वापस आने की गुहार देता हुआ प्रतीत हुआ। फूल खिलाने के मौसम में क्या बहार रहती इस बगीचे में! और चारों और फैले बागों में सफेद, गुलाबी और कश्मीरी-चाय जैसे रंग के आड़ू के फूल जो देखनेवालों को निमन्त्रण देते हुए लग रहे होते। वह बच्चों-समेत यहाँ आता, पेड़ों पर कीटनाशक छिड़कता। जब उसकी बीवी टोकरी में भात, 'सतसोस का सालन' (सात सब्जियों का सालन) और 'छोंक दूध' (मक्खन-समेत लस्सी) लाकर रख देती तो किस मज़े से फूलों की पत्तियों की गद्दी के बीच खाने बैठते सब लोग! कैसे वह इस दृश्य में घंटों खो-सा जाता! इस स्मृति से उसकी बेचैनी बढ़ने लगी। घर के सभी सदस्यों का परिश्रम ही तो था इन फूलों और पेड़ों में और थी धरती की करामात (चमत्कार)।

अब, आज जहाँ वह दिन काट रहा था, वहाँ कुछ पेड़ थे कैम्प से दूर। इनमें न चिनार का विशालकाय वृक्ष था और न सेब जैसा कल्प-वृक्ष। दूर-दूर तक फैली पथरीली जमीन और रहने, खाने-पीने, बच्चों के पढ़ने और रोटी पकाने का केवल एक कमरा जिसमें ज़िन्दगी के सारे कामकाज चलाने पड़ते थे। झुलसती धूप, तेज आँधी और लम्बी बरसात। बूढ़े परेशान कि मरते समय भी अपनी धरती की दो गज जमीन मयस्सर होने की उम्मीद नहीं। स्त्रियाँ खोई-खोई-सी, और युवक भविष्य की चिन्ताओं में लिप्त। छोटे बच्चों को जब उनके माता-पिता अपने स्वर्ग (कश्मीर) की कथाएँ सुनाते तो उन्हें लगता कि ये सब किसी दूर देश की लोककथाएँ हैं।

तभी उसकी दृष्टि पास में लगे एक मेले की ओर गई। आँखों में कुछ रंग उभरे। किन्तु यह मेला कुश्ती के मुकाबलों का था। इसी के साथ अपने गाँव में नव वर्ष से एक दिन पूर्व लगने वाला मेला उसकी स्मृति में कौंधने लगा। पास वाले कस्बे से गुलगुल, लूचियाँ. हलुआ-पराँठे बनानेवाले हलवाई, बच्चों के खिलौने, स्त्रियों की कंघियाँ और परदे बेचनेवाले, फेरीवाले अपनी-अपनी अस्थायी दुकानें सजाने लगे। वैरीनाग के बहुत बड़े चश्मे के गहरे नीले जल में यात्री नहाकर पूजन-अर्चन करने कतारों में आगे बढ़ने लगे। गाँव में चारों ओर चहल-पहल और रौनक की एक लहर-सी दौड़ गई। ऊँचे टीले पर पतंगें उड़ने लगीं और साफ-सुधरे कपड़े पहने मेहमानों की खातिरदारियों होने लगीं। नट्टू की मखनी, मूंग की दाल और आलू का चूर्मा, उसके मुंह में पानी आने लगा। गरीबी में भी कितनी भव्यता, कितना अपनापन!

एक बस के लम्बे हॉर्न से एक सुनहला मेला उसकी आँखों से एक क्षण में ओझल हो गया। आकाश में गर्मी का गुबार अभी मौजूद था। सूर्य देवता की किरणों में अभी तक तपिश बसी हुई थी। हवा का एक भी झोंका नहीं चल रहा था। छह वर्षों में उसने क्या-क्या नहीं देखा और सहा! कौन जानता था कि वह समस्याओं की दलदल में इस तरह फंसता जाएगा! आपबीती के मोटे-मोटे वाकयात की गिनती तो आप ही हो जाती थी-उसका अपना ऑपरेशन, कई रिश्तेदारों की बीमारियाँ और कितने ही व्यक्तियों की असमय मृत्यु... । वह तड़प उठा। उसकी दृष्टि जम्मू के चिह्न की ओर अनायास मुड़ गई। मन्दिरों का विशाल नगर, ट्रैफिक का जबर्दस्त रश और सबसे बढ़कर तेज गरमी जो उसके लिए असह्य थी। जम्मू वह युवा होते ही आता रहा है।

उसे वह दिन याद आया जब वह पहली बार लाहौर जाने के लिए जम्मू आया था। छोटा-सा शहर और यहीं उसने प्लेटफार्म पर रात बिताकर प्रातः सियालकोट के रास्ते लाहौर का सफर किया था। कितना मजेदार सफर, कितनी सहजता, यात्रियों की आपस की गुफ्तगू, और कोई चोरी-चकारी नहीं, भीड़-भाड़ नहीं, रिजर्वेशन के टंटे नहीं-सब-कुछ आराम से किन्तु अब वे सारी बातें स्वप्न होकर रह गई थीं।

