वापसी व वापसी (पंजाबी कहानी) : बलराज साहनी

Vapsi Va Vapsi (Punjabi Story) : Balraj Sahni

लंगड़ू, नूरअहमद ने सर्गी की नमाज़ पढ़ते वक्त कुछ तोपें दगती सुनी थीं। उसके बाद चपरासियों को नई वर्दियाँ पहने इधर-उधर दौड़ते हुए देखा था। लेकिन परवरदिगार की दरगाह से यह पूछने की कोशिश न की कि माजरा क्या है। नियमानुसार खुदावंदे ताला से सारे काश्मीरियों की, और विशेषकर दरोगे की, चमड़ी कुत्तों के आगे डालने की दुआ करके वह चुपचाप अपनी लोई की तहों में सिमटकर बैठ गया, और कई घंटे बैठा रहा।
नियमानुसार बारह बजे लोहे का बड़ा फाटक कड़कड़ाया और दरोगा साहब ने अपनी छड़ी घुमाते हुए प्रवेश किया। उन्हें देखते ही नूरअहमद ने नियमानुसार अपना छः फूट चार इंच लंबा शरीर एक टाँग के भार उभारा और बड़े परिश्रम से गला साफ करते हुए तोला भर बलग़म दालान में थूक दी। इस स्वागत-करण पर आज दाएं-बाएँ की कोठड़ियों से हँसी की बजाय प्रतिवाद उठा, जिससे एकांतवासी नूर अहमद को पता चला कि आज महाराज का जन्मदिन है और शायद कुछ कैदी छूट जायेंगे।

यदि आठ साल इन तोपों के दगने का कुछ असर नहीं हुआ तो आज होगा, इसकी लंगड़ू को आशंका न थी। लेकिन जब पिछले सालों की तरह कैदी कोठरियों में से लोइयाँ सम्हालते निकले, तो नूर सोचने पर बाधित हुआ कि अब उसकी पत्नी की जवानी पर एक साल और पड़ जायगा।
और जब उसकी कोठरी के आगे से गुजरते हुए दरोगा साहब के कदम सहसा रुक गये तो उसका दिल भी रुक गया, और उसकी लाल आँखें डबडबा गई।

कुंजी ताले में फिरी और उसे बाहर निकलने का आदेश हुआ। निकलते ही दरोग़ा साहब ने एक ऐसा चौरस थप्पड़ उसकी गर्दन में दिया कि उसकी टोपी मिट्टी में जा पड़ी। लेकिन उसे उठाकर नूरू अपनी मस्तमौला चाल से चलता गया। वह दिन पूरे हो चुके, जब थप्पड़ उसके मस्तक पर बल डाल सकते थे। कमखुशकिस्मत कैदी अपनी-अपनी कोठरियों से पूरी हार्दिकता के साथ उसे अल्विदा कह रहे थे, लेकिन उसने न सुना, न ही यह सोचा कि उसके जाने के बाद उनका वक्त कैसे गुजरेगा। किसी ने ज़माने की हास्यास्पद रीति के अनुसार एक पुरानी कपड़ों की थैली उसे ला दी। किसी ने पैसे दिए, किसी ने अंगूठा लगवाया, किसी ने मशीन पर चढ़ने को कहा। नूरू मंत्र-मुग्ध की भाँति सब कुछ करता और अपनी बड़बड़ाहट से कर्मचारियों का दिलबहलाव करता रहा। फाटक के बाहर पहुँचकर उसने बाकियों से आगे बढ़ कर छाती पर हाथ रखा और अपनी गुस्ताखियों के लिए दरोग़ा साहब के आगे सिर झुका दिया। अपने इस अंतिम मसखरेपन पर लोगों का हास्य सुनता-सुनता वह पहाड़ से नीचे उतरने लगा।

दस-पंद्रह कदम उतर कर वह ठहरा। एक बार श्रीनगर के शहर पर और चारोंओर की फसल पर नजर घुमाई। अपने मुहल्ले को पहिचानने की कोशिश की। झील पर नन्हे-नन्हे शिकारों को रेंगते हए देखा। फिर आश्वस्त हो, अल्लाह का शुक्र कर उतरने लगा। सड़क पर कैदियों के संबंधियों का जमघट-सा लग रहा था। ची-चपड़ का बाजार गरम था, जिसे देखकर उसे नफरत हुई। स्वतंत्रता की कल्पना करते समय उसने यह कभी न सोचा था कि बाहरी संसार में रोना-धोना भी होगा।

फिर भी उसकी गर्दन, जनसमूह से ऊपर उभरी हुई, घूम-घूमकर किसी को खोजने लगी। किंतु थोड़ी देर बाद निराश हो गई और वह चल निकला। यह देखकर भीड़ के संपर्क से दूर पुल पर बैठा हुआ एक नव-युवक उठा और नूरू की ओर चला। उसकी दाढ़ी पान के पत्ते की तरह तराशी हुई थी, रंग गोरा था, और वह हरे कोट व सफ़ेद लाल पट्टे वाली, पगड़ी में सुसज्जित था। नज़दीक आकर अकस्मात उसने नूरू के पाँव छू दिये। नूरू सटपटा गया, और आवश्यक 'बार छुस' 'खैर छुस' के बाद खिसकने लगा। स्वच्छ कपड़े पहनने वालों से उसे सख्त नफ़रत थी। लेकिन नवयुवक ने उसकी बाँह पकड़कर कहा।

'लाला मुझे पहचाना नहीं?
नूरू तय न कर सका कि यह विनोद है या यथार्थ । उसने नवयुवक को सिर से पैर तक देखा। न, न, यह छेड़खानी नहीं थी। नवयुवक की आँखें सरल थीं और उनमें कुछ न कुछ नाहक उसे अपनी ओर खींच रहा था। नवयवक ने कहा
'लाला, मैं हबीब हूँ।'

'ओ हबीब? ओ बेशरम?' नूरू ने नवयुवक को छाती से लगा लिया। उसकी लाल आँखें फिर उमड़ आईं और उसकी मुसकराहट सुख और दुःख की सीमाओं में निरर्थक-सी पंक्ति खींचने लगी। लेकिन नवयुवक को यह भावुकता अच्छी न लगी, क्योंकि इसमें कई महीनों के बिना नहाये शरीर की बू थी। वह अलग होने की कोशिश करने लगा।
'हबीब? ओ बेशरम? तू इतना बड़ा हो गया। पिता ने पुत्र को फिर से निहारते हुए कहा।
'लाला, आठ साल हो गया।'
'हाँ, आठ साल हो गया। नूरे ने साँस छोड़ते हए कहा और दोनों आगे बढ़े। कुछ देर की चुपचाप के बाद हबीब ने गम्भीरता के साथ पूछा। 'लाला, अब तुम क्या करोगे?'

