वसुचरित्र (कहानी) : रावुरी भारद्वाज
Vasucharitra (Telugu Story in Hindi) : Ravuri Bharadwaja
वह समय था, जब बलवान जातियों ने दुर्बल जातियों को गुलाम बनाया था। वह युग था, जब नर-घातक व्यक्ति शासक बनकर, इतिहास में विख्यात हुए। वह अवसर था जब एक जाति दूसरी जाति के, एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के शोषण की नीति सामाजिक धर्म बनकर फूलती-फलती रही थी।
वह समय था, जब मानव-जाति परिस्थितियों के सामने कभी सिर झुकाती हई, कभी लड़ती हई एक ओर अपार विनाश और दूसरी ओर बेतरतीब विजयों को प्राप्त कर रही थी। तब तक करोड़ों क्षुद्र जीवों के समान ही मानव भी कई दशाओं को पार कर चुका था। प्राकृतिक शक्तियों के साथ-साथ मानव की मेधा ने 'सृजनात्मक शक्ति' को भी प्राप्त किया। वह शक्ति काल के प्रभाव के कारण कुछ ही लोगों के लिए सीमित रह गयी। इससे मानव जाति अनेक वर्गों में विभक्त हो गयी। बुद्धिबल और उत्पादन सामग्री की सहायता से एक वर्ग दूसरे वर्ग को, एक जाति दूसरी जाति को, एक देश दूसरे देश को अत्यन्त भयानक रूप से शोषित करते जा रहे थे। शताब्दियों से चले आ रहे इस महासंग्राम के कारण मानव में अन्तनिहित पाशविक प्रवृत्तियाँ अत्यन्त तुच्छ, स्वच्छन्द एवं तीव्रगति से अभिव्यक्त होने लगीं।
मानव-जाति ने 'स्वार्थ' को सीख लिया। प्रथम दशा में आत्मरक्षा के नाम से प्रारम्भ होकर यह विषबीज विकसित होकर, भयानक परिणाम देने लगा। वह अपने से अपने लोगों, अपने परिवार, अपनी जाति, अपने देश तक व्याप्त हो गया। उसने कल्पना के विपरीत कई क्रान्तियों को भड़काया। भयानक मारणहोम प्रज्वलित कराये। बलवान विजयी हुए। दुर्बल पराभूत हो गये। धोखे से, बुद्धिबल से कुछ लोग विजयी बने । पराजित लोगों के सिर्फ वे ही नहीं, उनके वंशज, यहाँ तक कि सारी जाति के नामो-निशान तक काल के गर्भ में विलुप्त हो गये।
इस प्रकार मटियामेट हो जाने के पूर्व उस जाति की लड़ी लड़ाइयाँ, उस जाति के द्वारा सामना किये गये अपार कष्ट, उनके द्वारा सही गयी यातनाएँ, उनके द्वारा बहाये गये आंसू, उनके क्रन्दन-आदि को इतिहास ने अत्यन्त सावधानी से छोड़ दिया। ऐसे छोड़ने में थोड़ी-सी असावधानी के कारण बच गये कोई एक-दो प्रमाण हमें प्राप्त हो रहे हैं । उन्हें आलम्बन बनाकर, स्पष्ट रूप से कुछ भी कहना मुश्किल है।
परन्तु काल अत्यन्त विचित्र है। इन कठोर सत्यों को काल अपने गर्भ में न समा सकने के कारण कभी-कभी उन्हें उगलता रहता है। शिलालेखों के रूप में, प्राचीन वस्तुओं के रूप में, शिथिल नगरों के रूप में तब तक एक ढंग से चलते आ रहे इतिहास को तब से दूसरे ढंग से चलना पड़ेगा। एक दिन जान-बूझकर अपने से की गयी गलती को सुधारना पड़ेगा । कालरूपी पुरुष और विरासत रूपी स्त्री के बीच पल-पल संघर्ष अवश्यम्भावी है।
यह बात सर्वविदित है कि भारत के पुरातत्त्व विभाग के अधिकारी ने प्राचीन भारतीय संस्कृति के उद्धार के लिए खुदाई का काम शुरू किया। समाचार पत्र के सभी पाठक यह भी जानते हैं कि केन्द्र सरकार के आदेश से, हाल ही में राजस्थान में जो शोधकार्य किया गया है, उनमें कई विचित्र विषय दुनिया के सामने आये। अभी तक जिसे उजाड़ प्रांत माना जा रहा था, उपर्युक्त विभाग के अधिकारी के प्रयत्नों से वहाँ एक महानगर के अस्तित्व के प्रमाण दिखाई पड़े। सड़कें अत्यन्त शोभायमान थीं। शिल्पों से सुशोभित जीर्ण भवन दृष्टिगत हुए। ऐसे कई प्रमाण मिले, जिससे यह कहा जा सकता है कि वहाँ की जनता ने सभ्यतापूर्ण जीवन व्यतीत किया था। परन्तु वे सब राख में छिपे पड़े थे। राख और कोयले की रेणुओं से सड़कें पटी पड़ी थीं। ऐसा माना जाता है कि समस्त नगर अग्नि की आहुति बन गया था। लाखों की संख्या में मानव की हड्डियाँ नगर भर में बिखरी पड़ी थीं। एक जगह शस्त्रागार, उससे थोड़ी दूर पर कोषागार, राजभवन था-ऐसा स्पष्टतः परिलक्षित हो रहा है । तत्कालीन राजा, प्रधानतः इस नगर का शासक, दयालु था -कई शिलालेख इसका प्रमाण दे रहे हैं । अन्य कूछ ताम्रपत्रों में अपमानजनक भाषा का प्रयोग किया गया है। कुछ में डाँट-डपट, युद्ध के निमन्त्रण आदि हैं।
जो भी हो, यह स्पष्ट है कि उस नगर की चार दिशाएँ एक अद्भुत कहानी से जुड़ी हुई हैं। निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उस नगर के अग्नि की आहुति बनने से पूर्व, वह शत्रुओं से घिर गया होगा। तो फिर वह राजा कौन है? उसका राज्य कौन-सा है ? उसके शत्रु कौन हैं ? किस कारण शत्रुता पैदा हुई ? आदि सन्देहों के समाधान की अपेक्षा की जा रही है।
हर एक कार्य के पीछे कोई-न-कोई कारण रहता है। कारण के बिना कार्य की सम्भावना ही नहीं है । उसी तरह एक-एक राज्य के उद्भव के लिए एकन-एक कारण होता है। होगा ही। अंग्रेजों के शासक बनने का कारण मुसलमान राजा थे । मुसलमान शासकों के हमारे देश में आने का कारण तत्कालीन हिन्दू राजाओं की आपसी फूट थी। इसी प्रकार भस्म बने इस नगर के पीछे भी कई कारण रहे ही होंगे। तो वे क्या हैं ? इन प्रश्नों के उत्तर खोजते समय, वह इतिहास भी प्रकट होगा।
प्राप्त मुद्राओं का अनुशीलन करने से यह स्पष्ट होता है कि उस नगर का नाम 'जयन्ती' था। संस्कृत लिपि में होने पर भी, भाषा में द्रविड प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित हो रहा है। मुद्रा के एक तरफ कुल्हाड़े की मूर्ति अंकित है । कोई प्रमाण नहीं है कि पूर्वी भारत के किसी भी राजा ने कुल्हाड़े को शस्त्र के रूप में स्वीकार किया हो। पुराणों में परशुराम इत्यादि तो सही। कुल्हाड़ा तो 'सारंग' जाति का शस्त्र है। इतिहास एक-दो स्थानों पर यह बात बताता है कि 'सारंग' जाति गुलाम जाति है। इसके लिए सबल प्रमाण नहीं है कि उनके सिवा और किसी ने इसे शस्त्र या अस्त्र के रूप में काम में लाया हो। यह निर्विवाद है कि सारंग कुल्हाड़े को अपने प्राण के समान मानते थे। इतिहास सप्रमाण यह स्पष्ट करता है कि वह जाति विकसित न होकर नष्ट हो गयी है। उसकी वृद्धि के लिए शायद, तत्कालीन शासक ने कई तरह की कोशिशें कीं, परन्तु वे सफल नहीं हए। यह कहीं भी नहीं लिखा गया कि सारंग जाति ने राज्य का शासन किया। इस शोधकार्य के फलस्वरूप इतिहास को सुधारने की आवश्यकता हुई। इतिहास को इस प्रकार सुधारना चाहिए कि गुलाम जाति ने भी कुछ समय के लिए राज्य का शासन किया।
बात तो अच्छी ही है, परन्तु इससे कुछ नयी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। जानवरों की तरह जंगलों में घूमने वाली इस जाति ने सभ्यता का सबक कब सीखा? किस तरह राज्य प्राप्त किया ? गुलाम जाति के शासन करने की स्थिति तक पहुँचते समय अन्य शासक कैसे सहन कर सके ? उस प्रकार सहन करने के लिए उन्हें कौन-कौन-सी शक्तियों ने प्रेरित किया? अन्त में इस प्रकार मिटटी में मिल जाने की स्थिति तक कैसे पहुँची? इसका कारण कौन है ? सारंग जाति ने कितने समय तक शासन किया?
