वह प्रतिमा : विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक'
Vah Pratima : Vishvambharnath Sharma Kaushik
स्मृति-वह मर्म-स्पर्शी स्मृति, जो हृदय-पृष्ठ पर करुणोत्पादक भावों की उस पक्की और गहरी स्याही से अंकित की गई है, जिसका मिटना इस जन्म में कठिन ही नहीं, प्रत्युत असंभव है। आह! वह स्मृति कष्ट-दायिनी होने पर भी कितनी मधुर और प्रिय है! उस स्मृति से हृदय जला जाता है, तन-मन राख हुआ जाता है, फिर भी उसे मिटाने की चेष्टा करने को जी नहीं चाहता है। वह स्मृति वह मीठी छुरी है, जिसकी तेज धार से हृदय लहू-लुहान हो रहा है; परंतु उसमें वह मधुरता है, वह मिठास है कि उसे कलेजे से दूर करने को जी नहीं चाहता। क्यों? इसलिए कि वह उस प्रेम-प्रतिमा की स्मृति है, जिसके प्रेम के मूल्य को, जिसकी कर्तव्यशीलता की गहराई को मैं उस समय समझ, जब वह मुझसे सदैव के लिए बिछुड़कर मृत्यु के परदे में अदृश्य हो रही थी। उस प्रेम की पुतली का असली रूप मैंने उस समय देखा, जब मृत्यु की यवनिका के बंधन खुल चुके थे और वह धीरे-धीरे हम दोनों के बीच गिर रही थी। उसका असली जाज्वल्यमान स्वरूप देखकर मेरी आँखें झपक गईं, और फिर उस समय खुलीं, जब निष्ठुर यवनिका उसे अपनी ओट में छिपा चुकी थी।
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मेरा विवाह उस समय हुआ था, जब मेरी आयु 16 वर्ष की थी। विवाह के दो ही वर्ष बाद गौना भी हो गया था। मेरी स्त्री चमेली साधारण सुंदरी और कुछ पढ़ी-लिखी भी थी। अधिक सुंदरी न होने पर भी उसमें दो-एक ऐसी बातें थीं, जो हृदय को अपनी ओर उसी प्रकार खिंचतीं थीं, जिस प्रकार सौन्दर्य खींच सकता है। वे बातें क्या थीं? आह, उनकी याद आने पर आज भी कलेजे में हूक उठती है। सच तो यह है कि केवल उन हाव-भावों पर ही कोई भी हृदय अनुपम सौन्दर्य को न्योछावर कर सकता है। वे बातें थीं- उसकी लजीली आँखें, उसकी मंद मुस्कान। उसका लजाकर मंद मुस्कान के साथ आँखें नीची कर लेना बड़े-से-बड़े सौन्दर्य का रंग फीका कर देता था। गौना होने के पश्चात तीन-चार वर्ष तक हम दोनों के दिन बड़े सुख से कटे। इस बीच में दो संतानें भी हुईं । उनमें एक पुत्र अभी तक जीवित है। एक कन्या हुई थी। वह कुछ ही महीनों बाद मर गई। कन्या उत्पन्न होने के पश्चात हमारे सुखमय जीवन पर पाला पड़ गया। विधाता से हम दोनों का वह जीवन, जिसमें किसी प्रकार के भी दुख का लेश-मात्र न था, सीधी आँखों न देखा गया। परिणाम यह हुआ कि चमेली रोगग्रस्त हो गई। न जाने किस अशुभ घड़ी में रोग का आगमन हुआ कि उसने प्राण लेकर ही छोड़ा। रोग था राजयक्ष्मा। यह वह रोग है, जो मनुष्य को घुला-घुलाकर मारता है। इस रोग में