वैष्णवी (बांग्ला कहानी) : रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Vaishnavi (Bangla Story in Hindi) : Rabindranath Tagore

मैं लिखता रहता हूँ, लेकिन लोकरंजन मेरी क़लम का धर्म नहीं, इसलिए लोग मुझे हमेशा जिस रंग से रंजित करते रहे हैं, उसमें स्याही का हिस्सा ही अधिक होता है। मेरे बारे में बहुत बातें ही सुननी पड़तीं; भाग्यक्रम से वे हितकथा नहीं होती और मनोहारी तो बिलकुल नहीं।

शरीर पर जहाँ चोटे पड़ती रहती हैं, वह स्थान कितना ही तुच्छ क्यों न हो, कष्ट के बल-बूते पर वह सारे शरीर का अतिक्रमण कर जाता है। जो व्यक्ति गाली खाकर ही पलता है, वह अपने स्वभाव को परे रखकर जैसे एक-सा हो जाता है। अपने चारों ओर के अतिक्रमण का उसे केवल अपनी ही याद रहती है‒उसमें आराम भी नहीं और कल्याण भी नहीं। अपने को भुला पाने में ही तो चैन है।

इसलिए मुझे पल-पल में निर्जन खोजना पड़ता। लोगों के धक्के खाते-खाते मन में चारों ओर जो गड्ढे हो जाते हैं, विश्व-प्रकृति के सेवानिपुण हाथों के गुण से वे भर जाते हैं।

कलकत्ते से दूर एकांत में मेरे अज्ञातवास की व्यवस्था है; मैं अपनी चर्चा के उत्पात से बचने के लिए वहाँ अंतर्धान हुआ रहता हूँ। वहाँ के लोग मेरे संबंध में अभी किसी एक निर्णय पर नहीं पहुँचे हैं। उन्होंने देखा है‒मैं भोगी नहीं, गाँव की रात को कलकत्ते के कलुष से पंकिल नहीं करता; और योगी भी नहीं, क्योंकि दूर से मेरा जितना परिचय मिलता है, उसमें धनी होने के लक्षण हैं; मैं पथिक नहीं, गाँव के रास्ते पर घूमता अवश्य रहा हूँ, पर किसी गंतव्य की ओर मेरा कोई लक्ष्य नहीं; मैं गृही हूँ, ऐसा कहना भी मुश्किल है, क्योंकि इस बारे में घर के लोगों के प्रमाण का अभाव है। इसलिए परिचित जीव श्रेणी में मुझे किसी एक प्रचलित वर्ग में न रख सकने के कारण गाँववालों ने मेरे बारे में चिन्ता करना एक प्रकार से छोड़ ही दिया है, मैं भी निश्चिन्त हूँ।

कुछ दिन हुए ख़बर मिली है, इस गाँव में एक व्यक्ति है, जिसने मेरे बारे में मन में कुछ सोचा है, कम-से-कम मुझे बुद्धू तो नहीं ही समझा है।

उसके साथ प्रथम जब साक्षात्कार हुआ, तब आषाढ़ महीने की दुपहरी थी। रोना-धोना हो जाने पर भी आँखों की पलकें भीगी रहने पर जैसा भाव रहता है, सवेरे की वर्षा के चुक जाने पर सारे पेड़-पौधे‒आकाश और हवा में वही भाव था। अपने तालाब के ऊँचे कगार पर खड़े होकर मैं एक मोटी-ताज़ी काली गाय देख रहा था, जो घास चर रही थी। उसकी चिकनी देह पर उतरी धूप को देखकर मैं सोच रहा था कि सभ्यता ने आकाश के प्रकाश से अपनी देह को अलग-थलग कर रखने को दर्जी की इतनी सारी दुकानें खोल रखी हैं, इस जैसा इतना अपव्यय तो और कहीं नहीं है।

तभी मैंने अचानक देखा कि एक प्रौढ़ा महिला ने काफ़ी नीचे झुककर मुझे प्रणाम किया। उसकी आँचल में कई ठोंगों में कनेर, गंधराज और दो-चार प्रकार के दूसरे फूल भी थे। उन्हीं में से एक फूल मेरे हाथ में रखकर भक्तिपूर्वक हाथ जोड़े वह बोली,“अपने ठाकुर जी का काम किया।”

और इतना कहकर चली गई।

मैं इतनी हैरानी में पड़ गया कि उसे अच्छी तरह देख ही नहीं सका।

बात बिलकुल सीधी-सादी थी, लेकिन मेरे पास वह ऐसी प्रकट हुई कि वह गाय जो दुपहरी की धूसर धूप में पूँछ से पीठ पर बैठी मक्खी उड़ाते-उड़ाते नववर्षा की रस कोमल घासों को लंबी-लंबी श्वास छोड़ते हुए शांति और आनंद से चरती फिर रही थी, उसकी जीव-लीला मुझे अपरूप-सी दीख पड़ी। यह बात सुनकर लोग हँसेंगे, लेकिन मेरा मन भक्ति से भर उठा। मैंने सहज आनंदमय जीवनेश्वर को प्रणाम किया। मैंने बाग़ में आम के पेड़ से पत्तोंवाली एक कोमल हरी डाल तोड़ी और उस गाय को खिला दी। मुझे लगा, मैंने देवता को संतुष्ट कर दिया।

