वैशाली की नगरवधू (बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

Vaishali Ki Nagarvadhu (Novel) : Acharya Chatursen Shastri

81 . नाउन : वैशाली की नगरवधू

नगर के प्रान्त - भाग में एक नाउन का घर था । घर कच्ची मिट्टी का था परन्तु इसकी स्वच्छता दिव्य और आकर्षक थी । नाउन घर में अकेली रहती थी । यौवन उसका चलाचली पर था , परन्तु उसकी देहयष्टि अति मोहक , आकर्षक और कमनीय थी । उसकी आंखें चमकदार थीं , परन्तु उनके चारों ओर किनारों पर फैली स्याही की रेखाएं नाउन के चिर विषाद को प्रकट कर देती थीं । उसका हास्य शीतकाल की दुपहरी की भांति सुखद था । वह श्याम लता के समान कोमलांगी तथा आकर्षक थी । नृत्य , गान , पान -वितरण , अंगमर्दन , अलक्तक - लेपन आदि कार्यों में वह पटु थी । उसके इन्हीं गुणों के कारण राजमहालय से लेकर छोटे - बड़े गृहस्थ गृहपतियों के अन्तःपुरों तक उसका आवागमन था ।

इसी नाउन के घर में सोम और कुण्डनी ने डेरा डाला था । राजनन्दिनी को खोकर सोम बहुत उदास और दुःखी दीख पड़ते थे। वे विमन से मागध सैन्य का संगठन कर रहे थे। सेनापति उदायि प्रच्छन्न भाव से उनसे मिलते रहते थे। यज्ञ समारोह की भीड़ - भाड़ और देश - देशान्तर के समागत लोगों से मिलकर उनके विचार , भावना जानने का सोम को यह बड़ा भारी सुयोग प्राप्त हुआ था । परन्तु विमन और खिन्न होने के कारण वे अधिकतर इस नाउन के घर पर चुपचाप कई - कई दिन पड़े रहते थे। कुण्डनी छद्मवेश में बहुधा अन्तःपुर में जाती रहती थी । नाउन भी कभी - कभी उसके साथ जाती थी । आवश्यकता से अधिक स्वर्ण पाकर नाउन बहुत प्रसन्न थी और दोनों अतिथियों को अभिसारमूर्ति समझ उनकी खूब आवभगत करती और उनकी प्रत्येक इच्छा की पूर्ति करने की चेष्टा करती थी ।

कुण्डनी ने बड़ी हड़बड़ी में बाहर से आकर सोते हुए सोम को जगाकर कहा-“ सोम , भयानक समाचार है ! ”

“ क्या लोग हमारा छिद्र पा गए हैं ? ”

“ नहीं - नहीं, महाराज प्रसेनजित् और विदूडभ, दोनों ही राजधानी में नहीं हैं । ”

“ राजधानी में नहीं हैं तो कहां गए ? ”

“ यही हमारी गवेषणा का विषय है। ”

“ तुमने कहाँ सुना ? ”

“ राजमहालय में । ”

“ परन्तु नगर में तो कोई हलचल नहीं है ? ”

“ नगरवासियों से यह समाचार छिपाकर रखा गया है । ”

“ यह कैसी बात है ? ”सोम उठकर बैठ गया । फिर कहा - “ अब कहो , तुमने कहां सुना ? ”

“ देवी कलिंगसेना के प्रासाद में । ”

“ किसके मुंह से । ”

“ आचार्य अजित केसकंबली के मुंह से । वे आज प्रातःकाल ही देवी कलिंगसेना को अनुष्ठान कराने के बहाने उनके प्रासाद में गए वहां विचार -विनिमय हुआ । महाराज प्रसेनजित् को राजकुमार ने बन्दी करके अज्ञात स्थान पर भेज दिया है । ”

“ यह तो मैं पहले ही समझ गया , परन्तु कुमार विदुडभ ? ”

“ उन्हें सम्भवतः बन्धुल मल्ल ने बन्दी कर लिया है । ”

“ बन्धुल क्या यहां है ? ”

“ वे कल ही सीमान्त से आए हैं । ”

“ तो कुण्डनी, इस सम्बन्ध में हमें क्या करणीय है ? ”

“ देवी कलिंग तुम्हें देखना चाहती हैं । ”

“ किसलिए ? ”

“ राजकुमार की मुक्ति के लिए वे तुमसे सहायता की याचना करेंगी। ”

“ परन्तु मैं क्यों सहायता करूंगा ? ”

“ देवी ने चम्पा की राजकुमारी की मुक्ति में हमारी सहायता की थी ? ”

“ की थी । ”सोम ने धीरे - से कहा। वे उठकर टहलने लगे। कुछ देर बाद उन्होंने कहा - “ कुण्डनी, मैं इसी समय आर्य उदायि से मिलना चाहता हूं। ”

“ ठहरो सोम , मुझे बताना होगा , किसलिए ? ”कुण्डनी की मुद्रा कठोर हो गई ।

सोम ने रूखे स्वर में कहा - “ अकथ्य क्या है ? मागधों के लिए यह स्वर्ण- सुयोग है ,

मागध बदला लेंगे। कोसल- जय का यह स्वर्णयोग है। वे कोसल को आक्रान्त करेंगे । ”

“ परन्तु किससे बदला लेंगे सोम ? ”

“ कोसलों से ? ”

“ कहां हैं वे कोसल , विचार तो करो ! क्या तुम विश्वासघात करने जा रहे हो सोम ?

“ किससे ? क्या शत्रु से ? उसमें विश्वासघात क्या है ? मेरे पास इस समय दस सहस्र मागध सेना है, मैं दो घड़ी में कोसल को आक्रान्त करके कोसल का अधीश्वर बन जाऊंगा। फिर मैं चम्पा की राजनन्दिनी को परिशोध दूंगा । ”

“ किस प्रकार ? ”

“ कोसल की पट्टराजमहिषी बनाकर । ”

“ तो सोम , विद्वानों का यह कथन सत्य है कि जन्म से जो पतित होते हैं उनके विचार हीन ही होते हैं । ”

“ इसका क्या अभिप्राय है कुण्डनी ? ”

“ यही कि तुम अज्ञात -कुलशील हो ! मैंने तुम्हारा शौर्य और तेज देख तुम्हें कुलीन समझा था , पर अब मैंने अपनी भूल समझ ली । ”

“ क्या ऐसी बात ? ”सोम ने कुण्डनी के मस्तक पर खड्ग ताना ।

“ सत्य है, सत्य है, यह समुचित होगा । पहले कुण्डनी का वध करो, फिर मित्र के साथ विश्वासघात करके कोसल का सिंहासन और चम्पा की राजकुमारी को एक ही दांव में प्राप्त करो। ”

“ मित्र के साथ विश्वासघात क्यों ? सोम ने चिल्लाकर कहा ।

“ क्या तुमने राजकुमार को मित्र नहीं कहा ? क्या उन्होंने राजकुमारी को धरोहर नहीं कहा ? क्या उन्होंने और राजमाता ने कुमारी की रक्षा करने में हमारी सहायता नहीं की ? क्या तुमने खड्ग छूकर राजकुमार से नहीं कहा था कि मित्र , यह खड्ग तेरी सेवा को सदा प्रस्तुत है ? ”

सोम ने खड्ग नीचे रख दिया । वे चुपचाप पृथ्वी पर बैठ गए । बहुत देर तक चुप रहने के बाद उन्होंने कहा

“ कुण्डनी, क्या करना होगा ? ”

“ कर सकोगे ? ”

“ और उपाय ही क्या है कुण्डनी ? ”

“ सत्य है, नहीं है । कल तुम्हें महालय में जाना होगा । ”

“ किस प्रकार ? ”

“ आचार्य का ब्रह्मचारी बनकर आशीर्वाद देने । ”

“ आचार्य ने क्या ऐसा ही कहा है ? ”

“ यही योजना स्थिर हुई है। और भी एक बात है। ”

“ क्या ? ”

“ मैंने वचन दिया है कि मैं युवराज की रक्षा करूंगी । तुम यदि न करोगे तो मुझे करनी होगी , सोम ! ”

“ मैं जब तक जीवित हूं , मैं करूंगा; तुम केवल मेरा पथ -प्रदर्शन करो। शुभे कुण्डनी , मैं तुम्हारा अनुगत सोम हूं। ”

“ तो सोम , प्रभात में हमें महालय चलना होगा । सारी योजना वहीं स्थिर की जाएगी। परन्तु अभी हमें एक काम करना है। ”

“ क्या ? ”

“ दीहदन्त के अड्डे पर जाना होगा। ”

“ वह तो बहुत दूषित स्थान है । ”

“ परन्तु हमें वहां जाना होगा। ”

“ क्यों ? ”

“ राजकुमार का पता वहीं लगने की सम्भावना है। ”

“ तो मैं वहां जाता हूं। ”

“ नहीं , हम तीनों को जाना होगा। नाउन उस पापी को पहचानती है। ”

“ नाउन क्या इस अभियान में विश्वसनीय रहेगी ? ”

“ वह सर्वथा विश्वास के योग्य है। ”

“ तब जैसी तुम्हारी इच्छा ! ”

“ तो हम लोग एक मुहूर्त में तैयार होते हैं । अभी एक दण्ड दिन है। ठीक सूर्यास्त के बाद हमें वहां पहुंचना होगा । तब तक तुम भी एक लुच्चे मद्यप का रूप धारण कर लो । ”

कुण्डनी का यह वाक्य सुनकर सोम असंयत होने पर भी हंस दिया । कुण्डनी चली गई ।

82 . दीहदन्त का अड्डा : वैशाली की नगरवधू

कुण्डनी ने कार्पास -कंचुक पहन कुसुम्भ - नमतक धारण किया , नेत्रों को अपांग से शृंगारित किया । स्तनों पर कौशेय पट्ट बांधा, स्वर्ण- वलय भुजा में पहने , अलक्तरागरंजित चरणों में झंकारयुक्त नूपुर धारण किए, माथे पर जड़ाऊ बन्धुल लगाया । फिर उसने हंसकर कहा- “ ठीक हुआ नाउन ? ”

“ अभी नहीं , ” नाउन ने हंसकर कहा। फिर उसने उठकर बहुत - सा लोध्ररेणु, उसके मुख पर पोतकर मुख को मैनसिल से लांछित कर दिया , स्याही से चिबुक और कपोल पर तिल बनाया और हाथों में रंगीन हस्तिदन्त के चूड़े पहनाए। फिर लम्बे कायबन्धन कमर में लटका चोलपट्ट पहनाया और तब कहा

“ अब हआ ! ”

“ तो अब तू भी साज सज । ”कुण्डनी ने उसका भी अपना ही - सा शृंगार किया । नाउन ने हंसकर कहा - “ समज्या - अभिनय करना होगा सखि , कर सकोगी ? ”

“ क्यों नहीं , परन्तु नई - नई देहात से जो आई हूं , अल्हड़ बछेड़ी हूं। - कुण्डनी ने नाउन की चुटकी भरते हुए कहा। फिर बोली, “ चल , अब देखें , नागर के कैसे रंग हैं ! ”

सोम ने एक नटखट नागर का उल्वण वेश धारण किया था । उसने शत - बल्लिक धारण किया था और कण्ठ में मंजरीक पहनी थी । कमर में कलावुक मुरज बांधा था । वह लाल उपानह पहन झट तैयार हो गया ।

तीनों जब राजमार्ग पर पहुंचे तो अलिन्द सूने थे, गवाक्षों के कपाट बन्द थे , वीथियों में जहां - तहां राजदीप जल रहे थे, परन्तु राजपथ का अन्धकार उनसे दूर नहीं हो रहा था ।

दीहदन्त का अड्डा श्रावस्ती के जनाकीर्ण अंतरालय में एक गन्दी और तंग गली में था । वहां उस समय मिट्टी के दीप जल रहे थे। मद्य की दुर्गन्ध आ रही थी । मद्यप , द्यूतकार , चोर, गलाकट तथा निम्न श्रेणी के विट, विदूषक और लंपट वहां बैठ मद्य पीते हुए भांति भांति के गपोड़े हांक रहे थे। बहुत - से लोग अपशब्द बक रहे थे । बहुत - से स्त्रियों के क्रय विक्रय की बात कर रहे थे। एक जुआरी ने चार दम्म में अपनी स्त्री को एक मित्र के पास गिरवी रख दिया था । अब वह वहां बैठा लोगों से अपने उस मित्र का सिर फोड़ देने का संकल्प भी प्रकट कर रहा था और गौडीय मद्य के बूंट भी गले से उतारता जा रहा था । एक दुबली - पतली नवयुवती मदपायियों को चषक भर - भर कर देती जा रही थी । मदोन्मत्त ग्राहक उसे छेड़ - छेड़कर गन्दी बातें बक रहे थे। लोग सुनकर हंस रहे थे।

तीनों ने वहां पहुंचकर एक अंधकारपूर्ण स्थान में खड़े होकर परामर्श किया । पहले नाउन अड्डे में गई। दीहदंत उसे देखते ही प्रसन्न हो गया । हंसते हुए उसने कहा

“ अरी, तेरी जय रहे रानी! आज इतने दिन बाद किधर ? ”

नाउन ने होठों पर उंगली रख संकेत से उसे अपने पास बुलाया और कान में धीरे से कहा

“ एक चिड़िया फांस लाई हूं। अड्डे में समज्या - अभिनय करेगी, ग्राहकों को मद्य देगी । अवसर पाकर बेच लेना । बीस दम्म से कम न मिलेंगे ?

“ अरे वाह, यह तो बहुत बढ़िया बात है । वह क्या कोई अगारिका है ? ”

“ नहीं, नटनी है। ”

“ कोई हानि नहीं, किन्तु सुन्दरी है ? ”

“ देख ले , सुन्दरी क्या ऐसी - वैसी है ! ”

“ तो उसे पिछले द्वार से भीतर ला , वहां आलोक में देखें । ”

“ पर कहे देती हूं , दस दम्म लूंगी । एक भी कम नहीं। ”

“ पर पहले माल तो दिखा ? ”

“ हां माल देखो, खूब खरा है। ”

नाउन बाहर आई और कुण्डनी को भीतर ले गई । कुण्डनी का रूप देख दीहदन्त की आंखों में धुन्ध छा गई ।

उसने हाथ मलते हुए कहा - “ हन्दजे , तू क्या समज्या - अभिनय कर सकती है ? ”

कुण्डनी ने वीड़ा - लास्य दिखाकर और तनिक मुस्कराकर सिर हिला दिया ।

“ तब अच्छा है । तो नाउन , पांच दम्म ले , देख ले । अभी नई है , बहुत खिलाना पिलाना -सिखाना पड़ेगा। ”

“ नहीं रे, सिखाना नहीं , सब जानती है, देख । ” उसने जाकर कुण्डनी को संकेत किया ।

कुण्डनी ने जो नृत्य -लास्य किया और रूप का उभार दिखाया तो उपस्थित चोर और हलाकू लम्पट वाह -वाह करने लगे ।

जिस जुआरी ने अपनी औरत को गिरवी रख दिया था , उसने हाथ के दम्म उछालकर कहा - “ कह रे दीह, कितने में बेचेगा इस दासी को ? ”

उसके साथ वाले पुरुष ने उसे धकेलते हुए बांह से होठों का मद्य पोंछते हुए कहा

“ यह दासी मैं लूंगा । मुझे सौ दम्म को भी भारी नहीं। ”

इसी समय सोम नागरिक लम्पट का वेश धारण किए अड्डे में आ एक आसन पर बैठ गया । मद्य ढालनेवाली लड़की ने सुराभाण्ड और चषक उसके आगे धर दिए । सोम ने थोड़े- से स्वर्णखण्ड दीहदन्त के आगे फेंककर कहा - “ दे सबको मद्य । ”सब मद्यप प्रसन्न हो उठे और उसके चारों ओर आ जुटे । दीहदन्त ने उसे प्रसन्न करने को आसन्दी - आसिक्त सोपधान पर उसे बैठाया । नाउन ने कहा - “ यही वह है दन्त ? ”

“ वह कौन ? ”

“ राजपुत्र को जिसने उड़ाया है। देखते तो हो , कितना स्वर्ण है इसके पास। ” दीहदन्त ने हंसकर कहा - “ यह नहीं है, वह है। ”

उसने दोनों जुआरियों की ओर संकेत किया । नाउन ने उचककर उन्हें देखा और कुण्डनी को संकेत किया । कुण्डनी ने लीला-विलास करके उन्हें सम्मोहित कर दिया । दोनों झगड़ा बन्द कर हंसने और मद्य पीने लगे ।

सोम नाउन का संकेत पा उसके पास आ बैठा । उसने कहा

“ कह मित्र, दासी कैसी है ? ”

“ क्या कहने हैं , मित्र ! परन्तु इसे मैं मोल लूंगा। ”

“ किन्तु मित्र, यह सहज नहीं है। इस दुष्ट दीह ने इसे राजकुमार विदूडभ को भेंट करने का संकल्प किया है !

हाथ का मद्यपात्र रिक्त कर उसने हंसते हुए कहा - “ तो जाय यह कोसल दुर्ग में । ” सोम के कान खड़े हो गए। उसने कहा

“ कोसल- दुर्ग में इसे भेजना चाहिए मित्र ! कोई कौशल कर , वह उसी नटी के सम्बन्ध में दासी से बात कर रहा है । ले पी मित्र ! ”सोम ने मद्यपात्र उसके आगे करके कहा ।

“ बन्धुल मेरा मित्र है। वह सबका सेनापति है, मेरा नहीं। मेरा मित्र है। ”उसने हंसते हुए कहा ।

“ तो मित्र , फिर बाधा क्या है ? ”बन्धुल सेनापति यदि कोसल- दुर्ग में है, तो इस दीह को वहीं लाद दो । फिर दासी तेरी है, एक पण भी खर्च नहीं होगा । ”

“ मैं आज ही मित्र बन्धुल से कहूंगा मित्र! रहस्य की बात है-बंधुल मेरा चिरबाधित है । ”

“ और कुमार विदूडभ ?

“ ओह, उसकी क्या बात ? वह बन्दी है ? ”

“ क्या सच ? यह क्या कहते हो मित्र ? ”

“ चुप , कहने - योग्य नहीं । वह उसी कोसल- दुर्ग में बन्दी है। ”

“ नहीं मित्र, तुझे किसी ने भ्रमित किया है । ”

“ तू मूर्ख है मित्र! मैंने उसे स्वयं दुर्ग के बन्दीगृह में पहुंचाया है। अरे, जलगर्भ में बन्दी- घर का द्वार है ।

“ क्या कह रहा है मित्र ? ले मद्य पी । ” और चषक पीकर उसने कहा - “ क्या मेरी बात पर अविश्वास करते हो ? ”

“ विश्वास नहीं होता मित्र! तू झूठ बोलता है । ”

“ तो दांव बंद ! ”

“ मैं सौ दम्म दांव पर लगाता हूं। ”

“ क्या सौ दम्म ? ”उस पुरुष ने आश्चर्य से आंखें फाड़ - फाड़कर सोम को देखा ।

“ पूरे सौ दम्म ”, सोम ने दम्मों से परिपूर्ण थैली निकालकर दिखाते हुए कहा - “ तो अभी दिखा और सौ दम्म ले । ”

“ परन्तु रात है। ”

“ तो क्या हुआ। ”

“ राह अगम्य कानन में है । ”

“ अरे मित्र , यह खड्ग है। फिर मेरे पास बाहर दो बढ़िया अश्व हैं । ”

“ दम्म भी हैं , अश्व भी हैं , तब विलम्ब क्यों ? चल मित्र , अभी । ”

“ तो चल “

दोनों व्यक्ति अड्डे से बाहर आए और अश्व पर चढ़ एक ओर तेजी से बढ़कर अन्धकार में लीन हो गए।

83. कोसल - दुर्ग : वैशाली की नगरवधू

श्रावस्ती से तीन कोस दक्षिण दिशा में सरयू के तट पर एक सुदृढ़ दुर्ग था , जो कोसल - कोट के नाम से प्रसिद्ध था । इस कोट के एक ओर नदी और तीन ओर खाई थी । दुर्ग का रूप वर्गाकार था और इसकी हर एक भुजा सहस्र हाथ लम्बी थी । गढ़ की चारों दिशाओं में दो विशाल मुख्य द्वार और आठ छोटे प्रवेश- पथ थे। गढ़ की बाहरी प्राचीर मिट्टी की थी , जो तीस हाथ ऊंची थी और उसकी नींव का निचला भाग सौ हाथ मोटा था । प्राचीर के दोनों ओर तीन - चार आयत विस्तार का मोटा पक्का मसाले का पलस्तर था । उसके बाद पक्की ईंटों की पर्त लगी थी । जो छोटे - छोटे आठ द्वार थे, उनमें से प्रत्येक की चौड़ाई पचीस हाथ थी । इन द्वारों के भीतरी भाग में तेरह- तेरह हाथ के और भी द्वार थे। इन द्वारों के पार्श्व- भाग में पांच- छ : हाथ चौड़े और भी द्वार थे। सूर्यास्त के बाद बड़े द्वारों के बन्द हो जाने पर कोट के निवासी इन्हीं छोटे द्वारों से आते - जाते थे । प्रधान द्वार के पार्श्व- भाग में ऊंचे-ऊंचे तिरसठ हाथ लम्बे और अट्ठाईस हाथ चौड़े चतुष्कोण गुम्बज थे, जिन पर चढ़ने को सीढ़ियां बनी हुई थीं । दुर्ग में बीचोंबीच सोलह खम्भों पर सभा - भवन टिका था । खाई और मुख्य द्वार को एक काठ का बहुत भारी पुल जोड़ता था । सूर्यास्त के बाद यह पुल रस्सियों से उठा दिया जाता। उस समय दुर्ग में आना किसी भांति सम्भव नहीं था । श्रावस्ती से बाहर आते ही अगम कान्तार लग जाता था , उसमें कोई मार्ग या वीथी नहीं थी । सम्पूर्ण कान्तार बड़े-बड़े घने वृक्षों और गुल्मों से भरा था । वहां बहुत - से हिंस्र जन्तु रात -दिन विचरण करते थे। सर्वसाधारण की बात तो दूर रही , बड़े- बड़े जीवट के आदमियों को भी उधर जाने का साहस नहीं होता था । दुर्दान्त डाकू, भीषण अपराधी, पक्के जुआरी, हत्यारे , राजविद्रोही आदि राजदण्ड से बचने के लिए ही इस महाकान्तार में आश्रय लिया करते थे। दुर्ग में थोड़ी- सी सेना भी रहती थी । परन्तु सब सैनिक रात को दुर्ग में नहीं रहने पाते थे। दुर्ग के मुख्य द्वार से कोई सहस्र हाथ के अन्तर पर एक छोटी- सी बस्ती थी । इसी में इन सैनिकों के परिवार रहते थे। सैनिक भी रात को वहीं चले आते थे। दुर्ग में केवल गिने हए आवश्यक जन ही रह जाते थे। श्रावस्ती से एक घुमावदार कच्ची राह इस ग्राम तक आई थी ।

