वन के जीव : हिमाचल प्रदेश की लोक-कथा
Van Ke Jeev : Lok-Katha (Himachal Pradesh)
एक बार एक लुहार जंगल से एक रीछ पकड़ कर ले आया। उसने रीछ को घन मारना सीखा ही लिया। रीछ को शिक्षा इस तरह दी कि वह अपने बाएं हाथ की तर्जनी उंगली का संकेत जहां करता था रीछ वहीं घन की चोट मारता था। चुल्हे की आग में लोहे को खूब गर्म कर लोहे को लुहार निकालता था और उंगली से इशारा कर रीछ उस पर घन मारता जाता था। कल्हाडी-हल का फाल. दरात-दराती. छोटी-छोटी कदाल वह लहार बना-बना कर बेचता था। उसकी मौज लगी हुई थी। लुहार की पत्नी उसे बहुत समझाती थी कि वन के जीव वन में ही शोभा देते हैं। इन्हें मनुष्यों के बीच रखना शोभा नहीं देता। रीछ से घन मारने का कार्य लेना कतई ठीक नहीं है। पर लुहार अकड़ के साथ रहता था। वह अपनी बुद्धि की अकड़ पर किसी को भी अपने से आगे नहीं समझता था। सयाने ठीक ही कहते हैं कि फटा जूता बहुत आवाज करता है, कम गुणी मनुष्य को अकड़ बहुत होती है।
एक दिन महाराज लुहार फिर लोहे का कार्य कर रहा था। वह गर्म लोहा गर्म कर आगे रखता था और उंगली के इशारे पर रीछ फटाफट घन मारने लगा था। घन मारने को रीछ पाकर लुहार बहुत खुश था और अकड़ में रहता था। अचानक लुहार के कान में खारिश लग गई। रीछ लुहार के इशारे पर घन मारता जाता था। उससे भूल हो गई लुहार ने तर्जनी उंगली खारिश मिटाने हेतु कान में डाल ली। रीछ ने उंगली का इशारा कान समझ लिया। अब रीछ क्या सुने और क्या बोले। रीछ ने सीधे घन की चोट कान पर मारी। लुहार से जोर की चीख निकली और वहीं उल्टा पड़ गया। उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। लुहारी का मारे दु:ख के बहुत बुरा हाल था वह रोए जाती थी। हाय! हे मेरे घन मारने को कहने वाले अब तुम्हें कहां से लाउंगी। मैं तुम्हें कहती थी कि वन के जीव वन में ही शोभा देते हैं। हाय! मेरे लुहार।
(साभार : कृष्ण चंद्र महादेविया)