वह उदास लड़का (कहानी) : प्रकाश मनु

Vah Udaas Ladka (Hindi Story) : Prakash Manu

1

हमारे स्कूल में कोई प्रोग्राम हो, खासकर टूर का तो बच्चों को मुझे आनंदमोहन सर की सबसे पहले याद आती है। वे दूर से चीखते हुए आते हैं, “सर-सर, आप चलेंगे न हमारे साथ...चलेंगे? प्रॉमिस!”

और फिर उसी तरह दौड़ते-भागते और हाँफते हुए वे प्रिंसिपल मैडम मनचंदानी के पास जाकर कहेंगे, “मैडमजी, मैडमजी, आनंद सर भी जा रहे हैं न हमारे साथ?”

प्रिंसिपल मनचंदानी कुछ न कहकर मुसकराते हुए सिर हिला देती हैं। फिर मुझे बुलाकर थोड़ी खीजी हुई मुसकराहट के साथ कहती हैं, “पता नहीं आपने कौन सा जादू डाल दिया इन बच्चों पर। लीजिए, मि. आनंद, अब आप ही सँभालिए। इस बार का पिकनिक टूर भी आपके नाम!”

और मुझे ‘बंदा हाजिर है’ की मुद्रा में सिर झुकाते देर नहीं लगती।

अब आपसे झूठ क्यों बोलूँ, यह मुझे भी अच्छा लगता है, बहुत-बहुत अच्छा! बच्चे जब स्कूल की चारदीवारी से बाहर खुले जीवन के बीच आते हैं, प्रकृति की गोद में, तब यकीन मानिए, वे फूलों की तरह खुलते, खिलते हैं। और तब लगता है कि वे बच्चे हैं, सचमुच बच्चे! ऐसे ही क्षणों में उनके भीतर पढ़ाई के बोझ से दबा-कराहता बचपन मानो एकबारगी छनछनाने लगता है।

ऐसे इतने किस्से हैं मेरे पास, इतने किस्से कि आप सुनते-सुनते थक जाएँगे पर मेरे किस्से खत्म नहीं होंगे। और उनमें कुछ ऐसा है कि उन्हें कहते-सुनते हुए मैं अपने बचपन के जादुई संसार में चला जाता हूँ। बहुत-सी सख्त दीवारें किले की तड़कती हैं और...और...

खैर, आज मैं आपको सुनाऊँगा...और अगर पहले आपने नहीं सुना तो बब्बूजी के बारे में आप जरूर सुनना पसंद करेंगे। यों कहानी में ऐसा कुछ खास नहीं जिसमें ग्लैमर हो। पर बब्बूजी के चेहरे में ऐसा कुछ तो जरूर है कि उसे मैं भूल नहीं पाता और लाखों लाख चेहरों में वह अलग पहचान में आ जाता है।

2

कहानी कहते हुए फिर एक मुश्किल! असल में कहानी मैं आज के बब्बूजी की कहना चाहता हूँ, पर आज से पाँच-छह साल पहले के बब्बू का चेहरा बार-बार मेरी आँखों के सामने आ-जा रहा है। तब पहले-पहल उसे देखा था। इतना सीधा, इतना सरल और भोला कि उसे देखते ही लगता था, यह बच्चा भीतर-बाहर से सच्चा है। और झूठ तो यह बोल ही नहीं सकता। लिहाजा जो कुछ यह कह रहा है, उस पर यकीन करो!

हालाँकि ऐसा कहा भी क्या था उसने? वह तो चुप, एकदम चुप ही था और बहुत कुरेदने पर ही कोई एकाध वाक्य उसके मुँह से निकला था। बस, एकाध वाक्य ही। टुकड़ा-टुकड़ा...!

हुआ यह है कि हमारे स्कूल आदर्श गाँधी बाल निकेतन के बच्चों की पिकनिक का प्रोग्राम था। सबको दिल्ली जाने की उत्सुकता थी और बस में उन्होंने जो कोहराम मचाया और गाने गाए, उससे मालूम पड़ता था कि आज का दिन बच्चों के लिए एक ऐसा मजेदार, यादगार दिन होने वाला है जिसे वे हमेशा-हमेशा के लिए सँजोकर रखें। और सचमुच वैसा हुआ भी। हलकी-हलकी सर्दियों की शुरुआत थी और गुनगुनी धूप ने पिकनिक के मजे को और बढ़ा दिया था।

पुराना किला घूमने के बाद सबने साथ वाली झील में नौकाविहार का भरपूर आनंद लिया था। इस बीच खूब गाने गाए गए, खूब गपशप, खूब मजाक। यहाँ तक कि कुछ बच्चों ने मौज में आकर नाचकर भी दिखाया। पिकनिक ने जैसे सभी में ताजगी और मस्ती भर दी थी।

फिर रोज गार्डन देखने का प्रोग्राम बना और किस्म-किस्म के रंग-बिरंगे गुलाबों को देखकर बच्चे ऐसे मगन थे जैसे उन्होंने दुनिया का सबसे बड़ा खजाना पा लिया हो। आज पहली बार मुझे पता चला, बच्चों के नेहरू चाचा के गुलाब-प्रेम का रहस्य! बच्चे ही तो गुलाब हैं और गुलाब बच्चे जैसे सुर्ख और प्यारे-प्यारे।

