वह लड़की (कहानी) : सआदत हसन मंटो
Vah Ladki (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto
सवा-चार बज चुके थे लेकिन धूप में वही तमाज़त थी जो दोपहर को बारह बजे के क़रीब थी। उस ने बालकनी में आ कर बाहर देखा तो उसे एक लड़की नज़र आई जो बज़ाहिर धूप से बचने के लिए एक साया-दार दरख़्त की छांव में आलती पालती मारे बैठी थी।
उस का रंग गहरा सांवला था। इतना सांवला कि वो दरख़्त की छाओं का एक हिस्सा मालूम होता था। सुरेंद्र ने जब उस को देखा तो उस ने महसूस किया कि वो उस की क़ुरबत चाहता है, हालाँ कि वो इस मौसम में किसी की क़ुरबत की भी ख़्वाहिश न कर सकता था।
मौसम बहुत वाहियात क़िस्म का था। सवा-चार बज चुके थे। सूरज ग़ुरूब होने की तैय्यारियां कर रहा था। लेकिन मौसम निहायत ज़लील था। पसीना था कि छूटा जा रहा था। ख़ुदा मालूम कहाँ से मसामों के ज़रिए इतना पानी निकल रहा था।
सुरेंद्र ने कई मर्तबा ग़ौर किया था कि पानी उस ने ज़्यादा से ज़्यादा चार घंटों में सिर्फ़ एक गिलास पिया होगा मगर पसीना बिला-मुबालग़ा चार गिलास निकला होगा। आख़िर ये कहाँ से आया!
जब उस ने लड़की को दरख़्त की छांव में आलती पालती मारे देखा तो उस ने सोचा कि दुनिया में सब से ख़ुश यही है जिसे धूप की परवाह है न मौसम की।
सुरेंद्र पसीने में लत-पत था। उस की बनियान उस के जिस्म के साथ बहुत बुरी तरह चिम्टी हुई थी। वो कुछ इस तरह महसूस कर रहा था जैसे उस के बदन पर किसी ने मोबिल ऑयल मिल दिया है। लेकिन इस के बावजूद जब उस ने दरख़्त की छांव में बैठी हुई लड़की को देखा तो उस के जिस्म में ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो उस के पसीने के साथ घुल मिल जाये, उस के मसामों के अंदर दाख़िल हो जाये।
आसमान ख़ाकस्तरी था। कोई भी वसूक़ से नहीं कह सकता था कि बादल हैं या महेज़ गर्द-ओ-ग़ुबार। बहर-हाल, उस गर्द-ओ-ग़ुबार या बादलों के बावजूद धूप की झलक मौजूद थी और वो लड़की बड़े इत्मिनान से पीपल की छांव में बैठी सुस्ता रही थी।
सुरेंद्र ने अब की ग़ौर से उस की तरफ़ देखा। उस का रंग गहरा सांवला मगर नक़्श बहुत तीखे कि वो सुरेंद्र की आँखों में कई मर्तबा चुभे।
मज़दूर पेशा लड़की मालूम होती थी। ये भी मुम्किन था कि भिकारन हो। लेकिन सुरेंद्र उस के मुतअल्लिक़ कोई फ़ैसला नहीं कर सका था। असल में वो ये फ़ैसला कर रहा था कि आया उस लड़की को इशारा करना चाहिए या नहीं।
घर में वो बिलकुल अकेला था। उस की बहन मरी में थी। माँ भी उस के साथ थी। बाप मर चुका था। एक भाई, उस से छोटा, वो बोर्डिंग में रहता था। सुरेंद्र की उम्र सत्ताइस अट्ठाइस साल के क़रीब थी। उस से क़ब्ल वो अपनी दो अधेड़ उम्र की नौकरानियों से दो तीन मर्तबा सिलसिला लड़ा चुका था।
मालूम नहीं क्यूँ, लेकिन मौसम की ख़राबी के बावजूद सुरेंद्र के दिल में ये ख़्वाहिश हो रही थी कि वो पीपल की छांव में बैठी हुई लड़की के पास जाये या उसे ऊपर ही से इशारा करे ताकि वो उस के पास आ जाए, और वो दोनों एक दूसरे के पसीने में ग़ोता लगाएँ और किसी ना-मालूम जज़ीरे में पहुंच जाएँ।
सुरेंद्र ने बालकनी के कटहरे के पास खड़े हो कर ज़ोर से खंकारा मगर लड़की मुतवज्जे न हुई। सुरेंद्र ने जब कई मर्तबा ऐसा किया और कोई नतीजा बरामद न हुआ तो उस ने आवाज़ दी। “अरे भई....... ज़रा इधर देखो!”
