विकट संकट : फणीश्वरनाथ रेणु

Vikat Sankat : Phanishwar Nath Renu

दिग्विजय बाबू को जो लोग अच्छी तरह जानते-पहचानते हैं,

वे यह कभी नहीं विश्वास करेंगे कि दिग्विजय उर्फ दिगो बाबू कभी क्रोध से पागल होकर सड़क पर, खाली देह और ऊँची आवाज में किसी को अश्लील गालियाँ दे सकते हैं।

लोग उनको अजातकशत्रु मानते हैं।

और भूल-चूक से एकाध शत्रु कहीं पैदा भी हुआ हो तो उन्होंने दिगो बाबू को कभी ऊँचे स्वर में बोलते नहीं सुना होगा।

अपनी क्रोधहीनता के कारण ही उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त की है।

किन्तु लोगों ने देखा और पहचाना कि अपने अतिपुरातन भृत्य को बीच सड़क पर बेंत से पीटने और गालियाँ देनेवाले सचमुच दिगो बाबू ही हैं।

उनके इस अभूतपूर्व कोप का कारण पूछनेवाले भी दिगो बाबू के मुँह से होनेवाली (प्रथम वर्षा' में भीग गए।

आसपास एकत्रित सभी लोगों को सालो” कहकर सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा कि उन्हें सबकुछ मालूम है और वे सभी को ठीक करके दम लेंगे। तमाशा देखनेवालों को अच्छी तरह दिखला देंगे।

लोग सत्र करें।

इतना कहकर वे अपनी कोठी के अहाते में गए, फिर बँगले के बरामदे पर रखे हुए कई गमलों को लात मार-मारकर नीचे गिरा देने के बाद अन्दर चले गए।

निःशब्द खुलने और बन्द होनेवाला दरवाजा आज पहली बार चूँ-चूँ कर उठा।

ताड़ित भृत्य रामटहल अँगोछे से अपनी पीठ झाड़ता हुआ उनके पीछे-पीछे चला गया।

बस !

लोग सब्र करें ?

पता नहीं फिर कितनी देर बाद वे अच्छी तरह तमाशा दिखाने को बाहर निकलें ?

उन्हें लोगों के बारे में सबकुछ पता है और लोगों को यह नहीं मालूम कि उन्होंने दिगो बाबू का क्‍या बिगाड़ा है।

उनके घर में जिनका “आना-जाना' है, वे भी आज उनकी '“शान्ति-कुटी” में पैर देने का साहस नहीं करते। फिर कारण कैसे मालूम हो...?

कामवाले अपने-अपने काम पर गए और बेकाम के लोग कई घंटों तक बेकार न बैठकर सामने पार्क में ताश खेलते रहे।

किन्तु किसी खिड़की या दरवाजे से फिर कोई बाहर नहीं आया, न किसी प्राणी या वस्तु की आवाज ही बाहर आई।

जैसी नाटकीयता से गमलों पर पदाघात करके और जिस वेग से वे अन्दर गए थे, उस हिसाब से अन्दर पहुँचने के एक मिनट बाद ही “ठाँय-ठाँय” विस्फोट अथवा काँच के बर्तनों की टूटती आवाज अथवा किसी के अचानक फूट-फूटकर रोने का स्वर गूँज जाना चाहिए।

परन्तु दो घंटे बाद भी कुछ नहीं हुआ और धीरे-धीरे रहस्य गम्भीर होता गया।

रात के दस बजे इस रहस्य को भेदन करके एक उड़ती-सी खबर फैली कि दिगो बाबू के घर में मुकम्मल हड़ताल है।

दिगो बाबू के अतिरिक्त कोठी में रहनेवाले अन्य सभी प्राणी दिगो बाबू के विरुद्ध असहयोग-आन्दोलन कर रहे हैं। अर्धागिनी अपने पूरे अंग को समेटकर अँगनाई की एक छोटी कोठरी में चली गई हैं; प्रजा अर्थात्‌ पृत्र अराजक हो गया है; भृत्य किसी वचन का पालन नहीं करता; महाराज मनपसन्द भोजन बनाने लगा है।

यहाँ तक कि घर की बिल्ली भी गुर्राती है देखकर ।...हाय रे, दिगो बाबू का सुख का संसार! हाय री उनकी 'शान्ति-कुटी' अर्थात्‌ न्यू पटेलपुरी में नवनिर्मित दिगो बाबू की कोठी!!

दूसरे दिन सूर्योदय से पहले ही तमाशा शुरू हो गया।

दिगो बाबू के लाड़ले बेटे श्रीहर्ष ने अपनी कोमल मधुर आवाज को कर्कशतम्‌ कर, भोले-भाले चेहरे को कठोर-क्रूर बनाकर अखबार देनेवाले लड़के से कहा, “अभी अखबार पहले “छोटी कोठी' में देगा अब से-समझा ?”

छोटी कोठी” अर्थात्‌ कोठी की अतिथिशाला, जिसमें श्रीहर्ष रहता है। सभी पत्र-पत्रिकाओं को बगल में दबाकर खुले आम माचिस जलाकर, सिगरेट सुलगाकर, धुएँ का गुब्बारा छोड़कर श्रीहर्ष अपनी छोटी कोठी की ओर चला गया।

थोड़ी देर बाद, श्रीहर्ष की माताजी यानी श्रीमती धर्मशीला अपने पति को, न जाने किस बात पर धिक्कारती हुई बाहर बरामदे पर आई।

जिस महिला को लोगों ने हर एकादशी की साँझ को अपने पति का चरणोदक पीते देखा है, वह कह रही थी-“भोर-ही-भोर जो इनका नाम ले ले, उसका सारे दिन का सगुन चौपट!”