रोज गार्डन देखते-देखते दोपहर हो गई थी। सब बच्चे अपना-अपना लंच लाए थे। लंच के बाद हम बाहर आकर खड़े हुए तो सब बच्चों की पहली फरमाइश थी आइसक्रीम! किसी को कप पसंद था, तो किसी को चॉकलेट बार। किसी की पसंद औरेंज बार!... अलबत्ता बच्चे आइसक्रीम खा रहे थे, तभी एक बच्चे की ओर मेरा ध्यान गया। इन बच्चों से अलग एक उदास और मैला-सा बच्चा। वह एक कोने में खड़ा आइसक्रीम खाते बच्चों को दूर से देख रहा था और उदास था, बेहद उदास।

कोने में खड़े उस साँवले बच्चे की उदासी जाने कैसी थी कि उसने मुझे झकझोर डाला।

अभी मैं उसके पास जाकर उससे बात करने की सोच ही रहा था कि उससे पहले ही एक छोटी-सी बच्ची पारुल उसकी तरफ बढ़ी। पारुल के हाथ में आइसक्रीम का कप था जिसे उसने अभी खाना शुरू नहीं किया था। उस मैले, उदास बच्चे को देखकर जाने कैसी करुणा पारुल के मन में उपजी होगी कि उसने खुद खाने के बजाय, वह कप उस बच्चे को देना पसंद किया। बड़े प्यार से बच्चे की ओर वह कप बढ़ाते हुए बोली, “खाओगे न...लो, खाओ!”

सुनकर बच्चे के चेहरे पर ऐसे भाव दिखाई पड़े जिनकी मैंने कल्पना नहीं की थी। बच्चा बिलकुल शांत अपनी जगह पर खड़ा था। अडोल। उसने जरा भी आगे बढ़कर आइसक्रीम का कप पकड़ने की उत्सुकता प्रकट नहीं की।

इस बीच पारुल ने आइसक्रीम वाले से एक औरेंज बार खरीद ली थी। उसे बच्चे को दिखाकर बोली, “तुम्हें शायद कप पसंद नहीं। तो लो, यह औरेंज बार खा लो।”

मैं गौर से, बल्कि खासी उत्सुकता से उस उदास, सहमे हुए बच्चे और पारुल की ओर देख रहा था।

पारुल की सहृदयता ने मुझे रिझा लिया था। मुझे हमेशा वह औरों से अलग और समझदार बच्ची लगती थी। पर आज तो उसने साबित भी कर दिया कि वह सचमुच सबसे अलग है।

और वह मैला, उदास बच्चा! उसके चेहरे पर अब भी झिझक थी। अब भी वह हाथ बढ़ाकर उस औरेंज बार को थामना नहीं चाह रहा था। और बच्चों के लिए यह हैरानी की बात थी। सभी अजीब ढंग से उसे देख रहे थे। अरे, यह कैसा बच्चा है जिसे मुफ्त में आइसक्रीम मिल रही है और वह उसे खाना नहीं चाहता।

लेकिन पारुल का हठ इतना अधिक था और उसके स्वर में इतनी मिठास और इतना अपनापन था कि बच्चा अबके मना नहीं कर पाया। उसने आगे हाथ बढ़ाया और औरेंज बार ले ली।...आइसक्रीम खाते हुए उसके चेहरे पर जो भाव थे, उन्हें प्रकट करना मेरे बस की बात नहीं। लगता था, उसकी एक आँख हँस रही है, एक रो रही है। जाहिर है, उसे बहुत दिनों के बाद आइसक्रीम खाने को मिली थी और इस खुशी की चमक उसकी आँखों में थी। पर बात सिर्फ इतनी ही नहीं थी। उसकी आँखों में कुछ और भी था। कुछ और जो मन में अजब तरह की करुणा भी पैदा कर रहा था।

बच्चा एक ओर कोने में जाकर बैठ गया और इत्मिनान से आइसक्रीम खाने लगा, जैसे उसके हर हिस्से का पूरा-पूरा आनंद ले रहा हो। खाने के बाद उसने आइसक्रीम के रैपर और डंडी को उठाकर खरगोश की शक्ल के बने एक बड़े से कूड़ेदान में डाल दिया।

इसके बाद फिर अपनी जगह जाकर बैठ गया और आसपास के लोगों को गौर से देखने लगा।...ऐसे जैसे उनमें कुछ ढूँढ़ रहा हो।

तभी जाने क्या हुआ, मेरे कदम खुद-ब-खुद उसकी ओर उठे। पास जाकर मैंने प्यार से उसके कंधे पर हाथ रखा और उसकी आँखों में झाँककर देखा। वह थोड़ा सकपका गया और शरमाकर नीचे देखने लगा।

“बड़े अच्छे बच्चे हो। क्या नाम है तुम्हारा?” मैंने पूछा।

“बब्बू...!” उसने धीरे से कहा।

“कहाँ रहते हो बब्बू?” अबके मैंने पूछा।

“यहाँ से थोड़ी दूर। वह झोंपड़ी दिखाई पड़ रही है न साहब, उसमें। वही घर है हमारा। मेरी माँ है और मैं...”