ये हैं प्रश्न ।
इन प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करना असम्भव माना गया। परन्तु किस्मत की बात यह है कि काफी प्रमाणों के साथ इन प्रश्नों का उत्तर मिल ही गया । एक महान् इतिहास जिसे समय अत्यन्त सतर्कता के साथ बचाता आया-प्रकाश में आया। प्रत्येक राजवंश का जैसे अपना एक इतिहास होता है, उसी प्रकार इसका भी है। इसका वंशवृक्ष, इसके वंशजों के गुण-गण, दान इत्यादि पुण्यकार्यों की सूची, प्राप्त किया गया राज्य-विधान-इन जैसे कार्यों का विवरण लिखा गया मूत्तिका-पत्र (स्थूल रूप से ईंटें कह सकते हैं। परन्तु उनमें और साधारण ईंटों में तो अन्तर है । ये पत्र ईंटों जैसे मोटे नहीं रहते हैं। लम्बे-पतले, लम्बे और चौड़े होकर लिखने के लिए अनुकूल रहते हैं।) गुप्त मन्दिर के रूप में पहचान की गयी जगह पर मिले। इनके आधार पर ही सारंग जाति का इतिहास लिखने का प्रयास किया गया है।
1.
थकी हुई सन्ध्या खूबसूरत ढंग से औधी गिर पड़ी, बादल रोष से लाल हैं। सारा गांव रो रहा है। बूढ़े, रोगी ऐसे रो रहे हैं जिसे सुनकर हर किसी का हृदय पिघल जायेगा । गाँव एक तरफ से जल रहा है, उसे बुझाने का कोई भी प्रयत्न जारी नहीं है । कई झोंपड़े उखाड़ दिये गये हैं। कुछ लोग ज्वालाओं में भस्म हो रहे हैं और कुछ महा-ज्वालाओं से ठीक बाहर आकर, जले हुए शरीर के अंगों से क्रन्दन कर रहे हैं। क्रमशः अज्ञान रूपी अन्धकार अपना सिर फैलाता हआ व्याप्त होता आ रहा है । चारों दिशाओं को भय के साथ निगाहते हए, कानों को खड़ा करके कुछ लोग छिपके-छिपके गांव पहुंच रहे हैं।
वासव न हिला, न डुला, न बोला। पेड़ के नीचे खड़े होकर अपलक दृष्टि से जल रहे गाँव की ओर और जिस तरफ सैनिक गये उस तरफ देखता रहा। उसकी आँखें लाल हो गयी हैं। होंठ कांप रहे हैं । वह अपनी मुठी बाँध रहा है. खोल रहा है। गिरी हुई अपनी झोंपड़ी की ओर देखा । दिल टूट गया। दोपहर के समय तक जिस घर में आनन्द ने लास्य किया उस घर में लाशें हैं। अपने प्रति वात्सल्य एवं प्रेम प्रकट करने वाली माँ मरी पड़ी थी। पिता 'कुकूर' नामक राज्य का गुलाम बनाकर ले जाया गया था।
पिता की याद आते ही, वासव स्थिर रूप में खड़ा नहीं रह सका। पैर कॉप उठे। वहीं का वहीं गिर पड़ा। दोनों आँखें बन्द कर लीं। फिर भी पिता का रूप ओझल नहीं हुआ। आजानुबाहु जैसा आकार, निशस्त्र होकर शेर को भी मार सकने का धैर्य एवं साहस, इन सबसे बढ़कर उसके वात्सल्य ने वासव को विचलित कर दिया। वह अपने-आपको न सम्भाल सका और सिसक-सिसक कर रो उठा। जिस किसी पेड़ की शाखा को भी अनायास ही तोड़ देने वाले अपने पिता के सबल हायों में अपने ही सामने जंजीरें डाल दी गयीं-उस दृश्य का स्मरण ही-कितना वीभत्स है !! कुकुर के सैनिकों के आगमन का समाचार सुनते ही पिता ने अपने साथ अपनी बहन को भी छुपा लिया था। तब वह भी भाग जा सकता था। परन्तु गाँव की सुरक्षा के लिए सबकी सहायता करने से सर्वनाश हो गया। सैनिक अग्निशिखाओं की तरह आये थे। गांव को चारों ओर से घेर लिया था। स्त्री-पुरुष का विचार किये बिना सभी हट्टे-कट्टे लोगों को पकड़ लिया था। स्त्रियों को विवस्त्र कर, घेरकर आनन्द के साथ नृत्य किया। विनोद के लिए सारे घर जला दिये । शोले दाँत फैलाकर फुफकारते समय, मुसकुराते शिशु और वृद्धों को ज्वालाओं में फेंककर, उनकी कारुणिक चीत्कारों को सुनकर आनन्दित हुए। बाहर आने की कोशिश करने वालों को भालों से चुभोकर ज्वालाओं में फेंका गया।
सैनिकों द्वारा इतना कुछ करने पर भी उसकी जाति के लोगों ने कुछ भी नहीं कहा। सबकुछ देखते रहे। जो नहीं देख सके उन्होंने अपनी आँखें बन्द कर लीं। पिता को पकड़ने के बाद दो सैनिकों ने उसकी माँ को पकड़ लिया। नंगा कर दिया। एक ने बलात्कार किया। माँ ने अपने हाथ-पैर मारे, छटपटायी. चिल्लायी। परिणामतः छह सैनिकों ने उसे धर दबोचा। एक-एक पशु ने अपनी कामना पूरी की। वह अपनी आँखों से देखता रहा । उन्हें रोकने की कोशिश की परन्तु बहन ने उसे रोक दिया। बहन ने कहा, "इससे हमें अपने प्राण खोने पड़ेंगे और वहाँ जाकर कुछ भी नहीं कर सकेंगे।" जो भी रहा हो, माँ तो मर गयी। पिता के दास के रूप में पकड़े जाकर लिवा ले जाने के बाद अपने एक परिवार को ही नहीं, इस गांव के कई परिवारों-लगभग सभी के परिवारों को इन जैसे अत्याचारों का शिकार बनना पड़ा।
वासव धीरे से उठा। रास्ता रोके पड़ी हुई तरह-तरह की चीजों को पार करते हए अपनी झोंपड़ी के समीप पहुंचा। उसने एक-एक शाखा को हटाया। माँ ! शव के रूप में माँ दिखाई दी। सिर चकनाचूर हो गया था। वक्षस्थल जगह-जगह चिर गया था। नंगी पड़ी हुई थी। उसने पत्ते इकट्ठा करके माँ को ढक दिया। झोंपड़ियाँ अब भी जल रही थीं। जले हुए आदमियों की गन्ध से उसका सिर चकरा उठा। वासव ने अपने-आपको संभाल लिया। अपने को प्यार भरी आवाज़ से पुकारने वाली माँ याद आयी। अब के रूप से तुलना की। उसे मां निर्जीव-जैसी दिखाई नहीं पड़ी। उसे लगा कि उसकी मां अब भी वात्सल्य से पुकार रही है। वह 'माँ' कहकर चिल्लाया। लेकिन माँ न हिली, न बोली...
भागे हुए लोग एक-एक करके गांव पहुंच रहे हैं । उनके रोदन से आकाश गूँज रहा था।
वासव ने सोचा हे भगवान ! इस नरक से कब मिलेगी मुक्ति ?
तब की तब, बचे हुए व्यक्ति 'सुरक्षित' जगह जाने की कोशिशें कर रहे हैं । वासव वहाँ से हिलना नहीं चाहता । सुरक्षित प्रदेश कहाँ है ? उसकी जाति कहीं भी रहे ऐसे कष्टों का सामना तो करना ही पड़ेगा। यहाँ 'कुकुर' के सैनिक हैं तो दूसरी जगह दूसरे राज्य के सैनिक । कहीं भी हो शिकार बन जाना होगा। तो फिर यह प्रयत्न अनावश्यक है । परन्तु प्राण अत्यन्त मधुर हैं न ! अपने ही हाथों से उन्हें निकाल देने के लिए कौन-कैसे स्वीकार करेगा?
