वही इन्द्रधनुष (कहानी) : विवेकी राय

Vahi Indradhanush (Hindi Story) : Viveki Rai

पश्चिम ओर, जिधर मुँह करके वह खड़ा था, ठीक उसके सामने एक खूब बड़ा-सा इन्द्रधनुष उग आया। उसे लगा, भीतर का इन्द्रधनुष बाहर कढ़कर टँग गया है। कहीं टूट नहीं, एकदम पूर्ण इन्द्रधनुष, आसमान की ऊँचाई को छूता हुआ, पूरे क्षितिज को घेरकर, सतरंगी निखार का, तरल ज्योति-पथ, आँख-मन-प्राण समस्त क्षणों को समेटकर अपने में लीन कर लेने वाला।
कोई सपना नहीं, जादू नहीं, कल्पना नहीं, बिल्कुल ही सामने नमूदार है, एकदम पास में जैसे दोनों हाथ बढ़ाकर उसे पकड़ लिया जा सकता है। ऐसा इन्द्रधनुष उग आया, नदी उस पार बिना किसी सूचना के, बिना हल्ला-गुल्ला किये।
वह नदी भूल गया, नाव भूल गया। एक बार मुँह से निकला, ‘ऊगत ऊगे माहि भरै !’ मगर क्या सचमुच ? किसकी जमीन भरेगी ? शरद के सौभाग्य-जल की बूँदों में उसका मन नहा रहा था। पानी में खड़े-खड़े एक बार फिर उसके कानों में चूड़ियों की खनखनाहट, मुक्त खिलखिलाहट और कंठवीणा के कुछ बोल गूँज गये। फिर एक बार एक गंगाजली प्रतिभा उसकी आँखों में लहरा गयी।

भोजन के लिए पीढ़े पर बैठा तो पीछे चुहान घर में, कोठिला के ओट के पीछे कुछेक क्षणों का समारोह हो गया और वही आर-पार का संग, लेकिन कितना जोरदार !
वह कल ही वहाँ गया था। जरूरी काम था। नहीं तो भदवारी की शेष बीहड़ता में वह ‘यात्रा’ नहीं करता। वहाँ पहुँचा तो अभी दिन था। दोस्त ने खूब खातिर की। उसे मालूम था कि ‘वह’ है और एक बड़ी थाली में बड़ी उदारता के साथ भरकर ढेर सी पकौड़ी आयीं। तेल-मसाले में तर आम के अचार की एक बड़ी-सी सलगी फट्ठी और उसी तरह मिरचे का भी एक भीमकाय अचार। देखकर ही मारे ‘मिठास’ के उसका मन भर गया।

यह उसके दोस्त की बीवी है। उसे वह अच्छी तरह जानता है। एकाध बार देखा भी है। खूबसूरती में जवाब नहीं, लम्बी, छरहरी सोनगुड़िया। संयोग नहीं बैठा, कट गयी, नहीं तो उसकी शादी ‘उसी’ के साथ लगी थी। यह कोई चार-पाँच साल पहले की बात है।
‘‘थके होंगे ?’’ दोस्त ने पूछा था।
‘‘बिलकुल ही नहीं ?’’ उसने जवाब दिया।
वास्तव में वह बहुत ‘सुख’ अनुभव कर रहा था। दोस्त का वह गाँव उस दिन बहुत हँसता लगता था। मित्र के दरवाजे पर रौनक बरस रही थी। मच्छरों के डर से ढेर-सी करसी एक जगह कोने में रखकर धुआँ कर दिया गया था। मोटा-कड़ा धुआँ गुम्मज बाँधकर पहले तो बैठक में अँड़स गया और फिर बाहर फैलने लगा। बैलों का सारीघर बैठक से लगा था। उसमें भी धुआँ भरा था और उसी बीच बैठकर खिला-पिलाकर हटाये गये बैल ‘आँख’ मूँदकर जुगाली कर रहे थे। उधर धुएँ से मिल एक अजीब-सी गीली-गुमसाइन गोबरही-गंध बैठक में आ रही थी। मगर यह धुआँ और गंध जब भी उसके नथुने पर धक्का देतीं, फिसल जातीं और वह कैसे आराम से बीड़ी दगाए पड़ा था।

इन सब बातों को याद करने में भी एक सुख था मगर सामने सवाल था-नदी पार जाने का, नाव का। उस पार वाले आदमी ने स्वर ऊँचा कर पूँछा, ‘‘अरे भाई, नाव का कहीं पता है ?’’
‘‘बस कहीं से आती होगी।’ उसने उत्तर दिया।
‘‘और अगर नहीं आयी तो ?’’
इस ‘तो’ का उत्तर उसके पास नहीं था। उसने अब कुछ उलझन का अनुभव किया। कई आवश्यक काम थे, फिर इस पार तट डूबा था। और पानी उतने स्थान पर कीचड़ था। अतः घुट्टी भर पानी में खड़ा था। कब तक ऐसे खड़ा रहा जा सकता है ! उसने जोर लगाकर सोचा, यह पानी जमकर सफेद संगमरमर की चट्टान जैसा हो जाता तो उस पार पहुँच जाना कितना आसान हो जाता !

