वह मर्द थी (कहानी) : नरेश मेहता

Vah Mard Thi (Hindi Story) : Naresh Mehta

जिन दिनों मैं उसके यहाँ पहुँचा, वह अपने होटल को करीनेदार बनाने में लगा हुआ था। अलमारियाँ बनाई जा रही थीं। लोहे की पतली जालियाँ उन अलमारियों के लिए काटी जा रही थीं। कुर्सियों की हिलती हुई टाँगों में जोड़ लगाकर हिलने से रोका जा रहा था और सबसे जरूरी बात थी कि पुताई भी हो रही थी। और जिस समय मैं उसके यहाँ पहुँचा, वह बाहर जाड़े की धूप में बैठा नाई से बाल बनवा रहा था, या कहा जाए कि वह बनवा चुका था और इस समय गरम जर्सी के साथ कमीज और बनियान ऊँची किए बगलें बनवा रहा था। उसका तोंदल गोरा शरीर धूप में भूरा-भूरा चमचमा रहा था। नाभी के पास बालों की एक काली नागिन पेट पर चढ़ती हुई उसके सीने पर दोमुखी हो छितरा गई थी।

शुरू दिन ही मेरा उससे झगड़ा हो गया था "नीबू को लेकर। पाँच आने में वह दाल, एक सब्जी और 'रोट्टियाँ' दे सकता है, मगर वह नीबू खाने का कायल नहीं"शिकंजवी की बात और है। फिर कभी-कभार की बात हो तो ठीक, रोज नीबू देने बैठे तो एक आने का तो नीबू ही हो गया, उसे क्या बचा? मैंने हुज्जत की, वह कन्नी काट गया। तब संधि इस बात पर हुई कि नीबू मँगवाऊँगा मैं और प्याज, हरी मिर्चे देगा वह। इस तरह हम दोनों अपनी विभाजित जीतों को लेकर एक-दूसरे के करीब आए।

वह और उसके नौकर कोई भी सलाम करने की जरूरत किसी से अनुभव नहीं करते, पर दो-चार दिन बाद से मुझे 'नमस्ते जी' मिलने लगा और मेरी मध्यमवर्गीय इज्जत तथा अहं को इससे अच्छा ही लगा। मुमकिन था कि इसी तरह बिना बोले-चाले मैं उसके यहाँ खाता चला जाता। ज्यादा दिनों की बात भी नहीं थी, घर के लोग बाहर गए थे लेकिन उस दिन एक घटना घटी। घटना थी...

उस दिन मैं रोज के देखते जल्दी आ गया था और अकेला बैठा खाना खा रहा था। मेरी रोटी खत्म हो गई थी, और रोटी की आशा में चुप बैठा था। तभी वह होटल वाला (बार-बार होटल वाला कहूँगा तो आप बुरा मान जाएँगे, चलिए, मान लीजिए उसका नाम है-शादीलाल) बाहर से गोश्त लेकर लौटा।

"नमस्ते जी!"
"कहो शादीलाल! कैसा चल रहा है?"
"त्वाडी मेरबानी है जी।"
उसने अपनी बत्तीसी दिखा दी। वह फिर बोला :
"क्या चाइए बाबूजी...रोट्टी?...ओ एऽऽ बाबूलाल!"

न तो 'बाबूलाल' और न किसी दूसरे नौकर ने ही शादीलाल को जवाब दिया। ग्राहकों को न देखकर और 'मालिक' को बाजार गया समझ शायद वे पीछे पत्ते खेल रहे हों। जो भी हो, शादीलाल झुंझलाया बहुत और पार्टीशन में लगी खिड़की के पार झाँकते हुए बोला :

"तू ही क्यों नहीं दे देती?..."

पार्टीशन के पीछे से किसी ने अपनी ठेठ पंजाबी में झल्लाते हुए बता दिया कि क्या उसे रोटियाँ भी बनानी होगी और खिलाना भी?