जंगल में कहीं चन्द्र का उदय हुआ। पूरब की दिशा लाल हो गयी है। चाँदनी की रेखाएँ पेड़ों से छनकर जमीन का स्पर्श कर रही हैं। अग्नि के कण हवा के कारण दूर जाकर गिर रहे हैं। जंगल में जानवरों के चीत्कार, सुनसान बना गांव, सामने माँ का शव, बगल में रो-रोकर थकी हुई बहन-वासव पागल बन गया। उसका मन तरह-तरह के नोच-विचार में पड़ गया।
हमारी जाति इतनी घोर आफतों को किसलिए झेल रही है ? सुख के साथ जीवन बिताने का अधिकार हमारे लिए क्यों नहीं है? हमारी जाति के लोगों को जंगल के जानवरों से भी बदतर ढंग से दूसरे हाथों का शिकार क्यों बनना पड़ रहा है ? हम दुर्बल तो नहीं हैं ! फिर उनका सामना क्यों नहीं कर सकते हैं ? पशु से भी बुरी हालत में अपनी जाति बेची जा रही है, खरीदी जा रही है। हमें अपने जीवन पर भरोसा नहीं है। हम जब कभी किसी के हाथ बेचे जा सकते हैं। हमें कितना जीवित रहना है-यह भगवान के हाथ में नहीं, इन नागरिकों' के हाथों में है। पूरी तरह टूट जाने तक काम-काम कराकर हमारी जाति के लोग सीठी के समान फेंक दिये जा रहे हैं। या किसी-न-किसी सम्राट के मनोरंजन के लिए जलाये जा रहे हैं। इन 'नागरिकों' का अधिकार यह है कि वे हमारे साथ मनमाना व्यवहार कर सकें। हमारे पुरुष पशुओं के समान चाकरी कर रहे हैं। स्त्रियाँ 'नागरिकों' की कामेच्छा पूरी करने वाली वस्तुएँ बन गयी हैं। किसी भी स्त्री के साथ ये लोग स्वेच्छाचार कर सकते हैं। कोई गलती नहीं है। किसी ने गलत कहा तो उसका सिर उड़ा दिया जाता है।
इस प्रकार हमारी जाति को कितना समय बिताना पड़ेगा? कब मिलेगी इनसे मुक्ति ?
वासव वेदना से व्यथित हो उठा । उसका खून खौल उठा। उठकर खड़ा हो गया । वासव की बहन ने भय से भाई की ओर देखा।
इसके बाद की तीन ईंटें टुकड़े-टुकड़े में विभक्त थीं। टुकड़ों को जोड़कर पढ़ने के लिए कोशिश की गयीं, लेकिन सफलता नहीं मिली । कारण, वे इंटें टूटी हुई मिलीं । इस प्रकार खण्डित भागों में कहानी के बारे में नहीं जान सके । कहानी के फिर प्रारम्भ होने तक, वासव 'स्वर्गपुरी' में था। उस प्रकार रहने का कारण उन खण्डित भागों में रहा होगा। इस बीच वासव के किये गये काम, अपनायी गयी नीतियाँ, किये गये विचार हमें प्राप्त नहीं हो रहे हैं। सामान्य या अपूर्व, एक या कई घटनाएं घटित हुई होंगी। फिलहाल हमें इतना ही है समझें कि उस घटना या उन घटनाओं के कारण वासव स्वर्णपुरी पहुंचा होगा । इससे सम्बन्धित तथ्य और दूसरी जगह मिलने की सम्भावना भी नहीं है । अगर मिल जायें-इससे बढ़कर और क्या चाहिए।
2.
आर्य लोगों के भारत देश में प्रवेश को कई शताब्दियाँ बीत गयीं। कई कारणों से वे इस देश के शासक बन गये। उन्होंने अपने सेवकों को राजा के रूप में रखा। रखने का प्रयास किया। उसी बल से अपनी संस्कृति को भारत देश पर मढ़ दिया। शासन किया। अपने विरोधियों को कठिन-से-कठिन रूप से दण्डित किया। समूल रूप से नाश करने के भी कई प्रयत्न किये । यह तो सच है कि कई जगह, अनेक संदर्भो में, कई कारणों से उन्होंने विजय प्राप्त की। परन्तु 'अनार्य रीति-रिवाज, साहित्य, संस्कृति इत्यादि आमूल रूप से नष्ट नहीं हो पाये । इन दोनों भिन्न संस्कृतियों के बीच शताब्दियों से भयानक से भयानक लड़ाई चलती रही । एक ने दूसरे पर विजय प्राप्त करने के अपूर्व प्रयत्न किये। कई वर्ष बीत जाने पर भी, किसी एक को भी पूर्ण रूप से विजय प्राप्त नहीं हुई। आखिर दोनों संस्कृतियों ने समय के प्रभाव के अनुरूप अपना सिर झुका लिया। लड़ाई कमजोर पड़ गयी । वैषम्य समाप्त हो गये। कुछ प्रमुख सूत्रों पर दोनों के बीच समन्वय स्थापित हुआ। तब से, ये दोनों भारत जाति के आन्तरिक जीवन के अभिन्न अंग बन गये।
इसके उदाहरण के रूप में स्वर्णपुरी के शिवजी के मन्दिर का उल्लेख किया जा सकता है । इस संस्कृतिद्वय में अगर समन्वय न हुआ होता तो उत्तर भारत में- उसमें भी आर्यों ने सर्वप्रथम जिस भू-भाग में प्रवेश किया-द्राविड़ जाति (अनार्य) का शव मन्दिर रहना किस तरह संभव होता? सर्वप्रथम भक्ति एवं श्रद्धा की दृष्टि से महान उत्सव आरम्भ होने पर भी, समय के परिवर्तन के अनुरूप उनका ध्येय (लक्ष्य) बदलने लगा होगा। राजाओं के नियन्ता और निरंकुश बनकर शासन करते समय इस देवता के उत्सव, उन राजाओं के मनोरंजन की क्रीड़ाओं के रूप में परिवर्तित हो गये । जो भगवान है, प्रधान है वह अप्रधान बन गया। दूसरी ओर विलास इत्यादि ने प्रमुखता प्राप्त कर ली।
उत्सव प्रारम्भ होने के लिए दो दिन ही की और अवधि है। इस बीच देशविदेश के राजा, सामन्त, दण्डनायक, सचिव, न्यायाधीश, स्वर्णपुरी में पहुंच चुके हैं। देश-देशों से प्रसिद्ध व्यापारियों ने आकर दुकानें खोल ली हैं। उत्सव का वातावरण पूरे नगर में दिखाई दे रहा है। हर जगह आनन्द-उत्साह उमड़ रहा है।
परन्तु...
ये सभी सारंग तो वैसे के वैसे ही हैं। ऐसे पर्व-दिनों में भी उनके दैनन्दिन जीवन में थोड़ा सा भी परिवर्तन नहीं दीख रहा है। तत्कालीन राजाओं में कुकुर वंशज यह स्वर्ण राजा प्रसिद्ध है । उसके अनुरूप ही, उसके नेतृत्व में चार हजार सारंग जाति के लोग हैं । 'जितने ज्यादा गुलाम उतना धनवान' की मान्यता वाले उस जमाने में अपने गुलामों की संख्या में हर क्षण वृद्धि करने की चाह प्रकट करने में यशपाल की कोई गलती नहीं है। यशपाल इसके लिए भी तड़प रहा था कि अपने अपार धन-दौलत के प्रदर्शन करने के साथ-साथ, इस गुलामी की सम्पत्ति का भी प्रदर्शन हो। इस सुअवसर के लिए वह कई दिनों से प्रतीक्षा कर रहा था। आज वह अवसर आ ही गया । इसे सही तरह से उपयोग करने की कुछ तो जिम्मेदारी है न !