नूरू को यह शब्द भद्दा-सा मालूम हुआ। आठ साल की पाशविक कैद से छुटकारा पाकर दोजख की पहाड़ी से अभी उतरा हूँ और मेरे पुत्र के पास स्वागत करने का केवल यही साधन है कि मुझ से पूछे कि अब मैं क्या करूँगा? क्या इसे किसी ने नहीं सिखाया कि ऐसी बात नहीं कही जाती? नूरू खिन्न हो गया। यह वह हब्बे नहीं था जो पुलिसवालों के जतन करने पर भी बाप के कंधे से नहीं उतरता था, जिसके रोते हुए चेहरे की स्मृति ने उसके जीवन में तूफ़ान पैदा कर दिया था। इस पान के बादशाह की सी दाढ़ी और अकड़े हुए कपड़ों वाले को अपने बाप से शरम आती थी। शायद रहती भी इसी कारण नहीं आई। क्यों आये? कभी चोर के घर आने पर भी किसी को खुशी हुई है? लेकिन नहीं, नहीं। उसने प्रेम-भरे नेत्रों से अपने पुत्र की ओर देखा। कितना सुंदर चेहरा था, कितना पौरुष डील-डौल। कुछ दिनों तक ये लोग स्वयं ही देखेंगे कि नूरू कितना बदल चुका है। लेकिन रहती क्यों नहीं आई? कहीं बीमार न हो, कहीं मर ही तो नहीं गई? भला पूर्वी तो? फिर रुक गया। हब्बू सोचेगा, बाप कितना निर्लज्ज हो गया है। उसे अब यह अवसर नहीं चाहिए। उसने पुत्र के सवाल का जवाब सवाल में दिया"
'तू अपना अहवाल सुना।'

हब्बू का चेहरा तमतमा गया। वह इसी इंतजार में था। उसकी वरदी पहनकर आने, व बाकी लोगों से अलग होकर बैठने का अभिप्राय ही यह था कि संसार जान ले कि वह मामूली आदमी नहीं है। शायद उसे देखकर बाप को भी उपदेश मिले कि स्वच्छता और पारसाजी बुरी वस्तु नहीं। अट्ठारह वर्ष की अवस्था में ही उसके जीवन की महत्त्वाकांक्षाएँ वर आई थीं, यह श्रेय किस-किसको हासिल होता है? वह एक प्रभावशाली अंग्रेज का बैरा है। दिन-रात, जीवन का एक-एक क्षण साहब की सेवा में व्यतीत करता है। घर जाना, अपने संबंधियों के मुहल्ले तक में कदम रखना उसे मुसीबत है। कई सड़कें ऐसी हैं, जिन पर से गुज़रने की बजाय दो मील का चक्कर काटना उसे ज़्यादा मंजूर है। ऐसा बाप, और अब ऐसी माँ, बिरादरी तो उसे कच्चा चबा डाले।

'मैं राममुंशी बाग में गिटमैन साहब की कोठी पर नौकर हूँ। दो साल हुए काम शुरू किया था। पहले झाड़-फूंक व बूट पालिश का काम मिला, फिर साहब ने मेरी

ईमानदारी और परिश्रम की दाद देकर मुझे अपने कारखाने में चपरासी लगा लिया। अब दो महीने से बैरे का काम कर रहा हूँ। बीस रुपए तलब मिलती है और रोटीकपड़ा साथ में। साहब बहुत ही नेक आदमी है। उसकी फैक्टरी में दो सौ आदमी काम करते हैं लाला, दो सौ। महाराज के साथ पोलो खेलता है। दो मोटरें रखी हैं उसने, जिधर से निकल जाती हैं जहान देखता है। पिछले हफ्ते मुझे अपने साथ बिठाकर गुल्मर्ग ले गया था। कहा तो कुछ जाता नहीं, पर लाला, अल्लाह रहम करे और मेरे ईमान को बरकत बख्शे, साहब आगे और भी मेहरबान होगा। खुदा जानता है कि रात को तीन-तीन बजे क्लब से आता है और उसकी जेबों में सैकड़ों रुपये होते हैं। अगर चाहूँ तो पाँच-दस रोज़ इधर-उधर कर दूं लेकिन हराम की एक पाई मुझे मंजूर नहीं,

लंगडू, नूरअहमद को और सुनना असह्य हो गया। देखो लंगूर की तरफ़ । बजाय इसके कि मर्यादानुसार पहले अपनी माँ का, फिर दूसरे सगे-संबंधियों का कुशल समाचार दे, इसे अपने साहब की पड़ी है और फिर इसकी जुर्रत कि अपने बाप को धर्म-ईमान का उपदेश देना शुरू कर दे? लानत है। उसने काटकर कहा-'खैर, बहुत अच्छा। लेकिन बेटा, जो शख्स बाहर से आए पहले बुजुर्गों का हाल-अहवाल देना चाहिए, अदब यही सिखाता है।'

'ऊँह, उनका क्या है?' हब्बू ने उपेक्षा से कहा-'जिस गन्दगी में आगे सड़ रहे थे उसी में अब भी पड़े हैं। वही गंदा पानी पीते हैं, साल-भर नहाते नहीं, सारा दिन फिजूल बकबक में गुजार देते हैं। बाबा अहदजू के पास जो कुछ था, वह शराब और जुए की नज़र हो गया है और अब घरवाली को लातें जड़ने के सिवा उन्हें कोई काम नहीं। लाला इन लोगों से मुझे नफ़रत हो गई है।