मैं सकते में आ गया, क्योंकि कभी न आते, न जाते "कभी तो किसी औरत की शक्ल इस होटल में मैंने नहीं देखी, फिर आज ये शादीलाल किसे पकड़ लाया? इतनी देर से मैं बैठा हुआ खाना खा रहा हूँ, पार्टीशन के इस दरवाजे में कभी तो इस बनाने वाली की चूड़ियों की आवाज सुनाई देती। रंगीन (मैला ही सही) सलूका पल्लू तक नजर नहीं आया। मगर अभी-अभी रोटियाँ तो वह मरियल-सा रसोइया बना रहा था, जो रोज बनाता है, जिसे किसी भी चीज की तमीज नहीं।"जिस समय रोटियाँ लेकर वह जवाब देने वाली आई तो मुझे खासी हैरत हुई। क्योंकि यह तो वही रसोइया था तो क्या यह औरत है? मर्द नहीं है तो क्या यह औ...र...त है??

मुझे एकदम घिन आ गई उन रोटियों पर, और उस पर वितृष्णा "जिसे मैंने औरत नहीं समझा था।

जिसे मैंने औरत नहीं समझा था वह रोज सने आटे की पीतल वाली परात के सामने खड़े होकर आटे के उस गीले पहाड़ में से, जिस पर एक गंदा-सा कपड़ा मक्खियों से बचने के लिए होता, थोड़ा-सा तोड़ लोइयाँ बनाती गोल-गोल । मैं जहाँ बैठता हूँ वहाँ से और पार्टीशन के दरवाजे से बस इतना ही दिखता है-लेकिन सोच सकता हूँ कि सामने की उसी ऊँची टेबल पर लकड़ी का एक पट्टा होगा या गोल चकला, जिस पर नाटी होने के कारण पंजों पर खड़े होकर इन लोइयों की रोटियाँ बनाई जाती होंगी फिर सीने के बराबर ऊँचे चूल्हे पर रखे बड़े-से तवे पर सेंककर लहकते अंगारे भरे दूसरे चूल्हे पर उन्हें सेंका जाता होगा और जिन 'रोट्टियों' को वो 'बाबूलाल' तथा दूसरे लड़के बिना राख झाड़े ही 'इस साब को' 'उन बाबूजी को' या 'ओ सेट्ठजी' के सामने ढेर में गँजा देते हैं।

जिसे मैंने औरत नहीं समझा था वह...नाटे कद की, बच्चों के बराबर मुँह, गेहुआँ मुरझाया रंग, झुर्रियों भरा चेहरा, पतले हाथ और हड्डी-भरी हथेलियाँ। उन हथेलियों की लकीरों में बर्तन साफ करते वक्त गिचगिची कलासी चीठी राख या रोटियाँ बेलते समय गीली लोई का आटा भर जाता है और जिसे वह पीतल की परात के ऊँचे किनारे से रगड़कर निकालती है। फुर्सत के समय उन लकीरों में भाग्य या लक्ष्मी ऐसे ही चिपकती है या नहीं नहीं मालूम। पैरों में लकड़ी की चट्टियाँ। बहुत ही कम घेर की गंदी सफेद सलवार "जिस पर चीठी राख, धूल, हल्दी की पोंछी हुई अंगुलियों के लंबे निशान, दाल तरकारियों के रंग-बिरंगे धब्बे। नाड़े का झूमरदार फंदा लटकता हुआ। एक छींट की चुस्त, देह से सटी कुर्ती, जो दूर से (दूर से ही क्या, पास से भी) देखने पर मैले कुर्ते-सी, जिस पर छींट के नन्हे-नन्हे फूल भी हैं, यह मुझे तभी मालूम हुआ जब मैंने उसे औरत समझा। छातियाँ मर्दो की-सी। सिर पर एक बड़ी-सी चादरनुमा कोई चीज फूली-फूली बँधी हुई। गले में आँट देकर जिसके दोनों पल्लू पीठ पर लंबे गिरे हुए। उसके चलने पर वे पल्लू हिलते। उन्हीं पल्लुओं से वह मुँह की राख झाड़ लेती, पसीना पोंछ लेती, शायद गर्मियों में पंखा भी उसी से कर लिया जाता हो, नाक साफ कर ली जाती, चूल्हा धम (धौंक) लिया जाता यानी वे पल्लू दुनिया के हर मर्ज की दवा थे। हलकी बारीक भीगी मसें। पथराया ठंडे गोश्त-सा चेहरा। मिट्टी में टीप दी गईं की तरह वे पीली जर्द आँखें।