मनुष्य बरसों तक जीवित रहता है, पर स्वस्थ एक क्षण के लिए भी नहीं होता। यही हाल चमेली का भी हुआ। यद्यपि रोगग्रस्त होने के पश्चात वह छः-सात वर्ष तक जीवित रही, परंतु स्वस्थ पूरे एक महीने भी न रही। कभी-कभी ऐसी दशा हो जाती थी कि सरसरी दृष्टि से देखने पर कोई रोग न मालूम होता था; पर तब भी उसका जी उदास रहता था। किसी काम में उसका जी न लगता था। केवल इन्हीं बातों से पता चलता था कि रोग ने उसपर से अपना अधिकार नहीं उठाया है।
एक वर्ष तक तो मैं उसकी दशा पर बड़ा चिंतित रहा। दवा, दारू भी खूब की। परंतु इसके पश्चात मेरा जी कुछ ऐसा ऊब उठा कि मैंने उसे ईश्वर के भरोसे पर छोड़ दिया। साधारणरूप से चिकित्सा होने के अतिरिक्त और कोई विशेष चेष्टा न की।
चिकित्सकों से मुझे यह मालूम हुआ था कि राजयक्ष्मा बड़ा संक्रामक रोग है। अतएव आप भी उसी रोग से ग्रस्त हो जाने के भय से मैंने उसके पास बैठना-उठना भी कम कर दिया था। इसके अतिरिक्त एक यह भी कारण था कि उसका कान्ति-हीन मुख और दुबला-पतला शरीर देखकर मेरा हृदय दुखित होता था और सच तो यह है कि कुछ ग्लानि भी होती थी। मेरे परिवार में मेरी माता और दो छोटी भावजें थीं। इस कारण घर-गृहस्थी के सब काम वे ही करती थीं। यह भी एक कारण था कि जिससे मुझे उससे अधिक संपर्क रखने की आवश्यकता न पड़ती थी। कभी-कभी तो ऐसा होता था कि दस-दस पंद्रह-पंद्रह दिन तक उससे मेरी बातचीत तक न होती थी। मेरी इस उदासीनता को चमेली भी जानती थी, पर उसके संबंध में उसने मुझसे कभी शिकायत नहीं की।
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इस प्रकार एक वर्ष व्यतीत हो गया। इन दिनों मेरी चित्त-वृत्ति बिल्कुल बदल गई थी। अब मुझे घर में एक क्षण रहना भी कष्टदायक मालूम होता था। जब तक बाहर रहता, चित्त प्रसन्न रहता था; परंतु घर में आते ही चित्त उदास और खिन्न हो जाता था। इसलिए दिन में केवल दो-तीन घंटे घर में रहता था, और उधर रात के दस-ग्यारह बजे के पहले घर न लौटता था। मुझे नशेबाजी इत्यादि दुर्गुणों और दुर्व्यसनों की भी लत पड़ गई थी, क्योंकि मेरा हृदय सदैव ही आनंद और प्रसन्नता के लिए लालायित रहता था। इन दुर्व्यसनों में मुझे आनंद मिलता था।
एक दिन दोपहर में बैठा हुआ उपन्यास पढ़ रहा था। सहसा किसी के आने की आहट पाकर मैंने सिर उठाया। सामने चमेली को देखकर कुछ सिटपिटा गया; क्योंकि मैं उससे सदैव अलग-अलग रहने की चेष्टा किया करता था। मैंने शिष्टाचार के नाते चमेली से कहा- “आओ बैठो, कहो अब जी कैसा रहता है?”
चमेली मेरे सामने बैठ गई, और उदास स्वर में बोली- “जैसा है, वैसा ही रहता है।“
मैं- “आखिर कुछ मालूम तो हो, पहले से कुछ अच्छा है, या कुछ..?”
