विगत का डर (कहानी) : महीप सिंह

Vigat Ka Dar (Hindi Story) : Maheep Singh

गीता प्लेटफॉर्म पर हक्की-बक्की सी खड़ी थी। उसकी घड़ी में अभी आठ पैंतीस ही हुए थे और आठ पचास की गाड़ी कब की जा चुकी थी। स्टेशन मास्टर के कमरे में लगी क्लॉक की बड़ी सुई नौ को छोड़कर बारह को पार करती हुई तीन पर जा खड़ी हुई थी, जैसे—छोटे मिनटों का बोझ ढोनेवाली वह बड़ी सुई बड़े-बड़े घटों के बोझ को ढोनेवाली छोटी सुई से दूर-दूर रहने में ही अपनी शान समझती हो।

वह कलाई पर बँधी हुई घड़ी देख रही थी, यह इतनी लैट कैसे हो गई?

वह पूछ रही थी, ‘धर्मपुर के लिए दूसरी गाड़ी?’

अधेड़ स्टेशन मास्टर अपने रजिस्टर को अलमारी में रख रहा था, ‘बारह दस की पैसिंजर।’

गीता उस गाड़ी का समय जानती थी। बारह दस की पैसिंजर धर्मपुर पहुँचती है सुबह पाँच पचपन पर। यह बात तो उसने बस ऐसे ही पूछी थी।

उसने अपनी घड़ी ठीक कर ली—नौ बीस हुए थे। जैतीपुरा का वह छोटा स्टेशन जंगली पोखर की तरह निस्पंद हो गया था। कुछ देर पहले गाड़ी आकर चली गई थी, जैसे उस पोखर में पास के पेड़ सेकोई फल टूटकर गिरा हो।

गाड़ी आनेमें करीब तीन घंटे बाकी थे। स्टेशन से तीन मील दूर का गाँव रात के अँधेर में जैसेक्षितिज का एक कोना बन गया था।

स्टेशन मास्टर अपनेकमरेमें ताला बंद कर अपने क्वार्टर में जाने की तैयारी कर रहा था।

वह अँधेरे में गमसुम खड़ी थी।

“आपको धर्मपुर जाना है?”

“हाँ।”

“वेटिंगरूम खुलवा देता हूँ।”

वेटिंगरूम में एक बड़ी सी गोल मेज बीच में रखी थी। उस पर मद्धिम सा जलता हुआ लैंप था । आसपास दो-तीन कुरसियाँ और दो ओर दीवार सेलगी दो लंबी बेंचें पड़ी थीं। बाहर अँधेरा खूब गहरा था। वह देख रही थी, बाईं ओर कुछ दूर लैंप-पोस्ट के नीचे बैठे कुछ देहाती बीड़ी का धुआँ उड़ा रहे थे। उनके साथ की स्त्रियाँ वहीं जमीन पर लेटकर सो गई थीं।

वह एक लंबी आरामकुरसी पर बैठ गई। उसकी पीठ दरवाजेकी ओर थी। अटैची से उसने एक उपन्यास निकाल लिया और उसके पन्ने उलटने लगी।

तभी एक चीज उसके अंदर जल में पत्‍थर की तरह उतर आई—कहीं कोई पीछे से आकर? वह खड़े होकर तेज साँसों से आँखें फाड़कर दरवाजे के बाहर देखनी लगी। पटरियों के पास काला लबादा ओढ़े हुए दरख्त उसे तिलिस्मी उपन्यासों के पात्र जैसे लग रहे थे। उसने झाँककर बाईं ओर देखा। लैंप-पोस्ट के पास बैठे धुआँ उड़ाते यात्रियों की आवाज उसे बहुत अच्छी लगी।

वह अंदर आकर सामने की कुरसी पर बैठ गई। अब उसका मुँह दरवाजे की ओर था। वह उपन्यास पढ़ रही थी, पर बार-बार उसे लग था कि दरवाजे में बाहर कुछ आकृतियाँ चल-फिर रही हैं। वह बार-बार नजर उठाकर देख चुकी थी, वहाँ कुछ भी नहीं था और सामने पटरियों के उस पार दरख्त थे—बेजान दरख्त।