और खाना मुझसे खाया नहीं गया।

छिः-छिः, कितनी गंदी औरत है यह जो राटियाँ बेल रही है अगर औरत है तो। और मुझे शादीलाल आदमी अच्छा नहीं लगा। अपने होटल में एक तो औरत रखता है और फिर इतनी गंदी "अरे, ये होते ही ऐसे हैं। शायद ये औरत भी इस होटल की एक तरकारी हो।

दूसरे होटल का मन में निश्चय करके मैं उस दिन एक रोटी कम खाकर उठ गया। इतना गंदा खाकर तो उल्टा बीमार पड़ जाऊँगा। यह कमबख्त शादीलाल दूसरों से ज्यादा नहीं, तो बुरा भी नहीं कमाता। पर क्या मजाल कि इस बात की कोशिश भी करे कि गाहक नए आएँ। गरजमंद की बात न्यारी है"आएगा नहीं तो जाएगा कहाँ? पर कुछ अपना भी किया-धरा होना चाहिए। बिस्कुट और बन, डबल रोटी तथा मक्खन के लिए एक-दो जाली वाली अलमारियाँ बनवा लेने से होटल करीने के हो गए होते तो फिर सब न कर लें? अंडे वाले, दूध वाले, 'छड़े' दुकानदार या ऐरे-गैरे नत्थू खैरे आ गए तो बस हो गया काममक्खियाँ चीजों पर उड़ती रहेंगी। टेबलें साफ की जाएँगी तो लोगों के कपड़ों पर जूठन गिरेगी ही गिरेगी, जरूरी बात है। चाहे आप सूट पहने हों, या तहमद लपेटे हों, शादीलाल के यहाँ का तो यही दस्तूर है।

रोटियाँ एक साथ प्लेटों में गँजा दी जाएँगी। गंदे गिचगिचे गिलासों में तिलकटा पानी टेबल पर जोर से पटककर दिया जाएगा। किसी दूसरे को प्याज खाते देख आपके माँगने पर दो बार अनसुना कर दिया जाएगा, और अगर लाया गया तो प्याज के साथ कंकड़ भी चबाइए। भला कोई पूछे तो इस शादीलाल से कि अगर इस सब पर आने वाले को शऊर भी न मिला तो कोई क्यों आएगा? आवाजें दीजिए"लौंडे हैं कि कानों में तेल डाले बैठे हैं।

अब यह बात दूसरी है कि बेचारा पाँच आने में खाना भी अच्छा दे और ऊपरी टीमटाम भी हो। खाना सस्ता भी है। तरकारियाँ बुरी नहीं देगा"खूब उबली होंगी, मसालों में पकाएगा भी...फिर शादीलाल कहता भी तो है :

"बाबूजी! आलू भी गोश्त के माफक ही दूंगा।"

और उसकी आँखों में चमक आ जाती है।

नान तो पहले बनाता था वह, मगर आज भी बड़ी-बड़ी जगहों के मुकाबले कबाब अच्छे ही देगा। फिर सौ बात की एक बात-भई, शादीलाल नेकदिल है, लापरवाह जरूर है मगर मनमौजी और जीवट का है। वरना दिल्ली की रहास यों ही आफत और फिर क्या था इस बेचारे के पास? जान हो, पहचान हो, कभी भी 'हसाब' पूछेगा नहीं, पैसे गिनेगा नहीं।

