वनमाला तुम्हें सलाम! (कहानी) : प्रकाश मनु

Vanmala Tumhein Salaam! (Hindi Story) : Prakash Manu

राजेश्वर के पुराने मित्र हैं परमेश्वरी बाबू। अजीब, बड़े ही अजीब। बड़े हठी और धुन के पक्के। विश्वविद्यायल में अच्छे-खासे प्रोफेसर थे, पर सब कुछ छोड़-छाड़कर यहाँ-वहाँ भटकने लगे। मन में एक ही धुन कि उनकी किताब जल्दी से पूरी हो, जिसमें जगह-जगह बिखरी देश के अनाम शहीदों की गाथाएँ वे लिखना चाहते थे।

काफी काम हो गया था, पर अभी बहुत कुछ बाकी था। और वे दीवानावार उसे पूरा करने में जुटे थे। आज यहाँ तो कल वहाँ, ताकि उनकी साँसों का हिसाब चुकने से पहले किताब सामने आ जाए।

क्रांतिकारियों की जीवन-गाथाओं से जुड़े परमेश्वरी बाबू के जोशीले लेख अखबारों में छपते, तो राजेश्वर सहाय उत्सुकता से पढ़ते। मन में जोश की लहर सी पैदा होती कि देखो, मेरा दोस्त कुछ काम कर रहा है। सच ही एक बड़ा काम। वरना आज के जमाने में किसे पड़ी है घरबार और जमाने की तीन-तिकड़ी भूलकर यों शहर-शहर, गली-गली की धूल फाँकता फिरे!

बरसों हो गए थे मिले हुए। पर इन लेखों को पढ़ा तो पुरानी पहचानें ताजी हो गईं। एक दिन राजेश्वर ने एक पत्रिका में परमेश्वरी शरण का पता देखा तो झट चिट्ठी डाल दी—

“कहीं तुम वही परमेश्वरी तो नहीं, जो मेरे साथ आगरा कॉलेज में पढ़े थे? जरूर वही होगे, वरना ऐसा धुनी परमेश्वरी इस धरतीतल पर दूसरा भला कहाँ हो सकता है?...तो आजकल कहाँ हो दोस्त? क्या कर रहे हो? हम लोग कैसे मिल सकते हैं?”

इस पर परमेश्वर बाबू की चिट्ठी नहीं, बल्कि वे खुद ही सशरीर मलखानपुर आ पहुँचे। आते ही धधाकर मिले और खूब जोर से हँसते बोले, “प्यारे दोस्त, तुमने पूछा था कि अपन कैसे मिल सकते हैं? तो मैंने सोचा कि अचानक तुम्हारे पास पहुँचकर बता ही दूँ, कि अजी मेरे प्यारे बालमित्र, हम ऐसे मिल सकते हैं!”

सुनकर दिल बाग-बाग हो गया राजेश्वर सहाय का। और सचमुच कोई चालीस बरस बाद दोनों पुराने मित्र मिले तो बातों का कोई ओर-छोर ही न रहा। चायपान और नाश्ते के बाद बातें, बातें और तमाम बातें। दोनों सारी दुनिया भूल, मगन होकर पुरानी यादें ताजा कर रहे थे।

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राजेश्वर सहाय को लगा, थोड़ी देर के लिए घड़ी और समय का चक्का जैसे पीछे की ओर मुड़ गया है और वे सचमुच अपनी किशोरावस्था में लौट गए हैं।

दोनों किस कदर शरारतें और हँसी-ठिठोली करते थे। पर इसके साथ ही पढ़ाई, वाद-विवाद प्रतियोगिता और समय-समय पर होने वाले व्याख्यान सबमें सक्रिय थे। परमेश्वरी तो कुछ ज्यादा ही। तब भी बार-बार कहता था, “देखो राजेश्वर, देश ने हमें क्या कुछ नहीं दिया!...कितनी खुशियाँ और उल्लास, कितना सुख-साज, कितनी महान परंपरा और अनमोल विरासतें। मगर हमने देश के लिए क्या किया? हमें भी तो कुछ लौटाना चाहिए न!”

तब उसकी बातें पूरी तरह समझ में नहीं आती थीं राजेश्वर सहाय को, पर अब तो समझ में आ रही हैं। एकदम। सामने मेज पर रखे कलम और कागज की तरह।

तब भी परमेश्वरी बीच-बीच में कई दिनों के लिए गायब हो जाता और लौटता तो उसके पास अनंत किस्सों का भंडार होता। कभी वह राजस्थान के भीलों से मिलने चला जाता तो कभी मध्यप्रदेश के आदिवासियों से। कभी पुराने ऐतिहासिक स्थलों की खोजबीन में जुट जाता तो कभी धुर दक्षिण की यात्रा करके लौटता और कहता, “देखो मित्र, अपना देश कितनी विविधताओं से भरा है। हमें कम से कम एक बार इसे देखना और जानना तो चाहिए।...”

आज वे सारी बातें ताजा हो रही थीं और राजेश्वर को बहुत कुछ याद आ रहा था। जैसे उनके दिल के कैनवास पर किसी ने ताजा-ताजा चित्र उकेर दिया हो।

तभी अचानक बातों-बातों में उन्हें कुछ याद आया। बोले, “सुनो परमेश्वरी, तुम्हें कुछ याद है वनमाला की?...ऊँचा गाँव की वनमाला भारती!”

