वसन्त (रूसी कहानी) : सेर्गेइ अन्तोनोव

Vasant (Russian Story) : Sergei Antonov

जब मैं नन्हीं सी थी तो मुझे शाम ढलते ही खुली खिड़की पर बैठ जाने और पास-पड़ोस के लोगों के सोने की तैयारी की आहट सुनने में बड़ा मजा आता था। घर में लालटेनें जल जातीं, बर्तन खड़खड़ाती हुई माँ इधर से उधर भागती दौड़ती और बाहर; बस, खामोशी ही खामोशी होती।

और आज भी मैं खिड़की पर बैठी हुई हूँ। मुण्डेरे पर गमले में जिरेनियम का एक पौधा रखा है, जिसकी पत्तियों में सूराख हैं, खिड़की का पर्दा मेरे कन्धों को स्पर्श करता उड़ रहा है और सड़क के उस पार सामने के बगीचे में मेरी चाची एक डण्डे से चटखनियाँ बन्द कर रही है।

थोड़ी दूर और आगे सामूहिक फार्म के दफ्तर की खिड़की में रोशनी दिखायी दे रही है: बैठक समाप्त हो गई है; दरवाजे भिड़ाने और लोगों के हँसने तथा अपनी-अपनी राह जाने से पहले बरामदे में बातचीत करने की आवाजें मुझे सुनायी दे रही हैं।

मैं यहाँ यों बैठी हुई सुन रही हूँ और जब-तब खिड़की से एक तेज-सा झोंका आकर जिरेनियम की पत्तियों को उलटकर चला जाता है।

लो, पिताजी आ रहे हैं, जूतों पर जमे कीचड़ को छुड़ाने के लिए पैर पटकते हुए-वे जिस तरह पैर पटक रहे हैं, उससे मैं समझ गयी हूँ कि वे गुस्से में भरे हुए हैं। वे कमरे में आ गये, बिना कुछ बोले बैंच पर बैठ गये और जेब से वोदका की एक बोतल निकाल ली। माँ ने आह भरी और अचार लेने तहखाने में चली गयीं। ल्योल्का-वह हमारी पशु-चिकित्सक है-चारखाने का रूमाल बाँधे, पानी के गड्ढों को बिल्ली की तरह सावधानी से पार करती हुई चली जा रही है। पहले वह चारखाने के रूमाल को सिर्फ इतवार के दिन या किसी उत्सव के दिन बाँधा करती थी, लेकिन इधर कुछ दिनों से वह बराबर बाँधती है। राह चलते वह लड़कियों से बातचीत करती जा रही है और मैंने उसे यह कहते सुना कि आज पिताजी को सामूहिक फार्म के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया।

मैंने कनखियों से एक नजर पिताजी पर डाली।

उन्होंने गिलास में वोदका ढाल ली, एक घूँट पी, रोटी का एक टुकड़ा सूँघा और फिर दूसरी घूँट पी।

माँ, अपने हाथों को जामे के अन्दर समेटे हुए मेज के पास खड़ी है और दुखी नजरों से उनकी ओर देख रही है।

पिताजी ने कहा: ‘‘अखबार लाओ और सब लोग सुनो!’’

उनकी आदत है कि जब वे पीने लगते हैं, तो अखबार-कोई भी पुराना अखबार पढ़कर सुनाना शुरू करते हैं। और फिर माँ को और मुझको वह सुनना पड़ता है, बिना कोई बाधा डाले हुए।

तो उन्होंने छोटी गोल मेज पर से अखबार ले लिया है, चश्मा चढ़ा लिया, लैम्प के और करीब खिसक आये और पढ़ना शुरू कर दिया: ‘‘वह कई वर्षों तक एक प्रतिक्रियावादी दल का... दल का... नेता था जिसका नाम... नाम... था ‘मिनसीतो’। समझ में आया?’’ उन्होंने चश्मे के ऊपर से देखने के लिए अपना सिर बकरे की तरह झुकाकर हमसे पूछा।

‘‘समझ गये,’’ माँ ने कहा और नजरों से यह नापा कि बोतल में कितनी और बची है।

‘‘और तेरी समझ में आया?’’

‘‘बिल्कुल समझ गयी, पिताजी,’’ मैंने सड़क पर जानेवाले लड़कों की आवाज की तरफ कान लगाते हुए जवाब दिया।

यकायक, मानो किसी का हुक्म पाकर, वे इतनी जोर से हँस पड़े कि उसकी गूंज सड़क के एक छोर से दूसरे छोर तक सुनायी दे सकती थी, फिर वे तितर-बितर हो गये और चारों तरफ खामोशी छा गयी, लेकिन मैंने सुना कि नया अध्यक्ष, कार्प सवेलिच के बेटे वास्का को चुना गया है।

पिताजी की आवाज फिर गूंजी: ‘‘समझ में आया न?’’ और मैंने कहा: ‘‘हाँ, पिताजी।’’ लेकिन मैं सोच रही थी कि अब हमारा अध्यक्ष वही वास्का होगा, जो अभी ठहाका मार कर हँस रहा था। अभी एक हफ्ते पहले ही वह फौज से वापस लौटा है और उस दिन सवेलिच ने लगभग सारा दिन अपनी मुर्गी के एक बच्चे को पकड़ने में गुजार दिया था।

वास्का छोटे कद का है, मेरे ही बराबर और देखने में जरा भी अच्छा नहीं है-बड़ी-बड़ी हड्डियाँ और सीधा सपाट चेहरा। उसकी नाक ऊपर को मुंड़ी हुई है और उसी तरह उसकी ठुड्डी भी-माने किसी ने उसके चेहरे पर नीचे से ऊपर की तरफ हाथ फेर दिया हो और सारा चेहरा फिर वैसे का वैसा ही रह गया हो। और वह कोई चतुर भी नहीं है। युद्ध से पहले, एक बार वह मेरी चाची की छत पर चढ़ गया और चिमनी के भीतर मुँह डालकर भयानक बातें चिल्लाने लगा, ताकि लोग यह समझें कि कोई प्रेत बोल रहा है। मेरी चाची उस समय चूल्हे के पास खड़ी थी, सो वह घबराकर अधमरी सी हो गयी। इस तरह का आदमी भला कैसा अध्यक्ष होगा? पिताजी ने कुछ देर पढ़ा और फिर सो गये। हम भी सोने चले गये। मुझे बड़ी देर तक नींद न आयी क्योंकि मेरे सिर में दर्द था और इसीलिए मैं शाम की सभा में नहीं गयी थी। काफी रात बीत गयी तो दर्द भी दूर हो गया और मैं सो गयी। मैं सोयी ही थी-या कम से कम मुझे ऐसा ही लगा-कि उसी समय किसी ने दरवाजा खटखटाया।

माँ उठते हुए कुड़बुड़ायी: ‘‘क्या ये लोग पागल हो गये हैं?’’

पता चला कि मुझे सामूहिक फार्म के दफ्तर में बुलाया गया है। मैंने कपड़े पहने और दौड़ पड़ी।

छोटे से कमरे में बहुत से लोग जमा थे। वसीलि कार्पोविच (वास्का को लोग अब इसी नाम से पुकारते थे) पिताजी के स्थान पर बैठा हुआ था। मैंने प्रवेश किया, तो लड़कियाँ खिलखिला पड़ीं: शायद मेरे चेहरे पर अभी भी नींद विराजमान थी। बूढ़ा इवान भी आया हुआ था, वह हमारे पड़ोस में काम करने वाले ब्रिगेड का नेता था। वह बरसाती जूता चढ़ाये हुए था और मैंने देखा कि उसके लम्बे कोट के नीचे से उसका गुलाबी धारीदार बनियाइन झाँक रही है।

‘‘हलो’’, वसीलि कार्पोविच ने बूढ़े इवान से कहा, ‘‘कोट भी उतार डालो न।’’ लड़कियाँ फिर खिलखिलायीं।

‘‘तुम लोग किसी को सोने भी नहीं दोगे?’’ दरवाजे का सहारा लेते हुए इवान ने कहा। ‘‘यह भी क्या बढ़िया ख्याल है कि आधी रात को लोगों को चारपाई से बुला मँगाओ!’’

उसके बाद पाशा आयी। वह मशीन-ट्रैक्टर स्टेशन पर काम करने वाली ट्रैक्टर ड्राइवर है और ऐसी तारोताजा दिखायी दे रही थी मानों उसने चारपाई पर अभी पैर भी न रखा हो।

‘‘सब लोग आ गये?’’ वसीलि कार्पोविच ने पूछा।

‘‘हाँ’’, मेरे ब्रिगेड के चौड़े कन्धोंवाले ल्योशा ने कमरे में घुसते हुए कहा, ‘‘जरा संक्षेप में।’’

‘‘संक्षेप में ही कहूँगा,’’ वसीलि कार्पोविच ने बात शुरू की। ‘‘साथियो, हम लोग बुआई में पीछे क्यों हैं? दिन भर में हम अपना कोटा आधा ही क्यों पूरा कर पाते हैं? आप लोग कर क्या रहे हैं? क्या हम जून तक बुआई करते रहेंगे? क्या जनवरी में जाकर काटेंगे? आप लोग बताइये, आइये, बोलिए। तमारा की नींद भगाने के लिए जरा उसे झकझोर तो देना।’’

पहले तो कोई न बोला और फिर बोलना शुरू किया तो धारा प्रवाह और फिर एक घण्टे तक वे लोग बोलते रहे, पहले कुछ मतलब की बातें हुईं, फिर बक-झक होने लगी और अन्त में वे मुझ पर टूट पड़े। वसीलि कार्पोविच का बाप सवेलिच, जो मेरे ही ब्रिगेड का सदस्य था, मुझ पर सबसे ज्यादा पिल पड़ा। वह साठ से ऊपर है, लेकिन वह हम कोम्सोमोल के सदस्यों के साथ काम करना चाहता था, मैंने उसे मौका दिया तो उसका यह फल मिला। ल्योशा मेरे पक्ष में जुट गयी और अपने काम के बारे में बात करने के बजाय हम एक दूसरे के दोष खोजने लगे। मैं कहना चाहती थी कि मेरे ब्रिगेड में मुसीबत यह है कि उचित अनुशासन नहीं है, दो-तीन आदमी जरूर ही काम पर न आयेंगे, और काम में यह जरूरी है कि हम सब प्राणपण से जुट जाए। मैं यही कहना चाहती थी, लेकिन लोग तो मुझ पर टूट पड़े और मैं घबराकर बैठ गयी।