दुर्गपति एक वृद्ध क्षत्रप थे। वे सपरिवार दुर्ग ही में रहते थे। उनकी आयु साठ को पार कर गई थी । डील -डौल के लम्बे , हाथ -पैरों के मज़बूत और साहसी आदमी थे। उनका कण्ठ- स्वर बहुत भारी था और दृष्टि पैनी । परिवार में केवल एक किशोरी इकलौती पुत्री थी । उसे जिसने शिशुकाल से पोषण किया , वह एक क्रीता काली दासी थी । दासी को दुर्गपति और उनकी पुत्री दोनों बहुत मानते थे। विधि -विडम्बना से दुर्गपति भग्न - हृदय थे । उन्होंने एकान्त एकनिष्ठ जीवन स्वयं ही महाराज प्रसेनजित् से मांग लिया था । गत सत्रह वर्षों से वे निरन्तर इसी दुर्ग में रह रहे थे। एक बार भी वे इससे बाहर कभी नहीं निकले । इस दासी के सिवा उनका एक दास भी था । वह वज्र जड़ था । वह निपट बहरा और गूंगा था , परन्तु उसमें एक सांड़ के बराबर बल था । इसे दुर्गपति ने बहुत बाल्यावस्था में तीर्थयात्रा करते हुए अनार्य देश से मोल खरीदा था ।

मालिक की भांति दुर्गपति के दोनों सेवक भी विश्व के सम्बन्धों से पृथक् थे। ये दोनों भी कभी किसी नगर में नहीं गए । हां , दास और कभी- कभी दासी भी उस निकटवर्ती गांव में अवश्य चले जाते थे।

इन चार मूल प्राणियों के सिवा रात को पुल भंग होने के बाद केवल आठ सिपाही इस दुर्ग में रह जाते थे। वे केवल दुर्ग- द्वार पर पहरा देते थे।

दुर्ग के मुख्य पश्चिम द्वार के निकट , जिधर गहन कान्तार पड़ता था , एक दृढ़ प्रकोष्ठ पत्थरों का बना था । यह वास्तव में बन्दीगृह था । बन्दीगृह में कोई प्रकट प्रवेश - द्वार न था । केवल छत के पास एक आयत - भर का छिद्र था । इस छिद्र के द्वारा ही बन्दी को वायु , अन्न , जल और प्रकाश प्राप्त होता था । गुप्त द्वार जल के भीतर था । द्वार के ऊपर एक अलिन्द था , जिसमें लौह- फलक जड़े थे। उस अलिन्द में , जब वहां कोई बन्दी रहता था , तो आठ प्रहरी खास तौर पर रात -दिन पहरा देने को नियत रहते थे।

खाई के उस पार इस बन्दीघर के ठीक छिद्र के सामने एक छोटी - सी पक्की दमंज़िली अट्टालिका थी । यह अट्टालिका प्रायः सदा बन्द रहती थी । कभी -कभी इसमें रहस्यपूर्ण रीति से कोई राजपुरुष दो - चार दिन को आ ठहरते थे। वहां से दुर्ग के उस ओर वाली बस्ती को केवल एक छोटी- सी पगडंडी चली गई थी । बस्ती में सिपाहियों के घरों के सिवा कुछ घर कृषकों के भी थे। उन्होंने आसपास की थोड़ी - सी भूमि साफ करके अपने खेत बना लिए थे। कुल बस्ती में केवल एक दुकान मोदी की थी तथा एक पानागार था । रात्रि को बहुत देर तक उसी पानागार में चहल - पहल रहती थी । बस्ती के रहने वाले प्रायः वहां बैठकर पान करते हुए गप्पें लड़ाया करते थे ।

इस समय दुर्ग में एक बन्दी था । इससे बन्दीगृह के बाहरी अलिन्द में आठ सशस्त्र सैनिकों का पहरा बैठा था और खाई के उस पार जो घर था उसमें भी मनुष्यों के रहने का आभास मिल रहा था । परन्तु नियमित रूप से जैसी व्यवस्था चली आ रही थी , दुर्ग में वैसी ही चल रही थी । दुर्गपति साधारण नित्यनियम से रह रहे थे। केवल बन्दीगृह के प्रान्त को छोड़कर और कहीं कुछ नवीनता नहीं प्रकट हो रही थी ।

84. नर्म साचिव्य : वैशाली की नगरवधू

कीचड़ और मिट्टी में लथपथ सोमप्रभ ने सूर्योदय से प्रथम ही घर में प्रवेश किया । उनका अश्व भी बुरी तरह थक गया था । कुण्डनी और नाउन तमाम रात जागती रहकर सोम की प्रतीक्षा करती रही थीं । अब कुण्डनी ने कुछ आश्वस्त होकर , किन्तु संदेह - भरे नेत्रों से सोम को देखा । सोम ने संक्षेप में कहा - “ कुण्डनी , सब देख आया हूं। राजकुमार को छुड़ाना सहज नहीं है । परन्तु चलो , अब हम राजमहिषी से पहले मिल लें । मैं अभी एक मुहूर्त में तैयार होता हूं । तुम भी तैयार हो लो । ”

और बातें नहीं हुईं। सोम ने नित्यकर्म से निवृत्त हो खूब डटकर स्नान किया । आपाद श्वेत कौशेय धारण किया । मस्तक पर चन्दन का तिलक लगाया । सिर पर भंगपट्ट बांधा । उत्तरासंग को ब्रह्मचारी की भांति कन्धे पर डालकर कहा - “ कुण्डनी, अब इस वेश में खड्ग तो मैं नहीं ले जा सकुंगा। ”

“ उसकी आवश्यकता नहीं सोम ! ”

“ क्यों नहीं ? शत्रु के अन्तःपुर में छद्मवेश में प्रवेश करना होगा, फिर दिन -दहाड़े ! तू कहती है कि खड्ग की आवश्यकता नहीं ! ”

“ नहीं है सोम! हम शत्रु का उपकार करने उसी की नियुक्ति पर जा रहे हैं । ”

विशेष बातचीत नहीं हुई। तीनों जन चलकर राजद्वार पर पहुंचे। नाउन ने पुष्प करंडिका और गंगाजल की झझरी सोम के हाथ में दे दी । कुण्डनी और नाउन का द्वारी से परिचय था , अतः उसने मार्ग दे दिया । तीनों टेढ़ी -तिरछी वीथियों को पार करते हुए महिषी कलिंगसेना के हर्म्य में पहुंच गए ।

आचार्य केसकम्बली वहीं उपस्थित थे । देवी नन्दिनी भी तुरन्त आ उपस्थित हुईं ।

सोम ने भूमिका न बढ़ाकर कहा - “ आचार्य, राजकुमार कोसल - दुर्ग में बन्दी हैं , वहां से उनकी मुक्ति सहज नहीं होगी ? ”

“ परन्तु सौम्य , तुझे अपना पराक्रम दिखाना होगा । यह तेरी कोसल- राजवंश पर भारी अनुकम्पा होगी। ”

नन्दिनी देवी ने आंखों में आंसू भर कहा - “ कोसलगढ़ को मैं जानती हूं भद्र ! महाराज ने वहां मेरे पिता को बन्दी कर दिया था । उन्होंने मेरा समर्पण महाराज को करके अपना उद्धार किया था । ”

कलिंगसेना ने दृढ़ स्वर में कहा - “ भद्र, यदि तुम्हें कुछ असुविधा हो तो मैं स्वयं कोसल - दुर्ग में खड्गहस्त जाऊंगी। तुम्हें जो कुछ विदित है, वह कहो। ”

“ नहीं भद्रे, मैं जीवन के मूल्य पर भी राजकुमार का उद्धार करूंगा। ”सोम ने धीरे से कहा ।

“ साधु, साधु! भद्र , ऐसा ही होना चाहिए । मैं कारायण को तुम्हारी सहायता के लिए कह दूंगा । ”आचार्य ने गद्गद होकर कहा।

सोम ने कहा “ आचार्य, वहां युक्ति -बल से काम चलेगा। बन्दीघर का द्वार जलमग्न है। उसमें एक भारी यन्त्रक जुड़ा है । उसकी सूचिका चाहिए , यह एक बात है।...

“ दुर्ग के बाहर मल्ल बन्धुल स्वयं पचास भटों के साथ अत्यन्त सावधानी से बन्दी पर पहरा दे रहा है । उससे सम्मुख युद्ध नहीं हो सकता। कूटयुद्ध करना होगा। यह दूसरी बात है.....

“ हम लोग दुर्ग पर आक्रमण करके बलपूर्वक युवराज का उद्धार करेंगे, इसका गुमान भी यदि बन्धुल को हो गया तो वह राजकुमार की हत्या कर सकता है । अभी तक उसने जो उन्हें हनन नहीं किया , इसका कारण यही प्रतीत होता है कि वह उनसे महाराज का पता पूछना चाहता है । यह तीसरी बात है.....

“ दुर्गपति बड़ा कठोर और एकान्त व्यक्ति है। बन्दी के गृहद्वार की सुत्रिका उसी के पास रहती है, वहां से उसका प्राप्त होना असम्भव है । यह चौथी बात है.....

“ दुर्ग में बाहर - भीतर सब मिलकर सौ आदमी हैं । जिसमें पचास भट बन्धुल के साथ अट्टालिका में हैं । शेष उस गांव में । दुर्ग में केवल दो - दो भट एक - एक प्रहर बन्दीगृह पर पहरा देते हैं , परन्तु आवश्यकता होने पर तुरन्त सहायता प्राप्त हो सकती है।

आचार्य ने सब सुनकर कहा - “ क्या तुमने कोई योजना निश्चित की है सौम्य ? ”

“ की है, किन्तु वह अपूर्ण है आचार्य! मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं । ”

“ किसकी भद्र ? ”

“ एक लम्पट धूर्त की ? ”

“ किस अभिप्राय से ?

“ वह युवराज को उड़ाने के षड्यन्त्र में सम्मिलित था । उसने स्वर्ण लेकर मझे अपना सब भेद बता दिया है और सूत्रिका की सिक्थ -मुद्रा मुझे ला देने का वचन दिया है। वह मुझे दो दण्ड दिन चढ़े तक मिलेगा । वह अपने उद्योग में संलग्न है। ”

“ क्या भद्र, वह छल नहीं करेगा ? ”देवी नन्दिनी ने कहा ।

“ आशा तो नहीं है देवी । उसे भारी पारिश्रमिक मिल चुका है। केवल सुत्रिका की सिक्थ- मुद्रा ला देने से ही उसे सहस्र स्वर्ण की प्राप्ति और होगी, जो वह जीवन - भर में संग्रह नहीं कर सकता। ”

“ तो भद्र, तुम हमें क्या करने को कहते हो ? ”गान्धार - पुत्री कलिंगसेना ने सुनील नेत्रों से उसकी ओर देखकर कहा- “ मैं अपनी सामर्थ्य से दुर्ग में पहुंच भर सकती हूं। परन्तु यह क्या यथेष्ट होगा ?

“ नहीं भद्रे ! यथेष्ट भी न होगा और उचित भी नहीं होगा। ”

“ किन्तु भद्र, यदि तुम्हें सिक्थ-मुद्रा न मिली तो ? ”आचार्य ने चिन्तित भाव से पूछा ।

“ तो भी मैं देख लूंगा आचार्य ! किन्तु मैं अभी एक बार सेनापति कारायण से मिलना चाहता हूं। हां , आपको राजपुत्र की कब आवश्यकता होगी ? ”

“ कल तीन दण्ड सूर्य चढ़ने पर । वही मुहूर्त अभिषेक का है। अभी तक महाराज और राजपुत्र दोनों के अपहरण का समाचार अप्रकट है । सब यही जानते हैं , महाराज देवी के प्रासाद में हैं । यही मैं भी कहता हूं । मैं कल सूर्योदय होते ही यज्ञानुष्ठान साधारण रीति पर प्रारम्भ कर दूंगा । तीन दण्ड दिनमान होने पर महाराज को अभिषेक की वेदी पर आना होगा । ”

“ तो आचार्य , जैसे भी होगा , मैं ठीक समय पर राजपुत्र को अभिषेक वेदी पर ला बैठाऊंगा। यदि न ला सकू तो यही समझना कि सोमप्रभ जीवित नहीं है। ”

वह एकबारगी ही उठकर चल दिए । सबके हृदय आतंकित हो गए। कुण्डनी और नाउन ने उनका अनुगमन किया । सब स्तब्ध थे।

85 . कठिन अभियान : वैशाली की नगरवधू

सब योजना ठीक कर ली गई । सिक्थ - मुद्रा मिल गई । उस पर से सूत्रिका बन गई । नाउन को संग लेकर कुण्डनी ने एक पहर दिन रहे नटनी के वेश में दुर्ग की ओर प्रस्थान किया । चलती बार वह अपनी विषदग्ध कटार को यत्न से वेणी में छिपाना नहीं भूली।

सोम ने दिन - भर सोकर काटा था । सूर्यास्त के समय उन्होंने सर्वांग पर तैलाभ्यंग किया , एक कौपीन कसी और कठिन कंचुक पहन एक क्षौम प्रावार से शरीर को लपेट लिया । खड्ग उन्होंने वस्त्र में छिपा लिया ।

शम्ब को एक मजबूत बड़ी रस्सी और दण्डसत्थक दी गई। एक छोटा धनुष और कुछ बाण भी उसे दिए गए। उसे भी तैलासक्त कर कौपीन धारण कराया गया । इसके बाद दोनों ने एक दण्ड रात्रि व्यतीत होने पर गहन कान्तार में प्रवेश किया ।

इसी समय कारायण ने अपने दो सौ सैनिकों की टुकड़ी लेकर दूसरे मार्ग से कोसल दुर्ग की निकटवर्ती अट्टालिका की ओर कूच किया ।

कान्तार भूमि सोम ने भलीभांति देखकर मार्ग की खोज कर ली थी , इसलिए अन्धकार होने पर भी वे दो मुहूर्त ही में दुर्ग के दक्षिण द्वार के सामने पहुंच गए । अपने अश्वों को उन्होंने कान्तार में छिपाकर लम्बी बागडोर से बांध दिया । इसके बाद उन्होंने निःशब्द दुर्ग - द्वार की ओर प्रयाण किया ।

द्वार के बाहर जो अट्टालिका थी , उसमें काफी चहल -पहल थी । उसमें से नृत्य - गीत की और बीच- बीच में मनुष्यों के उच्च हास्य की ध्वनि आ रही थी । सोम ने समझ लिया कि यहां कुण्डनी का रंग जमा हुआ है। बन्दीघर के ऊपर अलिन्द पर प्रकाश न था । परन्तु दो छाया - मूर्तियां वहां घूमती दीख रही थीं । सोम पाश्र्व में पूर्व की ओर घूमकर एक अश्वत्थ वृक्ष के निकट पहुंचे। अश्वत्थ के तने में उन्होंने रस्सी का एक सिरा दृढ़ता से बांधा, तथा दूसरे को अच्छी तरह कमर में बांध दिया । शम्ब से कहा - “ शम्ब, सामने केवल दो छाया मूर्तियां अलिन्द में दीख रही हैं । आवश्यकता होने पर वे आठ हो सकती हैं । इससे अधिक नहीं। ध्यान से सुन , मैं जल में जाता हूं। तू रस्सी को थाम रह, ज्यों ही वह ढीली प्रतीत हो , तू वृक्ष पर चढ़कर छिपकर यत्न से बैठ जाना । तेरे तरकस में सोलह बाण हैं । याद रख , एक भी बाण व्यर्थ न जाए और अलिन्द पर एक भी जीवित पुरुष खड़ा न रहने पाए। परन्तु प्रथम रस्सी का ध्यान रखना। ”

शम्ब ने सिर हिलाकर स्वीकार किया। वह दण्डसत्थक को हाथ में ले दूसरे हाथ से रस्सी को थाम खाई के किनारे बैठ गया । सोम ने चुपचाप जल में प्रवेश कर निःशब्द डुबकी लगाई । रस्सी की बैंच बढ़ गई । वह वृक्ष के तने में अच्छी तरह बंधी हुई थी । शम्ब उसका छोर हाथ में लिए ध्यान से उसका तनाव देख रहा था ।

सोम निःशब्द जल के भीतर - ही - भीतर बन्दीगृह के द्वार पर जा पहुंचे। थोड़े ही यत्न से द्वार - सुरंग उन्हें मिल गई । वे द्वार - सुरंग में प्रविष्ट हो गए । सुरंग सीढ़ी की भांति उन्नत होती गई थी । दस पैढ़ी ऊपर जाने पर उनका सिर जल से बाहर निकला । क्षण - भर ठहरकर उन्होंने यहां सांस ली और रस्सी कमर से खोल दी । फिर वे चार - पांच पैढ़ी चढ़े । अब उन्हें वह लौह- द्वार मिला, जहां भारी यन्त्रक लगा था । सूत्रिका उनके पास थी , उससे उन्होंने यन्त्रक खोल डाला । गुहा में घोर अन्धकार था । वायु का भी प्रवेश न था । उस छोटी - सी जगह में उनका दम घुट रहा था । यन्त्रक खोलते ही वे एक दूसरी छोटी - सी कोठरी में जा पहुंचे, जो चारों ओर से पत्थरों की दीवारों से घिरी थी । उसमें कोई दूसरा द्वार न था । प्रकाश का साधन सोम के पास न था । वे टटोलकर चारों ओर उस कोठरी में घूमने लगे । वे सोच रहे थे, यदि यही बन्दीगृह है तो बन्दी कहां है ? यदि बन्दीगृह और है तो उसका मार्ग कहां है ? परन्तु उन्हें इसका कोई भी निराकरण नहीं मिल रहा था । वे अन्त को एक बार विमूढ़ हो उसी कोठरी में बैठ गए।

उधर, ज्यों ही सोम ने रस्सी कमर से खोली, रस्सी ढीली हो गई। शम्ब आश्वस्त हो हंसते हुए रस्सी का सिरा छोड़ अश्वत्थ पर चढ़ गया और अच्छी तरह ढासना मार आसन जमा बैठ गया । बैठकर उसने ध्यानपूर्वक आलिन्द की ओर देखा । दो छाया - मूर्तियां वहां अन्धकार में घूम रही थीं , शम्ब ने बाण सीधा किया और कान तक तानकर छोड़ दिया । बाण उस व्यक्ति की पसलियों को चीरता हुआ फेफड़े में अटक गया । वह व्यक्ति झूमकर अलिन्द के किनारे तक आया और छप से जल में गिर गया । दूसरे व्यक्ति को यह पता नहीं लगा कि क्या हुआ । वह आश्चर्य- मुद्रा में झुककर उस पुरुष को देखने लगा । इसी समय दूसरे बाण ने उसके कन्धे में घुसकर उसे भी समाप्त कर दिया । वह पुरुष भी वहीं अलिन्द में झूल पड़ा।

शम्ब अपनी सफलता पर बहुत प्रसन्न हुआ। वह अब ध्यान से तीसरे शिकार की ताक में बैठ गया । थोड़ी ही देर में दो सैनिक बातें करते हुए अलिन्द में आए और प्रहरी को इस भांति लटकते देख उनमें से एक ने उसका नाम लेकर पुकारा । उत्तर न पाकर वह निकट आया । निकट आकर देखा वह पुरुष मृत है। एक बाण उसके अंग में घुस गया है । दोनों प्रहरी भीत हो एक - दूसरे को देखने लगे । इसी समय शम्ब का तीसरा बाण सनसनाता हुआ आकर उनमें से एक के वक्षगह्वर में पार हो गया । वह पुरुष रक्त - वमन करता हुआ वहीं गिर गया ।

दूसरे सैनिक ने आतंकित हो तरही फंकी। तुरही की तीव्र ध्वनि शून्य में दूर - दूर तक गूंज उठी । उसी समय शम्ब का चौथा बाण उसके कण्ठ के आरपार हो गया । तुरही उसके हाथ से छूट पड़ी । वह मृत होकर वहीं गिर गया ।

परन्तु तुरही का शब्द अट्टालिका के लोगों ने सुन लिया । शब्द सुनते ही वहां के मनुष्यों में प्रगति प्रकट हुई। वाद्य - नृत्य बन्द हो गया और मनुष्यों की दौड़ - धूप, चिल्लाहट के शब्द सुनाई देने लगे। शस्त्रों की झनझनाहट भी सुनाई देने लगी ।

कारायण अपने दो सौ भटों को लिए पूर्व नियोजित योजना के अनुसार इस अट्टालिका के चारों ओर अत्यन्त अप्रकट रूप से घेरा डाले पड़े थे। उन्होंने सैनिकों को आवश्यक आदेश दिए और वे अट्टालिका से बाहर निकले मनुष्यों पर प्रहार करने को सन्नद्ध हो गए। परन्तु यह देखकर उनके आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा कि अट्टालिका का प्रकाश बुझ गया । वहां सन्नाटा छा गया । किसी जीवित प्राणी के वहां रहने का आभास ही नहीं रहा।

सेनापति कारायण अब विमूढ़ होकर सोचने लगे कि क्या करना चाहिए! इसी समय दुर्ग में विपत्तिसूचक घण्टा बजा और निकटवर्ती ग्राम से सोते हुए सैनिक शस्त्र - सन्नद्ध होकर दौड़ते हुए दुर्ग की ओर जाते दीख पड़े । खाई पर बड़ी- बड़ी चर्खियां काष्ठ के भारी पुल को गिराने लगीं। कारायण ने यह देख अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया। उन्होंने पचास भट छांटकर अपने साथ लिए, शेष डेढ़ सौ सैनिक अपने अधिनायकों की अधीनता में तीन टुकड़ियों में विभक्त किए । पहली टुकड़ी के नायक को आदेश दिया कि वह तुरन्त दुर्ग - द्वार पर प्रच्छन्न भाव से जाकर खाई के पुल पर अधिकार कर ले । दुर्ग में किसी शत्रु सैनिक को प्रविष्ट न होने दे। प्रत्येक सैनिक को सामने आते ही जान से मार डाले । नायक अपने सैनिक लेकर दबे - पैर दुर्ग - द्वार की ओर दौड़ चला ।

दूसरे नायक को सेनापति ने आदेश दिया कि वह घूमकर पश्चिमी दुर्ग-द्वार के चारों ओर फैल जाए और ग्राम से आते हुए सैनिकों को काट डाले । नायक के उधर चले जाने पर सेनापति ने तीसरी टुकड़ी के नायक को आज्ञा दी कि मैं अट्टालिका पर आक्रमण करता हूं , तुम बाहर से इसकी रक्षा करना । किसी भी सैनिक को भीतर मत घुसने देना । इतनी व्यवस्था कर सेनापति ने अपने पचास भट लेकर अट्टालिका पर आक्रमण किया । साधारण आघात से द्वार भंग हो गया । परन्तु उसे यह देखकर अत्यन्त आश्चर्य हो रहा था कि अट्टालिका में इतने आदमियों की चहल - पहल थी , प्रकाश था , वहां से गान -वाद्य की ध्वनि आ रही थी , पर वहां से एक भी जन बाहर नहीं निकला। क्या कारण है कि अब वहां एकबारगी ही सन्नाटा छा गया ? क्या भूमि मनुष्यों को निगल गई । सेनापति कारायण ने सैनिकों को प्रकाश करने का आदेश दिया । प्रकाश में उन्होंने गान -पान के अवशेष देखे. परन्तु मनुष्य नहीं। उन्होंने अत्यन्त सावधानी से प्रत्येक प्रकोष्ठ को , प्रत्येक कोष्ठक को देखना प्रारम्भ किया । एक प्रकोष्ठ में उन्होंने कुण्डनी और नाउन को वस्त्रखण्ड से बंधी हुई पड़ी देखा । सेनापति ने उन्हें बन्धन - मुक्त करके उनके मुंह में लूंसा हुआ कपड़ा निकाला । सेनापति कुण्डनी और उसकी संगिनी से परिचित न थे। उसने पूछा