“नाम तो सुना है...!” कुछ बेध्यानी में परमेश्वरी बाबू बोले।

फिर एकाएक उन्हें जैसे झटका सा लगा। महसूस हुआ कि जैसे स्मृतियों के आगे से परदा हट गया है। जोश में आकर बोले—

“हाँ-हाँ, याद है, बहुत कुछ...! बहुत कुछ याद आ रहा है। अरे, वही कानपुर की दुबली-पतली और साँवली सी लड़की ना, जो सन् बयालीस के भारत छोड़ो आंदोलन के समय खूब सक्रिय थी। उन दिनों दूर-दूर तक की परिक्रमा की थी उसने। एक बार हमारे हॉस्टल में भी आकर उसने भाषण दिया था कि यह हम सबके लिए करने या मरने का समय है।...भारत माता हमें पुकार रही है। उसकी जंजीरें हम तोड़ दें, इतिहास देवता ने हमें यह अवसर दे दिया है, और अगर हम चूक गए तो इतिहास हमेशा के लिए कायरों में हमारा नाम लिखा जाएगा।...वह अद्भुत भाषण था, अपूर्व!” कहते-कहते परमेश्वरी बाबू को जैसे बिजली का करंट सा लगा हो।

“बिल्कुल...बिल्कुल, तुम्हें याद आ गया। उसके बाद ही तो हम विद्यार्थियों ने अगले दिन सुबह कचहरी के सामने जुलूस निकाला था। शहर की हवा में अचानक गरमी आ गई थी। पुलिस ने वनमाला को पकड़ने की कोशिश की, पर वह सबकी नजरों से छिपकर निकलने में सफल हो गई थी और फिर अगले दिन अलीगढ़ में उसके वैसे ही जोशीले भाषण की खबर आई थी...!”

राजेश्वर बोले तो परमेश्वरी बाबू को कुछ और याद आया। वह दौर जैसे दोनों की आँखों के आगे साकार हो रहा था।

“परमेश्वरी बाबू, तुम क्रांतिकारियों के बारे में किताब तैयार तो क्या उसमें वनमाला का नाम नहीं होना चाहिए?” बातें करते-करते एकाएक राजेश्वर ने पूछ लिया।

“जरूर होना चाहिए!” आवेश में थरथराते हुए परमेश्वरी बाबू बोले, “पर उसके बारे में आधा-अधूरा ही तो हमें पता है। मैं चाहता था कि उनकी पूरी कहानी पता चले, तो उस पर भी कुछ लिखा जाए। पर कैसे...?”

“इसीलिए तो मैंने बात छेड़ी है!” राजेश्वर ने मुसकराकर कहा, “अगर चल सकते हो तो चलो। इटावा में उसके छोटे भाई सोमेश से मुलाकात हो सकती है।”

“सोमेश...?” परमेश्वरी कुछ अचकचाए।

“हाँ, वह एक स्कूल में हिंदी का अध्यापक है। मुझे एक बार रेलगाड़ी में मिला तो बातों-बातों में पता चला और उसने अपना पता लिखवाया।...अब भी मेरी डायरी में जरूर होगा।” राजेश्वर ने बताया।

“तो चलो!” परमेश्वरी बाबू एकाएक उठते हुए बोले, “अभी चलते हैं राजेश्वर। जो सोच लिया, वह कर ही डालें। वैसे भी वनमाला का वह जोशीला भाषण, उसकी वे क्रांतिकारी बातें...सब कुछ मुझे याद आ रहा है। और मैंने तो कहीं पढ़ा या सुना था कि उसने आजाद भारत का स्वतंत्र रेडियो भी बना लिया था, जिस पर रात-दिन देशभक्ति के गीतों का प्रसारण होता था और स्वाधीनता संग्राम के तीखे समाचार! अंग्रेज सरकार एकदम हिल गई थी।”

“हाँ, सुना था मैंने भी था! अंग्रेजों के जुल्म और अत्याचारों का जवाब देने के लिए उसने आजाद भारत का स्वतंत्र रेडियो बना लिया था। भारत की जनता का अपना रेडियो।...मुझे याद है, किसी अखबार में उस पर लेख छपा था। शायद ‘हिंदुस्तान’ में ही।” राजेश्वर बोले।

पुराने दिन।...पुराने दिनों की सुख-दुख भरी स्मृतियाँ...!

दोनों मित्र उनमें बहे जाते थे।

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अब खुद-ब-खुद वे सारे सूत्र मिलते जा रहे थे, जिससे वनमाला की जोशीली कहानी का ओर-छोर पता चलता। और जो बाकी बच गया था, उसे इटावा के फूलपुर मोहल्ले की एक तंग गली में वनमाला के छोटे भाई सोमेश की भाव-गद्गद वाणी में हम लोग सुन रहे थे।

“मैं तो अंकल, उस समय छोटा था। बहुत छोटा। शायद कोई चार-पाँच बरस का रहा होऊँगा।,,,”

सोमेश बता रहा था, “बस, दीदी की बातें सुनना बहुत अच्छा लगता था। मैं कहानी सुनाने को कहता तो वह मुझे भगतसिंह की कहानी सुनाती, शहीद चंद्रशेखर की की कहानी...बिस्मल और अशफाकुल्ला की कहानी। सुनकर रोमांच होता था। मुझे अब भी याद है कि एक बार उसने गाँधी बाबा की पूरी कहानी सुनाई कि दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने कैसी-कैसी लड़ाइयाँ लड़ीं। और फिर यहाँ आए तो अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया।...तब पहली बार समझ में आया कि आजादी का क्या मतलब है, क्यों लड़ी जा रही है पूरे देश भर में आजादी की लड़ाई? क्यों इतनी कुर्बानियाँ...!”