चिनारों से घिरी हुई अब वह पुरानी सड़कें न थीं, उनका स्थान चौड़े-चौड़े चिकने मैदानों ने ले लिया था, जिन पर चर्र-चर्र करती हुई मोटरें इधर से उधर भाग रही थीं। चौराहों पर सिपाही कौतुकपूर्ण अंदाज से हाथ हिला रहे थे और बार-बार नूरू को आस-पास के थड़ों पर चलने का आदेश करते, जिन पर उतरने-चढ़ने में उसे दिक्कत होती। हर तरफ परिवर्तन, स्वच्छता की बू आ रही थी। नदी के आस-पास बेंत के वह जंगल, जिनमें कई दोपहर उसने छिपकर चरवाही युवतियों के संग बिताये थे, अब कहीं नज़र नहीं आते। आठ साल के अंदर नूरू का काशर देश बिल्कुल बदल गया। 'मैंने सुना है फ़िरंगी हराम की चीज़ भी खाते हैं, क्या यह ठीक है?' नूरू ने विष-भरे स्वर में कहा।

हबीब का उन्नत मस्तक इस प्रश्न पर गिर गड़ा। बेशक खाना-पकाना खानसामा का काम था, लेकिन प्लेट पर धर कर लाता तो वही था। उसके जी में आया कि स्पष्ट कह दे कि चोरी के मुकाबले में यह काम बुरा नहीं है, लेकिन आखिर बाप था। वह यह धृष्टता न कर सका! नूरू को भी पश्चात्ताप हुआ। यह माना कि उसने अपने पुत्र के लिए सदैव किसी उज्ज्वल और स्वतन्त्र जीविका की कल्पना की थी, लेकिन इस कैद की लंबी अनुपस्थिति ने सब बरबाद कर दिया। इसमें हब्बू का क्या कसूर?
कुछ दूर तक फिर दोनों चुपचाप चलते गए। आखिर नूरू से रहा न गया-
"रहती क्यों नहीं आई, ठीक तो है न?"
"हाँ ठीक है"-हब्बू ने गुनगुना कर जवाब दिया-
"मुझे काम ज़्यादा था, इसलिए कोठी से सीधा इधर आ गया।"

अब वह सड़क के आर-पार बनाये गये एक ऊँचे फाटक के पास पहुंचे जो टहनियों और फूलों से लदा हुआ था। इससे आगे रंग-बिरंगी झंडियों का एक ताँतासा लगा हुआ था। दूकानें सजी हुई थी और स्थान-स्थान पर सुनहरे अक्षरों से जटित कपड़े लटक रहे थे।

जन्मोत्सव की इन निशानियों को देखकर नूरू को पहले महाराज की याद हो आई। तब मोटरें भी न थीं और यह चौड़ी सड़कें भी न थीं। फौजी डोगरे एक कंधे पर बंदूक और दूसरे पर चिलम थामकर पहरा दिया करते थे। कितना शरीफ़ था बूढ़ा महाराज । जाते-जाते हजारों खैरायत कर जाता था। जिस दिन थोड़े पड़े, ड्योढ़ी में जा घुसे। दाल-भात नसीब हो जाता था। सिपाही को चौथे-पाँचवें दिन एक विलायती सिगरेट पिला दो, फिर चाहे वज़ीर की जेब कुतर लो। आह वे दिन..."

अकस्मात हबीब ठहर गया और कलाई पर लगी हुई घड़ी को देखते हुए बोला "लाला, अब इजाजत दो, मुझे काम है। शाम को आऊँगा।"
नूरू को जैसे किसी ने नश्तर चुभो दिया हो। इसे बाप को घर तक छोड़ आने की फुर्सत नहीं। उसके हाथों में जलन हुई, लेकिन पहले दिन ही कान पीस देना ठीक नहीं होगा। कल सही।

इसके बाद लंगड़ू, नूरअहमद अपनी मद्धम चाल से चलकर अपने मुहल्ले में पहुँचा। काले कीचड़, बाकरखानी तथा सड़ी हुई मछली की बदबू एक साथ सूंघते ही उसने अपने शरीर में एक नयी जान महसूस की। किसी कंजूस बनिये की तरह जिसे परदेस से लौटते समय ही आशंका बनी रहती है कि मेरा घर कहीं लुट न चुका हो, वह धड़कते हुए दिल से ठहरकर प्रत्येक स्थान को पहचानता। उसे तसल्ली हुई कि उसका कोई समव्यवसायी मुहल्ले के दो-एक मकान उड़ा नहीं ले गया।

अपनी गली के सिरे पर पहुँचकर उसने बिस्मिल्ला कही और अन्दर प्रवेश किया। लेकिन, न जाने क्यों, वही दीवारें जिनकी ओर कभी उसने आँख उठाकर देखने की परवाह न की थी, आज उसे खाने को दौड़ीं। उनकी ईंटें उसे अपरिचित-सी मालूम हुई। जैसे पूछ रही हों-"तुम कौन हो? यहाँ तुम्हारा क्या काम है?" दीवारों से नूरू को अब वैसे भी डर लगता था, मगर यह तो रास्ता ही रोक रही थीं। नूरू ने यह सोचा शायद वह किसी दूसरी गली में घुस आया है और वापिस मुड़ा। एक क्षण के लिए उसे ऐसा प्रतीत हुआ शायद वह मरने के बाद अपनी कब्र से उठकर चल पड़ा है। उसने रहती, अपनी पत्नी, के चेहरे को याद करने की चेष्टा की, लेकिन वही रेखाएँ जो जेल में हरदम उसके सामने रहती थीं अब दूर, किसी धुंधले संसार में जा बसी थीं। बाजार में पहुँच कर उसने फिर गली को परखा। गली तो वही थी।