यदि ऐसे में कोई आ जाए? उस वीराने में उसके हृदय की धड़कन हथौड़े की तरह उसके कानों में बजने लगी। वह दरवाजे के पास आ खड़ी हुई। दाईं ओर से कोई आ रहा था। वह दरवाजे की ओट में हो गई। वह सीधा चला गया। शायद कोई रेलवे कर्मचारी था। उसने अपनी घड़ी की ओर देखा। पूरे दस भी नहीं बजे थे। वह उसे देखती रही। सेकिंड की सुई बहुत तेज दौड़ती थी। बाकी की दोनों सुइयाँ उसे स्थिर सी लग रही थीं, जैसे कोई स्टैंड पर खड़ी साइकिल की सीट पर बैठा पैडल चला रहा हो, पहिया तेज घूम रहा हो, पर साइकिल वहीं-की-वहीं हो।

वह आकर कुरसी पर बैठ गई। अब दरवाजा उसके बाईं ओर पड़ रहा था, क्योंकि वह उसकी ओर न अपना मुँह करना चाहती थी, न पीठ। लैंप पास लाकर वह उपन्यास के दो-तीन पन्ने पढ़ गई। फिर उसे लगा जैसे दरवाजे से कोई अंदर आ रहा है। उसने चौंककर देखा। वहाँ कोई नहीं था। शायद कोई दरवाजे के बाहर से निकल गया था।

वह पढ़ रही थी। मन-ही-मन उसने निश्चय कर लिया कि अब वह इधर-उधर नहीं देखेगी, बस पढ़ती ही रहेगी। पढ़ेगी नहीं तो समय कैसे कटेगा? और समय भी कितना विचित्र है। कभी तो हिरन की तरह चौकडि़याँ भरता निकल जाता है और कभी कीड़े की तरह सरकता भी नहीं। कभी व्यक्ति को अपनी गोद में बैठाकर हवा में उड़ता है, कभी उसकी गोद में बैठकर न खुद चलता है, न उसे चलने देता है।

वह पढ़ती रही। दो-एक बार आभास हुआ जैसे दरवाजे पर खड़ी कोई चीज उसका ध्यान अपनी ओर खींच रही है। पर वह अपनी नजर पंक्तियों पर गड़ाए रही। वह जानती थी, वहाँ कुछ भी नहीं है। परंतु पुस्तक सँभाले उसकी उँगलियाँ शिथिल पड़ने लगीं। दृष्टि पक्तियों से फिसलती सी गई।

उसने गरदन मोड़ी, कनखियों से दरवाजे की तरफ देखा। वह अपने-आपसे देखने की चोरी कर रही थी।

बाहर की वीरानी और भी गहरी और खामोश हो गई थी। उसने एक लंबी साँस ली। दो और लंबी साँसें लीं। फिर वह लंबी साँस लेती गई। लंबी साँस लेती गई। लंबी साँस लेने से हवा की कुछ आवाज होती है। सारा वक्ष-प्रदेश हिल जाता है और उस आवाज व हलचल में दिल की धड़कनें सुनाई नहीं देतीं।

घड़ी में दस बजकर बाईस मिनट हो गए थे । वह उठकर दरवाजे पर गई। बाईं ओर लैंप-पोस्ट से बीड़ी का धुआँ पहले से ज्यादा उठ रहा था।

उसे खीझ छूटी। उसकी गाड़ी क्यों छूट गई? उसकी घड़ी क्यों लेट हो गई? पर ऐसी बड़ी बात भी क्या हो गई। बारह बीस वाली पैसिंजर तो मिल ही जाएगी! उसका स्कूल और घर स्टेशन के पास ही है। सात बजे तक वह आराम से नहा-धोकर स्कूल पहुँच सकती है।

लेकिन यह घबराहट कैसी? क्या उसे डर लग रहा है? किसका? भूत-प्रेत का? हूँ—वह भूत-प्रेत नहीं मानती। फिर? किसी पुरुष का? हाँ, यह पुरुष जरूर डर की चीज है। स्त्री को देखकर हर पुरुष अपनी ओर देखता है। वह देखता है, कितनी मोटी-मोटी रस्सियों से उसे जकड़कर स्त्री को चिड़‌िया की तरह फुदकने के लिए आजाद छोड़ दिया गया है पर कभी तो ये रस्सियाँ शिथिल हो ही जाती हैं और तब?