इसके बाद दूसरे वर्ष जब वहाँ गया तो माघ का अंत था। उस समय तब भी सर्दी थी। पूरब की खिड़की से सवेरे की धूप मेरी पीठ पर पड़ रही थी। मैंने उसे मना नहीं किया। दो तल्ले के एक कमरे में बैठा लिख रहा था, नौकर ने आकर बताया, आनंदी वैष्णवी मेरे से मिलना चाहती है। मालूम नहीं कौन है, मैंने अन्यमतनस्क हो कहा, “अच्छा, यहीं ले आ।”

वैष्णवी ने चरण की धूल लेकर मुझे प्रणाम किया। देखा, वही मेरी पूर्व परिचिता महिला है। वह सुंदरी है या नहीं, यह देखने की उम्र गुज़र चुकी है। दोहरी देह, साधारण स्त्रियों से लंबी; नियमित भक्ति से उसकी देह तनिक झुकी हुई है, फिर भी उसमें बलिष्ठ निस्संकोच का भाव है। सबसे अधिक दृष्टि खींचनेवाली हैं, उसकी दो आँखें। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में भीतर की न जाने कौन-सी शक्ति है, जो किसी दूर की वस्तु को निकट खींचकर देख लेती होगी।

अपनी उन्हीं दोनों आँखों से जैसे मुझे ढकेलकर व बोली, “यह क्या मामला है। मुझे अपने इस राजसिंहासन के नीचे लाकर क्यों खड़ा किया? तुम्हें पेड़ के तले देखती थी, वही बड़ा अच्छा था।”

मैं समझ गया पेड़ के नीचे इसने मुझे बहुत दिनों तक बड़े ध्यान से देखा है, पर मैंने इसे नहीं देखा। ज़ुकाम होने की वजह से कई दिनों से रास्ते और बाग़ों में घूमना बंद कर छत पर ही संध्या आकाश के साथ मुक़ाबला करता रहा हूँ इसलिए कुछ दिनों से वह मुझे देख नहीं पा रही।

थोड़ा रुककर वह बोली, “गौर1, मुझे कुछ उपदेश दो।”

मैं मुश्किल में पड़ गया। बोला, “न तो मुझे उपदेश देना आता है और न लेना ही। आँखें खेलकर चुपचाप जो पाता हूँ, उसी के सहारे मेरा कारोबार चलता है। तुम्हें जो सामने देख रहा हूँ, उसी से मेरा देखना भी हो रहा है और सुनना भी हो रहा है।”

वैष्णवी बड़ी खुश हुई और ‘गौर गौर’ कह उठी। कहा, “भगवान केवल रसना से ही नहीं, एक-एक अंग से बोलते हैं।”

मैंने कहा, “चुप होते ही सर्वांग की बातें सुनाई देती हैं, जिसे सुनने के लिए ही मैं शहर छोड़कर यहाँ आता हूँ।”

वैष्णवी बोली, “यही तो मैंने भी जाना है, इसलिए तो तुम्हारे पास आ बैठी हूँ।”

जाते समय मेरे चरणों की धूल लेने को झुकी तो, मेरे मोजे पर हाथ रखते हुए उसे बड़ी बाधा मालूम हुई।

दूसरे दिन सूर्योदय के पहले ही भोर में मैं छत पर आ बैठा। दक्षिणी बग़ीचे में खड़े झाऊ के पेड़ों की फुनगियों से एकदम दिगंत तक फैला मैदान भाँ-भाँ कर रहा है। पूरब में बाँस-झाड़ से घिरे गाँव के गिर्द गन्ने के खेत के इस छोर से प्रतिदिन मेरे सामने सूर्य उगता। गाँव का रास्ता पेड़ों की घनी छाया के बीच से सहसा निकलकर खुले मैदान के बीच से आड़ा-तिरछा होता सुदूर गाँवों के काम निपटाने चला गया है।

सूर्य निकला या नहीं मालूम नहीं। कुहरे की एक शुभ्र चादर विधवा के आँचल की तरह गाँव के पेड़ों पर पड़ी हुई है। मैंने देखा, उस भोर को धुँधले प्रकाश के बीच से वैष्णवी एक चलायमान कुहरे की मूर्ति की तरह ताली बजा-बजाकर हरिनाम गाते पूरबवाले गाँव के सामने से चली आ रही थी।

तंद्रा टूटी, आँखों के पलक के समान एकबारगी कुहरा साफ़ हो गया और उस सारे मैदान और घर के काम-काज के बीच जाड़े की धूप पूरे गाँव के दादाजी की तरह पूरी तरह जमकर आ बैठी।

तब मैं संपादक के प्यादे को विदा करने के लिए लिखने की मेज़ पर आ डटा था। इतने में सीढ़ी पर पैर की आहट के साथ किसी पद का सुर सुनाई पड़ा। वैष्णवी गुनगुनाती हुई आई और मुझे प्रणाम कर थोड़ी ही दूर फ़र्श पर बैठ गई। मैंने लिखते हुए मुँह उठाया।

वह बोली, “कल मैंने तुम्हारा प्रसाद पाया है।”

मैंने कहा, “वह कैसे!”