इतने में अन्दर से एक ढोल की तरह मोटी अधेड़ उमर की हतबी, हाथों को फिरन के अन्दर छिपाये, अपनी छातियों की विपलता को काँगड़ी का सेक देती हुई, आती दिखाई दी। नूरे को देखते ही अपनी छोटी-छोटी दाग़ी सेब की सी, आँखें नचाती हुई चिल्ला उठी-

“वाह रे मेरे नागराई-य, वाह रे मेरे राँझिये, वाह रे मेरे कोंगपोश।" फिर हँसते-हँसते लाल हो गई। फिर पास आई और नूरू की बाँह थामकर मुहल्ले वालों को पुकारने लगी कि उसका नागराई वापिस आ गया है।
लेकिन उस मूर्खा के नागराई रोज़ वापस आते थे, इसलिए मुहल्ले में कोई हरकत पैदा नहीं हुई। उदास-सी होकर वह उसे लेकर एक थड़े पर बैठ गई।
नूरू ने उसे शोर करने से मना किया और कहा-“देखो, मैं थका हूँ, मुझे घर जाने दो, छेड़ो मत।"
स्त्री ने नटखट अंदाज़ से हाथ उठा लिये और उन्हें अपनी जाँघों पर पटकती हुई बोली-“जाओ, तुम्हें रोकता कौन है. मगर जाओगे कहाँ?"
"क्यों रहती घर पर नहीं?” स्त्री अपनी भयानक हँसी से फिर लोट-पोट हो गई।
"रहती? अरे काफ़िर, तुझे इस बेहूदा ढंग से बात करते हुए लाज नहीं आती? बेगम अख्तरी जान नोशेलब को रहती पुकारता है?"

चुड़ैल का व्यंग नूरे की समझ में न आया। आख़िर उसे काबू करने के एकमात्र उपाय का आश्रय लेते हुए उसने स्त्री की ठोड़ी हाथ में लेकर दस-पंद्रह लगातार अश्लील वाक्य कह डाले कि वह पसीज गई और शरमाती हुई बोली-
"रहती ने धंधा कर लिया है। वह जो दरिया पर झुका हुआ मकान है, वह जिसके छज्जे पर फूलों के गमले हैं और ऊपर मैना का पिंजरा है, हाँ, उसी में बैठती है।" यह कहकर वह रोने लगी।
नूरू उठा और अपनी टोपी को हाथों से टटोलता हुआ इस नये घर की ओर दृष्टि बाँधकर चला।
मकान की सीढ़ियों के पास एक क्षीणकाय, लंबे और खूब संवारे हुए बालों वाला व्यक्ति खाट पर बैठ हुक्का पी रहा था। लंगडू को ऊपर जाते हुए देखकर दुत्कार कर बोला-“ओ हतो, कहाँ जाता है?"
नूरू रुका नहीं।
व्यक्ति अपनी गुड़गुड़ी छोड़, लोई के आराम को स्थगित कर, उस पर लपका, लेकिन कुछ क्षण बाद उसी तेजी के साथ लुढ़कता हुआ सीढ़ियों से वापस आ गिरा और कुछ सोचकर फिर तम्बाकू पीने लगा।

नूरू एक बंद से विलास-गृह में दाखिल हआ। फर्श पर लाल गब्बा बिछ रहा था, और उस पर कोने में, तकियों से सजी हुई एक सफेद चादर। खिड़कियाँ बंद थीं और बत्ती जल रही थी। उसका प्रकाश खिड़कियों के आगे लटकी हुई रंग-बिरंगे मोतियों की झालरों, दीवार के साथ टँगे हुए एक चौड़े शीशे, कुछेक अधनंगी तस्वीरों में छलक रहा था। उसकी रहती सिल्क की रजाई ओढ़े, आँखों में हलका-सा काजल डाले, सिरहाने कुछ फूल रखे हुए, चौड़ी शय्या पर सो रही थी।

नूरू अपनी सालम टाँग के बल खड़ा होकर बेहोशी के आलम में उसे देखता रहा। यदि वह इस समय उसे छुरे से काट देता, या उसके साथ जा लेटता, तो यह दोनों ही घटनायें असंभव न थीं। लेकिन वह निश्चल खड़ा रहा। ऐसी परिस्थिति का उसे स्वप्न में भी सामना न हुआ था। वेश्याओं के पास वह जा चुका था, लेकिन उनमें से कोई भी इतनी सुन्दर न थी, जितनी उसकी पत्नी थी।
हठात् रहती ने आँखें खोलीं। विश्वास न कर सकी और उठ बैठी। उसके आतंक में अपनी भार्या की झलक नूरू को मिली, उन दिनों की जब सड़क ही पर वह उसे पीटने लग जाया करता था। पहचान से मुहब्बत और चाह जाग्रत हई। चिल्ला उठा"
'ओ हरामजादी, खंजीर की बच्ची, तुझसे इस नापाक कृतियापन के बगैर रहा न गया? ओ तेरे बाप की नसल दोज़ख में जाय। मैं वहाँ आग में जलता रहा और तू यहाँ गुलछर्रे उड़ाती रही। और...'

पेश्तर इसके कि अपनी आवाज से अधिकाधिक उत्तेजित होने का पुराना सिलसिला जारी हो जाता और क्रमशः नौबत हाथ उठाने पर पहुँचती, रहती ने रोना शरू कर दिया। यह रोना वास्तविक था या नहीं, केवल रहती ही जाने। वह कुछ-न-कुछ बदल चुकी थी। उसके चेहरे का अल्हड़पन बदस्तूर क़ायम था, लेकिन अब वह उससे काम लेती थी। यह भी जान गई थी कि जितना थोड़ा काम लिया जाए प्रतिक्रिया अधिक होती है। जीवन में पहली बार उसे अपने खाविंद के प्रति इस धारणा से प्रेरित होने का सौभाग्य मिला कि वह बेवकूफ़ है।

