विकृत संबंध (रूसी कहानी) : येवगेनी चिरीकोव

Vikrit Sambandh (Russian Story in Hindi) : Evgeny Chirikov

मीशा ने हठी चुप्पी साध रखी थी। वह किसी प्रकार भी बोलना नहीं चाहता था। जब उसको रात के खाने पर बुलाया गया तो उसने साफ इनकार कर दिया—

"मुझे कुछ भी नहीं चाहिए ।"

जब उसे चाय के लिए बुलाया गया तो उसने शांत भाव से, परंतु तेज आवाज में उत्तर दिया, "तुम चाय पीयो या कॉफी अथवा जो कुछ भी है, परंतु मुझे अकेला छोड़ दो; मुझे कुछ नहीं चाहिए ।"

मीशा की सबसे बड़ी बहन यह उत्तर सुनकर अप्राकृतिक ऊँची हँसी की घड़घड़ाहट से फूटकर बोली, “तुम सोचते हो कि इसकी कोई परवाह करता है? यदि तुम चाहो तो खाना-पीना बिलकुल छोड़ सकते हो; हम इसके लिए रोएँगे नहीं।”

इतना कहने के बाद वह खुशी से फड़फड़ाती दरवाजे के पीछे लुप्त हो गई। मीशा ने उसके अत्युक्त एवं असावधान उत्तर के बारे में और खुशी से बाहर जाने की बाबत अपने कारण के प्रति विशेष सहानुभूति रखते हुए विचार किया। वस्तुतः वह यह बताने के लिए बहाना बना रहा था कि पापा और मम्मी इस बात की चिंता नहीं करते थे कि उसने खाना नहीं खाया या चाय नहीं ली । वास्तव में सभी इसलिए चिंतित थे और नहीं जानते थे कि किस प्रकार उसे खाना और चाय लेने के लिए राजी किया जाए। उनको चिंता करने दो, यह उनका अपना दोष है। प्राचीन रोमन भाषा में केवल एक नंबर कम लाना इतना भयंकर नहीं था कि हर एक के सामने उसका अपमान किया जाए और उसे बताया जाए कि वह तो मोची बनने के योग्य है। जहाँ तक मोची बनने का प्रश्न है, ठीक है, उसे कोई परवाह नहीं, परंतु फिर भी वह खाना नहीं खाएगा।

मीशा ड्राइंगरूम में बैठकर एक पत्रिका पढ़ रहा था और साथ ही साथवाले कमरे में हो रही बातचीत को भी सुनता जा रहा था। निस्संदेह वे इसके बारे में ही बातचीत कर रहे थे कि यह न खाता है और न पीता है । अंततः यह चतुर लड़का है।

"माइकल कहाँ है? वह अभी तक नाराज है क्या?" उसने अपनी मम्मी को कहते सुना।

"हाँ, वह नाराज है।" नीना ने धीरे से और जानबूझकर कहा ।

“हमें कुछ-न-कुछ उसे देना चाहिए ।" उसने पिता की गहरी आवाज सुनी।

"कुछ-न-कुछ देना चाहिए, आह, जैसे मुझे जरूरत हो । " मीशा ने अपने आपसे कहा, "मोची को देने के लिए कुछ-न-कुछ की क्या जरूरत है? "

"माइकल !” उसके पिता ने आवाज दी।

माइकल ने कोई उत्तर नहीं दिया । उसके पिता ने पुनः आवाज दी।

"आप लोग क्या चाहते हैं?" मीशा ने अपनी पत्रिका पर झुकते हुए कठोर वाणी में उत्तर दिया।

"यहाँ आओ, उदासी और नाराजगी छोड़ो। "

“मैं उदास नहीं हूँ, पढ़ रहा हूँ। एक मोची के लिए मेज पर बैठना उचित नहीं लगता! "

"बुद्धिहीन मनुष्य! "

"ठीक है फिर, मैं बुद्धिहीन ही सही । " मीशा ऊँची आवाज में फूट पड़ा और हौले से कहने लगा – “तुम बुद्धिमान से सुनोगे! "