चमेली—“अच्छा तो क्या, किसी-न-किसी प्रकार जी रही हूँ। जीवन के जितने दिन हैं, वे तो किसी-न-किसी प्रकार पूरे करने ही पड़ेंगे।“
मैं कुछ कहने के अभिप्राय से बोला—“हाँ, यह तो ठीक ही है। क्या कहें, इतनी दवा-दारू हुई और हो रही है, पर अभी तक कुछ भी फायदा नहीं हुआ।“
चमेली इस बात पर ध्यान न देकर बोली—“आज बीस दिन बाद तुमसे बात-चीत करने का अवसर मिला है।“
मैं—“बीस दिन! अभी आठ-दस दिन हुए, जब मैं तुमसे मिला था।“
चमेली—“तुम्हें बीस दिन आठ-दस दिन ही समझ पड़ते हैं; पर मेरे लिए तो बीस दिन बीस ही दिन हैं।“
मैंने कुछ लज्जित होकर कहा—“संभव है, बीस दिन हो गए हों। जब से तुम बीमार रहने लगी, तब से मिलने-जुलने का सुयोग ही नहीं लगता।“
चमेली-“सुयोग तो तब लगे, जब सुयोग के लिए कुछ चेष्टा की जाए।“
मेरा हृदय धड़कने लगा। अंतःकरण पर कुछ चोट-सी लगी, क्योंकि चमेली की इस बात में सत्यता का बहुत-कुछ अंश था।
मैंने उपन्यास के पृष्ठ उलटते हुए कहा-“माता इत्यादि के रहते हुए इस प्रकार की चेष्टा करना कुछ भद्दा-सा मालूम होता है।“
कहने को तो यह बात कह गया, परंतु मुझे खुद यह बात बेतुकी-सी मालूम हुई; क्योंकि एक समय वह था, जब माता इत्यादि के रहते हुए भी मैं जितनी बार चाहता था, चमेली से मिलने का सुअवसर उत्पन्न कर ही लेता था।
चमेली ने भी यह बात कही । वह बोली-“मेरे बीमार होने के पहले भी तो माता और भौजाइयाँ थीं?”
इसका उत्तर मैं कुछ न दे सका। मुझे चमेली का बैठना बुरा मालूम हुआ। मैं मन-ही-मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगा कि कोई कारण ऐसा उत्पन्न हो जाए, जिससे चमेली मेरे पास से उठ जाए। आह! कैसा विकट परिवर्तन था। जिस चमेली के दर्शनों के लिए मैं मैं मकान के कोने और कोठरियों मे छिपा खड़ा रहता था, उसी चमेली का पास बैठना आज मुझे बुरा मालूम हो रहा था!
चमेली कुछ देर चुप रहकर बोली- “लज्जित क्यों होते हो? लज्जित होने का कोई कारण नहीं। मैं इस बात से जरा भी रुष्ट नहीं हूँ। मैं जानती हूँ कि मुझ मे अब ऐसा कोई आकर्षण नहीं रहा, जो तुम्हें मेरे पास आने के लिए विवश करे।“
मैंने विकल होकर कहा-“ आज तुम्हें यह क्या सूझी है, जो वाहियात बातें मुँह से निकाल रही हो?”
चमेली एक लंबी साँस लेकर बोली-“ वाहियात बातें नहीं, सच्ची बातें हैं। मुझे कोई शिकायत नहीं, पर कुछ दुख अवश्य है। तुम्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि सब का जी तुम्हारा-सा नहीं है।“
मैंने कुछ रुष्ट होकर कहा—“देखो चमेली, यदि तुम ऐसी निरर्थक बातें करोगी, तो मैं उठकर चला जाऊँगा।“
चमेली के नेत्रों में आँसू छलछला आए—-उन्हीं नेत्रों मे, जिन्हें देखकर मैं कभी मतवाला हो जाता था। परंतु आज, उन नेत्रों को अश्रुपूर्ण देखकर मेरा हृदय पसीजा तक नहीं।
चमेली ने कहा-“यदि तुम्हें ये बातें बुरी मालूम होती हैं, तो न कहूँगी। हाँ, यदि तुम एक बात मानने का वचन दो, तो कहूँ।“
मैं-“कौन सी बात?”
चमेली-“मानोगे?”
मैं-“यदि मानने योग्य होगी।“
चमेली-“तुम दूसरा विवाह कर लो।“
मैं चौंक पड़ा। एं—दूसरा विवाह! और चमेली खुद उसका प्रस्ताव करे! मैंने कुछ देर तक चुप रहकर कहा—“तुम ऐसा क्यों कहती हो?”