हाथ धोकर मैं रूमाल से हाथ पोंछ रहा था कि वह बोली"वैसे वो किसी से कभी भी नहीं बोलती "बस, बात की बात कर ली, बहुत हुआ तो :

"क्यों बाबूजी! आज एक रोटी कम खाई?"
"नहीं तो, रोज के जितना ही तो खाया है..."
और नोट मैंने 'बाबूलाल' को दिया।
"रोज तो तुसी पाँच खाते हो जी, आज चारै..."
लोई उसकी हथेलियों में सोचते हुए गोल हो रही थी।
“त्वाडी रोट्टी बाबू कल से ठीक बनाएँगे।"

और मेरी 'रोट्टियाँ' ठीक तो क्या बनीं; पर उस औरत के 'नमस्ते जी' में आत्मीयता आ गई। शादीलाल कई दिनों से मेरे पीछे पड़ा हुआ था, बात थी उसके कबाबों की। मैं गोश्त नहीं खाता, क्योंकि एक तो शौक नहीं और दूसरे 'सूट' भी नहीं करता। मगर शादीलाल भला एक बँधे ग्राहक को अपने मशहूर कबाब एक बार भी न खिलाए, यह जरा नामुमकिन-सी बात थी। मुझे क्या पता कि सींक कबाब में ज्यादा परेशानी होती है या शामी कबाब में। पूछने पर कह दिया था :

"अच्छा शादीलाल! तो फिर सींक कबाब।"

"तो पादशाओ...सेटरडे नाइट रही पक्की, भूल नहीं जाना तुसी। अरे बाबू जी, तुसी भी याद करोगे लौर वाले शादीलाल नूँ।"

और वह टीन की कुर्सी पर बैठा-बैठा अपनी पतली पूँछे उमेठता रहा।

शनिवार की रात को जब मैं शादीलाल के होटल पहुँचा तो आज उसने बड़े जोर से 'नमस्ते जी' झाड़ा। मंडी के कोने में यह होटल ही लाइटों से भरा था, बाकी दुकानों में, कुछ में अँधेरा और कुछ में कम पावर के बल्ब पीली रोशनी दे रहे थे। लोग-बाग बाहर दीवारों पर टँगी खाटें दुकानों में बिछाकर सुस्ता रहे थे।

मेरे बहुत कहने पर भी शादीलाल साथ खाने नहीं बैठा। आज वह दिन-भर कबाबों के पीछे ही पड़ा रहा। जब गोश्त को सींकों पर चढ़ाने की बात आई थी, तब से शादीलाल ने किसी दूसरे को उन्हें छूने नहीं दिया। आज की रोटियों के लिए आटा भी उसने अलग सनवाया था। उसने मनाही कर दी थी कि बाबू को आज कबाब के अलावा और कुछ न दिया जाए...कबाब और रोटियाँ!

फूली-फूली सफेद लाल बुंदकियों भरी रोटियाँ आती रहीं और मैं मिर्च वाले सौंफ की खुशबू के कड़क सुर्ख कबाब खाता रहा। शादीलाल अपनी उसी चाय की भट्ठी के पास बैठा हुआ संतोष के साथ बीड़ी पी रहा था। खाते वक्त वह मुझसे आँखें मिलाने को भी तैयार नहीं था। मेरे बार-बार बुलाने पर यही कहता रहा :

“पैले तुसी खा लो जी बादशाओ...गल्लाँ फेर कर लाँगे..."

