वन कुमार की कथा : कर्नाटक की लोक-कथा
Van Kumar Ki Katha : Lok-Katha (Karnataka)
(शिमोगा और चित्रदुर्ग जिले के आस-पास की कथा)
मैसूर नामक एक राज्य था। वहाँ का एक राजा था। शादी के बारह वर्ष बाद भी उसके कोई संतान नहीं थी। बारह वर्ष पूरा होने पर रानी गर्भवती हुई। उसने एक दिन राजा से कहा, “राजमहल में रह-रहकर थक गए। चलो, आज हम बगीचे में घूमकर आएँगे।”
राजा-रानी दोनों एक दिन बगीचे में गए। वहाँ पहले दूधवाले के पास गए। वहाँ पर दूध पिया। फिर वे लोग पानीवाले कुएँ के पास गए। वहाँ पर पानी से हाथ-मुँह धोया। फिर कुएँ के चबूतरे पर दोनों बैठे।
कुएँ की बगल में एक पेड़ था। पेड़ पर दो पक्षी बैठे थे। राजा और रानी के बीच बातचीत शुरू हुई। राजा ने कहा—
“पता नहीं, ये पक्षी मांस खाते होंगे या मोती-माणिक?”
रानी ने कहा, “नहीं-नहीं, ये मांस नहीं खाते, ये मोती-माणिक खानेवाले पक्षी हैं।”
इस बात पर दोनों के बीच वाद-विवाद शुरू हुआ।
फिर वे दोनों राजमहल लौट आए और नौकरों को बुलाकर यह पता लगाने को कहा कि वे पक्षी मांसभक्षी हैं या मोती-माणिक भक्षी?
बात यहीं पर खत्म नहीं हुई। रानी अड़ गई। कहा कि “अगर यह पता चला कि पक्षी मांसभक्षी हैं, तो मैं महल छोड़कर दस साल के लिए बाहर चली जाऊँगी। जंगल में रहकर लौटूँगी और अगर पक्षी मोती-माणिक खानेवाले हुए तो आपको (राजा को) दस साल के लिए जंगल में रहकर आना पड़ेगा।”
बात तय हुई। नौकरों को सही बात का पता लगाने के लिए भेज दिया।
नौकर निकले तो, मगर नौकरों ने आपस में सलाह-मशविरा किया। वे सोचने लगे कि अगर राजा दस साल जंगल में रहेंगे तो प्रजा बेहाल हो जाएगी। इसलिए हम महल जाकर यही कहेंगे कि वे पक्षी मांसभक्षी हैं। तब रानी दस साल के लिए जंगल में चली जाएगी। उससे किसी का नुकसान होने से रहा।
नौकरों ने यही किया। महल जाकर कहा कि वे पक्षी मांसभक्षी हैं।
रानी को वचन का पालन करना पड़ा। वह घर से निकल पड़ी। चलती गई, चलती गई। अंत में कई दिन बाद वह जंगल में पहुँची।
वहाँ पर एक गुफा थी। वह एक राक्षस की गुफा थी।
इनसान की गंध मिलते ही राक्षस गरजता हुआ बाहर निकलने को हुआ।
रानी भी अंदर घुस ही गई। उसने राक्षस को देखते ही कहा, “बाबा, मैं आपकी बेटी हूँ।” यह कहकर दरवाजा खोलकर अंदर खड़े राक्षस के वह पाँव लगी। कहा, “बाबा, तुम ही मेरे माता-पिता हो।”
रानी के इस बरताव से प्रभावित होकर राक्षस का दिल पिघल गया। उसने कहा, “बेटी, तुम्हारे मुँह से ये शब्द सुनकर मेरा जन्म सार्थक हुआ। मैं पिता की तरह तुम्हारी देखभाल करूँगा। तुम निश्चिंत रहो।”
इस तरह दिन बीतते गए। रानी नौ महीने की गर्भवती बनी। फिर एक दिन वह अपने इस पिता को बुलाकर कहती है कि मेरे घर के पास एक दाई माँ रहती है। तुम जाकर उसे बुला लाओ।
इस पर राक्षस उससे कहता है, “तुम आराम करना, मैं उसे बुला लाऊँगा। आकाश और भूमि को एक कर वह दाई माँ सुब्बक्का के यहाँ पहुँचा। उस समय दाई माँ कहीं बाहर गई हुई थी। तब उसकी राह देखते बैठा राक्षस पककर बुढ़ा जाता है।
फिर सुब्बक्का लौटकर घर के आगे बैठे बूढ़े को देखकर पूछती है कि तुम किस गाँव के हो?