चमेली- इसलिए कि तुम्हें उसकी आवश्यकता है। मैं तो इस योग्य ही नहीं रही कि आपकी कुछ सेवा कर सकूँ। इसीलिए दूसरा विवाह कर लेना ठीक है। मेरे लिए तुम अपने जीवन को दुखमय क्यों बना रहे हो? इससे मुझे भी बड़ा दुख है। मैं तुम्हें उदास और चिंतित देखती हूँ। मुझे यह भी मालूम है कि तुम किसी दिन भी रात को बारह बजे के पहले घर नहीं लौटते। मैं यह भी जानती हूँ कि घर मे तुम्हारा जी नहीं लगता। इन सब का कारण भी जानती हूँ। मैं रात-दिन ईश्वर से यही प्रार्थना किया करती हूँ कि वह मुझे शीघ्र उठा लें, और तुम विवाह करने के लिए स्वतंत्र हो जाओ। परंतु मेरी प्रार्थना जल्दी स्वीकार होती दिखाई नहीं पड़ती, इसलिए मैं यह चाहती हूँ कि तुम विवाह कर डालो।“
चमेली की इस बात ने मुझे चिंता-सागर में डाल दिया। कई बार मेरे हृदय में भी यही विचार उत्पन्न हुआ था कि यदि चमेली आरोग्य नहीं होती, तो मार ही जाए, और मुझे दूसरा विवाह करने की स्वतंत्रता मिल जाए। ओफ! मैं नहीं समझता कि मेरे हृदय मे यह विचार कैसे आता था। जिस चमेली का सिर दुखने से ही मुझे अत्यंत कष्ट पहुंचता था, उसी चमेली का मरना मैं मनाता था! सच तो यह है कि इन्हीं बातों के प्रायश्चित-स्वरूप आज घोर मानसिक क्लेश भोग रहा हूँ।
मैंने कहा—“नहीं, मैं विवाह न करूँगा । तुम्हारे रहते मैं विवाह करूँ, ऐसा कभी संभव हो सकता है?”
चमेली—“हानि ही क्या है? जब मैं इसमें राजी हूँ, तब तुम क्यों हिचकते हो?”
इच्छा न रहने पर भी मेरे मुँह से सच्ची बात निकल गई। मैंने कहा-“मैं यदि विवाह करने के लिए तैयार भी हो जाऊँ, तो माता और भाई साहब इसे कब स्वीकार करेंगे?”
चमेली—“मैं जब कहूँगी, तो वे स्वीकार कर लेंगे।“
मैं-“ईश्वर के लिए कहीं ऐसा कर भी न बैठना, नहीं माताजी तो मुझे कहा जाएंगी। तुम इस फेर मे मत पड़ो; मैं विवाह-इवाह कुछ न करूँगा।“
चमेली-“मेरे पीछे तुम दुख क्यों उठाते हो?”