“ तुम कौन हो और कक्ष के और आदमी कहां हैं ? ”

कुण्डनी ने पूछा - “ क्या आप सेनापति कारायण हैं ? ”

“ हां , मैं कारायण हूं। ”

“ तो सेनापति , संकट सन्निकट है , शीघ्रता कीजिए। वह गर्भद्वार है । वहां सोलह सशस्त्र भट गए हैं । सम्भव है , सोमभद्र से उनका संघर्ष हो जाए । भीतर गर्भगृह में सोम एकाकी गए हैं । ”

कारायण ने नग्न खड्ग लेकर गर्भगृह में प्रवेश किया । परन्तु वहां अधिक जन नहीं जा सकते थे। सेनापति ने सोलह भट छांट लिए ।

लम्बी और पतली गुहा में चलते - चलते उन्होंने चार सशस्त्र तरुणों को सामने देखा । इन्हें देखते ही वे इन पर टूट पड़े, परन्तु सेनापति ने क्षण - भर ही में उन्हें काट डाला । आगे उन्होंने एक लौहद्वार को देखा जो बन्द था । सेनापति उसे देखकर हताश हो गए । वे द्वार तोड़ने या खोलने का उद्योग करने लगे।

कुण्डनी ने नाउन से कहा - “ चलो हला , अब हम अपने उद्योग का दूसरा प्रकरण पूरा करें । बाहर कहीं शम्ब हैं , पहले उसे देखना होगा । निश्चय उसी की प्रतिक्रिया होने से सैनिकों ने तुरही -नाद किया था , इससे वह बन्दीगृह के उस ओर कहीं होगा। ”

इतना कह कुण्डनी नाउन का हाथ पकड़कर बाहर आई। उसने उसी अश्वत्थ वृक्ष के नीचे खड़े होकर संकेत किया , शम्ब झट वृक्ष पर से कूद पड़ा ।

कुण्डनी ने कहा - “ शम्ब , तेरा स्वामी कहां है ? ”

“ वे जल में गए हैं । ”

“ कितना विलम्ब हुआ ? ”

“ बहुत , एक दण्ड काल। ”

“ तो शम्ब , वे विपद में पड़ सकते हैं , तू साहस कर ! ” शम्ब ने हुंकृति की ।

कुण्डनी ने कहा - “ वह बन्दीगृह देख रहा है ? ”

शम्ब ने सिर हिलाया । कुण्डनी ने कहा - “ उसका प्रवेशद्वार जलमग्न है । तू गोता लगा । ठीक उस अलिन्द के मध्य भाग के नीचे एक गुहा-छिद्र मिलेगा। वह उन्नत सोपान है । उसमें घुसकर तू बन्दीगृह में पहुंचेगा । उसी में तेरे स्वामी का मित्र बन्दी है, जिसके उद्धार के लिए सोम वहां एकाकी गए हैं । परन्तु उनके सामने सोलह योद्धा हैं । शम्ब , तू साहस कर। ”

शम्ब ने दण्डसत्थक दृढ़ता से हाथ में थामा और धनुष -बाण कुण्डनी को देकर कहा - “ इसमें से केवल चार बाण कम हुए हैं । बारह बाण अभी तूणीर में हैं । इससे देवी की रक्षा हो सकती है । मेरे लिए यह यथेष्ट है। ”उसने हंसकर दण्ड - सत्थक की ओर संकेत किया ।

कुण्डनी ने धनुष -बाण ले लिया । शम्ब ने रस्सी का छोर कमर से बांधते हुए कहा - “ यह रस्सी थामे रहें देवी । जब यह ढीली हो तो समझना , शम्ब ठीक स्थान पर पहुंच गया । कुण्डनी ने रस्सी थाम ली । शम्ब ने धीरे - से जल में प्रवेश किया और अदृश्य हो गया । थोड़ी ही देर में रस्सी ढीली हो गई।

कुण्डनी ने नाउन से कहा - “ हला, सोम को सहायता पहुंच गई । उधर से भी और इधर से भी । अब हमें इस अश्वत्थ पर चढ़कर बैठना चाहिए और परिणाम की प्रतीक्षा करनी चाहिए । ”

सोम उस कोष्ठक में चारों ओर घूमते , हाथों से टटोलते , खड्ग की मूठ से दीवार और फर्श ठोकते, परन्तु कोई फल न होता था । वहां से कहीं जाने का कोई द्वार नहीं दीख पड़ता था । वे हताश होकर बैठ जाते और फिर उद्योग करते । बहुत देर बाद उन्हें कोठरी में प्रकाश का आभास हुआ । वे ध्यान से देखने लगे कि प्रकाश यहां कहां से आया । उन्हें कुछ ही क्षणों में प्रतीत हो गया कि ऊपर छत में एक छिद्र है, प्रकाश वहीं से आ रहा है । इसी समय चार मनुष्य उस छिद्र में से उस कोष्ठक में कूद पड़े । एक के हाथ में प्रकाश था । सोम उन्हें देखकर फुर्ती से गुहाद्वार में छिप गए। चार मनुष्यों में से एक ने कहा - “ मैं बन्दी को देखता हूं , तुम यहीं यत्न से द्वार की रक्षा करो । ”उसने किसी युक्ति से तल - भूमि की एक शिला को हटा दिया और उसमें घुस गया । सोम ने देखा , वह मल बन्धुल था ।

सोम एकबारगी ही खड्ग लेकर उन मनुष्यों पर टूट पड़े । वे मनुष्य भी साधारण भट न थे। सोम ने क्षण- भर ही में कठिनाई को समझ लिया । सोम चाहते थे कि वे बन्धुल का अनुगमन करके दूसरे कक्ष में प्रविष्ट हों , परन्तु तीनों भटों ने कठिन अवरोध किया । प्रारम्भ ही में सोम एक घाव खा गए । इ

सी क्षण शम्ब ने कोष्ठक में प्रवेश कर दण्ड सत्थक का एक भरपूर हाथ एक भट के सिर पर मारा जिससे उसके कपाल के दो खण्ड हो गए और रक्त की बित्ता भर फुहार उठ खड़ी हुई । ठीक समय पर शम्ब का साहाय्य पाकर सोम ने हर्ष से चिल्लाकर कहा - “ वाह शम्ब , खूब किया ! रोक इन दोनों को , मैं भीतर जाता हूं । ”और सोम दुर्धर्ष वेग से खड्ग फेंकते हुए तलभूमि में प्रविष्ट हो गए।

बन्धुल खड्ग ऊंचा किए विदुडभ का हनन करने जा रहा था । बन्धुल ने कहा - “ दासीपुत्र, बता , महाराज कहां हैं ? या मर ! ”विदूडभ लौह- शृंखला से आबद्ध दीवार में चिपके हुए चुपचाप खड़े थे । उनके होठ परस्पर चिपक गए थे, उनकी आंखों से घृणा और क्रोध प्रकट हो रहा था । सोम ने पहुंचकर बन्धुल को ललकारते हुए कहा - “ बन्धुल , शृंखलाबद्ध बन्दी की हत्या से तेरा वीरत्व कलुषित होगा । आ इधर, मैंने अभी तक मल्लों का खड्ग देखा नहीं है।

“ तब देख । तू कदाचित् वही चोर की भांति अन्तःपुर में घुसनेवाला मागध है ? ” बन्धुल ने घूमकर कहा।

“ वही हूं बन्धुल ! ”

“ तब ले ! ”

बन्धुल ने करारा वार किया । सोम यत्न से बचाव और वार करने लगे। दोनों अप्रतिम सुभट उस छोटे कक्ष में भीषण खड्ग-युद्ध में व्यस्त हो गए ।

युवराज विदूडभ ने चिल्लाकर उदग्र हो कहा - “ अरे वाह मित्र, ठीक आए। परन्तु खेद है कि मैं सहायता नहीं कर सकता । ”फिर भी उन्होंने आगे बढ़कर शृंखलाबद्ध दोनों हाथ ज़ोर से बन्धुल के सिर पर दे मारे। बन्धुल के सिर से रक्त फूट पड़ा , उसने पलटकर राजकुमार पर खड्ग का एक वार किया । इसी क्षण सुयोग पा सोम ने बन्धुल के वाम स्कन्ध पर एक भरपूर हाथ मारा । बन्धुल और राजकुमार दोनों ही गिरकर तड़पने लगे ।

सेनापति कारायण हताश होकर जब गर्भमार्ग में लौहार्गल को खोल नहीं सके तो उन्होंने द्वार भंग करने का उद्योग किया । इसी समय द्वार खुला और कुछ भट सामने दीख पड़े । ये भट बन्धुल के थे, जो नीचे बन्दीगृह में युद्ध होता देख सहायता को लौटे थे। परन्तु सामने शत्रु को देख वे पीछे भाग पड़े । कारायण भी उनके पीछे अपने भट लेकर दौड़े । उनके पास प्रकाश था , दौड़ में बाधा नहीं हुई । बन्धुल के भट छत के छेद से प्रकोष्ठ में कूद पड़े । यही कारायण ने किया । इस समय एक भट शम्ब से जूझ रहा था । इनमें से एक ने शम्ब पर प्रहार किया और वह भीतर तलगृह में घुस गया ।

ठीक इसी समय बन्धुल और युवराज घायल होकर गिरे थे। सोम ने आहट पाकर पीछे शत्रु को देखा, परन्तु उनके पीछे कारायण और उनके भटों को आते देख हर्षनाद किया ।

देखते - ही - देखते सब भट काट डाले गए । बन्धुल को बन्दी कर लिया गया तथा आहत राजकुमार को लेकर वे सब गर्भमार्ग से चलकर दुर्ग से बाहर अट्टालिका में लौट आए।

बाहर कारायण के सैनिकों ने अनायास ही दुर्गरक्षक सेना के सिपाहियों को काट डाला था । वे सावधान नहीं थे, इससे कुछ प्रतिरोध भी न कर सके ।

दुर्गपति ने जो विपत्ति - घण्ट बजाया था उसे सुनकर जो सैनिक निकट के गांव से सहायतार्थ दौड़े थे, उन्हें मारकर कारायण के सैनिकों ने पुल पार कर दुर्गपति को सपरिवार बन्दी कर लिया था । दुर्गपति इस आक्रमण से सर्वथा असावधान थे। वे कारायण के सैनिकों को अपने सैनिक समझे थे।

दिन का प्रकाश इस समय तक पूर्वाकाश में फैल गया था । कुण्डनी और नाउन अश्वत्थ पर चढ़ीं सब गतिविधि देख रही थीं । अट्टालिका में अपने आदमियों को फिर से लौटा हुआ समझ वे भी वृक्ष से उतरकर वहीं आ गईं ।

सोम और विदूडभ दोनों आहत थे। कुण्डनी ने नाउन की सहायता से उनके घाव बांधे। इसके बाद उन्होंने शम्ब को चारों ओर देखा । शम्ब वहां नहीं था । सब लोग शम्ब को भूल ही गए थे । सोम को याद आया कि शम्ब को हमने गर्भगृह में युद्ध करते छोड़ा था ।

कुछ सैनिक फिर गर्भगृह में गए , परन्तु शम्ब वहां नहीं था ।

सबके चले जाने पर गर्भगृह में अन्धकार हो गया । शम्ब समझ ही नहीं सका कि सब कहां लुप्त हो गए । अपने प्रतिद्वन्द्वी को भूपतित करके शम्ब ने मार्ग की बहुत खोज टटोल की । अन्त को वह उसी जलगर्भ -स्थित मार्ग से लौटा । जब सब कोई शम्ब के लिए चिन्तित थे, कुण्डनी ने उसे जल में तैरते हुए देखा । जल से निकलकर वह स्वामी के निकट आया । वह बहुत प्रसन्न था ।

बन्दियों को सेनापति कारायण को सौंप , सोम ने शरीररक्षक सैन्य - सहित आहत राजकुमार को लेकर तुरन्त राजधानी की ओर कूच किया । शम्ब , कुण्डनी और नाउन भी उन्हीं के साथ चल दिए ।

86. अभिषेक : वैशाली की नगरवधू

यज्ञ - मण्डप में बड़ी भीड़ थी । अध्वर्य और सोलहों ऋत्विक अभिषेक - द्रव्य लिए उपस्थित थे। अनुगत राजा , क्षत्रप , माण्डलिक , गणपति , निगम , सेट्ठि , गृहपति , सामन्त और जानपद सभी एकत्र थे । राजा की प्रतीक्षा हो रही थी । राजा अन्तःपुर से नहीं आ रहे थे। राजा के इस विलम्ब के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की अटकलें लगाई जा रही थीं । बहुत लोग बहुविध कानाफूसी कर रहे थे।

आचार्य अजित केसकम्बली ने उच्च स्वर से कहा - “ अभिषेक का महायोग उपस्थित है, यजमान यज्ञभूमि में आकर वेदी पर बैठे ! ”

इसी समय यज्ञभूमि के प्रान्त में कोलाहल होने लगा। क्षण -भर बाद ही सोमप्रभ रक्त से भरा खड्ग हाथ में लिए हुए, रक्तलिप्त घायल राजपुत्र विदूडभ को सम्मुख किए , हठात् यज्ञभूमि में घुस आए। नग्न खड्ग हाथ में लिए कारायण और उनके भट उनके पीछे थे। यह दृश्य देखकर चारों ओर कोलाहल मच गया । अनेक क्षत्रपों , राजाओं और मांडलिकों ने खड्ग खींच लिए। सेना में भी हलचल मच गई और चारों ओर कोलाहल होने लगा ।

सोमप्रभ ने आगे बढ़कर वेदी पर विदडभ को प्रतिष्ठित करके खड्ग और हाथ ऊपर उठाकर उच्च स्वर से कहा - “ भंत्तेगण, राज - सभासद्, ब्राह्मण और पौर जानपद सुनें ! यह महाराज विदूडभ कोसलपति यहां उपस्थित हैं । अभिषेक महायोग है, अभिषेक प्रारम्भ हो । मैं मागध सोमप्रभ घोषित करता हूं कि कोसल के अबाध अधिपति परमेश्वर महाराज विदूडभ हैं । जो कोई विरोध का साहस करेगा , उसका सत्कार यह खड्ग करेगा। ”

उन्होंने वही रक्त से भरा हुआ खड्ग हवा में ऊंचा किया । बहुत से कण्ठों ने एक साथ ही जय - जयकार किया - “ महाराज कोसलपति की जय ! देव कोसलपति विदूडभ की जय ! ”

बहतों ने विरोध में शस्त्र निकाले । कारायण, उनके भट और सोम व्याघ्र की भांति उन पर टूट पड़े । देखते - ही - देखते यूप के चारों ओर मुर्दो के ढेर लग गए । यज्ञ - पश् अव्यवस्थित हो इधर - उधर भागने लगे । अनेक राजाओं, क्षत्रपों और मण्डलाधिपों ने इन वीरों का साथ दिया । वे गाजर - मूली की तरह विरोधियों को काटने लगे। पौर जानपद , निगम , श्रेणीपति सब बार -बार महाराज विदूडभ का जय - जयकार करने लगे । विरोधी दल का कोई नेता न रह गया ।

अध्वर्यु अजित केसकम्बली ने हाथ उठाकर कहा - “ सब कोई सुनें , कौन है जो नये महाराज का विरोधी है ? वह आगे आए। ”कोई प्रमुख पुरुष आगे नहीं बढ़ा। आचार्य ने पुकारकर फिर कहा - “ जिसे नये राजा से विरोध हो , वह अग्रसर हो । ”इस पर भी सन्नाटा रहा। तब तीसरी बार घोषणा हुई ।

अब आचार्य अजित केसकम्बली ने कहा - “ सब कोई सुनें ! पुराना राजा यहां पर मण्डप में उपस्थित नहीं है और न कोई उसका प्रतिनिधि समर्थक ही है। राज्य एक क्षण भी राजा के बिना नहीं रह सकता । नया राजा उसका औरस पुत्र है । उसका कोई विरोध नहीं करता । अतः मैं घोषणा करता हूं कि वही अब इस यज्ञ का यजमान है । तो महाराज विदूडभ, मैं तुम्हें यज्ञपूत करता हूं । कहो तुम – मैं इस राजसूय महानुष्ठान के लिए आपको वरण करता है। ”

“ मैं वरण करता हूं। ”विद्डभ ने तीन बार कहकर आचार्य का वरण किया ।

आचार्य ने घोषणा की - “ हे विश्वदेवा , सुनो ! हे ब्राह्मणो, सुनो ! हे मनुष्यो , सुनो । हम वरण किए गए सोलहों ऋत्विक विधिवत् अब इस राजसूय के महत् अनुष्ठान में देव कोसलपति विदूडभ का अभिषेक करते हैं । ”

आचार्य के संकेत से बहुत शंख एक साथ बज उठे ।

अभिषेक - अनुष्ठान प्रारम्भ हो गया । राजा लोग अपने हाथों में अभिषेक सामग्री से भरे पात्रों को विधिपूर्वक सजाकर पद-मर्यादा के क्रम से खड़े हो गए । रेणु विदेहराज ने श्वेत रंग का काम्बोज अश्व भेंट किया। अस्सक के राजा ब्रह्मदत्त ने स्वर्णमण्डित रथ ला उपस्थित किया । कलिंगराज सत्तभू ने रथ पर ध्वजारोपण किया । मगध सम्राट का भेजा हुआ रत्नमाल और मणिग्रथित उष्णीष मागध अमात्य ने राजा को धारण कराया। शाक्यों के गण प्रतिनिधि ने रथ में स्वर्णमण्डित जुआ जोड़ा । किसी ने मणिजटित जूते , किसी ने तरसक , किसी ने खड्ग राजा को धारण कराया । किसी ने गन्धमाल्य दिया ।

अब अजित केसकम्बली, कणाद , औलूक , वैशम्पायन पैल , स्कन्द कात्यायन , जैमिनी और शौनक ने राज्याभिषेक - विधि का प्रारम्भ किया । वेद -पाठ होने लगा । कुरुसंघ राज्य के श्रुत सोम और धनञ्जय श्वेत छत्र लेकर राजा के पीछे खड़े हुए ।

सौवीर भरत , विदेहराज रेणु , काशिराज , धत्तरथ , सेतव्य हिरण्यनाभ राजा पर चंवर डुलाने लगे । अठारह दक्षिणावर्त शंख फूंके गए। फिर उन्हीं शंखों में भर - भरकर सत्रह तीर्थों का जल और एक सूर्यकिरणों का जल , कुल अठारह प्रकार के जल , जो यूप की उत्तर दिशा में उदुम्बर - पात्रों में पृथक्- पृथक् रखे हुए थे, उनसे राजा का अभिषेक किया जाने लगा ।

पहले सरस्वती नदी के जल से , फिर बहाववाली नदी के जल से , फिर प्रतिलोम जल से, मार्गान्तर के जल से , समुद्र -जल से , भंवर के जल से , स्थिर जल से , धूप की वर्षा के जल से , तालाब के जल से , कुएं के जल से, ओस के जल से , फिर तीर्थों के विविध जलों से , भिन्न -भिन्न मन्त्र पढ़कर राजा का अभिषेक किया गया ।

अब सोम - पान होकर गवलम्भन हुआ। फिर बारह ‘पार्थहोम किए गए और नये महाराज को घृतप्लुत वस्त्र पहनाया गया । उस पर यज्ञ -पात्रों के चित्र सुई से कढ़े हुए थे । उस पर बिना रंगी ऊन का पाण्डव कम्बल और उसके ऊपर लम्बा चोगा पहनाया गया । ऋषियों ने पुकारा – “ यह क्षत्र की नाभि है ? ”

अध्वर्यु ने धनुष चढ़ाकर कहा - “ यह इन्द्र का वृत्रहन्ता भुज है। ”और उसके दोनों छोर मन्त्रपूत करके महाराज को दिया । फिर उसने मन्त्रपूत तीन बाण राजा को दिए और यज्ञ में बैठे हुए पंडक के मुंह में तांबा किया । अब दिग्विजय का होम - पाठ हुआ । यजमान की बांह पकड़कर उसे अध्वर्युने चारों ओर घुमाया । प्रति दिशा में कुछ पैंड चलाकर कहा

“ प्राची को चढ़, गायत्री छन्द , रथन्तर साम , त्रिवृत् स्तोम, वसन्त ऋतु और ब्रह्मधन तेरी रक्षा करें !

“ दक्षिण को चढ़ , त्रिष्टुभ छन्द, बृहत् साम, पंचदश स्तोम , ग्रीष्म ऋतु और क्षत्रधन तेरी रक्षा करें !

“ पश्चिम को चढ़ , जगती छन्द , वैरूप साम, सप्तदश स्तोम ,वर्षाऋतु और विशधन तेरी रक्षा करें !

“ उत्तर को चढ़, अनुष्टुप् छन्द , वैराज साम , एकविंश स्तोम, शरद् ऋतु और फलरूपी धन तेरी रक्षा करें ! ”

“ ऊपर को चढ़, पंक्ति छन्द, शाक्वर रैवत साम, सत्ताईस और तैंतीस स्तोम, हेमन्त शिशिर ऋतु और वर्चस् धन तेरी रक्षा करें ! ”

फिर राजा ने व्याघ्रचर्म के नीचे रखे सीसे को ठोकर मारी, अध्वर्यु ने मन्त्र पढ़ा, फिर राजा व्याघ्रचर्म पर बैठा। सोने का एक चन्द्र राजा के पैरों पर रखा गया । अध्वर्यु ने कहा - “ मृत्यु से बचा ! ”

सौ छिद्रवाला स्वर्ण का मुकुट सिर पर धारण कराया गया । अध्वर्यु ने कहा - “ तू ओज है, अमृत है, विजय है ! ”

राजा ने दोनों भुजा ऊंची करके घोष किया

“ हे मित्र वरुण , अपने रथ पर चढ़ो और दिति - अदिति सीमाबद्ध और असीम को देखो। ”

अब अध्वर्यु और पुरोहित ने पलाश के पात्र में रखे जलों से फिर राजा का अभिषेक किया । ब्रह्मा ने मन्त्र -पाठ किया। अध्वर्यु ने फिर उच्च स्वर से घोषित किया - “ हे देवो , इसे उत्तेजित करो। कोई इसका सपत्न न हो । बड़े क्षत्र के लिए, बडे बड़प्पन के लिए , बड़े मनुष्यों पर राज्य के लिए, इन्द्र के इन्द्रिय के लिए, कोसल जनपद के लिए यह राजा महाराजा विदूडभ तुम कोसलों का राजा है। हम ब्राह्मणों का राजा सोम है। ”

तब अठारह दक्षिणावर्त शंख एक साथ फिर फूंके गए ।

अब रथविमोचनीय होम हआ और भिन्न-भिन्न मन्त्र पढ़कर रथ के अंग - प्रत्यंग होम किए गए ।

राजा को व्याघ्रचर्म के ऊपर खदिर की चौकी पर रखे हुए सिंहासन पर बैठाया गया और राजा ध्रुतव्रत घोषित किया गया ।

फिर द्यूत हुआ । बहेड़े के पांसे लाए गए। रत्न राजा को घेरकर बैठे । अध्वर्यु ने राजा को यज्ञकाष्ठ से पीटा ।

राजा ने कहा - ब्रह्मन् !