आधा घंटा बीता। नूरू उसे क्षमा कर चुका था। वह पास बैठी रुंधे कंठ से अपनी अगण्य विपत्तियों का हाल कह रही थी। नूरू सहानुभूति के साथ सिर हिला रहा था। बेशक वह भी सच्ची थी। वह क्या करती? लोगों ने उसे यह नहीं बताया कि उसके अजीज़ को किश्तवाड़ में ले जाकर बंद किया गया था, बल्कि यह बताया कि उसे कलकत्ते ले गये हैं। संबंधियों ने मुँह मोड़ लिया, खाती कहाँ से? पुत्र भी ऐसा पामर निकला कि साहबी के चकमे में आकर अपनी माँ तक को भूल बैठा। दो बार वह दरिया में कूद पड़ी, लेकिन बदनसीब को लोगों ने निकाल लिया। उसके वास्ते और क्या चारा था, फिर भी उसने किसी काफिर को अभी तक नहीं छुआ, हालाँकि पैसे ज्यादा देते हैं। पाँच बार नमाजें पढ़ती थी।

"अच्छा जो हुआ सो हुआ," नूरू ने कान में दियासलाई फेरते हुए कहा, “लेकिन अब रवैया बदलना होगा। मौजूदा हालत दोनों ही के गुनाहों का नतीजा है, वरना बेटा ऐसा गँवार न निकलता। रहती को शरीफ़-जादियों की तरह फिर से मैले कपड़े पहनने होंगे, और मुँह धोना भी दस-बीस दिन के लिए स्थगित करना होगा। सिर में राख डालकर बाल सीधे कर डालने होंगे, ताकि ज़माने का कटाक्ष न रहे।" रहती सहमत हो गई, और शीघ्र ही वेश बदलकर पुरानी हो गई।उसके बाद वही हुआ, जिसकी गली-मुहल्ला अब तक प्रतीक्षा में था। बेग़म अख्तरी जान नोशेलब के चबारे में अकस्मात बला की चीख-पुकार शुरू हुई। तसवीरें और मोतियों की झालरें गर्मियों की बारिश की तरह यकायक बाजार में टपक पड़ी। श्रोताओं ने न केवल मर्द के बच्चे के प्रचंड गर्जन की दाद दी, बल्कि किश्तवाड़ से आई हुई कई गालियाँ अपने शब्द-कोष में जोड़ लीं। अख्तरी जान नोशेलब का चीत्कार मुहल्ले के दरो-दीवार को कम्पायमान करने लगा। टफ़...टफ़...जूतियों की, थप्पड़ों की, छड़ी से पीटने की आवाजें आने लगीं।

फिर लोगों ने देखा कि बेगम नंगे सिर सीढ़ियों से लुढक कर नीचे आ रही है। उसके पीछे लंगड़ू, पलंग का एक रंगीन पाया हाथ में लिये हुए जल्दी से उतरने में असफल हो रहा है। सड़क पर पहुँचते ही बेगम एक कोने में सर पटक-पटककर लगी विलाप करने।

नूरू ने उसे तो वहीं छोड़ा, अब किंकर्तव्यविमूढ़ चारपाई पर आसीन दलाल के सँवारे हुए बालों को थामा। सड़क पर घसीटकर उसकी खोपड़ी को ऊबड़-खाबड पत्थरों पर ठोका और कमर में तीन-चार घूसे दिये। दो क्षण ही में उसे संज्ञारहित लोथड़े की तरह चित कर दिया।

अब नूरू ने बेगम को चुटिया से पकड़ा और ले चला उसका वितस्ता नदी में अंतिम संस्कार करने। जनता, जिनमें कई बेगम के प्रेमी रह चुके थे, अब बरदाश्त न कर सके। सैकड़ों की तादाद में लोग जमा हो चुके थे। अब वे तमाशा देखने की बजाय छुड़ाने के लिए आगे बढ़े। स्त्रियाँ थड़ों पर खड़ी होकर अपनी कीमती राय प्रकट करने लगीं। लेकिन जितना लोग आग्रह करते, उतना ही नूरू अपने नृशंसक इरादों पर कटिबद्ध होता जा रहा था। जब कोलाहल और जमघट अपनी तमाम परानी मर्यादाओं को पार कर चुका तो नूरू की छाती ठंडी हई। वही मोटे ढोल की सी, गंदे सेब की सी आँखों वाली, हतबी बेगम को अपने नर पिशाच नागराई के हाथों से छुड़ाने के लिए आई और आन की आन में सफल हो गई।

फिर वही पुराना घर जिसकी तिकोन छत पर प्याज की खेती थी। नूरू ने संतोष की साँस ली। रहती के साथ विवाहित जीवन को पुनरारम्भ करने में अब कोई रुकावट न थी, क्योंकि रसम पूरी संजीदगी के साथ निभा दी गई थी। रहती ने भी मुँह से नकली लहू पोंछा, और देखा कि नोटों का पुलिंदा आजारबंद में सुरक्षित है, फिर घर के काम में लग गई। नूरू साथवाले घर की छत पर बैठकर एक बुजुर्ग की चिलम की साँझी करने लगा। उसी घर के एक नवयुवक ने बाज़ार से उसके लिए मलमल की सफ़ेद पगड़ी ला दी, जिसे अपने उन्हीं मैले कपडों पर सजाकर और रहती की ओर एक लोलुप नज़र फेंककर, वह अपने नये जीवन की संसार को सूचना देने के लिए निकल पड़ा।

शाम हो चुकी थी। बाज़ार में भीड़ बढ़ गई थी। घरों में से चीड़ के धुएँ की खुशबू फैल रही थी। नूरू के मन में दो भाव इस समय प्रबलता से उद्दीप्त थे। एक तो यह कि उसे भूख लगी है और दूसरे यह कि जेल के फाटक में से जो संसार इतना सुखमय और बहुमूल्य नज़र आता था, वह अभी तक बहुत विशाल और फीका जान पड़ता है। जेल में वह कुछेक महत्त्वपूर्ण निश्चय करके निकला था, लेकिन अब उनके प्रतिफलित होने की आशा कठिन सी जान पड़ती थी। रहती के शरीर के लिए उसके रक्त में जबरदस्त भूख थी। शायद रात को वह चुपके-चुपके उसे फिर उसी तरह साफ़ होकर आने के लिए इशारा करे। लेकिन उसके जीवन का भविष्य हब्बू पर ही अवलम्बित था। वह कितनी उपेक्षा के साथ कन्नी काट गया? शाम हो गई, लेकिन अभी तक नहीं आया। क्या ही अच्छा हो कि उसे कुछ दिनों के लिए जेल ही में सोने दिया जाय। अभी कुछ घंटों की आजादी ही काफी है।