मैं-“मुझे कोई दुख नहीं। केवल तुम्हारी बीमारी और कष्ट से अवश्य दुख होता है; पर उसके लिए क्या किया जाए? ईश्वर ही को मंजूर है कि हमें यह दुख हो।“
चमेली ने इस पर कुछ नहीं कहा, और थोड़ी देर के बाद वह मेरे पास से उठकर चली गई।
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एक वर्ष और व्यतीत हुआ। चमेली की वही दशा थी। न तो रोगमुक्त होती दिखाई पड़ती थी, और न जीवन-मुक्त। कभी-कभी मुझे उस पर बड़ा तरस आता था। कारण, मृत्यु की प्रतीक्षा करने के अतिरिक्त उसके लिए संसार में कोई और काम ही न था। संसार मे कोई वस्तु ऐसी न थी, जो उसका मनोरंजन कर सकती। परंतु इतना होते हुए भी उसका लक्ष्य मेरे सुख-दुख की ओर विशेष रहता था। वह सदैव मेरे ही सुख-दुख का ध्यान रखती थी। वह मेरे अलग-अलग रहने पर भी मुझे प्रसन्न और सुखी रखने की चिंता में रहती थी। यद्यपि उसका शारीरिक सौन्दर्य नष्ट हो गया था, परंतु हार्दिक सौन्दर्य वैसा ही बना हुआ था; बल्कि पहले की अपेक्षा भी कुछ बढ़ ही गया था। यद्यपि वह पुष्प मुरझा गया था, सूख गया था, परंतु वह गुलाब का पुष्प था, जो सूख जाने पर भी अपनी सुगंध नहीं छोड़ता। इसके प्रतिकूल मेरे हृदय में कितना गहरा परिवर्तन हो गया था। मेरा हृदय-भ्रमर उस पुष्प की सुगंध की जरा भी परवाह नहीं करता था। भ्रमर को सुगंध से क्या सरोकार? वह तो केवल रस चाहता है। सुगंध होते हुए भी वह नीरस पुष्प के पास नहीं फटकता।
एक दिन मैंने अपने पुत्र ज्ञानु को, जिसकी उम्र उस समय सात वर्ष की थी, किसी साधारण अपराध पर पीट दिया। वह रोता हुआ अपनी माँ के पास गया। केवल इसी बात पर चमेली ने दूसरे दिन मुझ से कहा-“कल तुमने ज्ञानु को बड़ी बुरी तरह मारा।“
मैंने कहा-“उसने काम ही मार खाने का किया था।“
चमेली आँखों मे आँसू भरके बोली-“उसे मारा न करो।“
मैंने कहा-“क्यों?”
चमेली-“मुझे बड़ा दुख होता है।“
मुझे उसकी बात पर कुछ हँसी आई। सभी बच्चे कुछ-न-कुछ मारे-पीटे जाते हैं। इसमें इतना अनुभव करने की क्या आवश्यकता? मैंने चमेली से कहा-“अपराध करने पर तो ताड़ना की ही जाती है। इसमें तुम्हारा इतना दुख मानना बिल्कुल निरर्थक है।“
चमेली- “मेरे इतना दुख मानने का कारण है।“
मैं-“क्या कारण?”
चमेली-“वह बिन माँ का है?”
मैं हतबुद्धि होकर बोला-“बिन माँ का है?”
चमेली-“हाँ, मैं ऐसा ही समझती हूँ। मेरे जीवन का क्या भरोसा? मैं अपने को मार हुआ ही मानती हूँ और इस कारण उसे मातृहीन समझती हूँ। यही कारण है, कि जब कोई उसे कुछ कहता-सुनता है, जब कभी तुम मारते-पीटते हो, तब आकर वह मेरी छाती से लग जाता है। मैं उसे हृदय से लगाकर, चुमकार-पुचकारकर शांत कर देती हूँ। पर मेरे पीछे वह किसके पास जाएगा, किसके आँचल में मुँह छिपाकर बैठेगा? कौन उसे प्यार करके प्रसन्न करेगा? इसीलिए कहती हूँ, कि तुम उसे कुछ न कहा करो।“
चमेली की इस करुण प्रार्थना से कुछ क्षण के लिए मेरा हृदय थर्रा गया। उसके इन शब्दों में न जाने कितनी प्रबल शक्ति थी, कि उसने मेरे पाषाण हृदय को भी ठेस पहुँचाई। मैंने कहा-“अच्छा, अब जहाँ तक हो सकेगा, उसे कुछ न कहा करूँगा।
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चमेली का अंत समय निकट था। एक महीना हुआ, उसने चारपाई की शरण ली थी। तब से उसकी दशा दिन-प्रति-दिन बिगड़ती ही गई। वह जिस दिन रात को इस संसार से सदैव के लिए विदा होनेवाली थी, उसी दिन उसने दोपहर को मुझे अपने पास बुलवाया। मैं उसके पास पहुँचा। मुझे यह तो मालूम था, कि अब चमेली थोड़े ही दिनों की मेहमान है, पर स्वप्न में भी यह खयाल न आया था कि यही दिन उसका अंतिम दिन है। मैं उसके पास बैठ गया, और पूछा-“इस समय कैसा जी है?”