उत्सवों को मंगल कार्य से आरम्भ करना एक परम्परा है। परन्तु यशपाल ने इस वर्ष, उस परम्परा को बदल दिया। कई राजाओं ने यह कामना प्रकट की कि उत्सव का आरम्भ गुलामों के प्रदर्शन से शुरू हो जाय । कुछ ने तो हठ कर ली थी। यशपाल ने इन्कार नहीं किया। उसने अपने सचिव को इसके लिए उचित प्रबन्ध करने का आदेश दिया।
सायं प्रदर्शन-स्थल जन-समूह से भर गया। उच्च वर्ग के लोग राजवंश से एक सीढ़ी नीचे विराजमान हुए थे । जंजीरों से बँधे हए सारंगों को मैदान में प्रवेश कराया गया। उनके प्रवेश से जनसमूह में हर्षोल्लास छा गया। सभी ओर से कोलाहल मच उठा । हर्ष-ध्वनियों से चारों दिशाएँ गूंज उठीं। वलयाकार प्रदर्शन-स्थल के चारों ओर सारंगों को फिराते-चलाते समय दर्शकों में से कुछेक चिल्ला उठे। कुछ लोगों ने जोर से थूक दिया । कुछ ने तो तालियां बजायीं और कुछ ने तो मनोरंजन के लिए पत्थर भी फेंके । घने अन्धकार ने मानव की आकृति को धारण किया हो, ऐसे दिखाई देने वाले सारंग, राजसेवकों की आज्ञानुसार एक साथ रुक गये। जनता यह नहीं जानती है कि इतनी गलामों की सम्पत्ति राजवंश के पास है। साथी राजा भी सही-सही अनुमान नहीं लगा पाये थे। इस दृश्य को देखकर उन्होंने यशपाल की स्तुति की।
यशपाल की आज्ञा के अनुसार प्रदर्शन रोक दिया गया। गुलामों से सम्बन्धित और एक 'दृश्य' शुरू किया गया। इस दृश्य के लिए दो बलिष्ठ सारंगों को पिछले दस दिनों से खाना-पीना दिये बगैर रखा गया था। वे भूख-प्यास से तड़प रहे थे। रंगमंच के बीचोंबीच बर्तन में खाना और कुल्हड़ में पानी रखा गया। पिंजड़ों में रखे गये दोनों सारंगों को रगमंच पर लाया गया। राजसेवक ने उन दोनों को पिंजड़ों से बाहर आने दिया। उतनी दूर से ही पानी एवं खाना देखकर दोनों सारंग, पिंजड़े से बाहर आते ही, पानी के लिए टूट पड़े। दोनों में खींचातानी के कारण पानी नीचे लुढ़क गया। उनके मुखों पर एक क्षण निराशा का भाव रहा । दूसरे क्षण ही वे परस्पर विद्वेष से उबल उठे । लपालप पेट भरने की कोशिश की। एक-दूसरे से जूझ पड़े। उनकी चीखों एवं चिल्लाहटों से सारा जन-समूह भयभीत हो गया। खाना भी मिट्टी में मिल गया। लगता है, वे परस्पर एक-दूसरे को दोषी ठहरा रहे हैं । क्रोध से उनकी आँखें लाल हो गयी हैं। मल्ल-युद्ध करना शुरू कर दिया। एक ने दूसरे को गिरा दिया, फिर मुष्टियुद्ध शुरू हो गया। जंगली जानवरों की तरह एक ने दूसरे को जगह-जगह काट खाया। पहले सारंग ने दूसरे की आँखों को अपनी उँगलियों से उखाड़ दिया। दूसरे ने पहले के गले को काट डाला। फव्वारे के समान रक्त फूट पड़ा।
दोनों हाथ-पैर मारते हुए जमीन पर गिर गये। थोड़ी देर दोनों सारंगों में छटपटाहट बनी रही और फिर हमेशा के लिए ठण्डे पड़ गये। राजसेवकों ने उन लाशों को निकाल बाहर फिंकवा दिया।
आम दर्शकों से बढ़कर राजवंश ने इस दृश्य से अत्यन्त आनन्द का आस्वादन किया। उन्हें यह अन्दाजा नहीं था कि कुल्हड़ भर पानी के लिए और छोटेसे बर्तन में रखे भोजन के लिए ये गुलाम अपने प्राण तक न्यौछावर कर देंगे। उन्हें यह भी समझ में नहीं आया कि वे लोग ऐसा क्यों करेंगे।
तीसरे दृश्य ने राजवंशजों को भी आश्चर्यचकित कर दिया। रंगमंच के बीचों-बीच अग्नि रखी गयी है। ज्वालाएँ उठ रही हैं । अग्नि के कण दूर-दूर तक गिर रहे हैं। एक बलशाली एवं हृष्ट-पुष्ट सारंग को रंगमंच पर लाया गया है। उसका बलिष्ठ शरीर धूप में चमक रहा है। राजसेवकों की चाबुक की मार से शरीर के कुछ स्थानों पर चमड़ा फट गया है। रक्त बह रहा है। सारंग अग्नि से डरते हैं। शायद इसीलिए उस बलवान ने रंगमंच पर आने से इनकार किया हो। परन्तु किसे चाहिए उसका अस्वीकार ? उसके अस्वीकार को कौन मानेगा? वह मानव भी तो नहीं है । वह मात्र एक जंगली जानवर है। गुलाम है ! सच्चा गुलाम !!
एक राजसेवक ने लकड़ियाँ हिलायीं। ज्वालाएँ और अधिक धधक उठीं। बाकी ने उस गुलाम को ज्वालाओं की ओर जाने के लिए विवश कर दिया। वह नहीं जा रहा है । दूर रहने की कोशिश कर रहा है। भय के कारण ज्वालाओं के चारों ओर फिर रहा है । चिल्ला रहा है । दर्शकों से रक्षा करने की प्रार्थना कर रहा है। कितना अच्छा दृश्य है । राजवंश के लोग इसीलिए गद्गद हो रहे हैं। इसकी यातनाओं को देखकर ऐसे हँस उठे कि उनके पेट में बल पड़ गये ।
"निगोड़ा ! आग से इतना क्यों डरता है !"
राजसेवकों को विश्वास नहीं हुआ कि सभी लोगों ने-विशेष रूप से राजवंश के लोगों ने इस दृश्य को बहुत ही आनन्द के साथ देखा होगा। ये सेवक हर क्षण अपने राजाओं की आँखों में असन्तृप्ति की भावना देखते हैं। आज भी उनके राजाओं की आँखों में वही असन्तृप्ति की भावना दिखाई दे रही है । गुलाम को ज्वालाओं के निकट घसीट दिया गया । दुगुनी शक्ति से बह आकृति पीछे हट आयी। यह राजसेवकों के लिए कितना अपमान है ! एक गुलाम आज्ञा का उल्लंघन करे? चार राजसेवकों ने हाथों में चाबुक लिये । गुलाम के शरीर का चमड़ा उधेड़ा जा रहा है। रक्त पानी की तरह बह रहा है। गुलाम भयानक रूप से चिल्ला रहा है । कुछ दर्शक उसके चिल्लाहटों से डर गये हैं । एक राजसेवक ने निशाना बनाकर उसके मुख पर चाबुक फेंक दे मारा। गुलाम गठरी की तरह जमीन पर गिर पड़ा। मुख को दोनों हाथों से छिपा लिया। फिर वहीं पर एक और प्रहार, फिर और एक, और एक "उसकी अंगुलियाँ पिस गयीं। गलाम ने अपने हाथ निकाले। उसका मुख रक्त से सिक्त एक गंद-सा बन गया । यह भी पता नहीं चल रहा है कि नाक कहाँ है, कान कहाँ है। वह एक ही मांस-खण्ड जैसा बन गया। रक्त बहने से आँखें बन्द हो गयी हैं। गुलाम फटी हुई अंगुलियों से खून को पोंछ ले रहा है। फिर भी आँखें खोल नहीं पा रहा है। किसी चीज को देखने की तत्परता से उसने आयी हुई दिशा की ओर देखा। और एक मार''चमड़े से बाहर आकर एक लाल मांस-खण्ड झाँक रहा है । गुलाम चिल्लाया नहीं । आँखें मलकर उसने और एक बार देखा । उसे अस्पष्टता से दिखाई पड़ा । बहुत जोर से उसने कुछ कहा। और एक मार" अब तक तो वह किसी-न-किसी तरह सह सका । अब वह सह नहीं सकेगा। भयानक मार से अगले ही क्षण में, गुलाम आग में गिर पड़ा। ज्वालाओं ने उसे घेर लिया। कुछ क्षण के लिए एक आकार उन ज्वालाओं में तड़पता दिखाई पड़ा लकड़ियाँ तितर-बितर हो गयीं। आग क्रमानुगति से बुझ गयी है। गलाम के जल जाने की दुर्गन्ध से युक्त धुआँ चारों ओर फैल गया है। उस दिन का कार्यक्रम समाप्त हो गया। महोत्सव का आरम्भ हो गया।
3.
दोपहर का समय । धूप ऐसा ताप दे रही थी मानो नागरिकों पर गुलामों का क्रोध हो । राज-नगर लगभन प्रशान्त है। दासियाँ एक कोने में जाकर आराम कर रही हैं। तभी एक 'नागिनी' ने युवरानी 'जयन्ती' की सभी तरह की सेवा करके थक जाने के कारण जिस किसी तरह अपने शरीर को एक कोने पर ले गयी। शरीर को उस कोने पर ले जा पाने की उसमें आशा तक नहीं थी। यहाँ तक कि नागिनी ने उस प्रदर्शन को न देखने के लिए जितना प्रयास करना चाहिए, किया । फिर भी एक गुलाम के प्रयत्न, उसमें भी रनिवास में बन्धित गुलाम स्त्री के प्रयत्न, कैसे सफल हो जायेंगे?