इस पर राक्षस यह जवाब देता है, मेरा गाँव, मेरी बस्ती, वहीं, जहाँ शाम होती है, जहाँ अँधेरा होता है, वहाँ रुक जाता हूँ।”
फिर दाई माँ सुब्बक्का बूढ़े को अंदर बुलाकर खाना खिलाकर पलंग पर सो जाती है। राक्षस को एक टाट की बोरी देकर उस पर लेट जाने को कहती है । फिर राक्षस आकाश और भूमि को एकीकृत कर उसे गुफा में ला पहुँचाता है।
रानी करवट बदलती है। राक्षस कहता है, "देखो बेटी, दाई माँ सुब्बक्का को मैं यहाँ ले आया हूँ। अब तुम्हारे सारे दु:खों का अंत हुआ।"
उसी दिन रात को रानी एक बेटे को जन्म देती है। दाई माँ सुब्बक्का वहीं पर छह महीने तक रहती है। छह महीने पूरे होते ही वह कहती है, "बाई, मुझे यहाँ आकर छह महीने पूरे हो गए। मेरे बाल-बच्चों का क्या हाल हुआ होगा, मैं नहीं जानती। अब मुझे अपने घर लौटने दो।"
बात सुनकर रानी कहती है कि मैं आपने बाप से कह दूँगी। उनके कहने पर तुम्हें भेज देते हैं। फिर शाम को राक्षस घर लौटता है। लौटने पर रानी उसे कहती है, "बाबा, दाई माँ सुब्बक्का को यहाँ आए छह महीने हो गए। अब उसे उसके घर भेजना है। खाली हाथ नहीं भेजते। इसलिए उसे एक साड़ीचोली देकर उसका सम्मान करना चाहिए।"
राक्षस बेटी की बात मानकर साड़ी-चोली ले आता है। वह भी उसे देकर, सोना (सिक्के) देकर पलंग पर लेटने को कहता है। फिर उसे ले जाकर (पानी गलने के समय) उसे घर छोड़ आता है।
इस तरह रानी जंगल में बेटे को पालती रहती है। एक दिन वह बेटा खेलने के लिए गेंद और भंगरा माँगता है। उसका नाना लाकर देता है।
लड़का खेलते-खेलते बाहर आता है। तब उसकी माँ और नाना दोनों उसको बाहर आकर खेलने से मना करते हैं। लड़का इस पर पूछता है कि बाहर आकर खेलने से मना क्यों करते हैं?
माँ कहती है, "अगर बाहर खेलना ही है तो ठीक है, उस दिशा में मत जाना।"
माँ के मना करने पर भी यह लड़का तीर-कमान लेकर उसी दिशा में, जहाँ राजा रहता है, जाता है। इस तरह अब वह दस साल का हो जाता है।
एक दिन बेटा यहीं कहीं जाता है। रानी राक्षस से कहती है कि मुझको पता नहीं क्यों, डर लग रहा है। वह मेरी बात नहीं मानता, तुम भी घर में नहीं रहते, इसलिए मुझे अपने (मेरे) राज्य वापस भेज दो। यह बात सुनकर राक्षस को दुःख पहुँचता है। कहता है, “बेटी, मैंने तुम्हें पाला-पोसा, अब यह कैसी बात करती हो?"
इस पर रानी कहती है, "मैंने पहले राजा से पंथ लगाया था। अब उसका वादा खत्म हो रहा है। इसलिए मुझे वापस भेज दो।"
जवाब में राक्षस ने कहा, "ठीक, तुम्हारी जैसी इच्छा, मगर मैं तुम्हें कभी नहीं भूल सकता। तुम जहाँ भी रहो, जैसे ही मुझे याद करोगी, मैं तुम्हारी मदद के लिए हाजिर हो जाऊँगा।"
"इस बेटे का क्या नाम रखूँ, बाबा?"