कल जिस पर मार पड़ी थी वही चाकर आज निडर होकर लॉन में, आरामकरर्सी पर लेटकर बीड़ी खींच रहा है। और, महाराज अपने दीर्घ दाँतों को दँतुअन से रगड़ता हुआ यत्र-तत्र थूकता जाता है-मैं किसी का नौकर नहीं। जिसको “चाह” पीना है 'होटिल” से मँगवा ले। मैं अभी गंगाजी में नहाकर, बिड़ला मन्दिर जाऊँगा! आकथो...

आश्चर्य! लगता है दिगो बाबू को जीवन में सिर्फ कल ही-पहली और अन्तिम बार-क्रोध हुआ। आज वे पुनः धीर-गम्भीर और सौम्य-शान्त हैं-सबकुछ देख-सुनकर भी ।

कन्धे पर धोती-तौलिया डालकर बाहरवाले खुले नल पर जाते देखकर किसी को विश्वास नहीं हुआ कि दिगो बाबू बाहर ही नहाएँगे, जहाँ नौकरानी बर्तन माँजती है।

दिगो बाबू ने सड़क पर हाँक लगानेवाले पूरी-भाजेवाले को पुकारा। राह चलते पतौरे-पकौड़े-कचालू-छोले खानेवाले लड़कों को सुबह-शाम निःशुल्क स्वास्थ्यपूर्ण सीख

देनेवाले दिगो बाबू को इस तरह बासी पूरी-भाजी खाते देखकर एक सहदय-पड़ोसी का हृदय हिल गया और उसने “अरे-रे यह कया, यह क्या...' कहकर सहानुभूति-विगलित स्वर में कुछ कहने की चेष्टा की। किन्तु दिगो बाबू ने एक अंग्रेजी वाक्य का ठेठ भारतीय अनुवाद करके कपट-नम्न उत्तर दिया, “जनाब! आप अपने चरखे में जाकर तेल डालें।”

दोपहर को उनके पूर्वी पड़ोसी एक “अर्थपूर्ण बात” अर्थात्‌ रुपए-पैसे से सम्बन्धित बात सुनाने गए, “श्रीहर्ष बाबू ने रोड नम्बर पाँच के फ्लैट के किराएदारों को आज नोटिस दिया है कि मकान का कियाया श्रीहर्ष बाबू के हाथ में ही... !!

दिगो बाबू ने बीच में ही काट दिया, “हाँ, प्लॉट और फ्लैट श्रीहर्ष के नाम है, इसलिए मकान का किराया उसी को मिलना चाहिए ।”

श्रीहर्ष ने किराएदारों को ही नहीं, दिगो बाबू को भी नोटिस दिया है-जीवन- बीमा के पैसे का 'नामिनी” वह नहीं रहना चाहता। उसे पैसे नहीं चाहिए ।...वह किसी का आश्रित नहीं।

श्रीमती धर्मशीला ने भी कुछ ऐसा कहा, जिसका आशय यही होता है कि वह भी दिगो बाबू के आश्रय को श्राप समझती है।

दिग्विजय बाबू एकदम चुप रहे। उनकी लम्बी और गम्भीर चुप्पी से मॉँ-बेटा, नौकर-चाकर सभी उत्तेजित हो गए, “इनको क्‍या है ? चुप रहें या बोलें-मौज में ही. रहेंगे। संकट तो हम लोगों के सिर है!

“आप भला तो जग भला। इनके सुख-चैन में कोई कमी न हो कभी । कोई मरे इनकी बला से ।”

दिग्विजय बाबू ने अपनी उँगली में दाँत काटकर देखा; नहीं, वह सपना नहीं देख रहे!

आखिर, बात तरह-तरह की बातें लेकर उड़ी। सारे शहर के हर “नगर” और 'पुरी” में फैलती गई। तब, दिग्विजय बाबू के हर वर्ग और समाज के मित्रों का आगमन शुरू हुआ।

'शान्ति-कुटी” में प्रवेश करनेवालों की दृष्टि दूर से ही रामटहल के गन्दे-चिकट लैंगोट पर पड़ती, जिसे उसने बतौर बगावत के झंडे के दिगो बाबू की खिड़की पर पसार दिया है।

दिगो बाबू के एक वकील मित्र ने जिरह करके मामले के मूल-सूत्र को पकड़ने की चेष्टा की ।...नौकर को पीटने के बाद ही पत्नी और पुत्र ने विद्रोह किया या पहले ?

और नौकर यानी रामटहल तो बहुत पुराना चाकर है। दिगो बाबू जब कालेज में पढ़ने आए थे, रामटहल को साथ ले आए थे। दिगो बाबू की पढ़ाई खत्म हुई, नौकरी शुरू हुई-खत्म हुई-रामटहल सदा साथ रहा। शादी और गौने में भी वह दिगो बाबू से सटकर खड़ा था।

दिगो बाबू के दूसरे मित्र खुफिया विभाग में काम करते हैं और उनका यह विश्वास है कि संसार में जितने भी अपराध या अघटन होते हैं उनके पीछे कहीं-न- कहीं किसी स्त्री का कोमल हाथ जरूर होता है

इस मामले में औरत तो सीधे सामने है।

लेकिन इसके अलावा कोई और औरत तो कहीं नहीं ?