वह बोली, “कल शाम को, मैं इस आशा में कि कब तुम्हारा भोजन होगा, दरवाज़े के बाहर बैठी थी। भोजन हो चुकने पर नौकर जब बरतन लेकर बाहर आया तो उसमें क्या कुछ बचा था, मैं नहीं जानती, लेकिन मैंने खा लिया।”

मुझे आश्चर्य हुआ। मेरी विलायत-यात्रा की बात जानते हैं। वहाँ मैंने क्या खाया, क्या नहीं, इसका अंदाज़ा लगाना कोई मुश्किल नहीं, लेकिन गोबर नहीं खाया। यह सही है कि एक लंबे अरसे से मांस-मछली में मेरी रुचि नहीं रही, लेकिन मेरे रसोइए की जात-पाँत की बात खुली सभा में न करना ही अधिक संगत है। मेरे चेहरे पर विस्मय के भाव देख वैष्णवी बोली, “यदि तुम्हारा प्रसाद ही न पा सकूँ तो फिर तुम्हारे पास आने की तो कोई ज़रूरत नहीं थी।”

मैंने कहा, “लोग जानेंगे तो तुम्हारे ऊपर उनकी भक्ति नहीं रहेगी।”

वह बोली, “मैं तो सभी को यह बताती फिर रही हूँ। सुनकर उन्होंने सोचा होगा, मेरी ऐसी ही दशा है।”

वैष्णवी किस गृहस्थी में थी, उसके बारे में उसके पास से कोई विशेष सूचना नहीं मिली। केवल इतना ही सुना, उसकी माँ की उम्र बहुत अधिक हो चली है और अभी तक वे जीवित हैं। उन्हें यह भी पता है कि उनकी बेटी की बहुत लोग भक्ति करते हैं। उनकी इच्छा है; कन्या उनके पास जाकर रहे, लेकिन आनंदी के मन की उसमें स्वीकृति नहीं है।

मैंने पूछा, “तुम्हारा गुज़ारा कैसे हो पाता है?”

उत्तर में सुना, उसके भक्तों में से किसी ने उसे थोड़ी-सी ज़मीन दे रखी है। उसी की पैदावार वह स्वयं खाती है और कई दूसरे खाते हैं, कबसे भी वह ख़त्म नहीं होती। यह कहकर वह तनिक हँसती हुई बोली, “मेरा तो सब ही था‒सब छोड़ आई, फिर दूसरों के पास से माँगकर जुटा ले रही हूँ। इसकी भी क्या ज़रूरत थी, बोलो तो?”

शहर में रहते यह प्रश्न उठता तो सहज ही छोड़ता नहीं। भिक्षा जीविका से समाज का कितना अनिष्ट होता है, यह तो मैं समझाता था, लेकिन इस जगह पर आकर मेरी पोथीपढ़ी विद्या का सारा दर्प एकदम समाप्त हो जाता। वैष्णवी के सामने मेरे मुँह से कोई तर्क नहीं निकल पाया, मैं चुप रहा।

मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही वह अपने आप बोल उठी, “नहीं, नहीं, यही मेरे लिए अच्छा है। मेरे लिए माँगकर खाया गया अन्न ही अमृत है।”

उसके कहने का अभिप्राय मैंने समझ लिया। “प्रतिदिन ही जो स्वयं अन्न जुटा देते हैं, भिक्षा के आनंद से उन्हीं का स्मरण हो आता है। और घर में लगता है, अपने ही अन्न का मैं अपनी ही शक्ति से जुटाकर भोग कर रही हूँ।”

मेरी इच्छा हुई कि मैं उसके पति और घर के बारे में पूछूँ, पर वह ख़ुद कुछ नहीं बोली, मैंने भी प्रश्न नहीं किया।

यहाँ जिस मुहल्ले में उच्चवर्ण के भद्रजन रहते हैं, उस मुहल्ले के प्रति वैष्णवी की श्रद्धा नहीं है। वह कहती रही, ‘ठाकुरजी को वे लोग कुछ नहीं देते, और ठाकुरजी के भोग में वे ही सबसे ज़्यादा हिस्सा बटोर लेते हैं। ग़रीब लोग तो बस भक्ति करते हैं और उपवास करके मरते हैं।’

मैंने इस मुहल्ले के दुष्कर्म के बारे में भी बहुत कुछ सुना था, तभी मैंने कहा, “इन सब मंदमति लोगों के बीच रहकर इनकी मति-गति ठीक करो, इसी से भगवान की सेवा होगी।”

इस प्रकार के ऊँचे मूल्यवान उपदेश मैंने बहुतेरे सुने हैं और दूसरों को सुनाना भी अच्छा लगता है, लेकिन वैष्णवी विस्मय से स्तब्ध नहीं हुई; मेरे चेहरे पर अपनी दो उज्जवल आँखें गड़ाती हुई बोली, “तुम्हीं तो कहते हो कि भगवान पापियों के बीच है, इसलिए उनका संग करने पर भगवान की ही पूजा होती है। यही न?”