वसीलि कार्पोविच ने टोका: ‘‘अच्छा, बस बहुत हुआ, तुम लोगों की बात का तो ओर-छोर ही नजर नहीं आता। इवान तुम बोलो।’’

इवान ने अपने बड़े कोट को जरा चारों तरफ से समेटा और गम्भीर बन गया। कुछ दिन पहले ही उसकी तारीफ में एक लेख स्थानीय अखबार में छपा था और उसका नशा अभी उस पर बाकी था।

कुछ सोच-विचार कर वह बोला: ‘‘दोस्तो, मैं तो इसे यों देखता हूँ। यह ठीक है कि न्यूशा और उसका ब्रिगेड बुआई का काम खराब कर रहा है। उसके पिताजी जब तक अध्यक्ष थे, तब तक ऐसी बात कहना मुमकिन नहीं था, लेकिन अब तो कहना ही होगा। वे लोग बड़े ढीले हैं, उनके हाथ-पाँव तेजी से नहीं चलते। और फिर उनके काम की रफ्तार में भी कुछ गड़बड़ी है। मिसाल के लिए, हमारा ब्रिगेड कोसोय में बुआई कर रहा है और हमारी रफ्तार है सत्तरह मिनट फी एकड़, दो एकड़ के लिये चौंतीस मिनट, वगैरह-वगैरह। उसका ब्रिगेड पहाड़ी जमीन पर काम कर रहा है-ट्रैक्टर नाचता-कूदता काम करता है। और उनकी रफ्तार क्या है? वही हमारी जैसी-सत्तरह मिनट फी एकड़, वगैरह-वगैरह।’’

दूर पर किसी रेल की सीटी की लम्बी आवाज दो बार गूंज गयी। बाहर कोई मुर्गा बांग देने लगा और हर आदमी हँस पड़ा, क्योंकि यह स्पष्ट था कि सीटी की आवाज को ऊँघते हुए मुर्गे ने कुकुड़ू-कूँ समझ लिया था।

इवान ने कहा: ‘‘इसमें हँसने की क्या बात है? मैं कह रहा था कि रफ्तार है सत्तरह मिनट फी एकड़। मेरा ख्याल है कि न्यूशा को अपनी लड़कियों की जरा लगाम कसना चाहिए, लेकिन हमें उनकी रफ्तार कुछ धीमी करना चाहिए।’’

‘‘यह कोई जवाब न हुआ इवान।’’ वसीलि कार्पोविच ने कहा। ‘‘यह सच है कि कोटा एक सा नहीं हो सकता। जरा तमारा का हिलाना। लेकिन हम करेंगे यह कि कोसोय में तुम्हारे लोगों की लगाम कसेंगे।’’

यह सुनकर हल्ला मच गया। लेकिन वसीलि कार्पोविच उठा और बोलने लगा और सब लोग शान्त हो गये। उसने कुछ अधिक नहीं कहा, लेकिन जो कुछ कहा, मतलब की बात कही, मानो, उसे इस सामूहिक फार्म के बारे में रत्ती-रत्ती भर बात मालूम है। अन्त में उसने कहा: ‘‘हर आदमी सुबह पाँच बजे खेत पर पहुँच जाय, चूकना मत। और दिन का कोटा पूरा करना होगा, फिर चाहे चौबीस घण्टे लगातार ही क्यों न काम करना पड़े। न्यूशा जो कहना चाहती थी, वह सही था, लेकिन उसकी जबान पर ताला ही पड़ गया। उसकी बात मैं पूरी करता हूँ: उसके ब्रिगेड के हर व्यक्ति को सुबह पाँच बजे ही काम पर पहुँच जाना है, कोई ढील न हो। मैं मदद के लिये खुद भी सुबह पहुँच जाऊँगा और देखूँगा कि मामला कहाँ गड़बड़ है।’’

पाशा ने कहा: ‘‘जी, तुम्हारे बिना हमारा काम ही कैसे चलेगा?’’ और जब हम लोग बाहर निकले तो मैंने वसीलि कार्पोविच से कहा कि उसकी मदद की जरूरत नहीं है और इवान का ब्रिगेड तो उतना भी नहीं कर पा रहा है, जितना हम कर रहे हैं, हालाँकि उसका ब्रिगेड समतल जमीन पर काम कर रहा है।

पाशा ने भी कहा: ‘‘हमारे सिर पर आज तक कोई सवार नहीं हुआ और न हम होने देंगे।’’

‘‘अच्छा भाई।’’ वसीलि कार्पोविच ने कहा, ‘‘अगर तुम लोग बुरा मानते हो, तो मैं इवान के ब्रिगेड में शामिल हो जाऊँगा। लेकिन न्यूशा तुम्हें यह देखना होगा कि दो दिन के अन्दर तुम्हारा काम ढर्रे पर आ जाय, चूकना मत।’’

और वह चला गया। मैंने अपने कोम्सोमोल के मित्रों और सवेलिच को साथ बैठाया और वहीं सड़क पर यह तय कर लिया कि दो-चार नवाले खाकर, सीधे काम पर चला जाय।

मानो हमें तंग करने के लिए हर चीज शुरू से ही बिगड़ने लगी। ट्रैक्टर ने चलने से इनकार कर दिया और पाशा रो दी। तभी हमें पता चला कि एक पूरे खेत में अभी जुताई भी आधी ही हुई है। काम शुरू होते-होते दोपहर चढ़ आयी। इतवार को हमने इवान के ब्रिगेड से भी अधिक बुआई की। हमने छः बजे शाम तक काम किया और फिर काम के बारे में सोच-विचार करने के लिए हम सब लड़कियाँ मिलकर बैठीं, यानी कि घर लौटते-लौटते शाम हो गयी। खेत में अकेली रह गई बेचारी पाशा जो अपने ट्रैक्टर को पेचकश से ठीक कर रही थी, और उसका नौ बरस का भाई गरास्का उसके काम में टाँग अड़ा रहा था। मैंने अपना काम नापा और उसके पास गयी।

गरास्का बोला: ‘‘अच्छा पाशा, देखें कौन पहले स्पार्क प्लग में पेच कसता है। पाशा गिड़गिड़ायी: ‘‘भगवान के वास्ते इसे यहाँ से ले जाओ। घोड़े की मक्खियों की तरह यह दिन भर से मेरे पीछे पड़ा है।’’

मैंने गरास्का से वायदा किया कि मैं उसे अपना ग्रामोफोन बजाने दूँगी, ताकि वह मेरे साथ गाँव लौट चले।

शायद इसलिए कि आज वसन्त का पहला दिन था या शायद इसलिए कि हमने बूढे़ इवान से अधिक काम कर डाला था, कारण कुछ भी हो, मैं पहाड़ी पर ऐसी आसानी से चढ़ गयी, मानो नदी तैर कर पार कर ली हो। जब हम चोटी पर पहुँचे, तो सारा गाँव, बड़ी सड़क और चारों ओर फैले खेत नजर आने लगे। जंगल के उस पार घने बादल जमीन पर बिछे हुए से लगने लगे, लेकिन सिर के ऊपर आसमान साफ था, बादल का एक भी टुकड़ा न था और नीलापन इतना गहरा था कि उसे देखने से, आँखें दुखने लगती थीं और इस नीलिमा की पृष्ठ भूमि में कौओं की पाँत कोयले जैसी काली लग रही थी।

गरास्का बोला: ‘‘अच्छा देखें एक टाँग पर चलकर कौन सबसे पहले सड़क पर पहुँचता है।’’

मैं एक टाँग पर चलना शुरू करने ही वाली थी कि मुझे वसीलि कार्पोविच दिखायी दिया और मैंने इरादा बदल दिया।

खुला हुआ बड़ा कोट और टोपी तथा पुराने दस्ताने पहने वह लम्बे डग भरता हुआ चला जा रहा था, उसने हमें देखा और दोराहे पर रुक गया। मैंने सोचा कि हमने जितना काम किया है, उसके बारे में शायद उसने सुन लिया है और इसलिए वह मेरी टुकड़ी की लड़कियों की तारीफ करना चाहता है।

गुलेल से फेंके गये पत्थर की तरह, तेजी से, गरास्का पहाड़ी पर से उतरा और मैं उसके पीछे भागी।

हाँफती हुई जब मैं वसीलि कार्पोविच के पास रुकी तो वह बोला: ‘‘मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ।’’ और मुझे उसके स्वर से यह लगा कि वह मुझे झिड़कने वाला है। और मुझे दुख हुआ कि मैं उससे मिलने के लिए बच्चों की तरह दौड़कर क्यों आयी।

वसीलि कार्पोविच ने कहा: ‘‘क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारी पन्द्रह एकड़ की जुताई असंतोषजनक पायी गयी है?’’

मैंने कहा कि मुझे मालूम है।

‘‘दो इंच कम गहरी है। तुम क्या सोच रही हो? तुम कोम्सोमोल की सदस्या हो-हो कि नहीं? तुम्हें तो सोचना चाहिये कि पन्द्रह एकड़ की जुताई फिर से करने से कितना नुकसान होगा?