अध्वर्यु- तू ब्रह्मा है, तू सत्यप्रणेता सविता है ।

राजा ब्रह्मन् !

अध्वर्यु- तू ब्रह्मा है, तू प्रजाओं का बलवान् इन्द्र है ।

राजा - ब्रह्मन् !

अध्वर्यु-तू ब्रह्मा है, तू कृपालु रुद्र है ।

राजा ब्रह्मन् !

अध्वर्यु -तू ब्रह्मा है।

इस प्रकार अभिषेक समाप्त हुआ। इसके दसवें दिन दाशपेय याग हुआ । सोम से भरे हुए दस प्याले एक यजमान और नौ ऋत्विकों के लिए रखे गए । दासों को कमर झुकाकर प्यालों की ओर रेंगना पड़ा और अपने दादा से लेकर पहले के और पीछे के दस पुरखों के नाम लेने पड़े, जो सोमयाजी रहे हों । उस समय मन्त्र पाठ हुआ

“ सविता प्रेरणा करने वाले से , सरस्वती वाणी से , त्वष्टा बनाए रूपों से , पूषा पशुओं से , यजमान इन्द्र से , बृहस्पति ब्रह्मा से , वरुण ओज से , अग्नि तेज से , सोम राजा से , विष्णु दसवें देवता से, प्रेरित होकर मैं रेंगता हूं। ”

प्रत्येक प्याले में दस - दस जनों ने पिया । एक ऋत्विक और नौ और । यों सौ जनों ने सोमपान किया । राजा ने सबको सोने के कमलों की मालाएं पहनाईं ।

अब यज्ञ की समाप्ति पर सहस्र शंखध्वनि हुई । विदुडभ राजा ने सींगों में सोना मढ़कर सौ गाएं तथा ग्यारह युवती सुन्दरी स्वर्णालंकारों से अलंकृता दासियां प्रत्येक श्रोत्रिय ब्राह्मण को दीं । ब्रह्मा, उद्गाता तथा अन्य ऋत्विजों को उनकी मर्यादा के अनुसार बहुत - सा स्वर्ण, रत्न , वस्त्र , दासी और बछड़े दिए गए ।

दान - मान - सत्कार , दक्षिणा, आतिथ्य , भोजन आदि से सन्तुष्ट हो ब्राह्मण महाराज विदूडभ की जय - जयकार करते हुए विदा हुए । समागत राजाओं, जानपद प्रधानों और सेट्रियों , जेटकों आदि को भी विविध भेंट - दान - मान से नये राजा ने विदा किया । जो मित्र , बन्धु और राजा नहीं आए थे, उन्हें गाड़ियों और छकड़ों में सामग्री भरकर भेज दी गई । जो विरोधी यज्ञ-विद्रोह में मारे गए, उनके उत्तराधिकारी पुत्र - परिजनों को दान , मान, पदवी और पुरस्कार से सत्कृत कर सन्तुष्ट किया गया ।

इस प्रकार यज्ञ में आए सब ब्राह्मण, यति, ब्रह्मचारी, राजा , राजवर्गी, पौर जानपद, सब भांति सन्तुष्ट -प्रसन्न हो महाराज विदूडभ का दिग्दिगन्त में यशोगान करते हुए अपने - अपने घर गए। भाग्यहीन विगलित - यौवन गतश्री प्रसेनजित् को किसी ने स्मरण भी नहीं किया ।

87. आत्मदान : वैशाली की नगरवधू

राजमहालय के एक सुसज्जित कक्ष में सोमप्रभ शय्या पर पड़े थे। उनके घाव अब भर गए थे, परन्तु दुर्बलता अभी थी । कुण्डनी उनकी शय्या के निकट चुपचाप बैठी थी । शम्ब कक्ष के एक कोने में बैठा स्वामी को चुपचाप देख रहा था । सोम किसी गम्भीर चिन्तना से व्याकुल थे। उनकी चिन्तना का गहन विषय था कि राजनन्दिनी चन्द्रप्रभा को ले जाकर कहां रखा जाय ? वे उससे विवाह करने के भी अधिकारी हैं या नहीं ? क्या उन जैसे अज्ञात - कुलशील व्यक्ति का इतने बड़े राज्य के अधिपति की पुत्री से विवाह करना समुचित होगा ? विशेषकर उस दशा में , जबकि वही राजकुमारी के पिता के हन्ता , उनके राज्य के हर्ता और राजनन्दिनी की विपत्ति के आधार थे! उन्हें क्या राजकुमारी की अवश अवस्था और परिस्थिति से ऐसा अनुचित लाभ उठाना चाहिए ? यदि यह परिस्थिति न उत्पन्न हो जाती तो क्या चम्पा - राजनन्दिनी उन्हें प्राप्त हो सकती थी ? क्या स्वार्थवश उन्हें राजनन्दिनी का अहित करना उचित है ? यही सब विचार थे , जो उन्हें उद्विग्न और विचलित कर रहे थे ।

इसी समय महाश्रमण भगवान् महावीर वहां आ उपस्थित हुए । कुण्डनी ने आसन पर बैठकर उनका अभिवादन किया ।

श्रमण महावीर ने कहा - “ भद्र सोमप्रभ , मैं तेरे ही लिए आया हूं । अपने सुख को देख , पुण्य को देख , मलरहित हो । पुत्र यह शरीर बहु मलों का घर है। इसमें काम है, क्रोध है, लोभ है, मोह है, एषणाएं हैं । सो पुत्र, यह समुद्र के समान है। समुद्र में आठ अद्भुत गुण हैं , इसी से असुर महासमुद्र में अभिरमण करते हैं । वह क्रमशः निम्न , क्रमशः प्रवण, क्रमशः प्रारम्भार होता है । वह स्थिर - धर्म है, किनारे को नहीं छोड़ता । वह मृत शरीर को निवास नहीं करने देता , बाहर फेंक देता है । सब महानदी , गंगा , यमुना , अचिरवती , शरभू , मही, जब महासमुद्र को प्राप्त होती हैं तो अपना नाम- गोत्र त्याग देती हैं । और भी पानी , धारा , अन्तरिक्ष का वर्षा जल समुद्र में जाता है, परन्तु महासमुद्र में ऊनता या पूर्णता कभी नहीं होती । वह महासमुद्र एक रस है । वह रत्नाकर है - शंख, मोती , मूंगा , वैदूर्य , शिला, रक्तवर्ण मणि , मसाणगल्ल समुद्र में रहती हैं । वह महासमुद्र महान् प्राणियों का निवास है - तिमि , तिमिंगिल , तिमिर, पिंगल , असुर , नाग, गन्धर्व उसमें वास करते हैं । उनमें सौ योजनवाले शरीरधारी भी हैं , तीन सौ योजन वाले भी हैं , चार सौ योजनवाले भी हैं ।.....

“ सो पुत्र , धर्ममय जीवन भी समुद्र की भांति क्रमशः गहरा , क्रमशः प्रवण , क्रमशः प्रारम्भार है, एकदम किनारे से खड़ा नहीं होता । सो धर्मजीवन में क्रमशः क्रिया , मार्ग, आज्ञा और प्रतिवेध होता है । उसी का क्रमशः अभ्यास करने से मनुष्य अनागामी भी होता है । यह जीवन का ध्रुव ध्येय है। सो सोमभद्र, तू महासमुद्र के अनुरूप बन , पुण्य कर और मलरहित हो निर्वाण को प्राप्त कर । ”

सोम ने कहा - “ तो भगवन, आप जैसा मेरे लिए हितकर समझें। ”

“ यही तो भद्र ! तूने विदूडभ को राजा बनाया , यह तेरा सत्कर्म हुआ । पर शील का भार अब भी तुझ पर है, उसे भी उतार । वह तेरे लिए सह्य न होगा , कल्याणकर न होगा । ”

“ भगवान् श्रमण जैसा ठीक समझें। ”

“ उसे तू कोसल की पट्टराजमहिषी बनने दे भद्र ! बस , इसी में सब हो गया । ”

सोम का मुंह रक्तहीन श्वेत हो गया । मृत पुरुष की भांति शय्या पर वह पड़ रहे , परन्तु उन्होंने स्थिर वाणी से कहा

“ भगवन् , ऐसा ही हो । आप सत्य कहते हैं , मैं वह भार वहन नहीं कर सकता। ”

“ तेरा कल्याण हो आयुष्मान् ! मैं कुमारी से कहूंगा , राजकुमार से भी । ”

“ आप्यायित हुआ भगवन् , चिरबाधित हुआ भगवन् ! ”सोम ने यन्त्रवत् कहा। वह काष्ठवत् शय्या में पड़े रह गए। कुण्डनी ने सुना । उसका मुंह सूख गया । भगवन् महावीर कक्ष से धीरे- धीरे चले गए ।

88 . सहभोग्यमिदं राज्यम् : वैशाली की नगरवधू

मध्याह्नोत्तर चतुरंगला छायाकाल में राजसभा का आयोजन हआ। कोसलपति महाराज विदूडभ छत्र - चंवर धारण किए सभाभवन में पधारे। उनके आगे- आगे सोमप्रभ नग्न खड्ग लिए और पीछे सेनापति कारायण खड्ग लिए चल रहे थे । सिंहासन पर बैठते ही महालय से शंखध्वनि हुई । वेदपाठी ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन पाठ और कुल - कुमारियों ने अक्षत - लाजा -विसर्जन किया । इसके बाद महाराज विदूडभ ने सिंहासन से खड़े होकर आचार्य अजित केसकम्बली को महामात्य का खड्ग देकर कहा - “ आचार्य, मैं आपको कोसल के महामात्य पद पर नियुक्त करता हूं। यह खड्ग ग्रहण कीजिए। ”

आचार्य ने खड्ग ग्रहण करके उच्चासन के निकट आकर उच्च स्वर से कहा - “ सहभोग्यमिदं राज्यम् , साथ - साथ भोगने योग्य राज्य को कोई अकेला नहीं भोग सकता , इसलिए मैं घोषणा करता हूं कि जो अमात्य और राज - कर्मचारी निष्ठापूर्वक अपने अधिकारों पर रहना चाहते हैं , वे शान्तिपूर्वक रहें । महाराज विदूडभ अपने राज्यकाल में उन्हें द्विगुणित भुक्त - वेतन देंगे। जिस अमात्य और राजकर्मचारी ने राजविद्रोह किया हो , उसका वह कार्य पूर्व महाराज प्रसेनजित् के प्रति आदर - भावना का द्योतक समझकर महाराज विदूडभ उसे क्षमा करते हैं । अब वह यदि राजनिष्ठा से राजसेवा करे तो उसकी नियुक्ति यथापूर्वक रहेगी । ऐसे लोग सेवा न करें तो पुत्र , परिजन , धन - सहित स्वेच्छा से जहां चाहें चले जाएं , कोई प्रतिबन्ध नहीं है । परन्तु जो कोई राज्य में विद्रोह करेगा या किसी प्रकार मन - वचन - कर्म से शान्ति - भंग करेगा , उसे कठोरतम दण्ड दिया जाएगा। ”

इस घोषणा के होने पर सभा में हर्ष - ध्वनि और महाराज विदूडभ का जय - जयकार हुआ । महामात्य ने फिर कहा - “ महाराज की आज्ञा से मैं सबसे प्रथम महाराज और कोसल राज्य की ओर से मागध राजमित्र और कोसल के मान्यराज - अतिथि श्री सोमप्रभदेव का अभिनन्दन करता हूं, जिनके शौर्य , विक्रम और मैत्री के फलस्वरूप हमें आज का शुभ दिन देखना नसीब हुआ । महाराज विदूडभ घोषित करते हैं कि आज से कोसल सदैव मगध का मित्र है। मगध का शत्रु कोसल का शत्रु और मगध का मित्र कोसल का मित्र है। कोसल के परममित्र मागध श्री सोमप्रभदेव के अनुरोध पर कोसलपति महाराज विदूडभ यह घोषणा करते हैं कि वत्सराज उदयन की मैत्री चाहे जिस भी मूल्य पर कोसल प्राप्त करेगा और मैत्री का सन्देश लेकर शीघ्र ही कोई राजपुरुष वत्सराज महाराजा उदयन की सेवा में जाएगा । अपनी मैत्री, सद्भावना और कृतज्ञता के प्रकाशन -स्वरूप महाराज विदूडभ मगध- सम्राट को काशी का राज्य भेंट करते हैं । ”

इस पर सब ओर हर्षध्वनि हुई । महामात्य ने कहा - “ अब सन्धिविग्रहिक के पद पर महासामन्त पायासी और अर्थमन्त्री के पद पर महाशाल लौहित्य की नियुक्ति की जाती है तथा राज्य -व्यवस्था के संचालनार्थ आठ अमात्यों का एक अमात्यमण्डल नियुक्त किया जाता है । उनके सामर्थ्य की परीक्षा उनके किए हुए कार्यों की सफलता से की जाएगी । महाबलाधिकृत सेनापति कारायण को और राजपुरोजित वसुभट्ट को नियत किया जाता है , जो शास्त्र - प्रतिपादित गुणों से युक्त , उन्नत कुल में उत्पन्न , षडंग वेदों के ज्ञाता, दंडनीति , ज्योतिष तथा अथर्ववेदोक्त मानुषी और दैवी विपत्तियों के प्रतिकार में निपुण हैं । ”

इसके बाद महाराज विदूडभ को भेंटें दी जाने लगीं । सबसे प्रथम मगध की ओर से सोमप्रभ ने एक रत्नजटित खड्ग भेंट किया । इसके बाद देश - देश के राजा , राजप्रतिनिधि और फिर श्रीमन्त , सेट्ठि तथा पौरगण और राजकर्मचारियों ने भेंटें अर्पण कीं । फिर मंगलवाद्य के साथ यह समारोह सम्पूर्ण हुआ ।

89. मार्मिक भेंट : वैशाली की नगरवधू

रात बीत गई थी । बड़ा सुन्दर प्रभात था । रात - भर सो चुकने के बाद अब सोम का मन बहुत हल्का था , पर गहन चिन्तना से उनका ललाट सिकुड़ रहा था । भविष्य के सम्बन्ध में नहीं, बीते हुए गिनती के दिनों के सम्बन्ध में । भाग्य ने उन्हें कैसे खेल खिलाए थे । खिड़की से छनकर प्रभात का क्षीण प्रकाश उनकी शय्या पर आलोक की रेखाएं खींच रहा था और वह सुदूर नीलाकाश में टकटकी बांधे मन्द स्मित कर रहे थे। शम्ब उनके पैरों के पास चुपचाप बैठा था । बहुत - सा रक्त निकल जाने से उनका घनश्याम वर्ण मुख विवर्ण हो रहा था , फिर भी वह अपने स्वामी के चिन्तन से सिकुड़े हुए ललाट को देख - देख मन- ही मन उद्विग्न हो रहा था । इसी समय जीवक कौमारभृत्य ने आकर कहा - “ महाराजाधिराज अभी आपको देखा चाहते हैं , भन्ते सेनापति ! ”

सोम तुरन्त तैयार हो गए। मुंह से उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा ।

विदूडभ एक छोटी शय्या पर लेटे हुए थे। सोम ने शय्या के निकट पहुंचकर कहा- “ अब देव कोसलपति का मैं और क्या प्रिय कर सकता हूं ? ”

विदूडभ अब भी बहुत दुर्बल थे। उन्होंने स्निग्ध दृष्टि से सोम की ओर देखा और दोनों हाथ उनकी ओर पसारकर धीमे स्वर से कहा - “ मित्र सोम , अधिक कहने के योग्य नहीं हूं। परन्तु मित्र, कोसल का यह राज्य तुम्हारा ही है। ”

“ सुनकर सुखी हुआ महाराज ! मेरी अकिंचन सेवाएं कोसल और कोसलपति के लिए सदा प्रस्तुत रहेंगी । ”

विदूडभ ने अर्द्धनिमीलित नेत्रों से सुदूर नीलाकाश को देखते हुए कहा - “ मैंने बहुत चाहा था मित्र, कि तुम्हें अपने प्राणों के समान अपने ही निकट रखू, परन्तु महाश्रमण महावीर और माता कलिंगसेना ने यह ठीक नहीं समझा । मित्र , राजनीति ही तुमसे मेरा विछोह कराती है ।

“ और भी बहुत - कुछ महाराज ! परन्तु राजनीति मानव - जनपद की चरम व्यवस्था है । उसके लिए हमें त्याग करना ही होगा। ”

“ सो , मैं प्राणाधिक मित्र को त्याग रहा हूं वयस्य ! ”विदूडभ की आंखों में आंसू भर आए और उन्होंने तनिक उठकर सोम को अंक में भर लिया।

सोम के होठ भी कुछ कहने को फड़के, परन्तु मंह से शब्द नहीं निकले । उन्होंने कांपते हाथ से विदूडभ का हाथ पकड़कर कहा - “ कामना करता हूं, महाराज सुखी हों , समृद्ध हों । मैं अब चला महाराज ! ”

“ कोसल को सब -कुछ देकर मित्र ! ”विदूडभ हठात् शय्या से उठ खड़े हुए । परन्तु जीवक ने उन्हें पकड़कर शय्या पर लिटाकर कहा - “ शान्त हों देव , भन्ते सेनापति फिर आएंगे। ”

सोम ने क्षण - भर रुककर विदूडभ की ओर देखे बिना ही वहां से प्रस्थान किया ।

90. चिरविदा : वैशाली की नगरवधू

उन्होंने चीनांशुक धारण किया था , जिसके किनारों पर लाल लहरिया टंका था । कण्ठ में उज्ज्वल मोतियों की माला थी जिसकी आभा ने उनकी कम्बुग्रीवा और वक्ष को आलोकित कर रखा था । कपोलों पर लोध्ररेणु से संस्कार किया था और सालक्तक पैरों में कुसुम - स्तवक - ग्रंथित उपानह थे। अंशुकान्त से बाहर निकले हुए उनके अनावृत मृदुल युगल बाहु मृणाल-नाल की शोभा धारण कर रहे थे। प्रवाल के समान अरुणाभ उत्फुल अधरोष्ठों के बीच हीरक - सी आभावाली उज्ज्वल धवल दन्तपंक्ति देखते ही बनती थी । गण्डस्थल की रक्ताभ कान्ति मद्यआपूरित स्फटिकचषक की शोभा को लज्जित कर रही थी । उज्ज्वल उन्नत ललाट पर उन्होंने मनःशिला की जो लाल श्री अंकित की थी , वह स्वर्णदीप में जलती दीपशिखा - सी दिख रही थी । अंसस्थलों में लगा लोध्ररेण उनके माणिक्य - कुण्डलों पर एक धूमिल आवरण - सा डाल रहा था । उनके लोचनों से एक अद्भुत मदधारा प्रवाहित हो रही थी । उनकी सघन -कृष्ण केशराशि पर गूंथे हुए बड़े- बड़े मौक्तिकों की शोभा सुनील आकाश में जगमगाते तारों की छवि धारण कर रही थी ।

प्रासाद के उद्यान में अशोक के बड़े- बड़े वृक्षों की कतार चली गई थी । उनके नवीन लम्बे अनीदार गहरे हरे रंग के पत्तों के बीच खिले लाल - लाल फूल बड़े सुहावने लग रहे थे। उसी वृक्षावली के बीच लताकुञ्ज था । कुञ्ज के चारों ओर माधवी लता फैली हुई थी । उसी लताकुञ्ज में वह तन्मय हो एक चित्र बना रही थीं । उनका कंचुक - बन्धन शिथिल हो गया था । भावावेश से उनका श्वास आवेगित था । नेत्रों की पलकें चित्र -फलक पर स्थिर और मग्न थीं । कोमल , चम्पकवर्णी, पतली उंगलियां कुर्चिका से लाजावर्त और मन शिला की रेखाएं चित्र पर खींच रही थीं । वायु शान्त थी , वातावरण में सौरभ बिखर रहा था । लतागुल्म स्तब्ध थे। वह यत्न से चित्र पर अन्तिम स्पर्श दे रही थीं । सारा चित्र एक वस्त्र - खण्ड से ढंका था । सोम के आने की आहट उन्हें नहीं मिली । वह दबे-पांव उनके पीछे जाकर खड़े हो गए ।

चित्र को पूरा करके उन्होंने उस पर का आवरण उठाया । एक बूंद अश्रु चित्र पर गिर पड़ा । उस दिन वसन्त का वह प्रभात लाल -लाल लावण्य -स्रोत से प्लावित हो अनुराग सागर की तरह तरंगों में डूबता - उतराता दीख रहा था ।

चित्र सोमप्रभ का था ।

सोम ने आगे बढ़कर कांपते स्वर में कहा - “ शील ! ”

वह चौंक उठीं । उन्होंने बड़ी - बड़ी पलकें उठाकर सोम को देखा । लज्जा से उनका मुख झेंप गया । दोनों हाथ निढाल - से होकर नीचे को लटक गए । सोम ने घुटनों के बल

बैठकर राजनन्दिनी के दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर अवरुद्ध कण्ठ से फिर कहा - “ शील

राजकुमारी ने बड़ी- बड़ी भारी पलकें उठाकर सोम को देखा और असंयत भाव से कहा - “ सोम , प्रियदर्शन , तुम आहत हो , बैठ जाओ, बैठ जाओ ! ”

“ तो तुमने मुझे क्षमा कर दिया शील ? यह मैं जानता था । मैं जानता था , तुम मुझे अवश्य क्षमा कर दोगी । परन्तु शील प्रिये , अपने को मैं कभी नहीं क्षमा करूंगा, कभी नहीं। ”

“ वह सब तुम्हें करना पड़ा, सोमभद्र ! ”

“ किन्तु प्रिये , मैंने जिस दिन प्रथम तुम्हें देखा था , अपना हृदय तुम्हें दे दिया था । मैंने प्राणों से भी अधिक तुम्हें प्यार किया। तुम मेरे क्षुद्राशय को नहीं जानतीं । मेरा निश्चय था कि विद्डभ राजकुमार को बन्दीगृह में मरने दिया जाए , कोसल - राजवंश का अन्त हो और अज्ञात -कुलशील सोम कोसलपति बनकर तुम्हें कोसल - पट्टराजमहिषी पद पर अभिषिक्त करे। सब कुछ अनुकूल था , एक भी बाधा नहीं थी । ”

“ मैं जानती हूं, प्रियदर्शन ! पर तुमने वही किया , जो तुम्हें करना योग्य था । किन्तु अब ? ”

“ अब मुझे जाना होगा प्रिये ! ”

