वासवदत्ता : आचार्य चतुरसेन शास्त्री
Vasavadatta : Acharya Chatursen Shastri
(वासवदत्ता महाराज उदयन की कला पर आसक्त होकर उनसे नृत्य-संगीत सीखने लगी। दोनों में असीम प्रेम उत्पन्न हो गया। और अन्त में विवाह भी। इस कहानी में उदयन और वासवदत्ता की तत्कालीन भावनाओं का श्रेष्ठ चित्रण है।)
एक समय कौशाम्बी के राजकुमार उदयन शिकार खेलने वन में गए। वहां जाकर उन्होंने देखा, एक मदारी एक बहुत बड़े और सून्दर सर्प को ज़बर्दस्ती पकड़े लिए जा रहा है। सर्प उससे छुटने को छटपटा रहा है। राजकुमार उदयन को सर्प पर बड़ी दया आई और उन्होंने पुकारकर मदारी से कहा—अरे हमारे कहने से इस सर्प को छोड़ दे।
इसपर मदारी ने हाथ जोड़कर विनयपूर्वक राजा से कहा—मालिक, यह तो मेरी जीविका है। मैं बड़ा गरीब आदमी हूं। सदैव सर्पो का खेल दिखा-दिखाकर पेट भरता हूं। पुराने सब सर्प मर गए, अब बहुत ढूंढ़ने पर इस वन में मन्त्र और ओषधियों के बल से मैंने यह सर्प पकड़ पाया है। भला इसे मैं कैसे छोड़ दूं।
इसपर राजकुमार ने हंसते हुए अपने हाथों के सोने के कड़े उतारकर उस मदारी को दे दिए। और सर्प को छुड़वा दिया।
मदारी सोने के कड़े ले, प्रसन्न हो, राजकुमार को प्रणाम कर उनका जयजयकार करता हुआ चला गया।
उसके चले जाने पर सर्प एक वीणाधारी दिव्य पुरुष हो गया, और राजकुमार के निकट आकर बोला—मैं वासुकि नाग का बड़ा भाई वसुनेमि नाग हूं। तुमने मुझे छुड़ाया है और मेरी रक्षा की है, इसलिए मैं तुम्हें मंजुघोषा नाम की यह वीणा देता हूं। यह दिव्य वीणा है। मैं तुम्हें ऐसी विधि बताता हूं कि तुम इसे एक ही काल में तीन ग्रामों में बजा सकोगे। जब यह वीणा तीन ग्रामों में एक ही काल में बजाई जाएगी तो विश्व के सब चराचर उसकी गत सुनकर विमोहित हो जाएंगे। पृथ्वी पर कोई मनुष्य इसे तुम्हारे समान न बजा सकेगा। इसके साथ कभी न मुरझानेवाले दिव्य फूलों की माला और दिव्य ताम्बूल भी लो। तथा मैं तुम्हें कभी मैले न होनेवाले तिलक की भी युक्ति बताता हूं।
वह नाग इतना कह तथा वे सब वस्तुएं राजकुमार उदयन को दे अन्तर्धान हो गया। राजकुमार ऐसी अनोखी वस्तुएं पाकर बहुत प्रसन्न हुआ। वह शीघ्र ही बड़ी दक्षता से वह वीणा बजाने लगा और दूर-दूर तक उदयन के वीणावादन की ख्याति हो गई। कुछ दिनों बाद महाराज सहस्मानीक वृद्ध हुए और पुत्र को राजा बनाकर तप करने के लिए वन में चले गए। राजा होकर भी महाराज उदयन अपने मन्त्री यौगन्धरायण पर राज्य का सब कार्य-भार डालकर आनन्द करने लगे। उन्हें हाथियों के शिकार का बड़ा शौक था। रात-दिन वे शिकार ही की धुन में रहने लगे। वासुकी नाग की दी हुई दिव्य वीणा वे रात-दिन बजाया करते। वन में उस वीणा से वशीभूत हो हाथियों का झुण्ड उनके पास चला आता जिन्हें बंधवाकर, अपने मन्त्रियों के पास भिजवाकर वे खूब प्रसन्न होते।
उन्हीं दिनों उज्जयिनी में प्रद्योत चण्डमहासेन नामक महाप्रतापी राजा राज्य करता था। उसकी एक कन्या बड़ी रूपवती और दिव्य गुणों से भूषिता थी। उसका नाम वासवदत्ता था, शरच्चन्द्र की चांदनी के समान वह उज्ज्वल और हरिण-शिशु के समान वह भोली थी। उसकी कांति हीरे के समान थी और सुकुमारता में कोई कुसुम उसके अनुरूप न था। देश-देश में उसके रूप, गुण, शील की चर्चा फैली थी। देश के प्रतापी राजकुमार उससे विवाह करने को लालायित थे।