मैंने कहा, “हाँ।”

वह बोली, “ये जब जीवित हैं, तब तो वह भी उन्हीं के साथ है अवश्य। पर, इससे मेरा क्या। मेरी पूजा तो वहाँ नहीं चलेगी; मेरा भगवान तो उनके बीच नहीं है। वह जहाँ है मैं वहीं उसे खोजती-फिरती हूँ।” यह कहकर उसने मुझे प्रणाम किया। उसका कहना यह कि केवल सिद्धांत लेकर क्या होगा, सत्य चाहिए। भगवान सर्वव्यापी है, यह एक बात है‒किन्तु हम उसे जहाँ देखते हैं, वहीं वह हमारे लिए सत्य है।

इतनी बढ़ी-चढ़ी बातें भी किसी-किसी को बताना ज़रूरी है, वैसे मुझे निमित्त बनाकर वैष्णवी जो भक्ति करती है, उसे मैं न तो ग्रहण ही करता हूँ और न लौटाता हूँ।

मुझे तो आज की हवा लगी है। मैं गीता पढ़ा करता हूँ और विद्वानों के द्वारस्थ हो उनसे धर्मत्व की अनेक सूक्ष्म व्याख्याएँ सुनी हैं। केवल सुनते-सुनाते ही उमर बीत जाने को हुई, कहीं तो कुछ प्रत्यक्ष देखा नहीं। इतने दिनों बाद अपनी दृष्टि का अहंकार छोड़कर इस शास्त्रहीना स्त्री की दोनों आँखों के द्वारा सत्य को देखा। भक्ति के बहाने शिक्षा देने की यह कैसी अद्भुत प्रणाली है।

दूसरे दिन सवेरे-सवेरे वैष्णवी ने आकर मुझे प्रणाम किया और देखा कि उस समय भी मैं लिखने में ही लगा हुआ था। खीझकर बोली, “तुम्हें मेरे ठाकुर जी बेकार ही इतना खटाते क्यों हैं? मैं जब भी आती हूँ, देखती हूँ; तुम लिखने में ही लगे हुए हो।”

मैं बोला, “जो आदमी किसी भी काम का नहीं, ठाकुर जी उसे बैठे नहीं रहने देते, ताकि वह मिट्टी न हो जाए। नाना प्रकार के बेकार के काम करने का भार उसी के ऊपर है।”

मैं न जाने कितने आवरणों से आवृत हूँ, यह देखकर वह बेचैन हो जाती। मुझसे मिलने के लिए आने पर उसे अनुमति लेकर दोतल्ले पर चढ़ना होता, प्रणाम करने आकर हाथ से छू जाते मोजे की जोड़ी; और सामान्य दो-चार बातें कहने-सुनने के लिए‒लेकिन मेरा मन किसी लेख में डूबा रहता।

वह हाथ जोड़कर बोली, “गौर, “गौर, आज भोर में जैसे ही बिस्तर पर उठ बैठी, वैसे ही तुम्हारे चरण प्राप्त हुए। ओह, वे तुम्हारे दो चरण जिन पर कोई आवरण नहीं‒वे कितने शीतल; कितने कोमल; कितनी देर तक उन्हें माथे से लगाए रखा। यह तो ख़ूब हुआ। फिर मेरे यहाँ आने का प्रयोजन क्या है? प्रभु, यह मेरा मोह तो नहीं? सच-सच बताओ।”

लिखने की मेज़ पर फूलदान में पहले दिन के फूल रखे थे। माली ने आकर उन्हें निकाला और नए फूल सजाने की तैयारी की।

वैष्णवी जैसे व्यथित हो बोल उठी, “अरे ये फूल बासी हो गए? तुम्हें इनकी ज़रूरत नहीं? तो दो, दो, मुझे दो।”

यह कह फूलों को अंजलि में ले, बहुत देर तक सिर झुकाकर, परम स्नेह से उन्हें अपलक दृष्टि से देखने लगी। कुछ देर बाद मुँह उठाकर बोली, “तुम आँखें खोलकर नहीं देखते, इसी कारण तुम्हारे पास ये फूल मुरझा जाते हैं। जब उन्हें देखोगे, तब तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई सब समाप्त हो रहेगी।”

ऐसा कहकर बड़े जतन से फूलों को अपने आँचल के छोर में बाँध लिया और माथे से लगाकर बोली, “अपने ठाकुर जी को मैं ले जाऊँ।”

केवल फूलदान में सजा रखने से ही फूल का आदर नहीं होता, यह समझाने में मुझे देर नहीं हुई। मुझे लगा, स्कूल का पाठ न बता पानेवाले लड़के के समान, फूलों की प्रतिदिन मैं बेंच पर खड़ा रखता।

उसी दिन शाम के समय मैं जब छत पर बैठा था, वैष्णवी मेरे पैरों के पास आ बैठी। बोली, “आज सवेरे नाम सुनने के समय तुम्हारे प्रसादी फूलों को घर-घर पहुँचा आई हूँ। मेरी भक्ति देख वैणी चक्रवर्ती हँसकर बोले, ‘अरी पगली, ते किसी भक्ति करती है? दुनिया-भर के लोग तो उसे बुरा बताते हैं।’ सच….क्या सभी तुम्हें गालियाँ देते हैं?”

