विक्टोरिया क्रॉस (कहानी) : भगवतीचरण वर्मा
Victoria Cross (Hindi Story) : Bhagwati Charan Verma
हमारे जीवन में कभी-कभी ऐसी घटनाएँ घटित हो जाती हैं जिनकी हम कल्पना नहीं कर सकते। पता नहीं कहाँ तक मनुष्य स्वयं अपने कर्मों का उत्तरदायी है। यदि कहीं एक नियम है, तो वहीं पर उस नियम का इतना स्पष्ट और पक्का अपवाद भी है कि संयम का अस्तित्व ही नहीं रह जाता। फिर जिसे हम विधि का विधान कहेंगे, उसका कोई नियम भी तो नहीं है; उसके जितने नियम हमारे सामने हैं, वे सब हमारी कल्पना द्वारा निर्मित हैं। हमारे जीवन में न जाने कितनी शक्तियाँ काम करती रहती हैं, उदाहरण के रूप में हमारी मनःप्रवृत्ति, हमारी परिस्थितियाँ, क्षणिक आवेग और भावनाएँ, समाज के नियम और बन्धन आदि । ये तो वे शक्तियाँ हैं जिन्हें हम स्पष्ट देखते हैं और अनुभव करते हैं; पर एक और भी शक्ति है, जिसका हम कभी विश्लेषण नहीं करते । वह शक्ति मानव-नियमों का उपहासात्मक प्रतिवाद है, और इस कारण मनुष्यों ने भी उसे उपहासात्मक नाम दिया है - हिन्दी में हम उसे 'धुप्पल' कहते हैं, अंग्रेजी में 'फ्लूक' कहते हैं। इस 'धुप्पल' पर आप मनन कीजिए, और आप उसका अध्ययन अरोचक न पाएँगे। 'धुप्पल' का अध्ययन करने के समय आप ऐसी-ऐसी घटनाओं से परिचित हो सकेंगे कि आपको न मनुष्य की शक्ति पर विश्वास रह जाएगा, और न भलाई तथा बुराई को ही आप महत्त्व दे सकेंगे। हाँ, आप जी खोलकर हँस सकेंगे; लेकिन शर्त यह है कि आप खुश मिजाज हों। यदि आप खुश मिजाज नहीं हैं, या यों कहिए कि आपने मुहर्रम में जन्म लिया है, तो इस धुप्पल की क्या मजाल, जनाब, इस धुप्पल के निर्माता भी आपको नहीं हँसा सकेंगे। रही एक हल्की सी मुस्कुराहट, वह तो बड़े लोगों के लिए है - और बड़े लोगों की बात मैं चलाने को तैयार नहीं ।
हाँ, तो धुप्पल की बात चली थी न। यह बात क्यों चली, आप यही प्रश्न करेंगे ! दुनिया में और भी अनेक महत्त्व के प्रश्न हैं । आदर्शवादी कहेगा- "महाशयजी, आप किसी आदर्श को लीजिए, संसार उससे शिक्षा ग्रहण करे और जीवन में एक पवित्र साहस के साथ अग्रसर हो।" यथार्थवादी कहेगा- “ जनाब इन बेकार की बातों में क्या रखा है ? मनोविज्ञान का विश्लेषण कीजिए और जीवन की घटनाओं में छिपे हुए सत्य को निकालिए ।” सोशलिस्ट कहेंगे- "यह क्या बक रहे हो ? किसानों और मजदूरों की बातें करो, उनके दुखों को दूर करने का प्रयत्न करो, संसार से उत्पीड़न का नाम उठा दो ।" और भी लोग न जाने क्या-क्या कहेंगे; पर मैं साफ-साफ कह दूँ कि मैं तो इस समय 54 / भगवतीचरण वर्मा की सम्पूर्ण कहानियाँ धुप्पल के फेर में पड़ा हूँ, कल शाम से; और धुप्पल के अलावा मैं इस समय किसी अन्य विषय पर लिखने को तैयार नहीं ।