मगर लड़की ने फिर भी उस की तरफ़ न देखा। वो अपनी पिंडली खुजलाती रही।
सुरेंद्र को बहुत उलझन हुई। अगर लड़की की बजाए कोई कुत्ता होता तो वो यक़ीनन उस की आवाज़ सुन कर उस की तरफ़ देखता। अगर उसे उस की ये आवाज़ ना-पसंद होती तो भौंकता मगर उस लड़की ने जैसे उस की आवाज़ सुनी ही नहीं थी। अगर सुनी थी तो अन सुनी कर दी थी।
सुरेंद्र दिल ही दिल में बहुत ख़फ़ीफ़ हो रहा था। उस ने एक बार बुलंद आवाज़ में उस लड़की को पुकारा। ए लड़की!
लड़की ने फिर भी उस की तरफ़ न देखा। झुँझला कर उस ने अपना मलमल का कुर्ता पहना और नीचे उतरा। जब उस लड़की के पास पहुंचा तो वो उसी तरह अपनी नंगी पिंडली खुजला रही थी।
सुरेंद्र उस के पास खड़ा हो गया। लड़की ने एक नज़र उस की तरफ़ देखा और शलवार नीची करके अपनी पिंडली ढाँप ली।
सुरेंद्र ने उस से पूछा। “तुम यहां क्या कर रही हो?”
लड़की ने जवाब दिया। “बैठी हूँ।”
“क्यों बैठी हो?”
लड़की उठ खड़ी हुई। “लो, अब खड़ी हो गई हूँ!”
सुरेंद्र बौखला गया। “इस से क्या होता है। सवाल तो ये है कि तुम इतनी देर से यहां बैठी क्या कर रही थीं?”
लड़की का चेहरा और ज़्यादा सांवला हो गया। “तुम चाहते क्या हो?”
सुरेंद्र ने थोड़ी देर अपने दिल को टिटोला। “मैं क्या चाहता हूँ....... मैं कुछ नहीं चाहता....... मैं घर में अकेला हूँ। अगर तुम मेरे साथ चलो तो बड़ी मेहरबानी होगी।”
लड़की के गहरे सांवले होंटों पर अजीब-ओ-ग़रीब किस्म की मुस्कुराहट नुमूदार हुई। “मेहरबानी.......काहे की मेहरबानी.......चलो!”
और दोनों चल दिए।
जब ऊपर पहुंचे तो लड़की सोफे की बजाय फ़र्श पर बैठ गई और अपनी पिंडली खुजलाने लगी। सुरेंद्र उस के पास खड़ा सोचता रहा कि अब उसे क्या करना चाहिए।
उस ने उसे ग़ौर से देखा। वो ख़ूबसूरत नहीं थी। लेकिन उस में वो तमाम कौसें और वो तमाम ख़ुतूत मौजूद थे जो एक जवान लड़की में मौजूद होते हैं। उस के कपड़े मैले थे, लेकिन इस के बावजूद उस का मज़बूत जिस्म उस के बाहर झांक रहा था।
सुरेंद्र ने उस से कहा। “यहां क्यूँ बैठी हो....... इधर सोफे पर बैठ जाओ!”
लड़की ने जवाब में सिर्फ़ इस क़द्र कहा। “नहीं!”
सुरेंद्र उस के पास फ़र्श पर बैठ गया। “तुम्हारी मर्ज़ी....... लो अब ये बताओ कि तुम कौन हो और दरख़्त के नीचे तुम इतनी देर से क्यूँ बैठी थीं?”
“मैं कौन हूँ और दरख़्त के नीचे मैं क्यूँ बैठी थी....... इस से तुम्हें कोई मतलब नहीं।” लड़की ने ये कह कर अपनी शलवार का पाइंचा नीचे कर लिया और पिंडली खुजलाना बंद कर दी।
सुरेंद्र उस वक़्त उस लड़की की जवानी के मुतअल्लिक़ सोच रहा था। वो उस का और उन दो उधेड़ उम्र की नौकरानियों का मुक़ाबला कर रहा था जिन से उस का दो तीन मर्तबा सिलसिला हो चुका था। वो महसूस कर रहा था कि वो उस लड़की के मुक़ाबले में ढीली ढाली थीं, जैसे बरसों की इस्तेमाल की हुई साइकिलें। लेकिन इस का हर पुर्ज़ा अपनी जगह पर कसा हुआ था।
सुरेंद्र ने उन अधेड़ उम्र की नौकरानियों से अपनी तरफ़ से कोई कोशिश नहीं की थी। वो ख़ुद उस को खींच कर अपनी कोठरियों में ले जाती थीं। मगर सुरेंद्र अब महसूस करता था कि ये सिलसिला उस को अब ख़ुद करना पड़ेगा, हालाँ कि उस की तकनीक से क़तआत नावाक़िफ़ था। बहरहाल। उस ने अपने एक बाज़ा को तैय्यार किया और उसे लड़की की उम्र में हमायल कर दिया।
लड़की ने एक ज़ोर का झटका दिया। “ये क्या कर रहे हो तुम?”