रोटियाँ बनाते हुए उस औरत की आँखों में कितनी आत्मीयता थी? वे हड्डियाँ भरी हथेलियाँ, मुलायम लोई पर बहुत हौले घूमतीं...कैसे उम्दा सफेद गरम फूलों-सी रोटियों को उस औरत के हाथ जनम दे रहे थे। बाबूलाल से मैंने कहा कि महाराजिन से कहो कि एक आखिरी रोटी जरा खूब सिंकी-सी बना दे।

"ओ ए माराजिन नहीं बाबूजी! मेरी माँ है।"

कबाब के बदले दाँतों ने मेरी जीभ काट ली। गरम-गरम कबाब मेरे तालू में जलने लगा। मैं अचकचाकर उस 'बाबूलाल' को देख रहा था"छिले आलू में जैसे किसी ने दाँत और आँखों के गड्ढे बनाकर कह दिया हो कि ये 'बाबूलाल' है, और सबने उसे मान लिया कि हाँ, वह सचमुच का 'बाबूलाल' है।

खाँसते हुए शादीलाल ने वहीं से पूछा :

"ए की होया जी पादशाओ! बाबूलाल..."

बाबूलाल ने पंजाबी में शादीलाल को बताया कि बाबूजी ने माँ को महाराजिन समझा।

सच ही मुझे इस बात पर स्वयं पर बहुत क्रोध भी आया कि मैंने ऐसा क्यों समझा? पर और समझता भी क्या?

शादीलाल अब उठकर मेरे सामने आकर खड़ा हो गया था। उसके कानों की सोने की दोनों छोटी-छोटी मुर्कियाँ बल्ब की रोशनी में चमक रही थीं।

"बाबूजी! त्वानू पत्ता नेई, ए बाबूलाल मेरा लड़का है और ओ मेरी बीवी..."

"मुझे माफ करना शादीलाल..."

और मैं बिना कुछ कहे-सुने होटल से भागा।

छोटी-छोटी लेनों में से पैर बढ़ाए घर की ओर बढ़ा जा रहा था। किसी के रेडियो से 'नेशनल प्रोग्राम' हो रहा था। छोटे-छोटे बँगलों के अहाते वाले फाटक, दरवाजे, खिड़कियाँ सब बंद थे। उजालदानों से बँधी-बँधी रोशनियाँ आ रही थीं। तेज ठंडी हवा सपाटे मारती हुई चल रही थी। दूर पर गोल चौराहों की लाल बत्तियाँ जल रही थीं।

मैं अपने से भाग जाना चाहता था। दिमाग में उठते हुए प्रश्नों से मुँह छिपा लेना चाहता था। ठंडे कपड़ों में मेरा गरम शरीर भुरभुरा रहा था। रोओं की जड़ें तक फूल रही थीं।

जिसे मैंने औरत नहीं समझा था वह...
औरत भी है, पत्नी भी है और माँ भी है।
शादीलाल उसका पति है...
और बाबूलाल उसका लड़का है...वो औरत उसकी माँ है।

मगर ये कैसी औरत है?...उसके लंबे बाल कहाँ हैं?...पीठ पर के पल्लुओं में हों...मगर छुपाने की क्या जरूरत है? जवान शादीलाल की जवान बीवी क्यों नहीं? कब्र की तरह बुझी, ठंडी...सलवटों भरे गाल...सर्द कौड़ियों की तरह...नहीं, राख-भरे बुझे कोयलों-सी वे आँखें...शादीलाल की बीवी ऐसी क्यों है?...क्या बात है? जिसके ऐसी बीवी हो वह भी इतना खुश रह सकता है?....सुर्ख कबाब...सफेद लाल बुंदकियों भरी रोटियाँ, गरम सोंधी गंध के वे रोटियों के फूल...छिले आलू-सा बाबूलाल...और मैं उस रात करवटें बदलता रहा।

दुनिया में सब बात के नियम हैं। मोटी-सी बात है कि दूध पीने से स्वास्थ्य बढ़ता है, या खुशामद करने से नौकरी मिलती है या बरकरार रहती है। शादीलाल का भी नियम है, और जिसे वह बड़ी ही बेफिक्री से सुनाता है...