और फिर बब्बू ने मेरे कुरेदने पर, थोड़ा रुक-रुककर अपनी पूरी कहानी कह सुनाई।

3

बब्बू ने बताया कि उसकी कहानी हमेशा से ऐसी नहीं थी, बल्कि उसमें सुख के कुछ चाँदिया तार भी जुड़े हुए थे। उसके पिता थे, जो उसे बहुत प्यार करते थे और उसका घर एक हँसता-खेलता घर था। पिता एक कारखाने में मजदूर थे, पर सीधे-सच्चे थे। उनमें कोई ऐब नहीं था। जो कुछ घर में लाते, सब खुशी से खा लेते और घर सुख की लय-तान पर चल रहा था। लेकिन फिर पिता बीमार रहने लगे और समस्याओं पर समस्याएँ आने लगीं। शायद उस कारखाने में कोई तेज रसायन बनता था जिससे उनके फेफडे़ गलने लगे। इलाज के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए छह-आठ महीने में ही उन्होंने दम तोड़ दिया। पूरे घर पर जैसे बज्र गिर पड़ा हो। इसी दुख में माँ बीमार पड़ीं और वे आज तक ठीक नहीं हुईं।

अब छोटा-सा आठ-दस साल का बब्बू क्या करे? क्या न करे!

कोई काम करना तो उसे आता नहीं था। माँ बीमार थीं, पर दवाई के पैसे कहाँ से आएँ? घर में तो खाने के लिए दाने तक न थे। एक दिन बहुत सोचकर भीख माँगने के लिए घर से निकला, पर हिम्मत नहीं पड़ी। लोगों से काम माँगने जाता तो लोग दुर-दुर कर देते। उधर माँ की तबीयत लगातार बिगड़ती जा रही थी।

“और सच तो यह है बाबूजी, कि आज भी जब मैं यहाँ बैठा हूँ, तो कानों में वही माँ की हाय-हाय की आवाज सुनाई दे रही है। उसका पूरा बदन बुखार में तप रहा है। ऐसे में मेरा आइसक्रीम खाना और माँ की बीमारी...!” कहते-कहते बब्बू की आँखें गीली हो गईं।

शायद वह आगे कुछ और कहता, तो उसका रोना छूट पड़ता।

मैंने सौ रुपये का नोट निकालकर उसके हाथ में देते हुए कहा, “इसे रख लो। इन पैसों से माँ के लिए दवा ले आना। और ढूँढ़ो, शायद तुम्हें कोई काम मिले। ईमानदार और मेहनती लोगों हर जगह जरूरत है। तुम्हें एक न एक दिन रास्ता जरूर मिलेगा। और देखना, माँ भी तुम्हारी जरूर ठीक हो जाएँगी।”

इस पर बब्बू ने जिन निगाहों से मुझे देखा, उनमें अचरज के साथ-साथ गहरी कृतज्ञता थी।

“थैंक्यू साहब...थैंक्यू ...बहुत-बहुत धन्यवाद।’

उसके शब्द काँप रहे थे। आवाज भर्राई हुई थी।

4

उसके पाँच साल बाद बब्बू से अचानक फिर मुलाकात हो जाएगी, यह कब सोचा था? पर जीवन में कुछ ऐसे संयोग होते हैं जिनकी कल्पना तक चकित करती है।

हुआ यह कि बच्चों के साथ घूमने के लिए मैं रोज गार्डन गया था। नवंबर का महीना। सर्दियों की शुरुआत हो चुकी थी। ऐसे में किस्म-किस्म के गुलाबों की नुमाइश देखना खासा मजेदार लग रहा था और सबसे मजे की बात तो यह थी कि लाल गुलाबों के अलावा वहाँ सफेद, पीले और काले गुलाब बहुतायत में थे। देख-देखकर हम खुश थे, मानो किसी और दुनिया में जा पहुँचे हों, जहाँ रंगों और गंधों का एक निराला आकर्षण था। देखते-देखते सुबह से दोपहर हो गई।

कोई ढाई-तीन बजे हम रोज गार्डन से निकले तो खासी भूख लग चुकी थी। घर से खाने-पीने को कुछ खास लेकर नहीं चले थे। लिहाजा किसी साफ-सुथरे होटल की तलाश में थे। चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखा। दूर एक नीला बोर्ड चमकता दिखाई दिया। बब्बू पूरी वाला। दुकान पर लोगों की भीड़ भी खासी थी। नन्ही बोली, “चलो पापा, वहीं चलें!” और हम सबके पैर उसी ओर बढ़ चले।

तब तक अंदाजा नहीं था कि वहाँ एक नहीं, दो-दो आश्चर्य हमारे इंतजार कर रहे हैं। एक तो इतनी अच्छी और इतनी सस्ती पूरी-भाजी वहाँ मिलेगी, इसका हमें बिलकुल अंदाजा नहीं था। दूसरा यह तो शायद हम कल्पना कर ही नहीं सकते थे कि वहाँ हम अपनी कहानी के कथानायक से एक बिलकुल भिन्न रूप में हमारी मुलाकात होगी।