अपनी जाति के लोगों की पशुओं की नाई रंगमंच पर फिराते समय उसने भी दूसरी दासियों की तरह देखा। तब उसमें जो भाव उत्पन्न हुए आश्चर्य चकित कर गये। वहां हजारों लोगों के हर्ष के साथ तालियां बजाते समय, चिल्लाते समय, उसकी जाति के लोग अपमान से गड़ गये, सिर झुका लिये। उधर आनन्द से गदगद होते हए नागरिकों को, इधर विचित्र जीवों की तरह प्रदर्शित किये जा रहे अपने लोगों को देखकर नागिनी का हृदय क्षुब्ध हो उठा ।
यह उसके लिए नया नहीं है। उसने सुना था इस प्रकार के मनोरंजन के कार्यक्रम नागरिक अकसर मनाते हैं । तब किस प्रकार के भाव उत्पन्न हुए, उसे याद नहीं है। परन्तु आज जो घटना घटी उसने उसके मन को विकल बना दिया। राजकुमारी के साथ उसने भी झरोखे से इस मनोरंजन का वीक्षण किया था। दुष्ट ! राजकुमारी ने जब हर्ष प्रकट किया तब उसने भी कुछ ऐसा ही किया था। जब राजकुमारी ने 'शाबास' कहा तब उसने भी 'शाबास' कहकर प्रशंसा की। वह क्यों इतनी पतित हो गयी? क्यों तिरस्कार नहीं कर सकी?
वह उनमें कई लोगों को नजदीक से जानती है। उसने चाहा कि उन सभी को गला फाड़कर पुकारे । परन्तु वह पुकार नहीं सकी। उसी भीड़ में उसने अपने भाई को भी देखा । लाखों के बीच में रहने पर भी वह अपने भाई वासव को पहचान सकती है। तब तक वह यह भी नहीं जान सकी कि वासव बन्दी बन गया है। वह यही सोच रही है, मुझ जैसा न होकर मेरा भाई अभी तक स्वतन्त्रता की हवा सूच रहा है । शायद वासव को यह पता नहीं चला होगा कि उसकी बहिन उनके हाथों में फंस गयी है। अगर पता चल जाय तो वह किसी-न-किसी तरह मिलने का प्रयास किये बिना नहीं रह सकेगा । वह तो सोच रही है, परन्तु वह क्या कर सकती है ? किस प्रकार सम्भव है ? उसने सुना कि आज-कल गुलामों को बड़ी-बड़ी निगरानी में रखा जा रहा है। यह भी सुना कि रक्षा के लिए नयेनये कदम उठाये जा रहे हैं। किस प्रकार आयेगा वासव?
नागिनी का दिल दुःख से उफन पड़ा। भय से चारों ओर देखकर रो उठी। मन थोड़ा शान्त हो गया । नागिनी ने हाल ही में यह जान लिया कि गुलामों को रोने का अधिकार भी नहीं है। कुछ ही दिन पूर्व की तो बात है, स्त्रियों को जीवित ही भूमि में दफना दिया गया। जो सबके सामने रोयी थीं, उनकी समाधियाँ अब भी झरने के निकट दिखाई दे रही हैं । भाई थोड़ी ही दूररे स्थान पर बन्धित बनाकर रखा गया है। यह बात वह जानती थी। भाई यह नहीं जानता कि उसकी बहिन यहाँ पर है, जानने की सम्भावना भी नहीं है। कितना दर्द है ! मानव-जन्म लेने के कारण ही हमें इतनी यातनाएँ भोगनी पड़ रही हैं ! पशु एवं पक्षियों को यह समस्या नहीं है।
"हे भगवान ! हमें मानव-जन्म क्यों दिया ? क्यों हमें ऐसा सता रहे हो?"
इतनी भयानक घटना ! गुलाम को जला डालना भाग्यवश वह उस समय वहाँ नहीं थी। राजकुमारी ने कुछ काम के लिए अन्दर भिजाया था। आने तक, उसका मुख रक्त-खण्ड बन गया है । वह रक्त से सनी अपनी आँखों को मलता हुआ किसी के लिए चारों ओर देख रहा है । शायद उसका आत्मीय या कोई बन्दी जन रहा होगा ? शायद उसने उनको देखने की आकांक्षा से इस तरह चारों ओर देखा होगा ? अपनी प्यारी पत्नी, अपने बच्चे, सगे-सम्बन्धियों, अपने माता-पिता न जाने किसके लिए ! मन पिघल गया। तुरन्त पिता की याद आ गयी । उसका पिता भी लगभग वैसा ही रहता है। वैसे ही कमर पर हाथ रखकर भाई के लिए प्रतीक्षा करने की बात याद आ गयी। वह थर-थर काँप उठी। उफनकर आते दुःख को रोक न सकी। अगर बगल में खड़ी दासी ने इशारा न किया होता तो वह चीखकर रो पड़ती। तीसरी समाधि बनाने की आवश्यकता नहीं रही।
तो फिर भाई कहाँ है ? वह कैसे मिलेगा? अगर एक बार उसे भाई से मिलने का अवसर मिल जाय तो इससे बढ़कर जिन्दगी में कोई इच्छा नहीं है । ओहो ! एक बार'""एक ही बार अपने भाई को देख ले, बस ।
4.
जलती हुई अपनी आँखों को वासब ने बल से पोंछ लिया । जंजीरें आवाज कर रही हैं । वासव ने उनकी ओर तीखी नजरों से देखा । लम्बी साँस ली। आधी रात बीत गयी। सब लोग सो रहे हैं। काजल की तरह रात छा गयी है । लोहे के दरवाजे के सुराख से एक नक्षत्र टिमटिमाता हुआ दिखाई पड़ा। जब तब दूर से राजसेवकों के चलने की आवाज भी सुनाई पड़ जाती है। हल्के-से प्रकाश की लकीर एक क्षण के लिए दरवाजे के सुराख से अन्दर तक फैलकर अँधेरे में विलीन हो गयी।
"पहरेदार का दीप"-सोचा वासव ने।
हवा न आने से दुर्गन्ध छा गयी है । नाक फट रही है । खुले वातावरण की हवा सधे कितने दिन हो गये ? नीले आकाश को, आलसीपन से घूमने वाले बादलों को देखकर, जाने कितने दिन बीत गये? चाँदनी की रातों में बहन को 'कौए' की कहानियाँ सुनाते जो दिन बिताये थे-उन्हें याद करने पर वे सब सपने लग रहे हैं। अब यह कहा नहीं जा सकता वैसे दिन बिताये भी होंगे." यह सन्देह महारोग की तरह सता रहा था । वह सोच रहा था कि हर रात “अब अनुभव करने वाली ये नारकीय यातनाएँ मिथ्या हैं, स्वप्न की भ्रान्ति के समान हैं, जागने के बाद यह दुस्वप्न भंग हो जायेगा और अपना कहीं स्वतन्त्र जीवन फिर मिल जायेगा । नहीं ! यह सचमुच स्वप्न तो नहीं है ! तो फिर शायद अपना अतीत जीवन ही स्वप्न रहा होगा।
वासव को लगा कि एक-एक महान् अनर्थ के साथ-साथ, कुछ-न-कुछ भलाई तो रहेगी ही। परस्पर विद्वेष से पीड़ित अपनी जाति में आज बिलकूल भी न दिखाई देने वाली एकता को वासव ने अनुभव किया। इसके लिए अतीत में कई चतुर सारंग नेता साहस प्रदर्शित करते हुए भी पराजित हुए थे । उनका जीवन इसके लिए शहीद हो गया। उस दिन उन्होंने जिसे प्राप्त करने की कोशिश की आज वे कोशिशें सफल बन गयीं। सभी लोगों ने उत्पीड़नों से युक्त जिस जीवन को बिताया उसी ने उनमें एकता की भावना जगाधी। यही भावना कुछ दिन पहले भी विद्यमान रही होती तो इस प्रकार गुलाम बनकर जीने की आवश्यकता होती ? अगर गुलाम बनकर जीना पड़े"शायद समस्त जाति को इस प्रकार जीने की आवश्यकता ही नहीं आती।
जो भी हो, यह भी एक अच्छा गुण है । इसके लाभ और हानि के बारे में ठीक-ठीक तरह से बताना साहस का कार्य ही होता है । परिणाम आचरण के ढंग पर निर्भर रहता है। सौभाग्य से आज सभी सारंग अपने प्रति अपार विश्वास प्रकट कर रहे हैं। अगर उनसे कोई-न-कोई काम करने के लिए पूछा जाय तो वे करने के लिए तैयार हैं। उन्होंने वचन दिया है कि इसके लिए सभी परिस्थितियों का धीरज के साथ सामना करेंगे। अपना प्रचार व्यर्थ नहीं गया, उन पर गहरा असर था। हमारे लिए भी तो वही चाहिए।
पिता की मृत्यु से दुःखी अवश्य हूँ, फिर भी, उनकी आहुति से अपूर्व चेतना उसकी जाति में आयी है। इसे सही रूप से उपयोग में लाने की जिम्मेदारी तो मेरी ही है।
इधर एक लोभ भी है-यही कि 'नागिनी' रनिवास की बन्दी के रूप में है। इसलिए राजनीतिक रहस्य बहिन पहले ही जान सकती है। पहरेदारों की सहृदयता से वे रहस्य हम तक पहुँच सकते हैं। आने वाले खतरों की जानकारी पहले से मिल जाय तो उनके लिए उचित उपाय भी सोचे जा सकते हैं। फलस्वरूप कुछ तरह की बाधाओं से अपनी जाति बचायी जाती है। इतने समय के बाद आखिर उन्हें एक नया रास्ता मिल गया। भगवान की कृपा है।
वासव के विचारों का प्रवाह अचानक रुक गया । निकट में किसी चीज के रेंगने की आवाज आयी । वासव ने आँखें खोलकर देखा । धने तमस मे कुछ भी नहीं दिखाई पड़ा । होगा कोई क्षुद्र जन्तु । रात में खाने के लिए निकला होगा। इस तरह के पुराने जेलखानों में ऐसा होना साधारण-सी बात है। आने वाले जन्तु का सामना करने के लिए वासव तैयार था । रेंगने की आवाज थोड़ी देर के लिए रुक गयी, फिर सुनाई पड़ी। वासव सावधान हो गया। मानव के उच्छ्वास-निःश्वास की आवाज''वासव भी रेंगता हुआ उस आवाज की ओर बढ़ा। दो सिर एक-दूसरे से टकरा गये ।
"कौन?"