"वह नाराज है ।" उसकी बहन ने ऊँचे स्वर में कहा।

"तुम चुप रहो, मूर्ख छोटी लड़की!" मीशा ने कानाफूसी की और अपनी बहन के प्रति तीखी घृणा से भर गया। उसने बदला लेना चाहा। यदि उसका पिता वहाँ न होता ... उसको बीच में टाँग अड़ाने की क्या जरूरत है? किसी ने उसकी राय नहीं माँगी, वह गुस्से से बोला । उसने पत्रिका को मेज पर फेंक दिया और जेब में से ढूँढ़ते हुए एक पेंसिल निकाली। एक चित्र में दिखाया गया था कि एक युवक बेंच के नीचे था और एक युवती पास खड़ी थी - मूल सूत्र बता रहा था कि वह बेंच के नीचे लड़की का नाम उकेर रहा था, जिसको बेंच के ऊपर हर तरफ पहले ही उकेरा गया था—इसने उसके ऊपर लिखा- 'यह नीना और बोलोडका पैटुशकोव हैं- दो बड़े मूर्ख!' वह पृष्ठ खोलकर उसने पत्रिका रख दी, ताकि हर कोई उसको देख सके। फिर वह अपने कमरे में चला गया। नीना की टोपी मेज पर पड़ी देखकर उसने उसको फर्श पर गिरा दिया।

"यह कूड़ा-करकट मैं अपनी मेज पर नहीं रहने दूँगा ! " उसने चिल्लाकर कहा, भले ही सुननेवाला वहाँ कोई नहीं था। मीशा ने हर एक में शत्रुता का भाव महसूस किया । उसको प्रतीत हुआ कि घर दो वैरी वर्गों में बँट गया था, जिसमें से एक वह स्वयं और दूसरे में बाकी सारा परिवार । अतः जब घर की नौकरानी ने कमरे में आकर उसे संबोधित किया तो उसकी तरफ वहशी ढंग से मुड़ा ।

"माइकल पैवलिच!"

"निकल जाओ!"

"कोई तुम्हें मिलने आया है ।"

“चली जाओ, मैं तुम्हें कह रहा हूँ!"

"तुमने खाना नहीं खाया, इसीलिए नाराज हो ।"

मीशा अच्छी तरह से जानता था कि नौकरानी को उसके पास भेजा गया है। उसे खेद हुआ और वह इसे सुधारना चाहता था। फिर भी वह बच्चा नहीं था । उन्हें चिंता करने दो। वास्तव में उसे भूख लगी थी । क्या वह नीचे रसोई में जाए? नहीं, यह उसके योग्य नहीं था। बावरची नौकरानी को बता देगा और वह उसके माता-पिता को बता देगी, फिर वे शांत हो जाएँगे। यह अच्छा रहेगा कि भूख सहन की जाए। यदि उसका पिता अथवा माता आकर कहें - " नाराज मत हो, मीशा । तुम जानते हो कि यदि खाओगे-पीयोगे नहीं तो बीमार पड़ जाओगे और वह हमें घबराहट में डाल देगा। हमें खेद है कि ऐसा हो गया; यह आगे से नहीं होगा ।" तब मीशा मान जाता और उसी समय खानेवाले कमरे में चला जाता, वस्तुतः उन्होंने उसके लिए कुछ-न-कुछ महसूस किया भी। उस दिन चुकंदर का सूप बना था। जो लार पैदा हो गई थी, मीशा ने निगल ली और दरवाजे की ओर जाते हुए उसने अपनी मम्मी के पैरों की आहट सुनी। पिता वस्तुतः नहीं आएगा, संभव है कि मम्मी आ जाए और कहे कि उसे खेद है!

परंतु मम्मी नहीं आई । वह भूखा था । बजाय इसके कि कोई प्रत्याशित प्रतिनिधि आए, सुंदर शिकारी कुत्ता फालस्टाफ दरवाजे पर नजर आया। वह अपने हलके नपे-तुले कदमों से अंदर आया; मीशा को सूँघा और अपनी दुम हिलाई। फालस्टाफ पापा का प्रिय था और उसका स्थान पापा के पढ़नेवाले कमरे में मेज के नीचे था। वह यहाँ क्यों आया? वह अपने मालिक के पास जाकर दुम हिलाए। वह इतना खा गया था कि लगा—पेट अब फटा, तब फटा!