सबसे पहले हैरानी की बात तो यही थी कि बब्बू पूरी वाले के यहाँ लोगों की भीड़ इतनी अधिक थी कि लगता था कि शायद यहाँ भंडारा लगा है और मुफ्त पूरी-भाजी मिल रही है। गरीब-अमीर सभी तरह के ग्राहक थे, पर गरीब और साधारण लोग ज्यादा नजर आते थे। फिर बब्बू के यहाँ जो नजारा था, आस-पड़ोस की दुकानों पर इसका एकदम उलट नजारा दिखाई देता था। यहाँ जितनी भीड़, वहाँ उतना ही खालीपन। जैसे ग्राहक उन दुकानों की ओर झाँकना ही नहीं चाहते थे। सबके सब बब्बू पूरी वाले के यहाँ टूट रहे थे। कुछ और आगे आए तो दरवाजे के इधर-उधर लिखी हुईं लाइनों पर हमारी नजर गई। एक जगह लिखा था—

बब्बूजी की पूरी-भाजी,

जी भर के खाओ जी।

वाह! देखकर चेहरे पर मुसकान-सी आ गई। पास ही एक और बोर्ड पर लिखा था—

दो रुपए में पूरी-भाजी,

खाओ जी ताजी-ताजी।

नन्ही खुश हो रही थी। उछलकर बोली, “पापा वाह, यह तो पोएम हो गई।”

अभी हम हॉल जैसे उस बड़े कमरे में बैठे ही थे और सोच रहे थे कि किसे आवाज देकर बुलाएँ, कैसे आर्डर दें? तभी सोलह-सत्रह साल का एक लड़का हाथों में पूरी-भाजी की प्लेटें लेकर आया। झटपट उसने पूरी-भाजी की प्लेटें सजा दीं, फिर दौड़कर साफ पानी ले आया।

स्टील के साथ चमकते हुए बरतन। मेज एकदम साफ-सुथरी। खाना दूर से खाने के लिए आमंत्रित करता हुआ और दुकान का पूरा वातावरण साफ-सुथरा, सादगीभरा। एकदम सुरुचिपूर्ण। देखकर बड़ा सुकुन मिला। लेकिन पूरियाँ खाकर तो और भी आनंद आया। यह कहना मुश्किल है कि खस्ता पूरियाँ ज्यादा स्वादिष्ट थीं या आलू की भाजी, जो सचमुच अनोखे ढंग से बनी थी। हमें स्वीकार करना पड़ा बहुत दिनों बाद इतनी स्वादिष्ट पूरी-सब्जी हमें खाने को मिली।

जब हम चलने लगे तो काउंटर पर बैठा एक किशोर बच्चा दौड़कर आया। बोला, “साहब, आपको सब ठीक लगा न! कोई शिकायत तो नहीं?”

“न...न...नहीं। बड़ा साफ-सुथरा भोजनालय है तुम्हारा और पूरी-भाजी बड़ी स्वादिष्ट। सचमुच यहाँ आकर हमें बहुत अच्छा लगा।” कहकर मैंने पूछ लिया, “हाँ कितने पैसे हुए भई।”

मुसकराते हुए उसने कहा, “आपके पैसे आ चुके हैं साहब।”

“आ चुके हैं! कब, कैसे...?” हैरानी से मैंने कहा, “मैंने तो नहीं दिए।”

गोल चेहरे और आत्मविश्वास भरी आखों वाला वह किशोर मुसकराया। बोला, “साहब आपको याद नहीं, पर मुझे याद है।” कुछ रुककर उसने कहा, “हालाँकि उस बात को पाँच साल हो गए। पर पाँच साल तो क्या मैं उसे पचास साल तक याद रखूँगा। और सच बताऊँ साहब, मैं आज जो हूँ, उसी कारण...!”

अब मैं और भी चक्कर में था। बच्चे और सुनीता भी अचरज से भरकर सामने खड़े उस विनम्र मगर खुद्दार किस्म के लड़के को देखे जा रहे थे।

“आप भूल गए! आज से पाँच साल पहले 22 अक्तूबर 2000 को आप पुराना किला देखने आए थे। तब आपके साथ स्कूल के बच्चे थे जिन्हें आपने मस्ती से खूब झूम-झूमकर ‘फारस से आया गुलाब’ कविता सुनाई थी। और फिर गुलाब की विचित्र और लंबी कहानी भी कि कैसे इसने कई रंग-रूप बदले और गुलाब की नई किस्में सामने आईं।

“हाँ, हाँ, ठीक याद दिलाया तुमने...ठीक!” मुझे सचमुच याद आ रहा था।

“पर...तुम कहना क्या चाहते हो?”