“अपना तो बाबूजी ए असूल है कि कुछ मत्त मानो, फेर वो दीन हो या दुनिया"...लेकिन शादीलाल के कहने भर से क्या होता है। वह ऐसा जरूर कहता है, पर झूठ कहता है। क्योंकि अपने होटल के लिए उसका यह नियम है जैसे...

पार्टीशन वाले दालान से लगे उन दोनों कमरों में, जहाँ कि लोग खाना खाते हैं, हर इतवार को गेंदे की नई मालाएँ लगाई जाएँगी और पुरानी उतारी जाएँगी। छत के बीच से दीवारों तक मालाओं का मंडप-सा उस दिन तन जाता है...लाल-पीले गेंदे के फूलों का मंडप...पता नहीं क्यों शादीलाल को गेंदा ही पसंद है। एक दीवारघड़ी है उसके पास...जिसके पेंड्लम वाले शीशे में सुरैया की तस्वीर चिपकी हुई है। तस्वीर की आँखें काटकर पेंडुलम में लगा दी गई हैं और पेंडुलम के हिलने से सुरैया दिन-भर आँखें मटकाती रहती है। दीवारों पर सोप कंपनियों, बीड़ी वालों, घड़ीसाजों के कैलेंडर वाले राधाकृष्ण, बालगोपाल, लक्ष्मी, सरस्वती आदि हैं, तो गुरुमुखी में छपे हुए कैलेंडरों में गुरुसाहब का वंश, अमृतसर का स्वर्णमंदिर, लाहौर के किले की दीवार में गुरुसाहब के दो बेटों को चुनवाने वाला चित्र बेला बजाते अशोक कुमार वाला पोस्टर, जिसके सिनेमा के नाम वाला हिस्सा हवा में बरसों से उड़ते रहने के कारण फट गया है, सभी तो हैं। इतवार को शादीलाल खुद या तो अपने हाथों से या खड़े रहकर इन्हें झड़वाना, पुंछवाना करवाता है। पानी से एक-एक चीज धोई जाती है। छत में टँगा लोहे की तीलियों वाला अंडों का छीका भी इस वीकली बाथ' से नहीं बच पाता।

रात को मैं देर से ही जाता हूँ उसके यहाँ। शनिवार की उस दिन वाली मेरी भूल के बाद शादीलाल और मैं बहुत निकट आ गए थे। अब वह कभी-कभी अपने प्लान सुनाया करता है कि वह भी 'कनाट प्लेस' में 'काके दा होटल' से भी अच्छा होटल खोलना चाहता है मगर...और इस ‘मगर' के पेट में पता नहीं शादीलाल की कौन-सी इच्छाएँ, उम्मीदें खोई हैं, और क्यों? लेकिन वह 'मगर' शादीलाल का पीछा नहीं छोड़ता है। बातें शुरू तो करता है जवानों की तरह, लेकिन उस 'मगर' के बाद वह एकदम पीला जर्द हो जाता है...कहीं खो जाता है, उसकी वे आँखें महज दो चमकते हुए गड्ढे भर रह जाती हैं, जिनमें न आब, न रोशनी।

आज भी मैं देर से पहुँचा तो देखा कि शादीलाल बाँस में पलीता लगाए तस्वीरों के पीछे के दो-तीन मधमक्खी के छत्तों को जलाने में लगा हुआ है।

"क्या कर रहे हो शादीलाल?"
"कुछ नहीं जी, ए भँमरमाल..."

और मधुमक्खियाँ छोटी खिड़की से बाहर उड़ी जा रही थीं।

शादीलाल बातूनी भी कम नहीं। दिल्ली की खुश्क सर्दियों में खाने के बाद लाल आँच में गरमाते हुए शादीलाल के साथ रावी और 'लौर' की सैर भी कम दिलचस्प नहीं होती। घूम-फिरकर बातें पार्टीशन के झगड़ों तक ही रोज होती थीं, उससे आगे नहीं। आँच पर अंगुलियाँ उलटते-पलटते हुए बोला :