जम्मू उसे जाना पड़ता, किसी न किसी काम से। उसकी बड़ी बहन की मृत्यु इसी नगर में हुई थी। अहराबल जलप्रपात की हवा खानेवाली, वन्य-प्रदेश में रहनेवाली, अत्यंत सरल स्वभाववाली बहन ने अपनी उम्रभर में मरने से पूर्व, उसके सामने अपनी अन्तिम इच्छा प्रकट की थी-कश्मीर में अपने घर में आखिरी सांस लेने की, किन्तु यह मामूली-सी इच्छा हालात पलटने से एक भारी पहाड़ के बोझ-सी बन गई थी उसके लिए, और वह इस इच्छा को पूरा न करने का दर्द मन के एक कोने में सदा के लिए सँभालते हुए रह गया था। कश्मीर से आनेवाले आज भी भारत के किसी भाग में आ-जा सकते थे। उनके कैम्प में जब भी कोई कश्मीरी किसी काम से आता तो उसकी बड़ी आवभगत होती। आपस में मिल-बैठकर हालात का जायजा लिया जाता, किन्तु फिर भी 200 किलोमीटर का फासला वह तै कर पाने की हालत में न था।

किसी कण्डक्टर की तेज आवाज रोके (रोकिए) से वह फिर चेता। उसकी दृष्टि पुनः श्रीनगर वाले संकेत-चिह्न पर पड़ी। उसे लगा कि यह चिह्न मानो हिलने लगा और उसे साथ लेकर उड़ने लगा-टेढ़े-मेढ़े खुले राजमार्ग पर उड़ता हुआ, पतनीटॉप की ऊंचाई लांघता, बादलों के बीच से चन्द्रभागा नदी को पार करता, बानिहाल पर्वत पर बने सर्पाकार मार्ग से होता हुआ जवाहर-टनल के बीच से एक माया-संसार में पहुंचता हुआ, जिसे जाने कौन-सा शाप लगा हुआ है। उसने देखा कि प्रकृति के कार्यकलाप और रंग-बिखराव में कोई अन्तर नहीं। आकाश कुछ ऐसे रंगों ने घेर रखा था जिन्हें संसार का कोई कैमिस्ट, कोई वैज्ञानिक, कोई चित्रकार नाम नहीं दे सकता। ये रंग प्रचलित रंगों से एकदम भिन्न थे। बस इन्हें देखते रहने की तमन्ना हर देखनेवाले में जग रही थी। थोड़ी देर में उसका गाँव उसके सामने था। घुंघरू बाँधे उसकी उत्तुंग-गिरि नाम की नदी उसे देखकर उछल पड़ी। गोधूलि के समय मिमियाते सद्यजात बछड़े एक आवाज में अपनी माँओं का स्वागत करने लगे। ग्रामीण बालाएँ 'हंद'-सब्जी की टोकरियाँ उठाए मटक-मटककर टीलों से उतरने लगीं। चूल्हों का धुआँ सुर्मई बादलों की तरह सफेदे के वृक्षों के ऊपर से उड़ने लगा।

वह गाँव के अड्डे पर उतरा और धक से रह गया। अड्डे से दिखाई देने वाले उसके मकान के स्थान पर राख और कोयलों का एक बड़ा ढेर रो रहा था। एक तीर उसके अन्दर तक चुभ गया। उसे देखकर लोग आने लगे और वह विपदा की अनेक दास्तानें सुनकर अपने सारे दुःख भूल गया। सब उसे गले मिले, हाल पूछा और रुआंसे मुख से ताकने लगे।

एक गाड़ी के शोर से उसने अपने को एक पत्थर पर बैठा पाया, उसी त्रिभुज के पास। अभी उमस मौजूद थी। आकाश में सन्ध्या-रूपी देवी ने नीचे की ओर धरती के बेटों के दुःखों पर पर्दा डालने के लिए धीरे-धीरे अपने विशाल परों को फैलाना शुरू कर दिया था। उसे प्यास लगी। आसपास कहीं जल न था। कहाँ उसकी धरती जहाँ जिधर देखो जल के झरने और स्रोत हँस रहे हैं, मिठास घोल रहे हैं। चश्माशाही और कुकरनाग का संसारभर में सुप्रसिद्ध पानी उससे बहुत दूर रह गया था। ठंडे पेय का भाव सात रुपये हो गया था। उसकी जेब में केवल पन्द्रह रुपये थे। तेरह रुपये की दवाई और बस का किराया। श्रीनगर और जम्मू के साथ जुड़े संकेतों की दुनिया से वह उभर आया। अब केवल तीसरा संकेत बचा था उसके लिए जो इस समय जीवन की वास्तविकता थी।

वाहनों की गति तेज होने लगी। शहर की बत्तियाँ जगमगाने लगीं। बाजार में शाम की खरीदारी शुरू हुई। लोग मनपसंद कपड़े, बूट, फल और सब्जियाँ खरीदने लगे। आलू की टिकियाँ बेचनेवालों के सामने भीड़ लग गई। मिठाईवालों ने तेजी से ग्राहकों को निपटाना आरम्भ किया। वह उठा और सारे बाजार पर एक विहंगम दृष्टि डाली। उसे याद आया कि अगले दिन प्रातः उसे अपनी पत्नी को आँख के ऑपरेशन के लिए सरकारी अस्पताल में दाखिल कराना है। उसने ऊधमपुर से कैम्प की ओर आखिरी बस जाने के समय को याद किया। पन्द्रह-बीस मिनट ही बाकी बचे थे। दवाई लेकर वह बस में बैठ गया।