विद्रोही : विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक'

Vidrohi : Vishvambharnath Sharma Kaushik

मान जाओ, तुम्हारे उपयुक्त यह काम न होगा ।’

‘चुप रहो–तुम क्या जानो।’

‘इसमें वीरता नहीं है, अन्याय है।’

‘बहुत दिनों की धधकती हुई ज्वाला आज शांत होगी।’ शक्तिसिंह ने एक लम्बी साँस फेंकते हुए स्त्री की ओर देखा।

‘..............’

‘.............’

‘कलंक लगेगा, अपराध होगा।’

‘अपमान का बदला लूँगा। प्रताप के गर्व को मिट्टी में मिला दूँगा। आज मैं विजयी होऊँगा।’ बड़ी दृढ़ता से कहकर शक्तिसिंह ने शिविर के द्वार पर से देखा। मुगल-सेना के चतुर सिपाही अपने-अपने घोड़ों की परीक्षा ले रहे थे। धूल उड़ रही थी। बड़े साहस से सब एक-दूसरे में उत्साह भर रहे थे।

‘निश्चय महाराणा की हार होगी। बाईस हजार राजपूतों को दिन भर में मुगल-सेना काटकर सूखे डंठल की भाँति गिरा देगी।’ साहस से शक्तिसिंह ने कहा। ‘भाई पर क्रोध करके देश-द्रोही बनोगे...’ –कहते-कहते उस राजपूत बाला की आँखों से चिनगारियाँ निकलने लगीं।

शक्तिसिंह अपराधी की नाईं विचार करने लगा। जलन का उन्माद उसकी नस-नस में दौड़ रहा था। प्रताप का प्राण लेकर ही छोड़ेगा। ऐसी प्रतिज्ञा थी। नादान दिल किसी तरह न मानेगा। उसे कौन समझा सकता था?

रणभेरी बजी! कोलाहल मचा। मुगल-सैनिक मैदान में एकत्रित होने लगे। पत्ता-पत्ता लड़खड़ा उठा।

बिजली का भाँति तलवारें चमक रही थीं। उस दिन सब में उत्साह था। युद्ध के लिए भुजाएँ फड़कने लगीं।

शक्तिसिंह ने घोड़े की लगाम पकड़कर कहा–‘आज अंतिम निर्णय है। मरूँगा या मारकर ही लौटूँगा। शिविर के द्वार पर खड़ी मोहिनी अपने भविष्य की कल्पना कर रही थी। उसने बड़ी गम्भीरता से कहा–‘ईश्वर सद्बुद्धि दे, यही प्रार्थना है।’

एक महत्त्वपूर्ण अभिमान के विध्वंस की तैयारी थी। प्रकृति काँप उठी। घोड़ों और हाथियों के चीत्कार से आकाश थरथरा उठा। बरसाती हवा के थपेड़ों से जंगल के वृक्ष रण-रण करते हुए झूम रहे थे। पशु-पक्षी भय से ग्रस्त होकर आश्रय ढूँढ़ने लगे। बड़ा विकट समय था।

उस भयानक मैदान में राजपूत-सेना मोरचाबंदी कर रही थी। हल्दीघाटी की ऊँची चोटियों पर भील लोग धनुष चढ़ाये उन्मत्त के समान खड़े थे।

‘महाराणा की जय!’–शैलमाला से टकराती हुई ध्वनि मुगल सेनाओं में घुस पड़ी। युद्ध आरम्भ हुआ। भैरवी रणचंडी ने प्रलय का राग छेड़ा। मनुष्य हिंस्त्र जंतुओं की भाँति अपने-अपने लक्ष्य पर टूट पड़े। सौनिकों के निडर घोड़े हवा में उड़ने लगे। तलवारें बजने लगीं। पर्वतों के शिखरों पर विषैले बाण मुगल-सेना पर बरसने लगे। सूखी हल्दीघाटी में रक्त की धारा बहने लगी।

महाराणा आगे बढ़े। शत्रु-सेना का व्यूह टूटकर तितर-बितर हो गया। दोनों ओर के सैनिक कट-कटकर गिरने लगे। देखते-देखते लाशों के ढेर लग गये।

भूरे बादलों को लेकर आँधी आयी। सलीम के सैनिकों को बचने का अवकाश मिला। मुगलों की सेना में नया उत्साह भर गया। तोप के गोले उथल-पुथल करने लगे। धाँय-धाँय बंदूक से निकलती हुई गोलियाँ दौड़ रही थीं–ओह! जीवन कितना सस्ता हो गया था।
‘महाराणा शत्रु-सेना में सिंह की भाँति उन्मत्त होकर घूम रहे थे। जान की बाजी लगी थी, सब तरफ से घिरे थे। हमला हो रहा था। प्राण संकट में पड़े थे। बचना कठिन था। सात बार घायल होने पर भी पैर उखड़े नहीं, मेवाड़ का सौभाग्य इतना दुर्बल नहीं था।

मानसिंह की कुमंत्रणा सिद्ध होने वाली थी। ऐसे आपत्ति काल में वह वीर सरदार सेना-सहित वहाँ कैसे आया? आश्चर्य से महाराणा ने उसकी ओर देखा–वीर मन्ना जी ने उनके मस्तक से मेवाड़ के राजचिन्ह को उतारकर स्वयं धारण कर लिया। राणा आश्चर्य और क्रोध से पूछा–यह क्या?’