"वन पुत्र कहो इसे।" राक्षस ने कहा। तब से उसका नाम वन पुत्र पड़ा।
राक्षस उस लड़के लिए हीरे का कुरता, टोपी और बेटी के लिए हजारों साड़ियाँ, बहुत सारे गहने आदि देता है। रानी बेटे को कुरता पहनाती है। टोपी पहनाती है। साड़ी पहनकर गहने आदि से अलंकृत होती है।
राक्षस माँ-बेटे को उनके राज्य में भेजते हुए एक पेड़ के नीचे आकर बैठा, "जंगल में चोर-उचक्के होते हैं। गहने-कपड़े छीन ले जाते हैं। सावधानी बरतना।" कहकर उन्हें भेजकर गुफा में लौट आया।
रानी जाने लगी। जाते-जाते दोपहर में बहुत गरमी लगी। अभी चार मील जाना था। तभी उसी गाँव का एक आदमी, जिसका नाम चेन्नण्णा था, लकड़ी ले जाने वहाँ आता है। उन दोनों से भेंट होती है।
उसे देखकर रानी कहती है, "क्या भैया, तुम हमारे यहाँ नौकरी करते थे। राजा और मेरे बीच बात बढ़ी, उससे हमारा यह हाल हुआ।"
चेन्नण्णा का रानी के गहनों पर ध्यान गया। चेन्नण्णा यह कहते हुए कि "हे भगवान्, मुझे यह सब घटना मालूम तक न हुई। आइए, हम लोग यहाँ छाया में बैठते हैं।" कहते हुए वह दोनों को पेड़ की छाया में ले गया।
वन पुत्र को प्यास लगी, “अम्मा, मुझे पानी चाहिए।" उसने कहा।
वह चेन्नण्णा से कहती है, “भैया, बच्चे को प्यास लगी है, पानी कहाँ है, बताओ?"
"वह देखो, वहीं है, तुम यहीं बैठी रहो। मैं ही इसे ले जाकर पानी पिलाकर लौटता हूँ।" कहकर उसे कुएँ के पास ले गया।
वह कल्याणी कुआँ था। वह देवी-देवता, अप्सराओं के नहाने का कुंड था। पानी में प्रवाह होता है, वह कुमार के हाथ रस्सी बाँधकर उसे कुएँ के अंदर उतारता है। उतारकर रस्सी को काटकर कुमार को वहीं पानी में छोड़कर लौटता है। पेड़ के पास आता है।
चेन्नण्णा को अकेले आते देखकर वह पूछती है, "तुम मेरे बेटे को कहाँ छोड़ आए?"
जवाब में कहता है, "तुम्हारा बेटा कहाँ, आता है, तुम मेरे घर चलो। तुम्हारे गहने लेने हैं।"
वह बेटे को याद कर जोर से रोती है। वह उसे जरबदस्ती घर ले जाता है और उसने कहा, "यहीं पड़ी रह। जो कुछ खाने को दूंगा, उसी को खाकर चुप रह।"
अपने बेटे की याद में उसने कुछ भी खाया-पिया नहीं। तभी उसे अपने बाप (राक्षस) की याद हो आती है। वह तब मन में उनका स्मरण करती है। राक्षस भूमि और आकाश के बीच एकाकार हो खड़ा हुआ। पूछा, "तुम्हें कौन सी मुसीबत आ पड़ी? तुमने मुझे याद किया।" उसने जवाब में चेन्नण्णा ने किस तरह बेटे को कुएँ में ढकेला, गहने-कपड़े छीने आदि सारा मामला बताया। तुरंत राक्षस ने चेन्नणा को बुलाकर कहा, “चलो वह कुआँ दिखाओ।" चेन्नण्णा तुरंत आकर कुआँ दिखाता है। तब कुएँ में वन पुत्र लाश बनकर पड़ा था। तभी राक्षस वन पुत्र को उठाकर पुनर्जन्म दिलाता है। पुनर्जन्म मिलने के बाद उसे अपनी दोनों भुजाओं पर बिठाकर शहर ला छोड़ता है। दूध का कुआँ, पानी का कुआँ, इन दोनों के पास पंथ जो बना था, उस स्थान पर वे तीनों लोग आते हैं। राक्षस राजा को पत्र लिखता है-
"दस साल पहले तुमसे पंथ कर तुम्हें छोड़कर जो पत्नी गई थी, वह अभी अपने बेटे के साथ दूध का कुआँ, पानी का कुआँ, इन दोनों के पास आई है। आकर उन्हें ले जाओ।"
राजा राक्षस द्वारा लिखा पत्र पढ़ता है। उसे पत्नी की याद सता रही थी। अब उसे हाथी और घोड़े के ऊपर बिठाकर जलसे के साथ घर ले आता है। आकर वन पुत्र को देख खुश होता है। लकड़ीवाले चेन्नण्णा को काटकर उसका तोरण बाँधकर उसी के ऊपर बीवी बेटे को ले जाता है और राक्षस यह कहकर कि मेरी भी उम्र हो गई। मेरा सबकुछ आप ले जाइए, अदृश्य हो जाता है।
कुछ दिन बाद राजा-रानी को राक्षस की याद आती है। वे लोग उससे मिलने जाते हैं। गुफा का दरवाजा खोलकर देखते हैं तो राक्षस वहाँ मृत मिलता है। शोक-संतप्त यह परिवार उसे श्रद्धांजलि देकर लौटता है। बाद में सब आराम से जीवन जीते हैं।
(साभार : प्रो. बी.वै. ललितांबा)