“ तो मैं भी तुम्हारे साथ हं , प्रिय ! ”

“ नहीं शील, ऐसा नहीं हो सकता । मुझे जाना होगा और तुम्हें रहना होगा । मैं कोसल का अधिपति न बन सका , किन्तु तुम कोसल की पट्टराजमहिषी रहोगी, यह ध्रुव है । ”

“ मैं , सोम प्रियदर्शन , तुम्हारी चिरकिंकरी पत्नी होने में गर्व अनुभव करूंगी। ”

“ ओह, नहीं, एक अज्ञात - कुलशील नगण्य वंचक की पत्नी महामहिमामयी चम्पा राजनन्दिनी नहीं हो सकतीं। ”

“ किन्तु सोमभद्र, मैं तुम्हारी चिरदासी शील हूं। मैं तुम्हें आप्यायित करूंगी अपनी सेवा से , सान्निध्य से , निष्ठा से और तुम अपना प्रेम - प्रसाद देकर मुझे आपूर्यमाण करना। ”

“ मेरे प्रत्येक रोम- कूप का सम्पूर्ण प्रेम , मेरे शरीर का प्रत्येक रक्तबिंदु, मेरे जीवन का प्रत्येक श्वास आसमाप्ति तुम्हारा ही है शील । पर यह नहीं हो सकता , तुम्हें कोसल की पट्टराजमहिषी बनना होगा ! ”

“ किन्तु मैं तुम्हें प्यार करती हूं सोम , केवल तुम्हें । ”

“ और मैं भी तुम्हें , प्राणाधिक शील ! किन्तु पृथ्वी पर प्यार ही सब -कुछ नहीं है। सोचो तो , यदि प्यार ही की बात होती तो मैं विदुडभ का क्यों उद्धार करता ? क्यों अपने हाथों उसके सिर पर कोसल का राजमुकुट रखकर कोसलेश्वर कहकर अभिवादन करता ? प्रिये, चारुशीले , निष्ठा और कर्तव्य मानव -जीवन का चरम उत्कर्ष है। मैंने उसी को निबाहा । अब तुम मुझे सहारा दो । ”

सोम ने कुमारी के चरण - तल में बैठकर उसके दोनों हाथ अपने नेत्रों से लगा लिए । कुमारी कटे वृक्ष की भांति उनके ऊपर गिर गईं। उनकी आंखों से अश्रुधारा बह चली । बहुत देर तक दोनों निर्वाक् -निश्चल रहे । फिर कुमारी ने उठकर , धीरे - से , जैसे मरता हुआ मनुष्य बोलता है, कहा - “ मैं जानती थी , तुम यही करोगे। सोम , प्रियदर्शन , किन्तु मेरे प्रत्येक रोम में तुम्हारा वास है और आजीवन रहेगा - जीवन के बाद भी , अति चिरन्तन काल तक । ”

“ तुम्हारा कल्याण हो , तुम सुखी हो । कोसल पट्टराजमहिषी शीलचन्दना चन्द्रभद्रे, सुभगे ! ”सोम ने झुककर खड्ग उष्णीष से लगाकर राजसी मर्यादा से कुमारी का अभिवादन किया और कक्ष से बाहर पैर बढ़ाया । कुमारी ने एक पग आगे बढ़ाकर वाष्पावरुद्ध कण्ठ से कहा - “ सोमभद्र, मेरे धूम्रकेतु को लेते जाओ, वह बाहर है। उसे तुम पशु मत समझना और मेरी ही भांति प्यार करना । ”

“ ऐसा ही होगा शील! तुम्हारा यह प्रेमोपहार मेरे जीवन का बहुत बड़ा सहारा होगा। ”

फिर सोम एक क्षण को भी नहीं रुके। लम्बे - लम्बे पैर बढ़ाते हुए प्रासाद के बाहरी प्रांगण में आ खड़े हुए। वहां कुण्डनी और शम्ब उनकी प्रतीक्षा में खड़े थे। उन्होंने धूम्रकेतु पर प्यार की एक थपकी दी , फिर कुण्डनी की ओर देखकर , बिना मुस्कराए और एक शब्द बोले , तीनों प्राणियों ने उसी क्षण वैशाली के राजपथ पर अश्व छोड़ दिए ।

91 . सुप्रभात : वैशाली की नगरवधू

दीपस्तम्भ पर धरे सुवासित दीपों की लौ मन्द पड़ गई , गवाक्षों से उषा की पीत प्रभा कक्ष में झांकने लगी। अलिन्द से वीणा की एक झंकार के साथ एक कोमल कण्ठस्वर निषाद का वाद देकर आरोह- अवरोह में चढ़ - उतरकर वातावरण को आन्दोलित कर गया ।

अम्बपाली ने दुग्धफेन- सम शैया पर अंगड़ाई ली और अलस भाव से अपने मकड़ी के जाले के समान अस्त -व्यस्त परिधान को कुछ व्यवस्थित किया, उत्फुल्ल कमलदल के समान अपने नेत्रों को उसने खोलकर गवाक्ष की ओर देखा । वहां से सुरभित मलय - गन्ध लिए वासन्ती वायु प्रभात की स्वर्णरेख के साथ कक्ष में आ रहा था ।

कमल की पंखुड़ियों की भांति उसके होठ हिले , उसने सस्मित - स्वगत कहा - मदलेखा गा रही है। ”

उसने हाथ बढ़ाकर रजत - दण्ड से कांस्यघण्ट पर आघात किया । तत्क्षण एक आसन्न -प्रस्फुटित कलिका - सी सुन्दरी ने अवनत मस्तक हो मृदु- मन्द मुस्कान के साथ अम्बपाली को अभिवादन करके कहा - “ देवी प्रसन्न हों , आज मधुपर्व का सुप्रभात है। ”

अम्बपाली ने हंसकर कण्ठ से मुक्तामाल उतार उस पर फेंकते हुए कहा - “ तेरा कल्याण हो हला, जा शृंगार - गृह को सुव्यवस्थित कर। ”.

सुन्दरी मुक्तामाल को कण्ठ में धारण करके हंसती हुई चली गई ।

अम्बपाली अलस देह लिए चुपचाप शय्या पर पड़ी एक गवाक्ष से कक्ष में आती हुई स्वर्ण- रश्मि को देखती रहीं । उनका मन बाहर अलिन्द में झंकृत वीणा की मधुर ध्वनि के साथ मदलेखा के कोमल औडव आलाप में लग रहा था ।

एक दासी ने आकर गवाक्षों की रंगीन चक्कलिकाएं उघाड़ दीं । दूसरी दासी गन्धद्रव्य जलाकर गन्धस्तम्भों पर रख गई। दो - तीन दासियों ने विविध मधु- गन्ध वाले पुष्पों के उरच्छद -तोरण बांध दिए । कक्ष सुवास और आलोक से सुरक्षित और उज्ज्वल हो उठा ।

मधुलता ने आकर निवेदन किया - “ शृंगार- गृह तैयार है और नगर के मान्य सामन्तपुत्र एवं सेट्टिपुत्र देवी को मधुपर्व के प्रभात की बधाई देने उपस्थित हैं । ”

अम्बपाली ने हंसकर अंगड़ाई ली । वह शैया त्यागकर उठी । सम्मुख वृहत् आरसी में अपने मद- भरे नवयौवन को एक बार गर्व- भरे नेत्रों से देखा , फिर कहा - “ हला , शृंगार - गृह का मार्ग दिखा और आगत नागरिकों से कह कि मैं उनकी उपकृत हूं तथा अभी मैं आती हूं। ”

मधुलता एक बार आदर के लिए झुकी और ‘ इधर से देवी कहकर पुष्प -भार से झुकी माधवीलता की भांति एक ओर चल दी । पीछे-पीछे उद्दाम यौवन का मद बिखेरती हुई अम्बपाली भी ।

92. मधुपर्व : वैशाली की नगरवधू

वीणा के तारों में औडव सम्पूर्ण के स्वर तैर रहे थे। सुनहरी धूप प्रासाद के मरकतमणि - जटित झरोखों और गवाक्षों से छन - छनकर नेत्रों को आह्लादित कर रही थी । अम्बपाली के आवास के बाहरी प्रांगण में रथ , हाथी , अश्व और विविध वाहनों का तांता लगा था । संभ्रान्त नागरिक और सामन्तपुत्र अपनी नई -निराली सज - धज से अपने - अपने वाहनों पर देवी अम्बपाली की प्रतीक्षा कर रहे थे। प्रांगण के भीतरी मार्ग में अम्बपाली का स्वर्णकलशवाला श्वेत कौशेय का महाघोष रथ आचूड़ विविधपुष्पों से सजा खड़ा था , उसमें आठ सैन्धव अश्व जुते थे , जिनकी कनौतियां खड़ी , थूथनी लम्बी और नथुने विशाल थे। वे स्वर्ण और मणिमालाओं के आभरणों से लदे थे। रथ के चूड़ पर मीनध्वज फहरा रही थी , वातावरण में जनरव भरा था । दण्डधर शुभ्र परिधान पहने दौड़ - दौड़कर प्रबन्ध -व्यवस्था कर रहे थे ।

हठात् गवाक्ष के कपाट खुले और देवी अम्बपाली उसमें अपनी मोहक मुस्कान के साथ आ खड़ी हुईं । नख से शिख तक उन्होंने वासन्ती परिधान धारण किया था , उनके मस्तक पर एक अतिभव्य किरीट था , जिसमें सूर्य की - सी कान्ति का एक अलभ्य पुखराज धक् - धक् दिप रहा था । कानों में दिव्य नीलम के कुण्डल और कण्ठ में मरकतमणि का एक अलौकिक हार था । उनकी करधनी बड़ी - बड़ी इक्कीस मणियों की बनी थी , जिनमें प्रत्येक का भार ग्यारह टंक था । वे माणिक्य उनकी देह - यष्टि में लिपटे हुए उस मधुदिवस के प्रभात की स्वर्ण- धूप में इक्कीस बालारुणों की छटा विस्तार कर रहे थे। उनकी घन - सुचिक्कण अलकें प्रभात की मन्द समीर में क्रीड़ा कर रही थीं । स्वर्णखचित - कंचुकी - सुगठित युगल यौवन दर्शकों पर मादक प्रभाव डाल रहे थे।

करधनी के नीचे हल्के आसमानी रंग का दुकूल उनके पीन नितम्बों की शोभा विस्तार कर रहा था , जिसके नीचे के भाग से उनके संगमरमर के - से सुडौल चरण युगल खालिस नीलम की पैंजनियों से आवेष्टित बरबस दर्शकों की गति - मति को हरण कर रहे थे।

इस अलौकिक वेशभूषा में उस दिव्य सुन्दरी अम्बपाली को देखकर प्रांगण में से सैकड़ों कण्ठों से आनन्द- ध्वनि विस्तारित हो गई । लोगों की सम्पूर्ण जीवनी शक्ति उनकी दृष्टि में ही केन्द्रित हो गई । फिर , ज्योंही अम्बपाली ने अपने दोनों हाथों की अञ्जलि में फूलों को लेकर सामन्त नागरिकों की ओर मृद- मन्द मुस्कान के साथ फेंका, त्योंही देवी अम्बपाली की जय , मधुपर्व की रानी की जय , जनपद- कल्याणी नगरवधू की जय के घोषों से दिशाएं गूंज उठीं । ।

दुन्दुभी पर चोटें पड़ने लगीं । वीणा में अब सम्पूर्ण अवरोह-स्वर वातावरण में बिखरे जा रहे थे, जिनमें दोनों मध्यम और कोमल निषाद विचित्र माधुर्य उत्पन्न कर रहे थे ।

नायक दण्डधर लल्लभट ने अपनी विशाल काया के भार को स्वर्णदण्ड के सहारे

सीढ़ियों पर चढ़ाकर अर्ध-निमीलित नेत्रों से देवी अम्बपाली के सम्मुख अभिवादन करके निवेदन किया - “ देवी की जय हो ,रथ प्रस्तुत है एवं सभी नागरिक शोभा -यात्रा को उतावले हो रहे हैं , एक दण्ड दिन भी चढ़ गया है । ”

अम्बपाली ने कानों तक ओठों को मुस्कराकर एक बार प्रांगण में बिखरे वैशाली के महाप्राणों को देखा और फिर सप्तभूमि प्रासाद की गगनचुम्बी अट्टालिका की ओर । फिर उनकी आंखें सम्मुख विस्तृत नीलपद्म सरोवर की अमल जलराशि पर फैल गईं। उन्होंने गर्व से अपनी हंस की - सी गर्दन उठाकर कहा - “ लल्ल , मुझे रथ का मार्ग दिखा ! ”

“ इधर से देवी ! ”लल्ल ने अति विनयावनत होकर कहा और अम्बपाली लाल कुन्तक के जूतों से सुसज्जित अपने हिमतुषार धवल - मृदुल पादपद्मों से स्फटिक की उन स्वच्छ सीढ़ियों को शत -सहस्र - गुण प्रतिबिम्बित करती हुईं , स्वर्ग से उतरती हुई सजीव सूर्य रश्मि - सी प्रतीत हुईं ।

युवकों ने अनायास ही उन्हें घेर लिया । उनके हाथों में माधवी और यथिका की मंजरी और उरच्छद थे। वे उन्होंने देवी अम्बपाली पर फेंकना आरम्भ किया । उनमें से कुछ अम्बपाली के अलभ्य गात्र को छूकर उनके चरणों में गिर गईं, कुछ बीच ही में गिरकर अनगिनत भीड़ के पैरों के नीचे कुचल गईं। ।

ज्योंही अम्बपाली अपने पुष्प - सज्जित रथ पर सवार हुईं , वेग से मृदंग , मुरज और दुन्दुभी बज उठे । दो तरुणियां उनके चरणों में अंगराग लिए आ बैठीं । दो उनके पीछे मोरछल ले खड़ी हो गईं। कुछ काम्बोजी अश्वों पर सवार हो रथ के आगे-पीछे चलने लगीं । युवक सामन्तपुत्रों एवं सेट्टिपुत्रों ने रथ को घेर लिया । बहुतों ने अपने - अपने वाहन त्याग दिए और रथ का धुरा पकड़कर साथ- साथ चलने लगे । बहुतों ने घोड़ों की रश्मियां थाम लीं । बहुत अपने - अपने वाहनों पर चढ़, अपने भाले और शस्त्र चमकाते आगे-पीछे दौड़ - धूप करने लगे ।

सड़कें कोलाहल से परिपूर्ण थीं । मार्ग के दोनों ओर के गवाक्षों में कुलवधएं बैठी हईं जनपद- कल्याणी अम्बपाली की मधुयात्रा निरख रही थीं । पौरजनों ने मार्ग में अपने - अपने घर और पण्य सजाए थे। सेट्ठियों और निगम की ओर से स्थान - स्थान पर तोरण बनाए गए थे, जो बहुमूल्य कौशेय वस्त्रों एवं विविध रंगबिरंगे फूलों से सुसज्जित हो रहे थे। उन पर बन्दनवार , मधुघट और पताकाओं की अजब छटा थी । प्रत्येक की सजधज निराली थी ।

अम्बपाली पर चारों ओर से फूलों की वर्षा हो रही थी । वह फूलों में ढकी जा रही थी । अट्टालिकाओं और चित्रशालाओं से सेट्ठि लोग फूलों के गुच्छ उन पर फेंक रहे थे और वह हंस -हंसकर उन्हें हाथ में उठा हृदय से लगा नागरिकों के प्रति अपने प्रेम का परिचय दे रही थीं । लोग हर्ष से उन्मत्त होकर जनपदकल्याणी देवी अम्बपाली की जय -जयकार घोषित कर रहे थे।

सेनानायक सबसे आगे एक पंचकल्याणी अश्व पर सवार स्वर्ण- तार के वस्त्र पहने चांदी का तूर्य बजा - बजाकर बारम्बार पुकारता जाता था

“ नागरिको , एक ओर हो जाओ, मधुपर्व की रानी जनपद- कल्याणी देवी अम्बपाली की सवारी आ रही है। देवी मधुवन को जा रही हैं , उन्हें असुविधा न हो , सावधान ! ” घोषणा करके ज्यों ही वह आगे बढ़ता , मार्ग नरमुण्डों से भर जाता। कोलाहल के मारे कान नहीं दिया जाता था ।

सूर्य तपने लगा । मध्याह्न हो गया । तब सब कोई मधुवन में पहुंचे। एक विशाल सघन आम्रकुञ्ज में अम्बपाली का डेरा पड़ा । उनका मृदु गात्र इतनी देर की यात्रा से थक गया था । ललाट पर स्वेदबिन्दु हीरे की कनी के समान चमक रहे थे।

आम्रकुञ्ज के मध्य में एक सघन वृक्ष के नीचे दुग्ध -फेन- सम श्वेत कोमल गद्दी के ऊपर रत्न - जटित दण्डों पर स्वर्णिम वितान तना था । अम्बपाली वहां आसन्दि - सोपधान पर अलस -भाव से उठंग गईं । उन्होंने अर्धनिमीलित नेत्रों से मदलेखा की ओर देखते हुए कहा - “ हला , एक पात्र माध्वीक दे। ”

मदलेखा ने स्वर्ण के सुराभाण्ड से लाल - लाल सुवासित मदिरा पन्ने के हरे - हरे पात्र में उड़ेल कर दी । उसे एक सांस में पीकर अम्बपाली उस कोमल तल्प - शय्या पर पौढ़ गईं ।

अपनी - अपनी सुविधा के अनुसार सभी लोग अपने - अपने विश्राम की व्यवस्था कर रहे थे। वृक्षों की छाया में , कुओं की निगूढ़ ओट में , जहां जिसे रुचा, उसने अपना आसन जमाया । कोई सेट्ठिपुत्र कोमल उपाधान पर लेटकर अपने सुकुमार शरीर की थकान उतारने लगा , कोई बांसुरी ले तान छेड़ बैठा, किसी ने गौड़ीय, माध्वीक और दाक्खा रस का आस्वादन करना प्रारम्भ किया । किसी ने कोई एक मधुर तान ली । कोई वानर की भांति वृक्ष पर चढ़ बैठा । बहुत - से साहसी सामन्तपुत्र दर्प से अपने - अपने अश्वों पर सवार हो अपने - अपने भाले और धनुष ले मृगया को निकल पड़े और आखेट कर - करके मधुपर्व की रानी के सम्मुख ढेर करने लगे । देखते - देखते आखेट में मारे हुए पशुओं और पक्षियों का समूह पर्वत के समान अम्बपाली के सम्मुख आ लगा । सावर, हरिण , शश , शूकर , वराह, लाव , तित्तिर, ताम्रचूड़ , माहिष और न जाने क्या - क्या जलचर , नभचर , थलचर, जीव प्राण त्याग उस रात को मधुपर्व के रात्रिभोज में अग्नि पर पाक होने के लिए मधुपर्व की रानी अम्बपाली के सम्मुख ढेर- के - ढेर इकट्ठे होने लगे । कोमल उपधानों का सहारा लिए अम्बपाली अपनी दासियों के साथ हंस -हंसकर इन उत्साही युवकों के आखेट की प्रशंसा कर रही थीं और उससे वे अपने को कृतार्थ मानकर और भी द्विगुण उत्साह से आखेट पर अपने अश्व दौड़ा रहे थे ।

93. आखेट : वैशाली की नगरवधू

दिन का जब तीसरा दण्ड व्यतीत हुआ और सूर्य की तीखी लाल किरणें तिरछी होकर पीली पड़ीं और सामन्त युवक जब मैत्रेय छककर पी चुके , तब अम्बपाली से आखेट का प्रस्ताव किया गया । अम्बपाली प्रस्तुत हुईं । यह भी निश्चित हुआ कि देवी अम्बपाली पुरुष- वेश धारणकर अश्व पर सवार हो , गहन वन में प्रवेश करेंगी। अम्बपाली ने हंसते हंसते पुरुष - वेश धारण किया । सिर पर कौशेय धवल उष्णीष जिस पर हीरे का किरीट, अंग पर कसा हुआ कंचुक, कमर में कामदार कमरबन्द । इस वेश में अम्बपाली एक सजीले किशोर की शोभा - खान बन गईं । जब दासी ने आरसी में उन्हें उनका वह भव्य रूप दिखलाया तो वह हंसते-हंसते गद्दे पर लोट - पोट हो गईं । बहुत - से सामन्त - पुत्र और सेट्ठि पुत्र उन्हें घेरकर खड़े- खड़े उनका यह रूप निहारने लगे।

युवराज स्वर्णसेन ने अपने चपल अश्व का हठपूर्वक निवारण किया और अम्बपाली के निकट आकर अभिनय के ढंग पर कहा

“ क्या मैं श्रीमान् से अनुरोध कर सकता हूं कि वे मेरे साथ मृगया को चलकर मेरी प्रतिष्ठा बढ़ाएं ? ”

अम्बपाली ने मोहक स्मित करके कहा

“ अवश्य, यदि प्रियदर्शी युवराज मेरा अश्व और धनुष मंगा देने का अनुग्रह करें। ”

“ सेवक अपना यह अश्व और धनुष श्रीमान् को समर्पित करता है । ”इतना कहकर युवराज अश्व से कूद पड़े और घुटने टेककर देवी अम्बपाली के सम्मुख बैठ अपना धनुष उन्हें निवेदन करने लगे ।

अम्बपाली ने बनावटी पौरुष का अभिनय करके आडम्बर - सहित धनुष लेकर अपने कंधे पर टांग लिया और तीरों से भरा हुआ तूणीर कमर से बांध वृद्ध दण्डधर के हाथ से बर्छा लेकर कहा - “ मैं प्रस्तुत हूं भन्ते। ”

“ परन्तु क्या भन्ते युवराज अश्वारूढ़ होने में मेरी सहायता नहीं करेंगे ! ”

“ क्यों नहीं भन्ते , यह तो मेरा परम सौभाग्य होगा । अश्वारूढ़ होने, संचालन करने और उतरने में मेरी विनम्र सेवाएं सदैव उपस्थित हैं । ”

स्वर्णसेन युवराज ने एक लम्बा - चौड़ा अभिवादन निवेदन किया और कहा “ धन्य वीरवर, आपका साहस ! यह अश्व प्रस्तुत है। ”

इतना कहकर उन्होंने आगे बढ़कर अम्बपाली का कोमल हाथ पकड़ लिया ।

अम्बपाली खिल -खिलाकर हंस पड़ीं , स्वर्णसेन भी हंस पड़े । स्वर्णसेन ने अनायास ही अम्बपाली को अश्व पर सवार करा दिया और एक दूसरे अश्व पर स्वयं सवार हो , विजन गहन वन की ओर द्रुत गति से प्रस्थान किया । वृद्ध दण्डधर ने साथ चलने का उपक्रम किया तो अम्बपाली ने हंसकर उसे निवारण करते हुए कहा - “ तुम यहीं मदलेखा के साथ रहो ,

लल्लभट्ट ! ”वे दोनों देखते - ही - देखते आंखों से ओझल हो गए । थोड़ी ही देर में गहन वन आ गया । स्वर्णसेन ने अश्व को धीमा करते हुए कहा