मैंने कहा कि मैं समझती हूँ। लेकिन वसीलि कार्पोविच के पास सूचना गलत थी। प्रधान कृषि विशेषज्ञ ने जिन पन्द्रह एकड़ों की भर्त्सना की है, उनके लिये मैं नहीं, तमारा जिम्मेदार है। मुझे इतनी ठेस लगी कि मेरा गला रुंध गया और मैंने एक शब्द न कहा, क्योंकि अगर मैं सफाई देने लगती, तो मैं निश्चय ही फूटकर रो पड़ती। सारे रास्ते वह मुझ पर ही चोट करता रहा और कहता रहा कि यहाँ कोम्सोमोल की नियंत्रण समिति कायम करने का सुझाव हमने ही दिया था और हम लोग ही उसके लिए कुछ नहीं कर रहे हैं, उलटे काम में मन नहीं लगा रहे हैं। उसके इस तरह झिड़कने और ऐसे स्वर में बोलने के कारण ठेस खाकर मैं लगभग रोती हुई उसके साथ चली जा रही थी, लेकिन जब मैंने देखा कि गरास्का को मेरी हालत पर दुख हो रहा है और वह मेरी तरफ इस तरह देख रहा है मानों मैं कोई लंगड़ी-लूली हूँ तो मैं अपनी जबान पर काबू न रख सकी।

‘‘हर कोई देख सकता है कि तुम इसलिए बौखलाये हुए हो कि हमने तुम्हारे लाडले ब्रिगेड से ज्यादा बुआई कर ली है,’’ मैं बोल उठी, ‘‘तुम इसीलिए हमारे काम में बाल की खाल निकाल रहे हो।’’

‘‘बकवास मत करो,’’ उसने कहा।

‘‘तुम्हारे लिए यह बकवास हो सकती है, लेकिन मेरे लिए नहीं। तुम्हें अध्यक्ष हुए अभी डेढ़ घण्टा हुआ है। इस तरह दस्ताने चढ़ाये हुए यहाँ चहलकदमी करने के बजाय, तुम यह जाकर क्यों नहीं देखते कि यहाँ हो क्या रहा है?’’

उसने मुझे जवाब तो दिया, लेकिन क्या, यह न बताऊँ तो अच्छा है।

मैंने कहा: ‘‘मुझे डराने की कोशिश न करो, मैं चाची नहीं हूँ कि भूत बन कर डरवा दोगे।’’

तब तक हम सामूहिक फार्म के दफ्तर तक पहुँच गये थे और वसीलि कार्पोविच ने मुझसे अन्दर आने के लिए कहा। मैं गयी-और क्यों न जाती? और गरास्का भी अन्दर आ गया।

वसीलि कार्पोविच ने अपने दस्ताने उतारे और खींचकर मेज पर फेंक दिये। ‘‘वह गुस्से में है,’’ मैंने सोचा।

उसने शुरू किया: ‘‘देखो बस आखिरी बार...’’ इतने में टेलीफोन की घण्टी बज उठी।

वसीलि कार्पोविच ने चोंगा उठाकर उसमें फूंका और जोर-जोर से चीखना शुरू किया: ‘‘हैल्लो... जिला कमेटी? हाँ, हाँ। मैं जानता हूँ। पचास नहीं-पन्द्रह। हाँ, पन्द्रह एकड़, तो, तो क्या हुआ? हम उसे ठीक कर देंगे। क्या? जरा जोर से बोलो, मुझे सुनायी नहीं देता।’’

वसीलि कार्पोविच ने फिर फूँका, मानों उस चोंगे को ठण्डा करने की कोशिश कर रहा हो।

‘‘कौन? मैं? मेरा दोष है? ठीक है, मैं जिम्मेदारी के पद पर हूँ और जो लोग जिम्मेदारी के पद पर होते हैं, कभी-कभी उन्हें दोष देना ही पड़ता है। क्या? जल्दी ही, जैसे ही यहाँ का काम कुछ ठीक हुआ, मैं आ जाऊँगा। एक शब्द नहीं सुनायी देता। जरा दरवाजा तो बन्द कर दो...’’ आखिरी वाक्य गरास्का से कहा गया था और फिर अपना खाली हाथ हवा में झुलाता हुआ वह बड़ी देर तक बात करता रहा।

उसने चोंगा रख तो दिया, लेकिन उस पर से हाथ उठाना भूल गया। किसी गहरी चिन्ता में लीन वह बैठा रह गया और उसका एक दस्ताना डेस्क के किनारे पर लटक आया, न जाने क्यों मुझे याद आया कि वह अपने पिता के साथ अकेला ही रहता है और उसका घर कभी साफ नहीं रहता और शायद उसके फर्श की सफाई तो बड़े दिन के बाद से कभी हुई ही नहीं। और मुझे यह भी याद आया कि जिस दिन वसीलि कार्पोविच फौज से लौटकर घर आया था, उस दिन उसका पिता सारे दिन मुर्गी के बच्चों के पीछे दौड़ता फिरता था।

मैंने अपने आपसे कहा: ‘‘हद हो गयी। तुझे जरा जबान तो सम्भालना चाहिए थी।’’

‘‘अच्छा, अब यहाँ से खिसको,’’ अभी भी विचारों में खोये हुए वसीलि कार्पोविच ने कहा।

मुझे चल देना चाहिए था, लेकिन मैं फिर भी खड़ी रही।

‘‘नाराज न होना,’’ वसीलि कार्पोविच ने एक क्षण बाद कहा। ‘‘जहाँ कोम्सोमोल के सदस्य बने कि फिर हर चीज के बारे में चिन्ता करनी ही पड़ती है। और तुमने जैसे आज काम किया, वैसे हर दिन ही करना है।’’

पता नहीं किस मूर्खतावश मैंने कहा: ‘‘वसीलि कार्पोविच, आपके दस्तानों में छेद है।’’

‘‘कहाँ,’’ वसीलि कार्पोविच ने अपने दस्तानों की तरफ देखा और जरा फुफकार कर कहा: ‘‘अरे इससे क्या? मैं कोई नृत्य-समारोह में थोड़े ही जा रहा हूँ।’’

‘‘लाइये, मैं रफू कर दूँ।’’

‘‘फिक्र न करो। इससे क्या फर्क पड़ता है? तुम जाकर अपने काम के छेद ठीक करो।’’

मुझे अपने ऊपर लाज भी आयी और मुझे चला जाना चाहिए था, लेकिन मैं फिर कह बैठी: ‘‘लाइये भी,’’ मानो इन दस्तानों के बिना मैं जिन्दा न रह सकूँगी।

‘‘अच्छा भाई, अगर इतना जिद करती हो तो।’’

मैंने दस्ताने ले लिये और गरास्का और मैं घर चले गये।

घण्टे भर बाद कुछ लड़कियाँ आ गयीं और बूढ़े इवान के यहाँ जमाव के लिये पकड़ कर ले गयीं। मैंने रफू किये हुए दस्ताने उठा लिये और चल दी, हालाँकि मैं इतनी थकी हुई थी कि पीठ टूट सी रही थी। बूढ़े इवान का घर गाँव में सबसे बड़ा है और इसलिये कहीं और के बजाय, हम लोग अधिकतर वहीं जमा होते हैं। इवान की पत्नी और मेरी चाची, लुकेरिया इलीनिचना ने हमारा स्नेहपूर्वक स्वागत किया, लेकिन जब उसे मालूम हुआ कि और भी लोग आ रहे हैं, तो वह भन्ना गयी।

‘‘मैं तुम्हें घुसने भी न दूँगी,’’ उसने कहा। ‘‘मैं घुसने दूँ तो तुम मुझे बम गिराकर मार ही डालना। मेरा आदमी, भला क्या तमाशा किया करता है?’’

मैं उसे बातों में लगाकर खुश करने की कोशिश करने लगी और लड़कियों ने मेज, चारपाई और आल्मारियों को विभाजन की दूसरी तरफ हटाना शुरू कर दिया।

मेरी चाची चिल्लायी: ‘‘जाहिलो, वह भी कोई जगह है इन चीजों के रखने की। अगर इन चीजों से रास्ता रोक दोगी तो फिर मैं आल्मारी पर रखे हुए ‘‘जग’’ को कैसे उतार पाऊँगी? अच्छा आने दो उसे, अपना खाना खुद ही निकाल कर खायेगा तब पता चलेगा। मैं जाती हूँ और यह शाम पड़ोसियों के यहाँ बिता दूँगी, अच्छा यही सही। अरे मेज जरा बगल की तरफ मोड़ो। इस तरह वह दरवाजे से नहीं निकलेगी।’’

हमने हर चीज बाहर निकाल दी और जहाँ आल्मारी रखी थी, वहाँ लहरियादार शीशे को छोड़कर, सारा कमरा खाली कर दिया। हमने फर्श साफ कर दिया और खिड़की के नीचेवाले आधे हिस्से में कुछ तख्ते ठोंक दिये ताकि शीशे न टूटने पायें। हमने पीपों के अन्दर ताजा पीने का पानी भर दिया और दरवाजे के बाहर फूस बिछा दी।

मेरी चाची फिर चिल्लायी: ‘‘अरे ये सारे लैम्प तुम लोग क्यों जमा कर रही हो। क्या मेरा घर फूँकोगी? बताओ, पाँच-पाँच लैम्पों का क्या होगा? अच्छा यही सही, मैं जाकर तुम्हारी रिपोर्ट कर दूँगी। और इन सब को एक ही कोने में क्यों लटका रही हो? उस कोने में तो जरा भी रोशनी नहीं है।’’

नौ बजे के करीब लोग जमा होने लगे। पहले बच्चे आये। वे लोग चूल्हे के पास फर्श पर बैठ गये और एक दूसरे को गिराते-लुढ़काते खेलने लगे। तभी बूढ़े इवान काम से लौट आये। मेरी चाची ने पहले तो उन्हें जरा झिड़का और फिर विभाजन के दूसरी तरफ उनके लिए खाना परोस दिया। ल्योल्का अपना चारखाने का रूमाल बाँधे आयी और ल्योश्का भी आ गया-उसकी फौजी पेटी के पीतल के बकसुए पर इतनी पालिश थी कि वह सोने की तरह चमक रहा था। कमरा भरने लगा और लोग धुआँ उड़ाने तथा सूरजमुखी के बीजे चबाने लगे और सारा कमरा शोर और घुटन से भर गया। ल्योल्का बहार ओसारे में चली गयी और मैंने घर लौट जाने का फैसला किया। लेकिन ग्रीशा अपना अकार्डियन उठा लाया था और ‘‘ज्वाल’’ तथा ‘‘रोवन वृक्ष’’ की धुनें बजाने लगा, हर आदमी गा उठा और मैं भी रुक गयी। इस संगीत ने मुझे उदास बना दिया। किसी ने खिड़की खोल दी। ताजी हवा के एक झोंके ने पर्दा उड़ा दिया और ठण्डे पानी की धारा की तरह कमरे में प्रवेश किया। मैंने बाहर ओसारे में कुछ आवाजें सुनी। किसी की बातें छिपकर सुनना मेरी मंशा नहीं थी, मगर मैं खिड़की के पास बैठी हुई थी, जो ओसारे के करीब ही थी।

मैंने सुना:

‘‘जैसे काम चल रहा है, अगर वैसे ही जारी रहा तो हम निश्चित समय से एक दिन पहले ही काम खत्म कर देंगे, बस चूकना मत। हमें कोई बात आड़े नहीं आने देनी चाहिए। कल मैं जाऊँगा और देखूँगा कि न्यूशा का काम कैसा चल रहा है।’’

‘‘तुम तो हमेशा खेत और खाद की ही बात करते रहते हो। कभी तो अपने दिमाग से काम को उतार दिया करो। चलो चलें, कुछ नाचें।’’

‘‘मैं नाच नहीं सकता। युद्ध के पहले जब मैं बच्चा था, तब सीखने से शर्माता था। जब लड़ाई चल रही थी, तब मुझे कोई मौका न मिला और अब ऐसा लगता है कि वक्त निकल गया है।’’

‘‘क्या बेवकूफी है। अभी तो तुम तीस से भी ज्यादा नहीं हो, क्यों है न?’’