क्षण-भर के लिए मन कुंठित हो गया। स्याही के छींटे इतनी दूर तक भी फैलते हैं।

वैष्णवी बोली, “वेणी ने सोचा था, मेरी भक्ति को एक ही फूँक में बुझा देगा; लेकिन यह कोई तेल भीगी बत्ती नहीं, यह तो आग है। मेरे गौर, वे लोग तुम्हें गाली क्यों देते हैं भला?”

मैंने कहा, “मेरा प्राप्तव्य है, इसलिए। यह मैंने शायद एक दिन छिपकर उनके मन को चुराने का लालच दिया था।”

वैष्णवी बोली, “मनुष्य के मन में कितना ज़हर है, यह तो तुमने देखा। अब वहाँ लालच टिकेगा नहीं।”

मैं बोला, “मन में लोभ के रहने पर ही मार के मुख में पड़ना पड़ता है। तब स्वयं को मारने का विष अपना मन ही प्रस्तुत कर देता है। इसलिए हमारे ओझा हम ही हैं। मन को विषमुक्त करने के लिए इतनी बेरहमी से झाड़ रहे हैं।”

वैष्णवी बोली, “दयालु ठाकुर जी मारते-मारते जब मार तक को खदेड़ देते हैं, तब अंत तक जो सह पाता है, वही बच जाता है।”

उस दिन संध्या समय अंधकार में डूबी छत के ऊपर संध्या तारा उदित हुआ फिर अस्त हो गया; वैष्णवी ने अपने जीवन की कहानी मुझे सुनाई‒

मेरे पति बड़े सीधे-सादे हैं। कई लोग सोचते हैं कि उनकी समझने की शक्ति कम है। पर मैं जानती हूँ कि जो सहज ढंग से समझ सकते हैं, वास्तव में वे ही ठीक समझते हैं।

मैंने यह भी देखा है कि अपनी खेती-बारी ज़मीन-जायदाद के मामले में वे ठगे जाते हों, ऐसी बात भी नहीं। विषय-संपत्ति और घर के काम-काज दोनों में ही वे ठीक-ठाक थे। धान, चावल और सन का जो छोटा-मोटा व्यापार करते रहें, उसमें कभी घाटा नहीं हुआ। क्योंकि उनमें लोभ नहीं था। अपनी ज़रूरत भर वे हिसाब से चलते; उसके अधिक की बात वे समझते भी नहीं थे और उसमें हाथ भी नहीं डालते थे।

मेरे पति अपने सिर पर किसी ऊपरवाले को बिठाए बिना रह नहीं सकते थे। यहाँ तक कि…कहते लज्जा आती है, मेरी तो वह जैसे भक्ति करते थे। फिर भी मेरा विश्वास है वे मुझसे अधिक समझते थे और मैं उनसे अधिक बोलती थी।

वे सबसे ज़्यादा भक्ति करते थे अपने गुरुदेव की। केवल भक्ति नहीं, वह प्रेम था‒ऐसा प्रेम दिखने को नहीं मिलता।

गुरुदेव उम्र में उनसे कुछ छोटे थे। कैसा सुंदर रूप था उनका!…

कहते-कहते वैष्णवी थोड़ी देर रुकी और अपने दूरविहारी दोनों नेत्रों को बहु दूर भेज गुनगुनाकर गाया‒

अरुण किरण खानि तरुण अमृते छानि

कोनू विधि निरमिल देहा।

‒(अर्थात् अरुण-किरणों में तरुण अमृत उँड़ेलकर किस विधाता ने इस देह का निर्माण किया?)

इन गुरुदेव के साथ उन्होंने बचपन से ही खेला है, तभी से उन्हें अपने मनप्राण सौंप दिए हैं।

तब मेरे पति को गुरुदेव बुद्धू समझते थे। इसलिए उन पर बड़े जुल्म ढाए। अन्य साथियों के साथ मिलकर मज़ाक़-मज़ाक़ में ही उन्हें कितना परेशान किया था, उसकी कोई सीमा नहीं थी।

विवाह के बाद मैंने जब इस गृहस्थी में पाँव रखा, तब गुरुदेव को देखा नहीं। तब वे काशी में अध्ययन के लिए गए हुए थे। उनके वहाँ का सारा ख़र्च मेरे पति ही चलाते थे।