महाराज उदयन की वीणावादन की कीर्ति देश-देश में फैल गई। वे कामदेव के समान सुन्दर भी थे। उनकी यह कीर्ति वासवदत्ता के कान में भी पड़ी। उसने बाल-हठ से कहा-पिता, मैं भी उदयन के समान वीणा बजाऊंगी और नृत्य सीखूगी। आप उदयन को बुलाकर उससे कहिए कि वह मुझे अपने ही समान वीणावादन सिखाए, नहीं तो मैं जीवित नहीं रहूंगी।
प्यारी पुत्री का यह बाल-हठ देख महाराज चण्डमहासेन ने उसे बहत समझाया-बुझाया और कहा--उदयन साधारण पुरुष नहीं है, वह हमारेही समान राजा है। फिर वह बड़ा मानी, स्वतन्त्र और बलवान भी है। हम कैसे उससे कहें कि यहां आकर तुम्हें वीणा-वादन सिखाए? परन्तु राजनन्दिनी ने हठ नहीं छोड़ा। उसने कहा—मैं नहीं जानती, उदयन चाहे जो भी हो, उसे यहां आकर वीणा-वादन सिखाना ही होगा।
इसपर चण्डमहासेन बड़े चिन्तित हुए। अन्ततः पुत्री के प्रेम के आगे उन्होंने हार मान ली और एक सन्देशवाहक को यह सन्देश लेकर उदयन के पास भेजा कि हमारी पुत्री वासवदत्ता तुमसे वीणावादन और नृत्य सीखना चाहती है,सोजो तुम्हें हमपर स्नेह हो तो यहां आकर उसे सिखाओ।
दूत ने कौशाम्बी पहुंचकर भरी सभा में उदयन को यह संदेश दिया। संदेश सुनकर सभा में सन्नाटा छा गया। परन्तु राजाने दूत का अच्छी तरह सत्कार किया, और विश्राम करने की आज्ञा दी।
फिर अपने मंत्रियों से सम्मति ले चण्डमहासेन के पास दूत द्वारा यह संदेश भेजा कि यदि आपकी पुत्री हमसे गानविद्या सीखना चाहती है तो उसे यहां भेज दीजिए। यह सुनकर चण्डमहासेन ने उदयन को पकड़ने की एक युक्ति रची। उन्होंने कारीगरों से सलाह करके एक बड़ा भारी कल का हाथी बनवाया और उसके भीतर चालीस योद्धा छिपा दिए। फिर वह हाथी उसी वन में छुड़वा दिया जिसमें राजा उदयन बहुधा शिकार को जाया करता था।
राजा के गोहन्दों ने राजा को सूचना दी कि वन में हम लोगों ने एक हाथी ऐसा देखा है कि जैसा इस संसार-भर में कहीं नहीं है। वह इतना बड़ा है जैसे चलता-फिरता विन्ध्याचल हो। राजा यह सुनकर प्रसन्न हो गया। गोहन्दों को इनाम दिया और भोर होते ही विन्ध्याचल के वन की ओर उसने दलबलसहित प्रस्थान किया।
वन में पहुंचकर उसने सेना को तो दूर छोड़ा और वीणा हाथ में ले गोहन्दों के साथ वन में प्रवेश किया। हाथी को देखते ही राजा वीणा बजाता हुआ उसके निकट चला गया। वीणा सुनकर मस्त हुआ-सा वह हाथी दोनों कान उठा-- कर राजा के निकट आकर फिर एक ओर जाने लगा। राजा उसके पीछे-पीछे बहुत दूर निकल गया। इसी समय अवसर पाकर हाथी के पेट से बहुत-से सशस्त्र सैनिक निकल आए और उन्होंने राजा को चारों ओर से घेर लिया। यह देख राजा क्रुद्ध हो चक्कू निकालकर उनसे लड़ने लगा, पर उन लोगों ने शस्त्ररहित राजा को शीघ्र ही बेबस करके पकड़ लिया और उसे लेकर शीघ्रता से अंवती की ओर प्रस्थान किया।