‘‘पच्चीस का हूँ। मैं 1922 में जन्मा था।’’

‘‘मैं कैसे बताऊँ-तुम मिलना जुलना नही जानते, किसी कदर बुजुर्गियत आ गयी है। तुम्हें लड़कियों से कोई वास्ता ही नहीं रहता।’’

‘‘मैं जानता हूँ कि लड़कियों के साथ मैं नहीं जम पाता। पता नहीं ऐसा क्यों है। यह बात नहीं कि कुछ बुजुर्गियत लद गयी है। कभी-कभी मुझे अपने से घृणा होने लगती है। दूसरे लोग हँसते हैं, मजाक करते हैं और मैं अपना मुँह भी नहीं खोल पाता। दरअसल मैं यही नहीं जानता कि क्या कहना चाहिए, विशेषकर अगर लड़की कहीं सुन्दर हो। मेरी जबान, बस, तालू में अटक कर रह जाती है।’’

‘‘तुम भी क्या मजेदार आदमी हो। जब तुम मुझसे बातें करते हो, तब तो जबान वहाँ नहीं अटक जाती?’’

‘‘नहीं। तुमसे मैं आसानी से बात कर लेता हूँ। ऐसा लगता है, मानो लड़कियाँ भी मुझसे घबराती हैं। अभी कुछ दिन पहले-लेकिन किसी से कहना नहीं, कहोगे तो नहीं?-मुझे एक खत मिला जिसमें कुछ कविता की गई थी। बड़े सुन्दर ढंग से लिखा गया था, जैसा कि किताबों में होता है। और उस पर हस्ताक्षर थे ‘‘तुम्हारी पड़ोसिन।’’ अपनी ही किसी लड़की ने लिखा था, लेकिन किसने लिखा होगा, यह मुझे नहीं मालूम। बहुत अच्छी तरह लिखा गया था और कविता भी सुन्दर थी।’’

‘‘सोचने दो, किसकी होगी, वह ब्लोक की होगी।’’

‘‘मुझे कैसे मालूम होता कि वह ब्लोक की थी।’’

आगे मुझे सुनायी नहीं दिया, क्योंकि बड़े लोगों ने बच्चों को खदेड़ना शुरू किया और बच्चे बेंचों और लोगों की टाँगों के बीच घुस गये और बहुत शोर मचाने लगे। आखिर उनसे छुटकारा मिला और एक डण्डा देकर ल्योशा को दरवाजे पर तैनात कर दिया गया। जब सब शान्त हो गया, तब मुझे फिर सुनायी दिया:

‘‘मैं अन्दाज कैसे लगाता?’’

‘‘लगाना चाहिए था।’’

‘‘कैसे?’’

मुझे लगा कि वे दोनों एक-दूसरे से किसी बात के लिए माफी माँग रहे हैं। अब मुझे पता चला कि ल्योल्का अपना चारखान का रूमाल हर रोज क्यों बाँधती है।

मैं घर जाने के लिए विकल हो उठी, लेकिन मैं फिर भी वे दस्ताने सम्भाले बैठी रही और जब सब लोग हँस पड़ते थे, तो हँस देती थी।

ग्रीशा ने जिप्सी नृत्य की धुन बजायी, ल्योशा ने अपना वर्दी का छोटा कोट उतार दिया, अपने बाल सँवार लिये और सीधा खड़ा हो गया तो एक फुट और लम्बा नजर आने लगा; उसने बाँहें फैलायीं, उँगलियाँ घुमायीं और छोटे-छोटे तेज कदम रखकर बेचों के घेरे के चारों ओर नाचने लगा और जो लोग उसके रास्ते में खड़े थे, वे कूदकर दीवाल से सट गये और जो लोग बैठे थे, उन्होंने अपनी टांगें समेट लीं। ल्योशा ने फर्श पर हल्के-हल्के एड़ी की थाप देते हुए घेरा पूरा किया और फिर अपनी बाँहें फैलायीं, जमीन पर बैठा; उछल पड़ा और इतनी तेजी से नाचना शुरू किया कि सब लैम्पों की लौ भभक उठी।

‘‘रुक जा रे हत्यारे,’’ मेरी चाची चिल्लायी, ‘‘रुक जा। ऐ शैतान, उछलकूद बन्द कर, वरन धँस जायेगा धरती में!’’

लेकिन ल्योशा न रुका और न अकार्डियन बजानेवाला रुका, जो बाजे के ऊपर लगभग लेटा हुआ था और मेरी चाची की बात की तरफ किसी ने कान भी नहीं दिया। विभाजन की दूसरी तरफ से बूढ़े इवान ने झाँका।

हैरत के स्वर में मेरी चाची ने कहा: ‘‘जरा इनकी तरफ देखो। देखो, ये क्या कर रहे हैं। बस इसी क्षण रुक जाओ। अच्छा, यही सही, मैं तुम सबको बाहर निकाल दूँगी।’’

संगीत की लय पर लड़के ताली बजा रहे थे और ग्रीशा की सफेद उँगलियाँ बाजे पर नाच रही थीं और अगर किसी का चेहरा गम्भीर था, तो उन नयी-नवेली पत्नियों का, जो अपने कोटों के सीने के भीतर बच्चों को बन्द किये ग्रीशा की ओर देख रही थीं।

ल्योशा इतनी देर तक नाचा कि मैं ऊब गयी।

उसने आखिरी चक्कर लगाया, फिर एक पैर पर बैठकर दूसरी टाँग सामने फैला दी और एक मुद्रा पेश कर दी। हर एक हँस पड़ा और ताली बजाने लगा। मेरी चाची ने रूमाल लगाकर नाक बजायी। लेकिन नवेली पत्नियाँ और उनके बच्चे उसकी तरफ ऐसे भक्ति भाव से ताकते रहे, मानो वह कोई भाषण देने जा रहा हो।

मैंने बाहर ओसारे में से आवाज सुनी: ‘‘तुम्हें मेरा घर मालूम है न? तब तो तुम जरूर आओगे।’’

‘‘आठ बजे चूकना मत।’’

मैंने अपने दल की लड़कियों को याद दिला दी कि सुबह चार बजे ही खेत पर पहुँच जाये; तमारा से कहा कि दस्ताने वसीलि कार्पोविच को दे दे, और फिर घर चली आयी।

रात अँधेरी और तारों से विहिन थी। मुझे सुनायी दे रहा था कि मेरे बागीचे से नंगी शाखों के बीच हवा सीटी देती हुई भटक रही है और माँ अँधेरे में मेरे लिए दरवाजा खोलने के लिए टटोलती चली आ रही है; इधर दूर मेरी चाची के घर में ग्रीशा ने एक और नृत्य-संगीत छेड़ दिया है ओर युवक-युवती इस तरह हँस रहे हैं और मजाक कर रहे हैं मानो उनके पास, करने के लिए और कोई काम नहीं है। अभी अँधेरा ही था कि हम काम पर चल पड़े। मुझे अपनी बाँहों पर घोड़े की साँस का अहसास हुआ-ल्योशा बीज लेकर खेतों की ओर जा रहा था। पाशा ने अपने ट्रैक्टर की सामने की रोशनी खोल दी और घोड़े की आँखें इस तरह चमक उठीं, मानो बिजली के लट्टू जल उठे हों। सवेलिच, उस रोशनी में ऐसा दिखायी दे रहा था, मानों किसी ने ऊपर से नीचे तक उसके ऊपर तक आटे का पाउडर मल दिया हो और घुलते हुए कुहरे में उसकी छाया सीधी खड़ी थी।

सुबह से पहले ही हमें काफी काम करना था। ट्रैक्टर में कोई खराबी नहीं आयी। गाड़ियाँ भी, एक के बाद एक, बीज लाती रहीं। लड़कियाँ बुआई की मशीन में बीच उंडेल रही थीं और सवेलिच को यद्यपि सिगरेट पीने की इच्छा हो रही थी, फिर भी वह तमारा के साथ जुटा था। भोर होते-होते हमने लगभग चार एकड़ में बुआई कर दी।

गाड़ी से बुआई-मशीन तक घड़ा लेकर भाग-दौड़ करते हुए, सवेलिच भुनभुनाया:
‘‘अब आये और देखे हमारा काम। शर्त रही, हम दिखा देंगे कि काम कैसे किया जाता है।’’

छः बज रहे थे और अभी सूरज और चाँद दोनों ही आसमान में थे, तभी अध्यक्ष महोदय तशरीफ लाये।

सवेलिच ने लोमड़ी की तरह आँखें मटकाते हुए कहा: ‘‘जरा गौर से देखिये, गौर से। शायद आप कोई सुझाव दे सकें, कामरेड अध्यक्ष?’’

वसीलि कार्पोविच जवाब दिये बिना मुड़कर ट्रैक्टर की ओर देखने लगा। बुआई की मशीन भूरी मिट्टी के ढेलों के ऊपर सहज भाव से बढ़ रही थी, जब-तब उसके बड़े पहिये के लोहे को रिम सूरज की किरणों से चमक उठती थी और बगल की क्यारियों में कौए इस तरह फुदक रहे थे, मानों हवा में बहे जा रहे हों हमने ट्रैक्टर मोड़ा और वसीलि कार्पोविच के करीब आ गये।

‘‘कहिए, कैसा पसन्द आया,’’ सवेलिच ने घमण्ड भरे स्वर में कहा। ‘‘तुम कुछ बोलते क्यों नहीं?’’