सुरेंद्र एक बार फिर बौखला गया। “मैं.......मैं....... कुछ भी नहीं।”
लड़की के गहरे साँवले होंटों पर अजीब क़िस्म की मुस्कुराहट नुमूदार हुई। “आराम से बैठे रहो!”
सुरेंद्र आराम से बैठ गया। मगर उस के सीने में हल-चल और ज़्यादा बढ़ गई। चुनांचे उस ने हिम्मत से काम लेकर लड़की को पकड़ कर अपने सीने के साथ भींच लिया।
लड़की ने बहुत हाथ पांव मारे,मगर सुरेंद्र की गिरिफ़्त मज़बूत थी। वो फ़र्श पर चित्त गिर पड़ी। सुरेंद्र उस के ऊपर था। उस ने धड़ा-धड़ उस के गहरे साँवले होंट चूमने शुरू कर दिए।
लड़की बेबस थी। सुरेंद्र का बोझ इतना था कि वो उसे उठा कर फेंक नहीं सकती थी। ब-वजह मजबूरी वो उस के गीले बोसे बर्दाश्त करती रही।
सुरेंद्र ने समझा कि वो राम हो गई है, चुनांचे उस ने मज़ीद दराज़ दस्ती शुरू की। उस की क़मीज़ के अंदर हाथ डाला। वो ख़ामोश रही। उस ने हाथ पांव चलाने बंद कर दिए। ऐसा मालूम होता था कि उस ने मदाफ़िअत को अब फ़ुज़ूल समझा है।
सुरेंद्र को अब यक़ीन हो गया कि मैदान उसी के हाथ रहेगा, चुनांचे उस ने दराज़ दस्ती छोड़ दी और उस से कहा। “चलो आओ, पलंग पर लेटते हैं।”
लड़की उठी और उस के साथ चल दी। दोनों पलंग पर लेट गए। साथ ही तिपाई पर एक तश्तरी में चंद माल्टे और एक तेज़ छुरी पड़ी थी। लड़की ने एक मालटा उठाया और सुरेंद्र से पूछा। “मैं खालूँ?”
“हाँ हाँ....... एक नहीं सब ख़ालो!”
सुरेंद्र ने छुरी उठाई और मालटा छीलने लगा, मगर लड़की ने उस से दोनों चीज़ें ले लीं।
“मैं ख़ुद छीलूंगी!”
उस ने बड़ी नफ़ासत से मालटा छीला। उस के छिलके उतारे। फांकों पर से सफ़ेद सफ़ेद झिल्ली हटाई। फिर फाँकें अलाहदा कीं। एक फांक सुरेंद्र को दी, दूसरी अपने मुँह में डाली और मज़ा लेते हुए पूछा। “तुम्हारे पास पिस्तौल है?”
सुरेंद्र ने जवाब दिया। “हाँ.......तुम्हें क्या करना है?”
लड़की के गहरे साँवले होंटों पर फिर वही अजीब-ओ-ग़रीब मुस्कुराहट नुमूदार हुई “मैं ने ऐसे ही पूछा था....... तुम जानते होना कि आज-कल हिंदू मुस्लिम फ़साद हो रहे हैं।”
सुरेंद्र ने दूसरा मालटा तश्तरी में से उठाया। “आज से हो रहे हैं....... बहुत दिनों से हो रहे हैं....... मैं अपने पिस्तौल से चार मुस्लमान मार चुका हूँ....... बड़े ख़ूनी क़िस्म के!”
“सच्च?” ये कह कर लड़की उठ खड़ी हुई। “मुझे ज़रा वो पिस्तौल तो दिखाना!”
सुरेंद्र उठा। दूसरे कमरे में जा कर उस ने अपने मेज़ का दराज़ खोला और पिस्तौल लेकर बाहर आया। “ये लो....... लेकिन ठहरो!” और उस ने पिस्तौल का सेफ़्टी कैच ठीक कर दिया क्यूँ कि उस में गोलियां भरी थीं।
लड़की ने पिस्तौल पकड़ा और सुरेंद्र से कहा। “मैं भी आज एक मुस्लमान मारूंगी” ये कह कर उस ने सेफ़्टी कैच को एक तरफ़ किया और सुरेंद्र पर पिस्तौल दाग़ दिया.......वो फ़र्श पर गिर पड़ा और जान कुनी की हालत में कराहने लगा। “ये तुम ने क्या क्या?”
लड़की के गहरे साँवले होंटों पर मुस्कुराहट नुमूदार हुई। “वो चार मुसलमान जो तुम ने मारे थे, उन में मेरा बाप भी था।!”