“मेरी पूरी बात तो सुनिए साहब। मैं आपको बता रहा था कि उस समय आपके साथ स्कूल के बच्चे थे और पिकनिक का प्रोग्राम था। पिकनिक का खासा रंग और धमाल था। बच्चे नाच रहे थे, उछल रहे थे, गा रहे थे और फिर आइसक्रीम खाने का प्रोग्राम।... मैं उस दिन बहुत दुखी था। माँ बीमार थीं जो दुनिया में मेरा एकमात्र सहारा थीं। उनके लिए दवा कहाँ से लाऊँ? मैं दौड़ा-दौड़ा घर से निकला और यहाँ आकर के बैठ गया। सोच रहा था शायद कोई दयालु शख्स मिले और मेरी मुश्किल समझ ले। तब एक बच्ची आइसक्रीम लेकर मेरी ओर आई। मेरा खाने का मन नहीं था, पर उसके बहुत कहने पर मैंने औरेंज बार ली और उसे खाते हुए मेरी आँख मैं आँसू आ गए कि घर पर माँ बीमार है और मैं...।

“और तब आपने आकर कंधे पर हाथ रखा था और मुझसे मेरे दुख के बारे में पूछा था। आपने चलते-चलते सौ रुपए का नोट दिया था और कहा था, “माँ का इलाज कराओ। और मेहनत करो, रास्ते अपने आप निकलेंगे।” और सचमुच रास्ता निकला। वह सौ का नोट मेरे लिए सौ हजार से बढ़कर है साहब, और वह बच्चा मैं ही हूँ। मैं—आपका बब्बू...!”

कहते समय उसकी आँखों में जो चमक थी, उसे कैसे बताऊँ!

5

हालाँकि जब वह कहानी शुरू कर ही रहा था, तभी मैं समझ गया था। और याद आ गया था वह मैला उदास बच्चा, जो एक कोने में खड़ा था और अपना दुख किसी से बाँट नहीं पा रहा था। पर खुद बब्बू के मुँह से उसकी कथा सुनने पर मुझे अच्छा लग रहा था।

वह अब भी कहता जा रहा था, “तब से...कितना बेचैन था कि एक बार फिर से आपसे मिल लूँ। आपका ठीक से धन्यवाद कर लूँ कि देखिए साहब, आपने जो राह सुझाई थी, उसी से मुझे रास्ता मिला और आज मैं जो कुछ भी हूँ, उसी के कारण हूँ!”

मैं हैरानी से उस बच्चे की ओर देख रहा था जिसके चेहरे पर गहरी तृप्ति और ईमानदारी की चमक थी। माथा रोशनी से दिप-दिप करता हुआ।

“पर बब्बू, तुमने यह पूरियों की दुकान...?”

“हाँ, वही तो बता रहा हूँ बाबूजी। आपके दिए पैसों से उसी वक्त दौड़कर दवा लाया। दो-तीन दिन में ही माँ ठीक हो गईं।...पर माँ ठीक हुईं तो फिर सवाल उठा, क्या करूँ? कौन सा ऐसा काम करूँ जिससे ईमानदारी से मेहनत करते हुए दो सूखी रोटियाँ हम खा सकें। हाथ खाली थे, तो कोई और काम तो शुरू क्या करता, पर एक दिन न जाने कैसे मेरे मुँह से निकला—माँ, पहले तू कभी-कभी पूरी और आलू की भाजी बनाया करती थी न। मुझे इतनी अच्छी लगती थीं कि खाने के बाद भी उँगलियाँचाटता रहता था।

‘हाँ, पर तुझे कैसे इस वक्त याद आ गया। अब पूरी तो क्या, सूखी रोटी भी नसीब हो तो...!’ कहते-कहते माँ की आँखों में आँसू आ गए।

‘माँ रो मत, फिर हमारे सुख के दिन आएँगे, जरूर आएँगे।’ जाने कौन मेरे भीतर बोल रहा था। माँ खाली-खाली आँखों से मेरी ओर देखने लगीं। जैसे समझ न पा रही हों, मैं क्या कह रहा हूँ।

‘माँ, अगर तू पूरी भाजी बनाकर दे, तो मैं रोज गार्डन के पास जाकर बेच आया करूँगा। वहाँ दूर-दूर से न जाने कितने टूरिस्ट आते हैं। वे जरूर तेरे हाथ की बनी पूरी-भाजी पसंद करेंगे। तो रोजाना कुछ न कुछ तो बचेगा। खाकर लोग खुश भी होंगे, दुआएँ भी देंगे और चार पैसे बचेंगे तो घर का खर्च भी चलेगा।’

माँ कुछ देर खाली-खाली आँखों मुझे देखती रह गई। गहरे असमंजस में। फिर उनके चेहरे पर छाई निराशा जैसे हौले से तड़की हो। थोड़ी देर बाद जैसे आश्वस्ति के भाव से माँ ने पूछा, ‘पर पैसे...! तू कैसे करेगा इंतजाम बब्बू?’

‘माँ, मेरा एक दोस्त है। उसके पास जाऊँगा तो मना नहीं करेगा। मुझे यकीन है।’

माँ बोली, ‘ठीक है, तुझे जो समझ में आता हो कर। पूरी-भाजी मैं बना दिया करूँगी।’

उसी रोज अपने दोस्त अंजलि से दो सौ रुपए माँगकर लाया। उससे सामान खरीदा। माँ ने सुबह उठकर के पूरी-भाजी बनाईं और एक पतीले में डालकर के सब्जी और दूसरे बरतन में पूरियाँ डाल दीं। मैं रोज गार्डन के सामने आकर बैठा तो संकोच से जमीन में गड़ा जा रहा था। समझ में नहीं आ रहा था कि लोगों से क्या कहूँ, क्या नहीं? कैसे शुरुआत करूँ। लोग भी आते और मुझे पर एक उपेक्षा भरी नजर डालकर चले जाते। सोचते, बड़ा अजीब लड़का है। सामने दो बरतन रखकर जाने क्यों बैठा है? और मेरी हालत यह थी कि मुँह से आवाज तक न निकलती थी। फिर किसी को भला क्या पता चलता कि मैं यहाँ पूरी-भाजी बेचने को आया हूँ।

होते-होते शाम हो गई और मेरा दिल बैठने लगा। मुझे लगा कि आज का दिन तो बेकार गया और जो पैसे खर्च हुए, वो तो गए ही। अब क्या करूँगा? कल का क्या होगा?”