‘‘मुझे पसन्द नहीं,’’ अध्यक्ष ने कहा।

‘‘क्या? पसन्द नहीं?’’ सवेलिच ने ताज्जुब से कहा।

‘‘तुम्हारे काम का बंटवारा ठीक नहीं। ल्योशा तो मोर्चे पर बड़ी-बड़ी मशीनगनों को अकेले ही खींच लेता था और अब तुमने उसे एक औरत का काम दे रक्खा हैं वह घोड़े पर चढ़ा घूम रहा है और लड़कियाँ जान खपा रही हैं। इसीलिये बुआई की मशीन भरने में दस मिनट लग रहे हैं।’’

वसीलि कार्पोविच ने तमारा और सवेलिच को हुक्म दिया कि वे गाड़ी हाँकें और लड़कों से कहा कि वे बुआई की मशीन भरें।

सवेलिच को ठेस लगी।

वह बोला: ‘‘मैं नहीं करूँगा। तुम क्या समझते हो? क्या मैं अपाहिज हूँ?’’

‘‘यही करो बापू। तुम्हारे लिए यही काम आसान होगा।’’

‘‘मैंने कह दिया कि मैं नहीं करूँगा और अब नहीं ही करूँगा। तुम जाकर अपने दफ्तर में बैठो और यहाँ आने और हमारे काम में दखल देने के बजाय, कागजों पर दस्तखत बनाओ।’’

‘‘बहस नहीं, बापू। तुमने मुझे अध्यक्ष चुना है, तो जैसे मैं कहूँ वैसे करना चाहिए।’’

‘‘अध्यक्ष। मैंने तुम्हें अध्यक्ष चुना इसलिए कि जैसा तुम कहोगे, वैसा करूँगा। सुन लो। मेरे लिए तुम अध्यक्ष नहीं हो। तुम मेरे बेटे हो, यह न भूल जाओ।’’

‘‘मैं तुम्हारा बेटा हूँ, लेकिन अभी तुम नहीं मानोगे और गाड़ी नहीं चलाओगे तो मैं तुम्हें निकाल दूँगा।’’

‘‘क्या?’’

‘‘मैं तुम्हें निकाल दूँगा।’’

‘‘तुम? और मुझे?’’ सवेलिच मुँह बाये रह गया। ‘‘क्या? तुम मुझे निकालोगे? जानते हो, किससे बातें कर रहे हो?’’

‘‘अरे, तुम लोग यहाँ क्या कर रहे हो,’’ वसीलि कार्पोविच ने कहा। ‘‘अपना काम करो। यह घरेलू झगड़ा है।’’

‘‘अच्छा, तो तुम यह सोचते हो। अच्छा देख लूँगा।’’ सवेलिच मुर्गे की तरह सीना तानकर टहलने लगा; फिर हताश भाव से उसने हाथ झुलाया और बोला:
‘‘अच्छा भई, चलो, ऐसे ही काम बिगाड़ो।’’

बुआई हमने फिर शुरू कर दी। ल्योशा ने घड़े के बजाय बोरे से बीज उड़ेलने का फैसला किया और फिर उसने बुआई की मशीन रोके बिना ही, उसे भरने की तरकीब निकली; उसका साथ देना दूसरों के लिए मुश्किल हो गया।

काम का यह हिस्सा तेजी से चल निकला लेकिन इससे हमारा काम तेज नहीं हुआ, क्योंकि गाड़ियाँ हमारा साथ न दे सकीं। तमारा ने शिकायत की कि खत्ती से अनाज भरने में बड़ा वक्त लगता है। गाड़ी के इंतजार में ट्रैक्टर को रुक जाना पड़ता था और हालत पहले से भी बदतर हो गयी।

इस बात पर हम घण्टे भर परेशान रहे। नीले आसमान में कुछ बादल आये थे और उनमें से एक के पीछे सूरज चमक रहा था। दूर की पहाड़ी पर, बाँस की तरह लम्बा और पतला-सा बूढ़ा इवान दिखायी दिया।

‘‘ताक रहा है,’’ पाशा ने मुँह बना कर कहा। ‘‘ताक कर यह देखने की कोशिश कर रहा है कि हमने उससे अधिक काम तो नहीं कर लिया है।’’

बूढ़ा इवान वहाँ एक क्षण खड़ा रहा और फिर गायब हो गया, इस तरह, मानों धरती ने उसे निगल लिया हो। उसने ऐसे वक्त देखा था, जब हमारा ट्रैक्टर बेकार खड़ा था और मैं घोड़ों पर, पाशा पर और वसीलि कार्पोविच पर, झुँझला रही थी। इस पर सवेलिच तेल की टंकी पर बैठा हुआ हमारा मजाक बना रहा था और आग मं घी डाल रहा था।

‘‘वे जो ईंधन ढो रही हैं, उन गाड़ियों में से, क्या एक गाड़ी हमें नहीं मिल सकती?’’ ल्योशा ने पूछा।

‘‘किसी कीमत पर नहीं’’, वसीलि कार्पोविच ने कहा। ‘‘ईंधन के मामले में भी तो हम पीछे हैं। सिम्योन कहाँ है?’’

‘‘मेरा ख्याल है, हमेशा की तरह आपकी लारी के नीचे पड़ा हुआ होगा।’’

‘‘मैं जब से फौज से लौटा हूँ, तभी से उसे वहाँ पड़े हुए देखता हूँ। अभी घसीट कर लाता हूँ।’’

‘‘मेरा ख्याल है, इससे कुछ न बनेगा। इस तरह हाथ-पैर फटकार कर तुम रास्ता थोड़े ही बना सकोगे। दो दिन पहले मुर्गी का बच्चा भी इस कीचड़ में फँस जाता।’’

‘‘यह बात दो दिन पहले थी। आज हम सब कुछ पार कर लेंगे। याद करो जब हम तीसरे उक्रइनी मोर्चे पर लड़ रहे थे, तो कैसे-कैसे रास्ते तय किये थे।’’

‘‘शायद वह कर सके’’ ल्योशा ने कहा, ‘‘जाओ, बुला लाओ। लेकिन उसमें बिजली का यंत्र खराब है।’’

वसीलि कार्पोविच गाँव की तरफ चल चुका था और मैं उसको जोर लगाकर आगे बढ़ते और अगल-बगल उसके ओवरकोट के किनारे उड़ते देख रही थी। मुझे विश्वास था कि सड़क और बिजली का यंत्र खराब होने के वावजूद लारी यहाँ आ जाएगी। और सचमुच, हम दूसरी पारी खत्म कर भी न पाये थे कि मोटर पहाड़ी के किनारे प्रकट हो गयी। उस पर खूब ऊँचाई तक बोरे लदे थे और ड्राइवर के बगल की सीट से वसीलि कार्पोविच बाहर कूद पड़ा।

लगभग दोपहरी हो गयी थी। बादल हट गये थे और सूरज की किरणें तिरछी होने लगी थीं। जुती हुई जमीन की ताजी मिट्टी से भाप उठ रही थी। दूर, उधर खेत में एक छोटी-सी चीज चमकती हुई चकाचौंधिया रही थी, मानो किसी ने वहाँ शीशा रख दिया हो।

‘‘जरा अपने अध्यक्ष की तरफ देखो। ऐसा लग रहा है मानो वह प्रार्थना कर रहा हो,’’ पाशा हँसी।

इस लड़की की आँखें भी क्या हैं? वह तीर की तरह सीधे ट्रैक्टर चला रही है और फिर भी यह देख लेती है कि कहाँ क्या हो रहा है। मैंने देखा कि वसीलि कार्पोविच घुटनों के बल बैठकर बीज की गहराई की नाप कर रहा है। उसने एक जगह नापा, फिर बीज को मिट्टी से ढँक दिया, उठ बैठा, कपड़ों से मिट्टी झाड़ दी और फिर दूसरी जगह चला गया। मैं सोचने लगी कि वह इस तरह का कोट पहन कर आज रात को ल्योल्का से मिलने कैसे जाएगा।

जब हम लोग वसीलि कार्पोविच के पास पहुँचे तो ल्योशा बोल उठा: ‘‘यह बीज नहीं है, इस जमीन में तुम अपना दिल बो रहे हो दोस्त।’’ अब मैंने देखा कि क्या चीज इतनी चमक रही थी, वह एक छोटा सा काँच था जो नाखून से बड़ा न होगा।

अध्यक्ष ने जवाब दिया: ‘‘बस देर नहीं। जब ग्रीष्म आएगा, तब तुम इस खेत के कोने-कोने में अपने दिल को गाते-झूमते देखोगे। सिम्योन वहाँ क्या कर रहा है?’’

मोटर लौटकर नहीं गयी थी। पसीने से तर सिम्योन उसके बगल में खड़ा था और बकझक कर रहा था।

‘‘मैंने कहा था न, कि इसका बिजली का यंत्र खराब है। अब सब ठप हो गया।’’

‘‘क्या कहते हो, क्या ठप हो गया? मेरे साथ आओ।’’

आँधी की तरह भागता हुआ वसीलि कार्पोविच पहाड़ी पर चढ़ गया और मुझे फिर विश्वास हो गया कि बिजली का यंत्र चाहे बिल्कुल खराब हो जाए, वे लोग मोटर चला कर ही रहेंगे।

‘‘लो, वह फिर झाँक रहा है,’’ पाशा ने कहा!

‘‘झाँकने भी दो। इस वक्त तो यहाँ कुछ झाँकने लायक चीज भी है,’’ मैंने कहा, लेकिन मैं फिर आश्चर्य कर रही थी कि पाशा ने बूढ़े इवान को कैसे देख लिया, जब कि उस तरफ उसकी पीठ थी।

इधर हम बातें कर रहे थे और उधर वसीलि कार्पोविच और ल्योशा ने लारी को पहाड़ी के नीचे ढकेल दिया और मोटर फिर स्टार्ट हो गयी।

‘‘मैं घर जाऊँगा क्या?’’ सिम्योन चिल्लाया।

‘‘घर? अरे जाओ, हमारे लिए बीज और लाओ।’’

‘‘मैं कैसे जा सकता हूँ? फिर स्टार्ट नहीं होगी।’’

‘‘बहाने न बनाओ।’’

‘‘इतना पेट्रोल खर्च करने की जिम्मेदारी कौन ओढ़ेगा?’’