तभी उसे याद आया कि कभी ऐसा हो जाता है तो इस सुविधा का लाभ तो सबको हो जायेगा और उसकी कल्पना का स्वाद फीका हो गया। जब उसके कारण पानी जमकर पुल हो जाता है तो मजा भी उसी को मिले ! या उसकी मरजी से दूसरों को मिले। एक हलकी खिजलाहट के बीच एक बार उस पार उसने निगाह दौड़ाई और ठीक उस इन्द्रधनुष के फाटक के बीचोंबीच एक स्त्री की आड़ में एक वीर बधूटी-सी एक झाँकी पाकर वह फिर आठ-दस घंटे पीछे वाले सुखद अतीत में खो गया। उसके दोस्त ने रात में भोजन के लिए जगाया तो उसे रोमांच हो आया। हवेली में घुसते उसे लगा कि हर चीज पर उसके आने की छाप है। दालान में एक अतिरिक्त चिराग रखा गया है। नये सिरे से झाड़ू लगा है। आँगन में जिस ओर पानी गिरता है, हाथ लगा दिया गया है और बहुत साफ लग रहा है। एक ओर आँगन में एक जोड़ी खड़ाऊँ गुनगुने पानी के साथ रखा है। अनावश्यक चीजें हटा दी गयी हैं।

पैर धोते-धोते उसका मन एक जोड़ी आँखों पर अटका रहा। किसी न किसी ओर से निशाना बाँध गया होगा। चौके में आते-जाते तो वह जैसे एकदम उड़ रहा था। चौके में नयी माटी से ‘ठहर’ दी गई थी जिसकी ताजी-सोंधी गंध अभी गई नहीं थी। पीढ़ा भी धो-पोंछकर साफ किया गया लगता था। लोटा-गिलास चम्मच।
पीढ़े पर बैठते ही साड़ी की खरखराहट, चूड़ियों की खनक और कुछ साँय से कही गयी बात की आहट पीछे कोठिले की ओट से मिली। इसी बीच परसी गई थाली दोस्त ने आगे कर दी। सोनाचूर की सुवास से तबीयत भर गई।
‘‘आप भी बैठ जाइये न !’’ उसने कहा।
संकोच छोड़कर अब उसके दोस्त भी एक पीढ़ा खींच बगल में कुछ उधर हटकर इस तरह बैठ गये कि आवश्यकता पड़ने पर चीजें भीतर से बाएँ हाथ सरकाया करेंगे।
लक्ष्मीनारायण हुआ और दो-दो हाथ शुरु ही हुआ था कि भीतर से ‘हाय राम’ फिर एक खिलखिलाहट और फिर ‘घी तो आग पर ही रह गया’ बहुत धीमे पर साफ सुनाई पड़ा। उसने जिन्दगी में पहली बार कोयल की आवाज सुनी थी। एक जिन्दा रस।

‘‘तब यहाँ कौन तुम्हारा लजारू है, उठकर दे दो।’’ उसके दोस्त ने कहा। और जो आँचल से जलती कटोरी पकड़कर दाल में घी छोड़ा गया तो वह पिड़-पिड़-पिड़ करता उसके अंतर में, गहरे अंतर में अपनी सुगन्धित तरलता लिये उतरता चला गया और फैल गया। उसने देखा तो जादुई खनक की खान कलाई को और रेशमी उँगलियों को, पर अधघूँघट में अनदेखी अंचल आँखें और बिहँसते होंठ की भी देखारी हो गई।
न हाथ-पैर बजा, न शोर-हंगामा और एक घटना घट गई। दोस्त की बीवी ने नीले पाढ़ की चेक डिजाइन वाली हलके गुलाबी रंग की रेशमी साड़ी पहन रखी थी। उसे यह रंग बहुत पसंद है। नीला और गुलाबी : विश्वास और भाव। उसने मन-ही-मन सोचा अबकी धान उतरा तो ऐसी ही साड़ी अपनी बीवी के लिए खरीदेगा।

भोजन समाप्त कर अँचवते-अँचवते वह एक निर्णयात्मक शब्दावली पर पहुँच चुका था-इन्द्रधनुष में लिपटा चम्पा का ताजा फूल-और दूर-दूर से ही एक ऐसा अज्ञात नशा सवार हुआ कि कब भोजन खतम हुआ, कब खरिका-पान करके वह बाहर बैठक में आया, कब संक्षेप में काम की बातें हो गईं, कब सुबह का प्रोग्राम बना और कब वह सो गया, कुछ पता नहीं चला।
और उसी झाँक में कब सुबह ही तैयार होकर दोस्त से विदा माँग बीहड़ बरसाती मंजिल तय कर वह नदी पर आ गया, यह भी पता नहीं चला।
पछिवा सिसकारी दे रही थी और हलकी ठंडक गुदगुदा रही थी। सवेरे ही सवेरे देव घिर आये। झींसी पड़ने लगी। वह कपड़ों को गीला कर देने के लिए काफी थी। उसने छाता तान लिया।