कल शाम के समय मैं अपनी आदत से मजबूर होकर फिर एक महीने के बाद उसी पुराने रेस्तराँ में चाय पीने जा पहुँचा। बात यों हुई कि मेरे दोस्त आ गए थे। उनसे बातचीत हुई, और उनके जाने के बाद मुझे एक लिफाफा मिला, जिसमें उन्होंने एक पत्र के साथ पाँच रुपए का एक नोट छोड़ दिया था । ये पाँच रुपए वे मुझसे शर्त में हारे थे, और वह शर्त यह थी कि मैं कहानी नहीं लिख सकता और यदि कभी लिख भी लूँ, तो वह किसी अच्छे पत्र में न छप सकेगी। मैंने शर्त बदने को तो बद ली थी; पर बाद में मुझे दुःख हुआ, क्योंकि यह शर्त बदना न था, बल्कि उन मित्र की जेब से जबर्दस्ती रुपया निकाल लेना था। अगर कोई व्यक्ति आपकी प्रतिभा को स्वीकार नहीं करता, तो आपका यह कर्त्तव्य है कि उसे आप अपनी प्रतिभा से प्रभावित करके उससे अपनी प्रतिभा को मनवाएँ, न कि आप उससे शर्त बदकर उसके रुपयों को छीन लें ।
मुझे पाँच रुपए मिले, मुफ्त के ही थे पर वे रुपए जिस तरह से आए थे, उसी तरह से खर्च भी होने चाहिए। घर से निकला यह सोचकर कि पाँच रुपए किसी संस्था को दान दे दूँ। रास्ते में रेस्तराँ मिला। पैर रुक गए, या यों कहिए कि मेरी जेब के रुपयों ने मेरे पैर रोक दिए । सोचा, पच्चीस फी सैकड़ा कमीशन हरएक सौदे में जायज है - मराठों ने चौथ ली थी, हिन्दी के ग्राहक तक किताबों पर पच्चीस फी सैकड़ा कमीशन माँगते हैं, फिर मैंने ही कौन सा पाप किया है कि पाँच रुपए में सवा रुपया अपने ऊपर न खर्च करूँ ? पैर मुड़े और मैं रेस्तराँ के अन्दर ।
मैंने एक बार रेस्तराँ का मुआइना किया, अन्दाजा किस मेज पर बैठूं कि एकाएक मेरा हाथ सेल्यूट करने को उठ गया । यहाँ यह बतला दूँ कि मैं जब यूनिवर्सिटी में था, तो ट्रेनिंग कोर का मेम्बर था। एक वर्ष और भी सैनिक शिक्षा पाई थी और शायद एक-आध वर्ष और भी सैनिक शिक्षा लेता, यदि एक दिन ऑफिसर कमांडिंग ने कन्धे पर राइफल लदवाकर चौदह मील तक पैदल रूट मार्च न करवा दिया होता। हाँ, तो सामने एक कोने में मेज पड़ी थी और उस पर दो फौजी बैठे हुए चाय पी रहे थे । एक के सीने पर विक्टोरिया क्रॉस मेडल चमक रहा था। जिस व्यक्ति के विक्टोरिया क्रॉस लगा हो उसे क्या कलक्टर, क्या कमिश्नर और क्या गवर्नर सबको सलाम करना पड़ता है, फिर भला उसे क्यों न सलाम करता ? तय कर लिया कि उन दो फौजियों की मेज पर बैठकर चाय पिऊँ- विक्टोरिया क्रॉस पाए हुए लोगों से बातें करते हुए उनके साथ बैठकर चाय पीने का अवसर कोई रोज थोड़े ही मिला करता है, और साधारण आदमियों को तो कभी नहीं मिलता।
उसी मेज पर जाकर मैं डट गया। उन फौजियों को शायद मेरा उनकी मेज पर बैठना बुरा लगा, क्योंकि एक ने आँखें मिचमिचाई और दूसरे ने अपनी मूँछ पर हाथ फेरा। एक ने खाँसा और दूसरे ने मेज पर हाथ पटका। एक ने मुँह बनाया और दूसरे ने नाक सिकोड़ी। मैंने अब अधिक देर चुप रहना उचित न समझा। जिन सज्जन के विक्टोरिया क्रॉस लगा था उनसे मैंने कहा- "क्या यह विक्टोरिया क्रॉस आपको इस ग्रेट वार में मिला ?"