तभी मेरे दिमाग में एक बात कौंधी। मैंने सोचा, ‘यह सारा सामान घर ले जाने से क्या फायदा? कल तो काम आएगा नहीं। तो इसे यही आसपास क्यों न लोगों को बाँट दूँ?’ मैंने उसी समय लोगों को बुला-बुलाकर मुफ्त पूरी-भाजी देनी शुरू की। लोग हैरानी से देखते और पूछते, ‘भई, यह किस खुशी में?’ तो मैं कहता, ‘कल से मैं यहाँ पूरी भाजी बेचूँगा न। इसीलिए आज मुहूर्त कर रहा हूँ।’ सुनकर लोग वहीं खड़े-खड़े पूरी-भाजी खाने लगते। देखते-देखते वहाँ काफी भीड़ हो गई। लोग पूरियाँ खाते और तारीफ करते। कहते, ‘पूरियाँ तो बहुत स्वादिष्ट है, भई। आगे जब भी यहाँ आएँगे, तेरी पूरियाँ जरूर खाकर जाएँगे।’

आप जैसे एक पढ़े-लिखे सज्जन भी थे। एक कंधे पर झोला लटक रहा था। लगता है, जरूर कोई लेखक या पत्रकार होंगे। उन्होंने मेरा नाम पूछा, घर के बारे में पूछा और फिर मेरी पूरी कहानी भी। साथ ही यह भी पूछ लिया कि ‘सारे पैसे तो तेरे आज ही खर्च हो गए और बदले में कुछ मिला नहीं, तो कल तू यहाँ पूरी-भाजी लेकर आएगा कैसे? तेरा काम चलेगा कैसे? यह तो सिर मुँडाते ही ओले पड़ने वाली बात हो गई। सारे पैसे लग गए और बिक्री एक पैसे की नहीं।’

सुनकर मेरी आँखें नम हो गई। सोच मैं भी यही रहा था और दिल धक-धक कर रहा था कल के बारे में सोच-सोचकर, पर मैं इस चिंता को परे धकिया रहा था। जाने उन्होंने मेरे मन की बात पढ़ ली।

चलने लगे तो उन्होंने जेब से सौ-सौ के दो नोट निकाले और मुझे देते हुए कहा, ‘ले बब्बू, मना मत करना। तू बहुत अच्छा और सयाना लड़का है। कल को कुछ न कुछ जरूर बनेगा।’ और मेरी पीठ थपथपाकर हौसला बढ़ाते हुए चले गए।

घर लौटा तो मन में उम्मीद की एक किरण पैदा हो गई थी, ‘नहीं, मैं काम करूँगा, जरूर करूँगा। मैं अपने जीवन की राह खुद ही खोज निकालूँगा।’

लौटकर माँ को मैंने दिन भर की पूरी कहानी सुनाई, तो उन्हें भी अचरज हुआ। बोलीं, ‘भोले और भले लोग सब जगह हैं बब्बू। भोले और भले लोग ही ईश्वर के सच्चे पुत्र हैं। तू अच्छा है तो तुझे अच्छे लोग मिल ही जाते हैं।... अब मुझे यकीन है कि तेरा रास्ता निकलेगा। कुछ न कुछ जरूर निकलेगा।’

अगले दिन माँ ने फिर पूरी-सब्जी बनाकर दी, तो मैंने एक दफ्ती पर रंगीन चॉक से लिख लिया, ‘आइए साहेबान, एक बार खाकर तो देखिए, बब्बूजी की स्वादिष्ट पूरियाँ!’ और पूरी-भाजी के साथ यह दफ्ती लेकर भी चल पड़ा। रोज गार्डन के आगे आकर बैठा और ईंट के सहारे यह दफ्ती आगे लगा दी।

लोग आते, हैरानी से मेरे लिखे हुए को पढ़ते और मुसकराकर आगे चले जाते। पर धीरे-धीरे एक-दो, एक-दो ग्राहक आने लगे और दोपहर खाने का समय होने पर तो इतने लोग आ गए कि कोई घंटे-आध घंटे के भीतर सारा सामान बिक गया। लौटकर मैंने माँ को बताया तो माँ की खुशी का ठिकाना न था। अब उन्हें उम्मीद हो गई थी कि बब्बू ने जो रास्ता खोजा है, वह गलत नहीं है। कहीं न कहीं इसी से हम इज्जत और स्वाभिमान की जिंदगी जी सकते हैं।