“तो क्या उसने यह भी बताया कि वह खुद भी शामिल है आजादी की लड़ाई में?” परमेश्वरी बाबू ने जानना चाहा।

“नहीं, पर थोड़ा बड़ा हुआ तो धीरे-धीरे सब खुद ही समझ में आ गया।...घर में पुलिस का छापा पड़ा था। पर हमें कुछ भी पता नहीं था। पुलिस देर तक सारा घर खँगालती रही थी, पर उसे खाली ही लौटना पड़ा।...असल में दीदी ने जो भी किया, सिर्फ अपने बूते ही किया। हम लोगों को बहुत ज्यादा पता नहीं था। या फिर बाद में पता चला, धीरे-धीरे।...

“पर हम तो तुम्हारे पास वनमाला की पूरी गाथा सुनने आए थे। मेरे मित्र परमेश्वरी बाबू क्रांतिकारियों पर एक बड़ा ग्रंथ निकाल रहे हैं। उसी में वनमाला की भी गाथा...!” राजेश्वर सहाय ने अपने आने का आशय बताया। इस पर सोमेश कुछ सकुचा गया। बोला, “आप लोग आए, मुझे बड़ा अच्छा लगा।...पर मुझे भी सब कुछ कहाँ पता है! आजादी के बाद दीदी एक-दो बार वह घर आई तो टुकड़ों-टुकड़ों में बहुत थोड़ा उसने बताया। कुछ अखबारों से जाना। उसी सबको जोड़कर थोड़ा-बहुत मैं बता सकता हूँ, आप कहें तो!”

और फिर न जाने कब सोमेश ने क्रांतिबाला वनमाला की कहानी सुनानी शुरू कर दी। बिल्कुल शुरू से ही। परमेश्वरी और राजेश्वर सहाय जैसे साँस रोके सुन रहे थे।...

वनमाला बचपन में ही कुछ अलग थी। एकदम जोशीली। सपनों की दुनिया में जीने वाली। पढ़ाई-लिखाई में होशियार थी, तो साथ ही नाटक, कविता, कहानी सबमें रम जाती। बोलती तो लगता, कोई झरना बह रहा है।...उसकी आवाज एकदम अलग थी। बड़ी कड़क और बुलंद आवाज। बोलती तो सामने वाला देखता रह जाता कि यह है कौन?

शरीर दुबला-पतला, साँवला। लेकिन दुबले शरीर में एकदम इस्पाती व्यक्तित्व। बेखौफ। कोई उसे डरा नहीं सकता था। कोई झुका भी नहीं सकता था। जो उसने सोच लिया, वह सोच लिया। फिर किसी की हिम्मत नहीं थी, जो उसे टस से मस कर दे।

बहुत छोटी थी वनमाला तो घर में दादा जी से बातें करना उसे अच्छा लगता था। वे देश की गुलामी और अंग्रेजों के अत्याचारों की कहानी सुनाते तो वनमाला को अंदर ही अंदर बहुत गुस्सा आता। दादा जी बताते कि मुट्ठी भर अंग्रेजों के धोखे और चालाकी से हमारे देश पर कब्जा कर लिया। आए थे व्यापार करने और मालिक बन बैठे।...

“तो क्या हम इन्हें अपने देश से निकाल नहीं सकते?...भारतीय तो इतने ज्यादा है, वे अंग्रेजों को क्यों नहीं भगा देते?” वनमाला पूछती।

“जिस दिन सारे हिंदुस्तानी इकट्ठे हो जाएँगे, अंग्रेज रातोंरात दुम दबाकर भागेंगे।” दादा जी मुसकराकर कहते।

बस, दादा जी की यही बात दीदी के मन में घर कर गई। और इसे वह कभी नहीं भूली। अंत तक।

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जब वह हाईस्कूल करने के बाद कानपुर के दयानंद कॉलेज में पढ़ने गई तो उसने लड़कियों का एक दल बना लिया था। बहुत साधारण परिवार था हमारा। पिता की एक छोटी सी किताबों की दुकान। बड़ी मुश्किल से घर का खर्च चलता था, पर वनमाला पढ़ाई में होशियार थी और आगे पढ़ने की उसकी बहुत इच्छा थी तो पिता ने किसी तरह हिम्मत करके कानपुर पढ़ने भेज दिया।

वनमाला केवल पढ़ाई में ही नहीं, बाकी सब गतिविधियों में भी आगे रहती। थी भी बड़ी हिम्मती और दिलेर। लड़कियाँ यह नहीं कर सकतीं, वह नहीं कर सकतीं, यह बात उसके दिमाग में कभी आती ही नहीं थी। और कोई ऐसी बात कहता, तो उसे वह बड़ी सख्ती से डपट देती।

एक बार कॉलेज में उसने खुद अपना लिखा हुआ एक नाटक खेला था, ‘भारत के लाल’। नाटक में देश की आजादी के लिए लड़ने वाले सपूतों के जीवन की झाँकी थी। और जब अंग्रेजों से लड़कर घायल हुई झाँसी की रानी के बलिदान का दृश्य सामने आया, तो सामने नाटक देख रहे लोगों की आँखों में आँसू थे। अंत में उसने सुभद्राकुमारी चौहान की कविता ‘झाँसी की रानी’ बड़े जोशीले ढंग से पढ़ी। उसी कविता की पंक्ति थी—

‘गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी...!’