“निकल जाओ!” मीशा ने एकाएक गुस्से में कुत्ते को ठोकर मारते हुए धीरे से कहा । वह थोड़ा चीखा, फिर दुम हिलाने लग गया; जैसे कुछ कष्ट हो । फिर दुम हिलाकर चला गया । मीशा भूखा था।

काफी देर तक वह अपने बाएँ हाथ की अंगुलियों को अपनी स्थिति का ध्यान रखते हुए गंभीरता से चूसता रहा। अंततः उसे बहुत ही शानदार खयाल सूझा, जो उसको शत्रु से समझौता करने से मुक्त कर देगा । इवानोव, जो अपने ही सुझाव का मालिक था, ने एक बार अपने भाई की अलजबरे की पुस्तक बेची थी और उससे मिले पैसों से एक चाकू खरीदा था। मीशा भी पिछले वर्ष की अपनी पुस्तकें बेचकर पेस्ट्री बनानेवाले की दुकान से कचौड़ी और पेस्ट्री खरीदेगा। वह दूध की दुकान पर भी जा सकेगा और ये लोग यहाँ चिंता करते रहेंगे। ठीक है, इन्हें चिंता करने दो, यह इनका अपना दोष था। आनेवाले समय में ये मेरे साथ अच्छा व्यवहार करेंगे।

अपनी पुस्तकों की अलमारी ढूँढ़ते हुए मीशा ने एक पतली सी पुस्तक निकाली – 'यह तो मुझे चाहिए, परंतु इतनी जल्दी नहीं। तब तक ये भूल जाएँगे कि यह पुस्तक मेरे पास थी और मुझे नई ले देंगे।' मीशा ने विचार किया और अंततः उसे बेचने का निर्णय ले लिया।

वह खानेवाले कमरे से होकर जाना नहीं चाहता था, वे सब वहीं थे। वे सोचेंगे कि यह समझौते के लिए बहाना ढूँढ़ रहा है...वह नहीं। वह बिना दरवाजे के भी काम चला सकता था।

पुस्तक को सीने से लगाए वह खिड़की पर चढ़ा और बाजार की ओर चल दिया। शाम हो रही थी— दुकानें जल्दी ही बंद हो जाएँगी – जल्दी करना जरूरी होगा। मीशा हवा की भाँति उठा। उसने आधे बने मकानों में से होकर छोटे रास्ते से जाना चाहा, जिसका परिणाम यह हुआ कि उसके जूते में स्पष्ट नजर आने-वाला छिद्र हो गया। किसी दूसरे अवसर पर ऐसी दुर्घटना से वह घबरा जाता, क्योंकि जूते नए थे और उसको इस चेतावनी के साथ दिए गए थे कि वह इनका ध्यान रखेगा — अब उसने ध्यान नहीं रखा। उन्हें नए खरीदने दो। वस्तुतः वे कहेंगे कि इसको मोची की तरह नंगे पाँव घूमने दो, परंतु वह जानता था कि वे खरीद देंगे। यह कितना अपमानजनक होगा कि एक वकील का बेटा फटे जूतों में देखा जाए ! चिंता की कोई बात नहीं, वे खरीद देंगे। अंत में बाजार आ गया। वह प्रफुल्लित और उत्साहित था। क्या शोरगुल था - चीखते, चिल्लाते, झगड़ते... पूर्ण उपद्रव !

"गरम-गरम कचौरियाँ ss!" एक भोंडे चेहरे और तेल लगी नाकवाला देहाती अपनी अनुस्वारसहित आवाज में चिल्लाया।

उसने मीशा की ओर देखा और पूछा, "तुम कचौरी लेना चाहते हो?"

"यह किस चीज की बनी है ?" मीशा ने पूछा ।

"मुझसे लो, बेटा, उसकी ठंडी हैं और मेरी गरम । " गरम कचौरियों से भरे मिट्टी के बरतन को थामे खड़ी देहाती औरत चिल्लाई।

“मैं अभी थोड़ी देर में कुछ खरीदूँगा। अभी मेरे पास समय नहीं है । " गंदी भीड़ को चीरते हुए और पुरानी दुकानों की तरफ जाते हुए मीशा ने कहा । अत्यंत घबराहट में वह बूढ़े दुकानदार के पास पहुँचा, जो व्यवस्थित ढंग से अपनी दुकान के काउंटर के पास खड़ा था – वह दुकानदार कम और प्राध्यापक अधिक नजर आता था। स्कूली लड़के को देखते हुए उसने अपने आपको काउंटर के पीछे छिपा लिया और पुस्तक खोलकर पढ़ने का बहाना किया।

"क्या तुम पुस्तक खरीदते हो?" मीशा ने उससे पूछा।

“बेचने के लिए तुम्हारे पास क्या है ? "

"एशिया, अफ्रीका और अमेरिका, बिलकुल नई । " मीशा ने कहा।

"स्मीरोव की ?"