दल श्रीमती धर्मशीला से बहुद देर तक बेमतलब की बातें करके वे अपने मतलब की बात नहीं निकाल सके किसी औरत या लड़की का पता नहीं चला पति के इस 'विराग' और असहयोग का कारण पूछने पर श्रीमती धर्मशीला रामटहल की ओर देखकर चुप हो जाती ।

तब, दिग्विजय बाबू के खुफिया-विभागीय मित्र ने दूसरे सिरे से शुरू किया...कहीं श्रीमती धर्मशीला ही तो वह 'औरत' नहीं ?

अतः उन्होंने रामटहल की देह में नुकीले सवाल गड़ाकर “थाहना' शुरू किया ।...एक बार इसी तरह कटहल में लोहे की कमानी गड़ाकर चोरी का सोना बरामद किया था।

लेकिन रामटहल शुरू से अन्त तक हर सवाल का एक ही जवाब देता रहा- “मालकिन असल सती नारी हैं!”

उन्होंने तब उन गमलों की परीक्षा की जिन्हें दिगो बाबू ने लात मारकर गिराया था, पर कुछ हाथ नहीं लगा।

तीसरे दिन किसी अज्ञात हितचिन्तक ने दिगो बाबू के बड़े बेटे को तार लगा दिया-“बाय लबेजान है, जल्दी आइए ”

दिगो बाबू के निर्जला मौन-व्रत ने लोगों को भी हैरत में डाल दिया है। जिन अपराधों के लिए कोई भी अपनी स्त्री, बेटे, नौकर, सभी को बाहर निकाल सकता है, उन्हें चुपचाप सहने का कया अर्थ हो सकता है भला ?

दिमाग सही है या वह भी दीवार-घड़ी की तरह बन्द हो गया है ?

दुर्गापर से दिगो बाबू का बड़ा बेटा श्रीपार्थ स्त्री श्रीमती भवानी के साथ दौड़ा आया। उनकी अगुवानी के लिए श्रीमती धर्मशीला और श्रीहर्ष एक ही साथ दौड़े। श्रीहर्ष ने कहा, “भैया! डॉण्ट...!”

“बाबूजी कैसे हैं... ?”

“अरे, उनको क्या है बेटा! संकट तो हम लोगों के सिर है। वे तो मौज में हैं और मौज में रहेंगे ।'”

श्रीपार्थ तथा उसकी पत्नी को स्टेशन पर ही मालूम हो गया था कि बाबूजी लबेजान नहीं, 'सनक'. गए हैं...।

सनक गए हैं माने पागल? सुनते ही श्रीमती भवानी की देह में कँपकँपी, कलेजे में धड़कन, गले में घिष्यी और सिर में चक्कर-सब एक साथ!

श्रीपार्थ ने समझा-बुझाकर अपनी पत्नी का दिल मज़बूत किया-“पागल हो गए हैं तो क्या-हैं तो हमारे बाप ही!”

किन्तु परिवार के सभी प्राणियों को कोठी के फाटक की ओर झपटते देखकर भवानी देवी फिर भय से पीली पड़ गईं ।...श्रीहर्ष का रह-रहकर “भैया, डॉण्ट”, श्रीमती

धर्मशीला की आतंकपूर्ण आँखें, खिड़की पर प्रसारित गमटढल का गन्दा-चिकट लैंगोट, फिसफिसाहट और इशारों में बातें देख-सुनकर श्रीपार्थ की अवस्था भी शोचनीय हो गई।

वे सभी दल बाँधकर, दबे-पाँव चुपचाप बरामदे में आए। श्रीमती भवानी सबसे पीछे थीं।

रामटहल दिगो बाबू के कमरे का दरवाजा खोलकर इस तरह खड़ा हुआ मानो पिंजड़े में बन्द किसी हिंस्र प्राणी की झाँकी दिखला रहा हो।

दिगी बाबू ने गीता रहस्य” में गड़ी हुई आँखों को ऊपर उठाने की चेष्टा नहीं की। श्रीपार्थ ने दूर से ही मृक प्रणाम किया। श्रीमती भवानी, साहस बटोरकर आगे बढ़ रहीं थीं कि रामटहल ने दरवाजा बन्द कर दिया।

सभी ने एक साथ लम्बी साँस ली।

श्रीमती धर्मशीला बोली, “बेटा! तुम तो इनक॑ “आश्रित” नहीं। तुम लोगों को कया डर ? संकट तो हमारे सिर है!”

तब तक रसोईघर में महाराज ने हनुमान-चालीसा का स-स्वर दैनिक पाठ शुरू कर दिया था, “संकट मोचन नाम तिहारो... ।”

पाँच मिनट में ही हर व्यक्ति के मुँह से पच्चीस बार “संकट” सुनकर श्रीपार्थ के मन में एक काँटा-सा गड़ने लगा-संकट...कंटक...सं...कट ! उसने पूछा, “संकट क्‍या है ?”