“ कैसा शान्त -स्निग्ध वातावरण है ! ”

“ ऐसा ही यदि मनुष्य का हृदय होता ! ”

“ तब तो विश्व के साहसिक जीवन की इति हो जाती। ”

“ यह क्यों ? ”

“ अशान्त हृदय ही साहस करता है देवी ! ”

“ सच ? ”अम्बपाली ने मुस्कराकर कहा।

युवराज कुछ अप्रतिभ होकर क्षण - भर चुप रहे। फिर बोले - “ देवी , आपने कभी विचार किया है ? ”

“ किस विषय पर प्रिया ? ”

“ प्रेम की गम्भीर मीमांसाओं पर , जहां मनुष्य अपना आपा खो देता है और जीवन फल पाता है ? ”

“ नहीं, मुझे कभी इस भीषण विषय पर विचार करने का अवसर नहीं मिला। ” देवी ने मुस्कराकर कहा

“ आप इसे भीषण कहती हैं ? ”

“ जहां मनुष्य आपा खो देता है और जीवन- फल पाता है - वह भीषण नहीं तो क्या है ? ”

“ देवी सम्भवतः उपहास कर रही हैं । ”

“ नहीं भद्र , मैं अत्यन्त गम्भीर हूं। ”अम्बपाली ने हठपूर्वक अपनी मुद्रा गम्भीर बना ली । स्वर्णसेन चुप रहे । दोनों अश्व धीरे - धीरे पर्वत की उस गहन उपत्यका में ठोकरों से बचते हुए आगे गहनतम वन में बढ़ने लगे । दोनों ओर के पर्वत - शृंग ऊंचे होते जाते थे और वन का सन्नाटा बढ़ता जाता था । सघन वृक्षों की छाया से छनकर सूर्य की स्वर्ण-किरणें दोनों अश्वारोहियों की मुखश्री की वृद्धि कर रही थीं ।

अम्बपाली ने कहा

“ क्या सोचने लगे युवराज ? ”

“ क्या सत्य कह दूं देवी ? ”

“ यदि अप्रिय न हो । ”

“ साहस नहीं होता । ”

“ अरे , ऐसे वीर युवराज होकर साहस नहीं कर सकते ? मैं समझती थी युवराज स्वर्णसेन परम साहसिक हैं । ”

“ आप उपहास कर सकती हैं देवी , पर मैं आपको प्यार करता हूं, प्राणों से भी बढ़कर। ”

“ केवल प्राणों से ही ? ”अम्बपाली ने हंस की - सी गर्दन ऊंची करके कहा ।

“ विश्व की सारी सम्पदाएं भी प्राणों के मूल्य की नहीं देवी ! क्या मेरा यह प्यार नगण्य है ? ”

“ नगण्य क्यों होने लगा प्रिय ? ”

“ तो आप इस नगण्य प्यार को स्वीकार करती हैं ? ” अम्बपाली ने वक्र मुस्कान करके कहा

“ इसके लिए तो मैं बाध्य हूं भन्ते युवराज ! वैशाली के प्रत्येक व्यक्ति को मुझे अपना प्यार अर्पण करने का अधिकार है,... वैशाली के ही क्यों जनपद के प्रत्येक व्यक्ति को । ”

“ परन्तु मेरा प्यार औरों ... जैसा नहीं है देवी । ”

“ तो उसमें कुछ विशेषता है ? ”

“ वह पवित्र है, वह हृदय के गम्भीर प्रदेश की निधि है, देवी अम्बपाली , जिस दिन मैं समझंगा कि आपने मेरे प्यार को स्वीकार किया, उस दिन मैं अपने जीवन को धन्य मानूंगा। ”

“ वाह, इसमें दुविधा की बात ही क्या है ? तुम आज ही अपने जीवन को धन्य मानो युवराज , परन्तु देखो कोरे प्यार से काम न चलेगा प्रिय , प्यास से मेरा कण्ठ सूख रहा है , मुझे शीतल जल भी चाहिए । ”

“ वाह, तब तो हम उपयुक्त स्थान पर आ पहुंचेहैं । वह सामने पुष्करिणी है। घड़ी भर वहां विश्राम किया जाए, शीतल जल से प्यास बुझाई जाए और शीतल छाया में शरीर को ठण्डा किया जाए। ”

“ और पेट की आंतों के लिए ? ”

“ उसकी भी व्यवस्था है, यह झोले में स्वादिष्ट मेवा और भुना हुआ शूल्य मांस है , जो अभी भी गर्म है । वास्तव में वह यवनी दासी बड़ी ही चतुरा है, शूल्य बनाने में तो एक ही है। ”

“ कहीं तुम उसे प्यार तो नहीं करते युवराज ? ”

“ नहीं - नहीं , देवी, जो पुष्प देवता पर चढ़ाने योग्य है वह क्या यों ही ....।

“ यही तो मैं सोचती हूं ; परन्तु यह पुष्करिणी- तट तो आ गया । ”

युवराज तत्क्षण अश्व से कूद पड़े और हाथ का सहारा देकर उन्होंने अम्बपाली को अश्व से उतारा । एक बड़े वृक्ष की सघन छाया में गोनक बिछा दिया गया और अम्बपाली उस पर लेट गईं । फिर उन्होंने कहा - “ हां , अब देखू तुम्हारी उस यवनी दासी का हस्तकौशल । ”

स्वर्णसेन ने पिटक से निकालकर शूकर के भुने हुए मांस - खण्ड अम्बपाली के सामने रख दिए , अभी वे कुछ गर्म थे। अम्बपाली ने हंसते -हंसते उन्हें खाते हुए कहा - “ युवराज , तुम्हारी उस यवनी दासी का कल्याण हो , तुम भी तनिक चखकर देखो , बहुत अच्छे बने हैं । मुझे सन्देह है, कहीं इसमें प्रेम का पुट तो नहीं है ! ”

युवराज ने हंसकर कहा - “ क्या कोई ईर्ष्या होती है देवी ? ”

“ क्या दासी के प्रेम से ? नहीं भाई, मैं इस भीषण प्रेम से घबराती हूं। क्या मैं तुम्हें बधाई दूं युवराज ? ”

“ ओह देवी, आप बड़ी निष्ठुर हैं ! ”

“ परन्तु यह यवनी दासी कदाचित् नवनीत - कोमलांगी है ? ”

“ भला देवी की दासी से तुलना क्या ? ”

“ तुलना की एक ही कही युवराज, तुलना न होती तो यह अधम गणिका उसके प्रेम से ईर्ष्या कैसे कर सकती थी भला ! ”

युवराज स्वर्णसेन अप्रतिभ हो गए। उन्होंने कहा “ मुझसे अपराध हो गया देवी , मुझे क्षमा करें । ”

“ यह काम सोच-विचारकर किया जाएगा , अभी यह मधुर कुरकुरा शूकर मांस खण्ड चखकर देखो। ”उन्होंने हंसते -हंसते एक टुकड़ा स्वर्णसेन के मुख में ठंस दिया ।

हठात् अम्बपाली का मुंह सफेद हो गया और स्वर्णसेन जड़ हो गए। इसी समय एक भयानक गर्जना से वन -पर्वत कम्पायमान हो गए। हरी - हरी घास चरते हुए अश्व उछलने और हिनहिनाने लगे , पक्षियों का कलरव तुरन्त बन्द हो गया ।

परन्तु एक ही क्षण में स्वर्णसेन का साहस लौट आया । उन्होंने कहा - “ शीघ्रता कीजिए देवी , सिंह कहीं पास ही है। ”उन्होंने अश्वों को संकेत किया, अश्व कनौती काटते आ खड़े हुए। अश्व पर अम्बपाली को सवार करा स्वयं अश्व पर सवार हो , धनुष पर शर सन्धान कर वे, सिंह किस दिशा में है, यही देखने लगे ।

अम्बपाली अभी भी भयभीत थी , अश्व चंचल हो रहे थे। अम्बपाली ने स्वर्णसेन के निकट अश्व लाकर भीत मुद्रा से कहा - “ सिंह क्या बहुत निकट है ? ”

और तत्काल ही फिर एक विकट गर्जन हुआ , साथ ही सामने बीस हाथ के अन्तर पर झाड़ियों में एक मटियाली वस्तु हिलती हुई दीख पड़ी । अम्बपाली और स्वर्णसेन को सावधान होने का अवसर नहीं मिला। अकस्मात् ही एक भारी वस्तु अम्बपाली के अश्व पर आ पड़ी । अश्व अपने आरोही को ले लड़खड़ाता हुआ खड्ड में जा गिरा । इससे स्वर्णसेन का अश्व भड़ककर अपने आरोही को ले तीर की भांति भाग चला । स्वर्णसेन उसे वश में नहीं रख सके ।

94. रंग में भंग : वैशाली की नगरवधू

युवराज स्वर्णसेन को लेकर उनका अश्व जो बिगड़कर भागा तो युवराज के बहुत प्रयत्न करने पर भी बीच में रुका नहीं । स्वर्णसेन पर भी सिंह के आक्रमण का आतंक तो था ही , देवी अम्बपाली के सिंह द्वारा आक्रान्त होने का भारी विषाद छा गया । सूर्यास्त के समय जब अत्यन्त अस्त -व्यस्त दशा में अकेले स्वर्णसेन मधुवन में पहुंचे, तो वहां बड़ा कोलाहल हो रहा था । जगह-जगह लकड़ी के बड़े-बड़े ढेर जल रहे थे और उन पर शशक, वराह, महिष और तित्तिर भूने जा रहे थे। ढेर के ढेर मैरेय , द्राक्षा, माध्वीक पात्रों में भरी - धरी जा रही थी और उसे पी -पीकर सब लोग उन्मत्त हो रहे थे। मांस के भूनने की सोंधी सुगन्ध आ रही थी । कोई ताल - सुर से और कोई ताल - सुर भंग होकर भी निर्द्वन्द्व गा रहे थे।

स्वर्णसेन अपने अश्व पर लटक गए थे, अश्व पसीने से तर था और मुख से फेन उगल रहा था । ज्योंही लोगों की दृष्टि उन पर पड़ी , वे स्तम्भित - से आमोद -प्रमोद छोड़कर उनकी ओर दौड़े । देखते -देखते सामन्तपुत्रों , सेट्टिपुत्रों और राजकुमारों ने उन्हें घेर लिया , वे विविध भांति प्रश्न करने लगे।

देवी अम्बपाली को न देखकर प्रत्येक व्यक्ति विचलित हो रहा था । सहारा देकर सूर्यमल्ल ने युवराज को अश्व से उतारा, थोड़ी गौड़ीय एक पात्र में भरकर मुंह से लगाई, एक ही सांस में पीकर युवराज ने वेदनापूर्ण स्वर में कहा - “ मित्रो, अनर्थ हो गया ! देवी अम्बपाली को सिंह आक्रान्त कर गया ! ”

वज्रपात की भांति यह समाचार सम्पूर्ण शिविर में फैल गया । सभी आमोद- प्रमोद रुक गए और सर्वत्र सन्नाटा छा गया । धीरे- धीरे स्वर्णसेन ने सम्पूर्ण घटना कह सुनाई । वह कहने लगे – “ ज्योंही हिंस्र सिंह गर्जन करके देवी अम्बपाली के ऊपर झपटा मैंने बाण सन्धान किया , परन्तु शोक , सिंह के धक्के से विचलित होकर मेरा अश्व बेबस होकर भाग निकला। मैंने देवी अम्बपाली को सिंह की भारी देह के साथ गिरते देखा है । हाय , मित्रो , अब मैं जनपद में मुंह दिखाने योग्य नहीं रह गया । ”

महाअट्टवी -रक्षक सूर्यमल्ल ने तत्काल पुकारकर दीपशलाकाएं जलाने और अपना अश्व लाने की आज्ञा दी । उन्होंने घटनास्थल पूछताछ कर बाणों से भरा तूणीर अपने कन्धे पर डाल और नग्न खड्ग हाथ में लेकर गहन वन में प्रवेश किया । पचासों प्यादे मशालें ले लेकर उनके आगे-पीछे चले । अनेक सामन्तपुत्र अश्वों पर सवार हो हाथों में नग्न खड्ग , शक्ति , धनुष - बाण लिए साथ हो लिए ।

परन्तु सम्पूर्ण रात्रि अनुसंधान करने पर भी वे देवी अम्बपाली का शरीर न पा सके, उन्होंने देवी के अश्व का मृत शरीर देखा । सिंह ने अपनी थाप से उसकी दो पसलियां उखाड़ ली थीं , परन्तु देवी का कहीं पता न था । वन का कोना - कोना छान डाला गया । सिंह का शरीर भी वहां न था । सभी ने यही समझ लिया कि सिंह अम्बपाली के शरीर को किसी कन्दरा में उठा ले गया और महामहिमामयी वैशाली की जनपद- कल्याणी देवी अम्बपाली को खा गया ।

प्रभात के धूमिल प्रकाश में वे थकित, भग्न - हृदय , खिन्न योद्धा युवक नीचे मुंह लटकाए मधुवन में लौट आए। उन्हें देखते ही मधुवन का वासन्ती पवन लोगों के रुदन से भर गया । देवी अम्बपाली के बहुमूल्य मीनध्वज रथ पर सुकुमारी मदलेखा औंधा मुंह किए सिसक -सिसककर रो रही थी । सभी के मुंह से एक ही बात निकल रही थी कि देवी अम्बपाली को सिंह ने खा लिया ।

तत्काल ही जो जैसा था उसी स्थिति में मधुवन से चल दिया और एक दण्ड सूर्य बढ़ते - बढ़ते वैशाली की गली -गली में देवी अम्बपाली के सिंह द्वारा खा लिए जाने की कथा फैल गई। श्रेष्ठिचत्वर की सभी हाटें तुरन्त बन्द हो गईं। संथागार का गणसन्निपात तुरन्त स्थगित कर दिया गया । समस्त वैशाली का गण देवी अम्बपाली के सिंह द्वारा खा लिए जाने से शोक - सन्ताप - मग्न हो गया ।

95 . साहसी चित्रकार : वैशाली की नगरवधू

अम्बपाली ने आंखें खोलीं, उनकी स्मृति काम नहीं दे रही थी । उन्होंने आंखें फाड़ फाड़कर इधर - उधर देखा । सामने उनका अश्व मरा पड़ा था । उसके निकट ही वह भीमाकार सिंह भी । उसे देखते ही अम्बपाली के मुंह से चीख निकल पड़ी । इसी समय किसी ने हंसकर कहा - “ डरो मत मित्र, सिंह मर चुका है। ”

अम्बपाली ने देखा - एक छरहरे गात का लम्बा- सा युवक सामने एक शिलाखण्ड पर खड़ा मुस्करा रहा है । अम्बपाली से आंखें चार करते हुए उसने कहा -सिंह मर चुका मित्र; क्या तुम्हें अधिक चोट आई है ? मैं उठने में सहायता दूं ? ”

अम्बपाली अपने पुरुषवेश को स्मरण कर संकट में पड़ी । उन्होंने घबराकर कहा - “ नहीं -नहीं, धन्यवाद, मुझे चोट नहीं आई, मैं ठीक हूं। ”यह कहकर वह व्याकुल सी अपने अस्त -व्यस्त वस्त्रों को ठीक करने लगीं ।

युवक ने तनिक निकट आकर हंसते हुए कहा - “ वाह मित्र, तुम्हारा तो कण्ठ- स्वर भी स्त्रियों - जैसा है, कदाचित् कोई सेट्टिपुत्र हो ? किसी सामन्तपुत्र के संगदोष से मृगया को निकल पड़े ? ”

अम्बपाली ने सिर हिलाकर सहमति प्रकट की ।

“ ठीक है, और कदाचित् आखेट में आने का यह प्रथम ही अवसर है ? ”

“ हां मित्र, पहला , “ अम्बपाली ने झेंप मिटाने को मुस्कराकर कहा। ।

युवक एक बार खूब ठठाकर हंस पड़ा । उसने कहा - “ और तुम्हें पहले - पहल सिंह के आखेट में आने के लिए तुम्हारे उसी मित्र ने सम्मति दी होगी जो तुम्हारे साथ था ? ”

“ जी हां , परन्तु वे हैं कहां ? ”

“ सम्भवतः वह सुरक्षित अपने डेरे में पहुंच गए होंगे । सिंह की गर्जना सुनकर उनका घोड़ा ऐसा भागा कि मैं समझता हूं कि वह बिना अपने वासस्थल पर गए रुकेगा नहीं। ”

इतना कहकर युवक फिर ही - ही करके हंसने लगा। उसने कहा - “ बड़ा कौतुक हुआ मित्र, मैं उस पुष्करिणी के उस छोर पर बैठा अस्तंगत सूर्य का एक चित्र बना रहा था । कोई आखेट करने इधर आए हैं , यह मैं तुम लोगों की बातचीत तथा अश्वों की भनक सुनकर समझ गया था । हठात् सिंह- गर्जन सुन मैंने इधर - उधर देखा तो तुम लोगों से दस हाथ दूरी पर सिंह को आक्रमण के लिए समुद्यत तथा तुम लोगों को असावधान देखकर मैं बरछा लिए इधर को लपका। सो अच्छा ही हुआ , ज्यों ही सिंह विकट गर्जन करके तुम्हारे अश्व पर उछला , मेरा बरछा उसकी पसलियों को चीरकर हृदय में जा अड़ा। तुम खड्ड में गिर पड़े । सिंह तुम्हारे अश्व को लेकर इधर गिरा, उधर तुम्हारे मित्र को लेकर उनका अश्व एकदम हवा हो गया । खेद है मित्र तुम्हारा वह सुन्दर काम्बोजी अश्व मर गया । ”

अम्बपाली अवाक् रहकर मृत अश्व को देखने लगीं। फिर उन्होंने कहा - “ धन्यवाद मित्र , तुमने प्राणरक्षा कर ली है। परन्तु अब मैं मधुवन तक कैसे पहुंचूं भला ? सूर्य तो अस्त हो रहा है । ”

“ असम्भव है । एक मुहूर्त में अन्धकार घाटी में फैल जाएगा। दुर्भाग्य से तुम्हारा अश्व मर गया है और इस समय अश्व मिलना सम्भव नहीं है, तथा मधुवन यहां से दस कोस पर है, जा नहीं सकते मित्र। पर चिन्ता न करो, आओ, आज रात मेरी कुटिया में विश्राम करो मेरे साथ। ”

“ तुम्हारे साथ ! आज रात ! असम्भव। ”अम्बपाली ने सूखते कण्ठ से कहा और व्याकुल दृष्टि से युवक की ओर देखा ।

युवक ने और निकट आकर कहा- “ असम्भव क्यों मित्र। परन्तु निस्सन्देह तुम बड़े सुकुमार हो , कुटिया तुम्हारे योग्य नहीं , पर कामचलाऊ कुछ आहार और शयन की व्यवस्था हो जाएगी । यहां पर तो अकेले वन में रात व्यतीत करना तुम्हारे - जैसे सुकुमार किशोर के लिए उपयुक्त नहीं, निरापद भी नहीं है। ”

अम्बपाली ने कुछ सोचकर कहा - “ मित्र , तुम क्या यहीं कहीं निकट रहते हो ? ”

“ कुछ दिन से , उस सामने की टेकरी पर, उस कुटिया को देख रहे हो न ? ”

“ देख रहा हूं , पर तुम इस विजन वन में करते क्या हो ?

युवक ने हंसकर कहा - “ चित्र बनाता हूं । यहां का सूर्यास्त उन पर्वतों की उपत्यकाओं में ऐसा मनोरम है कि मैं मोहित हो गया हूं। ”

“ तो तुम चित्रकार हो मित्र ?

“ देख नहीं रहे हो , यह रंग की कूर्चिका और यह चित्रपट ! ”

“ हं , और यह बर्ला ? यह अमोघ हस्तलाघव ? यह अभय पौरुष ? यह सब भी चित्रकला में काम आने की वस्तुएं हैं ? ”

युवक फिर हंस पड़ा। उसने कहा - “ मित्र , केवल कण्ठ -स्वर ही नहीं , बात कहने का और प्रशंसा करने का ढंग भी तुम्हारा स्त्रैण है, कुपित मत होना । इस हिंस्र अगम वन में एकाकी बैठकर चित्र बनाना , बिना इन सब साधनों के तो बन सकता नहीं , परन्तु बातों ही - बातों में सूर्य अस्त हो जाएगा तो तुम्हें कुटी तक पहुंचने में कठिनाई होगी । आओ चलें मित्र , क्या मैं तुम्हें हाथ का सहारा दूं ? कहीं चोट तो नहीं आई है ? ”

“ नहीं- नहीं, धन्यवाद ! मैं चल सकने योग्य हूं , तुम आगे- आगे चलो मित्र ! ”

और कुछ न कहकर अपनी रंग की तूलिका, कूर्च और चित्रपट हाथ में ले तथा बर्खा कन्धे पर डाल आड़ी-टेढ़ी पार्वत्य पगडण्डियों पर वह तरुण निर्भय लम्बे - लम्बे डग भरता चल खड़ा हआ और उसके पीछे अछताती -पछताती देवी अम्बपाली पुरुष- वेश के असह्य भार को ढोती हुईं ।

कुटी तक पहुंचते - पहुंचते सूर्यास्त हो गया । अम्बपाली को इससे बड़ा ढाढ़स हुआ । उनकी कृत्रिम पुरुष - वेश की त्रुटियां उस धूमिल प्रकाश में प्रकट नहीं हुईं , परन्तु इस नितान्त एकान्त निर्जन वन में एकाकी अपरिचित युवक के साथ रात काटना एक ऐसी कठिन समस्या थी जिसने देवी अम्बपाली को बहुत चल -विचलित कर दिया ।

कुटी पर पहुंचकर युवक ने देवी को प्रांगण में एक शिला दिखाकर कहा - “ इस

शिला पर क्षण - भर बैठो मित्र, मैं प्रकाश की व्यवस्था कर दूं। ”

इतना कहकर और बिना ही उत्तर की प्रतीक्षा किए वह कुटी में घुस गया । पत्थर घिसकर उसने आग जलाई । फिर उसने बाहर आकर कहा - “ उस मंजूषा में आवश्यक वस्त्र हैं और उस घड़े में जल है, सामने के ताक पर कुछ सूखा हरिण का मांस और फल रखे हैं , अपनी आवश्यकतानुसार ले लो । संकोच न करना । मैं थोड़ा ईंधन लेकर अभी आता हूं। ”

इतना कहकर कुटी द्वार से एक भारी कुल्हाड़ी उठा कंधे पर रखकर लम्बे - लम्बे डग भरता हुआ वह अन्धकार में विलीन हो गया ।

96 . मंजुघोषा का प्रभाव : वैशाली की नगरवधू

कुटिया में सामग्री बहुत संक्षिप्त थी । परन्तु कुटी में घुसते ही जिस वस्तु पर अम्बपाली की दृष्टि पड़ी , उसे देखते ही वह आश्चर्यचकित हो गईं। वह जड़वत् खड़ी उस वस्तु को देखती रह गईं । वह वस्तु एक महाघ वीणा थी जो चन्दन की चौकी पर रखी थी । वीणा का विस्तार तो अद्भुत था ही , उसका निर्माण भी असाधारण था । वह साधारण मनुष्य के कौशल से बनी प्रतीत नहीं होती थी । उस पर अति अलौकिक हाथीदांत की पच्चीकारी का काम हो रहा था और उसमें जो तुम्बे काम में लाए गए थे उनके विस्तार तथा सुडौलता का वर्णन ही नहीं हो सकता था । देवी अम्बपाली बड़ी देर तक उस वीणा को आंखें फाड़ - फाड़कर देखती रहीं , उन्होंने उसे पहचान लिया था । वह इस बात से बड़ी विस्मित थीं कि इस असाधारण वीणा को लाया कौन ? और इस कुटी के एकान्त स्थान में इस दिव्य वीणा को लेकर रहने तथाच अनायास ही दुर्दान्त सिंह को मार गिराने की शक्तिवाला यह सरल वीर तरुण है कौन ?