गुरुदेव जब घर लौटे, तब मेरी आयु शायद अठारह होगी।

पंद्रह वर्ष की उम्र में ही मेरे एक बेटा हुआ था। कच्ची उम्र के कारण मैं बच्चे का सार-सँभार करना सीख नहीं पाई थी; मुहल्ले की संगी-साथियों के साथ मिलने-जुलने के लिए ही मेरा मन दौड़ता। बच्चे के लिए घर में बँधे रहना पड़ता, इसलिए कभी-कभी उसके ऊपर मुझे क्रोध भी आता।

हाय रे, इधर बच्चा आ पहुँचा और उधर माँ पिछड़ गई थी, इससे बड़ा संकट और क्या हो सकता है! मेरे गोपाल ने आकर देखा उसके लिए मक्खन तो अब भी तैयार नहीं, इसलिए वह रूठकर चला गया‒मैं आज भी उसे दर-दर भटकती, खोजती फिर रही हूँ।

वह बच्चा पिता की आँखों का तारा था। मैंने उसकी सार-सँभार करनी नहीं सीखी, इससे उसके पिता भी दुःखी होते। लेकिन उनका हृदय गूँगा था, आज तक अपने दुःख की बात किसी से कह भी नहीं सके।

वे स्त्रियों की तरह अपने लड़के की सार-सँभार करते। रात में उस लड़के के रोने पर मेरी कच्ची उम्र की गहरी नींद में वे बाधा नहीं डालना चाहते। स्वयं रात को उठकर दूध गरम करते और उसे पिलाकर न जाने कितनी ही बार बच्चे को गोद में लेकर सुलाते रहते; मैं यह जान भी नहीं पाती। उनके सब काम ही ऐसे चुपचाप होते। पूजा-पर्व में ज़मींदार के घर जब यात्रा का अभिनय होता या कथा होती तो वे कहते, “मैं रात में जग नहीं पता, तुम चली जाना, मैं घर पर ही रहूँगा।” उनके बच्चे को साथ लेकर तो मेरा जाना संभव नहीं, इसलिए यही उनका बहाना होता।

आश्चर्य यह कि बच्चा फिर भी मुझे ही सबसे अधिक चाहता। वह जैसे समझाता था कि मौक़ा पाते ही मैं उसे छोड़कर चली जाऊँगी, इसलिए जब वह मेरे पास रहता तब सहमा-सहमा ही रहता। मुझे उसने अधिक पाया नहीं था, इसलिए मुझे पाने की ललक उसकी किसी भी तरह तृप्त नहीं हो पाती थी।

मैं जब नहाने के लिए घाट पर जाती, तो वह भी साथ जाने के लिए रोज़ मुझे परेशान करता। घाट सहेलियों के साथ मेरे मिलन की जगह थी, वहाँ बच्चे को लेकर जाना और उसकी देखभाल करना मुझे अच्छा नहीं लगता। इसलिए संभव होने पर भी मैं उसे कभी ले जाना नहीं चाहती थी।

यह सावन का महीना था। तह पर तह घने काले बादलों ने इस दोपहरी को एकदम आपादमस्तक चादर ओढ़ाकर रख छोड़ा था। ठीक नहाने के लिए जाते समय मुन्ना रोने लगा। निस्तारिणी हमारे चौके का काम करती थी, उससे कह गई, “बच्ची, ज़रा मुन्ने को देखती रहना, मैं घाट पर एक डुबकी लगाकर तुरत आई।”

घाट पर ऐन वक़्त और कोई नहीं था। सहेलियों के आने की प्रतीक्षा में मैं तैरने लगी। यह पोखर बहुत पुराना था, किसी रानी ने कभी इसे खुदवाया था, इसी से इसका नाम पड़ गया था ‘रानी-सागर’। इस पोखर को तैरकर पार करनेवाली स्त्रियों में केवल मैं ही अकेली थी। वर्षा में इसके किनारे जल से लबालब भरे थे। मैं जब यह पोखर क़रीब-क़रीब आधा पार कर चुकी तो इतने में पीछे से सुनाई पड़ा, “माँ!” मैंने मुड़कर देखा, मुन्ना घाट की सीढ़ियों पर नीचे उतरता हुआ मुझे बुला रहा है। मैंने चिल्लाकर मना किया, “और आगे मत बढ़, मैं आ रही हूँ।” मनाही सुनकर भी वह हँसता-हँसता आगे बढ़ने लगा। मेरे हाथ-पैर डर से जैसे सील दिए गए हों, किसी भी तरह मुझसे तैरा नहीं जा रहा था। मैंने आँखें बंदकर लीं। पता नहीं क्या देखना पड़े। इतने में उस रपटीली घाट पर, उस पोखर के पानी में मुन्ने की हँसी सदा के लिए थम गई। घाट पार कर उस माँ की गोद के अनाथ शिशु को पानी की सतह से उठाकर गोद में भरा, लेकिन फिर भी उसने “माँ” कहकर बुलाया नहीं।

अपने गोपाल को मैंने एक दिन ख़ूब रुलाया है, तभी वे सारे अनादर आज लौटकर मुझे मानने लगे। जीवितावस्था में उसे बराबर छोड़कर आती जाती रही, इसी से आज वह दिन-रात मेरे मन को अपनी पकड़ में कसकर जकड़े हुए है।