रामटहल ने कुछ कहना चाहा तो श्रीपार्थ ने उसे चुप कर दिया।

श्रीहर्ष संकटकालीन समस्याओं पर पूर्ण प्रकाश डालने को उत्सुक हुआ, किन्तु श्रीपार्थ ने उसको अंग्रेजी में समझा दिया कि वह सभी से अलग-अलग (इनडिविजुअली) बातें करना चाहता है।

अतः: माँ को छोड़कर बाकी सभी इस कमरे से बाहर निकल जाएँ। जिसको पुकारा जाए, वही आए। कोई किसी को कुछ सिखाए-पढ़ाए नहीं।

श्रीमती भवानी उधर से तनिक खुश, ज्यादा परेशान होकर आईं और अपने स्वामी से पूछने लगीं, “बाबूजी मुझे बुला रहे हैं!...हाँ, बहुत प्यार से बुला रहे हैं। मैं खिड़की से झॉककर देखने गई तो पुकारा-बेटी !”

श्रीपार्थ ने अपनी माता की ओर देखा। श्रीमती धर्मशीला चुपचाप अपना बयान देने लगी और श्रीमती भवानी 'क्या करें नहीं करे” का सवाल अपने मुखढ़े पर जड़कर वहीं खड़ी रहीं।

श्रीमती धर्मशीला, श्रीहर्ष, रामटहल और महाराज से अलग-अलग साक्षात्कार सम्पन्न करके श्रीपार्थ ने संकट का सूत्र पकड़ा।

और, तब उसको अचानक ज्ञात हुआ कि उसके पिता दिग्विजय बाबू सचमुच अभूतपूर्व पुरुष हैं। लगातार तीन-चार दिन तक ऐसे विकट संकट में रहकर भी जिनका दिमाग सही-सलामत है, वे निश्चय ही देवता हैं।

श्रीपार्थ अपने उत्पीड़ित पिता की चरणधूलि लेने के लिए दौड़ा।

उसने श्रीमती भवानी को निकट बुलाकर कुछ कहा। श्रीमती भवानी ने घबराकर श्रीहर्ष, रामटहल और अन्त में श्रीमती धर्मशीला की ओर देखा...इतने पागलों के बीच...हे भगवान!

श्रीमती भवानी अपने पति के पास भागकर चली गईं।

संकट की मूल कहानी इस तरह शुरू होती है :

अष्टग्रह की भयावह अफवाहों के बीच एक दिन इस नगर की 'बूढ़ी-सेठानी-धर्मशाला” में एक त्रिकालदर्शी ज्योतिषी ने अपना डेरा डालकर ऐलान करवा दिया कि वह एक पखवारे से एक दिन भी ज्यादा इस शहर में नहीं रहेगा।

जिन्हें अपने भूत, भविष्य और वर्तमान का दर्शन करना अथवा बिगड़ी तकदीर को सुधारना हो जल्दी करें।

अखंड संकीर्तनों के असंख्य ध्वनि-विस्तारक यन्त्रों के आतंकपूर्ण हाहाकार और महायज्ञ के कटु-पवित्र धुएँ से ढके हुए इस नगर में त्रिकालदर्शीनी आशा की किरण नहीं, उम्मीद का सूरज लेकर आए। लोगों की जान-में-जान आई।

तब एक दिन उपयुक्त अवसर देखकर श्रीमती धर्मशीला ने अपने पति से निवेदन किया कि क्‍यों न एक दिन त्रिकालदर्शन...

श्रीमती धर्मशीला अपने पति की मुद्रा देखकर घबराई। किन्तु दिग्विजय बाबू ने झिड़की नहीं दी। प्रेम-लपटे शब्दों में ही उन्होंने पूछ कि अक्ल से बड़ी भैंस कैसे हो सकती है ?

श्रीमती धर्मशीला मुस्कुराकर रह गई। वह जानती थी कि उसके “कर्मयोगी” पति यही कहेंगे। दिगो बाबू ने उस दिन के समाचारपत्र में प्रकाशित पंडित जवाहरलाल नेहरू का वक्तव्य पढ़कर सुना दिया।

किन्तु लगातार तीन बार बी. ए. की परीक्षा में असफल होने के बाद श्रीहर्ष को “(तकदीर के लेख” पर अटूट विश्वास जम गया था। वह दूसरे ही दिन काशी से प्रकाशित एक प्रतिष्ठित पत्र की कतरन ले आया-“माँ, देखो यह श्री सम्पूर्णानन्द की चेतावनी, नेहरूजी के नाम। जरा बाबूजी को दिखला दो-माने-पढ़ने को कहो!”

दिगो बाबू ने कतरन पर सरसरी निगाह डालकर देखा। फिर, सस्वर गुनगुनाने लगे, 'होइहै सोइ जो राम रचि राखा...!!