एक बार उन्होंने फिर सम्पूर्ण कुटिया में दृष्टि फेंकी, दूसरी ओर पर्णभित्ति पर दो तीन बर्छ, एक विशाल धनुष और दो तूणीर बाणों से सम्पन्न टंगे थे, एक भारी खड्ग भी एक कोने में लटक रहा था । कुटी के बीचोंबीच एक बड़ा - सा शिलाखण्ड था जिस पर एक सिंह की समूची खाल पड़ी थी । उस पर एक आदमी भलीभांति सो सकता था । एक कोने में एक काष्ठ -मंजूषा, दूसरे में मिट्टी की एक कुम्भकारिका जल से भरी रखी थी । यही उस कुटी की सम्पदा थी । यह सब घूमती दृष्टि से देख देवी अम्बपाली उसी अमोघ वीणा को ध्यानपूर्वक देखती ठगी - सी रह गईं। उनके मस्तिष्क में कौशाम्बीपति उदयन का मिलन क्षण चित्रित होने लगा ।

युवक ने वेग से सिर का बोझ एक ओर कुटी के बाहर फेंक दिया । फिर वह भारी भारी पैर रखता हुआ कुटी में आया । पदध्वनि सुन अम्बपाली ने युवक की ओर देखा । युवक ने अचकचाकर कहा

“ अरे , अभी तक तुमने वस्त्र भी नहीं बदले ? न थोड़ा आहार ही किया ? वहां खड़े उस वीणा को क्यों ताक रहे हो मित्र । ”

“ किन्तु यह वीणा तुमने पाई कहां से ? ”अम्बपाली ने खोये- से स्वर में पूछा।

“ तो तुम इसे पहचानते हो मित्र ?

“ निश्चय , यह कौशाम्बी के देव - गन्धर्व- पूजित महाराज उदयन की अमोघ वीणा मंजुघोषा है, जो गन्धर्वराज चित्रसेन ने महाराज को दी थी । ”

“ वही है, पर तुम इसे पहचानते कैसे हो मित्र ? इसका इतिहास तुम्हें कैसे विदित हुआ ? यह तो अतिगुप्त बात है ? ”तरुण ने कुछ आश्चर्य - मुद्रा में कहा ।

“ मैंने इसे बजते हुए देखा है। ”

“ बजते हुए देखा है ? असम्भव ! ”

“ देखा है मित्र ! ”अम्बपाली ने अति गम्भीर स्वर में कहा ।

“ कहां ? ”

“ देवी अम्बपाली के आवास में ? ”

“ देवी अम्बपाली के आवास में ? किसने इसे बजाया था मित्र, तुम स्वप्न देख रहे हो

“ कदाचित् स्वप्न ही हो , नहीं तो यह वीणा इस एकान्त कुटी में ? आश्चर्य! अति आश्चर्य ! ”

“ परन्तु इसे तुमने बजते देखा था ? किसने बजाया था मित्र ?

“ पृथ्वी पर एक ही व्यक्ति तो इसे बजा सकता है। ”

“ महाराज उदयन ? ”

“ हां वही । ”

“ और वे देवी अम्बपाली के आवास में आए थे ? ”

“ गत वसन्त में महाराज ने वीणा बजाई थी और देवी ने अवश नृत्य किया था । ”

“ और तुमने वह नृत्य देखा था मित्र ? देवी अम्बपाली के नृत्य को देखने की सामर्थ्य किसमें है ? उनकी दासियां जो नृत्य करती हैं वही देव - दानव और नरलोक के लिए दुर्लभ है । ”

“ परन्तु मैंने देखा था , इस अमोघ वीणा के प्रभाव से अवश हो देवी ने नृत्य किया था । ”

तरुण कुछ देर एकटक देवी अम्बपाली के मुंह की ओर देखता रहा , फिर बोला

“ तुम सत्य कहते हो मित्र , पर क्या देवी अम्बपाली से तुम्हारा परिचय है ? ”

“ यथेष्ट है। ”

“ यथेष्ट ? तब तुम क्या मुझे उपकृत करोगे ? ”

“ आज के उपकार के बदले में ? ”अम्बपाली ने हंसकर कहा ।

“ नहीं - नहीं मित्र, परन्तु मेरी एक अभिलाषा है। ”

“ क्या उसे मैं जान सकता हूं ? ”

“ गोपनीय क्या है मित्र , मैं चाहता हूं, एक बार देवी अम्बपाली मेरे सम्मुख वही नृत्य करें । ”

“ तुम्हारे सम्मुख ? तुम्हारा साहस तो प्रशंसनीय है मित्र ! ” अम्बपाली वेग से हंस पड़ीं ।

तरुण ने क्रुद्ध होकर कहा - “ इतना क्यों हंसते हो मित्र ?

परन्तु अम्बपाली हंसती ही रहीं; फिर उन्होंने हंसते -हंसते कहा - “ खूब कहा तुमने मित्र , देवी अम्बपाली तुम्हारे सम्मुख नृत्य करेंगी ! क्या तुम जानते हो , देवी का नृत्य देखने के लिए देव - गन्धर्व भी समर्थ नहीं हैं ! ”

तरुण खीझ उठा, उसने कहा - “ जितना तुम हंस सकते हो हंसो मित्र, पर मैं कहे देता हूं, देवी अम्बपाली को मेरे सम्मुख नृत्य करना पड़ेगा । ”

“ और तुम कदाचित् तब यह वीणा उसी प्रकार बजाओगे, जैसे महाराज उदयन ने बजाई थी । ”अम्बपाली ने प्रच्छन्न व्यंग्य करते हुए कहा।

“ निश्चय ! ”तरुण के नेत्रों से एक ज्योति निकलने लगी ।

तरुण के इस संक्षिप्त उत्तर से अम्बपाली विजड़ित हो गईं। उन्हें महाराज उदयन की वह अद्भुत भेंट याद आ गई। उन्होंने धीमे स्वर से कहा -

“ क्या कहा ? तुम इस वीणा को बजाओगे ?

“ निश्चय ! ”तरुण ने कुछ कठोर स्वर से कहा ।

“ क्या तुम इसे तीन ग्रामों में एक ही साथ बजा सकते हो मित्र ? ”

“ निश्चय ! ”तरुण उत्तेजना के मारे खड़ा हो गया ।

अम्बपाली ने कहा - “ किसने तुम्हें यह सामर्थ्य दी , सुनूं तो !

“ स्वयं कौशाम्बीपति महाराज उदयन ने । पृथ्वी पर दो व्यक्ति यह वीणा बजा सकते हैं । ”

“ एक महाराज उदयन, ” अम्बपाली ने तीखे स्वर में पूछा - “ और दूसरे ? ”

“ दूसरा मैं ! ”तरुण ने दर्प से कहा ।

अम्बपाली क्षण - भर जड़ रहकर बोलीं -

“ अस्तु , परन्तु तुम मुझसे क्या सहायता चाहते हो मित्र ? ”

“ अति साधारण , तुम देवी तक मेरा यह अनुरोध पहुंचा दो कि वे यहां मेरी कुटी में आकर एक बार मेरे सम्मुख वही नृत्य करें जो उन्होंने अमोघ गान्धर्वी मंजुघोषा वीणा पर महाराज उदयन के सम्मुख किया था । ”

“ इस कुटी में आकर ! तुम पागल तो नहीं हो गए मित्र! तुम मेरे प्राणत्राता अवश्य हो , पर मैं तुम्हारा अनुरोध नहीं ले जा सकता। देवी अम्बपाली तुम्हारी कुटी में आएंगी भला ! ”

“ और उपाय नहीं हैं मित्र , देवी के उस कुत्सित सर्वजन-सुलभ आवास में तो मैं नहीं जाऊंगा ! ”

अम्बपाली के हृदय के एक कोने में आघात हुआ , परन्तु उन्होंने उस अद्भुत तरुण से कुटिल हास्य भौंहों में छिपाकर कहा

“ तुम्हारा यह कार्य मैं कर दूंगा तो मुझे क्या मिलेगा ? ”

“ जो मांगो मित्र, इस वीणा को छोड़कर । ”

“ वीणा नहीं, केवल वह नृत्य मुझे देख लेने देना ? ”

“ यह न हो सकेगा, मानव- चक्षु उसे देख नहीं सकेंगे। महाराज का यही आदेश है। ”

“ तब मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता। ”

तरुण ने खीझकर कहा -

“ जाने दो मित्र, मैं अपना कोई दूसरा मार्ग ढूंढ़ लूंगा । किन्तु अरे , अभी मुझे भोजन व्यवस्था भी करनी है ; तुम वस्त्र बदलो मित्र , मैं घड़ी भर में आता हूं। ”

तरुण ने बर्छा उठाया और तेज़ी से बाहर चला गया ।

अम्बपाली ने बाधा देकर कहा

“ इस अन्धकार में अब वन में कहां भटकोगे मित्र ? ”

“ वह कुछ नहीं, यह मेरा नित्य व्यापार है। वहां उस कन्दरा में मेरा आखेट है, मैं अभी लाता हूं। ”

तरुण वैसे ही लम्बे - लम्बे डग भरता अन्धकार में खो गया , अम्बपाली उसे ताकती रह गईं ।

97 . एकान्त वन में : वैशाली की नगरवधू

उस एकान्त वन में गर्भ में स्थापित इस निर्जन कुटी में , दीपक के टिमटिमाते प्रकाश में देवी अम्बपाली एकाकिनी उस कुटी के मध्य में स्थापित शिलाखण्ड पर बैठी कुछ देर एकटक उस दिव्य वीणा को देखती रहीं ।

वह गत वर्ष की उस रहस्यपूर्ण भेंट को भूली नहीं थीं , जब कौशाम्बीपति उदयन रहस्यपूर्ण रीति से अम्बपाली के क्रीड़ोद्यान में पहुंचे थे। उनका दिव्य रूप, गम्भीर मुखमुद्रा और अप्रतिम सौकुमार्य देखकर अम्बपाली चित्रखचित - सी रह गई थीं और उनके इंगित पर इस वीणा के प्रभाव से अवश होकर उन्होंने अपार्थिव नृत्य किया था । पहले वह नृत्य के लिए तैयार नहीं थीं , परन्तु जिस समय वह अमोघ वीणा तीन ग्रामों में उस नररत्न ने बजाई , तब उसके हस्तलाघव तथा वीणा की मधुर झंकार से कुछ ही क्षणों में अम्बपाली आत्मविभोर होकर नृत्य करने लगी थीं । वीणा की गति के साथ ही आतर्कित रीति से उनका पद-निपेक्ष भी द्रुत - द्रुततर - द्रुततम होता गया था और अन्त में वह क्षण आया था जब अम्बपाली के रक्त का प्रत्येक बिन्दु वीणा की उस झंकार के साथ उन्मत्त - असंयत हो गया था । उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा था जैसे उनके अंग से ज्वालामुखी का अग्नि - समुद्र फूट पड़ा है । उससे वह तो विदग्ध नहीं हुईं, किन्तु उन्हें ऐसा भास होने लगा था , मानो वह अग्नि समुद्र विश्व को विदग्ध कर रहा है । तब देवी अम्बपाली ने अपने कुसुम - कोमल गात्र को देवविष्ट पाया था । वह मानो स्वयंभू विराट पुरुष की प्रतिमूर्ति बनीं , प्रलय - काल की महासमुद्र में उठी बाड़वाग्नि की ज्वालाओं के बीच प्रलय के ध्वंस से त्रास पाए नरलोक , धुलोक और सात पाताल के परे परमानन्द, तृप्ति और इन्द्रियातीत आनन्द से भरी, केवल चरण के अंगुष्ठ के एक नख - मात्र पर वसुन्धरा का भार स्थिर कर स्वयं अस्थिर भाव से नाच रही हैं और वह दिव्य गन्धर्व- रूप प्रियदर्शी उदयन विद्युत् - गति से उस महाघ वीणा के तारों पर महामेघ गर्जना के नाद से ब्रह्माण्ड को प्रकम्पित कर रहा है। कैसे वह नृत्य समाप्त हुआ था और कैसे महाराज उदयन उस दिव्य वीणा को लेकर अम्बपाली के उद्यान से सहसा अंतर्धान हो गए थे, यह सब आज अम्बपाली के मानस - चक्षुओं में घूम गया । वह बड़ी देर तक भावमग्न- सी जड़ बनी बैठी रहीं; फिर चैतन्य होने पर उन्होंने अपने पुरुष - वस्त्रों के भीतर वक्षस्थल में धारित महाराज उदयन की प्रदत्ता बड़े- बड़े गुलाबी मोतियों की माला को मोह- सहित स्पर्श किया । वह उस अद्भुत आश्चर्यजनक स्वप्न की - सी घटना को कभी स्वप्न में और कभी जाग्रत ही कितनी ही बार मानस - चक्षुओं से देख चुकी हैं । फिर भी वह अब भी उनकी स्मृति से मोह में पड़ जाती हैं । वह इतना ही समझती हैं कि आगन्तुक पुरुष गन्धर्व - अवतार कौशाम्बीपति महाराज उदयन दिव्य पुरुष हैं ।

आज इतने दिन बाद उसी असाधारण वीणा को यहां एकान्त कुटी में देख और यह जानकर कि यह एकान्तवासी युवक, जो भावुक , चित्रकार, सरल , अतिथिसेवी और दुर्धर्ष योद्धा तथा कठिन कर्मठ होने के अपने प्रमाण कुछ ही क्षणों में दे चुका है, वास्तव में इस महामहिमामयी दिव्य वीणा को भी बजा सकता है और कदाचित् उसी कौशल से , जैसे उस दिन महाराज उदयन ने बजाई थी , इसी से वह मेरा नृत्य भी कराना चाहता है, परन्तु उसकी स्पर्धा तो देखनी चाहिए कि वह मेरे आवास में जाने में अपना मान- भंग मानता है , जहां स्वयं प्रियदर्शी महाराज उदयन ने प्रार्थी होकर नृत्य - याचना की थी ।

कौन है यह लौह पुरुष ? कौन है यह साधारण और असाधारण का मिश्रण , कौन है यह अति सुन्दर, अति भव्य , अति - मधुर , अति कठोर ? यह पौरुष की अक्षुण्ण मूर्ति ! जीवन , प्रगति और विकास का महापुञ्ज ! कैसे वह उनकी अन्तरात्मा में बलात् प्रविष्ट होता जा रहा है ।

अम्बपाली की दृष्टि उसी वीणा पर थी , उन्हें हठात् उस वीणा के मध्य- से एक मुख प्रकट होता - सा प्रतीत हुआ, यह उसी युवक का मुख था । कैसा प्रफुल्ल गौर , कैसा प्रिय , अम्बपाली ने कुछ ऐसी अनुभूति की , जो अब तक उन्हें नहीं हुई थी । अपने हृदय की धड़कन वह स्वयं सनने लगीं । उनका रक्त जैसे तप्त सीसे की भांति खौलने और नसों में घूमने लगा । उनके नेत्रों के सम्मुख शत - सहस्र -लक्ष - कोटि रूपों से वही मुख पृथ्वी, आकाश और वायुमण्डल में व्याप्त हो गया । उस मुख से वज्र - ध्वनि में सहस्र - सहस्र बार ध्वनित होने लगा - “ नाचो अम्बपाली , नाचो, वही नृत्य , वही नृत्य !

और अम्बपाली को अनुभव हुआ है कि कोई दुर्धर्ष विद्युत्धारा उनके कोमल गात में प्रविष्ट हो गई है । वह असंयत होकर उठीं । कब उनके कमनीय कुन्तलों से कृत्रिम पुरुष- वेष लोप हो गया , उन्हें भान नहीं रहा । उन्हें प्रतीत हुआ मानो वही प्रिय युवक उस चौकी पर बैठकर वैसे ही कोशल से वीणा पर तीन ग्रामों से अपना हस्तलाघव प्रकट कर रहा है, उसकी झंकार स्पष्ट उनके कानों में विद्युत्- प्रवाह के साथ प्रविष्ट होने लगी और असंयत , असावधान अवस्था में उनके चरण थिरकने लगे। आप - ही - आप उनकी गति बढ़ने लगी और वह आत्मविस्मृत होकर वही अपार्थिव नृत्य करने लगीं ।

98. अपार्थिव नृत्य : वैशाली की नगरवधू

युवक ने समूचा भुना हुआ हरिण कंधे पर लादकर ज्योंही कुटी में प्रवेश किया , वह वहां का दृश्य देखकर आश्चर्यचकित जड़वत् रह गया । उसने देखा – पारिजात - कुसुम - गुच्छ की भांति शोभाधारिणी एक अनिंद्य सुन्दरी दिव्यांगना कुटी में आत्म -विभोर होकर असाधारण नृत्य कर रही है ।

उसके सुचिक्कण, घने पादचुम्बी केश- कुन्तल मृदु पवन में मोहक रूप में फैल रहे हैं । स्वर्ण -मृणाल - सी कोमल भुज - लताएं सर्पिणी की भांति वायु में लहरा रही हैं । कोमल कदली -स्तम्भ - सी जंघाएं व्यवस्थित रूप में गतिमान होकर पीन नितम्बों पर आघात - सा कर कटि-प्रदेश को ऐसी हिलोर दे रही हैं जैसे समुद्र में ज्वार आया हो । कुन्दकली - सा धवल गात , चन्द्रकिरण - सी उज्ज्वल छवि और मुक्त नक्षत्र - सा दीप्तिमान् मुखमण्डल - सब कुछ अलौकिक था । क्षण- भर में ही युवक विवश हो गया । उसने आखेट एक ओर फेंककर वीणा की ओर पद बढ़ाया । अम्बपाली के पदक्षेप के साथ वीणा आप ही ध्वनित हो रही थी । युवक ने वीणा उठा ली , उस पर उंगली का आघात किया , नृत्य मुखरित हो उठा ।

अब तो जैसे ज्वालामुखी ने ज्वलित , द्रवित सत्त्व भूगर्भ से पृथ्वी पर उंडेलने प्रारम्भ कर दिए हों , जैसे भूचाल आ गया हो , पृथ्वी डगमग करने लगी हो । वीणा की झंकृति पर क्षण- भर के लिए देवी अम्बपाली सावधान होतीं और फिर भाव- समुद्र में डूब जातीं ।

उसी प्रकार देवी सम पर ज्योंही पदक्षेप करतीं और निमिषमात्र को युवक की अंगली सम पर आकर तार पर विराम लेती , तो वह निमिष - भर को होश में आ जाता । धीरे - धीरे दोनों ही बाह्यज्ञान - शून्य हो गए। सुदूर नील गगन में टिमटिमाते नक्षत्रों की साक्षी में , उस गहन वन के एकान्त कक्ष में ये दोनों ही कलाकार पृथ्वी पर दिव्य कला को मूर्तिमती करते रहे- करते ही रहे । उनके पार्थिव शरीर जैसे उनसे पृथक् हो गए। उनका पार्थिव ज्ञान लोप हो गया , जैसे वे दोनों कलाकार पृथ्वी के प्रलय हो जाने के बाद समुद्रों के भस्म हो जाने पर , सचराचर वसुन्धरा के शेष - लीन हो जाने पर , वायु की लहरों पर तैरते हुए , ऊपर आकाश में उठते चले गए हों और वहां पहुंच गए हों जहां भूः नहीं, भुवः नहीं , स्वः नहीं , पृथ्वी नहीं, आकाश नहीं, सृष्टि नहीं , सृष्टि का बन्धन नहीं , जन्म नहीं , मरण नहीं, एक नहीं , अनेक नहीं , कुछ नहीं , कुछ नहीं!

99 . पीड़ानन्द : वैशाली की नगरवधू

जब देवी अम्बपाली की संज्ञा लौटी , तब कुछ देर तक तो वह यही न जान सकीं कि वह कहां हैं । दिन निकल आया था - कुटी में प्रकाशरेख के साथ प्रभात की सुनहरी धूप छनकर आ रही थी । सावधान होने पर अम्बपाली ने देखा कि वह भूमि पर अस्त -व्यस्त पड़ी हैं । वह उठ बैठी, कुटी में कोई नहीं था । उन्होंने पूर्व दिशा की एक खिड़की खोल दी । सुदूर पर्वतों की चोटियां धूप में चमक रही थीं , वन पक्षियों के कलरव से मुखरित हो रहा था , धीरे- धीरे उन्हें रात की सब बातें याद आने लगीं । वीणा वैसी ही सावधानी से उसी चन्दन की चौकी पर रखी थी । तब क्या रात उसने स्वप्न देखा था ? या सचमुच ही उसने नृत्य किया था ! उसे स्मरण हो आया, एक गहरी स्मृति की संस्कृति उदय हो रही थी । वही युवक आत्मलीन होकर वीणा बजा रहा था । क्या सचमुच पृथ्वी पर महाराज उदयन को छोड़ दूसरा भी एक व्यक्ति वैसी ही वीणा बजा सकता है ? तब कौन है यह युवक ? क्या यह संसार -त्यागी,निरीह व्यक्ति कोई दैवशाप - ग्रस्त देवता है, अथवा कोई गन्धर्व, यक्ष , असुर या कोई लोकोत्तर सत्त्व मानव - रूप धर इस वन में विचरण कर रहा है !

देवी अम्बपाली अति व्यग्र होकर उसी युवक का चिन्तन करने लगीं । क्या उन्होंने सम्पूर्ण रात्रि अकेले ही उस कुटी में उसी के साथ व्यतीत की है ? तो अब वह इस समय कहां है ? कहां है वह ?