मेरे पति के हृदय पर कितनी गहरी चोट पहुँची, यह तो बस उनके अंतर्यामी ही जानते थे। यदि मुझे उन्होंने गालियाँ दी होतीं तो अच्छा होता, पर वह तो केवल सहना ही जानते थे, कहना जानते ही नहीं थे।

और इस तरह जब मैं प्रायः पागल हो चुकी थी, उसी समय गुरुदेव घर लौटे।

बचपन में मेरे पति जब उनके साथ खेलते-कूदते रहे थे, तब वहाँ एक दूसरे प्रकार का भाव था। अब फिर इतने सालों से अलग होने बाद जब उनका बाल-सखा विद्या अर्जन कर लौटा, तब उन पर मेरे पति की भक्ति एकबारगी परिपूर्ण हो उठी। इन्हें कौन कहेगा लँगोटिया यार, इनके सामने तो वे जैसे एकदम बोल तक नहीं पाते। मेरे पति ने मुझे सांत्वना देने के लिए अपने गुरु से अनुरोध किया। गुरु मुझे शास्त्र-वचन सुनाने लगे। उनकी बातों से मुझे कोई विशेष लाभ हुआ, ऐसा तो नहीं लगता। मेरे लिए उन सब बातें का जो कुछ मूल्य था, वे केवल उनके मुख की सुनी बातों के कारण। मनुष्य के कंठ द्वारा ही भगवान अपना अमृत मनुष्य को पान कराता है; ऐसा सुधापात्र तो उनके हाथ में दूसरा नहीं। फिर, उसी मनुष्य के कंठ से ही तो वे भी सुधा पान करते।

गुरु के प्रति मेरे पति की अजस्र भक्ति ने हमारी गृहस्थी को सर्वत्र मधुमक्खी के छत्ते के अंदर मधु के समान भर रखा था। हमारा आहार-विहार धन-जन सभी कुछ इसी भक्ति से पूर्ण था, कहीं भी अवकाश नहीं था। मैंने उस रस में अपने संपूर्ण मन से डूबकर तब सांत्वना पाई। इसलिए देवता को अपने गुरु के रूप में ही देख पाई।

वे आएँगे, भोजन करेंगे और तत्पश्चात् मैं उनका प्रसाद पाऊँगी, प्रतिदिन प्रातः नींद से जगते ही यही बात स्मरण आती और मैं उस आयोजन में जुट जाती। उनके लिए तरकारी काटती, मेरी अँगुलियों के बीच आनंद-ध्वनि बज उठती। मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, उन्हें अपने हाथों से पकाकर खिला नहीं सकती, इस बात से मेरे हृदय की सारी भूख मिट नहीं पाती थी।

वे तो हैं ज्ञान के समुद्र, उस ओर तो उनको कोई अभाव नहीं। मैं सामान्य स्त्री, मैं तो उन्हें बस थोड़ा-बहुत खिला-पिलाकर ही खुश कर सकती थी और उसमें भी इतनी सारी कमियाँ थीं।

मेरी गुरु सेवा देख मेरे पति का मन प्रसन्न होता रहता और मेरे पर उनकी भक्ति और भी बढ़ जाती। वे जब देखते मेरे निकट शास्त्र की व्याख्या करने के लिए गुरु में विशेष उत्साह है, तब वे सोचते, गुरु के निकट बुद्धिहीनता के लिए उन्होंने बराबर अश्रद्धा पाई है, अब उनकी पत्नी बुद्धि के बल पर गुरु को प्रसन्न कर पाईं, यही उनका सौभाग्य है।

इस प्रकार चार-पाँच वर्ष कहाँ-कैसे बीत गए, वह आँखों से देख नहीं पाई।

सारा जीवन ही ऐसे बीत सकता था। लेकिन चोरी-छिपे ही कहीं एक चोरी चल रही थी, वह मेरी पकड़ में नहीं आई थी, अंतर्यामी की पकड़ में आई। उसके बाद एक दिन में एक क्षण में सारा उलट-पलट हो गया।

उस दिन फागुन के सवेरे घाट पर जाने के छायादार पथ से नहाकर भीगे वस्त्रों में घर लौट रही थी। रास्ते के एक मोड़ पर, आम के पेड़ के नीचे गुरुदेव से मुलाकात हुई। वे कंधे पर एक अँगोछा डाले किसी संस्कृत मंत्र का पाठ करते-करते स्नान के लिए जा रहे थे।

भीगे वस्त्रों में उनके साथ मुलाक़ात होने पर लज्जा से एक ओर हो जाने की कोशिश कर रही थी, इतने में उन्होंने मेरा नाम लेकर पुकारा। मैं सिकुड़कर सिर नीचा किए खड़ी हो गई। वे मेरे मुख पर दृष्टि गड़ाए बोले, “तुम्हारी देह सुंदर है।”

डाल-डाल पर असंख्य पक्षी चहक रहे थे, रास्ते के किनारे-किनारे झाड़-झंखाड़ में भांउरी के फूल खिले थे, आम की डाल पर बौर आ रहे थे। लगा, सारा आकाश-पाताल उन्मत्त और अस्त-व्यस्त हो उठा हो। कैसे घर पहुँची, कुछ होश नहीं। एकदम से उन्हीं भीगे वस्त्रों में ही पूजागृह में घुस गई, आँखें जैसे ठाकुर जी को नहीं देख पाईं‒उस घाट के पथ की छाया के ऊपर के प्रकाश के बुंदे ही मेरी आँखों के सामने नाचने-झिलमिलाने लगे।

उस दिन जब गुरु भोजन करने आए तो उन्होंने पूछा, “आनंदी कहाँ है?”