श्रीमती धर्मशीला को बल मिला। किन्तु रामटहल, राम एवं चुनमुन झा यानी महाराज सुबह-शाम ताजा और भयानक अफवाह लेकर घर लौटने लगे, रोज। श्रीहर्ष को रात में नींद नहीं आती। आँख खुलते ही बुरे सपने देखता और चीख पड़ता।

श्रीमत्ती धर्मशीला चिन्तित हुई फिर। भय से सूखे हुए श्रीहर्ष ने सूचना दी कि मुन्सिफ साहब तथा दूसरे छोटे-बड़े हाकिमों ने ज्योतिषी से अपनी कुंडली दिखवाई है ...सिविल-सर्जन साहब दिन-रात ज्योतिषीजी के साथ ही रहते हैं ।...कलकत्ता का एक बड़ा भारी सेठ स्पेशल हवाई जहाज से उड़कर आया है-परिवारसहित ।

जीवन-भर पेशकारी का पेशा करते दिग्विजय बाबू का “कर्म” में दृढ़ विश्वास जम गया है। इसलिए बुद्धि भी बलवती हो गई है। पर हाकिम-हक्काम का नाम सुनते ही तुरन्त प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते।

अदालत और फौजदारी के हकीमों के बारे में सुना तो सोच में पड़ गए। फिर बोले, “मेरी तो कुंडली ही नहीं ।” पत्नी बोली, “तो क्या हुआ? किसी फूल का नाम लेते ही कुंडली बना देते हैं, सुना है।” “लेकिन मैं धर्मशाला में जाकर अपना भविष्य नहीं देखना चाहता ।” दिगो बाबू ने एतराज किया।

“डबल फीस लेकर घर भी जाते हैं ज्योतिषीजी ।”

अन्ततः तय हुआ कि श्रीहर्ष फीस लेकर जाएगा और फिटन पर ज्योतिषीजी को सादर लिवा लाएगा।

सभी को अपार हर्ष हुआ...घर के “कर्ता” के भविष्य के साथ ही सभी की किस्मत “नत्थी” है।...मालिक राजी हो गए, यही बड़ी बात है।

ज्योतिषीजी को फिटन लेकर श्रीहर्ष बुलाने गया। श्रीमती धर्मशीला ने अपने पति को सलाह दी, “जब डबल फीस दिया गया है तो बातें भी डबल” करके पूछ लीजिएगा ।”

“डबल करके माने ?”

“मतलब, अपने अलावा घर के और लोगों के बारे में खुलासा पूछ लीजिएगा।”

ज्योतिषीजी आए। जटा-दाढ़ी और त्रिपुंड-भभूतवाले ज्योतिषियों को लोगों ने देखा है। सूट-बूटवाले इस ज्योतिषी को देखते ही लोगों को अपने-अपने भविष्य की हल्की झलक मिल गई, मानो...। यह आदमी जरूर जादू जानता है।

डॉक्टरों की तरह एक हाथ में बैग और कंट्राक्टर की तरह दूसरे हाथ में एक बड़ा पोर्टफोलिया-बैग लटकाकर फिटन से ज्योतिषीजी उतरे। दिगो बाबू को देखते ही उन्होंने अपनी पहली ही वाणी से विस्मित और अप्रतिभ कर दिया। बोले, “मैं विशुद्ध-वैज्ञानिक ढंग से गणना करता हूँ। इसलिए मेग्निफाइंग-ग्लास के अलावा स्टेथस्कोप, ब्लडप्रेशर-ऑपरेटस और थर्मामीटर भी रखता हूँ। ज्यॉमितिक-कोष्टक-अंकन और अंशादि के सही माप के लिए इन्स्ट्रमेंट-बाक्स, विभिन्‍न राज्य एवं जिलों के नक्शे रखना आवश्यक हो जाता है।”

दिगो बाबू की 'शान्ति-कुटी' के निवासियों ने मन-ही-मन जय-जयकार किया। किन्तु तब तक दिगो बाबू ने एक नई शर्त लगा दी। वे एकदम एकान्त में अपने भविष्य की गणना करवाएँगे।

दिगो बाबू के कमरे का दरवाजा बन्द हुआ। सभी ने एक साथ अपने-अपने ललाटों पर एक अद्भुत गुदगुदी का अनुभव किया। सभी की हथेली एक साथ 'कपाल' पर पहुँची।...जै भगवान्‌!

पूरे तीन घंटे के बाद ज्योतिषीजी हँसते हुए कमरे से बाहर निकले। दिगो बाबू के उत्फुल्ल मुखमंडल में सभी को अपना-अपना भविष्य उज्ज्वल दिखाई पड़ा। अतः श्रीहर्ष दूने उत्साह से ज्योतिषीजी के साथ फिटन पर जा बैठा।

सबसे पहले श्रीमती धर्मशीला ने पूछा, “भगवान की दया से सबकुछ सही ही बताया होगा! है या नहीं?” “अरे मारो गोली । ठग हैं सब ।” “क्यों? कुछ 'ऐसी-वैसी' बातें हॉँक गया ?”

“अरे, हॉकेगा क्या? नक्शा और थर्मामीटर से भविष्य देखनेवाला इतना चतुर होगा कि न्यू पटेलपुरी में इतनी बड़ी कोठी बनानेवाले, पेन्शनयाफ्ता आदमी-जिसका बड़ा बेटा. हाकिम हो और छोटा स्वस्थ, सुन्दर और बेवकूफ, जिसकी पत्नी का नाम धर्मशीला... ।”

श्रीमती धर्मशीला अपने प्रौढ़ पति की इस बचकानी मुद्रा को देखकर बहुत दिनों बाद पुलकित हुई।...सचमुच त्रिकालदर्शी हैं न ?

श्रीहर्ष ने लौटकर अपनी माता से अपने पिता के भविष्य के बारे में पूछा।

“अरे, वे तो कहते हैं, कि मुफ्त में पैंतीस रुपए... ?”

“मुफ्त में? कुछ बतलाया नहीं ?”