उन्होंने सिर हिला दिया।
मैंने फिर पूछा - "क्या मैं आपका नाम जान सकता हूँ ?”
"सुखराम !”
मैंने विक्टोरिया क्रॉस को गौर से देखते हुए कहा - " आप बड़े वीर आदमी हैं, हमारे देश को आप जैसे वीरों पर अभिमान होना चाहिए !"
“हूँ - " कहकर सुखराम ने आँखें नीची कर लीं।
मैं एक-एक शब्द के उत्तर को सुनकर घबरा गया था और उठकर चलनेवाला ही था कि मेरी दृष्टि सुखराम के साथी पर पड़ गई जो मुस्कुरा रहा था। मुझे घबराया हुआ देखकर उसने कहा - "बाबू साहब, आप आखिर चाहते क्या हैं ?"
लड़खड़ाते स्वर में मैंने कहा- "कुछ नहीं; यही जानना चाहता था कि वीरता के किस काम में आपके साथी को विक्टोरिया क्रॉस मिला।"
सुखराम के साथी ने सुखराम की ओर देखा, इसके बाद मेरी ओर। कुछ मुस्कुराते हुए उसने कहा- "बाबू साहब, बतला तो दूँ लेकिन दो शर्तें हैं, पहली यह कि सुखराम बतलाने दें और दूसरी यह कि आप उस कहानी को सुनकर शक न करें ।”
सुखराम ने अपने साथी को घूरकर देखा। उसके साथी ने कहा - "बाबू साहब ! सुखराम नहीं चाहते कि मैं कुछ बताऊँ, अब आप ही समझिए, मैं किस प्रकार बतला सकता हूँ ?”
इस समय तक मेरा कौतूहल काफी बढ़ चुका था। जिसने वीरता नहीं की थी, वह वीर का गुणगान करना चाहता था; पर वीर स्वयं ही नहीं चाहता था कि उसका गुणगान किया जाए। सुखराम क्यों मना कर रहा है, इसे जानने को मैं उत्सुक था । सुखराम के सम्बन्ध की कहानी विचित्र होगी, इतना मैं अनुमान किए हुए था। मैंने सुखराम के साथी से कहा—“जैसी आपकी इच्छा, यदि आपके साथी नहीं चाहते हैं तो न सही ।" यह कहकर मैंने ब्वॉय को आवाज दी और तीन गिलास बियर के मँगवाए ।
कुछ थोड़ा सा इनकार करने के बाद सुखराम और सुखराम के साथी ने बियर के गिलास खाली कर दिए। इधर-उधर की बातें हो रही थीं । उठते हुए मैंने सुखराम के साथी से कहा - "यह मेरा दुर्भाग्य ही है कि मैं आपकी उस कहानी को न जान सका, अच्छा अब मैं चलूँगा ।"
बियर के गिलासों ने सुखराम और सुखराम के साथी की गम्भीरता को दूर कर दिया था। थोड़ी देर में हमलोग पक्के दोस्त हो गए थे। सुखराम के साथी ने मेरा हाथ पकड़कर मुझे बिठा लिया- "बाबू साहब, अब चाहे सुखराम कहने दें, चाहे न कहने दें, लेकिन मैं तो आपको कहानी सुनाऊँगा ही ।"
सुखराम भी मुस्कुराया - "अरे सुना भी दो, कौन मेरा बिगड़ जाएगा।"
सुखराम के साथी ने आरम्भ किया :
बाबू साहब, हमलोग एक ही गाँव के रहनेवाले हैं। जब लड़ाई छिड़ी, उस वक्त मैं फौज में था। पहले तो समझा लड़ाई जल्दी ही खतम हो जावेगी, लेकिन वह काहे को खतम होने की, और जरमनी ने दाँत खट्टे कर दिए। हमलोग न होते तो बाबू साहब, अँगरेज शर्तिया यह लड़ाई हार जाते, अरे हमी लोगों ने तो यह लड़ाई जीती।
