विचार और चरित्र (लेख) : गजानन माधव मुक्तिबोध
Vichar Aur Charitra (Hindi Essay) : Gajanan Madhav Muktibodh
मुझे समझ नहीं आता कि कभी-कभी ख़यालों को, विचारों को, भावनाओं को क्या हो जाता! वे मेरे आदेश के अनुसार, मन में प्रकट और वाणी में मुखर नहीं हो पाते! यहीं मेरा उन से झगड़ा हो जाता है।
माना कि चेतना की एक अविच्छिन्न धारा अन्दर बहती रहती है। वह चेतना किस काम की, जिसमें इतना बल न हो कि वह मेरे आदेश के अनुसार जाग न उठे।
दुःख इसी बात का है कि लेखनी उठा कर जब मैं उसे आदेश देने लगता हूँ तो वह तुरन्त ही शून्य में परिणत हो जाती है। किन्तु कुर्सी से उठने पर, दूसरी ओर ध्यान जाने के बाद, वह पाश्र्व-संगीत फिर से चालू हो जाता है! दिन-रात अनवरत, लगातार, सतत! उसे पकड़ने की मैं काफ़ी कोशिश करता हूँ। किन्तु यह खेल लहर पकड़ने-जैसा ही है!
फिर मैं अपने को गाली देने लगता हूँ। वे लोग ज़्यादा सुखी हैं जिनका ध्यान सिर्फ़ बाहर की ओर, यानी काम निपटाकर फेंक देने की तरफ़, लगा रहता है। मेरा मन ही अजीब है, जो अपने में डूबा नहीं रहता (डूब ही जाता तो क्या बात थी!), लेकिन फिर भी जो अपना एक नेपथ्य-संगीत आयोजित करता चलता है। मेरे कई विचारक मित्रों ने मुझे इसीलिए बुरा-भला कहा है; यह भी कहा है कि मैं निराशावादी हूँ, ह्रास-ग्रस्त हूँ, फ़्रस्ट्रेटिड हूँ, स्प्लिटपर्सनेलिटी(विभाजित व्यक्तित्व) वाला हूँ.... न मालूम क्या-क्या! विचार करने वाले लोग हैं वे। मैंने अपने व्यक्तिगत जीवन में जीतनी सैद्धान्तिक गालियाँ खायी हैं, वे सब मज़ेदार हैं। शायद उनमें सत्यांश भी हो। कौन जाने!
फिर भी मेरा ऐसा ख़याल है कि लोग, न्याय-भावना से प्रेरित होकर भी, बहुत अन्याय कर जाते हैं, इसलिए कि वे ज़िन्दग़ी के बहुतेरे तथ्य नहीं जानते। उनके विशाल ज्ञान में विशालतर अज्ञान के सम्मिश्रण से, उनकी न्याय-प्रेरित बुद्धि, अहंकार-युक्त होकर, भयानक अन्याय कर जाती है। इस अन्याय से विरोध-भरी पीड़ा होती है। यह पीड़ा उजला दर्द नहीं, काली वेदना है। लेकिन उससे भी मनुष्य के ज्ञान का विकास होता है। मनुष्य तह के अन्दर की तहें देखने के लिए गहराई में हाथ डालता है। और, साधारतः, वहाँ उसे डंक उठाये हुए एक बिच्छु की चोट ही मिलती है!
अणु के केंद्र में हाथ डालने से विनाशकारी शक्ति का बोध होता है। किन्तु उसी अणु के जब विभिन्न पुंज बन जाते हैं, तब आपको वह विनाशशक्ति नहीं मिलती। उसी प्रकार से, मनुष्य चरित्र के अत्यधिक निकट जाकर उसे देखने से मन की पीड़ा होना ही ज़्यादा स्वाभाविक है; किन्तु बरामदों में, ड्राइंगरूमों में, सभा-सम्मेलनों में, वे ही लोग भले मालूम होते हैं।
मैंने ऊपर जो उपमा दी, वह शायद वस्तु-परक तथ्यवादी नहीं है। वह एकांगी भी हो सकती है अथवा विशुद्ध भ्रम की उपज। किन्तु यह सही है कि बहुत बार मेरा ध्यान विचारों को प्रकट करने वाले चरित्र की तरफ़ ही जाता है, और इच्छा होती है कि मैं चरित्र में हस्तक्षेप करूँ, गो इसका मुझे बहुत डर लगता है। किन्तु साथ-साथ एक विचित्र आकर्षण और सम्मोह मुझे अन्यों के चरित्र में हस्तक्षेप करने के लिए बाध्य करता है। तब मुझे यह परवाह नहीं होती कि तहों के अंदर की तहों में डंक उठाए हुए मुझे बिच्छु मिलेगा या सांप! मैं तो उस चरित्र-व्यक्तित्व का अनुसन्धान करना चाहता हूँ और मैं, बग़ैर आगा-पीछा देखे, उस तिलिस्म में घुस पड़ता हूँ। और आप से सच कहता हूँ कि डंक मारने वाले वे बिच्छु होते ही नहीं; वरन आत्मरक्षात्मक प्रवृत्ति के एक यन्त्र मात्र होते हैं, जिन्हें ज़रा-सा हिलाने-डुलाने से, पुचकारने से, काम चल जाता है।
भीतर की एक पेटी के अँधेरे में जमे हुए इस आत्म-रक्षात्मक यन्त्र के विचारों से बहुत बड़ा सम्बन्ध है। असल में यह यन्त्र व्यक्तित्व जैसा भी है, उसका पहरेदार है। और वे विचार ----इस पहरेदार के विभिन्न अस्त्र हैं। मेरा अनुभव, मेरा तज़ुर्बा, मुझे यही बताता है। हाँ, यह स्वीकार करने के लिए मैं तैयार हूँ कि ऐसा हमेशा नहीं होता, कि ऐसा होना अनिवार्य नहीं है, कि ऐसा सौ-फीसदी है ही---यह नहीं कहा जा सकता।
फिर भी, बहुतेरी आलोचनाएँ ऐसी ही होती हैं----विशेषकर उस क्षेत्र में जहाँ हम मानव-संबंधों का जीवन जीते हैं। इस क्षेत्र में जो विचार प्रकट किए जाते हैं उन्हें बहुत सावधानी से लेने की ज़रुरत है, चाहे वे अपने बारे में हों, या दूसरों के बारे में; क्योंकि आत्मसाक्षात्कार करना, शायद आसान है किन्तु चरित्र साक्षात्कार करना एकदम असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है।
तो तात्पर्य यह की विचारों का चरित्र से बहुत गहरा सम्बन्ध होता है। कभी-कभी वह प्रत्यक्ष और स्पष्ट दिखाई देता है, कभी-कभी यह अस्पष्ट और अप्रत्यक्ष। इसका मतलब यह नहीं कि विचारों का तर्क-सिद्ध अथवा अनुभव-सिद्ध प्रभागों से अथवा परम्परा से सम्बन्ध नहीं होता।
(अप्रकाशित; रचनाकाल,संभवतः 1958 के आस-पास)