नाटक खत्म हुआ तो लोग उठें, इससे पहले ही मंच पर बेड़ियों में बंदी भारत माता नजर आई और उसके साथ ही नेपथ्य से वनमाला के शब्द जैसे हवा में गूँजने लगे—

“सन् सत्तावन में गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी...और इसीलिए इतना बड़ा स्वाधीनता का युद्ध हुआ। आज अगर हम फिर से अपनी गुमी हुई आजादी की कीमत पहचानकर जाग जाएँ, तो भारत माता की बेड़ियाँ टूटेंगी...जरूर टूटेंगी। भारत माता तुम्हारी बाट जोह रही है। जागो...जागो भारत के लाल!”

वनमाला के उस नाटक ने देखने वालों पर इतना गहरा असर डाला था कि हर शख्स की आँखों में कुछ कर गुजरने का सपना था।...

इतना ही नहीं, कॉलेज में समय-समय पर उसके जोशीले भाषण होते तो छात्र और अध्यापक सभी तारीफ करते। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं और तीखी बहसों में भी वह सबसे आगे रहती। अपनी कक्षा में सबसे होशियार थी और हर किसी की मदद करने में सबसे आगे रहती थी। इसलिए कक्षा के सारे विद्यार्थियों की वह नेता थी। उऩ्हीं दिनों उसने अपने नाम के साथ भारती जोड़ा। वनमाला भारती—यह उसकी नई पहचान थी। उस नए रास्ते का पता भी, जिस पर अब वह तेजी से चल पड़ी थी।

कभी-कभी कुछ लोग हँसकर तंज के साथ कहते, “अरे वनमाला, कुछ करो भी...या केवल कहती ही रहोगी कि हमें देश के लिए यह करना चाहिए, वह करना चाहिए!”

कहने वाले सोचते कि वनमाला लड़की है, तो भला वह क्या कर पाएगी? पर वह कभी चिढ़ती नहीं थी। हँसकर कहती, “समय आएगा तो मैं पीछे नहीं रहूँगी!”

उसके कॉलेज के पास ही एक पुरानी सी पीले रंग की कोठी थी। उसमें बहुत सी लड़कियाँ एक साथ रह रही थीं। वे साथ पढ़तीं, साथ घूमने जातीं। पर वे इस कदर भूचाल भी ला सकती हैं, कोई सोच भी नहीं सकता था।

वे पुस्तकालय से महापुरुषों की जीवनियाँ लाकर पढ़तीं। फिर उन पर आपस में चर्चा होती। बार-बार एक ही बात सामने आती कि आज भी देश संकट में है। कुछ न कुछ तो हमें करना ही होगा।

कुछ न कुछ, और बहुत जल्दी ही...!

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सन् बयालीस का आंदोलन छिड़ा तो वनमाला को भीतर से लगा कि कुछ करने का समय आ गया है। उसकी आत्मा जैसे पुकार करके कह रही थी, “वनमाला, यही समय है, बस यही समय...देश का ऋण उतारने का!”

कुछ समय पहले शहर में बापू आए थे, तो उनके स्वागत के लिए बड़ी विशाल सभा हुई। तब वनमाला ने ही बापू का प्रिय भजन बड़े सुरीले कंठ से गाकर सुनाया था, ‘वैष्णव जन तो तेणे कहिए जो पीर पराई जाणे रे...!’

सुनकर गाँधी जी एकदम भावविह्वल हो गए। वनमाला के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “तुममें कुछ अलग बात है बेटी। तुम जरूर कुछ बड़ा काम करोगी। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।”

कुछ रोज बाद प्रसिद्ध गाँधीवादी हीरेन दा आए तो उनके स्वागत में फिर एक बड़ी सभा हुई। वनमाला को पता चला कि हीरेन दा एक बड़े सरकारी कॉलेज में प्रिंसिपल थे। खासी तनख्वाह थी, ढेर सारी सुख-सुविधाएँ थीं, पर बापू के कहने पर उन्होंने सरकारी नौकरी को तिनके की तरह छोड़ दिया और देशसेवा के काम में लग गए। अब पूरे देश में घूम-घूमकर वे लोगों को स्वाधीनता संग्राम से जुड़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।

वनमाला ने सोचा, वह हीरेन दा से जरूर मिलेगी। शायद वे कोई राह सुझाएँ।

जैसे ही सभा शुरू हुई, ‘भारत माता की जय’, ‘महात्मा गाँधी की जय’ के नारों से आसमान गूँज उठा। वनमाला ने पहले ‘वंदेमातरम’ गाया, फिर हीरेन दा के स्वागत में उसका बड़ा जोशीला भाषण हुआ। सुनकर हीरेन दा अभिभूत हो गए। बोले, “इस बालिका में इतना जोश है और इसकी वाणी में इतना तेज है कि बड़ी उम्र वाले हम जैसे लोग भी इससे प्रेरणा ले सकते हैं।”

सुनते ही पूरा सभा भवन तालियों की गड़गड़ाहट से गूँजने लगा। सभा में छात्रों की संख्या बहुत ज्यादा थी। उनकी ओर देखते हुए हीरेन दा ने कहा—

“हमारे देश के बच्चे किसी से कम नहीं हैं। बच्चे चाहें तो बहुत कुछ करके दिखा सकते हैं। करना बड़ों को चाहिए, पर बड़े सोए हों तो बच्चों को आगे आकर मोरचा सँभालना होगा, जिससे बड़े जो सो रहे हैं, वे भी अपनी नींद से जागें...!”