हाँ - तो जब लड़ाई शुरू हुई तब भरती भी शुरू हुई । और जैसे-जैसे लड़ाई जोर पकड़ती गई, वैसे-वैसे भरती जोर पकड़ती गई। एक दिन भरती करनेवाले पहुँचे हमारे गाँव, और उनके सामने पड़ गए सुखराम । सुखराम अपनी जोरू से पिट के नदी में डूबने जा रहे थे। सो भरती करनेवालों ने देखा सुखराम को और सुखराम ने देखा भरती करनेवालों को । सुखराम की समझ में बात आ गई कि भरतीवाले जान के ग्राहक हैं। और भरतीवालों की समझ में यह बात आ गई कि सुखराम जिन्दगी से आजिज हैं। बस फिर क्या था, सुखराम भरती हो गए ।
छह महीने तक कवायद सिखाई गई और सातवें महीने लाद दिए गए सुखराम जहाज पर लड़ने के लिए। वहाँ ये हमलोगों को मिले। सुखराम मुझे देखकर बड़े खुश हुए। लगे कहने कि दुनिया घूम रहे हैं, फौजी हैं, लौटकर मारे बूट के मारे बूट के जोरू का कचूमर निकाल देंगे। ये बातें कर ही रहे थे कि हम लोगों का फायरिंग लाइन में जाने का हुक्म आया। फायरिंग लाइन में जाने का हुक्म पाते ही हमारी बटालियन के लोगों के चेहरे पीले पड़ गए लेकिन सुखराम के चेहरे पर शिकन नहीं। आप नहीं जा बाबू साहब, कि ऐसा क्यों था ? बात यह थी कि सुखराम बेचारे क्या जानें कि फायरिंग लाइन क्या बला है ? इनके लिए तो जैसे हिन्दुस्तान से विलायत आना वैसे ही बन्दरगाह से फायरिंग लाइन पर जाना ।
हम लोग ट्रेंचों में पहुँचे, और गोलाबारी शुरू हुई। अब सुखराम की हालत देखिए, इन्होंने रोना शुरू किया । जिन्दगी में तोप की आवाज सुनी न थी, यहाँ जब तोपें और बन्दूकें चलती देखीं तो बौखला गए । इधर गोली चली और उधर सुखराम भागे पर मैंने सुखराम को पकड़ लिया। ट्रेंचों के बाहर निकलना और मर के गिर पड़ना बराबर ही है। लेकिन सुखराम बौखलाए हुए, उन्हें यह पता कहाँ ? हमलोगों ने लाख समझाया, पर इनकी समझ में बात न आई। समझते तब, जब रोने और चिल्लाने से इन्हें फुर्सत मिलती । अन्त में हमलोगों ने इन्हें बाँध दिया। तीन दिन तक ये बँधे रहे। इन तीन दिनों तक हमें किन-किन मुसीबतों का सामना करना पड़ा, यह हमीं जानते हैं। चौथे दिन गोलाबारी ने भयानक रूप धारण किया । दुश्मन ने हमारी ट्रेंचों पर धावा बोला और हमलोग सब-के-सब उनको रोकने में लग गए। सुखराम को यह मौका मिला, किसी तरह इन्होंने अपनी रस्सी तुड़ाई, और रस्सी तुड़ाकर ट्रेंच के ऊपर चढ़ गए और बेतहाशा पीछे भागे ।
बाबू साहब ! सुखराम की ऐसी बेशरम जिन्दगी भी हमलोगों ने नहीं देखी। चारों तरफ से गोलियों की बौछार हो रही है, तोप के गोले गिर रहे हैं, बम फूट रहे हैं और सुखराम इन सबों के बीच से सही-सलामत भागे चले जा रहे हैं ! एक गोली कान से बातें करती हुई निकल गई, तोप के गोले से जो जमीन फट के उछली, उसी के साथ इन्होंने भी दस फुट की छलाँग मारी। इनका साफा गोलियों से चलनी हो रहा था, जूते की एड़ियों में गोलियाँ चिपकी हुईं, वरदी गोलियों से छिदी हुई, और सुखराम के बदन पर एक खराश तक नहीं !