‘‘मैं ओढ़ लूँगा। बस, चल तो दो।’’

वसीलि कार्पोविच ने दोनों हाथों से एक घड़ा उठाया और सिर पीछे फेंक कर बड़ी तृष्णा के साथ पानी शुरू किया; पानी की बूँदें मोती की तरह उसके ओवरकोट के ऊपर से लुढ़ककर, बिना कोई निशान छोड़े, धरती पर झर रही थीं। उसकी इस तरह थककर चूर होने की हालत से मुझे ईर्ष्या सी हुई; मैं खुद उस आनन्द का उपभोग करना चाहती थी और जिस तरह उसने माथे का पसीना पोंछा, उसी तरह अपने माथे से पसीना झाड़कर अपने हाेंठों से उस पानी को लगा लेना चाहती जिसमें टीन की गन्ध आती है।

सवेलिच ने वसीलि कार्पोविच से लापरवाही के साथ पूछा: ‘‘अच्छा, अब मुझसे क्या करने को कहते हो?’’

‘‘जो मैंने पहले कहा था,’’ वसीलि कार्पोविच ने अपनी आस्तीन से मुँह पोंछते हुए जवाब दिया। ‘‘और बस, अब कोई बड़बड़ नहीं।’’

‘‘मुझ पर रोब न जमाओ। मैं तुम्हारा बाप हूँ; हूँ कि नहीं?’’

करीब-करीब शाम हो गयी थी। उसके चले जाने और ल्योल्का से मिलने का समय तो हो ही गया था, लेकिन वह अब भी खेताें पर दौड़ रहा था। कभी किसी घोड़े की दिशा बदल देता तो कभी टायर पर चैन चढ़ा देता और ज्योंही मुझे यह ख्याल आया कि ल्योल्का अपना चारखानेदार का रूमाल ओढ़े बैठी हुई इंतजार कर रही होगी और छोटी-सी चौकोर घड़ी देखने के लिए बार-बार कलाई मोड़ती होगी, तो मुझे न जाने क्यों मजा आया। और शायद उस शाम काम करते हुए सारे समय मैं मजा लेती रही और शायद मुस्कुराती भी रही, क्योंकि पाशा ने ट्रैक्टर पर बैठे-बैठे मुँह मोड़ा और कहा:

‘‘तुम्हारी शक्ल से लगता है मानों कोई तुम्हारा तलुवे गुदगुदा रहा है।’’

आश्चर्य है कि वह लड़की अपनी पीठ के पीछे होने वाली बात भी देख लेती है।

हम देर से घर गये। चाँद उदय हो गया था। वसीलि कार्पोविच भी हमारे सबके साथ ही वापस लौट रहा था। और उसके ओवरकोट के दोनों छोर उड़ रहे थे और शायद उनमें से किसी छोर से मेरा हाथ छू गया था।

हमने गाँव में प्रवेश किया। हर चीज चाँदनी में नहायी हुई लग रही थी-सड़क, बाड़े, छप्पर, मकानों की सीढ़ियाँ-मानों नीली बर्फ गिरी हो। ल्योल्का की खिड़की में रोशनी जल रही थी। वसीलि कार्पोविच उससे आगे बढ़ता गया और जब मैं अपने बरामदे में चढ़ रही थी तब मुझे सुनायी दिया कि वह जूते की ठोकर मार कर अपने घर का दरवाजा खटखटा रहा है।

मैं बरामदे में उस समय तक खड़ी रही, जब तक मैंने उसके लिए सवेलिच को दरवाजा खोलते, फिर बन्द करते और चटखनी चढ़ाते न सुन लिया; फिर मैं भी घर में घुस गयी।

हर रोज हम पहले से भी ज्यादा बुआई कर रहे थे। काम खत्म करने के बाद हम मिलकर बैठते और अपने काम के बारे में बातें करते। हमारे कोम्सोमोल की बैठकों में भाग लेने के लिए सवेलिच हमेशा आता और हम सबसे ज्यादा शोर मचाता। हमने शानदार तरीके से बुआई समाप्त की-जिले में हम लगभग प्रथम रहे।

मेरे ब्रिगेड का काम देखने के लिए वसीलि कार्पोविच लगभग रोज आता, लेकिन अब उसने हमें हुक्म देना बन्द कर दिया था। उसकी कोई आवश्यकता भी न थी। उसने जो काम जिसे सौंपा था, उसे लोग बखूबी कर रहे थे; घोड़े उसके कथन के अनुसार ही बीज ढो रहे थे और लारी भी काम कर रही थी।

अब वह मेरे काम में गलतियाँ नहीं निकालता था और एक दिन जब मैं तमारा को उसके काम के बारे में समझा रही थी, तो उसने कहा:

‘‘काम का यही तरीका है, लाल कपोलवाली। तुम्हें...’’ यकायक उसने बात खत्म कर दी और चला गया। मैं बड़ी देर तक उसे जाते हुए देखती रही और आश्चर्य करती रही कि आखिर वह क्या कहना चाहता था, लेकिन मैं कुछ अन्दाज न लगा सकी और जब मैं घर पहुँची तो मैंने शीशा देखा। सच, मेरे कपोल लाल हो रहे थे। चुकन्दर की तरह लाल। आज से पहले मेरा ध्यान इस तरफ क्यों नहीं गया था?

देखते-देखते गर्मी का मौसम आ गया।

एक शाम बूढ़ा सवेलिच मेरे पिताजी से मिलने आया।

अपनी टोपी रखने के लिए जगह तलाशते हुए उसने कहा: ‘‘तुम्हारा दरबा है भरपूर। खूबसूरत और आरामदेह। लेकिन हमारा घर? मेज-अल्मारी का कोई खाना खोलो कि बस मक्खियाँ टूट पड़ेंगी। हमारे घर में यह भी गन्ध नहीं कि वहाँ कोई रहता है। बस रेलवे स्टेशन जैसी गन्ध आती है। ऐसी जिन्दगी से मैं ऊब गया हूँ।’’

मैं लेट गयी थी; माँ गाय दुहने चली गयी थी; पिताजी और सवेलिच बिना लैम्प जलाये, वहाँ बैठे हुए थे। तन्दूर के पीछे कोई झींगुर झीं-झीं कर रहा था।

पिताजी और सवेलिच ने सिगरेट पीना शुरू किया।

पिताजी बोले: ‘‘तुम्हारे घर में जरूरत है एक औरत की।’’

सवेलिच ने कहा: ‘‘यही तो मैं भी कहता हूँ। भगवान जानता है, मैं न जाने कितनी बार यह बात वास्का से छेड़ चुका हूँ, लेकिन वह मेरी बात उड़ा देता है और काम के कोटों, ट्रैक्टरों वगैरह की बात करने लगता है। वह मेरे बस का नहीं है।’’

‘‘मेरा ख्याल है, उसे इसके लिए फुर्सत नहीं मिलती।’’

‘‘उसे फुर्सत नहीं है, मेरा सिर। वह साथ रहता है। उस ल्योल्का के, जो हमारे पशु देखती है। जानते हो उसे? तीन महीने से वह उससे मिल-जुल रहा है, लेकिन बात कुछ नहीं बनती।’’

‘‘शायद वह उसे प्यार नहीं करता।’’

‘‘तो वह उसके साथ क्यों रहता है? कहता है कि वह उसे पढ़ने के लिए किताबें देती है-हुँह।’’ सवेलिच ने हाथ झटके और फर्श पर तम्बाकू थूक दी। ‘‘लड़का पच्चीस का हो गया है, लड़की सुन्दर है। पढ़ी-लिखी है, स्वतंत्र है-और वह वहाँ किताबें पढ़ने जाता है। तब मैंने इसके बारे में पूछा तो कहता है कि आदमी में खूबसूरती ही सब कुछ नहीं होती। और मैं यह सोचता हूँ-ओहो आपके कितने ऊँचे विचार हैं।’’

‘‘आजकल के नौजवानों को समझना टेढ़ी खीर है,’’ पिताजी बोले।

‘‘यही तो मैं भी कहता हूँ-इन्हें कौन समझे। बताओ तो आदमी में खास चीज फिर क्या होती है? सुनो, मैंने अपनी पत्नी से कैसे शादी की थी-भगवान उसकी आत्मा को शान्ति दे। मैं कुछ दिनों उससे मिलता रहा, ईमानदारी और निश्छलता के साथ, और जाहिर है कि ऐसा वक्त आया जब या तो मुझे उसे छोड़ देना चाहिए था या शादी कर लेनी थी। मेरे पिता ने उससे शादी कर लेने को कहा। इसलिए मैं ईमानदारी और निश्छलता के साथ, उसके माता-पिता से मिलने गया और उसका हाथ माँगा और उन्हाेंने इजाजत दे दी और उसे बुलवाया। वे लोग खुद बाहर चले गये। और तुम यकीन कर सकोगे? मुझे लगा कि मैं उसे प्यार नहीं करता। इतने दिनों जब तक वह मेरे साथ घूमती-फिरती थी, मुझे वह अच्छी लगती थी, लेकिन जब शादी का वक्त आया तो मैंने महसूस किया कि मैं उसे प्यार नहीं करता और बस। क्या बटन जैसी नाक, हबशियाना मोटे होंठ, और सबसे बुरी बात यह है कि जब वह हँसती थी तो उसके ऊपर के मसूढ़े दिखायी देने लगते थे और उसके मसूढ़े थे पीले-पीले। ताज्जुब है कि जब मैं उसके साथ इश्क लड़ा रहा था तब भला यह बातें क्यों न देख पाया? मैंने एक बार फिर उसकी तरफ देखा: मैंने सोचा कि नहीं, इसके साथ मेरा बेड़ा पार न हो सकेगा। मैं घर आया और किसी से एक शब्द भी न कहा। अपने माँ-बाप से कुछ कहते डर लगता था। और फिर दूसरे दिन क्या होना बदा था-उसका चाचा मर गया। वह एक मिल का मालिक था और उस मिल को वह उसके पिता के नाम कर गया। मैं एक सप्ताह तक रुका रहा और एक बार फिर उससे मिलने के लिए गया। और तुम मानो, न मानो, उसकी नाक बटन जैसी न लगी, होंठ भी कुछ ऐसे मोटे न थे और उसके हँसने पर मसूढ़े दिखायी देने के बारे में मैंने सोचा कि भई, इसमें क्या बड़ी मुसीबत है; मेरे साथ रहेगी तो मसूढ़े दिखाने के मौके भी कम ही आयेंगे। इस तरह सारी बातें बदल गयीं। और उससे मुझे सबक मिला कि धन से ही आदमी खूबसूरत होता है। पहले लोग सोचा करते थे कि धन ही सबसे बड़ी चीज है। लेकिन आजकल क्या चीज मुख्य है, यह बता सकना मेरे लिए तो मुश्किल है।’’