"मैं।"
"ओह !"
फिर फुस-फुसाना । दोनों रेंगते हुए एक कोने में खिसक गये। चलकर न जा सकने की बात नहीं है । चलें तो जंजीरों की आवाज होती है उनका भय है कि उस आवाज को सुनकर राजसेवक आ सकते हैं । गुलाम रात के समय कहीं भी धूमते हुए दिखाई न दें-यह नया आदेश हाल ही में लागू किया गया है । इस आदेश का विरोध करने वाले चार सारंगों को शेर का भोजन बनना पड़ा।
"तुम्हारी राय क्या है ?" एक गले से इतनी धीमी-सी आवाज हुई कि बोलने वाले को भी स्पष्ट रूप से सुनाई नहीं दी।
"एकदम विद्रोह कर देंगे।"
" च्!" पहले स्वर ने बात को टाल दिया, "विद्रोह करेंगे तो हमारा सर्वनाश हो जायेगा। हमारा मालिक हमको मिट्टी में मिला देगा।"
"फिर..?"
"सुनो तो सही "हम सबका एक साथ विमुक्त होना सम्भव नहीं है। पहले हममें से सम्भवतः बहुत कम लोगों को शायद कुछ ही लोगों को स्वतन्त्रता मिल सकेगी। कुछ ही दिनों में हमारा मालिक हमें बेचने जा रहा है। जो ज्यादा रकम देगा उसी के हाथ बेच दिये जायेंगे। तब उस रकम को देकर क्यों न हमारे लोग अपने लोगों को ही खरीद लें । अर्थात् प्रधान लोगों को। एक-दो जो भी हुए काफी हैं। वे फिर कुछ रकम देकर और कुछ को खरीद लेंगे। जितने लोगों की आवश्यकता है उतने बाहर आ जाने पर गुप्तरूप से इसके प्रति विद्रोह करके हम अपने सभी लोगों को मुक्त करा सकेंगे। निकलने के लिए सब प्रकार से प्रबन्ध किया जायेगा। इस अवसर पर कई सारंगों को अपने प्राण गंवाने होंगे। फिर भी मेरी राय है कि सब लोगों की बजाय कुछ का दिनाश अच्छा है। "तुम क्या कहती हो?"
"अच्छा, तो फिर रकम ?" नागनी ने कहा।
"रनिवास में राजवंशजों के उपयोग के लिए कई नराशियाँ हैं । वस्तुओं को हमें स्पर्श नहीं करना है। अन्यथा निशान से पता चल जायेगा। पहरेदारों को अपने सौन्दर्य का प्रलोभन देकर तुमने उन्हें वश में कर लिया है। उस समय उन्हें वहाँ से दूर ले जाने की जिम्मेदारी तुम्हारी है ।"
"बाप रे ! उतना काम !!"
"इश्श! धीरे से बात कर", फिर उस गले ने शुरू किया, "इतनी डरपोक है तो"हम अपनी योजनाओं में से एक को भी सफल नहीं बना पायेंगे। धीरज और किसी से भी न डरने वाली आत्मशक्ति होनी चाहिए । कार्य ठीक-ठीक हो गया तो कुछ भला हो जायेगा । अगर नहीं पकड़े गये तो उस एक को मरना पड़ेगा। हमें तो वैसे भी मरना ही है, एक सत्कार्य के लिए प्रयत्न करते-करते मरना · व्यर्थ नहीं होगा क्या कहती हो?"
"रनिवास कौन जायेगा?"
"तुम ।"
"बाप रे! मुझसे नहीं होगा।"
"तो फिर मैं जाऊँगा । सावधान ! यह किसी को पता न चले। दुर्भाग्य से अगर मैं पकड़ा गया तो तुम में से कोई भी मुझ पर सहानुभूति नहीं प्रकट करोगे। अपने सभी लोगों को बता देना । धीरे-धीरे रेंगते हुए जा। जंजीरों की आवाज न होने दे।"
बहुत बड़ी चीज जमीन पर रेंगती हई थोड़ी दूर जाने के बाद खड़ी हो -गयी । वासव ने लम्बी सांस ली।
5.