“हाँ।”

"यदि यूरोप होता तो मैं खरीद लेता, यह तो मेरे पास पहले से ही है, " दुकानदार ने मीशा से पुस्तक लेते हुए अनिच्छा से कहा, “यह पुराना संस्करण है, मैं तुम्हें इसके लिए दस कोपेक दे दूँगा।" उसने पुस्तक के पन्ने पलटते हुए आगे कहा।

"मुझे कहा गया है कि बीस कोपेक से कम में न दूँ ।" मीशा ने अविश्वास से कहा।

दुकानदार ने जम्हाई ली और पुस्तक मीशा को लौटा दी।

"चलो, पंद्रह दे दो, बिलकुल नई है ? " दुकानदार ने कोई उत्तर नहीं दिया।

" बहुत अच्छा, फिर मैं दस ही ले लूँगा ।"

“और तुम अच्छा सौदा कर रहे हो ।" दुकानदार ने कहा; उसने जम्हाई ली, दस कोपेक काउंटर पर रखे और पुस्तक को असावधानी से फेंक दिया। फिर वह अपनी पुस्तक की ओर मुड़ा और उसे पढ़ने लग गया।

“संभवतः मुझे यूरोप भी लाना चाहिए! " पैसों को जेब में डालते हुए मीशा ने कहा ।

“यदि ऐसा ही है तो ले आओ। किसी दूसरी पुस्तक के दस कोपेक नहीं मिलेंगे। अपने सारे मित्रों को भेजो। मैं औरों से अच्छी कीमत देता हूँ ।"

“मैं भेजूँगा उन्हें।”

मीशा दुकान से बाहर आया और दूसरी दुकानों पर खानेवाली चीजों का निरीक्षण करने लगा । इसके पूर्व कि वह कचौरियाँ ले, उसका मन हलवा और खसखस के लिए ललचाया । उसने कुल तीन कोपेक का खरीदा और बड़े मजे से खाया; फिर वह कचौरीवाली औरत के पास गया।

"यह किस चीज की है?"

"खुंबी, मांस और गाजर की । कितने की दूँ?"

“पाँच कोपेक की दो । मुझे गाजर पसंद नहीं है । एक खुंबी की और एक मांस की कचौरी दो ।"

दो कचौरियाँ खाने के बाद उसे प्यास लगी। बाकी बचे दो कोपेक से उसने जौ के लाल जूस के दो मग खरीदे। वह दूसरा मग कठिनाई से समाप्त कर सका। यह मलिन और बहुत ही मीठा था; फिर भी उसे छोड़ना करुणा थी ।

"ओफ !" मीशा ने दूसरा मग कठिनाई से खत्म करते हुए कहा ।

"क्या बात है? चढ़ गई है क्या?" दुकानदार ने शोखी से पूछा और अपनी संगीतमयी आवाज में चिल्लाता रहा- "मीठा ताजा जूस ।"

जब मीशा घर आया तो उसने मेज पर ठंडे मांस की प्लेट, कुछ डबल रोटी, दूध का एक गिलास और हलकी रोटी की तीन टिकियों को रखे देखा । जिस चीज ने उसे ललचाया वे हलकी रोटी की टिकियाँ थीं, जिनमें उसकी बड़ी रुचि थी, परंतु उसका अहंकार उसे इनको खाने नहीं देगा। यदि उन्हें याद न रहे कि उन्होंने दो टिकिया रखी थीं या तीन, तो वह एक खा लेगा । उसने ध्यानपूर्वक तीनों का किनारा काटा और खा गया। उसने दूध का भी आचमन किया। वह बहुत अच्छा था, परंतु नहीं, वह और अधिक नहीं लेगा ।

जौ का लाल जूस वास्तव में उसे चढ़ गया था और हलवे, खसखस, खुंबी और गंदे मांस की कचौरियों ने उसके पेट में गड़बड़ी कर दी।

"फू... भयानक! " उसने गुस्से में पुकारा और रह-रहकर फर्श पर थूकता रहा ।

"तुम कहाँ चले गए थे?" नीना ने दरवाजे पर आकर पूछा।

"यह मेरा मामला है। मैं तो नहीं पूछता कि तुम कहाँ घूमती रहती हो !"