चमेली कुछ मुस्कुराई और बोली-“अब जी बहुत अच्छा है।“
मैंने कहा- “बहुत अच्छा तो क्या होगा?”
चमेली-“मेरा चित्त इस समय जितना प्रसन्न है, उतना कभी नहीं रहा।“
मैं-“यह तो तुम्हारी बातें हैं।“
चमेली- “नहीं, मैं सच कहती हूँ।“
मैंने चमेली के मुख को ध्यानपूर्वक देखा। आज छः वर्ष पश्चात मुझे उसकी आँखों में, उसके मुख पर, वही सौन्दर्य दिखाई पड़ा, जो छः वर्ष पूर्व था। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ, कि चमेली को कोई रोग ही नहीं; वह बिल्कुल स्वस्थ है। न जाने उस दिन मेरे हृदय में उसके प्रति पहले का-सा प्रेम क्यों उत्पन्न हो गया। छः वर्ष पश्चात मैंने बड़े प्रेमपूर्वक उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा-“ जो तुम्हारी तबीयत ऐसी ही रही, तो दो-चार दिन में तुम बिल्कुल स्वस्थ हो जाओगी।“
मेरा प्रेम-व्यवहार देखकर चमेली ने मंद-मुस्कान के साथ शरमाकर अपनी दृष्टि दूसरी ओर फेर ली। मैं विकल हो गया। वही शर्मीली दृष्टि—वही मंद मुस्कान! मैंने अपने मन में कहा- चमेली के सौन्दर्य में तो जरा भी अंतर नहीं आया। क्या मैं इतने दिनों तक अंधा रहा, जो यह बात न देख सका? ओफ! मैंने कितना घोर अनर्थ किया, जो इसकी ओर से इतना उदासीन हो गया। मुझे क्या हो गया था? मैं इसे इतने दिन कैसे और क्यों ठुकराए रहा? इसमें कौन-सा ऐसा बुरा परिवर्तन हो गया था, जिसके कारण मैं इससे इतने दिनों तक घृणा करता रहा? मैं इस रत्न को छोड़कर इधर-उधर कांच के टुकड़ों से कैसे आनंद का अनुभव करता रहा? इसलिए कि वह रोगग्रस्त थी? छिः-छिः ! कितनी पाशविकता हुई! मैं यदि उसी प्रकार चेष्टा करता रहता, तो बहुत संभव है, यह अब तक कभी की रोगमुक्त हो गई होती। इसे रोगग्रस्त और इतने कष्ट मे छोड़कर मैं अकेला अपने ही लिए, आनंद और सुख की खोज में कैसे घूमता रहा? यदि यह दुखी थी, तो मुझे इसका दुख बँटाना चाहिए था, न कि इसको इस दशा में छोड़कर अकेले सुख-भोग करना। ओफ! कितना अनर्थ हुआ! इसने सब बातों को जानकर भी कोई शिकायत नहीं की, उलटे यह सदैव मुझे प्रसन्न और सुखी रखने की चिंता करती रहती। यहाँ तक कि केवल मुझे सुखी करने के लिए इसने मेरा दूसरा विवाह कराने की भी चेष्टा की। आह! मेरे और इसके व्यवहार में आकाश-पाताल का अंतर रहा। ओफ! मैंने बड़ा पाप किया। न-जाने इस पाप से कैसे मुक्त हो सकूँगा!
चमेली ने मुझे विचार-सागर में निमग्न देखकर पूछा—“क्या सोच रहे हो?”
मैं—“कुछ नहीं।“
चमेली—“मैंने कुछ कहने के लिए बुलाया था।“
मैं—“कहो, क्या कहती हो?”