“बाबूजी! क्या नहीं हुआ उसके बाद? मारकाट, जोर-जुलुम, छीना-झपटी "सब, ये सब हुआ बाबूजी! औरतों की अस्मत और आबरू कोई चीज रह गई थी? कुछ नहीं जी, ककड़ी के टूटने में तो थोड़ी आवाज भी होती है, मगर उतनी भी आवाज नहीं हई। मकान में जब आग लग जाती है न जी, तब कैसी दीवारें काली-काली और बदशक्ल हो जाती हैं...बस वैसे ही समझ लो जी...हमारे सबके जिस्म हो गए जी...वैसे ही तो हैं...हम सब बाबूजी..."

चप्पलों में ठिठुरते हुए अपने पैरों को आँच पर सेंकते हुए मैंने कहा :

"हाँ भाई! मगर तुम तो सही-सलामत आ गए न..."

और वह हँसा ...जैसे पेट में या पसलियों के पास कहीं बड़े जोर का जानलेवा दर्द उठा हो...

"अभी आपने जिंदगी देखी नहीं जी...याद है, मैंने आपके लिए कितनी मोहब्बत से कबाब बनाए थे? और आपने मेरी बीवी को, बाबूलाल की माँ को, उस दिन-माराजिन कहा था ...बाबूजी! सच्ची केता हूँ, बौत गुस्सा आया था आप पर ...बौत ही ज्यादा...नेजा मार देता जी..."

और मैं काँप गया। मेरी पिंडलियाँ फड़क रही थीं। वह हलके हँसते हुए बोला :

"डरिए नहीं बाबूजी! किस्मत ही फूटी हो तो फिर क्या ...जाने दीजिए जी..."

और उसने मेरे कंधे थपथपा दिए। अँगीठी की लाल आँच में उसका मुँह तपाए ताँबे-सा लग रहा था।

"शादीलाल, मुझे मालूम नहीं था, बहुत शर्मिंदा हूँ, माफ करना।..."

उसकी बल्लेदार मजबूत बाँहों वाली खुरदरी हथेलियों ने मेरी कलाइयाँ कसकर थाम लीं।

"बाबूजी ...माफी की क्या बात है, पर "एक बात हमेशा जी, पसलियों में फंसी रहती है..."

और इतना कहकर वह चुप हो गया। शायद उसका दर्द और गुस्सा उन खुरदरी हथेलियों में लोहे की तरह धात बन गया था ...मेरी कलाइयाँ दर्द कर रही थीं।

"इसमें छुपाना क्या बाबूजी...ईमान की बात है...मेरी बीवी बेइज्जत की गई, सरेआम ...और उसकी दोनों छातियाँ काट डालीं..."

कलाइयों पर लोहे के पंजे गड़ रहे थे। और पार्टीशन के उधर से शादीलाल की बीवी परात पर जोर से चिमटा बजाते हुए चीखी,

“ओ ए, चुप कर, तैनूँ हो कुछ नई आंदा?

कान पर रखी आधी जली बीड़ी पर शादीलाल का हाथ गया।

मैं उठ पड़ा। शादीलाल की आँखें ...दो लाल उबलते तेल के...तले के कुछ नहीं, बस वे आँखें फुफकार रही थीं।

दस बजे रात का कुहरा घना होता जा रहा था। सर्द हवा पेड़ों पर से कूद-कूद सड़कों पर बेतहाशा दौड़ लगा रही थी। मेरे मुँह, हाथ, पैर सब थीजे (जमे) जा रहे थे।

मैंने जिसे औरत नहीं समझा था...

छातियाँ कट जाने के बाद ...शायद फिर माँ न बन सकी...दूध जो न उतरता होगा...उससे उसकी इज्जत और छातियाँ लेकर लोगों ने उसे मर्द बना दिया ...बिना दूध की छातियों वाली शादीलाल की बीवी ...बाबूलाल की माँ...मर्द है...नहीं, कल से वहाँ नहीं जाऊँगा...।