वट-सावित्री कथा : अवधी लोककथा (उत्तर प्रदेश)

Vat-Savitri Katha : Avadhi Lok-Katha (Uttar Pradesh)

यह एक पौराणिक आख्यान है, जिसमें सावित्री ने अपनी अखण्ड साधना से अपना अखण्ड सौभाग्य प्राप्त किया था।
न्यूरी नावों की कथा : न्यूरी नावों का व्रत पुत्रवती मातायें करती हैं। दीवाल पर इसका चित्र आलेखित करती हैं और पूजोपरांत न्यूरी नावों की कथा कही सुनी जाती है, जिसका संक्षिप्त रूप इस प्रकार है :

एक ब्राह्मणी थी। अपने पुत्र को नहला-धुलाकर सुलाकर पानी भरने गई। वह कुंये पर पानी भर रही थी। नेवला बार-बार उनके आगे आवे और फिर उनके घर को चलने लगे उस नेवला के मुंह में खून लगा हुआ था। वह बार-बार उसी प्रकार चक्कर काट रहा था। यह देखकर ब्राह्मणी को क्रोध आ गया। उन्होंने जल भरा घड़ा उसी नेवले पर पटक दिया। नेवला मर गया। जब वह घर आईं तो उन्होंने देखा कि बालक खाट पर सो रहा है। खाट के नीचे एक सर्प कटा पड़ा है। यह देखकर ब्राह्मणी बहुत दुखी हुईं। वस्तुस्थिति को वह समझ कर पश्चाताप करने लगी। नेवले ने सर्प को काट कर उस बच्चे की रक्षा की थी। वह रक्त नेवले के मुंह में लगा था।

रात को सोते समय उसी स्त्री को स्वप्न हुआ, नेवले ने स्वप्न दिया कि आज से पुत्रवती मातायें हमारा व्रत रखें, पूजा करें। (नेवले में जीवमह की परिकल्पना और विश्वास पुष्ट हुआ। न्यूरी नेवले का ही तद्भव है। नावैं से अभिप्राय नौमी तिथि से है। नेवले में देवत्व की प्रतिष्ठा की गई है।)
(कष्णपक्ष) को पुत्रवती मातायें मंगल कामना से भरकर यह व्रत करती और कथा कहती हैं।

एक कपिला बगुला गऊ थी, वह पहाड़ों पर रहती थी। नदी का ठंडा जल पीती थी, हरी दूब खाती थी और तंदुरुत थी। बगुला गऊ खेतों, मेड़ों में घूमा करे। वह बड़ी दुबली थी। एक दिन कपिला गऊ को बगुला गऊ मिली। उन्होंने कहा, तुम तो बहुत दुबली हो। चलो हमारे साथ पहाड़ पर, वहां हरी दूब खाओ, नदी का ठंडा पानी पियो और सुख से रहो। बगुला गऊ उनके साथ पहाड़ पर चली गई। कुछ ही दिनों में वहां के वातावरण में वह भी स्वस्थ हो गई। एक दिन बगुला गऊ नदी किनारे पानी पी रही थी। दूसरी तट पर बाघ खड़ा पानी पी रहा था। बगुला गाय की लार बहकर उस तट पर पहुंची। बाध के मुंह में लार लगी, उसे बड़ी मीठी जान पड़ी। सोचने लगा, जब इसकी लार इतनी मीठी है तो इसका मांस कितना मीठा होगा। यह सोचकर उसने गर्जना की, हे बगुला हम तुमको खायेंगे खड़ी रहो। बहुला गाय ने प्रार्थना की, हमारे छः बच्चे खूंटे में बंधे हैं, वह भूखे प्यासे हैं हम उन्हें दूध पिलाकर आयें तब तुम हमें खा लेना। बाघ को विश्वास न हुआ। बगुला ने वचन दिया। वह कांपती डरती अपने बछड़ों के पास आई। बछड़ों ने पूछा, आज क्या बात है। मां तुम क्यों कांप रही हो। गाय ने कहा, कुछ नहीं तुम दूध पी लो। बच्चों ने जिद की। बताओ तभी हम दूध पियेंगे। उन्होंने बताया और उन्हें समझाया, ‘द्याखौ तुम कुहू के खेतन म्याड़न पर न जायो, अपैं, खूंटा रह्यो।’ उन बच्चों ने कहा, मां हम भी तुम्हारे साथ जायेंगे। और वह आगे-आगे ‘कोढ़ात, गेरांव टुरावत वही नदी पर पहुंचे जहां बाघ रहै।’ बाघ उन्हें देखकर गरजे, मन में बड़े खुश थे। गाय तो बहुत जनों से आई थी। आज भर पेट भोजन मिलेगा। इतने में सारे बछड़े आये, आगे आकर कहने लगे ‘मामा मामा पांय छुई’। बाघ कहने लगा, अरे हम तो तुम सबका खाय का दउड़ेन रहै, तुम हमही का छलि लिहेउ। अच्छा चलौ तुम सब जने अपैं बायें पांव के अंगूठा से हमका यहीं मां (नदी) ठेलि दियो हम तर ताई। हम मामा तुम भइने।’ उन्होंने वैसा ही किया, बगुला गाय बच गई।

‘जइसे उनके दिन बहुरे वैसे सबके बहुरैं।’ कथा के अंत में यह स्वस्ति वाचन कह दिया जाता है।

(- जगदीश पीयूष)

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