हीरेन दा के भाषण ने सचमुच नया जोश भर दिया। जाते-जाते वे वनमाला को आशीर्वाद देकर गए कि बेटी, तुम आने वाले समय में देश की मशाल बनोगी।

और अगले दिन ही जो मंजर दिखाई पड़ा, उसे हीरेन दा की बात सही होती जान पड़ी। छात्रों ने सोचा, हम भी देश की आजादी के लिए जुलूस निकालेंगे। दयानंद कॉलेज के सारे विद्यार्थी इकट्ठे हुए। सबसे आगे थी नारे लगाती हुई वनमाला। पुलिस ने पहले छात्रों को धमकी दी, फिर लाठी चार्ज कर दिया।

वनमाला को चोट आई, पर उसका जोश कम नहीं हुआ। छात्रों का गुस्सा भी भड़क गया था।

अगले दिन आसपास के सारे स्कूलों के बच्चे एक जगह जुट गए। हजारों बच्चे...आगे-आगे वनमाला। सिर पर पट्टी बँधी हुई थी, पर हिम्मत में कोई कसर नहीं। सबके होंठों पर नारे, ‘स्वराज्य हम लेकर रहेंगे’...’भारत माता की जय’... ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो...!’

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अंग्रेज सरकार हक्की-बक्की। छात्रों पर लाठी चलाने का अंजाम वह देख चुकी थी। कल की घटना को लेकर सभी अखबारों में सरकार की कटु निंदा छपी थी। लिहाजा कुछ छात्रों को थोड़ी देर हिरासत में रखकर, फिर छोड़ दिया गया। वनमाला भी गिरफ्तार हुई, फिर छूटी।

अगले दिन छात्रों की गिरफ्तारी के विरोध में शहर के लोगों का जुलूस। पर इस बार भी आगे-आगे वनमाला। उसकी हिम्मत और बहादुरी ने सबको ताज्जुब में डाल दिया।

अब तो शहर की पुलिस वनमाला के पीछे पड़ गई। खुफिया विभाग से उसे सूचना मिली थी कि दयानंद कॉलेज में बारहवीं जमात में पढ़ने वाली यही लड़की है सारी आफत की जड़। उसके साथ लड़कियों का एक दल है। वे ही यह हंगामा मचाए हुए हैं।

पर वनमाला यहाँ-वहाँ छिपकर पुलिस की आँखों में धूल झोंकती रही। कानपुर का डिप्टी कलेक्टर और पुलिस अधिकारी गुस्से के मारे अपने बाल नोंच रहे थे।

“कौन है यह वनमाला...! वनमाला कौन है? आखिर उसे गिरफ्तार क्यों नहीं किया जा रहा?” ऊपर से सवालों पर सवाल आ रहे थे, पर उनका जवाब कौन देता?

हीरेन दा ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं के जरिए वनमाला को संदेश दे दिया था कि अब कानपुर छोड़ना होगा।

वनमाला ने कानपुर तो छोड़ा, पर वह गई कहाँ, यह किसी को पता नहीं चला। कभी यहाँ तो कभी वहाँ वह अचानक प्रकट हो जाती, और फिर अँग्रेजों की आँखों में धूल झोंककर अपनी आगे की यात्रा पर निकल जाती। देश के युवकों को जगाने का इरादा था उसका, ताकि वे मातृभूमि की पुकार को सुनकर आगे आएँ। मिलकर अँग्रेजों को खिलाफ मोर्चा बाँधें।

यों शुरू हुईं वनमाला की लंबा देशयात्राएँ। हर जगह कांग्रेस कार्यकर्ताओं को पहले से उसके आने का पता चल जाता और वे अपने देशभक्त साथियों के घरों में उसके रहने का इंतजाम कर देते। लोग बिल्कुल अपनी बेटी की तरह विद्रोहिणी वनमाला को छिपाकर रखते। अखबारों में उसके भाषणों की खबरें छपतीं, पर भाषण देकर वह कहाँ गायब हो जाती है, यह किसी को पता नहीं था। और वनमाला तेजी से एक के बाद एक जगहें बदल रही थी। अंग्रेज अधिकारी बुरी तरह खीजे हुए थे, पर लाचार थे। वनमाला ने उनकी नाक में दम कर दिया था। जगह-जगह उसके जोशीले व्याख्यान होते, जिससे लोगों में उबाल भर जाता। कुछ करने की लहर पैदा होती। फिर वह पुलिस अधिकारियों की आँखों में धूल झोंकर किसी और शहर में पहुँच जाती। अंग्रेज सरकार बहुत कोशिशों के बाद भी उसे गिरफ्तार नहीं कर पा रही थी।

वनमाला अब भूमिगत थी। पर जहाँ भी वह होती, वहाँ जमीन में प्रकंपन होने लगता। जमीन के अंदर और बाहर कोई भूचाल सा। अंग्रेज अफसरों के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।

उन्होंने वनमाला को पकड़ने के लिए चप्पा-चप्पा छान मारा। पर वनमाला अब भी उनकी पकड़ से दूर थी। वे यहाँ दौड़ते, वहाँ दौड़ते, फिर एकाएक सिर पकड़कर धम्म से बैठ जाते। किसी-किसी को लगता, वनमाला जरूर जादू जानती है। तभी तो अभी-अभी वह दिखाई पड़ रही थी, फिर एकाएक गायब...!