कुछ इसी प्रकार सोचता वह लंगड़ाता हुआ चला जा रहा है। उसका ध्यान एक खाने-पीने की दुकान के बाहर पड़े हुए संदूक की ओर गया। इसमें से किसी लड़की के गाने की आवाज आ रही थी-

चुल हमा रोशे रोशे
पोशे मति जाना नो।

नूरू ठहर गया। यह कौन गा रही थी? उसने देखा कि सड़क के किनारे बीस आदमी कान पर हाथ रखे बैठे हुए हैं, लेकिन किसी के मुँह पर तरस की रेखा तक नहीं कि गानेवाली को इस तरह बंद किया गया है। और संदूक उसकी कोठरी के मुकाबले में कितना छोटा था? इतने में गाना बंद हो गया। दूकानदार ने संदूक का ढक्कन खोला और उसमें से एक थाली-सी निकाली। नूरू लपककर आगे बढ़ा और अंदर झाँक कर पूछने लगा..."हतबी कहाँ है?" सभी लोग हँसने लगे। इतने में एक पुराने हमजोली ने उसकी बाँह पर हाथ रखा और उसे दूकान के अंदर ले गया।
रात के दस बज चुके थे। जब नूरू लड़खड़ाता हुआ दूकान में से निकला। लड़की फिर वही गीत गा रही थी-

चुल हमा रोशे रोशे
पोशे मति जाना नो।

नूरू ने हँसते-हँसते ढकना उठाया और अन्दर झाँक कर फिर रख दिया। लेकिन अब कोई न हँसा। सड़क खाली थी।
अपने मित्र से विदा लेकर नूरू आहिस्ता-आहिस्ता अपने घर की ओर चला। लेकिन साथ-ही-साथ उसका मन घर की ओर से उचाट होने लगा। क्या रखा है वहाँ? बीसियों के साथ प्रेम कर चुकी है। हब्बू के घर न आने का कारण भी वही है। न जाने अब भी किसी यार को बगल में लिए बैठी हो। नशे में आकर किसी की प्रवृत्ति तामसिक हो जाती है और किसी की सात्विक।

नूरू वापस लौट पड़ा। पूरब दिशा में आकाश लाल बत्तियों के प्रकाश से अंगारे की तरह जगमगा रहा था। अभी अमीर कुदल में जनसमूह का कोलाहल सुनाई दे रहा था। नूरू के दिमाग में शराब की मस्ती कुछ बढ़ रही थी। कदम चुस्त करके वह भी अमीर कुदल की ओर चला।

बड़े बाजार में भीड़ सड़क के दोनों ओर रुकी हुई थी और महाराज की मोटरें गुजर रही थीं। नूरू को भीड़ में ठहरना पसंद न आया। सरकता-सरकता, लोगों की गालियाँ और धक्के खाता हुआ वह पुल के पास पहुँच गया। भीड़ में से निकलकर वह पास ही के एक बाग़ में चिनार के नीचे जा बैठा। उसका हाथ उठकर उसकी आँखों के सामने आया। उसमें सोने की घड़ी तथा जंजीर थी और एक चमड़े का बटुआ। नूरू ने उसे खोलकर देखा। पंद्रह रुपये थे।

इनकी तरफ देखता हुआ नूरू हँसने लग गया। हँसता गया और घड़ी को उलट-पलट कर देखता रहा। उसकी उँगलियाँ अनभ्यस्त होकर भी इतनी शिथिल नहीं हो चुकीं। यकायक उसने बटुआ भी और घड़ी भी घृणा के साथ दूर फेंक दी और उँगलियों को बंद-खोल कर सराहने लगा। लेकिन उसके मन की बेचैनी दूर न हुई। उठकर वह फिर बाजार में आ गया।

मोटरें गुजर चुकीं और भीड़ तितर-बितर हो रही थी। नूरू को ऐसा लगा कि उसके मनोविनोद के लिए बनाई गई वस्तुएँ बिखर रही हैं। और वास्तव में जो लोग एक व्यक्ति को मोटर में गुजरते हुए देखने के लिए घंटों खड़े रहें और फिर चुपचाप घर चले जायें वे और थे ही क्या?

भीड़ एक स्थान पर गठ गई थी। एक मोटे पेटवाला व्यक्ति कभी पुल पर इधर और कभी उधर जाता था। जिधर वह जाता, भीड़ उसके पीछे जाती। नूरू को पता चला कि उसकी सोने की घड़ी चोरी हो गई है। उसके बाद एक और टोली एक थानेदार साहब की निगरानी में आ पहुँची। इनमें से एक का बटुआ गुम हो गया था और एक का कलम; एक दूसरे व्यक्ति का जेब कट गया था। नूरू पहले तो विस्मित हुआ। फिर उसकी बाँछे खिल गई। यह अकेले जादुगर का काम नहीं है। कोई और भी खेल रहा है। पुल के नीचे नीचे दरिया अपनी मस्त चाल से बह रहा था। डूगों में हतबियाँ किसी आगामी शादी के गीत गा रही थीं। तख़्तए सुलेमान पर चाँद अपनी पूरी ज्योति के साथ चमक रहा था। पुल के जंगले के साथ टेक लगाकर नूरू ने गुनगुनाना शुरू किया-

'चुल हमा रोशे रोशे'
पोशे मति जाना नो।

भीड़ आहिस्ता-आहिस्ता खत्म होने को आई। लंगड़ू भी उसकी एक शाखा के साथ-साथ पीछे चला।
वह नहीं जानता था कि वह किस दिशा में जा रहा है, या क्यों। कभी-कभी राहगीरों को ताने दे देता, उनके वस्त्रों पर कटाक्ष करता, लेकिन वह गंभीर-सा मुँह बनाकर आगे चले जाते, जैसे घर नहीं दफ्तर जा रहे हों।