जैसा सोचा वैसी ही सभी परिस्थितियाँ अनुकल हो रही हैं । रनिवास के पहरेदार 'नागिनी' को बगीचे में ले गये । भयानक सन्नाटा ताण्डव कर रहा है । वासव आहिस्ता-आहिस्ता ऊपर चढ़ रहा है । (यहाँ स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया कि हथकड़ियाँ निकाल दी गयी हैं या नहीं। पहली कहानी में भी यह नहीं बताया कि उसके दोनों हाथ हथकड़ियों से बन्धित नहीं थे । इसके लिए सबल प्रमाण भी नहीं है कि राजा या उनके अधिकारी ने इसके बारे में पूछताछ की)। दीप थककर हिल रहे हैं । नागिनी ने विस्तार से बता दिया था कि दीपों के प्रकाश से बचते-बचते कैसे जाना, किधर जाना, धन-राशियाँ कहाँ हैं । वासव ने उन सबको एक बार याद कर लिया। उन प्रतीकों को ध्यान से देखते आगे बढ़ रहा है । हर एक चीज उसे अचम्भे में डाल रही है । वह अपने-आपको -संभालते हुए कर्तव्य की ओर अग्रसर हो रहा है । उसने कभी इस तरह के अनुभव की कल्पना भी नहीं की। कम-से-कम सपने में भी नहीं देखा। (क्या कल्पनातीत सपने आते हैं ? वैज्ञानिकों का कथन है कि किसी-नकिसी स्वप्न के लिए भी मूल बीज वास्तव में रहेंगे) । समय बहुत द्रुतगति से चल रहा है । पहरेदार ने समय की सूचना देते हुए घण्टा बजाया । रनिवास के पहरेदारों के वापस आने की सम्भावना है, इसी बीच उसे अपना काम पूरा कर लेना चाहिए।
एक-एक पग आगे बढ़ते समय, न बता सकने वाली व्याकुलता उसके मन को सता रही है। धोरज बाँधकर आगे बढ़ा। एक कमरे से बहुत बड़ा प्रकाश बाहर आ रहा है । नागिनी के कथन के अनुसार, वह राजकुमारी का शयनागार होना चाहिए। जयन्ती के सौन्दर्य के बारे में नागिनी ने कई बार बताया था। बताया था कि उसके अंग कैसे रहते हैं, उसके स्पर्श के लिए राजवंश के कितने युवक तड़पते हैं, वह उन्हें किस प्रकार का जवाब देती है। उस दिन उसे जयन्ती को देखने की इच्छा नहीं थी। अब अवसर मिल गया है इसलिए इसका सदुपयोग कर लेना चाहिए। वासव धीरे से खिड़की तक पहुंचा। झाँककर जयन्ती को देखा। उसे लगा कि नागिनी झूठ बोली थी। जो सौन्दर्य है उसमें सौ प्रतिशत भो नागिनी ने नहीं बताया। वासव विचलित हो गया। वह उस मृदुल तल्प पर सोने वाली आकृति को मानव-आकृति नहीं मान सका। जयन्ती उसे ऐसी दिखाई पड़ी जैसे अनादि मानव का विरह गीत हो, मानो प्रशान्त निशान्त सुखान्त स्वप्न-खण्ड हो। रत्नदीप प्रदीप्त होकर प्रकाश दे रहे हैं। स्वर्ण-शय्या उस प्रकाश से झिल-मिल लज्जा प्रकट कर रही है। वासव को झट से एक बात याद आ गयी । उस सोने की खानों से खोदकर निकालने वाले गलाम आज घने अन्धकार में, भूखे पेट से जानवरों की तरह गुफा जैसे जेलखाने में जीवनयापन कर रहे हैं। जयन्ती उनके लिए तनिक परिश्रम भी किये बिना, उन्हें स्वेच्छा से उपभोग कर रही है। वह गुस्से से आग-बबूला हो गया । उसने सोचा -- अभी यह उपयुक्त अवसर नहीं है। उसने माना-एक-न-एक दिन हम भी इस स्थिति तक पहुँच सकेंगे । प्रकाश से छिपते-छिपते खजाने की ओर बढ़ा। अधिक प्रयास भी नहीं करना पड़ा। जितनी स्वर्ण-मुद्रिकाओं को वह लाद सकेगा उतनी उसने एक गठरी में बांध ली। दो-एक क्षणों में निकलना चाह रहा था कि कई भाव उसके मन में समुद्र की लहरों के समान उठ खड़े हुए। सुन्दर और आनन्दमय भावी जीवन स्पष्टत: आँखों के सामने नाचने लगा। आनन्द से शरीर पुलकित हो उठा । गठरी की ओर फिर एक बार देखा । तभी दूर से कुछ आवाज "वासव का दिल थर-थर काँप उठा । झट से दूसरी ओर निकल गया। आवाज क्रमानुगति से निकट आती जा रही थी। भविष्य अन्धकारमय, भयानक एवं कड़वा लगने लगा। सिर चकराने लगा। मन में लचल दोनों हाथों से उसने अपनी आँखों को बन्द कर लिया।
एक जोरदार चाबुक की मार ने उसे चेतन बना दिया।
पीड़ा से तड़पता हुआ वासव झट खड़ा हो गया। चारों ओर राजसेवक । उसे कुछ नहीं सूझा । वह पगला गया। यह सपना नहीं है, इसे जानने के लिए उसने अपने-आपको जाँच लिया और एक चाबुक की मार। चमड़ा फट गया। जमीन पर लाल लहू की लकीरें बहने लगीं।
"कैसे आया?"
"क्यों आया?"
वासव कुछ बोला ही नहीं।
और इस बार का चाबुक उसके कुछ चमड़े को भी लेता आया।
यशपाल आग-बबूला हो गया। "गुलाम...नीच...सूअर...रनिवास में प्रवेश ? राजसेवक क्या कर रहे थे?"
राजसेवक ने उत्तर नहीं दिया।
झुका हुआ सिर उठा नहीं।
यशपाल की नजर नागिनी को ओर गयी। उसने कुछ इस प्रकार अपनी भृकुटियाँ टेढ़ी की कि उसे कुछ रहस्य का पता है।
"अच्छा, तो यह बात है", यशपाल ने सिर हिलाते हुए कहा, "इस जारिणी के लिए यह रनिवास आया होगा।"
वासव ने कुछ कहने का प्रयत्न किया कि तभी नागिनी ने इशारा कर दिया।
"सूअर !"
नागिनी हिल उठी उस चाबुक की मार से ।
"सच बता !"
नागिनी ने कहा, "मुझे माफ कीजिए...इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। मैंने इस रहस्य को राजकुमारी के आदेशानुसार ही नहीं बताया। पहरेदार भी इसे जानते हैं। फिर भी रनिवास का रहस्य होने के कारण बाहर तक नहीं आने दिया।"
यशपाल का मुख मुरझा गया।
"रहस्य ?"
"हाँ, महाराज।"
"क्या है वह ?" नागिन ने निर्भयता से सारी बातें बतायीं-"महाराज! वासव का रनिवास में प्रवेश करना, यह पहली बार नहीं है । कुछ दिन से वह जयन्ती के शयन-कक्ष में आता-जाता रहा है। उन दिन गुलामों का प्रदर्शन देखने के बाद से, राजकुमारी जी वासव के प्रति मोह प्रकट करती आ रही हैं । 'हाँ' या 'न' कहने का अधिकार मुझे तो नहीं है। स्वयं महाराज ने आदेश दिया कि मालिक को आज्ञा के अनुसार काम करना मुझ दासी का कर्तव्य है । नहीं तो, रनवास की रक्षा के मामले में, असावधानी से काम करने वालों को मृत्युदण्ड मिलता है-यह बात जानकर भी ये राजसेवक इसे कैसे अन्दर आने देते ? क्यों आने देते ? धन का लालच कहें तो गुलामों के पास धन कहाँ होता है ?"
यशपाल हताश हो गया। गुस्से से उबल पड़ा ।जयन्ती विस्मित होकर देख रही थी। पहरेदारों ने नागिनी द्वारा कही गयी सारी बातों को सच बताते हुए सप्रमाण साबित की (अपने प्राण बच जाने से मन-ही-मन सन्तोष प्रकट कर रहे थे।) राजा ने कारागार के रक्षकों को बुला भेजा । तत्काल यह समाचार पहुंचाया गया। उनकी इस असावधानी से किस तरह का दण्ड भोगना पड़ेगा" इस बात का ध्यान आते ही व्यथित होने वाले उन्हें इस समाचार ने अत्यन्त आनन्द प्रदान किया। उन्होंने भी नागिनी की बात सही है -यह निवेदन किया । यह भी बताया कि कुमारी जयन्ती ने उन्हें स्वयं रनिवास बुलाकर वासव के सम्बन्ध में एक और ढंग से बताया था।
शनैः-शनैः यह समाचार सारे नगर में फैल गया। दुतगति से सारे राज्य में व्याप्त हो गया। कई लोगों ने कई तरह व्याख्याएँ की। शत्रु-राजाओं ने कहा कि यशपाल रनिवास की स्त्रियों के लिए ही गुलामों की देख-भाल कर रहा है। कुछ ने यह कामना प्रकट की कि परम्परा से चली आ रही विवाह की आचार-संहिता यशपाल किस तरह पूरी करेगा।
कुकुर वंशजों का रिवाज यह है कि रनिवास में ऐसे प्रेम-प्रसंग होने पर उसे न्यायसभा के सामने प्रस्तुत करना, न्याय-सभा के निर्णय के अनुसार आचरण करना चाहिए। उसी प्रकार आज भी न्याय-सभा का प्रबन्ध किया गया है। हजारों लोगों से सभा भर गयी। अन्य नौकरों के समान यशपाल भी आम लोगों के साथ बैठ गया। एक तरफ वासव खडा हआ है। उसके ठीक सामने जयन्ती खड़ी हुई है । राजवंश की ओर से प्रधानमन्त्री ने खड़े होकर विनती करते हुए कहा कि राजपुत्री सुकोमल है इसलिए वह खड़ी नहीं रह सकती, बैठने की अनुमति दी जाय । न्यायाधीश ने इसे स्वीकार नहीं किया। "न्यायालय में जयन्ती राजकुमारी के रूप में नहीं आयी। अपराधिनी के रूप में लायी गयी। अपराधी के अपराध का निर्णय होने तक उसे नहीं बैठना चाहिए। इसके लिए न्यायशास्त्र अनुमति नहीं देता।" न्यायाधीश ने कहा !
तत्पश्चात् गवाहों से पूछताछ की गयी। जयन्ती से प्रश्न किया गया। जयन्ती ने अपने को निरपराध बताया। यह सब अधर्म, अन्याय बताया। बाद में न्यायाधीश ने वासव से प्रश्न किया ।
"धर्ममूर्ति !" कहा वासव ने। “मैं गुलाम हैं। अपने मालिक के आदेशानुसार चलना मेरा कर्तव्य है । मैं कभी भी अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हुआ। किसी कार्य के पाप-पुण्य से, धर्म-अधर्म से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। मालिक का यादेश पालन करना ही मेरे लिए न्याय और धर्म है।
"अच्छा", न्यायाधीश ने कहा' "इन गवाहों के कथन भी प्रमाणित कर सकोगे ?"