भला कैसे?

उधर जमीन के अंदर की जोशीली लहरें बनातीं कि अब यह आँधी नहीं रुकने वाली। अंग्रेजो, अपना बोरिया-बिस्तर समेटो, वरना...!

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हालाँकि कुछ अरसे बाद वनमाला गिरफ्तार हुई, पर वह तो एक बिल्कुल अलग कहानी है।

यद तब तक वनमाला ने ही सोच लिया था कि अगर गिरफ्तारी होती है तो हो, पर उससे पहले मैं सरकार को कँपा तो दूँगी ही। और वह इसमें कामयाब भी हुई। देश में एक ऐसी घटना हुई, जिससे सबके मुँह खुले के खुले रह गए।

यह था वनमाला का स्वदेशी रेडियो स्टेशन। आजादी के रणबाँकुरों का रेडियो स्टेशन। वनमाला ने सोचा, “देश को जगाना है, तो लोगों तक पहुँचने के लिए हम अपना स्वतंत्र रेडियो क्यों न बनाएँ, जिससे जनता को स्वाधीनता संग्राम की जोशीली खबरें मिलें।”

उसकी एक सहेली विनोदिनी भट्टाचार्य के मौसाजी साइंटिस्ट थे। कलकत्ता में रहे थे तथा विज्ञान और टैक्नोलाजी के नए से नए आविष्कारों की उनको जानकारी थी। उन्हीं को जिम्मा सौंपा गया कि वे देशभक्तों का एक रेडियो स्टेशन बनाएँ, जहाँ से देशभक्ति से सराबोर गीत और आजादी की लड़ाई लड़ने वाले राजनेताओं और देशभक्तों के संदेश और भाषण प्रसारित किए जाएँ।

और सचमुच वनमाला का यह सपना भी पूरा हुआ। जिस दिन देशभक्तों का वह रेडियो स्टेशन बनकर तैयार हुआ, सबसे पहले वनमाला की आवाज सुनाई दी—

“मेरे प्यारे भारतवासियो, यह भारत का स्वतंत्र रेडियो स्टेशन है। भारत का पहला स्वदेशी रेडियो स्टेशन।...यहाँ आपको देश की आजादी के लिए लड़ने वाले देश के वीर सिपाहियों की बातें सुनने को मिलेंगी। बापू के व्याख्यान सुनाई देंगे और देशभक्ति के गीत भी।...लीजिए, अब काकिली घोष से हमारा राष्ट्रीय गीत वंदेमातरम् सुनिए!”

‘वंदेमातरम्’ के बाद फिर वनमाला की जोश से थरथराती आवाज सुनाई दी—

“प्यारे साथियो, महात्मा गाँधी जी के ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ और ‘करो या मरो’ के नारे ने पूरे देश में भूचाल पैदा कर दिया है। जगह-जगह जनता सड़कों पर आकर माँग कर रही है, अंग्रेजो भारत छोड़ो!...अब हमारी आजादी का दिन दूर नहीं है। भले ही अंग्रेज सरकार ने बापू समेत सभी बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया है, पर यह लड़ाई अब थमेगी नहीं। इसलिए कि हमारा गुस्सा अब सारी हदें पार कर चुका है।...अंग्रेज सरकार यह बात न भूले कि अब हर भारतीय बापू का सिपाही है और हम तब तक चैन नहीं लेंगे, जब तक अंग्रेजों को इस देश से भगा नहीं देंगे। लीजिए, अब आप देश की जनता के नाम बापू का संदेश सुनिए।”

लोग रोमांचित थे।...

दिन-रात देश के कोने-कोने से ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के उत्साहपूर्ण समाचार। आजादी की लड़ाई के परवानों के विचार और भाषण।

अभी कुछ ही दिन हुए थे, पर ‘स्वदेशी रेडियो’ की धाक जम गई थी। वनमाला की जोशीली आवाज कानों में पड़ते ही लोग सारे काम छोड़कर रेडियो के पास सरक आते। बाजारों और चौराहों पर भी उसकी गूँज सुनाई पड़ रही थी।

अंग्रेजी रेडियो के समाचार सरकारी भोंपू की तरह थे, जिन पर किसी को यकीन नहीं था। पहली बार स्वदेशी रेडियो से आजादी की लड़ाई की सच्ची खबरें सुनकर लोग उत्साहित थे। उधर अंग्रेज सरकार बौखलाई हुई थी। वनमाला का नाम ही अब उसके लिए आतंक बन गया था।

पर आखिर एक दिन अंग्रेजों ने पता लगा ही लिया कि स्वदेशी रेडियो का छिपा हुआ स्टेशन कहाँ है। कहाँ से यह विद्रोही वलबला आ रहा है?