वह फिर बेंच पर आ बैठी। उसने अपना उपन्यास खोल लिया और पढ़ने लगी। कनखियों से वह दरवाजे की ओर देख लेती थी। उसे बार-बार जम्‍हाई आ रही थी। कहीं एक प्याला चाय मिल जाती। पर यह स्टेशन कितना छोटा है! उसने उपन्यास पूरा कर लिया। उसका उपन्यास भी कछुआ-चाल मार्का है। पन्ने पढ़ जाओ, कोई खास बात ही नहीं होती।

लेकिन उपन्यास का यह स्थल कुछ अधिक रोचक आ गया था। मानसिक अतर्द्वंद्व में फँसा रहनेवाला नायक अब नायिका की बड़ी-बड़ी आँखों में भरे हुए आँसुओं से कुछ द्रवित हो गया था। दोनों बँगले के पिछवाड़े खड़े आपस में कुछ बातें कर रहे थे। नायिका के पिता के आ जाने की किसी भी समय संभावना थी और यदि वह आ जाए तो?

कोई आ गया। उसने फिर सिर उठाकर देखा, सामने एक आदमी खड़ा था। उसे लगा, उसके दिल पर कोई बड़ी सी बोझिल चीज झट से आ गिरी है। वह हड़बड़ाकर खड़ी हो गई। पुस्तक उँगलियों से छूटकर जमीन पर आ गिरी। मेज पर रखा लैंप डगमगा गया।

उसे लगा, उसकी उँगलियों का खून किसी ने निचोड़ लिया है। उस आदमी के दोनों कंधों पर थैले लटक रहे थे। उसके बाएँ हाथ में एक छोटा सा बिस्तरा था और दाहिने हाथ में एक सूटकेस। उसका कद ठिगना था। सिर पर आगेके बाल झड़े हुए और पीछे के कुछ लंबे थे। पुराने फ्रेम और मोटे शीशे के चश्मेके पीछे से झाँकती हुईं आँखें। बड़ी-बड़ी बिखरी मूँछों से ढँके होंठ, जिन पर विचित्र सी थिरकन हो रही थी।

“क्यों, डर गईं? हा...हा...।” अपने सामान से लदा-लदाया वह हँस रहा था। लैंप के मद्धिम प्रकाश में उसे वह हँसी श्मशान में चमकनेवाली आग की तरह लगी।

“बैठ जाओ न, हा...हा...।” वह फिर हँसा और मुड़कर दूसरी ओर वाली बेंच के पास जाकर अपना सामान रखने लगा। उसने धीरे से अपना उपन्यास उठाया और कुरसी पर इस तरह डरते-डरते बैठ गई जैसे वह कोई दंडाधिकारी हो।

वह इधर-उधर देखती, फिर उसे देखने लगी वह अपना सामान सँभाल रहा था और कुछ गुनगुना रहा था। फिर वह बेंच पर बैठ गया और चमकती आँखों से उसे देखने लगा।

“कहाँ जाओगी तुम?”

वह कसमसाई । बोली, “धर्मपुर।”

“धर्मपुर? हाँ, मैं भी वहीं उतरूँगा। सुना है, शिवजी का बड़ा पुराना मंदिर है वहाँ। हाँ, तुम वहाँ क्या करती हो?”

“स्कूल में पढ़ाती हूँ।”

“अच्छा मास्टरनी हो...हा...हा...।”

“इस जैतीपुरा में तुम्हारा कौन है?”

“मेरी माँ है।” कहकर उस मद्धिम रोशनी में जब उसने उसकी तरफ देखा तो वह काँप उठी। वही मुसकराहट उसके होंठों और आँखों से झर रही थी।

वह आदमी उठा और दरवाजे की ओर चला। वह उसे सहमी सी देखती रही। वह दरवाजे से बाहर चला गया।

वह पढ़ रही थी, पर बार-बार उसका ध्यान उस आदमी की ओर जा रहा था। फिर जैसे वह उसके वापस आने की प्रतीक्षा कर रही हो। वह नजर उठाकर दरवाजे की ओर देख रही थी। उसेलग रहा था कि उस आदमी को बाहर गए बहुत समय हो गया है। थोड़ी देर में वह लौट आया। उसने पुस्तक पर झुकी नजरों से उसके आगमन को देखा, लग रहा था जैसे कोई हाथी चल रहा हो।

“सुनो।”

उसने चौंककर देखा। वह अपनी बेंच पर बैठा मुसकरा रहा था। “मैं जरा लेट रहा हूँ। अगर सो जाऊँ तो गाड़ी आने पर जगा देना, जगा दोगी न?” कहते-कहते वह बेंच पर लेट गया और उसके मुँह से फिर हँसी का स्वर फूट निकला।