राजा के पकड़े जाने का यह समाचार जब कौशाम्बी में पहुंचा तो वहां शोक छा गया। प्रजा उत्तेजित हो गई और सेना ने क्रुद्ध होकर अवन्ती पर चढ़ाई करने की तैयारी कर ली। परन्तु बुद्धिमान मन्त्री रुमण्वान ने सबको समझा-बुझाकर ठण्डा किया और कहा–यदि हम चढ़ाई करें और चण्डमहासेन हमारे महाराज को मार डाले तो बुरी बात होगी। फिर चण्डमहासेन बड़ा बलशाली राजा है। वहां युक्ति से काम करना होगा। इसके बाद सब मंत्रियों ने सलाह पक्की कर महामंत्री यौगन्धरायण को उज्जयिनी भेजा। महामन्त्री यौगन्धरायण ने अपने साथ अपने विश्वस्त पुरुष वसन्तक को साथ लेकर उज्जयिनी को प्रस्थान किया।
राजा चण्डमहासेन ने महाराज उदयन का बड़ा सत्कार किया और अन्तःपुर में ले जाकर अपनी कन्या वासवदत्ता उसे सौंपकर कहा कि इसे आप गन्धर्व-विद्या सिखाइए। और किसी बात का खेद मत कीजिए-इससे आपका कल्याण होगा। वासवदत्ता को देखते ही राजा ने आपा खो दिया। उसका सम्पूर्ण क्रोध जाता रहा। उधर कामदेव के समान उदयन को देखकर वासवदत्ता के नेत्र और मन उदयन में उलझ गए। नेत्र तो लज्जा से हट गए पर मन वहीं रम गया।
राजा उदयन वासवदत्ता को नृत्य-संगीत सिखाता हुआ गन्धर्वशाला में रहने लगा। उस चित्त को प्रसन्न करनेवाली वासवदत्ता के सम्मुख वीणा बजा-बजाकर राजा गया करता और वासवदत्ता उस बन्धन में पड़े हुए राजा की यत्न से सेवा करके उसे अपने स्नेह-बन्धन में कसकर बांधने लगी। इस प्रकार परस्पर स्नेह के बंधन में कसकर बंधते हुए, वे दोनों संगीत और वीणावादन का आनन्द लेते रहे। दोनों को अब एक घड़ी-पल भी एक-दूसरे के बिना चैन न आता था।
मन्त्रिवर यौगन्धरायण बड़ी सावधानी से वसन्तक के साथ विन्ध्याचल के वन में घुसा। वहां उदयन का मित्र म्लेच्छराज पुलिन्दक रहता था, उससे उसने कहा-आप अपनी सेनासमेत तैयार रहिए, हम राजा को छुड़ाकर इसी मार्ग से लौटेंगे।
उज्जयिनी में आकर यौगन्धरायण ने महाकालेश्वर के श्मशान में रहनेवाले योगेश्वर नामक ब्रह्म-राक्षस से मित्रता कर ली और उसकी सहायता से एक बूढ़ेकूबड़े, मतवाले और गंजे आदमी का रूप धारण कर लिया। इस बूढ़े, गंजे, कुबड़े और पागल आदमी को देखकर सब नगर-निवासी हंसने और तंग करने लगे। अपने साथी वसन्तक का भी उसने रूप बदल दिया, उसका पेट ऐसा फूला हुआ बना दिया कि उसकी सब नसें उसपर दिखाई देने लगी और उसका मुंह बिगाड़कर बड़ेबड़े दांत बना दिए। अब यौगन्धरायण वसन्तक को नचाता-गवाता नगर के आबालवृद्धों में फिरा और राजमहल की ड्योढ़ियों पर जा पहुंचा। वहां उसने अपने खेलतमाशों से रानियों-दासियों आदि को खूब प्रसन्न कर लिया। उसकी चर्चा वासवदत्ता ने भी सुनी और दासी को भेजकर उन्हें बुलवाया। वहां बन्दी हुए राजा को देखकर उसका चित्त बहुत दुःखी हुआ। उसने संकेत से राजा को अपना परिचय भी दे दिया। राजा भी अपने मंत्री को पहचान गया, पर यह बात राजकुमारी और उसकी सखियां न भांप सकीं।
इसके बाद संकेत पाकर वसन्तक रोने लगा। राजा ने कहा:-हे ब्राह्मण, रोओ मत, तुम मेरे पास रहो, मैं तुम्हारा सब रोग दूर कर दूंगा।—वसन्तक ने कहा—यह आपकी बड़ी कृपा है।—वसन्तक ने ऐसा स्नेह जताया था कि उसे देखकर राजा को हंसी आ गई। इसपर राजकुमारी और सखियां भी हंसने लगीं। यह देख वसन्तक भी हंस दिया। वासवदत्ता ने उससे पूछा कि तू क्या काम करना जानता है। उसने कहा—मैं बहुत-सी कथा-कहानियां कहना जानता हूं।—इसपर प्रसन्न होकर राजकुमारी ने उसे अपने पास रख लिया।