अब उसे ख्वाहिश हो रही थी कि घर लौट जाऊँ, लेकिन एक-एक कदम के साथ उसे ऐसा प्रतीत होता था कि वह बीस-बीस कोस आगे बढ़ रहा है। हबीब खान घर पर नहीं होगा। रहती कितनों के साथ लेट चुकी है। नापाक औरत । अब भी किसी की बगल में बैठी होगी।

इस उधेड़बुन का आखिरी फैसला करते हुए नूरू ने तय किया कि वह आज ही रात दूसरी शादी करेगा। रहती और हबीब को भविष्य में शक्ल तक न दिखायेगा। स्त्रियाँ डूगों में बैठकर उसके गीत गाएँगी और वह संदूक से भी संगीत करवायेगा।
लेकिन इसके लिए पैसों की जरूरत होगी। हैं? पैसों के लिए ही तो वह भीड़ के पीछे जा रहा था।
हजूरी बाग के चिनारों के समीप पहुँचकर उसने राह बदल ली। बाग के बाईं ओर तीन-चार सफेद कोठियाँ चाँद की धूप में सो रही थीं। उन्हीं में से एक पर उसकी नजर जम गई।
कोठी की बगल में एक पेड़ था। नूरू उसके साथ सटकर खड़ा हो गया, जैसे किसी प्रेयसी के गाढ़ आलिंगन में हो। आहिस्ता से उसने अपनी सफेद पगड़ी को जमीन पर रगड़कर मैला किया, और फिर उसे रस्सी की तरह गठ कर बाँह के नीचे दाब लिया।

कोठी के आगे सात फुट ऊँची दीवार थी और उसकी चोटी पर काँच के टुकड़े जड़े हुए थे। सड़क की टोह लेकर नूरू बड़े आराम के साथ दीवार के पास पहुँचा और छाँहों में लुक गया। थोड़ी देर भिखारियों की तरह बैठकर दायें-बायें देखता रहा, फिर उठकर उसने पगड़ी को ढीला किया और काँच के ऊपर जबरदस्त झटके के साथ पटका। वह फौरन बैठ गई। स्थान-स्थान पर उसने उसमें गाँठें बाँधीं। इस प्रकार पगड़ी की दोहराई में जूते समेत कदम रखकर वह सहज ही दीवार पर पहुँच गया। वहाँ से बिजली की तरह पगड़ी-सीढ़ी उठाकर अंदर की ओर फेंकी और फिसलकर बागीचे में आ रहा।
फिर पगड़ी खोलकर उसने इस ढंग से फैला दी जैसे कोई कपड़ा सूखने के लिए डाला जा रहा हो। उसके एक छोर के नीचे अपना जूता छिपा दिया ताकि ढूँढ़ना न पड़े।

मकान के आगे एक छोटा-सा बरामदा था जिसके शीशे के सभी दरवाजे बंद थे। शीशों को काटकर दरवाजा खोलना असंभव था, क्योंकि नूरू के पास कोई औजार न थे, इसलिए वह मकान की पिछली तरफ गया। ऊपर की छत के एक कमरे में बत्ती जल रही थी, और इसमें नौकर बर्तन माँज रहे थे। मकान के एक तरफ लकड़ी की तंग सीढ़ी थी जिसका दरवाजा अभी बन्द नहीं किया गया था। यदि फौरन ही उसने इसका फायदा न उठाया तो यह भी बंद कर दिया जायेगा। नूरू दबे पाँव ऊपर चढ़ गया और रसोईघर की खिड़की में से अन्दर झाँकने लगा। एक नौकर बरतन धो रहा था और दूसरा प्लेटों को पोंछ रहा था। कम-अज़-कम आधे मिनट के लिए उनके मुँह फेरने की संभावना नहीं। यह ठानकर नूरू ऐन उनके सामने होकर गुजर गया और एक अँधेरे कमरे में प्रविष्ट हुआ। लेकिन तभी उसे एक नौकर के गाने की आवाज अपनी ओर आती सुनाई दी। नूरू एकदम सटकर दीवार के साथ खड़ा हो गया। नौकर अन्दर आया। नूरू का कलेजा धड़कने लगा, लेकिन नौकर ने बिजली का बटन नहीं दबाया। कोई चीज उठाकर वह फिर बाहर चला गया। नूरू फौरन दूसरे दरवाजे से होकर मकान के भीतर जा घुसा । यहाँ एक गली-सी थी, जिसके साथ-साथ सीढ़ियाँ ऊपर-नीचे जाती थीं। फर्श लकड़ी का था और चिरचिर करता था। लेकिन नूरू हल्के कदमों से ऊपरवाली सीढ़ियों पर जा चढ़ा। फिर अपने हाथों की मदद से जंगले पर जोर डालकर तीन छलाँगों में तीसरी छत पर जा पहुँचा। एक मंजिल बाकी थी, वह भी चढ़ गया। उसने जाँच लिया कि इस मंजिल पर कोई नहीं रहता। आश्वस्त होकर वह सीढियों पर बैठकर दम लेने लगा।

सीढ़ियों के दायें-बायें के दरवाजों से चंद्रमा का प्रकाश छलककर अन्दर आ रहा था। इसकी सहायता से नूरू ने अपरिचित घर के दायें-बायें नजर फेरी। सब सुनसान था। नूरू को अपना वहाँ होना बहुत ही विचित्र-सा लगा।