और फिर एक दिन सुबह-सुबह एक साथ डेढ़ सौ पुलिस वालों ने रेडियो स्टेशन को घेर लिया।

पुलिस का छापा!...जबर्दस्त!!

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ऊपर खट-खट सीढ़ियाँ चढ़कर धड़धड़ाते हुए कोई डेढ़-दो दर्जन पुलिस वाले प्रसारण-कक्ष में आए और वनमाला को गिरफ्तार करने के लिए आगे बढ़े।

उस समय रेडियो से ‘वंदेमातरम्’ का प्रसारण हो रहा था।...

पुलिस अधिकारी आगे बढ़ता, इससे पहले ही वनमाला की बिजली जैसी कड़कती आवाज सुनाई दी, “खबरदार, राष्ट्रगान हो रहा है। आप लोग अपनी जगह सीधे खड़े हो जाइए, अटेंशन...!”

एकदम सन्नाटा छा गया और सारे सिपाही एकदम अवाक् अटेंशन की मुद्रा में खड़े हो गए।

जब तक ‘वंदेमातरम्’ बजता रहा, सभी राष्ट्रगान के सम्मान में चुपचाप सावधान की मुद्रा में खड़े रहे। उसके बाद उन्होंने वनमाला और उसकी चार सहेलियों को गिरफ्तार किया।

पूरे डेढ़ सौ सिपाही...!

‘लग रहा है, आज कोई बहुत बड़ा क्रांतिकारी पकड़ा जाने वाला है!’ लोग सोच रहे थे।

पर जब पुलिस वाले वनमाला और उसकी सहेलियों को पकड़कर ले जा रहे थे तो लोगों ने दाँतों तले उँगली दबा ली, “अरे, तो क्या ये लड़कियाँ इतनी खतरनाक हैं कि पुलिस को इतनी बड़ी फोर्स के साथ धावा बोलना पड़ा?”

कई दिनों तक मुकदमा चला।

पर वनमाला ने स्वदेशी रेडियो की योजना का पूरा जिम्मा लिया और बड़ी निर्भीकता से कहा—

“स्वदेशी रेडियो के जरिए मैंने भारतवासियों को आजादी की लड़ाई के सच्चे और सही समाचार दिए। इस पर मुझे गर्व है।...मैंने अपने देश और अपनी मातृभूमि की सेवा की है, यह कोई अपराध नहीं है। फिर भी सरकार सजा देना चाहे, तो मुझे मंजूर है।...हाँ, मेरी सहेलियों ने जो कुछ किया, सिर्फ मेरे कहने पर किया। इसलिए जो भी सजा मिले, सिर्फ मुझे मिले। मेरी सहेलियों का कोई कसूर नहीं है।...उन्हें छोड़ दिया जाए।”

मुकदमा चला तो अदालत में ‘वंदेमातरम्’ और ‘महात्मा गाँधी की जय’ की नारे गूँजने लगे। वनमाला को दो साल की सजा सुनाई गई और उसकी सहेलियों को छोड़ दिया गया।

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जेल में वनमाला बुरी तरह बीमार पड़ गई।...

उसे पित्त की शिकायत थी, ऊपर से अंग्रेज पुलिस अधिकारियों के निर्मम अत्याचार। वनमाला ने बरसों तक अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों से उन्हें बहुत छकाया था। अब वे पूरी तरह उससे बदला लेने पर उतारू थे।

उसकी कोठरी के आसपास रात-दिन पुलिस अधिकारियों के भारी बूटों की आवाज गूँजती रहती।

कभी-कभी तो उसके खाने में कंकड़ मिला दिए जाते। वनमाला लाचार थी। क्या कहती? उसकी परेशानी देखकर वे उलटा हँसते। मुँह चिढ़ाते।

वनमाला ने खाना खाना छोड़ दिया। कुछ पचता ही न था।...उसकी सेहत बिगड़ती जा रही थी। सूखकर काँटा हो गई थी वनमाला, पर उसकी हिम्मत बरकरार थी। उसने जेल में दूसरी महिला कैदियों से हमदर्दी से बात की, तो उसे पता चला कि देश में कितनी गरीबी, कितनी अशिक्षा और अंधविश्वास है, जिसकी वजह से स्त्रियों की बुरी हालत है। स्त्रियों की अगर यही हालत रही तो देश कैसे ऊँचा उठेगा?

वनमाला ने मन ही मन जैसे कुछ निश्चय कर लिया था।

दो साल बाद जेल से छूटकर वह बापू से मिली और कहा, “मैं स्त्रियों के कल्याण के लिए काम करना चाहती हूँ। आप मुझे आशीर्वाद दीजिए।”

बापू ने उसे सुदूर गाँवों में जाकर काम करने की सीख दी। और वनमाला ने यही किया। जिन गरीब गाँव वालों के बीच वह काम करती थी, उन्होंने उसके लिए एक छोटा सा आश्रम बना दिया। वनमाला वहाँ रहती और स्त्रियों को लिखना-पढ़ना सिखाती। साथ ही आत्मनिर्भरता के लिए बहुत सारी चीजें बनाना सिखाती। उनके बीच नई जागृति की लहर पैदा करती।

वनमाला रात-दिन काम कर रही थी। बस, एक ही सपना था उसका। स्त्रियों को जगाना है। गाँव-गाँव, शहर-शहर में स्त्रियाँ जागेंगी तो देश जागेगा। भारत का आने वाला भविष्यत् जागेगा।