“कहते हैं, ठग हैं सब।”

हुँ!...तुम एक बार मौका देखकर फिर पूछोगी? क्योंकि ज्योतिषीजी की बात से ऐसा लगा कि कहीं कुछ “गड़बड़” है भविष्य में... ।”

“गड़बड़ है?” श्रीमती धर्मशीला के निर्मल चेहरे पर आतंक की छाया फैल गई- “क्या कहा उन्होंने ?”

“माँ, पाँच रुपए घूस, या प्रणामी जो भी कहो, लेकर भी कुछ खुलासा नहीं बतलाया। बोले कि मनुष्य का भविष्य अन्धकार और प्रकाश से मिलकर बनता है। सो, अन्धकार और प्रकाश के कुप्रभाव से बचने के उपाय भी हैं... ।”

श्रीमती धर्मशीला और श्रीहर्ष ने ज्योतिषीजी के इंस 'पंचटकिया वचन” के गूढ़ार्थ को समझकर एक ही निष्कर्ष निकाला-निश्चय ही कहीं कुछ गड़बड़ी है भविष्य में, जिसको सुधारने का उपाय भी उन्होंने बतलाया होगा। और सम्भवतः वह उपाय महँगा है, इसलिए “गृहकर्ता” की ऐसी प्रतिक्रिया... ।”

माता और पुत्र को समान रूप से भयभीत और उदास देखकर रामटहल ने भी मुँह लटका लिया। उसने बारी-बारी से 'माता और पुत्र” की ओर आँख में एक ही सवाल डालकर देखा। फिर धीमे स्वर में पूछा, “अच्छा भैया! 'आसरित” का क्‍या मतलब होता है ? आसरित ?”

“आसरित या आसरहित ?”

रामटहल ने सही शब्द को जीभ पर चढ़ाने की यथासाध्य चेष्टा करके कहा, “आसरीत !” रामटहल ने इधर-उधर देखकर कहा कि वह ज्योतिषीजी को चाय और पान देने के लिए कमरे में गया था तो ज्योतिषी मालिक से कह रहे थे कि उनको आस का कोई डर नहीं। सुख-चैन ही मिलेगा। लेकिन संकट में आसरीत लोगों के

“ओ! आश्रित ?”

श्रीहर्ष ने विशाल शब्द-कोश निकालकर धूल झाड़ते हुए शब्दार्थ ढूँढ़ना शुरू ले । श्रीमती धर्मशीला ईष्ट नाम का जाप करने लगी और रामटहल की आँखें गोल ती गई।

पाँच मिनट के अथक तथा निःशब्द परिश्रम के बाद श्रीहर्ष को सफलता मिली- “हाँ। आश्रित ?...आश्रित...सं...ब्रेकेट में, किसी के सहारे...फिर.. -ठहरा, टिका हुआ... पु.-वह जो भरण-पोषण के लिए किसी पर अवलम्बित हो, स्त्री-बच्चे, नौकर-चाकर, मन और ज्ञानेन्द्रिय... ।”

ऐसा लगा, तीनों के बीच एक हथगोला आकर गिर पड़ा और जोरों का धड़ाका हुआ। जब तीनों को होश हुआ तो देखा कि हथगोला नहीं, श्रीहर्ष के हाथ से विशाल शब्द-कोष छूटकर गिरा था...अब कया हो? आश्रित का अर्थ-स्त्री-बच्चे नौकर ?...इस लपेट से न रामटहल बचकर निकल सकता है और न महाराज?...दुहाय बाबा नरसिंह !

भयातुर अश्रितों ने अन्तिम चेष्टा करके यह पता लगा लेना आवश्यक समझा कि अश्रितों के भीषण संकट के प्रतिकार के लिए गृहस्वामी ने कुछ किया है अथवा नहीं ?

दोपहर को, भोजन के समय श्रीमती धर्मशीला आज प्रेमपूर्वक पंखा लेकर बैठी। पति के मुँह में प्रथम ग्रास पहुँचा तो श्रीमती धर्मशीला ने अपने मुँह की बात निकाली, “यदि भविष्यफल में कोई गड़बड़ी हो तो उसका उपाय भी बतलाया होगा? अपने अलावा अपने को आ-आ-आ-सरर...”

दिगो बाबू तिलमिला उठे, “महाराज ने आज यह...किस चीज की सब्जी है...यह तो जहर है...इतनी मिर्च...दिन-रात भविष्यफल जानने के लिए पागल रहती हो, मगर एक बार रसोईघर में झाँककर नहीं देखती कि आज क्‍्या...ओहो...मार डाला... ।”

दिगो बाबू न भोजन कर सके, न क्रोध । चुपचाप सिसकारी लेते हुए कुल्ली-आचमन करने लगे। गा चाय के समय भी '*चेष्टा” करने की चेष्टा विफल हुई, हालाँकि चाय में मिर्च या नमक नहीं, चीनी पड़ी थी।

श्रीहर्ष ने रात्रि के भोजन के पहले इस संकट से उबरने का एक 'साइण्टिफिक उपाय' हूँढ़ निकाला। और कोई चारा नहीं। शान्ति-फुटी के आश्रितों के समक्ष अपनी गुप्त योजना रखते हुए उसने खासतौर से अपनी माँ को समझाया, “यह तय है कि बाबूजी हम लोगों को संकट से उबारने के लिए कुछ नहीं करेंगे। हम उन्हें स्वार्थी नहीं कहते। किन्तु वे निर्दय अवश्य हैं।