‘आज मरने के समय एक बार राज-चिन्ह धारण करने की बड़ी इच्छा हुई है।’ हँसकर मन्ना जी ने कहा। राणा ने उस उन्माद-पूर्ण हँसी में अटल धैर्य देखा।

मुगलों की सेना में से शक्तिसिंह इस चातुरी को समझ गया। उसने देखा घायल प्रताप राणक्षेत्र से जीते-जागते जा रहे हैं। और वीर मन्ना जी को प्रताप समझकर मुगल उधर ही टूट पड़े हैं।

उसी समय दो मुगल-सरदारों के साथ महाराणा के पीछे-पीछे शक्तिसिंह ने अपना घोड़ा छोड़ दिया।

खेल समाप्त हो रहा था। स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर सन्नाटा छा गया था। जन्म-भूमि के चरणों पर मर मिटने वाले वीरों ने अपने को उत्सर्ग कर दिया था। बाईस हजार राजपूत वीरों में से केवल आठ हजार बच गये थे।

विद्रोही शक्तिसिंह चुपचाप सोचता हुआ अपने घोड़े पर चढ़ा चला जा रहा था। मार्ग में शव पड़े थे–कहीं भुजाएँ शरीर से अलग पड़ी थीं, कहीं धड़ कटा हुआ था, कहीं खून से लथपथ मस्तक भूमि पर गिरा हुआ था। कैसा परिवर्तन है! दो घड़ियों में हँसते-बोलते और लड़ते हुए जीवित पुतले कहाँ चले गये? ऐसे निरीह जीवन पर इतना गर्व!

शक्तिसिंह की आँखें ग्लानि से छलछला पड़ीं– ‘ये सब भी राजपूत थे। मेरी ही जाति के खून थे! हाय रे मैं! मेरा प्रतिशोध पूरा हुआ–क्या सचमुच पूरा हुआ? नहीं, यह प्रतिशोध नहीं था, अधम शक्ति! तेरे चिरकाल के लिए पैशाचिक आयोजन था। तू भूला, पागल! तू प्रताप से बदला लेना चाहता था–उस प्रताप से जो अपनी स्वर्गादपिगरीयसी जननी जन्म-भूमि की मर्यादा बचाने चला था! वह जन्म-भूमि जिसके अन्न-जल से तेरी नस भी फूली-फली है। अब भी माँ किस मर्यादा का ध्यान कर।’

सहसा धाँय-धाँय गोलियों का शब्द हुआ। चौंककर शक्तिसिंह ने देखा–दोनों मुगल सरदार प्रताप का पीछा कर रहे थे। महाराणा का घोड़ा लस्त-पस्त होकर झूमता हुआ गिर रहा था। अब भी समय है। शक्तिसिंह के हृदय में भाई की ममता उमड़ पड़ी।

एक आवाज हुई–रुको!

दूसरे चरण शक्तिसिंह की बन्दूक छूटी, पलक मारते दोनों मुगल-सरदार जहाँ के तहाँ ढेर हो गये। महाराणा ने क्रोध से आँख चढ़ाकर देखा। वे आँखें पूछ रही थीं, क्या मेरे प्राण पाकर निहाल हो जाओगे? इतने राजपूतों के खून से तुम्हारी हिंसा-तृप्त नहीं हुई?

किन्तु यह क्या? शक्तिसिंह तो महाराणा के सामने नतमस्तक खड़ा था। वह बच्चों की तरह फूट-फूटकर रो रहा था। शक्तिसिंह ने कहा–नाथ! सेवक अज्ञान में भूल गया था, आज्ञा हो तो इन चरणों पर अपना शीश चढ़ाकर पदप्रक्षालन लूँ, प्रायश्चित कर लूँ।’

राणा ने अपनी दोनों बाँहें फैला दीं। दोनों के गले आपस में मिल गये, दोनों की आँखें स्नेह की वर्षा करने लगीं। दोनों के हृदय गद्गद हो गये।

इस शुभ मुहूर्त पर पहाड़ी वृक्षों ने पुष्प की, नदी की कल-कल धाराओं ने वन्दना की। प्रताप ने उस डबडबायी हुई आँखों से ही देखा–उनका चिर सहचर प्यारा ‘चेतक’ दम तोड़ रहा है। सामने ही शक्तिसिंह का घोड़ा तैयार है।’

शक्तिसिंह ने कहा–भैया! अब आप विलम्ब न करें, घोड़ा तैयार है।’

राणा शक्तिसिंह के घोड़े पर सवार होकर उस दुर्लभ मार्ग को पार करते हुए निकल गये

श्रावण का महीना था।

दिन भर की मार-काट के पश्चात् रात्रि बड़ी सुनसान हो गयी थी। शिविरों में से महिलाओं के रोदन की करुण ध्वनि हृदय को हिला देती थी।

हजारों सुहागिनों के सुहाग उजड़ गये थे। उन्हें ढाढ़स बँधाने वाला न था; था तो केवल हाहाकार, चीत्कार, कष्टों का अनंत पारावार! शक्तिसिंह अभी तक अपने शिविर में नहीं लौटा था। उसकी पत्नी भी प्रतीक्षा में विकल थी, उसके हृदय में जीवन की आशा-निराशा क्षण-क्षण उठती-गिरती थी।

अँधेरी रात में काले बादल आकाश में छा गये थे। एकाएक उस शिविर में शक्तिसिंह ने प्रवेश किया। पत्नी ने कौतूहल से देखा, उसके कपड़े खून से तर थे।

‘प्रिये!’

‘नाथ!’

‘तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हुई–मैं प्रताप के सामने परास्त हो गया!’

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