चमेली—“मेरे कारण तुम्हें बड़ा कष्ट मिला। मैं तुम्हारे सुख-मार्ग का काँटा रही। मेरे भाग्य में तो विधाता ने सुख लिखा ही नहीं था। जितना लिखा था, वह भोग, और वह स्वप्न में वैकुंठ मिलने की तरह था। परंतु, मैं तुम्हारा सुख नष्ट करने का कारण रही। अब मुझे यह जानकर अत्यंत प्रसन्नता है, कि मैं तुम्हारे सुख-मार्ग से अलग हुई जाती हूँ। अब तुम संसार में सुख भोगने के लिए स्वतंत्र…. “
मैं आगे कुछ न सुन सका। मैंने बेचैन होकर कहा—“चमेली, यह तुम क्या बक रही हो? तुम्हारे बिना मुझे स्वर्ग में भी सुख नहीं मिल सकता। ईश्वर न करे.. “
चमेली कुछ विस्मित होकर बोली—“नाथ, अब लोकाचार निभाने का समय नहीं है। यह कपट-वेश छोड़ो, और जो मैं कहती हूँ, उसे सुनो।“
मैं अत्यंत दुखित होकर बोल—“चमेली, मैं बड़ा अधम हूँ, बड़ा नीच हूँ। इसमें संदेह नहीं, कि एक घंटा पहले तक, मैं कपट-वेश धारण किए हुए था; परंतु ईश्वर साक्षी है, इस समय मैं अपने पिछले शुष्क व्यवहार पर अत्यंत लज्जित हूँ। मैने जो कुछ किया, उसका प्रायश्चित यदि ये प्राण देकर हो सके, तो मैं करने को तैयार हूँ। मैं अंधा हो गया था। मैं नहीं जानता, मुझे इस बात पर आश्चर्य है, कि मैंने कैसे तुमसे यह दुर्व्यवहार किया।“
इतना कहते-कहते मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। मेरी हिचकी बँध गई। चमेली की आँखों से भी आँसुओं की धारा बहने लगी।
कुछ देर बाद उसने कहा—“यदि यह बात तुमने आज से कुछ दिनों पहले कही होती, तो कदाचित् मैं जीवित रहने की चेष्टा करती; परंतु अब कुछ नहीं हो सकता।“
मैं चौंक पड़ा। मेरी आँखों के आगे अँधेरा आने लगा। मैंने चमेली का सिर अपनी गोद में रखकर कहा—“नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। ऐसे समय में, जब मैं अपनी भूल पर पश्चाताप कर रहा हूँ, उसका प्रायश्चित करने के लिए तैयार हूँ, जब तुम मुझे संसार की सबसे मूल्यवान् चीजों से प्रिय हो गई हो, तब मुझे छोड़कर जाना चाहती हो? नहीं प्रियतमे, ऐसा कभी नहीं हो सकता!”
चमेली एक आह भरकर बोली—“तुम्हारी इन बातों से मुझे मृत्यु से भय मालूम होता है। हृदय में जीने की उत्कट लालसा उत्पन्न होती है। अभी तक मैं प्रसन्नतापूर्वक मरने को तैयार थी; परंतु अब तुम्हारी बातों से मुझे मरना दुखदायी प्रतीत हो रहा है। नाथ, मेरा अंत समय दुखदायी न बनाओ। मुझे इस प्रकार मरने से कष्ट होगा। तुम यही कहो, कि मैं तुमसे घृणा करता हूँ। उसी प्रकार उदासीन भाव रखो। मुझे विश्वास दिला दो, कि तुम्हें मेरे मरने से प्रसन्नता होगी, सुख होगा, जिससे मुझे मृत्यु से भय न हो, मैं प्रसन्नतापूर्वक मरूँ।“
दुख और पश्चाताप से मेरा कंठ रूँध गया। मैं उसकी बात का कोई उत्तर न दे सका। चमेली ने कहा—“इस अंत समय में मैं केवल एक भिक्षा तुमसे माँगती हूँ।“
मैंने बड़ी कठिनाई से कहा—“क्या?”
चमेली—“मेरे ज्ञानु को कभी कुछ न कहना!”
इतना कहकर चमेली बेहोश हो गई, फिर उसे अंतिम श्वास तक होश न आया।