उसका मन चुटकियाँ लेने लगा। मैं क्यों यहाँ आया हूँ। इसलिए कि मैं रह नहीं सका। मुझे दूसरे के घरों के वह हिस्से देखने की लत पड़ गई है, जिन्हें वह स्वयं । नहीं देखते। धन खर्च करते हैं, मकान बनवाते हैं, फिर उन्हें भूल जाते हैं। सुबह उठे, काम पर चले गए, रात को लौटे चिटखनियाँ चढ़ाकर सो गये। कभी इस तरह सीढ़ियों पर बैठकर उन्होंने चंद्रमा नहीं देखा। वास्तव में मकानों का स्वामी तो मैं हूँ। मैं पास आते ही उनकी दीवारों से मित्रता पैदा कर लेता हूँ। मैं उनकी छातियाँ चीरकर चला जाता हूँ और वह मुझे याद करती रहती हैं।

एक सफेद बिल्ली किसी कोने से निकली और उसे देखकर भाग गई। नूरू भी सटक गया। फिर हँसने लगा। खुदावंद ने उसे गरूर की सजा दी।
नौकर अब सो गये होंगे, यह अनुमान करके नूरू उठा और शनैः-शनै: निचली छत पर उतर आया। यहाँ उसने एक किवाड़ को धकेला और दाखिल हुआ। चंद्रमा की

रोशनी कमरे के अंदर आ रही थी। कमरा खाली था। दीवार के साथ एक मेज पर कुछ बोतलें पड़ी थीं और बाकी कमरा भी एक बड़े से मेज और कुर्सियों से पूर्ण था। नूरू ने एक बोतल खोली और नाक से लगाई। फिर गटागट पाँच-दस घूँट पी गया। इसके बाद वह कुर्सियों से बचता हुआ साथ वाले कमरे में पहुँचा। यह भी खाली था। क्या सारा मकान खाली था?

इस कमरे के एक तरफ मेज पर कुछ वस्तुएँ पड़ी थीं। नजदीक आने पर मालूम हुआ कि यह तेल की बोतलें व कंघी बुरुश इत्यादि हैं। नूरू ने दराज खोलकर देखे। यहाँ उसे सोने की चार चूड़ियाँ और दो अंगूठियाँ मिलीं। नूरू ने इसे बहुत ही अच्छा सगुन समझा। उसकी भावी पत्नी के लिए जेवरों का इंतजाम भी सहज ही में हो गया। उन्हें जेब में डालकर उसने दराजों को फिर टटोला, लेकिन और कुछ न मिला। वापस लौटते वक्त उसने देखा कि उसकी टाँगें कुछ-न-कुछ लड़खड़ा रही हैं। यह अनुभव करके कि शराब अब भी ठीक वही वस्तु है जो आठ बरस पहले थी, उसे प्रसन्नता हुई, इसलिए उसने पहले कमरे में वापस आकर बाकी बोतल भी समाप्त की। अब उसे ख्याल आया कि दुलहिन के लिए जेवर तो ले लिये, लेकिन अगर तेल, कंघी और शीशा भी ले चलूँ तो क्या हर्ज है। जमाना बदल रहा है। मुझे भी अपने विचार बदलने चाहिएँ। मैं अपनी दुलहिन को वेश्याओं से भी सुन्दर बनाकर रखूँगा और वह किसी दूसरे मर्द की ओर देखेगी भी नहीं। केवल मुझे प्यार करेगी।

अब निधड़क होकर उसने बिजली का बटन दबा दिया। रोशनी ने उसकी आँखों को चैंधिया दिया। उसने देखा कि दीवारों से सटी हुई दो-तीन आल्मारियाँ भी हैं। वह रुकता-रुकता उनके पास पहुंचा और किवाड़ खोल दिये। देखा कि आल्मारियाँ सिल्क और ऊन के मुलायम कपड़ों से लदी पड़ी हैं, और उनमें अत्याकर्षक गंध आ रही है। उसने कपड़े फर्श पर फेंकने शुरू कर दिये। फिर कंघी शीशा लेने ड्रेसिंग टेबिल पर पहुँचा। शीशियों के बीच में एक चाँदी की छोटी-सी, अति सुन्दर, काश्मीरी सुरमादानी पर उसकी आँख पड़ी। उसका दिल बाग-बाग हो गया। अगर दुलहिन सजी-धजी होनी चाहिए तो दूल्हा का श्रृंगार भी तो लाजिम है। कपड़ों के ढेर के दरमियान आईना अपने सामने रखकर वह बैठ गया और लगा आँखों में सलाई फेरने।
दूर से पहरेदार की आवाज उसके कानों पर पड़ी...खबरदार ! खबरदार हो...ए?' यह नूरू को बड़ी सुरीली लगी, विशेष कर 'हो...ए' वाला हिस्सा, जैसे पहरेदार ने केवल उसी के मनोरंजन के लिए निकाली हो, बड़े आराम से उसने अपने नेत्रों में सुरमा डाला, और कोशिश की कि आँखों में ही पड़े।
पहरेदार की फिर आवाज आई। 'खबरदार हो...ए'?

नूरू को फिर बहुत आनन्द आया। बच्चों की तरह नकल उतारकर उसने भी ऊँचे स्वर में पुकारा...
'खबरदार ! खबरदार हो...ए?'

मुहल्ले का पहरेदार इस प्रतिध्वनि को सुनकर बहुत संतुष्ट हआ। कलाविदों को कलाविदों का अभिनन्दन पाकर प्रोत्साहन मिलता है। उसने लट्ठ किसी दीवार के साथ पटककर एक नये ढंग से ललकारा...
'हट हट अहहहह खबरदार हो...ए?'
इधर से भी प्रतिध्वनि हुई...
'हट हट अहहहहहह खबरदार हो...ए?'

लेकिन साथ ही एक दारुण चीत्कार भी उठा। वजीर-माल साहब के बंगले से घबराई हुई आवाजें आनी शुरू हो गई। पहरेदार भागा और फूल में छुपे हुए काँटे की तलाश में, फाटक कूदकर मकान के अन्दर घुसा। घुसते ही उसने एक फायर बन्दूक का आकाश में किया। निचली छत पर वज़ीर साहब और उनका कुटुम्ब बरामदे में खड़ा काँप रहा था। ऊपर से लगातार आवाजें आ रही थीं...
'हट हट अहहहहहह खबरदार हो...ए?'
'हट हट अहहहहहह खबरदार हो...ए?'

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