अब राजा और वासवदत्ता में चुपचाप सलाह होने लगी। वासवदत्ता राजा के साथ भागने को राजी हो गई। वसन्तक ने कहा—राजा चण्ड आपको अपनी कन्या देना चाहता है, परन्तु अपनी अकड़ कायम रखने को उसने आपको पकड़ा है। अब आप भी उसकी कन्या का हरण करके अपमान का बदला लीजिए।
चण्डद्योत राजा ने अपनी पुत्री वासवदत्ता को एक हथिनी दी थी, उसका नाम भद्रावती था। उस हथिनी की चाल की बराबरी राजा का नाड़ागिरि हाथी ही कर सकता था। पर वह हथिनी से नहीं लड़ता था। हथिनी का महावत आषाढ़क था। उसे यौगंधरायण ने सोना देकर मिला लिया और राजा को सन्देश दिया कि मैं आपके मित्र राजा पुलिन्दक के पास पहले ही से जाकर मार्ग की रक्षा का प्रबन्ध करता हूं, आप समय देखकर हथिनी पर सवार हो कुमारीसहित भाग आएं।
इसी योजनानुसार देवताओं की पूजा के बहाने हाथियों के प्रधान को मद्य से मतवाला कर, हथिनी पर सवार हो राजा राजकुमारी, वसन्तक तथा कुमारी की सखी कांचनमाला के साथ वीणा और शस्त्र ले रात्रि के समय भाग चले। मत वाले हाथी से परकोटा तुड़वाकर उज्जयिनी से बाहर निकले। रक्षकों को राजा ने तलवार की धार उतार दिया। हथिनी वेगपूर्वक दौड़ चली।
चण्डमहासेन को राजकुमारी तथा राजा के भाग जाने का समाचार ज्योंही मिला, उसने अपने पुत्र गोपालक को नाड़ागिरि पर सवार कराकर पीछे दौड़ाया। उसे राजा ने युद्ध में परास्त कर भगा दिया। हथिनी ने रात-भर और आधे दिन चलकर तिरेसठ योजन भूमि पार की और विध्य-वन में पहुंची। यहां हथिनी को प्यास लगी। राजासहित सबके उतरने पर हथिनी ने पानी पिया तथा मर गई। इससे राजा और राजकुमारी को बहुत दुःख हुआ। उसने वसन्तक को आगे अपने मित्र पुलिन्दक को सूचना देने भेजा। पीछे धीरे-धीरे राजकुमारी के साथ आगे चलने लगे। इसी समय डाकुओं ने उन्हें घेर लिया। राजा ने धनुष-बाण ले उनमें से अनेकों को मार डाला। इसी समय पुलिन्दक और यौगन्धरायण सेनासहित आ मिले। पुलिन्दक राजा को अपने गांव में ले गया। वहां वन की कुशाओं से फटे पैरवाली वासवदत्ता और राजा रात-भर रहे। प्रातःकाल मन्त्री रुमण्वान बहुत-सी सेना लेकर ठाट-बाट से राजा-रानी की अगवानी को आया। यहीं शक दूत ने राजा को सूचना दी कि राजा चण्डमहासेन ने अपना दूत भेजा है। दूत ने राजा की सेवा में उपस्थित होकर प्रणाम कर कहा-महाराज महासेन आपपर प्रसन्न हैं और उन्होंने कहलाया है कि शीघ्र ही गोपालक पाकर अपनी बहिन का विवाह विधिवत् कर जाएगा, तब तक आप ठहरें। ठहरने को कह कौशाम्बी के दूत ने पुलिदक के ग्राम में गोपालक के आने तक को प्रस्थान किया, जहां उसका खूब धूमधाम से स्वागत हुआ। राजा और रानी की समस्त पुरवासीजनों तथा सभागत राजाओं ने राजमहल में अभ्यर्थना की।
कुछ दिन बाद बहुत-सा धन, रत्न, हाथी, घोड़ा और खज़ाना लादकर गोपालक आया और उसने धूमधाम से बहिन का विवाह राजा से कर दिया। इससे उदयन की समृद्धि चौगुनी हो गई तथा वह अपनी प्रियतमा वासवदत्ता के साथ सुख से रहने लगा।