"अगर आप अभय दान करें !" कहा वासव ने।
सारी सभा जैसे जड़ बन गयी।
"विपत्ति में हूँ राजकुमारी जयन्ती...।
न्यायाधीश ने आदेश दिया कि 'राजकुमारी' शब्द का प्रयोग नहीं किया जाय।
"हाँ", वासव ने कहा, "विपत्ति में हूँ, ऐसा जयन्ती झूठ भी बोल सकतीं। वह उन जैसी औरतों के लिए स्वाभाविक है। जाने भो दीजिए'''एक बात और। जयन्ती कह रही है कि मुझे नहीं मालूम । मैं कह रहा हूँ कि हम दोनों के बीच बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। एक प्रियतम के अलावा दूसरा कोई न जान सके ऐसे चिह्न जयन्ती के शरीर पर हैं । वे हैं "आप जाँच करके सत्य-असत्य का निर्णय कीजिए, मालिक।"
जयन्ती को एकान्त्र स्थान में ले जाया गया। जाँच करने वालों ने आकर निवेदन किया कि वासव ने जिन चिह्नों के बारे में बताया वे सब उन उन स्थानों पर हैं।
इतना ही नहीं, वासव ने कहा, "जयन्ती वर्तमान में कन्या नहीं रह गयी है कुछ ही दिनों में वह माँ बनने वाली है।"
परीक्षकों ने उसे भी सत्य ठहराया।
यशपाल अपमान से गड़ गया। वासव के मुख पर मुसकुराहट उग आयी ।
"महाराज ! इससे बढ़कर आपको और कितने प्रमाण चाहिए ? अब फैसला आपके हाथ है ।"
न्यायाधीश ने न्याय सम्मत फैसला दिया-
"मैं भी मानता हूँ कि जयन्ती दोषी है, न्यायशास्त्र यह नहीं कह रहा है कि प्यार करना अपराध है । गुप्त रूप में किये गये काम को सबके सामने नहीं किया, 'कहकर न्यायालय में झूठ बोली । इस अपराध के लिए जो दण्ड आम जनता को दिया जायेगा, वही दण्ड उसे भी दिया जायेगा । जयन्ती को वासव की पत्नी के रूप में मैं अपना फैसला सुना रहा है। कुकुर वंश के रीति-रिवाज के अनुसार जयन्ती को आज से वासव की पत्नी बनना होगा। यह चेतावनी भी दी जा रही है कि वंश के रीति-रिवाज का भंग करना न्यायशास्त्र स्वीकार नहीं करता है।"
6.
इस फैसले पर वाद-प्रतिवाद, मण्डन, तर्क-वितर्क आदि हुए। कुछ समय तक देश-विदेश में यह लम्बी चर्चा का विषय बना रहा।
वासव ने अपनी पत्नी को साथ लेकर, कारागार जाना चाहा । अस्वीकार करने का अधिकार पत्नी होने के कारण जयन्ती को नहीं है। उसके साथ जयन्ती को भी कारागारवास भोगना पड़ेगा। तो फिर कानून के अनुसार एक और समस्या खड़ी हुई। गुलामों पर वर्तमान में जो कड़े नियम हैं... वल उन्हीं के लिए सीमित किये गये हैं। गुलामों के सिवाय दुसरों पर लागू करना असम्भव है । इसके अनुसार, जयन्ती गुलाम नहीं है, इसलिए वासव को कारागारवास में जाने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु वह अपने यथास्थान जाने के लिए हठ कर रहा है। न्यायशास्त्र यह घोषणा कर रहा है कि पति की आज्ञा का उल्लंघन करना बहुत बड़ा अपराध है।
यशपाल क्षुब्ध हो उठा। इस पारिवारिक जीवन के प्रति विरक्ति की भावना पैदा हो गयी, राज्य त्याग कर, पत्नी सहित तपोभूमि के लिए चल पड़ा। यशपाल के पुत्रहीन होने के कारण राज्य जयन्ती को मिला। वही शासिका बन गयी। परन्तु राजवंश की स्त्रियाँ पराये पुरुषों की नजरों में नहीं आनी चाहिए। (न्याय की जाँच के समय सबके सामने आना इस वर्ग में नहीं होता। फैसला देने तक कौन पर-पुरुष है, कौन स्वीय पुरुष है, इसका निर्णय कैसे हो?) उसके प्रतिनिधि के रूप में वासव ने ही शासन किया।
तब से गुलाम राजा बन गये। राजा के रूप में उसने शुरू-शुरू में कुछ कठिन आदेशों को लागू किया । उसने आदेश जारी किया कि अपने राज्य में कहीं भी 'गलाम' शब्द का प्रयोग न किया जाये किसी-न-किसी रूप में या किसी भी सन्दर्भ में उस शब्द का उच्चारण करने पर भी कठिन से कठिन दण्ड दिया जाय । आदेशों के विद्रोह का दमन किया। समस्त देश में पढ़ाई की व्यवस्था को निःशुल्क बना दिया। सब के साथ सारंग जाति ने भी(गुलाम जाति नहीं है)विद्या अध्ययन किया । अपने-पराये का भेद न प्रकट करके सबको दान दिया। परन्तु सदा वासव कोई मानसिक व्यथा से विकल हो उठता है। उसने जयन्ती से कभी भी वैवाहिक सुख की आशा नहीं की। कुछ वर्षों तक उसने जयन्ती को देखा ही नहीं। अपनी जाति की स्त्री से विवाह करके सन्तान की प्राप्ति की। उसी सन्तान को राज्य सौंप दिया । जयन्ती का पुत्र-विवाह के समय ही राजकुमारी गर्भवती थी। यह बात न्यायालय में ही निश्चित हो गयी थी । इस बच्चे के पिता के बारे में जयन्ती ही जानती है। जानने का प्रयास वासव ने भी नहीं किया। सारंगों के हाथ मारा गया । कुकुर जाति जयन्ती की मृत्यु से समाप्त हो गयी। अपनी इस स्थिति का कारण बनी जयन्ती के नाम से वासव ने महा नगर का निर्माण कराया । राजधानी को स्वर्णपुरी से जयन्ती नगर में बसाया। उसके -बाद राजा बने सारंग राजाओं ने भी जयन्ती को राजरानी बनाकर अपनी श्रद्धा-भक्ति प्रकट की।
मृतिका-पात्रों में यहाँ तक ही लिखा गया है । समयावधि का भी निर्णय लगभग हो गया। सड़कों के बीच में, अन्य स्थानों में प्राप्त शस्त्र-खण्डों के आधार पर अवलोकन किया गया। वे ऐसे लग रहे हैं जैसे अशोक के सैनिकों के हों। इतिहास यह बता रहा है कि उस समय दूसरी किसी सेना के पास न रहने वाली शस्त्र सम्पत्ति अशोक के पास थी। इतिहास ने जिस रूप में वर्णन किया वह सब उन शस्त्र खण्डों से मिलते-जुलते हैं । विद्वान मानते हैं कि दूषणों से भरे ताम्र आदि शिलालेख अशोक के ही होने चाहिए । लगता है अशोक जिस विधान से राजा बना, उस प्रकार ललकार कर, रणक्षेत्र में आमन्त्रित कर, सर्वनाश करना अशोक के लिए कोई नयी बात नहीं है । अशोक के चरित्न एवं अन्य प्रमाण यह साफ-साफ बता रहे हैं कि उसने ही समस्त नगर को भस्मीभूत किया। कलिंग राज्य तक घुस कर आयी अशोक की सेना, जयन्ती नगर के नाश किये बिना रह गयी होगी, यह असम्भव है।
अर्थात इस सारंग राज्य का अन्त ईसा पूर्व तीसरी शती में हुआ । लगभग दो सौ वर्ष तक सारंगों ने शासन किया । इसका तात्पर्य यह है कि वासव ईसा पूर्व पाँचवीं शती में रहा होगा। समस्त जगत् के लिए पूज्य गौतम बुद्ध भी उसी शती के हैं।
एक बात तो सच है ! हर पीढ़ी अपने लिए अपेक्षित जनों का ही सृजन करती है । पांचवीं शती में इस प्रकार की नृशंसपूर्ण सामाजिक व्यवस्था होने के कारण ही करुणासिन्धु गौतम बुद्ध का उद्भव हुआ होगा।