नीना ने पास से मेज की ओर देखा, जिसपर मीशा का खाना लगा हुआ था। वह छुआ नहीं गया था। "मम्मी ने कहा है कि तुम्हें मांस खाना है । "

"मुझे खाने की जरूरत नहीं है। मैं बुद्धिहीन और मोची हूँ । तुम सभी वकील हो! इससे बुद्धिहीन को कोई अंतर नहीं पड़ता।"

"जैसा तुम चाहो ।"

"ठीक है, तुम अपने पेटुशकोव के साथ घूमने जा सकती हो। मुझे अकेला छोड़ दो।"

"मूर्ख!" उसने चहककर कहा और बाहर चली गई।

मीशा ने शत्रुओं के अवरोध का सामना करने के लिए अपने आपको योग्य समझा और खाने के प्रति पूर्ण उदासीनता से उनकी चोटों से बचने में भी समर्थ जाना । खुंबी और मांस की कचौरियाँ, हलवा और खसखस उसके साथी थे यह सिलसिला संभवतः काफी देर तक चलता रहता, यदि एक घटना ने इस परस्पर विकृत संबंधों का अंत न कर दिया होता। मीशा के पेट में दर्द हुआ और समय के साथ-साथ बढ़ता चला गया। दर्द ने उसे विवश कर दिया कि वह मुँह के बल चारपाई पर लेटा रहे । वह अपनी बनाई स्थिति को धोखा देना नहीं चाहता था। इसलिए उसने कुछ समय तक अपने ऊपर नियंत्रण किया और तकिए में ही अपनी कराहट को सहन करता रहा, परंतु खुंबी की कचौरियाँ और ताजा जौ का लाल जूस अपना काम कर गए। वह जोर-जोर से कराहा और उसने तकिए को अपने हाथों से पीटा।

"ओह, क्या दंड मिला है!" समय-समय पर अपने पैरों को मारते हुए दुःखी होकर उसने कहा । सायंकाल होते- होते वह सहन नहीं कर सका और जोर-जोर से रोने लगा। पिता को छोड़कर, जो सामान्यतया उस समय क्लब में होते थे, उसके सारे शत्रु उसकी चारपाई की ओर भागे। उसकी माँ ने थर्मामीटर लगाया, उसकी बहन सरसों का घड़ा लाई, नौकरानी डॉक्टर के लिए दौड़ी, यहाँ तक कि फालस्टाफ भी मरीज को देखने आया और कार्यरत शत्रुओं के बीच से रास्ता बनाते हुए अपनी बुद्धिमान बड़ी-बड़ी आँखों से दुःखी होकर सहानुभूति से मीशा को देखा।

"क्या किया है तुमने?" माँ ने शंका से पूछा । वह अंदर-ही-अंदर डर रही थी कि उसने कहीं जहर न खा लिया हो। दरअसल पहले कई बार वह इसकी धमकी दे चुका था।

"क्या तुमने कुछ खाया है ? मीशा बेटे, मुझे बताओ, तुम तो प्यारे बच्चे हो, जल्दी बताओ ।"

"आह, मम्मी, ओह, मैंने एशिया, अमेरिका और अफ्रीका बेच दिए हैं... आह... और खुंबी की कचौरियाँ खरीदी थीं।"

"यह क्या? मीशा... ओ मेरे परमात्मा! यह तो अचेत हो गया। पिता को क्लब से बुलाने के लिए किसी को भेजो; मेरे परमात्मा!”

उसकी माँ मीशा के ऊपर झुक गई, माथे पर हाथ रखा और गालों को चूमा। उसकी बहन आँखों में आँसू लिये कमरे में दौड़ी और चिंतित होकर खिड़की से डॉक्टर के आने की प्रतीक्षा में लग गई। थोड़ी देर में डॉक्टर आ गया।

“ठीक है, नौजवान, कहाँ दर्द है? जरा मुड़ जाओ?"

मीशा आज्ञानुसार मुड़ गया। डॉक्टर ने परीक्षण किया ।

"आज क्या खाया है?"

"आज इसने कुछ नहीं खाया। जब से स्कूल से लौटा है, जरा सी भी कोई चीज नहीं ली।" उसकी माँ ने कहा।

"यह बुद्धिमानी नहीं है, आखिर तुमने कुछ खाया है, नौजवान । मुझे साफ-साफ बताओ।"

"हाँ, मैंने खुंबी की कचौरियाँ खाई हैं, मैंने एशिया, अफ्रीका...।"

"मामला क्या है?" चकित पिता ने गाड़ी, जिसपर वह क्लब से आया था, से कूदते हुए धीरे से पूछा।

एक घंटे के बाद सारा घर शांत था । पेट पर पुलटिस बाँधे मीशा बिस्तर पर लेटा था; उसके पास उसकी माँ और बहन बैठी हुई थीं। दोनों ने खलबली मचाई और आज्ञानुसार उसकी हर अनियमित माँग पूरी कर दी।

दर्द जा चुका था और मीशा पूर्णतया संतुष्टि महसूस करने लगा था।

(अनुवाद : भद्रसैन पुरी)

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