उस दिन के बाद से फिर कोई परेशानी नहीं हुई। लोग खुद-ब-खुद मेरी ओर खिंचे चले आते। कोई-कोई पूछता भी, ‘अरे बब्बू इतनी स्वादिष्ट पूरी-सब्जी कौन बनाता है? क्या खुद तुम।’ मैं कहता, ‘नहीं-नहीं, मेरी माँ बनाती है। वे बहुत अच्छी पूरी-भाजी बनाती हैं।’

सुनकर लोगों को अच्छा लगता। खासकर स्त्रियाँ कहती, “जाकर अपनी माँ से कहना, वे बहुत अच्छा खाना बनाती हैं और उनके हाथ में बड़ा रस है। फिर तेरा स्वभाव भी इतना अच्छा है बब्बू। देखना, तू एक दिन जरूर कामयाब होगा।’

...तो बाबूजी इस तरह हमारा काम चल निकला। अब तो मैं काफी अधिक पूरियाँ और भाजी बनवाकर लाता हूँ, मगर फिर भी शाम तक सब कुछ बिक जाता है। कभी-कभी कुछ पूरियाँ बचती हैं, तो हम माँ-बेटे मिलकर खा लेते हैं। या फिर आस-पड़ोस के घरों में बाँट देते हैं।”

6

बब्बू की पूरी-भाजी बिकने का एक कारण और था जो खुद उसने बताया। शुरू में ही उसने अपना रेट बना लिया था। दो रुपए में छह पूरियाँ। और पूरी-भाजी हर बार इतनी ही स्वादिष्ट और अच्छी होती कि लोग पूरे यकीन के साथ उसके पास आते। खुद खाते और कई बार घर के लिए भी बनवाकर ले जाते।...

“तो क्या माँ ही बनाती हैं अब तक पूरी-भाजी।” मैंने पूछ लिया, “इतना अधिक वे कैसे बना लेती हैं इतनी उम्र में।” पूछने पर बब्बू ने बताया कि साथ में मदद के लिए एक-दो लड़कियाँ और भी हैं, पर पूरियाँ माँ ही सेकती हैं, आज भी। और लोग कहते हैं, बब्बू की पूरियों जो स्वाद तब था, वह आज तक बना हुआ है।

“तो खैर बाबूजी, लोगों ने इतना पसंद किया, आपके बब्बू की पूरी-भाजी को कि खूब दूर-दूर तक नाम हो गया। एक तरह से मैं लोगों से घिरा रहने लगा। तो आसपास के दुकानदार ने जलकर दो-एक सिपाहियों को भड़काया और सिपाही दो-तीन बार आए और धमकी दे गए, कि चल, हटा अपना टाँडा-टीरा यहाँ से!... पर मैं वहाँ से कहाँ जाता? किसी तरह हाथ-पैर जोड़कर उन्हें टरकाया और वहीं बैठा रहा। फिर एक दिन दो-तीन सिपाही इकट्ठे आए, मुझे डंडे से पीटने लगे और पूरी-भाजी कूड़े पर फेंक दो। पतीले उलटे कर दिए। मैं इतना रोया, इतना फूट-फूटकर राया कि आपको बता नहीं सकता बाबूजी। डंडों की चोट थी, पूरे शरीर में नीले-नीले दाग उभर आए थे। पर उस चोट का दर्द इतना नहीं था, जितना इस बात का कि इन दुष्टों ने मेरी माँ के हाथ की बनी पूरियाँ कूड़े पर फेंक दीं। कम से कम खा ही लेते तो मुझे इतना दुख न होता। मुफ्त में ही खा लेते तो भी तसल्ली होती।...पर कूड़े पर? इतनी अच्छी पूरी-भाजी सारी की सारी कूड़े पर! मैं रोया, फूट-फूटकर रोया और राते-रोते ही घर आकर माँ की गोदी में लेट गया। माँ देर तक मेरे सिर पर हाथ फेरती और चुप कराती रहीं।

“वह पूरी रात बाबूजी, मेरे लिए कयामत की रात थी। सोचता था—‘क्या करूँ, क्या नहीं! यहाँ से ठीया उठाकर क्या कहीं और जाऊँ? पर यहाँ इतने लोग जान गए हैं। कहीं और जाकर क्या फिर से काम शुरू कर पाऊँगा? और इस तरह सिपाहियों ने यहाँ आकर सामान फेंका, वहाँ भी तो कोई न कोई...!’

“मैं सोच रहा था... सोच रहा था कि बब्बू, तुझे पलायन नहीं करना, भागना नहीं, रास्ता निकालना है। पर कैसे? कुछ समझ में नहीं आ रहा था। सब ओर जैसे अंधकार ही अंधकार। तभी अचानक बिजली की कौंध की तरह एक चेहरा चमका। रविकुमार सक्सेना। मैंने आपको बताया था न, वे पत्रकार जो मेरी हालत देखकर मेरी जेब में दो सौ रुपए डालकर चले गए थे। उन्होंने जाते-जाते मेरी पीठ पर हाथ रखकर कहा और अपना कार्ड भी दिया था कि ‘बब्बू, कभी जरूरत पड़े तो इसमें एक फोन नंबर लिखा है। तू मुझे एक बार फोन जरूर कर लेना।’