आजादी के बाद कांग्रेस के बड़े नेताओं ने संदेश भेजा, “वनमाला, तुमने देश की आजादी के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया।...देश की जनता तुम्हें चाहती है। इसलिए अब जहाँ से भी तुम चुनाव लड़ना चाहो, बता दो। वहाँ का टिकट तुम्हें मिल जाएगा।”

पर वनमाला तो किसी और ही मिट्टी की बनी थी। उसने जवाब दिया, “मुझे तो खुद बापू ने टिकट दिया था। देशसेवा का टिकट। उससे बड़ा टिकट भला कोई क्या देगा?...देश को अभी आधी आजादी मिली है। उस आधी आजादी को पूरी आजादी में बदलने के लिए मुझे जैसे हजारों लोगों को अपनी जान कुर्बान करनी होगी।...मैं उसी काम में लगी हूँ, और अपने जीवन की आखिरी साँसों तक उसे करती रहूँगी।”

और सचमुच उसने देश के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। उसने अपनी एक-एक साँस देश पर कुर्बान की, जब तक कि कैंसर ने एक दिन...! यों एक दिन उसकी कहानी खत्म हुई।

तारीख थी 15 अगस्त, 1961...जिस दिन खत्म हो गई वह विद्रोहिणी वनमाला...!!

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वनमाला की कहानी के आखिरी छोर तक पहुँचते-पहुँचते सोमेश का स्वर भर्रा गया था। अपनी रुलाई को रोकते हुए उसने धीरे से आँसू पोंछ लिए।

“पर कैंसर...?” परमेश्वरी बाबू ने पूछा।

“हाँ, ब्लड कैंसर था...! पता चला तो मैं गया था। रोते-रोते बोला कि अब घर चलो दीदी। अब तक तो तुमने मेरी कभी नहीं सुनी, पर अब...?” सोमेश बोला।

“पर नहीं, मेरी बात नहीं मानी उन्होंने। बस इतना ही कहा कि देख, मेरी कहानी तो अब खत्म हो रही है सोमेश। मुझे शांति से मृत्यु की गोद में सो जाने दो मेरे अच्छे भैया।...वैसे भी ये ग्रामीण बंधु मेरे भाई-बंधु हैं। जिंदगी भर इन्होंने मेरा खयाल रखा। अब आखिरी समय इनसे दूर ले जाएगा, तो ये क्या सोचेंगे?... कहकर हौले से मेरी पीठ और कंधा थपथपाया दीदी ने। देर तक असीसों की बारिश करती रही। फिर बड़े प्यार से मेरा सिर पुचकारकर, मुझे घर भेज दिया।...और उसके ठीक एक महीने बाद समाचार—वनमाला नहीं रही। कैसर ने आखिर रात में सोते हुए उसके प्राण...!”

कुछ रुककर बताया सोमेश ने, “हम लोग भागे-भागे गए। मैं, मेरी पत्नी मालिनी और बेटा नवेंदु।...दीदी के चेहरे पर इतनी शांति थी, जैसे बहुत गहरी नींद में सो रही हो...!”

सोमेश ने परमेश्वरी बाबू के चेहरे पर एक नजर डाली। फिर एक गहरी साँस लेकर कहा—

“हाँ, मेरे लिए एक चिट्ठी भी छोड़ गई थी दीदी। उसकी आखिरी चिट्टी। 12 अगस्त, 1961 तारीख उस पर पड़ी है।...दीदी ने लिखी था—मेरे लिए शोक मत करना मेरे प्यारे भाई। मैंने देश के लिए अपना सब कुछ अर्पित किया। ऐसी मृत्यु शोक नहीं, गर्व करने लायक है। ... अभी तो भाई, आगे देश के लिए बहुत काम करने की दरकार है। देश की आजादी की लड़ाई से सौ गुनी लंबी और मुश्किल लड़ाई है अपनी इस अधूरी आजादी को पूरी आजादी में बदलने की। अभी तो मेरे जैसी बहुत वनमालाओं को अपनी जान कुर्बान करनी होगी। पर समय आएगा एक दिन... जरूर आएगा!”

परमेश्वरी बाबू और राजेश्वर चुपचाप सुन रहे थे। इतने शांत कि एक-दूसरे की साँस भी सुनाई पड़े। फिर किसी से कुछ कहा नहीं गया।

“अच्छा... विदा दीजिए, अब चलूँ!” परमेश्वरी बाबू ने कहा, तो वहाँ बैठे सभी लोगों की आँखें गीली थीं।

थोड़ी देर बाद परमेश्वरी बाबू और राजेश्वर लौट रहे थे तो द्वार तक छोड़ने आए सोमेश, मालिनी जी और उनका बेटा नवेंदु...सभी चुप। एकदम चुप। लेकिन वह चुप्पी बहुत बोल रही थी। भीतर-भीतर हलचल मचाती हुई।

अगले दिन परमेश्वरी बाबू लौट गए। चलते-चलते उन्होंने राजेश्वर सहाय से कहा, “बहुत अच्छा रहा मित्र कि तुमने वनमाला की याद दिला दी। वरना वनमाला की कहानी न जुड़ती तो मेरी किताब हमेशा अधूरी ही रहती...!”

आगे न उनसे कुछ कहा गया, न राजेश्वर सहाय से।

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