उपाय क्या करना होगा यह भी नहीं बतलाते? ऐसी अवस्था में अपनी बुद्धि से निकले हुए उपाय के द्वारा ही प्रतिकार कर सकते हैं हम। बाबूजी हर हालत में सुख-चैन से ही रहेंगे। उन पर कोई खतरा नहीं। संकट उनके आश्रितों के सिर है। हम हर हालत में उनके आश्रित ही रहेंगे। रहना पड़ेगा हमें-हमारी मजबूरी है।

ऐसी अवस्था में 'सॉप भी मरे और लाठी दर टूटे'-जैसा कोई वैज्ञानिक तरीका अख्तियार करना होगा।

यदि सभी सहमत कक सर्वसम्मति से संत्रस्त आश्रितों ने तय किया कि वे आत्मरक्षार्थ गृह-स्वामी का 'अहिंख विरोध” करेंगे, अथात्‌ बचाव के लिए' विरोध।

वे आश्रित रहते हुए भी आश्रित न रहने का भाव दिखलाएँगे। चूँकि गृहस्वामी हर हालत में चैन से ही रहेंगे, उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा।

इसके बाद श्रीहर्ष ने विस्तारपूर्वक अपने 'लाइन ऑफ एक्शन” का “डायरेक्ट एक्शन” बतलाया।

तय हुआ कि कल सुबह सबसे पहले रामटहल को ही बगावत का झंडा फहराना होगा, क्योंकि वही पहला आश्रित है, जिसका नाम 'लेकर गृहस्वामी सुबह में पहले पुकारते हैं। श्रीमती धर्मशीला की शंकाओं का समाधान और निवारण करते हुए श्रीहर्ष ने कहा, “चाय उन्हें जरूर मिलेगी लेकिन देर से मिलेगी। उन्हें कष्ट देने के लिए नहीं, अपने को कष्टमुक्त करने के लिए हम विरोध करेंगे।

विरोध शुरू करने के पहले सभी अपने-अपने कलेजे को टटोल लें।”

रामटहल को कलेजा नहीं टटोलना ,पड़ा।

सुबह को पहली पुकार पर उसके मुँह से पहला जवाब निकल ही रहा था कि उसने कसकर दाँतों का ब्रेक लगा दिया जीभ पर।

पचीस साल की आदत!

तीन बार पुकारने पर भी रामटहल ने कोई जवाब नहीं दिया। दिगो बाबू को तनिक अचरज हुआ।

उन्होंने करवट लेकर देखा, रामटहल सामने बरामदे पर लेटा हुआ है, अपनी जगह पर। इस बार उन्होंने गला खोलकर पुकारा, “रामटहल !”

“भोर-हि-भोर रामटहल-रामटहल काहे चिल्ला रहे हैं!

बोलिए न, क्‍या कहना है ?”

दिगो बाबू को विश्वास हो गया कि वे खुद नींद में हैं, इसलिए चुप हो गए। लेकिन रामटहल चुप नहीं रहा। उसने कहा, “चाय के लिए महाराज को पुकारिए। बूझते हैं ?”

दिगो बाबू स्वप्नलोक से फिर 'शान्ति-कुटी' के कमरें में उतरे। उधर रामटहल तलहथी पर खैनी-तम्बाकू रगड़ता हुआ, सन्‌ तीस के एक भूले हुए 'सुराजी-गीत” की पंक्ति याद कर रहा था। कलेजे को मज़बूत बनाए र॑खने के लिए उसने गीत शुरू किया, जोर से-'कि बन्दर की तरह बन में 'बिटिस' को नचा देंगे, बन्दर की तरह... !'

दिग्विजय बाबू को तनिक भी सन्देह नहीं रहा कि रामटहल ने अब गाँजा पीना शुरू कर दिया है। अपमान, क्रोध, दुख, ग्लानि के सम्मिलित और अकस्मात्‌ आक्रमण से उनकी देह झुलस उठी।

वे उठे और लाठी लेकर झपटे। रामटहल पहले से ही भागने को तैयार बैठा था। वह भागा, लेकिन सड़क पार नहीं कर सका।

बीच सड़क पर ही घेरकर दिगो बाबू ने उसे पीटना शुरू किया। गालियाँ सुनकर सारे कक के लोग जाग पड़े ।...लोगों ने अपनी आँखों से देखा और पहचाना, दिगो बाबू।

आसपास एकत्रित लोगों को चेतावनी और तमाशा दिखाने की धमकी देकर, गमलों को पैरों से गिराने के बाद वे अपने कमरे में चले गए।

उनको यह समझने में देरी नहीं लगी कि पड़ोसियों ने उसके पुराने नौकर को बहकाया है। वे इसका बदला चुकाने का रास्ता खोजने लगे।

तब तक महाराज हाथ में 'आश्रितों का ऐतिहासिक स्मरण-पत्र' लेकर कमरे में हाजिर हो चुका था।

दिगो बाबू ने पढ़ा-“आपने अकारण ही अपने एक विश्वासी, वफादार एवं असहाय आश्रित को अन्यायपूर्वक पीटा है। हम इसका घोर विरोध करते हैं। हमें खेद है कि हम सभी आपके इस दुर्व्यवहार से दुखी होने को बाध्य हैं। अतः आपकी घोर निन्दा करते हैं। भविष्य में... ।”

दिगो बाबू आगे नहीं-पंढ़ं सके, क्योंकि तब तक “छोटी कोठी' में एक पुराने किन्तु काफी गरम गीत कल रेकार्ड बजने लगा था-हो पापी, जोबना का देखो बहार हो पापी-हों पापी...!