मेरे पति मुझे ढूँढ़ते फिरे, कहीं देख नहीं पाए।

सुनते हो जी, मेरी वह पृथ्वी अब नहीं रही, मैं सूर्य का प्रकाश खोजकर और न पा सकी। पूजागृह में अपने ठाकुरजी को बुलाती हूँ, वे मेरी ओर से मुँह फेरे रहते हैं।

वह दिन कहाँ कैसे बीता, ठीक मालूम नहीं। रात में पति के साथ भेंट होगी। उस समय तो सब नीरव और अंधार। उसी समय मेरे पति का मन जैसे तारे के समान खिल उठता। उस अँधेरे में किसी-किसी दिन उनके मुख से एकाध बातें सुनकर सहसा समझ पाती, यह सरल व्यक्ति जो कुछ समझाता है, वह कितने सहज ही में समझ लेता है।

घर-गृहस्थी के काम निबटाकर आने में मुझे देर होती। वे मेरे लिए बिछौने के पास प्रतीक्षा करते। अकसर उस समय हम दोनों में अपने गुरु की कुछ-न-कुछ बातें भी होतीं।

बड़ी रात कर दी। तब तीन प्रहर होगा, कमरे में आकर देखा, मेरे पति तब भी खाट पर नहीं लेटे हैं, ज़मीन पर ही लेटे सो गए हैं। मैं बड़ी सावधानी से बिना आहट किए उनके पैरों की ओर लेट गई। नींद में एक बार उन्होंने पैर भी चलाया, वह मेरे सीने पर आ लगा। उसी को मैंने अंतिम दान के रूप में ग्रहण किया।

दूसरे दिन भोर में जब उनकी नींद खुली, तब मैं उठकर बैठी थी। खिड़की के बाहर कटहल के पेड़ की फुनगी पर अँधेरे में एक कोने में कुछ हल्का-सा रंग जम रहा था, तब तक कौए बोले नहीं थे।

मैंने पति के पैरों के पास माथा टेककर प्रणाम किया। वे जल्दी से उठ बैठे और मेरे मुँह की ओर चकित होकर ताकते रहे।

मैंने कहा, “मैं अब घर-गृहस्थी नहीं करूँगी।”

पति ने शायद सोचा, वे स्वप्न देख रहे हैं। कुछ बोल ही न सकें।

मैं बोली, “तुम्हें मेरे सिर की क़सम है, तुम दूसरा विवाह कर लो। मैंने विदा ली।”

मैं बोली, “गुरुदेव ने।”

पति भौचक रह गए, “गुरुदेव! ऐसी बात उन्हें कब कही?”

मैं बोली, “आज सवेरे जब स्नान करके लौट रही थी तो उनके साथ साक्षात्कार हुआ था। तभी कहा था।”

पति का स्वर काँप गया। पूछा, “ऐसा आदेश क्यों दिया?”

मैंने कहा, “मालूम नहीं। उन्हीं से पूछकर देखो, वही समझा देंगे।”

पति ने कहा, “संसार में रहकर भी तो संसार त्यागा जा सकता है, मैं यही बात गुरु को समझाकर कहूँगा।”

मैं बोली, “हो सकता है; गुरु समझ जाएँ, पर मेरा मन नहीं मानेगा। मेरी घर-गृहस्थी आज से समाप्त हुई।”

पति चुपचाप बैठे रहे। आकाश जब प्रकाशोज्जवल हो गया तो वे बोले, “चलो दोनों एक बार उन्हीं के पास चलें।”

मैंने हाथ जोड़कर कहा, “उनके साथ अब मेरी भेंट नहीं होगी।”

उन्होंने मेरे मुँह की ओर देखा, मैंने सिर झुका लिया। वे और कुछ नहीं बोले।

मैं जानती हूँ, उन्होंने मेरे मन को एक प्रकार से देख लिया।

दुनिया में दो व्यक्तियों ने मुझे सबसे अधिक प्यार किया था, मेरे पुत्र और मेरे पति ने। वह प्यार ही मेरा नारायण है, इसलिए वे मिथ्या नहीं सह सके। एक मुझे छोड़ गया, दूसरे को मैंने छोड़ा। अब सत्य को खोज रही हूँ और प्रवंचना नहीं।

यह कहकर उसने साष्टांग प्रणाम किया।

1. चैतन्यदेव गौरवर्ण थे अतः उन्हें ‘गौराङग’ या ‘गौर’ कहते हैं।

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