वह लेटा-लेटा ही बोला, “तुम सो तो नहीं जाओगी? दोनों की ही गाड़ी छूट जाएगी, हा...हा...हा...।”

उसने करवट बदल ली।

वह कुछ नहीं बोली। उस आदमी से उसे डर तो लग ही रहा था, मौका होता तो उसे उस पर गुस्सा भी आता, जो इतनी उन्मुक्तता से उससे बातें किए जा रहा था। उसने घड़ी देखी। गाड़ी आने में अभी लगभग एक घंटा बाकी था। वह पढ़ती जा रही थी। एकाएक वह काँप उठी। घर्र-घर्र की आवाज उसके कानों में पड़ी तो उसने इधर-उधर देखा। मेज के उस पार बेंच पर लेटा वह आदमी खर्राटे भर रहा था।

वह अपने उपन्यास से जूझ रही थी। पर कुछ-कुछ क्षणों के बाद अनायास ही उसकी नजर उस आदमी पर पड़ रही थी। धीरे-धीरे उसकी आँखें बोझिल होने लगीं। पढ़ते-पढ़ते उसकी आँखें खुद-ब-खुद बंद हो रही थीं। वह कुछ लम्हे किसी खुमारी में खोई रहती, फिर चौंककर आँखें खोल देती और उस आदमी की ओर देखती। खुमारी का झोंका फिर-फिर आ रहा था। वह फिर-फिर ऊँघ रही थी, और फिर-फिर चौंककर इधर-उधर देख रही थी।

अब उसकी घड़ी में बारह बजने में दस मिनट रह गए थे। गाड़ी आने में बस बीस मिनट थे। पर कितने मुश्किल हो गए ये बीस मिनट। नींद ने उसकी आँखों को जकड़ सा लिया था। पलकों पर मन-मन भर का बोझ उतर आया था। पर एक बात उसके ध्यान से दूर नहीं गई थी—उसे सोना नहीं है। सो जाने से गाड़ी छूट सकती है और सामने सो रहा वह आदमी ...।

उसे फिर झपकी लग गई। उसका सिर भारी होकर मेज पर झुक गया। उसे लगा, दो बाँहें धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ती आ रही हैं। उन बाँहों पर घने बाल हैं। खुले हुए पंजों की उँगलियाँ बड़ी मोटी-माटी हैं। उन मोटी उँगलियों के आगे बड़े-बड़े नाखून हैं। उसे लगा, वे बाँहें उसके बहुत पास आ गई हैं, बिलकुल उसके पास...।

“क्या है...?” वह चीख उठी थी। वह अपने आपसे सिकुड़ गई। वह आदमी बिलकुल उसकी कुरसी के पास खड़ा हँस रहा था।

“मैंने कहा था, तुम खुद ही सो जाओगी हा...हा...हा...। चलो उठो, घंटी बज गई है। बस गाड़ी आनेवाली है।”

वह उसे फटी-फटी आँखों से देख रही थी। वह आदमी झरने की तरह हँसी बिखेरता अपना समान उठाने में लग गया था।

उसने उठकर अपनी साड़ी ठीक की। अटैची खोलकर पुस्तक उसमें रखी। उसका अंग-अंग पत्तों की तरह काँप रहा था।

पैसिंजर गाड़ी का इंजन फक-फक करता हुआ उस छोटे से स्टेशन पर आ खड़ा हुआ। जंगली पोखर में फिर हलचल आ गई।

“चलो-चलो।” वह आदमी उसे बुला रहा था और आगे-आगे चला जा रहा था, जैसे वह उसी के साथ हो। वह उसके पीछे बोराई सी चली जा रही थी।

डिब्बे में दोनों ने आमने-सामने जगह ले ली। उस आदमी ने सीट पर बिस्तर बिछा लिया।

“अच्छा मास्टरनी जी, मैं तो अब सोता हूँ। धर्मपुर पर मुझे जरूर जगा देना हा...हा...हा...। नहीं तो गाड़ी कहीं-की-कहीं चली जाएगी। हा...हा...।” उसने चश्मा उतारकर केस में रख लिया और आँखें बंद कर सीधा लेट गया।

वह उस सोए हुए आदमी को देख रही थी। उसकी घनी मूँछों के अंदर से झाँकते हुए होंठों पर एक बड़ी लुभावनी मुसकराहट फैली हुई थी। वह भी मुसकरा दी।

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