श्रीहर्ष ने विरोध के लिए, ऐंसे ही गीतों के रेकार्ड, नंगी तस्वीरोंवाली तथाकथित- स्वास्थ्यपूर्ण क्रिताबें, खुँगेआम धूप्रषान और चन्द आवारा दोस्तों के साथ ताश खेलने का कार्यक्रम बनाया । उसने सभी आश्वितों के लिए अलग-अलग “एक्शन” तय करके समझा दिया था।

श्रीहर्ष ने माँ को याद दिल्लाकर कह्मे था, “गलती से पैर छूकर प्रणाम मत कर बैठना। भक्ति और पूजा, बाबूजी की. तस्वीर की करो। हर्ज नहीं। लेकिन बाबूजी के साथ बुरा बर्ताव करके ही संकट को टाल सकोगी ”

तीन दिन तक, दिन-रात सभी आश्रितों ने ईमानदारी और दृढ़ता से अपना विरोध जारी रखा। गृहस्वामी को चिढ़ाने के लिए नित नए उपाय सोचे गए, प्रयुक्त हुए। मगर दिगो बाबू ने मौनव्रत धारण करके “गीता रहस्य” में अपने को इस तरह

डाल दिया कि 'मेन-स्विच' ऑफ कर देने और जोर से रेडियो खोलने पर भी उससे

बाहर नहीं निकले ।...रामटहल ने गन्दा लैंगोट पसारकर उनकी क्रोधाग्नि को पुनः-पुन भड़काने की चेष्टा की, किन्तु ब्यर्थ।

श्रीमती भवानी को अपने देंव्ता-तुल्य ससुर की सेवा करने का सुअवसर अब तक नहीं मिला था। श्रीमती ख्र्मशीला किसी कारणवश अपनी पुत्रवधू पर मन-ही-मन अप्रसन्‍न रहती थी। इसलिए पति के सामने यदा-कदा तथा कभी-कभी सर्वदा उसकी बुराई ही करती थी।

इस बार श्रीमती भवानी ने अपने गुणों से दिग्विजय बाबू को दो दिन में ही सा कर लिया। उनके मन से 'पुत्रहीन' होने का एकमात्र दुख हमेशा के लिए दूर गया।

उस दिन श्रीपार्थ ने फैसला सुनाने के लहँने में अपने पिता के सभी विद्रोही आश्रितों को सुना दिया-“अब तुम्र लोग पिताजी के आश्रित नहीं रहे। अब किसी संकट की- आशंका नहीं। पिताजी अब मेरे आश्रित होकर दुर्गापुर में रहेंगे, क्योंकि ज्योतिषी ने यह भी बतलाया है कि अब उन्हें किसी के आश्रय में रहना चाहिए

श्रीपार्थ ने अपनी माता को 'सोशल-वर्क' करने, श्रीहर्ष को “घरेलू नौकरों की यूनियन” बनाने, रामटहल को मूँगफली बेचने तथा महाराज को गंगाजी के घाट पर भिक्षाटन करने की उचित और लाभदायक सलाह देकर, श्रीमती भवानी को दुर्गापुर लौटने की तैयारी तुरन्त करने का आदेश दिया।

दिग्विजय बाबू बालकों की तरह प्रसन्‍न और उत्साहित होकर अपना सामान सहेज रहे थे कि आँगन में कोलाहल सुनाई पड़ा। श्रीमती धर्मशीला क्रोध से काँपती हुई महाराज से पूछ रही थी, “बोलो! तुम जान-बूझकर यह सब कर रहे थे ? आखिर क्यों ? हम लोगों का सुख तुमसे देखा नहीं जाता था...ऐसे में सारे परिवार के लोग पागल नहीं होंगे भला ?”

श्रीपार्थ ने यात्रा के समय इस कलह का कारण जान॑ना चाह्ठा । श्रीमती धर्मशीला बोली, “बेटा, तुम हाकिम हो। तुम्हीं इस बात का इन्साफ करो। इस बार तुम्हारे बाबूजी ने गाँव से 'पाट-साग' का बीज मँगवाया था।

महाराज ने बोते समय चुटकी-भर भंग का बीज मिला दिया था। पिछले पाँच-सात दिनों से नौकरानी भंग के पौधों सहित साग ले आती थी और महाराज आँख मूँदकर कड़ाही में डाल देता ।...ऐसे में घर-भर के लोग पागल क्‍यों नहीं होंगे ?”

रामटहल ने कहा, “अब समझा कि मेरा माथा हमेशा' क्यों उस तरह चकराता था।

श्रीहर्ष बोला, “रामटहल, अभी तुरन्त आबकारी पुलिस को बुला लाओ।”

महाराज हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा, ' 'ममालिक-बड़े भैया-छोटे भैया-मालकिन- इस बार माफ कर दीजिए।

“भविष्य! में कभी ऐसी गलती& नहीं होगी। दुहाई... ।”

'संकट' का सही कारण ढूँढ़ निकालने के बाद श्रीमत्न धर्मशीला एक गिलास ठंडा पानी लेकर अपने पति के कमरे में चली गई।

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