सौ गज की दौड़ें तो आपने देखी होंगी, लेकिन मैं दावे के साथ कहता हूँ कि तेज-से-तेज दौड़नेवाला उस दिन इनका मुकाबिला नहीं कर सकता था। बीच-बीच में गढ़े थे और वहाँ इन्होंने जो लाँगजम्प किया है, उसके आगे दुनिया का रिकॉर्ड मात है, क्योंकि एक दफे ये करीब इक्कीस फीट चौड़ा गढ़ा फाँद गए थे। और इन्होंने जो कलाबाजियाँ खाईं, अगर आज ये उनको दुहरावें तो किसी भी सरकस में हजार-पाँच सौ रुपया महीना पैदा कर सकते हैं। हम लोग चिल्लाते ही रह गए, लेकिन सुखराम भला काहे को रुकने के !
अब सुखराम डेंजर जोन के बाहर निकले, लेकिन उनका दौड़ना बन्द नहीं हुआ । डेंजर जोन के बाद कडैल साहेब का खीमा गड़ा था। तारबकीं हो रही थी, और कडैल साहब दूरबीन लगाए बैठे थे। जब सुखराम खेमे के पास आए तो कडैल साहब ने चिल्लाकर कहा - "कहाँ जाता है ?" सुखराम एक सेकंड के लिए रुके, हाँफते हुए इन्होंने कहा – “साहब, गोली ! गोली !” और यह कहते हुए सुखराम बेहोश होकर गिर पड़े ।
यहाँ तक तो जो कुछ हुआ वह ठीक ही हुआ। सुखराम किस तरह से बच आए, कौन बतलाए, लेकिन मालूम होता है भगवान अच्छा-खासा मजाक करने पर तुले हुए थे। कडैल साहब ने दौड़कर सुखराम को खुद अस्पताल भिजवाया। इसके बाद उन्होंने अपने खरीते में लिखा- “सुखराम ने बहुत बड़ी बहादुरी का काम किया। जिस वक्त ट्रेंचों में एम्यूनिशन खतम हो गया और ट्रेंचों से यहाँ तक की कम्यूनिकेशन काम नहीं कर रही थी, यह आदमी अपनी जान पर खेलकर ट्रेंचों के बाहर निकलकर यहाँ म्यूनिशन खतम हो जाने की इत्तिला देने आया । ताज्जुब हो रहा है कि यह शख्स इतनी दूर जिन्दा कैसे चला आया - हजारों गोलियों के निशान इसके बदन पर के कपड़ों पर हैं; पर इसके एक भी गोली नहीं लगी। शायद इसके इस विल-फोर्स ने कि किसी-न- किसी तरह एम्यूनिशन खतम होने की इत्तिला देनी ही चाहिए, इसे जिन्दा रखा। यहाँ पर हम परमेश्वर का हाथ देखते हैं। साथ ही हम यह सिफारिश करते हैं कि सुखराम को उसकी बहादुरी के लिए विक्टोरिया क्रॉस दिया जाए।" और बाबू साहब, आप देखते ही हैं सुखराम को विक्टोरिया क्रॉस मिल गया ।
मैं मुस्कुराया; पर न जाने मैंने क्यों यह प्रश्न कर दिया- “और इनकी बीवी का क्या हाल है ?"
सुखराम का साथी सुखराम का हाथ पकड़कर उठ खड़ा हुआ। हँसते हुए उसने कहा - "बीवी! अरे हाँ, अब इनकी बीवी जब इन्हें पीटने लगती है, तब ये विक्टोरिया क्रॉस जेब में रख लेते हैं।"