दोनों चुप हो गये और उनकी सिगरेटों की दो लाल आँखें जल उठीं और फिर जहाँ मेज रखी थी, वहीं कोने में बुझ गयीं।

सवेलिच ने फिर शुरू किया: ‘‘वह क्या चाहता है, यह तो वह खुद भी नहीं जानता। मैं अभी उसके पास जाऊँगा...’’-और एक लाल आँख अँधेरे में टपक गयी-‘‘... मैं जाकर उससे कहूँगा कि उसे शादी करनी ही पड़ेगी। भला कहीं आदमियों से गृहस्थी चलती है।’’

‘‘लेकिन अगर वह न करना चाहे तो?’’

सवेलिच ने तुरत जवाब दिया: ‘‘अगर वह नहीं करना चाहता, तो मैं खुद अपनी शादी कर लूँगा।’’

लगता था कि उसके मुँह से जो निकल गया है उससे वह खुद घबरा गया है, लेकिन एक क्षण सोचने के बाद उसने फिर वही बात दुहरा दी:

‘‘मैं खुद अपनी शादी कर लूँगा। जरूर कर लूँगा। तुम क्या समझते हो कि मेरी उमर खत्म हो गयी है?’’

‘‘तुमसे शादी कौन करेगा?’’ पिताजी ने पूछा।

‘‘क्या फर्क पड़ता है? मान लो, मैं ग्रिगोरियेवना से शादी कर लूँ। उसके लिए भी तो अकेले रहना आसान नहीं है, जैसे कि मेरे लिए। और मैं जा रहा हूँ और अपने अध्यक्ष महोदय से इसी दम यह बात कहे देता हूँ।’’

सवेलिच ने बैंच से अपनी टोपी टटोलकर उठा ली, सलाम कहा और दरवाजा सावधानी से बन्द करके चला गया और पिताजी वहीं बैठे रहे और वह लाल आँख उस अँधेरे में जलती-बुझती रही। झींगुर की झीं-झीं के अलावा कमरे में पूरी तरह नीरवता थी और यह झीं-झीं मुझे इतनी सता रही थी कि उसे कुचल देने में मुझे संतोष ही होता।

माँ लौट आयी। वह खाना परोसने लगी और पूछने लगी कि सिरका कहाँ है। हमने भोजन किया और सोने चले गये, मगर झींगुर अभी भी झीं-झीं कर रहा था; और मैं न सो सकी; मुझे गुस्सा आ रहा था सवेलिच पर, जो वसीलि कार्पोविच को शादी करने के लिए मजबूर करना चाहता है, उसी तरह जैसे जार के जमाने में माँ-बाप किया करते थे।

अगला दिन गुजर गया और दूसरा दिन भी गुजर गया और मुझे मालूम न हो सका कि अपने बेटे से सवेलिच की बातचीत का परिणाम क्या हुआ। तीसरे दिन शाम को ल्योल्का दरवाजे से गुजरी और मैं उसे बुलाये बिना न रह सकी।

ल्योल्का ने रुककर कहा: ‘‘हल्लो’’। अब क्या कहूँ, यह मेरी समझ में न आया और ल्योल्का अपना सिर एक तरफ मोड़े हुए मेरी बात का इंतजार करती खड़ी थी।

‘‘लोग कहते हैं कि तुम्हारे पास बहुत सी किताबें हैं,’’ मैंने कहा, क्योंकि इससे बढ़िया बात मुझे ढूँढ़े भी न मिली। ‘‘एक किताब मुझे भी दोगी क्या?’’

‘‘अच्छा भई, मेरे साथ घर आओ और जो पसन्द हो, चुन लो।’’

जब मैं उसके साथ चली जा रही थी, तो नजर बचाकर उसकी तरफ देख लेती थी और मैंने ईर्ष्या का अनुभव किया, क्योंकि वह इतनी सुन्दर थी, जैसे कोई अभिनेत्री। आधा रास्ता पार कर लेने के बाद, उसने पूछा: ‘‘मेरी किताबों के बारे में, क्या वसीलि कार्पोविच ने बताया था?’’

‘‘नहीं, वह मुझसे क्यों बात करेंगे?’’

‘‘मैं समझती थी कि तुम और वह मित्र हो।’’

‘‘हम और मित्र? खेतों के अलावा मेरी उनसे कभी भेंट भी नहीं होती।’’

‘‘और मैं तुम्हें उससे दोस्ती करने की सलाह भी न दूँगी। वह इस योग्य ही नहीं है। मैं उससे भली-भाँति परिचित हूँ। वह मेरे साथ रहा करता था, मैं उससे बातें करने का प्रयत्न करती थी, लेकिन वह गुमसुम बैठ जाता था और मेजपोश मरोड़ा करता था और कभी कोई बात कही तो वही ‘‘लगी गोली!’’

ल्योल्का का कमरा इतना साफ-सुधरा था कि मुझे कोई चीज छूने में भी डर लगता था। उसने तोलस्तोय का ‘‘कजाकी’’ नामक गल्प-संग्रह आल्मारी से निकाला और मुझे दे दिया।

‘‘न्यूशा बैठो न।’’ उसने कहा। ‘‘मैंने सोचा कि शायद यह कमरा ही ऐसा है, जहाँ उसे बेचेनी अनुभव होती है, इसलिए एक दिन मैं उसे घुमाने ले गयी। तुम सोचोगी कि मेरे ऊपर उसकी यह महानतम कृपा थी। खलिहान पार करके हम उस जगह पहुँचे जहाँ जमीन ऊबड़-खाबड़ है। मैं उसे अपने बारे में बताती रही, लेकिन वह झाड़ियों की ओर दृष्टि गड़ाये रहा और बड़े भौंडे़ ढंग से बूट की एड़ी रगड़कर जमीन में गड्ढे बनाता रहा। बड़ी सुहानी शाम थी, कोयलें गा रही थीं और अन्त में मुझे लगा कि उस पर कुछ प्रभाव पड़ना आरम्भ हुआ है। वह चहक उठा और बिना ‘‘लगी गोली’’ दोहरायें बातें करने लगा। मुझे तो इस सब पर विश्वास ही नहीं होता था। मैं समझी कि अब हम एक-दूसरे को समझ सकेंगे। मैंने उसे ब्लोक के कुछ उद्धरण सुनाये और उसने बड़े सुन्दर ढंग से दाद दी। और तभी यकायक, वह जमीन में एक गड्ढे की तरफ इस तरह आँख गड़ा कर देखने लगा मानो उसने कोई भूत देखा हो। मेरी तो जान ही निकल गयी। फिर उसने मेरी तरफ भयावनी दृष्टि से देखा और चिल्लाया: ‘‘बूढ़े इवान के घर तो जाओ दौड़कर, और मेरे लिए एक खुरपा ले आओ। दोड़ो, भागो।’’ जो बात मेरे दिल में चुभ गयी, वह भी उसकी ‘‘दौड़ो, भागो,’’ मानों मैं कोई रंगरूट थी और वह कोई अफसर। स्वाभाविक ही था कि मैं उल्टे पैरों लौट गयी और घर वापस आ गयी।’’

‘‘खुरपा वह किस लिये चाहता था?’’ मैंने पूछा।

‘‘बात यह थी कि उसने कुछ कच्चा कोयला खोज निकाला था। वह आनन्द से पागल हो उठा था। यह अवश्य हुआ कि वह बाद में मेरे पास आया और क्षमा माँगी और पूरे एक घण्टे तक बैठा-बैठा यह सफाई देता रहा कि कैसे उसने सड़क से आधी मील दूर पर कच्चा कोयला देखा था जबकि इनके लाने के लिए गाड़ियाँ ग्यारह मील दूर जंगल पार जाया करती हैं। मुझे लगा कि मेरा दिमाग फट ही जाएगा।’’

‘‘लेकिन क्यों? यह तो बड़ी दिलचस्प बात है।’’

‘‘इसमें दिलचस्प बात क्या है?’’

‘‘सोचो दूसरे कामों के लिए अब कितने ही घोड़े खाली हो जाएंगे। वे लोग...’’

‘‘देखो, अब तुम व्याख्यान देना शुरू मत करो,’’ ल्योल्का ने मुस्कराकर कहा।

‘‘अच्छा भई। लेकिन, काम उसने शानदार किया। और खुद भी वह क्या शानदार आदमी है।’’

‘‘ओहो, सचमुच? लेकिन तुम्हारे बारे में उसका ऐसा ख्याल नहीं है,’’ ल्योल्का ने कहा।

‘‘नहीं है?’’