अम्बपाली एक ही क्षण में उस कुटी में उस युवक के अभाव को इतना अधिक अनुभव करने लगीं जैसे समस्त विश्व में ही कुछ अभाव रह गया हो । उनकी इच्छा हुई कि पुकारें - कहां हो , कहां हो तुम , अरे ओ, अरे ओ कुसुम - कोमल , वज्र - कठिन , तुमने कैसे मुझे आक्रान्त कर लिया ?..... देवी अम्बपाली विचारने लगीं, आज तक कभी भी तो ऐसा नहीं हुआ था , किसी पुरुष को देखकर , स्मरण करके जैसा आज हो रहा है । पुरुष - जाति -मात्र मेरी शत्रु है, मैं उससे बदला लूंगी । उसने मेरे सतीत्व का बलात् हरण किया है । जब से मैंने दुर्लभ सप्तभूमि प्रासाद में पदार्पण किया है, कितने सामन्त , सेट्टिपुत्र , सम्राट और राजपुत्र सम्पदा और सौन्दर्य लेकर मेरे चरणों से टकराकर खण्ड - खण्ड हो गए । क्या अम्बपाली ने कभी किसी को पुरुष समझा ? वे सब निरीह प्राणी अम्बपाली की करुणा और विराग के ही पात्र बनें । अचल हिमगिरि शंग की भांति अम्बपाली का सतीत्व अचल रहा , डिगा नहीं , हिला नहीं , विचलित हआ नहीं , वह वैसा ही अस्पर्श- अखण्ड बना रहा ......यह सोचते सोचते अम्बपाली गर्व में तनकर खड़ी हो गईं, फिर उनकी दृष्टि उस वीणा पर गई । वह सोचने लगीं -किन्तु अब यह अकस्मात् ही क्या हो गया ? वह अचल हिमगिरि - शृंग - सम गर्वीली अम्बपाली का अजेय सतीत्व आज विगलित होकर उस मानव के चरण पर लोट रहा है ? उन्होंने आर्तनाद करके कहा - “ अरे मैं आक्रान्त हो गई, मैं असम्पूर्ण हो गई , मैं निरीह नारी कैसे इस दर्पमूर्ति पौरुष के बिना रह सकती हूं ? परन्तु वह मुझे आक्रान्त करके छिप कहां गया ? उसने केवल मेरी आत्मा ही को आक्रान्त किया , शरीर को क्यों नहीं ? यह शरीर जला जा रहा है , इसमें आबद्ध आत्मा छटपटा रही है, इस शरीर के रक्त की एक - एक बूंद ‘प्यास-प्यास चिल्ला रही है, इस शरीर की नारी अकेली रुदन कर रही है। अरे ओ , आओ, तुम , इसे अकेली न छोड़ो ! अरे ओ पौरुष , ओ निर्मम , कहां हो तुम ; इसे आक्रान्त करो , इसे विजय करो; इसे अपने में लीन करो। अब एक क्षण भी नहीं रहा जाता । यह देह , यह अधम नारी- देह, नारीत्व की समस्त सम्पदा- सहित इस निर्जन वन में अकेली अरक्षित पड़ी है, अपने अदम्य पौरुष से अपने में आत्मसात् कर लो तुम , जिससे यह अपना आपा खो दे; कुछ शेष न रहे। ”

अम्बपाली ने दोनों हाथों से कसकर अपनी छाती दबा ली । उनकी आंखों से आग की ज्वाला निकलने लगी, लुहार की धौंकनी की भांति उनका वक्षस्थल ऊपर -नीचे उठने बैठने लगा । उसका समस्त शरीर पसीने के रुपहले बिन्दुओं से भर गया । उसने चीत्कार करके कहा - “ अरे ओ निर्मम , कहां चले गए तुम , आओ, गर्विणी अम्बपाली का समस्त दर्प मर चुका है , वह तुम्हारी भिखारिणी है, तुम्हारे पौरुष की भिखारिणी। ”उसने उन्मादग्रस्त - सी होकर दोनों हाथ फैला दिए ।

युवक ने कुटी -द्वार खोलकर प्रवेश किया । देखा , कुटी के मध्य भाग में देवी अम्बपाली उन्मत्त भाव से खड़ी है, बाल बिखरे हैं , चेहरा हिम के समान श्वेत हो रहा है , अंग - प्रत्यंग कांप रहे हैं ।

उसने आगे बढ़कर अम्बपाली को अपने आलिंगन -पाश में बांध लिया , और अपने जलते हुए होंठ उसके होंठों पर रख दिए , उसके उछलते हुए वक्ष को अपनी पसलियों में दबोच लिया , सुख के अतिरेक से अम्बपाली संज्ञाहीन हो गईं, उनके उन्मत्त नेत्र मुंद गए, अमल - धवल दन्तपंक्ति से अस्फुट सीत्कार निकलने लगा , मस्तक और नासिका पर स्वेद बिन्दु हीरे की भांति जड़ गए । युवक ने कुटी के मध्य भाग में स्थित शिला - खण्ड के सहारे अपनी गोद में अम्बपाली को लिटाकर उसके अनगिनत चुम्बन ले डाले - होठ पर, ललाट पर, नेत्रों पर , गण्डस्थल पर , भौहों पर, चिबुक पर। उसकी तृष्णा शान्त नहीं हुई । अग्निशिखा की भांति उसके प्रेमदग्ध होंठ उस भाव-विभोर युवक की प्रेम-पिपासा को शतसहस्र गुणा बढ़ाते चले गए।

धीरे - धीरे अम्बपाली ने नेत्र खोले । युवक ने संयत होकर उनका सिर शिला - खण्ड पर रख दिया । अम्बपाली सावधान होकर बैठ गईं, दोनों ही लज्ज़ा के सरोवर में डूब गए और उनकी आंखों के भीगे हुए पलक जैसे आनन्द -जल के भार को सहन न कर नीचे की ओर झुकते ही चले गए। युवक ही ने मौन भंग किया । उसने कहा - “ देवी अम्बपाली, मुझे क्षमा करना , मैं संयत न रह सका। ”

अम्बपाली प्यासी आंखों से उसे देखती रहीं । उसके बाद सूखे होठों में हंसी भरकर उन्होंने कहा - “ अन्ततः तुमने मुझे जान लिया प्रिय ! ”

“ कल जिस क्षण मैंने आपको नृत्य करते देखा था , तभी जान गया था देवी ! ”

“ वह नृत्य तुम्हें भाया ? ”

“ नरलोक में न तो कोई वैसा नृत्य कर सकता है और न देख ही सकता है देवी ! ”

“ और वह वीणा -वादन ? ”

“ कुछ बन पड़ता है, पर अभी अधिकारपूर्ण नहीं । मैं तुम्हारे साथ बजा सकुंगा इसकी आशा न थी , पर तुम्हारे नृत्य ने ही सहायता दी । ”

“ ऐसा तो महाराज उदयन भी नहीं बजा सकते प्रिय ! ”देवी ने मुस्कराकर कहा । युवक हंस दिया , कुछ देर तक दोनों चुप रहे । दोनों के हृदय आन्दोलित हो रहे थे । युवक पर अम्बपाली का परिचय एवं नाम प्रकट हो गया था , पर अम्बपाली अभी तक उस पुरुष से नितान्त अनभिज्ञ थीं , जिसने उनका दुर्जय हृदय जीत लिया था । किन्तु वह पूछने का साहस नहीं कर सकती थीं । कुछ सोच -विचार के बाद उन्होंने कहा - “ इसके बाद ?

युवक ने यन्त्र - चालित - सा होकर कहा - “ अब इसके बाद ? ”

“ मुझे अपने आवास में जाना होगा प्रिय , परन्तु मैं तुम्हारा कुल - गोत्र एवं तुम्हारे नाम से भी परिचित नहीं, अपना परिचय देकर बाधित करो। ”

“ मुझे तुम ‘ सुभद्र के नाम से स्मरण रख सकती हो । ”

“ अभी ऐसा ही सही, तो प्रिय , सुभद्र, अब मुझे जाना होगा । ”

“ अभी नहीं देवी अम्बपाली !

अम्बपाली ने प्रश्नसूचक ढंग से युवक की ओर देखा ।

युवक ने कहा - “ तुम्हें फिर नृत्य करना होगा । ”

“ नृत्य ? ”

“ हां , और उसमें कठिनाई यह होगी कि मैं वीणा न बजा सकूँगा। ”

“ परन्तु.... ”

“ मैं तुम्हारी नृत्य - छवि का चित्र खींचूंगा । ”

“ परन्तु अब नृत्य नहीं होगा । ”

“ निस्सन्देह इस बार नृत्य होगा तो प्रलय हो जाएगी , परन्तु नृत्य का अभिनय होगा। ”

“ अभिनय ? ”

“ हां , वह भी अनेक बार। ”

“ अनेक बार ! ”

“ मुझे प्रत्येक भाव-विभाव को चित्र में अंकित करना होगा देवी ! ”

“ और मेरा आवास में जाना ? ”

“ तब तक स्थगित रहेगा। ”

“ किन्त... “ अम्बपाली चुप रहीं ।

युवक ने कहा - “ किन्तु क्या देवी ? ”

“ यहां क्यों ? तुम आवास में आकर चित्र उतारो। ”

“ तुम्हारे आवास में ! जो सार्वजनिक है! जो तुम्हें तुम्हारे शुल्क में दिया गया है! देवी अम्बपाली, मैं लिच्छवि गणतन्त्र का विषय नहीं हूं । मैं इस धिक्कृत कानून को सहन नहीं कर सकता , जिसके आधार पर तुम्हारी अप्रतिम प्रतिमा बलात् सार्वजनिक कर दी गई । ”

“ तो वह तुम्हारी दृष्टि में एक व्यक्ति की वासना की सामग्री होनी चाहिए थी ? ”

“ क्यों नहीं, और वह एक व्यक्ति तुम्हीं स्वयं , और कोई नहीं ।

“ यह तो बड़ी अद्भुत बात तुमने कही भद्र, किन्तु मैं अपनी ही वासना की सामग्री कैसे ? ”

“ सभी तो ऐसे हैं देवी! व्याकरण का जो उत्तम पुरुष है, वही पृथ्वी की सबसे बड़ी इकाई है और वही अपनी वासना का भोक्ता है। उसकी वासना ही अपनी स्पर्धा के लिए , व्याकरण का मध्यम पुरुष नियत करती है । ”

अम्बपाली चुपचाप सुनती रहीं। युवक ने फिर कहा - “ इसी से तो जब तुम्हारी वासना का भोग , तुम्हारा वह अलौकिक व्यक्तित्व बलात् सार्वजनिक कर दिया गया , तब तुम कितनी क्षुब्ध हो गई थीं ! ”

अम्बपाली इस असाधारण तर्क से अप्रतिभ हो गईं । वह सोच रही थीं , पृथ्वी पर एक ऐसा व्यक्ति अन्ततः है तो , जिसके तलवों में मेरे आवास पर आते छाले पड़ते हैं , जो मुझे सार्वजनिक स्त्री के रूप में नहीं देख सकता । आह, मैं ऐसे पुरुष को हृदय देकर कृतकृत्य हुई , शरीर भी देती तो शरीर धन्य हो जाता। परन्तु इसे तो मैं बेच चुकी मुंह- मांगे मूल्य पर, हाय रे वेश्या जीवन ! ”

युवक ने कहा - “ क्या सोच रही हो देवी ? ”

“ यही कि जिसने प्राणों की रक्षा की उसका अनुरोध टाला कैसे जा सकता है ? ”

सुभद्र ने मुस्कराकर रंग की प्यालियों को ठीक किया और कूची हाथ में लेकर चित्रपट को तैयार करने लगा । कुछ ही क्षणों में दोनों कलाकार अपनी - अपनी कलाओं में डूब गए । चित्रकार जैसी - जैसी भाव -भंगी का संकेत अम्बपाली को करता , अम्बपाली यन्त्रचालिता के समान उसका पालन करती जाती थी । देखते - ही - देखते चित्रपट पर दिव्य लोकोत्तर भंगिमा - युक्त नृत्य की छवि अंकित होती गई । दोपहर हो गई, दोनों कलाकार थककर चूर - चूर हो गए। श्रमबिन्दु उनके चेहरों पर छा गए। हंसकर अम्बपाली ने कहा

“ अब नहीं, अब पेट में आंतें नृत्य कर रही हैं ; उतारोगे तुम इनकी छवि प्रिय ? ”

युवक सरल भाव से हंस पड़ा । उसने हाथ की कूची एक ओर डाल दी और अम्बपाली के पाश्र्व में शिला - खण्ड पर आ बैठा । अम्बपाली के शरीर में सिहरन दौड़ गई ।

युवक ने कहा - “ देवी अम्बपाली! कभी हम इन दुर्लभ क्षणों के मूल्य का भी अंकन करेंगे ? ”

“ उसके लिए तो जीवन की अगणित सांसें हैं । किन्तु तुम भी करोगे प्रिय ? ”

“ ओह, तुमने मेरी शक्ति देखी तो ? ”

“ देखी है । उस समय एक ही वार में अनायास ही सिंह को मार डालने में और इसके बाद उससे भी कम प्रयास से अधम अम्बपाली को आक्रान्त कर डालने में । अब और भी कुछ शक्ति -प्रदर्शन करोगे ? ”

“ इन दुर्लभ क्षणों के मूल्य का अंकन करने में देवी अम्बपाली, आपकी अभी बखानी हई मेरी सम्पूर्ण शक्ति भी समर्थ नहीं होगी। ”

वह हठात् मौन हो गया । अम्बपाली पीपल के पत्ते के समान कांपने लगीं । युवक का शरीर उनके वस्त्रों से छू रहा था । मध्याह्न का सुखद पवन धीरे - धीरे कुटिया में तैर रहा था , उसी से आन्दोलित होकर अम्बपाली की दो - एक अलकावलियां उनके पूर्ण चन्द्र के समान ललाट पर क्रीड़ा कर रही थीं । युवक ने अम्बपाली का हाथ अपने दोनों हाथों में लेकर कहा - “ देवी अम्बपाली , यदि मैं यह कहूं कि मैं तुम्हें प्यार करता हूं तो यह वास्तव में बहुत कम है ; मैं जो कुछ भी वाणी से कहूं अथवा अंग - परिचालन से प्रकट करूं वह सभी कम हैं , बहुत ही कम । फिर भी मैं एक बात कहूंगा देवी , अब और फिर भी सदैव याद रखना कि मैं तुम्हारा उपासक हूं , तुम्हारे अंग -प्रत्यंग का , रूप -यौवन का , तुम्हारी गर्वीली दृष्टि का , संस्कृत आत्मा का । तुम सप्तभूमि प्रासाद में विश्व की सम्पदाओं को चरण -तल से रूंधते हुए सम्राटों और कोट्याधिपतियों के द्वारा मणिमुक्ता के ढेरों के बीच में बैठी हुई जब भी अपने इस अकिंचन उपासक का ध्यान करोगी - इसे अप्रतिम ही पाओगी । ”

युवक जड़वत् अम्बपाली के चरणतल में खिसककर गिर गया । अम्बपाली भी अर्ध सुप्त - सी उसके ऊपर झुक गई । वह पीली पड़ गई थीं , उनका हृदय धड़क रहा था । बड़ी देर बाद उसके वक्षस्थल पर अपना सिर रखे हुए अम्बपाली ने धीरे से कहा - “ तुमने अच्छा नहीं किया भद्र, मेरा सर्वस्व हरण कर लिया , अब मैं जीऊंगी कैसे यह तो कहो ? ”उन्होंने युवक के प्रशस्त वक्ष में अपना मुंह छिपा लिया और सिसक -सिसककर बालिका की भांति रोने लगीं । फिर एकाएक उन्होंने सिर उठाकर कहा

“ मैं नहीं जानती तुम कौन हो , मुनष्य हो कि देव , गन्धर्व, किन्नर या कोई मायावी दैत्य हो , मुझे तुमने समाप्त कर दिया है भद्र ! चलो , विश्व के उस अतल तल पर , जहां हम कल नृत्य करते - करते पहुंच गए थे, वहां हम - तुम एक - दूसरे में अपने को खोकर अखण्ड इकाई की भांति रहें । ”

“ सो तो रहने ही लगे प्रियतमे , कल उस मुद्रावस्था में जहां पहुंचकर हम लोग एक हो गए हैं , वहां अखण्ड इकाई के रूप में हम यावच्चन्द्र दिवाकर रहेंगे। अब यह हमारा तुम्हारा पार्थिव शरीर कहीं भी रहकर अपने भोग भोगे , इससे क्या ! और यदि हम इसकी वासना ही के पीछे दौड़ें तो प्रिये, प्रियतमे , मैं अधम अपरिचित तो कुछ नहीं हूं, पर तुम्हारा सारा वैयक्तिक महत्त्व नष्ट हो जाएगा । ”

वह धीरे से उठा , अपने वक्ष पर जड़वत् पड़ी अम्बपाली को कोमल सहारा देकर उसका मुख ऊंचाकिया ।

एक मृद्- मधुर चुम्बन उसके अधरों पर और नेत्रों पर अंकित किया और कहा - “ कातर मत हो प्रिये प्राणाधिके , तुम - सी बाला पृथ्वी पर कदाचित् ही कोई हुई होगी, मैं तुम्हें अनुमति देता हूं - अपनी विजयिनी भावनाओं को विश्व की सम्पदा के चूड़पर्यन्त ले जाना , मेरी शुभकामना तुम्हारे साथ रहेगी प्रिये ! ”

अम्बपाली के मुंह से शब्द नहीं निकला ।

आहार करके सुभद्र ने कुछ समय के लिए कुटी से बाहर जाने की अनुमति लेकर कहा

“ मैं सूर्यास्त से प्रथम ही आ जाऊंगा प्रिये, तुम थोड़ा विश्राम कर लेना । तब तक यहां कोई भय नहीं है।

और सूर्यास्त के समय सन्ध्या के अस्तंगत लाल प्रकाश के नीचे गहरी श्यामच्छटा शोभा को निरखते हुए, वे दोनों असाधारण प्रेमी कुटी-द्वार पर स्थित शिलाखण्ड पर बैठे अपनी - अपनी आत्मा को विभोर कर रहे थे।

100 . अभिन्न हृदय : वैशाली की नगरवधू

उसी शिलाखण्ड पर गहन - तिमिराच्छन्न नीलाकाश में हीरे की भांति चमकते हुए तारों की परछाईं में दोनों प्रेमी हृदय एक - दूसरे को आप्यायित कर रहे थे। युवक शिला का ढासना लगाए बैठा था और अम्बपाली उसकी गोद में सिर रखकर लेटी हुई थी ।

अम्बपाली ने कहा - “ प्रिय , क्या भोग ही प्रेम का पुरस्कार नहीं है ? ”

“ नहीं प्रिये, भोग तो वासना का यत्किंचित् प्रतिकार है। ”

“ और वासना ? क्या वासना प्रेम का पुष्प नहीं ? ”

“ नहीं प्रिये , वासना क्षुद्र इन्द्रियों का नगण्य विकार है। ”

“ परन्तु प्रिय , इस वासना और भोग ने तो विश्व की सम्पदाओं को भी जीत लिया है। ”

“ विश्व की सम्पदाएं भी तो प्रिये, भोग का ही भोग हैं । ”

“ जब विश्व की सम्पदाएं भोग और वासनाओं को अर्पण कर दी गईं, तब प्रेम के लिए क्या रह गया ? ”

“ आनन्द ! ”

“ कौन- सा आनन्द प्रिय ? ”

“ जो इन्द्रिय के भोगों से पृथक् और मन की वासना से दूर है; जिसमें आकांक्षा भी नहीं, उसकी पूर्ति का प्रयास भी नहीं और पूर्ति होने पर विरक्ति भी नहीं, जैसी कि भोगों में और वासना में है। ”

“ परन्तु प्रिय , शरीर में तो वासना - ही - वासना है और भोग ही उसे सार्थक करते हैं

“ इसी से तो प्रेम के शैशव ही में शरीर भोगों में व्यय हो जाता है, प्रेम का स्वाद उसे मिल कहां पाता है ? प्रेम को विकसित होने को समय ही कहां मिलता है ! ”

“ तब तो .... ”

“ हां - हां प्रिये , यह मानव का परम दुर्भाग्य है, क्योंकि प्रेम तो विश्व - प्राणियों में उसे ही प्राप्त है , भोग और वासना तो पशु - पक्षियों में भी है पर मनुष्य पशु-भाव से तनिक भी तो आगे नहीं बढ़ पाता है। ”

“ तब तो प्रिय , यौवन और सौन्दर्य कुछ रहे ही नहीं। ”

“ क्यों नहीं , मनुष्य का हृदय तो कला का उद्गम है। यौवन और सौंदर्य - ये दो ही तो कला के मूलाधार हैं । विश्व की सारी ही कलाएं इसी में से उद्भासित हुई हैं प्रिये ; इसी से , यदि कोई यथार्थ पौरुषवान् पुरुष हो और यौवन और सौन्दर्य को वासना और भोगों की लपटों में झुलसने से बचा सके , तो उसे प्रेम का रस चखने को मिल सकता है । प्रिये, देवी अम्बपाली , वह रस अमोघ है । वह आनन्द का स्रोत है, वर्णनातीत है। उसमें आकांक्षा नहीं , वैसे ही तप्ति भी नहीं, इसी प्रकार विरक्ति भी नहीं। वह तो जैसे जीवन है, अनन्त प्रवाहयुक्त शाश्वत जीवन , अतिमधुर , अतिरम्य , अतिमनोरम ! जो कोई उसे पा लेता है उसका जीवन धन्य हो जाता है। ”

अम्बपाली ने दोनों मृणाल - भुज युवक के कण्ठ में डालकर कहा - “ प्रियतम, मैंने उसे पा लिया। ”

“ तो तुम निहाल हो गईं प्रिये, प्राणाधिके ! ”

“ मैं निहाल हो गई, निहाल हो गई , अपना सुख, अपना आनन्द मैं कैसे तुम्हें बताऊं ? ”उन्होंने आनन्द-विह्वल होकर कहा ।

“ आवश्यकता नहीं प्रिये ! प्रेम की अथाह धारा में प्रेम की मन्दाकिनी मिल गई है , तुम्हारे अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति मैं अपने रक्त - प्रवाह में कर रहा हूं। ”

युवक ने धीरे से नीचे झुककर अम्बपाली के प्रफुल्ल होंठों का चुम्बन लिया । अम्बपाली ने भी चुम्बन का प्रत्युत्तर देकर युवक के वक्षस्थल में अपना मुंह छिपा लिया ।

कुछ देर बाद युवक ने कहा

“ मौन कैसे हो गई प्रिये ? ”

“ कुछ कहने को तो रहा ही नहीं अब। ”

“ सब - कुछ जान गईं ? ”

“ सब- कुछ! ”

“ सब- कुछ समझ गईं ? ”

“ सब - कुछ। ”

“ तुम धन्य हुईं प्रिये , तुम अमर हो गईं!

युवक ने धीरे से अम्बपाली को अपने बाहपाश से मुक्त करके कहा

“ तो अब विदा प्रिये, कल के सुप्रभात तक । ”

अम्बपाली का मुख सूख गया । उसने कहा

“ तुम कहां सोओगे ? ”

“ सामने अनेक गुफाएं हैं, किसी एक में । ”

“ किन्तु .... ”

“ किन्तु नहीं प्रिये ! ”युवक ने हंसकर एक बार अम्बपाली के होंठों पर और एक चुम्बन अंकित किया और भारी बर्छा कंधे पर रख, कंधे का वस्त्र ठीक कर , अंधकार में विलीन हो गया ।

अम्बपाली, देवी अम्बपाली उस भूमि पर जहां अभी -अभी युवक के चरण पड़े थे, अपना वक्ष रगड़ -रगड़कर आनन्द - विह्वल हो आंसुओं की गंगा बहाने लगीं ।

वैशाली की नगरवधू : अध्याय (63-80)

वैशाली की नगरवधू : अध्याय (101-120)