“अगले दिन सुबह उठते ही मैंने माँ से पूरी-भाजी बनवाई और घर से ले चलने से पहले टेलीफोन बूथ गया। वहाँ सक्सेना जी को फोन लगाया और बताया कि पुलिस वाले मुझे धमका रहे हैं। बुरी तरह मुझे मारा और सामान कूड़े पर फेंक दिया। मैंने पूरी कहानी सुनाई, तो सक्सेना जी ने कहा कि बब्बू, तू जाकर वहीं बैठ, जहाँ बैठता है और अब कोई सिपाही आए तो उससे कहना कि ‘प्रभात टाइम्स’ के रविकुमार सक्सेना आपसे बात कर लेंगे।... फिर वे कुछ कहें तो मैं देखूँगा।”

“और बाबूजी, उसी शाम को पता चला कि वे पुलिस वाले संस्पेंड हो गए। सक्सेना जी ने पुलिस के अफसरों को फोन किया कि इन पुलिस वालों ने कुछ बड़े दुकानदारों के कहने में आकर एक बेकसूर बच्चे के साथ दुर्व्यवहार किया है। सुनते ही उसी दिन उसकी छुट्टी हो गई। फिर तो वे सारे दुकानदार भी डर गए, जो मेरे खिलाफ एकजुट हुए थे। सोचने लगे कि कहीं उनका नाम भी न जा जाए। दो-एक तो खुद मेरे पास भी चलकर भी आए और कहा कि ‘बब्बू, तू बेफिकर होकर अपना काम कर। हम तेरे साथ हैं।’

“तो खैर बाबूजी, मेरा काम चल निकला। कोई साल दो साल बाद यह दुकान खरीद ली। फिर तो काम रामजी की कृपा से इतनी अच्छी तरह चला कि मैं आपको क्या बताऊँ?...पर यह जो कुछ भी है बाबूजी, आपके कारण है क्योंकि यह राह तो आपने ही सुझाई थी। मेरा दर्द पहली बार आपने ही समझता था और मेरे कंधे पर हाथ रखा था। अपने कंधे पर वह हाथ मुझे आज भी महसूस होता है।”

कहते-कहते बब्बू की आँखें भीग गई। मैंने उसके कंधे पर धीरे से हाथ रखकर थपथपाया। फिर कहा, “आज के जमाने में तुम इतनी सस्ती पूरियाँ कैसे बेच पाते हो? अब तो महँगाई भी बढ़ गई है।”

इस पर बब्बू का जवाब था, “बाबूजी, महँगी खाने-बेचने वाले तो बहुत है, पर मुझे तो लगातार अपना खयाल आता था। अपने दुर्दिन याद आते थे। जो मेरे जैसे लोग है, दिन भर मेहनत करते हैं। सस्ते में उनका पेट भर जाए और साफ-सुथरा और अच्छा खाने को मिले। यह कौन सोच रहा है? रिक्शा वाले, ताँगे वाले मजदूर, सब मेरे यहाँ आते हैं और तृप्त होकर जाते हैं। इनके चेहरों पर तृप्ति देखकर मुझे बहुत खुशी मिलती है।”

सुनकर मन जुड़ा गया। अपने आप उसके सिर पर मेरा हाथ आ गया, उसे आशीर्वाद देने के लिए।

बब्बू ने आगे बढ़कर मेरे पैर छू लिए। बोला, “आशीर्वाद दीजिए सर, कि आपका बब्बू ऐसा ही बना रहे।”

मैंने देखा कि उसकी आँखें गीली हैं।

कुछ रुककर वह बोला, “सर, उस दिन हमारे पास खाने को भी पैसे नहीं थे। आज ईश्वर का दिया बहुत कुछ है। कोई संपत्ति हमने नहीं जोड़ी, पर गुजारे लायक ठीक-ठाक पैसे हमारे पास हैं। इसलिए अगर कोई गरीब या लाचार आदमी आकर कहता है कि मेरे पास पैसे नहीं, तो उसे भी भरपेट खाना यहाँ मिलता है। यह गरीबों का होटल, गरीबों का अपना होटल। यहाँ से कोई भूखा वापस नहीं गया आज तक—और न जाएगा।”

सुनकर लगा कि यह छुटका-सा बच्चा सचमुच फरिश्ता है। छोटा है, पर यह सचमुच मेरा गुरु है!

7

उसे ढेरों आशीर्वाद देकर चलने लगा तो उसने हाथ जोड़कर कहा, “सर फिर आइएगा। आइएगा न जरूर! मेरी माँ भी आपसे मिलना चाहती हैं। बहुत बार उन्होंने याद किया है। कहती हैं—बब्बू, अगर कभी वे साहब आए, तो एक बार मुझे उनसे मिलवाना जरूर।”

“हाँ बब्बू, हाँ! मैं आऊँगा जरूर।”

बाहर आया तो दीवार पर साफ-सुथरी लिखाई में एक सीधी-सादी कविता पर नजर गई। लिखा था—

बब्बूजी की पूरी भाजी,

फिर-फिर खाने आओ जी...!

“हाँ बब्बू, मैं फिर आऊँगा...फिर आऊँगा—जरूर-जरूर!”

पर कहते हुए पता नहीं क्यों, शब्द काँप रहे थे और गला रुँध-सा गया था।

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