‘‘न तुम्हारा तो वह मजाक बनाता है।’’

‘‘क्यों?’’ मैंने पूछा और मेरा दिल बैठा जा रहा था।

‘‘यह कहना कठिन है। तुम्हें उस साथी की याद है, जो परसों जिला कमेटी की ओर से यहाँ आया था? वसीलि कार्पोविच उसे हमारे गेहूँ की फसल दिखाने खेतों पर ले गया था। मेरे पास भी कोई काम न था, इसलिए मैं भी चली गयी थी। वे इतनी दूर तक गये कि मैं तो थककर चूर हो गयी और अन्त में वसीलि कार्पोविच उसे तुम्हारे खेत पर ले गया और तुम्हारा मजाक उड़ाते हुए तुम्हारी चर्चा करने लगा।’’

‘‘मेरा मजाक क्यों उड़ाता है?’’ मैंने पूछा। ‘‘मीटिंग में तो उसने मेरे काम की सराहना की थी।’’

ल्योल्का ने क्या जवाब दिया, मुझे याद नहीं और मेरा ख्याल है कि मैंने चलते समय उसे सलाम भी नहीं किया। आधी दूर पहुँच गयी थी तब मुझे ध्यान आया कि उस किताब को मैं ल्योल्का की मेज पर ही छोड़ आयी थी, लेकिन मैं लौटकर नहीं गयी और जैसे ही घर पहुँची बिस्तरे में घुस गयी और सतर्क रही कि माँ मुझे रोती न देख ले।

दूसरे दिन में ‘‘स्तखानोवाइट’’ कार्यकर्ताओं के सम्मेलन में भाग लेने वोलोग्दा गयी। शाम को जब स्टेशन ले जाये जाने के लिए मैं कार में इंतजार कर रही थी, तभी वसीलि कार्पोविच आया। वह कार के नजदीक तक आया, फिर चारों तरफ इस तरह देखा मानों किसी के देख लेने का डर हो और फिर थोड़ा सा हँसा और एक फूल मेरी तरफ बढ़ा दिया और धीरे से बोला:

‘‘चाहिए?’’

‘‘नहीं, कामरेड अध्यक्ष, मुझे नहीं चाहिए,’’ मैंने जोर से कहा ताकि ड्राइवर सिम्योन सुन ले, ‘‘इसको देने वाले की तरह इसमें भी बहुत से काँटे हैं।’’

और कार चल पड़ी। मैंने पीछे की खिड़की झाँक कर देखा, लेकिन धूल के बादलों के कारण मैं वसीलि कार्पोविच को न देख सकी।

वोलाग्दा में हम चार दिन रहे। चौथे दिन मैंने सम्मेलन को अपने खेत के काम के बारे में बताया। मेरे भाषण के बाद, जिला कमेटी का वह व्यक्ति, जो हमारे खेत देखने आता था, मंच पर आया और बोला। पता चला कि वह फौज में वसीलि कार्पोविच का दोस्त रहा है-एक साल तक वे दोनों एक ही टुकड़ी में रहे थे। वह बड़ा खुश-मिजाज व्यक्ति था और जब वह युद्ध की चर्चा करता था तो वह भी बड़ी जिन्दादिली के साथ करता था; उसमें भयानकता जरा भी नहीं होती थी। उसने कहा कि उसे दुख है कि हमारे फार्म पर वह ज्यादा दिन नहीं ठहर सका और वसीलि कार्पोविच के साथ उसी के शब्दों में ‘‘समोवार के पास’’ बैठकर जी भर कर बातें न कर सका।

‘‘मोर्चे से लौटने के बाद वसीलि घर पर कैसे जिन्दगी बिता रहा है?’’ उसने पूछा। ‘‘सामग्री का पूरा भण्डार तो होगा? काँटे-छुरी, नहाने का टब वगैरह?’’

मैंने कहा कि वैसे वसीलि कार्पोविच मजे में है, लेकिन युद्ध-काल में उनकी माँ का देहान्त हो गया था और अब उनको और उनके पिता को अपनी घर गृहस्थी चलाने में बड़ा परेशान होना पड़ता है।

‘‘इसका इलाज आसान है। उसके लिए हम लोग एक पत्नी खोज लेंगे।’’

‘‘कौन?’’

‘‘यह बात तो मुझसे ज्यादा, तुम्हें जानना चाहिए। तुम्हारे यहाँ कोम्सोमोल की वह लड़की कौन है, जो एक दिन में अपने कोटे से तीन गुना अधिक काम कर लेती है? वह मुझे तुम लोगों के खेतों पर ले गया था और मुझे गेहूँ दिखाया था और तुम्हारे यहाँ के किसानों के बारे में बड़ी दून की हाँकता था, इतना कि...’’ ‘‘उस लड़की के बारे में वह क्या कहते थे?’’

‘‘बड़ी तारीफ करता था। उसने कई लोगों की तारीफ की लेकिन मतलब यह कि दूसरों कि तारीफ तो उसने गद्य में की और जब उस लड़की की चर्चा करने बैठा तो कविता बोलने लगा-बस, बल्लियों उछलने लगा।’’

वह व्यक्ति जरा हँसा और कोई बात याद करके उसने आँखें मटकाईं।

‘‘हमारे साथ जो लड़की थी, वह ईर्ष्या से इतनी जल-भुन गयी कि अपने नन्हें-नन्हें सफेद दाँतों से अपने चारखाने का रूमाल के चिथड़े-चिथड़े करने लगी।’’

यह बात उसने बहुत लक्ष्य करके कही और मेरी तरफ इस तरह देखा कि मैं घबरा गयी और मैंने उससे आगे बात करने की हिम्मत भी नहीं की-इस डर से कि कहीं वह उस बात को न समझ जाय, जिसे जानने से उसे कोई सरोकार नहीं। किसी तरह मैं सम्मेलन के समाप्त होने का इंतजार करती रही और स्टेशन पर टेªन का इंतजार भी खामोशी से करती रही, लेकिन ज्योंही मैं अपने स्टेशन पर उतरी, मैं अपने गाँव की तरफ जानेवाली मोटर के आने तक सब्र भी नहीं कर सकी और पैदल ही चल पड़ी।

जब गाँव पहुँची तो रात हो गयी थी। हमारे घर की खिड़की से रोशनी आ रही थी। मैं अन्दर गयी और देखा कि पिताजी और सवेलिच पी रहे हैं। माँ यह बड़बड़ाती टहल रही थीं कि उनका सिरका उठाकर जाने कौन ले गया है। मैंने कुछ न कहा.. क्योंकि अपने कपोलों की लाली दूर करने के लिए मैं सारे महीने सिरका पीती रही थी। मैं कुछ न बोली, क्योंकि मैं वसीलि कार्पोविच से मिलने के लिए और उससे यह कहने के लिए आतुर थी कि फूल स्वीकार करने की बात को लेकर वह बुरा न माने।

ग्यारह बज गये थे। इस समय घर से निकलना और इस तरह उससे मिलना सम्भव नहीं था, इसलिए मैंने बहाना सोचा।

‘‘कहाँ जा रही हो?’’ माँ ने पूछा।

‘‘बस अभी आती हूँ। मुझे एक पत्र वसीलि कार्पोविच तक पहुँचाना है।’’ सवेलिच ने एक घूँट भरते हुए दुखित स्वर में कहा: ‘‘वसीलि कार्पोविच तो चला गया है।’’

मेरा दिल टूट गया है।

‘‘चले गये?’’

‘‘चला गया। उसकी तरक्की हो गयी। उन्होंने उसे आज जिला केन्द्र के लिए बुला लिया। अच्छा अध्यक्ष था, क्यों है न?’’ मुझे ऐसा लगा कि सवेलिच ने यह सवाल आज शाम पहली बार नहीं किया था और न पिताजी ने पहली ही बार उत्तर दिया: ‘‘बहुत अच्छा अध्यक्ष था।’’

मैंने सिर पर शाल डाली और दौड़ चली। चाँद चमक रहा था। सारा गाँव, एक सिरे से दूसरे सिरे तक साफ दिखायी दे रहा था। हर चीज पूरी तरह खामोश थी। न एक भी कुत्ता भौंक रहा था और न एक भी पत्ती खड़क रही थी। और न एक भी आदमी दिखायी दे रहा था, मानो सारा गाँव जिला केन्द्र के लिए चला गया हो। मैं दौड़ पड़ी, फिर चलने लगी; चलती रही और फिर दौड़ने लगी कि सवेलिच का घर आ गया। खिड़कियाँ खुली थीं। मैं एक खिड़की के पास गयी। आधे चाँद न मेरी ओर ताका, मानो कह रहा हो: ‘‘तुम यहाँ क्या कर रही हो?’’ मैं दूसरी खिड़की पर गयी और वहाँ से एक और खिड़की पर, और वही चाँद मेरी ओर ताकता रहा, और मुझ पर हँसता रहा। मैं एक क्षण ठिठकी और फिर बाड़े में निकल आयी। ओसारे में एक टोंटीदार पात्र जिस रस्सी पर लटका था, उस पर अलसाया-सा झूम रहा था। अरगनी पर एक लत्ता झूल रहा था। मैं चरमराती हुई सीढ़ियों पर चढ़ गयी और दरवाजे पर एक ताला जड़ा हुआ देखा।

मुझे लगा कि सवेलिच ने सच ही कहा था।

मेरा दिल बैठ गया। मैंने जंगला बन्द किया और सपनों में खोयी हुई सी गाँव के छोर तक चलती गयी। चलते-चलते मैं उस दोराहे तक पहुँच गयी जहाँ वसीलि कार्पोविच ने मुझे उन पन्द्रह एकड़ों के लिए झिड़का था; मैंने पहाड़ी पार की और उस स्थान पर पहुँची जहाँ वसीलि कार्पोविच ने उस समय थकान से पूरी तरह चूर-चूर होकर घड़े से पानी पिया था।

हर तरफ, दूर जंगल के किनारे तक फैला हुआ पका गेहूँ हल्के-हल्के डोल रहा था। भारी बालियाँ मन्द पवन के झोंकों में झूम रही थीं और मन्द-मन्द मर-मर स्वर में, एक झीनी-सी गूँज के साथ, हल्की-सी सीटी बजा रही थीं। डण्ठलों पर चाँद की रुपहली किरणें जगमगा बजा रही थीं। और यकायक मुझे शान्ति और सुख का अनुभव हुआ।

‘‘वास्या, उस फूल के बारे में तुम बुरा मत मानना। वह तो मेरी मूर्खता थी।’’

मैंने कहा और मुझे लगा कि मैं रो पडूँगी।

हल्की-सी सर-सर ध्वनि के साथ गेहूँ के ऊपर फिसलती हुई एक लहर मेरी ओर लपकी और मुझे लगा कि बालियाँ एक दूसरे को ठेलती और धकेलती मुझे छूने के लिए होड़ कर रही हैं।

(1947)

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