उस पार तीन स्त्रियाँ थीं और एक पुरुष। ये लोग भी उसी की तरह प्रतीक्षातुर प्रतीत होते थे। नदी बहुत चौड़े पाट की नहीं थी, परन्तु इस पार और उसे पार में अंतर तो था ही। वक्त गुजारने के लिए उस पार वालों से बातचीत करना भी कठिन था। उसने देखा उस पार वालों के पास छाता नहीं है। पुरुष बेचैनी से नाव के लिए इधर-उधर ताक-झाँक कर रहा है। उसे फुहार की तनिक परवाह नहीं है। वह साधारण मोटे कुरते-धोती में एक किसान लग रहा है।

अचानक वह चौंक उठा। वह स्त्री किसी काम से उठ गई तो उसकी आड़ में बैठी स्त्री की झलक साफ हो गई। वही चेक डिजाइन, वही गुलाबी रंग, वही इन्द्रधनुष, इन्द्रधनुष के भीतर इन्द्रधनुष, लेकिन यह दूसरा गठरी की तरह क्यों सिकुड़ा, धरती में गड़ा अति संकुचित क्यों ? इसके भी कोमल कलाइयाँ होंगी, कलाइयों में चूड़ियाँ होगीं और चूड़ियों में खनक होगी। लेकिन वैसी खनक यहाँ कहाँ ? वह तो पीछे दूर छूट गई, बहुत दूर, जहाँ के धुले बागों के पत्तों में अजब तेज गाढ़ी हरियाली है; जहाँ की माटी में सुबास है। एक बार फिर बहुत गहरे डूब गया। और क्षणभर बाद ऊपर आया तो वही मनहूस पानी ! लेकिन अबकी बार उसे लगा कि यह नदी का पानी नहीं, चमचमाती सड़क है। सड़क की इस पटरी पर वह खड़ा है और उस पटरी पर एक सजीला समारोह है, जिसमें इन्द्रधनुष के विशाल फाटक से होकर जाना है। उसे साफ लगा कि इस विशाल फाटक के दो सतरंगी खम्भे ठीक इस पार धरती में गड़े हैं। रंगारंग ज्योति के ये खम्भे गोल घेरा बनाते हुए आसमान में उठते-उठते पूरी ऊँचाई पर जाकर मिल गये हैं। अमरावती का फाटक, गोलोक का सिंहद्वार कि बैकुंठ की पवित्र पौर है ?

उसने देखा इन्द्रधनुष के फाटक के भीतर वह किसान बौने की तरह लग रहा है। वह बबूल का पेड़ एक मामूली झाड़ी की तरह लग रहा है। दूर-दूर के बगीचे मरकत प्राचीर की तरह लग रहे हैं। और वह नारी ? विशाल, गोल, रंगों के झिलमिल मेहराबी मण्डप के बीच इँगुरौटी की तरह लुढ़की है। कौन लूट रहा है कि लाज का ऐसा बचाव ? इन्द्रधनुष धरती में धँस क्यों जाय ? पानी में खड़ा होकर वास्तव में उसका मछुआ मन दो पारदर्शी चंचल मछलियों की झलक के लिए छटपटा उठा।

उसके मन में एक बात आयी मगर अपनी मूर्खता पर स्वयं हँस पड़ा। साड़ी की तरह साड़ी होती है, रंग की तरह रंग होता है और औरत की तरह औरत होती है। उस इन्द्रधनुष को देखा और अब वह इसे भी देख लेगा, उसके भीतर से, उस फाटक से होकर वह गुजरेगा, दुनिया का एक खुशकिस्मत इन्सान, लेकिन यह पानी ? इतनी देर बाद वह पहली बार क्षुब्ध हुआ।
पानी चुपचाप बह रहा था। धरती पर सरकती यह चंचल धारा और आसमान में उभर आयी क्षणजीवी विविध रंगों की अचंचल मणि-मेखला ! उसने जोर से सोचा, उसे इसी दम उस पार जाना है। समय चूक न जाय।

इन्द्रधनुष आसमान में उसी गम्भीर आवाज से छाया था। बल्कि उसके ठीक समानान्तर ऊपर से एक और पतली धार की तरह हलके-हलके उभर आया। नीचे चेक डिजाइन और गुलाबी रंग का रहस्य उसी प्रकार अनखुला था। नाव उसी प्रकार लापता थी। अथाह पानी सामने उसी तरह लहरा रहा था। सब वही था, मगर कहीं कुछ जरूर बदल गया था। उसने बंडी और चादर लपेटकर सिर पर रखा। उसके ऊपर छाता धोती से कसकर बाँध लँगोट पहने पानी में उतर गया और दो हाथ चलाया कि दूसरे किनारे की माटी मिल गई, लेकिन सख्त अफसोस हुआ कि इन्द्रधनुष सच्चाई नहीं है।

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